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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६१८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे टीका--' तस्स ' इत्यादि । ( तस्स ' तस्य प्रसिद्धस्य ' पढमस्त वयस्स' प्रथमस्य व्रतस्य = अहिंसा व्रतस्य 'इमा पंच ' इमाः पञ्च ' भावणाओ ' भावनाः=भाव्यते वास्यते आत्मा याभिस्ताः ईर्यासमित्यादयः 'हंति भवन्ति । किमर्थ पञ्च भावना भवन्ती ? - त्याह 'पाणाइवाय वेरमणपरिरक्खणट्टयाए ' माणातिपात विरमण परिरक्ष णार्थाय = प्राणातिपातविरमणलक्षणस्य प्रथममहाव्रतस्य परिरक्षणार्थाय । तत्र इन व्रतों को स्थिर रखने के लिये प्रत्येन व्रत की पांच २ भावनाएँ हैं सो अब सूत्रकार अहिंसाव्रत की जो पांच भावनाएँ होती हैं उनमें सब से पहिली ईर्ष्या समितिरूप पहिली भावना को प्रकट करते हैं' तस्स इमा' इत्यादि० । टीकार्थ - ( तस्स) उस प्रसिद्ध ( पढमस्स वयस्स) प्रथमव्रत की (इमा पंच भावणाओ हूंति ) ये ईर्यासमिति आदि पांच भावनाएँ होती है। क्यों कि इन भावनाओं से ( पाणाइवाय वेरमणपरिकखण्डाए) प्राणातिपातविरमण रूप जो अहिंसा व्रत है उसकी अच्छी तरह रक्षा होती है । तात्पर्य कहने का यह हैं कि अत्यन्त सावधानी के साथ विशेष २ प्रकार की अनुकूल पट्टत्तियों का सेवन न किया जाय तो स्वीकार करने मात्र से ही व्रत आत्माको अपने रूप नहीं बना सकते हैं, अर्थात् वे आत्मा में चिरस्थायी नहीं रह सकते हैं, निर्दोषरूप से सावधानी के साथ उनका पालन नहीं हो सकता है वे यथार्थरूप में आत्मा में नहीं उतर सकते । ग्रहण किये हुए व्रत जीवन को यथार्थरूप से अपने रूप में रंग सके- अपनी अटल छाप आत्मा पर जमा सकें इसलिये प्रत्येक व्रत के For Private And Personal Use Only 64 એ પાંચ નતાને સ્થિર રાખવા માટે પ્રત્યેક વ્રતની પાંચ પાંચ ભાવના છે. હવે સૂત્રકાર અહિંસાત્રતની જે પાંચ ભાવના છે તેમાંની સૌથી પહેલી य समिति यहि सा यांग भावना प्रगट उरे छे" तरस इमा " इत्यादि "" तरस ते प्रसिद्ध "पढमस्स वयस्स" प्रथम व्रतनी "इमा पच भावणाहुति " समिति आहि या पांथ लावनाओ होय छे. अशशु ते भावनाओ थी “ पाणा इवाय वेरमणपरिरक्खणडोए " आशुतियात विरमधुप પ્રાણાતિપાત વિરમણરૂપ જે અહિંસાવ્રત છે તેની સારી રીતે રક્ષા થાય છે. કહેવાના ભાવ એ છે કે અત્યંત સાવધાનીથી ખાસ ખાસ પ્રકારની અનુકૂળ પ્રવૃત્તિયાનું સેવન ન કરાય તે સ્વીકાર કરવા માત્રથી જ વ્રત આત્મામાં ચિરસ્થાયી રહી શકતું નથી નિર્દોષ રીતે સાવધાનીથી તેનુ પાલન થઈ શકતું નથી. તે યથાર્થ રૂપે આત્મામાં ઉતરી શકતાં નથી. ગ્રહણ કરાયેલ ત્રતા જીવનને યથાર્થ રીતે પોતાના રંગે રંગી શકી-પેાતાની અટલ છાપ આત્મા પર જમાવી શકે-આત્મામાં ઉંડાણુથી પ્રવેશી શકે, તે માટે પ્રત્યેક વ્રતને અનુકૂળ
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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