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मुद शनीटीका अ० ३ सू० ४ को निरस्ताहानादिवतमाराधयति ७३१ कर्मनिर्जराभिलाषी, 'अणि स्वयं ' अनिश्रितं की यादिनिरपेक्षम् इहलोकपरलोकाद्याशंसारहितमित्यर्थः, 'बहुविई ' बहुविधम् = भक्तपानादिभिर्बहुप्रकराक, 'दसविहं' दशविधं आचार्यादिदशविधस्थानकं, 'वेयावच्चं वैयावृत्य भक्तपानादिभिः साहाय्यं 'करेइ ' करोति ।
ननु अत्यन्तवालदुर्बलादि सङ्घान्तानां चतुर्दशानां वैयावृत्वस्थानतया प्रथमचैत्य शब्द सिद्ध हो जाता है-तब चित् ही चैत्य है ऐसा अर्थबोध होता है । यह दैत्य-सम्यग्ज्ञान-हो जिसका प्रयोजन है वह चैत्यार्थ है, इस प्रकार का अर्थ होने से इसका तात्पर्य यह होता है कि जो साधु सम्यग्ज्ञ,न की अभिलाषा वाला है। " अणिस्सियं " यह पद क्रियाविशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है। जिसका सारांश है कि वह साधु इन बाल आदि मुनिजनों का वैयाकृत्य करते समय यह भावना न रखे कि मुझे कीर्ति आदि की प्राप्ति अथवा इहलोक संबंधी सुखों आदि की प्राप्ति इनकी सेवा करने से होगी । " यहुविध " यह वैयावृत्य का विशेषण है जो यह कहता है कि वैयाकृत्य तप भक्तपान आदि से अनेक प्रकार का है। शास्त्रों में यावृत्य के भेद दस कहे हैं । कारण आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, साधर्मिक, कुल,गण और संघ ये दस स्थान सेवाके हैं । इसलिये इनकी सेवा रूप यह वैयाघृत्य भी दश प्रकार का कहा गया है।
शंका-इस "अमचंतयाल" आदि पद में तो अत्यंतवाल से
અર્થ થાય છે. તે ચિત્ય-સભ્ય જ્ઞાન જ જેનું પ્રજન છે તે ચૈત્યાર્થ છે, તે પ્રકારને અર્થ થવાથી તેનું તાત્પર્ય તે થાય છે કે જે સાધુ સમ્યગુ ज्ञाननी भनिसाषा वा छ. " अणिस्सिय " PAL ५४ डियाविशेषणुना ३५मां વપરાયું છે. તેનું તાત્પર્ય એ છે કે તે સાધુ તે બાલ આદિ મુનિઓનું વૈયાનૃત્ય કરતી વખતે એવી ભાવના ન રાખે કે મને કીતિ આદિની પ્રાપ્તિ અથવા मास तथा ५२ संधी सुभानी प्रति तमनी सेवाथी थशे. "रहविधं" તે વિયાવૃત્યનું વિશેષણ છે જે એ બતાવે છે કે વૈયાવૃત્ય તપ આહાર પાણી આદિ અનેક પ્રકારનાં છે. શાસ્ત્રોમાં વૈયાવૃત્યના દસ ભેદ બતાવ્યા છે. કારણ
मायाय, अ५८याय, स्थविर, त५२वी, सक्ष, सान. सामि, पुस, Y અને સંઘ એ દશ સેવાના સ્થાન છે. તેથી તેમની સેવારૂપ આ વૈયાવૃત્ય પણ દશ પ્રકારનું કહેલ છે.
श-~-20 " अच्छतवाल" माह पमा सत्यत माथी सन ५
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