________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५४८
प्रश्नव्याकरणसूत्रे आत्मप्रदेशैः सहोपचित्य 'चउविहगई परंत' चतुर्विधगतिपर्यन्तम् , चतुर्विधा= चतुःपकारा गतिः-नरकादिरूपा पर्यन्तो विभागो यस्य स तं तथोक्तं संसारम् 'अणुपरियमृति ' अनुपर्यटन्ति-परिभ्रमन्ति ॥ १॥
ये च प्राणिनोधर्म नश्रृण्वन्ति, तथा ये च श्रुत्वापि प्रमाद्यन्ति-प्रमादं कुर्वन्ति ते उभयेऽपि ' अक्रयपुण्णा' अकृतपुण्या:-याणातिपातादिपापपरायणत्वात् हीनपुण्या 'अनंतए अनन्तकान् असन्तान् 'सबगइपक्खंदे ' सर्वगतिपस्कन्दान्= नरकनिगोदादि चतुर्गतिभ्रमणानि 'काहिति' करिष्यन्ति ॥२॥ __ ये च मिथ्यान्टिकाःअबुद्धिकाः विवेकबुद्धिविकलाः बद्धनिकाचितकर्माणः हैं- 'एएहिं , इत्यादि।
(एएहिं ) इन हिंसा आदिरूप ( पंचहिं )पांच ( आसवेहिं ) आसवों के आचरण करने से जीव ( अणुसमयं ) प्रतिक्षण (रयं आचिणित्तु) ज्ञानावरणीय आदि कर्ममल का बंद करके-आत्मप्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाहरूप संबंध करके ( च उविहगइपेरंतं ) नरकादिरूप चार प्रकारकी गतिवाले (संसारं ) संसार में (अणुपरियति ) परिभ्रमण किया करते हैं ॥ १।। (जे य न सुगंति धम्मं ) जो प्राणी श्रुतचारित्ररूप धर्म का श्रवण नहीं करते है तथा (सोऊग य जे पमायंति ) जो सुनकर के भी प्रमाद पतित होते रहते हैं, ये दोनों ( अकयपुण्णा ) प्राणातिपात आदिकों में परायण रहने के कारण हीन पुण्यवाले हैं । (अनंतए सव्व. गईपक्खंदे काहिंति ) अतः अनंतरूप में नरकनिगोद आदि चारोगतियों में परिभ्रमण करते रहेंगे ॥ २ ॥ ( जे नरा निच्छादिट्ठी अबुद्धीया मनुउपसा मीने पोताना वियारे शारे छ-" ए ए हिं" त्या
___“ एएहि " डिंसा दि ३५ " पंचहिं " ते पाय “आसवेहि " मानवाने माय२॥थी । “अणुसमयं " प्रत्ये: क्षणे “ रयं आचिणित्तु " ज्ञानाવરણીય આદિ કર્મમલને બંધ બાંધીને-આત્મ પ્રદેશની સાથે એક ક્ષેત્રાવગાહરૂપ सम'५ ४0 " चउविहगइपेरं" न२४६ ३५ या२ गति वा “संसारं" ससारमा “ अणुपरियटुंति" परिभ्रम ४ा ४२ छे ॥१॥ ___जेय न सुणंति धम्म " 2 0 श्रुतयारित्र३५ मर्नु अपए ४२di नथी, तथा “ सोऊण य जे पमायति " Airlन परे प्रमामा मेला २ छ, ते मन्ने " अकयपुण्णा" प्रातिपात माहिमा बीन २२पाने १२२ पुन्यहीन डाय छ, “अनंतए सव्वगई पक्खंदेकाहिंति " तेथी मनन्त३थे न२કનિદ આદિ ચારે ગતિમાં પરિભ્રમણ કર્યા કરશે. રા
For Private And Personal Use Only