Book Title: Prashnavyakaran Sutram
Author(s): Kanhaiyalalji Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 915
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नध्याकरणस्ने कस्मिन् ? इत्याह-'उज्जलबलविउलकक्खडपगाढदुक्खे' उज्ज्वलबलविपुलकर्कशप्रगाढदुःखे, तत्र-उज्ज्वलं-सुखलेशवर्जितम् , घलंबलवत्-महाकष्टजनकम् विपुलम् आत्मप्रतिपदेशे नदीवेगवत्प्रवर्द्धमानम् , कर्कशं = कठोरम् , दुःसह्यत्वात् , प्रगाढं-प्रकृष्टं प्रतिक्षणमसमाधिजनकत्वात् यदुखं तस्मिन् , कथम्भूते दुःखे ? 'असुभकडयफरुसचंडफलविवागे' अशुभकटुकपरुषचण्डफलविपाके, अशुभः= अशुभरूपः, कटुकनिम्बरस इवानिष्टः, परुषः परुषस्पर्शद्रव्यमिवानिष्टः, तथाचण्डो दारुणो यः फलविपाकस्तादृशे, पुनः- महभये ' महाभये = महद्भय यस्मात्तस्मिन् , महाभयजनके इत्यर्थः, पुनः-'जीवियंतकरणे : जीवितान्तकरणे जीवितस्य-जीवनस्य अन्तकरणं नाशो यस्मात्तस्मिन् , प्राणनाशसमर्थे इत्यर्थः, पुनः कीदृशे ? ' सव्यसरीरपरितावणकरणे' सर्वशरीरपरितापनकरणे-अङ्गप्रत्यङ्गसन्तापजनके, ' तह' तथा 'तारिसेवि' तादृशेऽपि यादृशः सोढुं न शक्यते तादृशेऽपि रोगातङ्कादौ ' अप्पणो परस्स व ' आत्मनः परस्य वा निमित्तं यदपि 'ओसहभेसज्जभत्तपाणं :' औषधभैषज्यभक्तपानम् । तं पि य' तदपि च उदय प्राप्त हो रहे हो ( असुभकडुयफरुसचंडफलविवागे ) कि जिसका फलरूपविपाक अशुभरूप ही हो, निम्बरस के जैसा कटुक अनिष्ट हो, परुस-परुष स्पर्श द्रव्य की तरह जो अरुचिकारक हो, और चंड-दारुण हो तथा ( महभये ) महाभयंकर हो ( जीवियंतकरे ) जिसमें जीवन के नाश होने की भी संभावना हो रही हो, (सव्यसरीरपरितावणकरे ) अंग, प्रत्यंग में जिसके कारण असह्य संताप बढ रहा हो ( तह तारिसे वि ) ऐसे पूर्वोक्त प्रकार के रोगातकों के समय में भी (अणणोपरस्सव) चाहे ये रोगातंक अपने लिये हो रहे हों चाहे दुसरे साधु के लिये हो रहे हों उस समय अपने और पर के निमित्त जो ( ओसहभेसज्जभत्तपाणं) औषध, भैषज्य एवं भक्तपान हो ( तंपि य ) वह भी उस यपत्ते” उध्य भ्या राय ' असुभकडुयफरुसचंडफलविवागे" ना ५०રૂપ વિપાક અશુભ રૂપ જ હેય, લીંબુ જે કટુક અનિષ્ટ હોય, પરુષ-કઠેર * સ્પર્શદ્રવ્યના જે જે અરુચિ કારક હોય, અને ચંડ-દારુણ હોય તથા “ महभये" अति मय ४२ हाय, “जीवियंतकरे" भावनना मत मा. पानी ५५५ ॥४यत! डाय “ सब्वसरीर-परितावणकरे” २५, प्रत्यागमा देने ४१२९५ असह्य सा५ यत तो डाय “ तह तारिसे वि" स ते गात પિતાને માટે થતાં હોય કે ભલે બીજા સાધુને માટે થઈ રહ્યા હોય, તે સમયે पोता. मन्यने निमित्त रे " ओसहभेसज्जभत्तपाणं " औषध, लेपन्य भने मतपान डाय " तंपिय" ते ५४ ते परिपड वि२त साधुने “ संनिहिकय" For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 913 914 915 916 917 918 919 920 921 922 923 924 925 926 927 928 929 930 931 932 933 934 935 936 937 938 939 940 941 942 943 944 945 946 947 948 949 950 951 952 953 954 955 956 957 958 959 960 961 962 963 964 965 966 967 968 969 970 971 972 973 974 975 976 977 978 979 980 981 982 983 984 985 986 987 988 989 990 991 992 993 994 995 996 997 998 999 1000 1001 1002