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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८२८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे मत्स्यण्डिका='मिश्री'ति प्रसिद्धा च यस्मात्सः, तथा-मधुप्रसिद्धम् , खाद्यकं 'खाजा' इति प्रसिद्धम् , इत्यादि लक्षणाभिः विकृतिभिः परित्यक्तो यः सः, अनयोः कर्मधारयः, एतद्रूपो यः आहारः स कृतो येन स तथोक्तः, अन्त-प्रान्तभोजीत्यर्थः निष्ठान्तस्य पूर्वनिवातः, एतादृशः साधुः 'न' नैव ' दप्पणं' दर्पणं-दर्पकारकं भोजनं भुजोत । तथा-न 'बहुसो' बहुशः दिनमध्येऽनेकवारं भोजनं कुर्वीत । तथा-' न निइगं' नैत्यिक-नित्यपिण्डं भुञ्जीत, तथा-न ' सायमुष्पाधिगं' शाकसूपाधिकंभोजनं भुञ्जीत । तथा-' खद्धं' प्रचुरं भुञ्जीत । कथं तर्हि भोक्तव्यम् ? इत्याह- तहा' तथा ' भोत्तव्यं ' भोक्तव्यम् , ' जहा' यथा-तद् भोजनं ' से ' तस्य ब्रह्मचारिणः, 'जायमायाए ' यात्रोमात्राय, यात्रायै-संयमयात्रानिर्वाहाथ या मात्रा-बाहारपरिमाणरूपा भगवनिर्दिष्टा गा यात्रामात्रा तस्यै, शर्करा, मिश्री, इनसे रहित तथा मधु खाजा, इत्यादिरूप विकृतियोंसे रहित आहार करना चाहिये । अर्थात् साधुको अन्त प्रान्तभोजी होना चाहिये। जो साधु इस प्रकार का ओहार लेता है वह युक्त नहीं हैं-उसे (न दप्पणं) दर्पकारक भोजन नहीं करना चाहिये (न बहुसो) नदिन में अनेक बार भोजन करना चाहिये ( न निइगं) न उसे नित्य पिंड भोजी ही होना चाहिये और (न सायसूचाहिय) :न उसे शाक और दाल की अधिकतावाला भोजन ही करना चाहिये (न खई) न उसको प्रचुरमात्रा में भोजन करना चाहिये । किन्तु इस प्रकार से भोजन करना चाहिये कि (जहा ) जिससे वह भोजन (से ) उस ब्रह्मचारी की ( जायामायाए भवइ ) यात्रा मात्रा के लिये हो अर्थात् संयम के निर्वाह के लिये हो । यात्रामात्रा का तात्पर्य है कि संयमनिर्वाह रूप यात्रा के लिये आहार का परिमाण जितना प्रभु ने निर्दिष्ट किया है वह आहार રહિત તથા મધ, ખાજ ઈત્યાદિ વિકૃતિઓથી રહિત આહાર કરવો જોઈએ. એટલે કે સાધુએ અન્ત પ્રાન્તભેજી થવું જોઈએ. જે સાધુ આ પ્રકારનો આહાર से छे तेथे " न दप्पणं " ६५४।२४ मापन न नही. “न बहुसो" हिवसमा भने १२ सोन सेवन नही 'न निइगं" तेणे नित्यपि सो थ मे नही, भने “न सायसूवाहियं " तेणे पधारे । सुरत लोन दो नही न खई" तो पधारे प्रमाण मान ४२ नई नडी. पर मेवी रीत लोसन ४२ मे "जहो" थी ते मानन "से" ते प्रझयारीनी “जायामायाए भव' यात्रभावाने माट હોય, એટલે કે સંયમના નિર્વાહ માટે જ હોય. યાત્રામાત્રાનું તાત્પર્ય એવું છે કે સંયમ નિર્વાહરૂપ યાત્રાને માટે ભગવાને આહારનું જેટલું પ્રમાણ દર્શાવ્યું For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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