________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सुवशिनी टीका अ० १ सू०९ भावनास्वरूपनिरूपणम् दत्ते सति 'भुङव त्वमशनादिक ' मित्यनुज्ञाते वा सति, 'उपविटे' उचितासने उपविष्टः सन् ‘ससीसं कायं ' सशीर्ष कायं-सपूर्ण शरीरं, तथा='करयलं' करतलं च ' संपमज्जिऊग ' संगमाज्य 'अनुच्छिए' अमूछितः आहारविषये मूछारहितः ' अगिधे ' अगृद्धः-अमाप्तरसेऽप्यासारहितः, ' अगढिए ' अग्रथितः रसानुगताकाङ्क्षारूपतन्तुजालैरनावद्धः, तथा-' अगरहिए ' अगर्हितः आहारविपयै अकृताहारगर्हः, अकृतदाहगईश्थेत्यर्थः, तथा-'अणझोपवण्ये ' अनध्युपपन्नः= रसविषये लोलुपतावर्जितः, तथा-' अणाइले' अमाविला अालुपः 'अलुद्धे' अलुब्धो-लोभरहितः, तथा ' आतहिए' अनात्माथिका-नकेवलमात्मस्वर्थीपरमार्थकारीत्यर्थः, असुरसुरं' मुरमुरशब्दरहितम् , ' अचवचवम् ' चपड़ चपड़ दिया हुआ आहार “ तुम भोजन करो" इस प्रकार आज्ञा मिलने पर वह साधु ( उवविठे ) उचित आसन पर बैठ कर (ससीसं कायं करयलं सपज्जिऊण) मस्तक से लेकर अपने समस्त शरीर को
और करतल को अच्छी तरह प्रमार्जित करे । प्रमार्जित करके (अमुच्छिए ) आहार के विषय में अमूछि बना हुआ वह साधु ( अगिद्धे ) अप्राप्त रस में आकांक्षा से रहित, तथा (अगढिए ) रसानुगत आकांक्षा रूप तन्तुजाल से, अनाबद्ध तथा (अगरहिए)-आहार के विषय में अथवा दाता के विषय में नहीं करने से रहित और (अगझोपवण्णे) रस के विषय में लोलुपता से विहीन बन कर आहार करें। उस समय वह (अणाइले ) अनाविल-अकलुए और ( अलुद्धे) अलुब्ध-लोभरहित होकर (अणतहिए ) अनात्मार्थिक-केवल आत्मस्वार्थी न बनता हुआ आहार करते समय वह ( असुरासुर) सुर सुर भात ते साधु “ उत्रविद्वे" योग्य मासन ५२ मेसीने “ससीसं कार्यकरयलं सपमज्जिऊण" शि२थी ने पोताना आमा शरीरने तथा जान सारी शते प्रभाजित ४ीने “ अमुच्छिए " म।।२ना विषयमा मभूति नान ते साधु “ अगिद्ध" Kात २सनी २ixiक्षायी २हित तथा “अगढिए " २सानुगत 24क्षा३५. तन्तुथी भानामा-भुत तथा “ आरहिए " माडी२ना विषयमा हाताना विषयमा गई ४२वानी जियाथी २हित तथा “ अणज्झोववण्णे” २सनी मतमा दुयता २डित मनीने मा.२ ४२३ नये. ते समये ते “ अणाइले " मनाविस-४देश २डित अने" अलुढे " मदुग्धसोलरहित / “अणदिए” मनात्मार्थि-Pाभस्वार्थी न मने था।२ ४२ती मते ते " असुरसुर” "सुर सु२॥ श न रे "अचवचवं"
For Private And Personal Use Only