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दशिनी टीका ० ३ स्०४ कोमुनिरवत्तादानाविव्रतमाराधयति अप्रमाणभोजी द्वात्रिंशकवलाधिकाहारी, 'सययं ' सततं निरन्तरम् 'अणुबद्धवैरे ' अनुबद्धवैरः अव्यवच्छिन्नवैरभावः, च=पुनः निच्चरोसी' नीत्यरोपी सदाकोपशीलः, ' से तारिसए ' स तादृशः साधुः 'नाराहए' माराधयति ' इणं' इदम्-पूर्वोक्तं, व्रतम् अदत्तादानविरतिस्वरूपम् ॥ मू०३॥
कः पुनरिद व्रतमाराधयितुं समर्थः ? इत्याह--'अह केरिसए' इत्यादि
मूलम् अह केरिसए पुणाई आराहए वयामिणं ? जे से उवहि भत्तपाणसंगहणदाणकुसले अच्चंत बाल दुब्बल गिलाण वुड्डखवगपवत्तयआयरिय उवम्झाए सेहे साहम्मिए तवस्सिकुलगणसंघे य चेइयट्रे निजरठ्ठी वेयावच्चं अणिस्सियं दसविहं बहुविहं करेइ, नय अवियत्तस्स घरं पविसइ, न य अचियत्तस्स भत्तपाणं गिण्हइ, न य अचियत्तस्म सेवइ पीढफलग--सेज्जा-संथारग--वत्थपाय-कंबल--दंडगर
ओहरण-निसज्जयोलपट्टगमुहपोत्तियपायपुंछणाइ .- भायण अपने और पर के चित्त में उद्वेगभाव पैदा कर देने वाला साधु असमाधिकारक है, (सया अप्पमाणभोई) सदा बत्तीसग्रास से अधिक भोजन करने वाला साधु अप्रमाणभोजी कहलाता है ( सययं अणुवद्धबेरे य) जिसका वैर भाव कभी भी शांत न हो वह साधु समतानुबद्ध वैर कहलाता है, (निच्चगेसी ) जो नित्य ही कुपि स्थिति में रहता है यह नित्यरोपी कहलाता है। (से तारिमए) इस प्रकार तपस्तेन आदि विशेषणवाला साधु (इणं वयं राहए ) इस महाव्रत की आराधना नहीं कर सकता है ।। ३ ॥ छ, “ असमाहिकरे " पोताना तथा अन्यना वित्तमा । पहा ४२०१२ साधुने असमाधि४।२४ ४ छ, “सया अपमाणभोई " सह. पत्रीश आणियां ४२तां qधारे मा २ अनार साधुने प्रभाव से छे, “सययं अणुबद्भवेरेय" જેની વેર ભાવના કદી પણ શાન્ત ન થાય તે સાધુને સતતાનુબદ્ધ વૈર કહેपाय छे. “ निच्चरोसी" ने हमेशा ओघमा १ २ छ तेन नित्योपी । छ, " से तारिसए" 20 शते त५या२ मा विशेष पाणी साधु" इणवय नाराहए " मा महाबतनी आराधना ४२१ शत! नथी ॥ ३॥
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