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सुदर्शिनी टीका४ अ0 ४ सू०३ ब्रह्मचर्याराधनफलम्
७९५ तथा-'सुद्धचरिएणं' शुद्धचरितेन=सम्यगाचरितेन 'जेण' येन ब्रह्मचर्येण, ' भवइ ' भवति ' सुवंभणो' सुब्राह्मणः आत्मज्ञानतत्परः, · सुसमणो' मुश्रमणः सुतपरस्त्री 'सुसाहू ' सुसाधुः निर्वाणसाधकः 'सुईसी' सुऋषिः, यथाद्वस्तुदर्शकः, 'मुमुणी ' मुमुनिः जिनाज्ञाधारकः, 'सुसंजए' सुसंयतः परमयतनापरायणः । तथा स एव 'भिक्खू ' भिक्षुः सर्वत्यागी परमपुरुषार्थसाधको वा, जो यः ‘सुद्धं' शुद्ध 'बंभचेर' ब्रह्मचर्य 'चरई' चरति पालयति॥३॥
(सुद्धचरिएणं जेग सुबंभणो भवइ ) अच्छी तरह आचरित हुए इस ब्रह्मचर्य से ही मनुष्य सुब्राह्मण-आत्म ज्ञान में तत्पर-होता है, (सुसमणो ) सुश्रमग-मुतपस्वी, (सुसाहू ) सुसाधु-निर्वाण साधक, (सुईसी) सुरुषि-यथावत् वस्तुदर्शक (सुमुणी ) सुमुनि-जिनाज्ञा का आराधक, और ( सुसंजए ) सुसंयत परम यतना में परायण होता है। तथा ( स एव भिक्खू) वही सच्चा भिक्खू है-सर्व त्यागी-अथवापरम पुरुषार्थ साधक है, (जो सुद्धं बंभचेरं चरइ ) जो इस ब्रह्मचर्य को शुद्ध रीति से पालता है। ___ भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा इस ब्रह्मचर्य की गुणगरिमा (महिमा) का ही कथन किया है । वे कहते हैं कि इस एक ब्रह्मचर्य व्रतके पूर्णरूपसे ओरांधिक होनेपर सत्य, शील आदि जितने भी सद्गुण हैं वे सब आराधित हो जाते हैं । यह ब्रह्मचर्य पंचमहाव्रतों का मूलकारण है । अतायावज्जीव साधु को इसका सेवन करते रहना चाहिये । जिस
"सुद्धचरिएणं जेण सुबंभणो भवइ ' सारी ते मायामा भारत या प्राय था। मनुष्य सुनाए- मारम शानभा त५२ थाय छे, "सुसमणो" सुश्रभ-सुत५२वी-“ सुसाहू " सुसाधु-नि सा५४, "सुईसी"सुऋषि-यथावत् परंतु ४४, “ सुमुणी" लिन माज्ञाने। भारा५४, भने “सुसंजए" सुसयत५२म यतनामा पराया थाय छ, तथा “स एव भिक्खू " ते २१ सायो लिभु छे-सत्या म२५१ ५२५ पुरुषार्थ साध४ छ, “जो सुद्धं बंभचेर चरह" २ આ બ્રહ્મચર્યને શુદ્ધ રીતે પાળે છે.
ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા બ્રહ્મચર્યના ગુણ ગૌરવનું જ વર્ણન કર્યું છે. તેઓ કહે છે કે આ એક બ્રહ્મચર્ય વ્રતનું પૂર્ણ સ્વરૂપે આરાધના કરવામાં આવે તે સત્ય, શીલ આદિ જેટલા સદ્દગુણ છે તેમનું આરાધન આપોઆપ થઈ જાય છે. આ બ્રહ્મચર્ય પાંચ મહાવ્રતનું મૂળ કારણ છે. તેથી સાધુએ જીવનપર્યન્ત તેનું સેવન કરવું જોઈએ. જે રીતે મૂળ વિના કઈ પણ વસ્તુની
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