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प्रश्नव्याकरणसूत्रे रजोहरणादिभिः संमार्जना, तामु कृतासु-प्रतिलेखनादिकरणानन्तरमित्यर्थ' अहो य राओ य ' अहश्च रोत्रौ च ' भायणमंडोवहिउवगरण ' भाजनभाण्डो. पध्युपकरणं-तत्र-भाजन-पात्रम्, भाण्डम्-उन्दकम् , उपधिःवस्त्रम् , एतत्त्रितयरूपं यदुपकरणं तत् , ' अप्पमत्तेणं ' अप्रमत्तेन सता 'सययं' सततं-निरन्तरं 'निक्खिव्वं ' निक्षेप्तव्यं-स्थापनीयं 'गिहियव्वं ' ग्रहीतव्यं च ' होइ' भवति एवमादानभाण्डनिक्षेपणासमितियोगेन भावितो भवति अन्तरात्मा-जीवः । भाविताऽन्तरत्मा कीदृशो भवति ? इत्याह-अशवलासंक्लिष्टनिव्रणचारित्र भावनया हेतु. भूतया अहिंसकः संयतः सुसाधुर्भवति, एतेषामर्थः पूर्वमुक्तः, तत एवावगन्तव्याम्१.
और उपधि की प्रतिलेखना प्रस्फोटना प्रमार्जना कर लेने पर-प्रतिलेखना दोनों समय प्रत्युपेक्षणा प्रस्फोटना, प्रमार्जना-रजोहरणादि से पुंजना करके (अहोय राओ य) दिन में और रात्रि में (भायण भंडोवहीऊवगरणं ) भाजन-पात्र, भाण्ड उन्दक, और उपधि-वस्त्र। इन उपकरणों को जमीन पर रखना पडता है, उठाना पडता है। सो ऐसी स्थिति में साधु का यह कर्तव्य है कि वह इन सबको धरते उठाते (सययं ) निरन्तर (अप्पमत्तेणं ) अप्रमत्त रहे । (निक्खियत्वं गिहियव्वं होइ) इन उपकरणों को जब भूमि पर धरे तब उसकी प्रमार्जना करे फिर धरे, उठावे तब उन उपकरणों की प्रमार्जना करके उठावे। इस तरह करने से जीवों की विराधना नहीं हो सकती है। यही साधु की अप्रमत्त अवस्था है। (एव) इस तरह ( आयाण भंडनिक्खवणासमिइजोगेण ) आदान भाण्डनिक्षेपणासमिति के योग से (अंतरप्पा ) जीव લેખના પ્રસ્ફોટના પ્રમાર્જના કરી લીધા પછી–પ્રતિલેખન-બને સમય પ્રત્યુપેसया, प्रीटना-यतन माय२७, प्रमार्जना-२०१२ माहिथी ५ वगेरे ४ा पछी " अहोय राओय" हिवसे तथा रात्र "भायण भंडोवहिउवगरणं " लालन-पात्र, भाण्ड-६४ मने उपधि-१२०, ५४२ ने भीन 6५२ રાખવા પડે છે, તથા ઉપાડવા પડે છે. તે એવી પરિસ્થિતિમાં સાધુનું એ तव्य छ त से अधाने देता, भूता “ सयय" निरंतर “ अप्पम णं" सभासी २९ निक्खियव्य गिहियव्व होइ" से 6५४२णाने न्यारे भान પર મૂકે ત્યારે તેની પ્રાર્થના કરે અને ફરીથી ત્યાંથી ઉઠાવે ત્યારે તે ઉપકરણની પ્રમાર્જના કરીને ઉઠાવે, આ પ્રમાણે કરવાથી જીવેની વિરાધના થઈ शती नथी. मे ४ साधुनी अप्रमत्त अवस्था छ. “एवमा शत “आयाणाभंड निक्खेवणासमिइजोगेण " माहान is नि:५९! समितिना योगथी " अं.
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