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प्रश्नध्याकरणसूत्रे यमुणिणा' ज्ञातमुनिना भगवता महावीरेण ' पणधियं ' प्रज्ञापितं 'परूवियं ' मरूपितं 'पसिद्धं ' प्रसिद्धम् ' सिद्धवासासणमिणं' सिद्धवरशासनमिदम् 'आघ वियं ' आख्यातं ' सुदेसियं ' सुदेशितं ' पसत्थं ' प्रशस्तं ' वीयं संवरदारं' द्वितीयं संवरद्वारं ' समनं ' समाप्तम् । एपां सर्वेषां पदानां व्याख्या प्रथमसंवरद्वारोपसंहारे द्रष्टव्या । ' तिबेमि' इति ब्रवीमि-अस्यार्थः पूर्वमुक्तः ॥मू-९।। ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगबल्लभ - प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनेकग्रन्थनिर्मापक- वादिमानमर्दकश्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपितकोल्हापुरराजगुरु-वालब्रह्मचारि-जैनाचार्य- जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री घासीलालबतिविरचितायां श्री प्रश्नव्याकरणमूत्रस्य सुदर्शन्या ख्यायां व्याख्यायां संवरात्माके द्वीतीये-भागे सत्यवचननामकं
द्वितीय संवरद्वारं समाप्तम् ।। २ ॥ हैं तथा ( अणुपालियं ) त्रिकरण त्रियोगों से जो इसका अच्छी तरह से आचरण करते हैं वे ( अगाए आराहियं भवह ) इमकी आराधना सर्वज्ञ भगवान् के वचनों से ही करते हैं ऐसा जानना चाहिये । (एवं) इस प्रकार से यह उक्तरूप संवरद्वार ( णायमुणिणा) प्रसिद्धक्षत्रियवंश में उत्पन्न हुए मुनि भगवान महावीर ने (पण्णवियं ) प्रज्ञापित किया है शिष्यो के लिये सामान्य रूप से कहा है । (परूवियं) प्ररूपित किया हैभेदानुभेदप्रदर्शन पूर्वक कथित किया है । इसलिये यह (पसिद्धं) प्रसिद्ध है-आचार्यादिपरंपरा से इसका पालन इसी रूप से चला आ रहा है अतः निर्दोष है । तथा ( सिद्धवरसासणमिणं ) भूतकाल में जितने भी सिद्ध हो चुके हैं उनका यह उत्कृष्ट शासनरूप है सो ( आघवियं ) लिय" ४ि२ योगाथा मा तभनु सारी रीते माय ४२ छ त। " अणाए आराहिय भवइ" तनी माराधना सज्ञ मशवानना क्यनाथी ४२ छ आम सभा, "एवं" मा ४२ मा (१ व्या प्रमाणेनु) स१२द्वार “णायमुणिणा" प्रसिद्ध क्षत्रिय शमत न्भेसा भडावीर लगवाने " पण्णवियं " प्रशापित ४यु छ. शिष्याने भाटे सामान्य ३ छे. 'परू. पविय " प्र३पित ४यु छ. महानु वान व्यु छ. तेथी ते “ सिद्धं" પ્રસિદ્ધ છે. આચાર્યાદિ પરંપરાથી તેનું આ રૂપેજ પાલન થતું આવ્યું છે, तेथी ते निषि छ तथा “सिद्धवरसासणमिय" भूतमा २८॥ सिद्धो ५६ या छ तेभनय कृष्ट शासन३५ qजी " ओधवियं" ते ४थन लगवान
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