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प्रश्नव्याकरणसूत्रे दीयतामस्मभ्य " नित्यादिरूपया, 'नवि सेवणया' नापि सेवनया-नापि सेवावृत्त्या, समुदायेनाह- न वि मित्तयपत्यण सेवणार ' नापि मित्रता प्रार्थना सेवनया भैक्ष गवेषितव्यम् । तहि कथं गवेषितव्यम् ? इत्याह-' अण्णाए' अज्ञात्तः धनिकोऽयं प्रजितः' इति दायकजनैरज्ञातः, ' अगड़िए ' अगृद्धाः= आहारादिषु गृद्धभाववर्जितः, 'अदुढे' अद्विष्टः-आहारेषुदायकेषु वा द्वेषभाववर्जितः, 'अदीणे' अदोना-दीनतावर्जितः, 'अविमणे' 'अविमनाः अलाभादिप्रयुक्तमानसिकविकाररहितः, 'अकलुणे' अकरुणः स्वदुःखापदर्शकः 'अविसाई' अविषादी दायक-दाता के साथ मित्रता करके, " आप दाता हैं-याचकों के संरक्षक हैं, हम याचक हैं अत:आप हमें भिक्षा दीजिये " ऐसी दाता से प्रार्थना करके. तथा दाता की सेवा वृत्ति करके भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिये । इसी तरह इन तीनों बातों को एक साथ किसी दाता के साथ प्रयुक्त करके भिक्षा की गवेषणा साधु को नहीं करनी चाहिये । किन्तु (अण्णाए अगडीए अदुढे अदीणे अविमणे अकलुणे अविसाई अपरितंतजोगी-जयण-घडण-करणचरिंय विनय गुणजोग संपउत्ते भिक्खू भिक्खेसणाए गिरए ) अज्ञात-दायक (दाता) जनों से " यह साधु धनिक थे और धनिक अवस्था से दीक्षित हुए हैं। इस रूप से अज्ञात बनकर अगृद्ध-आहार आदि में गृद्धभाव से वर्जित होकर, अद्विष्ट-आहार अथवा दाता में द्वेषभाव से विहीन होकर, अदीन-दीनता के भाव से रहित होकर, अविमना-भिक्षा के नहीं मिलने पर मानसिक विकार से સંરક્ષક છે, અમે યાચક છીએ, તે આપ અમને ભિક્ષા આપે ” એવી દાતાને પ્રાર્થના કરીને તથા દાતાની સેવાવૃત્તિ કરીને ભિક્ષા પ્રાપ્ત કરવી જોઈએ નહી. એ જ રીતે એ ત્રણે બાબતેને દાતા પાસે એક સાથે પ્રયોગ કરીને સાધુએ मिक्षानी गवेष! ४२वी नेम नाही. ५४ " अण्णाए अगइिढए अदुढे अदीणे अविमणे अकलुणे अविसाई अपरितंकजोगी जयणघडणकरणचरियविनयगुण जोगसंपउत्ते भिक्खु-भिक्खेसणाए णिरए” अज्ञात-"-AL साधु पनि तi અટલે કે ધનિક સ્થિતિમાંથી દીક્ષિત થયેલ છે” એ વિષે દાતાઓથી અજ્ઞાત २डीने. अगृद्ध-मा.२ माहिमा गृद्ध लायी २डित मनाने, अद्विष्ट-
२२ मथवा हाता प्रत्ये द्वेष भाव २हित ने, अदीन-हीनताना माथी २डित थने, अविमना-मिक्षा न भ! छत ५५५ मानसि विजयी २हित १४ने अकरण-35 ५४४ प्रारे पाताना भने ४ ५५ रीते प्रशद नडी शन,
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