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सुदर्शिनी टोका अ० ३ सू० १० पुनरपिसागरस्वरूपनिरूपणम् ३०३ 'उत्तासणगं' उनासनक-चित्तक्षोभकारकम् ' अणोरपारं' अनर्वापारम् अलधापारपर्यन्तं ' आगासं चेव निरवलंबं ' आकाशमिव निरवलम्बम् आधाररहितं तत्र पतद्भिर्न किश्चिदालम्बनमुपलभ्यते इति भावः, उप्पाइय पक्षणधणियणोल्लिय उवरुवरितरंगदरियअइवेगं ' तथा औत्पातिकपघनघनोदितो पर्युपरितरङ्गतातिवेगम् औत्पातिकेन = उत्पातजनितेन पवनेन वायुना= 'धणिय ' इति अत्यन्तं नोदिताः प्रेरिताः उपर्युपरि-उर्बोचं ये तरङ्गास्ते च ते दृप्ताः-गर्विता इव अतिवेगा: महावेगाः यत्र स तथा तं उत्पातजनितपवनेन अतिवेगतरङ्गयुक्तमतएव ' चक्खुपहमोच्छरंतं ' चक्षुष्पथमवतणन्तं चक्षुष्पथंदृष्टिपथम् अवस्तृणन्तम् आच्छादयन्तं द्रष्टुमप्यशक्यं किं पुनस्तमित्यर्थः, तथा ' कत्थइ ' कुत्रचित् क्वचित्प्रदेशे गम्भीर = अलब्धं मध्यं पुनः · विउलगज्जियगुंजियनिग्घायगरुयनिवडियसुदीहनीहारिदूरसुच्चंतगंभीरधुगधुगंतिसई । विपुलगर्जितगुजितनिर्घातगुरुकनिपतितसुदीर्घनिर्हादिदूरश्रूयमाणगम्भीरदुगधुगितिशब्दं = तत्र विपुलं = विशालं गर्जितं = मेघवद् अनिः तथा गुञ्जितं भय का प्रतिस्वरूप बना रहता है ( उत्तासणगं) चित्त में जिसे अवलोकन कर क्षोभ हो जाता है, ( अणोरपारं) जिसका दूसरा तट अलब्ध होता है (आगासं चेव निरविलंबं) आकाश की तरह जिसमें प्राणियों को पड़ जाने पर कोई भी आधार प्राप्त नहीं होता है, ( उप्पाइयपवण) उत्पात जनित पवन से (धणिय णोल्लिय ) अतिशय वेगशाली होकर ( उवरुवरि ) एक दूसरे के ऊपर पड़ती हुई ( तरंगदरिय ) गर्वित तरंगों से ( अइवेगं ) अत्यंतवेग हो रहा है। ( चक्खुपहमोच्छरंतं ) जिसका देखना भी अशक्य है तो फिर वहां तैरने को तो बात ही क्या है (कत्थहगंभीरं) कीसी २ प्रदेश में जो बहुत ही अधिक गंभीर भने तेथी ०४ " भयंकर" अयनी प्रतिभूति दाग छ, “ उत्तासणगं"तुं मोन ४शन चित्तमा क्षोम थाय छ, “ अणोरपार "नी भी नारे। सय डाय छ-रेन पा२ पामो हु४२ छ, “आगासंचेव निरवलंब " माशनी ममा प्रासाने ५&andit] माघार भगता नथी "उप्पाइ य पवण" Sत्पात नित पवनथी “धणिय णोल्लिय" अतिशय वेम मावी
धन. “ उवरुवरि" मी011 S५२ ५३तi " तरंगदरिय" गावित भातसाथी “ अइवेग” ले अत्यंत वेगयुत मनी २डा छ, “ चक्खुपमोच्छर तं" જેને જોઈ શકે પણ અશક્ય છે તે ત્યાં તરવાની તે વાત જ ક્યાં છે! "कत्यइगंभीर" | प्रदेशमा २ घरी! पधारे मार डाय ,
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