Book Title: Prashnavyakaran Sutram
Author(s): Kanhaiyalalji Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti

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Page 962
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०८ 'चक्षुरिन्द्रियसंवर'नामकद्वितीयभावनानिरूपणम् ९१३ तेजो यदि रक्तानुगतं पित्तानुगतं श्लेष्मानुगतं च भवति, तदा जातकः क्रमेण रक्ताक्षः पिङ्गाक्षः शुक्लाक्षश्च भवति । तथा विनिहतः-विनिहतचक्षुष्क इत्यर्थः; उत्पत्त्यनन्तरं यस्य नेत्रद्वयं नष्टं स विनिहत उच्यते। तथा 'सप्पिसल्लग' सपिशाचकः = पिशाचगृहीत इत्यर्थः । अथवा-सर्पिशल्यकः, इतिच्छाया । तत्र--सी-सर्पतीति सी, सर्पणशील इत्यर्थः । अयं हि पीठे समुगविश्य तत् जङ्घायोः कटयां च दृढं बद्धा हस्तयोः पादुके आदाय, तदाश्रयणेन सर्पतिसरति, अत एवायं सीत्युच्यते । अयं किल गर्भदोषाकर्मदोषाच्च भवति । शल्यका हृदयशल्यादि रोगवान् । उभयोः कर्मधारयः। तथा-व्याधिरोगपीडितः= व्याधिना-चिरस्थायिपीडया, रोगेण-सयोघातिपीडयाच पीडितो यः स तथोक्तः एषां समाहारद्वन्द्वस्तत्तथोक्तम् , तथा-'विगयाणि य मयकलेवराणि ' विकृतानि च मृतकलेबराणि तथा-' सकिमिणकुहियं च ' सकृमिकथितं च-सह कृमिभिः, है तो वह शुक्लाक्ष उत्पन्न होता है। विनिहत-विनिहतचक्षुउत्पत्ति के बाद जिसके नेत्र फूट जाते हैं वह चिनिहतचक्षुक कहलाता है ऐसे प्राणी सपिसल्लग-पिशाचहीत अथवा सर्पिशल्यक-सी-पीठ पर बैठ कर जो उसे दोनों जंघाओं से कटि पर मजबूती के साथ वांधकर और दोनों में दो काष्ठ आदि की पादुकाओं को लेकर उसके सहारे से सरकता है उसका नाम सी है ऐसे सरकने वाले व्यक्ति को कि जो गर्भदोष से और अपने कर्म के दोष से-अशुभ कर्म के उदय से उत्पन्न होता है, ऐसा शल्यक-हृदय शल्यादि रोगवाला, व्याधिरोग पीडितव्याधिरोग से पीडिल प्राणी, अर्थात्-चिरस्थायी पीडारूप व्याधिसे तथा सद्योघाति रोगरूप पीटा से जो कष्ट पा रहा है ऐसे दुःखित जीव, इन सब को देख कर इनमें द्वेष तथा घृणा नहीं करनी चाहिये । (बिगयाणिय मयकलेवराणि ) विकृत हुए मृतक कलेवरों को, (सकिमिण थाय छे. विनिहत-विनिहत्य - म पछी नी भी छूटी तय छे ते विनि. तय हेवाय छ. सपिसल्लग-पिशायडित २५१ शपिशव्य-साधी-पी४५२ બેસીને અથવા બને જાંઘને કટિ પર મજબૂત રીતે બાંધીને અને બંને હાથમાં બે લાકડા આદિની ઘાડી લઈને તેની મદદથી જે જમીન પર સરકે છે તેને સર્ષિ કહે, છે. એ રીતે સરકનાર વ્યક્તિ કે જે ગર્ભષથી-અશુભ કર્મના ઉદયથી ઉત્પન્ન થાય છે, "शल्यक'-६६३८य माहि वाणा, व्याधि ।पीडितव्याधि रोगथी पीsadi પ્રાણી એટલે કે દીર્ઘકાળતી ચાલ્યા આવતા પીડારૂપ વ્યાધિથી તથા હંમેશ રોગરૂપ પીડાથી પીડાતા દુઃખી એ બધાને જોઈને તેમના પ્રત્યે દ્વેષ કે ઘણા કરવી मध्ये नही. “ विगयाणिय मयकलेवराणि" विकृत थयेस भृत शरीप्र ११५ For Private And Personal Use Only

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