________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्रश्नव्याकरणसूत्रे एवं जातीयं वचनं ' कोहग्गिसंपलित्तो' क्रोधाग्निसंपदीप्तो नशे ‘भणेज्ज' भणेत् कथयेत् , ' तम्हा' तस्मात् कारणात् । कोहो न सेवियचो' क्रोधो न सेवितव्यः। एवम् अनेन प्रकारेण' खंतोइ' क्षान्त्या-उपशमेन ' भाविओ' भावितः ' अंतरप्पा' अन्तरात्मा जीवः संयतकरचरणनयनवदनः शूरः सत्याजवसंपन्नो भवति ॥ ५ ॥ इति द्वितीया भावना ॥२॥ वचनों को (कोहग्गिसंपलित्तो भवेज ) क्रोधाग्नि से संतप्त हुआ मनुष्य कह दिया करता है। (तम्हा कोहो त सेवियन्यो ) इसलिये क्रोध का कभी भी संयमीजन को सेवन नही करना चाहिये। (एवंखंतीइ भाविओ अंतरप्पा ) इस प्रकार क्षान्तिपरिणति से वासित हुआ जीव (संजयकरचरणनयणवयणो) संयत कर, चरण, नयन वदन वाला हो जाता हैं और (सूरो) अपने सत्यव्रत की आराधना में पराक्रमशाली होता हुआ (सच्चज्जवसंपन्नो भवइ) सत्य और आर्जव इन दोनों से संपन्न बन जाता है।
भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा सत्यव्रत की दूसरी भावना का वर्णन किया है। वह भावना क्रोध निग्रह रूप है। क्षान्तिपरिणति क्रोध की होती है। मनुष्य पर जब इसका आवेश आ जाता है तो उसकी आकृति बदल जाती है उसका रूप रौद्र हो जाता है। इस स्थिति में उस का वचन व्यवहार सत्यधर्म से प्रतिकूल हो जाता है ! वह इसके आवेश में यहा तद्वा वोलने लग जाता है । उसको इस बात का
एवमाइयं " स १२नां भी पशु मसत्य क्यन। “कोहगिसंपलित्तो भवेज्ज" धनियुस्त मनुष्य मादी तय छ “ तम्हा कोहो न सेवियन्वो" ते ४२ सयभी सोओथे ४ही. ५ ओघ ४२ मे नही. “एवं खंतीइ भाविओ अंतरप्पा" मा रीते क्षान्तिपरिणतिथी मावित थये ७५ " संजय करचरणनयणवयणो" सयत, थ, ५१, नयन, पहनवाजे थ/ नय छ भने "सूरो" पोताना सत्यवतनी साराधनामा प्रराम “सञ्चज्जवसंपन्नो भवइ" सत्य અને આર્જવ, એ બનેથી યુક્ત બની જાય છે.
| ભાવાર્થ –-સૂત્રકારે આ સૂત્રકાર સત્યવ્રતની બીજી ભાવનાનું વર્ણન કર્યું છે. તે ભાવના કોનિગ્રહરૂપ છે. જ્ઞાતિ પરિણતિથી ઉલટી પરિણતિ કોધની હોય છે, મનુષ્ય પર જ્યારે તેને આવેશ આવે છે ત્યારે તેની આકૃતિ બદ. લાઈ જાય છે, તે રૌદ્રરૂપ ધારણ કરે છે, આ પરિસ્થિતિમાં તેનાં વચને તથા વ્યવહાર સત્ય ધર્મથી પ્રતિકૂળ થઈ જાય છે. તે તેના આવેશમાં ગમે તેવું
For Private And Personal Use Only