________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सुदर्शिनी टीका अ०५ सू। ६ संयताचारपालकस्य स्थितिनिरूपणम्
८८९
'पावयणं ' प्रवचनं ' भगाया ' भगवता ' सुकहियं ' मुकथितम् ; ' अलहियं ' आत्महितम् , ' पेचाभावियं ' मेत्यभाविकम् 'आगमेसिभदं ' आगमिष्यद्भद्र 'सुद्धं ' शुद्धं ' नेयाउयं ' नैयायिकम् ' अकुडिलं' अकुटिलम् ' अणुत्तरं ' अनुत्तरं 'सव्वदुक्खपावाणं ' सर्वदुःखपापानां ' विउसमणं' व्युपशमनम् । एषां व्या. ख्या पूर्व गता । ' तस्स' तस्य-अपरिग्रहनामकस्य ' चरिमस्स' चरमस्य अन्ति मस्य ' संवरदारस्स' संवरद्वारस्य 'इमा पंच भावणाओ' इमाः वक्ष्यमाणाः पञ्च भावनाः 'हुति ' भवन्ति । किमर्थं भवन्ति ? इत्याह-' परिग्गहवेरमणरक्षणढयाए ' परिग्रहविरमणरक्षणार्थतायै-अपरिग्रहपरिरक्षणार्थमित्यर्थः ॥ सू० ६ ॥ व्रत की रक्षा के लिये ( भगवया सुकहियं) भगवान् ने कहा है । यह (अत्तहियं ) आत्मा का हितकारक है। (पेचाभावियं ) परलोक में भी शुभ फल का दाता है । इसी निमित्त से यह (आगमेसि भई ) भविज्यत् काल में कल्याण प्रद है यह ( सुद्धं ) सर्वथा निर्दोष है। (नेयाज्य) वीतराग सर्वज्ञ एवं हितोपदेशक प्रभु द्वारा भाषित होने से न्याय संपन्न है। (अकुडिलं) ऋजुभाव का जनक होने से अकुटिल है। (अणुत्तरं) सर्व श्रेष्ठ होने से अनुत्तर है। तथा ( सव्वदुक्खपावाणं) समस्त प्रकार के दुःख जनक ज्ञानावरणीय आदि अष्ठविध कर्मों का (विउसमर्ण) उपशमक है। (तस्स चरिमस्स संवरदारस्स) उस अन्तिम संवरद्वार की (इमा पंचभावणाओ) ये वक्ष्यमाण पांच भावनाए हैं जो (परिग्गहवेरमणरक्खणठ्याए हुति ) परिग्रह विरमण व्रत की रक्षा करने वाली होती हैं ।। सू०६ ॥ वया सुकहियं" मापाने ४डा छ “ अत्तहियं " आत्मानुं २४ छ. “ पेशा भावियं ' ५२४मा ५१ शुभ ५॥ ना३ छे. मे २४ ४१२ ते " आगमेसि भर" नविष्यमा ४८याहायी छ, ते " सुद्धं " तदन निषि छ" नेयाउयं" વિતરાગ સર્વજ્ઞ અને હિપદેશક પ્રભુ દ્વારા કથિત હેવાથી તે ન્યાયયુક્ત છે. "अकुडिलं " *न्नुमापनुं 13 पाथी ते Alta “ अणुत्तर" सबश्रेष्ठ उपाथी ते मनुत्तर छ. तथा “सबदुक्खपाबाणं" समस्त ४२।।
मन साना१२०१५ मा ४।२भनि “ विउसमणं " ५शमन ४२ना२ छ. "तस्स चरिमरस संबरदारस्स" ते मन्तिम १२वारनी " इमा पंचभावणाओ " 20 प्रमाणे पाय लावनामे छ ? “परिगग्गहवेरमणरक्षणट्रयाए हंति" परिग्रह विमा व्रतनी २६॥ ४२नारीय छे ॥ सू. ६॥
For Private And Personal Use Only