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प्रश्नव्याकर णसूत्रे ज्य:-अपरिभवनीयो ' होइ' भवति, तथैव साधुः परीपहेरपराजितो भवति । तथा 'सारयसलिलं व शारदसलिलमिव शरस्तुसम्बन्धिजलमिव 'सुदहियए' शुद्धहदयः -स्वच्छान्तः करण इत्यर्थः, तथा 'भारंडे चेच' भारण्ड इव-भारण्डपक्षीय ' अप्पमत्ते' अप्रमत्तः प्रभादवर्जितः ‘खग्गिविसाणं व' खनिविषाणमिव खड्गी-' गेडा' इतिप्रसिद्धो बन्यश्चतुष्पदविशेषः, तस्य विषाणं-शामिव 'एग जाए' एकजात:यथा-खगिनः शृङ्गामेकं भवति, तथैव साधुरपि रागद्वेषरहित एकाकी भवति । तथा-' खाणूव ' स्थाणुरिव — उडकाए' ऊनकायः कायोत्सर्गकाले, तथा ' मु. णगारेच' शून्यागारमित्र अप्रतिकर्मा शरीरसंस्कारवर्जित इत्यर्थः, तथा 'सुण्णागारावणस्संतो' शून्यागारापणस्यान्तः शून्यस्यागारस्यापणस्य च अन्तःमध्ये
निवायसरणप्पदीवज्झामणमिय' निर्वातशरणप्रदीपथ्यापनमिव-निर्वातो वातर-- हितो यः शरणप्रदीप-गृहप्रदीपस्तस्य ध्यापनमिव-प्रज्वलितशिखेव 'निष्पकंपे ' देशविरति श्रावकों की अपेक्षा सकलसंयम का अधिपति और परिषहों से अपराजित होता है। (सारयासलिलं व सुद्धहियए) वह शरत् ऋतु संबंधी जल के समान स्वच्छ अंतः करण वाला होता है, ( भारंडे. चैव अप्पमत्ते ) भारंडपक्षी के समान वह प्रमाद से वर्जित होता है, (खग्गिविसाणं व एगजाए ) गेडो के सींग के समान वह एक जात होता है-अर्थात् जैसे गेंडा का श्रंग एक ही होता है उसी तरह साधु भी रागद्वेष रहित होने से एकाकी ही होता है। (ग्वाणूव उड्डकाए । स्थाणु जिस प्रकार उर्ध्वकाय होता है उसी प्रकार साधु भी कायोत्सर्ग के समय उर्ध्वकाय होता है। (सुण्णागारेव्य अपडिकम्मे ) शून्य गृह जैसे संस्कार विहीन होता है उसी प्रकार साधु भी शारीरिक संस्कार से घर्जित होता है । (सुण्णागारावणस्संनो निवायसरणप्पईवज्झामणमिव અજેય હોય છે તેમ સાધુ પણ દેશ વિરતિ શ્રાવકોની અપેક્ષાએ સકળ સંચमना अधिपति भने ५२५४ाथी अ५२रित खाय छ. “ सारयसलिलं व सुद्धहियए" ते १२४ तुन जना समान २१२७ मत:४२पाणे डाय छे. “भारण्डे चेव अप्पमत्ते" ला पक्षीना कोते प्रभाह २हित हाय छ. खग्गिविसाणं व एगजाए " ना शिगानी रे ते मी डाय छे. मेटले કે જેમ ગેંડાને એક જ શિંગડું હોય છે તે પ્રમાણે સાધુ પણ રાગદ્વેષ डित पाथी ilaz खाय छ. " खाणूवउड्ढकाए " स्थ म 34°४.य छ तम साधु पार आयात्सना समये चाय डाय छे. “सुण्णागारेव्व अपडिकम्मे " माली मान म स२ विडीन डाय छ तम सा५ ५५ २ ५४२ २डित डाय छ, “सुण्णागारावणस्संतो निवायसरणप्पड़
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