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सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ३ सत्यस्वरूपनिरूपणम्
६७३ न त्वमसि दानपतिः-दाता, 'न तंसि दो' न समसि शूरः पराजामशाली, 'न तंसि पडिवो ' न त्वमसि प्रतिरूपान्सुन्दरः, 'न तंसि लठ्ठो' न त्वमसि लष्टः सौभाग्यवान् , 'न पंडिओ' न पण्डितः विद्वान् त्वमसि, न च त्वं 'बहुस्सुओ' बहुश्रुतः बहुविद्योऽसि, 'न विय तसि तवत्सी' नापी च त्वमसि तपस्वी 'ण यावि परलोणिच्छिमईऽसि' परलोके निश्चिता संशयरहिता मतिर्यस्य सःपरलोकनिश्चितातिश्रापि त्वं नासि । मेधादिनितान् प्रत्यपि एवरूपा निन्दा न कतव्येति भावः । किं बहुना, 'जाइकुलरूववाहिरोगेण वा वि' जातिकुलरूप व्याधिरोगेण वाऽपि-वा=अथवा जातिवंशः, कुलं-पितवंशः, रूपं सौन्दर्य, व्याधिः-चिरस्थायि कुष्ठादिः, रोगः शीघ्रयातो ज्वरादिः, एतेषामितरेतरयोगद्वन्द्वः, तेन कारणेनापि जात्यापि कारणमवलम्व्यापि जं' तत् ' सव्वकालं' कुलीणो) तुम कुलिन नहीं हो, (न तसि दाणवई ) तुमदानपति-दाता नहीं हो, (म तंति सूरो) तुम पराक्रमशाली नहीं हो, (न तंसिपडिस्पो ) तुमप्रतिरूप-सुन्दर-नहीं हो, (न तंसि लट्ठो) तुम लष्टसौभाग्य संपन्न नहीं हो, (न पंडिओ) तुम पंडित नहीं हो (न बहुस्सुओ) तुम बहुश्रुत-अनेक विद्याओं के वेत्ता नहीं हो, और (न वि य तंसि तबस्सी) न तुम तपस्वी हो । और (न यावि परलोगणिच्छियमई सि) न तुम परलोक में संशय रहित मतिवाले ही हो,” इस प्रकार के वचन अविवेकी व्यक्तियों से नहीं कहना चाहिये, क्योंकि इस प्रकार के वचनों से उनकी निंदा होती है । (सव्वं कालं जाइकुलरूववाहिरोगेण जं होह वज्जणिज्ज ) इसी तरह जाति-मातृवंश, कुल-पितृवंश, रूपसौंदर्य, व्याधि-चिरस्थायी कुटादि, तथा शीघ्रधातक ज्वरादि रोग, इन 'न तंसि दाणवई ” तमे हात की, 'न तसि सूरो" तभे पराभी नयी “न तंसि पडिस्वो।' तमे सुह२ नयी “न तंसि लट्रो" तमे सष्ट सोमाय नथी, "न पंडिओ" तभे ५डित नथी, “ न बहुस्सुओ" तमे महशत-मने विद्यासान! १४.२ नथी, भने “ न बि य त सि तवरसी" तभे 1५२०ी नी, मने “ न यावि परलोगिणच्छियमईसि” तमे ५२४ने વિષે સંશયરહિત મતિયાળ નથી” પ્રકારનાં વચન માણસેએ બલવાં જોઈએ નહીં કારણ કે તે પ્રકારનાં વચનેમાં તેમની “શ્રોતાની નિંદા થાય थाय छे. “ सव्य काल जाइकुलं रूववाहिरोगेण जं होइ वज्जणिज्ज" मे २५ પ્રકારે જાતિ-માતૃવંશ, કુળ-પિતૃવંશ રૂપ-સૌદર્ય, વ્યાધિ-કાયમી કેઢ વગેરે તથા શીવ્રઘાતક જવરાદિ રોગ એ બધાં કારણેને લઈને પણ કદી એવાં प्र ८५
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