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सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० ११ अध्ययनोपसंहारः
७६७ स्रव नूतनकर्मागमनरहितत्वात् , ' अकलुसो' अकलुषः = अशुभाध्यवसायरहि. तत्वाद् , ' अच्छिद्दो' अच्छिद्रः छिन्नपापस्रोतस्त्वात् 'अपरिस्साबी' अपरिस्रावी-बिन्दुरूपेणापि कर्मजलप्रवेशरहितत्वात् , ' असंकिक्लिट्ठा ' असंक्लिष्टाः असमाधिभाववर्जितत्वात् , 'मुद्धो' शुद्धः-कर्ममलवर्जितत्वात् , 'सव्वनिणमणुण्णाओ' सर्वजिनानुज्ञातः सकलपाणिहितकारकत्वात्सर्वेषामर्हतामनुमतश्चास्ति । एवम् ए. तादृशमिदं । ' तइयं तृतीयं संवरद्वारम् ' फासियं ' स्पृष्टं कायेनाचरितं, 'पालियं ' पालित-सततमुपयोगेनसेवितं ' सोहियं ' शोधितं अतीचारवर्जनेन शुद्धी युक्त हुए मुनिजन को (नेयम्यो ) पालन करने योग्य है । क्यों कि यह अदत्तादानविरमण रूप योग ( अणासयो ) नूतनकर्मों के आगमन से रहित होने के कारण अनास्रवरूप है, (अकलुसो) अशुभ अध्यवसाय से वर्जित होने के कारण अकलुष है, ( अच्छिद्दो) पाप का स्रोत इससे छिन्न हो जाता है अतः अच्छिद्र है ( अपरिस्सावी) विन्दुरुप से भी कर्मरूपजल इसमें प्रवेश नहीं कर सकता है इसलिये यह अपरिस्रावी है । ( असंकिलिट्ठो) असमाधिभाव से वर्जित होने के कारण यह असंक्लिष्ट है। ( सुद्धो) कर्ममल से रहित होने के कारण शुद्ध है (सव्वजिणमणुण्णायो समस्त प्राणियों का इससे हित होता है इस लिये समस्त अरहंत भगवंतो को यह मान्य हुआ है। ( एवं ) ऐसा यह ( तइयं ) तृतीय संवर द्वार है । इस संवरद्वार को जो ( फासियं) अपने शरीर से आचरित करते हैं, ( पालियं ) निरन्तर उपयोग पूर्वक इसे सेवित करते हैं ( सोहियं ) अतिचारों से इसे रहित करते हैं युश्त भुनिनाने " नेयव्वो” पान ४२१॥ योग्य छे. या महत्ताहान विभ) ३५ यो! “ अणासवो" नवा ना मामानयी २डित सापाने ॥२ भनाभ१३५ छ, “ अकलुसो" अशुल अध्यायथी २हित जापाने अरहो मनुष छ, “अच्छिहो" पापन। स्रोततेनाथी छिन्न ३४ नय छ तेथी मछिद्र छ, “अपरिस्सावी'' म ३५ ार्नु मिड ५५ तेमा प्रवेश शतुं नयी तेथी ते ५५रित्रावी छे, " अस किलिट्ठो” असमाधि भाव २हित पाने २६ ते अस'सिट छ, “ सुद्धो” ४' भगथी २डित पाने ४२ ते शुछे, “सब. जिणमणुण्णाओ" समस्त प्रामानुं तेनाथी ४८या थाय छ, ते ॥२समस्त 24° पानाने ते मान्य थयेस छ, “ एवं” मे " तइय" । तृतीय सवार 2. २॥ १२वाने "फासिय" पोताना शरीरथी सायरे छ, “पालिय” नि२'त२ ७५या पूर्व नेनु सेवन ४२ छ, “सोहियं" मतियाराथी तन हित ४२७. “ तीरियं” पूर्ण ३५थी तेनु सेवन ४२ छ. "किहिय" तेनुं
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