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सुदर्शिनी टीकाअ० १ सू० १ पञ्चमसंवरद्वारनामानि
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विमोक्षणार्थाय ' जह' यथा यद्रपाणि भणितानि तथैव वक्ष्यामि ॥ १ ॥ पंच संवर द्वाराणि वक्ष्यामीति प्रतिज्ञाय तन्नामान्याह - ' पढमं होइ अहिंसा' इत्यादि । पञ्चवर द्वारेषु' पढमं प्रथममहिंसा संवरद्वारं भवति, द्वितीयं सत्यवचननामकं, तृतीयं दत्तानुज्ञातग्रहणलक्षणं, चतुर्थ ब्रह्मचर्यं च पुनः पञ्चममपरिग्रहत्वं संवरद्वारम् ||२|| पञ्च संवरद्वारनामान्युक्तानि संप्रति प्रथममहिंसासंवरद्वारं वर्णयितुमाह - ' तत्थ पढमं अहिंसा' इत्यादि
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तत्थ तत्र संवरपञ्चकमध्ये प्रथमं संवरद्वारमहिंसा भवति, साहि 'तसथावरसन्भूय खेमकरी सस्थावर सर्वभूतक्षेभकरी सस्थावरादि सर्व लिये (जह ) जिस रूप से इनका ( भाणियाणी ) प्ररूपण किया है उसी तरह से मैं इनका प्ररूपण - वर्णन करूंगा ॥ १ ॥
अब वे पांच संवर द्वार कौन २ से हैं ? सूत्रकार उनका क्रमशः नामनिर्देश करने के लिये कहते हैं-' पढमं होइ अहिंसा' इत्यादि । उन पांच संवर द्वारों में से ( पढ़मं ) सब से पहिला संवर द्वार (अहिंसा होइ ) अहिंसा है | ( बितियं ) दूसरा संवर द्वार ( सच्चवणं) सत्यवचन है ( दत्तमणुन्नाय ) तीसरा संवर द्वार दन्तानुज्ञातग्रहण है। चौथा संवर द्वार ( बंभचेरं) ब्रह्मचर्य है । और पांचवा संवर द्वार ( अपरिग्गहत्तं ) अपरिग्रहत्व है || २ || इस प्रकार पांच संवर द्वारों के नाम कह कर अब सूत्रकार सर्वप्रथम अहिंसा रूप संवर द्वार को वर्णन करने के विये तीसरी गाथा कहते हैं - ( तत्थ ) इन पांच संवर द्वारों के बीच में ( पढमं ) पहिला संवरद्वार ( अहिंसा) अहिंसा भाटे " जह" ने शते तेनुं " भाणियाणि " પ્રરૂપણ કર્યું છે. એજ રીતે હું तेनुं प्रयाशु-वार्जुन उरीश. ॥१॥
હવે તે પાંચ સ'વરદ્વાર કયાં કયાં છે? તેના અનુક્રમે નામ નિર્દેશ उखाने भाटे सूत्रअर उडे छे - " पढमं होइ अहिंसा " इत्यादि
ते पांथ संपद्वारोभां " " पढमं " सौथी पहेतु संवरद्वार " अहिंसा l'," fafazi " ullog 2192l? “gaggoj ”
સત્ય વચન
'दत्तमणुन्नाय " त्रीभुं सवरद्वार हत्तानुग्रह छे, थोथु सवरद्वार " बंभचेर " ब्रह्मयर्य छे, अने पांयभु सवरद्वार " अपरिगत " अस्थित्व छे ॥२॥ આ પ્રમાણે પાંચ સંવરદ્વારાનાં નામ કહીને હવે સૂત્રકાર સૌથી પહેલાં સવરદ્વાર અહિંસાનું વર્ણન કરવાને માટે ત્રીજી ગાથા કહે છે. तत्थ એ भांन्य स'वरद्वाराभां “पढमं " पहेलु संवरद्वार " अहिंसा" अहिंसा छे.
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प्र० ७०
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