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प्रश्नव्याकरणसूत्रे टीका -'चउत्थं ' चतुर्थी भावनामेपणारूपामाह - ' आहारएसणाए । आहारैषणया ' सुद्धं ' शुद्ध-निर्दोष 'उंछ' उञ्छंभेक्षं गवेसियव्वं ' गवेषित व्यम् । यथा-लूनान्नक्षेत्रात्कणादानं, तथैव साधुनापि गृहस्थार्थं निष्पादितमन्नं स्तोकं स्तोकं एवेषणीयमिति भावः । कीदृशः सन गवेषयेत् ? इत्याह-'अण्णाए' अज्ञातः-'धनिकोऽयं प्रवजितः' इत्यादिरूपेण दायकैरज्ञातः, ' अकहिए' अकथितः= धनिकोऽहं प्रबजितः ' इत्याद्यप्रकटितः, 'असि?' अशिष्टाः= उग्रवं. शीयोऽयं भोगवंशीयोऽय' मिति दायकायापतिबोधितः, तथा-'अहीणे' अदीनः
अब सूत्रकार चौथी एषणा समितिरूप भावना को कहते हैं - 'चउत्थं ' इत्यादि।
टीकार्थ-(आहार एसणाए सुद्धं उंछ गवेसियव्वं ) साधु आहारए. षणा से शुद्ध-निर्दोष उछ-धोडा थोडा लेने रूप भिक्षा की गवेषणा करे। तात्पर्य इसका यह है कि जैसे-लूने गये क्षेत्र से कणों का आदान होता है उसी तरह साधु को भी गृहस्थ के लिये निष्पादित अन्न की स्तोक २ अल्प २ रूप में गवेषणा करनी चाहिये । जयव ह भिक्षा की गवेषणा करे तब उसे (अण्णाए ) अज्ञात होना चाहिये-दाता उसे यों न समझेकि यह धनिक होकर प्रवजित हुआ है, इत्यादिरूप से दाता से उन्हें अपरिचित रहना चाहिये। ( अकहिए ) अकथित होना चाहिये-में धनिक था गरीब नही था फिर भी दीक्षित हुआई इस प्रकार का अपना परिचय उसे दाता को नहीं देना चाहिये । (असिडे) अशिष्ट रहना चाहिये-यह साधु उग्रवंशीय है, भोगवंशीय है, इस रूप से दाता के वे सूत्रा२ मे ५९। समिति नामनी याश्री मान सताये छे “च उत्थ' याls
--" आहारएसणाए सुद्ध उंछं गंवेसियव्व" साधु मारेषशायी શ-નિર્દોષ ૩૪ થોડી થોડી માત્રામાં ભિક્ષાની ગવેષણ કરે. તેનો ભાવાર્થ એ છે કે જેમ લણવેલ ખેતરમાંથી કણનું આદાન થાય છે, એ જ રીતે સાધુએ પણ ગૃહસ્થને માટે તૈયાર કરેલ અગ્નિ છેડી ડી માત્રામાં ગષણા ४२वी नसे. न्यारे ते लक्षानी गये। ४२ त्यारे तो “अण्णाए" અજ્ઞાત રહેવું જોઈએ. દાતાને તે વાતની ખબર ન પડવી જોઈએ કે તે ધનિક સ્થિતિમાંથી દીક્ષિત થયેલ છે. આ પ્રકારે તેણે દાતાથી અપરિચિત રહેવું म. “ अकहिए " मथित २२ नये-“हु पनि हो । न હતે છતાં પણ મેં દીક્ષા લીધેલ છે” એ પ્રકારને પિતાને પશ્ચિય તેણે हाताने हेवन नही " अतिट्रे" अशिष्ट २३ न. " - साप ઉગ્રવંશીય છે, ભેગવંશીય છે,” તે પ્રકારે દાતા આગળ તેણે પ્રગટ થવું
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