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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनीटीका अ० २ सू०१५ मृषावादिना लरकादिप्राप्तिरूपफलनिरूपणम् २४९ असत्केन-असद्रूपेण अथवा अशान्तकेन अनुपशान्तेन 'डज्झमाणा' दह्यमानाःप्रज्वल्यमाना 'अवमाणगा पिट्ठिमंसाहिक्खेवपिसुणभेयणगुरुबंधवसयणमित्तावक्खारणादियाई ' अपमाननपुष्टिमांसाधिक्षेपपिशुनभेदनगुरुवान्धव स्वजनमित्रापक्षारणादिकानि-तत्र अपमाननम् मानभङ्गः, पृष्ठिमांसं-परोक्षे दोषभापणं, अधिक्षेपःधिक्कारपूर्वकनिन्दनं, पिशुनभेदन-पिशुनैः = खलैः भेदन-प्रेमसम्बन्धविच्छेदन, गुरुवान्धवस्वजनमित्राणामपक्षारणं रूक्षवचनस्तर्जनं, अथवा-भिन्नादिभिर्वहिष्करणं च एतानि आदि येषां तानि तथा भूतानि, 'अभक्खागाई' अभ्याख्यानानि असत्यदोषारोपणवचनानि 'वहुविहाई बहुविधानि-नानामकाराणि 'अमणोरमाई' अमनोरमाणि-मनःप्रतिकूलानि ‘हिययमणदुमगाई' हृदयमनोदावकानि य अलिएण असंतएणं ) मृषावादीजन इस असदूध अथवा अनुपशान्त मृषावाद से ( उज्झमाणा ) रातदिन जलते रहते हैं और (अवमाणणपिहिमंसाहिक्खेवपिस्तुणभेवणगुरुरंधवसयणभित्ताऽवक्खारणादियाई ) ( अवमाणण ) अपमान सहन करते हैं। ( पिद्विमंस ) हरएक कोई इनकी पीठ पीछे निंदा करते हैं। ( अहिक्खेब ) प्रत्येक व्यक्ति इन्हें धिक्कारता रहता है । ( पिउण भेषण ) दुष्ट लोग इनके प्रेमसंबंध को विच्छेद करा देते हैं गुरुबंधवसयणमित्ता) गुरुजन, बंधुजन, स्वजन एवं मित्र ( अवक्खारणाइथाई) रूक्ष वचनां द्वारा इनका अनादर करते हैंडाटते डपते रहते हैं, अथवा ये सब इन्हें अपने में से बाहर निकाल देते हैं (अब्भक्खाणाई) चाहे जो मनुष्य इन पर असत्य दोषारोपण कर दिया करता है । इस प्रकार ये लोग असत्यदोषारोपण वचनों को कि जो (बहुविहाई ) नाना प्रकार के होते हैं, (अप्रणोरमाइं) मन को विभुभ २९ . तथा “ तेण य अलिएण असंतरण " भुषावादी भासद्र५ अथवा मनुपशान्त भूषापाथी “डज्झमाणा" शतहिन ता २६ छ भने " अवमाणपिट्ठिमंसाहिखेपपिसुणभेयणगुरुबंधवसयणमित्ताऽवक्खारणादियाई " " अवमाणण” २५मान सहन रे छ, “पिटुमंस” ४२४ व्यति तेनी पीठ पा४७१ निहा रे छ, “ अहिक्खेव” १२४ व्यक्ति तेन घिसारे छ, " पिसुण भेवण" दुष्ट सो तेमना प्रेम समयमा मगाए। पावे छ," गुरुबंधवसयण मित्त" शुसान, मधुरान, स्थान भने भित्र “ अवक्खारणाइयाई" हा२ वयनी द्वारा तेमनी मनाइ२ ४२ छ-धा घमी मापता २ छ अथ! ते ५धा तेमने पोतानी पच्यथा पा२ (ढी भूछे. " अब्भक्खाणाई" તેમના ઉપર લેકો ગમે તે પ્રકારનું દષારોપણ કર્યા કરે છે. આ રીતે તે લેકે मसत्य होपा५९ १९२४ वयो, 2 " बहुविहाई” विविधारना हाय छ, “ अमणोरमाई” भनने न गमे तवाय छ, तथा “हिययमणदुमगाई" प्र० ३२ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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