________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्रश्नव्याकरणसूत्रे दाहकत्वमप्रकाशयन्नप्यन्त ज्वल्यमानो भवति, तथैव श्रमणो बहिः शुष्को रूक्षः कान्तिरहितोऽप्यन्तः स्तपोजनितदीप्त्यादेदीप्यमानो भवतीति भावः । तथा'जलियडयासणो वित्र ' ज्वलितहुताशनइव-प्रदीप्तानिरव · तेयसा ' तेजसाज्ञानरूपतेजसा 'जलंते ' ज्वलन् दीप्यमानः, भावतमोविनाशकत्वात् ‘गोसीसचंदणंपिव ' गोशीर्षचन्दनमिव — सीयले ' शीतला मनस्तापोपशमनात् 'सुगंधी य' मुगन्धिना, सुरभिगन्धेन शीलसौगन्ध्यात् हरओ विव' हदक इव-जलाशय इव — समियभावे ' समिकभावः सम एव समिकः, स भावो यस्य सः, अयं भावः-यथा ह्रदो वाताभावे तरङ्गाभावेन निम्नोनतराहित्येन समाकारतया परि जायतेए ) भस्म राशि से छन्न अग्नि जिस प्रकार ऊपर से अपने दाहकत्व परिणामको प्रकाशित नहीं करती हुई भी भीतरमें जाज्वल्यमान रहा करती है उसी तरहसे वह साधु भी बाहिरसे शुष्ककाय, रूक्ष और कान्तिरहित होता हुआ भी भीतरमें तपजनित दीप्तिसे देदीप्यमान होता है। तथा-(जलिय हुथासणोंविव तेयसा जलंते) प्रदीप्तवह्नि जिस प्रकार अपनी प्रभा से चमकती रहती है उसी प्रकार यह भी भावतम का विनाशक होने से ज्ञानरूप तेज से चमकता रहता है । (गोसीसचंदणंपिव सीयले ) गोशीर्ष चंदन जिस प्रकार शीतल और सुगंधित होता है उसी प्रकार यह साधु भी मनस्ताप के उपशमन से शीतल होतो हैं
और (सुगंधीय हरओविव समियभावे ) शील की सुगंधी से इद की तरह समभाववाला अर्थात् जिस प्रकार जलाशय वायु के अभाव से तरंगों के उत्थान पतन से रहित होने के कारण ऊचा नीचा नहीं रात्रिच्छन्नेव जायतेए'' मना l नीये २७सी मनि ५२थी पोताना દાહકતા પ્રગટ કરતી નથી છતા અંદર સળગતી પ્રકાશિત રહે છે, તેમ તે સાધુ પણ બહારથી શુષ્ક શરીર વાળે, રૂક્ષ અને કાતિ રહિત હોવા છતાં ५५५ महथी त५ नित तेथी दीप्यमान डाय छे. “जलिय यासणोविव तेयसा जलंते " प्रीत भनि म पोताना तेथी २४ती २७ छ तेम त ५९५ लावतमना विनाश पाथी ज्ञान ३५ तेथी यम तो २७ छ. "गोसीसचंदणंपिव सोयले " म शीर्ष न त मने सुगचित डाय छ तर आरे भनन ताप उपशमन थवाने ४।२0 शीत य छे भने “ सुगंघियहरओविव समियभावे" शीलनी सुगधथी स२।१२ना समान समभाव વાળ હોય છે, એટલે કે જેમ વાયુના અભાવે તરંગેના ઉથાન તથા પતનથી રહિત હોવાને કારણે સરોવરની સપાટી ઊંચીનીચી લાગતી નથી પણ
For Private And Personal Use Only