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सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू०९ 'अनुज्ञातभक'नामकचतुर्थीभावनानिरूपणम् ७५९ चालनरूपचापल्ययुक्तं भोक्तव्यम् । न साहसम्-अप्रतिलेखितं भोक्तव्यम् , तथा'न य' न च 'परस्स ' परस्य एकेन्द्रियादेः ' पीलाकरं' पीडाकर ' सावज्ज' सावय सचित्तं भोक्तव्यम् , एवमुपलक्षणाद्वपात्रादिपरिभोगोऽपि ग्राह्यः। तर्हिकथं भोक्तव्यम् ? इत्याह | ' तह भोक्तव्यं' तथा भोक्तव्यं 'जह' यथा 'से' तस्य संयतस्य ' तइयं ' तृतीयं 'वयं ' व्रतं अदत्तादानविरमणरूपं 'नसीयइ' न सीदति-न नश्यति यथा-अदत्तादानविरमणरूपं व्रतं न विनश्येत्तथा भोक्तव्यमित्यर्थः, 'साहारणपिंडवायलाभे साधारणपिण्डपातलामे सति ' मुहुमं' सूक्ष्म दुनिरीक्षम् ,-पूर्णरूपेणेत्यर्थः, ' अदिण्णादाणविरमणवयनियमणं' अदत्तादानविरशीघ्रता करके भोजन नहीं करना चाहिये। तथा (न चवलं) हाथ, गर्दन आदि अवयवों को चलाते हुए भोजन नहीं करना चाहिये । तथा न साहसं अप्रतिलेखित भोजन नहीं करना चाहिये। और (न य परस्स पीलाकरं सावज्ज) एकेन्द्रियादिक जीवों को पीडा कारक सावद्य-सचित्त-भोजन न करना चाहिये। इसी तरहसे वस्त्र पात्रादिकके परिभोग में भी यही बात समझ लेनी चाहिये । तो फिर कैसे भोजन करना चाहिये ? इस बात को अब सूत्रकार प्रकट करते हैं, वे कहते हैं कि (से) उस संयत को ( तह भोत्तव्यं ) इस प्रकार से भोजन करना चाहिये कि (जह ) जिससे (तइयं वयं) अनत्तादानविरतणरूप तीसरा व्रत ( न सीयइ ) नष्ट न होवे (साहारणपिंडवायलाभे ) इस तरह पूर्वोक्त साधारण कल्पनीय-पिंडपात-भिक्षा की प्राप्ति होने पर (सुष्टुमं) सूक्ष्म रूप से अर्थात्-पूर्णरूप से (अदिण्णादाणविरमणवयनियमण) इस नये. तथा "नचवलं" साथ, 31 मा अवयवान सात auqan ५५
न ४२ मे नही. तथा “नःसाहसं" मप्रति सेभित सोन न ४२७ नये नही. मने "न य परस्स पीलाकर साबजं" मेन्द्रिय मावाने પીડા કારક સાવદ્ય-સચિત્ત–ભજન ન કરવું જોઈએ. એ જ રીતે વસ્ત્ર, પાત્ર આદિના પરિભેગમાં પણ એ જ વાત સમજી લેવી. તે પછી કેવું ભેજન કરવું જોઈએ? તે વાતને પ્રગટ કરતાં સૂત્રકાર કહે છે કે “રે” તે સંતે "तह भोत्तव्व '' 2AL प्रभा - ४२ ने मे. “ जह" या " तइयं वयं" महत्ताहीन वि२भए ३५ वी त “न सीयइ, नट न थाय “साहारणपिंडवायलाभे " 20 शत पूर्वात साधारण पनीय विपात-भिक्षानी प्रति तi " सुहुमं " सूक्ष्भ३५ 22, ५९३३ " अदिण्णादाणविरमणवयनियमण" महत्तान विरम त ५२ नियत्र-मधि।२
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