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प्रश्नव्याकरणसूत्रे साधर्मिक उच्यते, तस्मिन् , तथा-'तपरिस कुलगासंघे य' तपरिपकुलगणसंधे च, तत्र-तपस्वी-विकृति बर्जकः, चतुर्थभक्तादिकारी वा, कुलम् = एकगुरुकशिष्यसमूदायरूपम् , गणः कुलसमुदायः,संघागमायरूपः, एतेषां समाहारद्वन्द्वा, तस्मिंस्तथोक्ते च, अत्र सर्वत्र विषयाथै सहमी, तेन तत्तद्विषयक मित्यर्थः, 'चेहयढे ' चैत्यार्थ:--चैत्यं ज्ञानं 'वितीसंज्ञाने ' इत्यस्मात् संपदादित्वाद् भावे विपि 'चित्.' संज्ञानं सम्यशूझान, चिदेव चैत्यं, स्वाथें प्यञ् , तदेव अर्थः-प्रयोजनं यस्य स तथोक्तः सम्यग जानाभिशापीत्यर्थः. तथा-'निजट्टो' निर्जरार्थी(तवरिसकुलगासंधे य) तपस्नी हैं-विकृति (निगग) के त्यागी हैं अथवा चतुर्थ भक्त आदि तपस्याओं के करने वाले हैं. तथा जो एक ही गुरु के शिष्यों का समुदाय है वह कुल है, कुल के समुदाय का नाम गण है, गणसमुदाय को संघ कहते हैं सो इम सयको (चेइयट्टे ) सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति का अभिलाषी तथा (निज्जरही) कर्मों की निर्जरा का इच्छुक मुनि ( अणिस्सियं ) इहलोक और परलोक संबंधी आकांक्षा रहित होकर ( दसविहं ) दश प्रकार की (बहुविहं ) भक्तपान आदि विविध प्रकार से (धेयावच्च करेइ) वैधावृत्त्य करता है-- उनकी सहायता करता है वह इस महोवतको पाल सकता है। __ यहां जा चेइयडे' पद पाया है उसकी छाया चित्यार्थ' ऐसी है। संज्ञानार्थक चित् धातु से “संपदादित्वात् " इस सूत्र छारा भाव में क्विा ' प्रत्यय होने पर चित् ऐसा शब्द बन जाता है, इस का अर्थ संज्ञान-सम्यग्ज्ञान-होता हैं। फिर स्वार्थ में 'स्य' प्रत्यय होने पर हम्मि" सायमि छ, रे "तबस्सि कुलगणसंधे य" १५२वी. छ, विति-"विगय" ના ત્યાગી છે, અથવા ચતુર્થભકત આદિ તપસ્યા કરનાર છે, તથા જે એક જ ગુરુને શિષ્ય સમુદાય “ગુરુ છે, કુલના સમુદાયને ગણ કહે છે, ગણના सहायने सच छ. तो ये सौनी “ चेइयट्रे" सभ्यशाननी प्राप्लिन। भमिलाषी तथा “ निज्जरठ्ठी" ना नि भाटे उत्सु भनि 'अणि स्सियं" मासी मने परसो साधी मxiक्षा तिने "दसविहं" इस
२नी “ बहुवियं" भाडा२ ५९ मा प्ररे “ वेयावच्च करे" વૈયાવૃત્ય કરે છે–તેમની જે સાધુ સહાયતા કરે છે તે આ મહાવ્રત પાળી શકે છે.
___महीने "चेइय?" ५४ माव्यु छ तेनी छाया "चैर शर्थ" छ. सहा. नाक 'चित ' धातुथी " क्वि" प्रत्यय सात 'चित्' । २५४ मनी oनय छ, तेन। म सज्ञान-सन्म शान-थाय छे. छ. स्यामा व्यञ्' પ્રત્યય લાગતા ચૈત્ય શબ્દ સિદ્ધ થઈ જાય છે. તે ચિત્ જય છે એ
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