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सुदर्शिनी टीका अ०१ सू०६ भावनास्वरूपनिरूपणम्
अहिंसायाः पश्च भावना भवन्तीति ताः प्रतिपादयन् प्रथमामीर्यासमितिरूपां भावनामाह-'तस्स इमा' इत्यादि
मूलम्-तस्हा इमा पंच भावणाओ पढमस्स वयस्स हुंति, पाणाइवायवेरमाणं परिरक्षणट्टयाए । पढम-ठाण-गमण गुणजोगजुंजणजुगंतर-निवइयाए दिट्टीए इरियत्वं कीडपयंगतसथावरदयावरण निच्चं पुप्फफलतयपवालकंदमूलदगमट्टियवीयहरिय परिवजणए सम्भ, एवं खु सम्वे पाणा ण हीलियब्वा न नदियवा न गरहियव्वा न हिंसियव्वा न छिंदियात्रा न भिंदियव्या न बहेशला न यं दुक्खं च किंचिलब्भा पावडं जे एवं इरिशासमियजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा असवलमसंकिलिटुनिव्वणचरित्तभावणाए
अहिंसए संजए सुसाहू ॥ सू०६॥ पहूँचाकर उससे मुनिजन मात्रा में भिक्षा लेते हैं। इसी तरह और भी कौन २ सी प्रवृतियां भिक्षा की गवेषणा करने में बाधक होती हैं-वे सब इस सूत्र में प्रदर्शित की गई हैं, । मुनि को भिक्षा की गवेषणा करते समय अज्ञात, अगृद्ध, अद्रिष्ट, अदीन, अविमन, अकरुण, अविषादी और अपरितांनयोगी आदि स्थिति वाला रहना चाहिये। तभी जाकर पूर्णरूप से अहिंसा महावतरूप संवरद्वारपलता है ।।।सू ० ५॥ પાસેથી મુનિજન પરિમિત પ્રમાણમાં ભિક્ષા ગ્રહણ કરે છે એ જ પ્રકારે બીજી કઈ કઈ પ્રવૃત્તિ ભિક્ષાની ગવેષણ કરવામાં બાધક થાય છે તે બધું આ સૂત્રમાં બતાવ્યું છે, ભિક્ષાની ગવેષણ કરતી વખતે મુનિએ અજ્ઞાત, भगृद्ध, विष्ट, मदीन, भविभन, ५४२, भविषादी, अने. २०५रिततिया આદિ સ્થિતિ વાળા રહેવું જોઈએ. ત્યારે જ પૂર્ણ રીતે અહિંસા મહાવ્રતરૂપ સંવરદ્વારનું પાલન થાય છે. જે સૂપ છે
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