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सुदर्शिनी टीका अ० २ ० ९-१० अन्येषामपि मृषाभाषणनिरूपणम्
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' निल्लज्जं निर्लज्ज = उज्जावर्जितं 'लोगगरहणिज्जं ' लोकगर्हणीयं = सर्वजन निन्दनीयं 'वह वपरिकिलेसबहुलं ' वधवन्धपरिक्लेशबहुले = तत्र वधः = मारणं बन्धः =रज्यादिना बन्धनं परिक्लेशः = दुःखसन्तापस्ते बहुला अधिकाः यस्मिन्नली के तत्तथा मृषाभाषणेन हि एते भवन्त्येव मृवा भाषिणां ' जरामरणदुक्खसोगनेमं ' जरामरणदुःखशोकानां नेमम् = अवधिभूतम् ' अमुद्ध परिणामसं किलिडं 'अशुद्धपरिणामसंक्लिष्टं = अशुद्धेन - अशुभेन परिणामेन संक्लिष्टं = व्याप्तमलीकं भणन्ति चपला इति पूर्वेण सम्बन्धः ॥ सु० ९ ॥
-' अलिया हि ' इत्यादि ।
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कीदृशास्ते ? इत्याह
मूलम् - अलियाहि संधिसंनिविट्ठा असंतगुणुदीरगा य संतगुण नासका य हिंसा भूओव घाइयं अलियं संपउत्ता वयणं
इनका सुनना भी कोई भी सत्यवादी पसंद नहीं करता है । (अमुणियं) ये अमनोज्ञ होते हैं । अथवा अज्ञानरूप होते है - इनसे बास्तविक वस्तु का बोध नहीं होता है । ( निल्लज्जं ) निर्लज्ज - लज्जावर्जित होते हैंअर्थात् ऐसे वचन बोलने वालों को किसी भी प्रकार की लज्जा नहीं आती है। (लोगगरहणिज्जं ) जिन वचनों की समस्तजन निन्दा किया करते हैं । ( वहबंधपरिकिलेसबहुलं ) जो इन वचनों को बोलते हैं वे व्यक्ति इन वचनों के कारण बहुत अधिक वध, बंधन और परिक्लेश को पाते हैं । ( जरामरणदुक्खसोगनेमं ) ये वचन जरा, मरण, दुःख एवं शोक के हेतुभूत होते हैं । (असुद्ध परिणामसंकि लिट्टे) इनके बोलने बालों के परिणाम अशुभ होते हैं। इस प्रकार के असत्य वचनों को चपल पुरुष बोलते हैं | सू-९ ॥
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સત્યવાદી પસંદ કરતાં નથી ૮ अमणुयं " ते अमनोज्ञ होय छे-अज्ञानश्य હાય છે—તેમનાથી વાસ્તવિક વસ્તુના ખોધ થતા નથી, निलज्जं " निर्स લજજારહિત હોય છે, એટલે કે એવાં વચને ખોલનારને કોઈ પ્રકારની શરમ भावती नथी, “ लोगगरह णिज्जं " ने वचनोनी सधना बोअ निहा उरे छे, वह परिकिले बहु એવાં વચને ખોલનાર માણસ તે વચનાને કારણે ઘણા વધારે વધ, ખંધન અને પરિકલેશ પામે છે. जरामरणदुक्ख सोगनेमं” ते वय ४रा, भरणु, दुःख भने शोउनां हेतुभूत होय छे. “ असुद्ध परिणामसंकिलिट्ठ ” तेवां पथनो मोक्षनारनां परिलाभ - मनोभाव-अशुभ होय छे. या प्राश्नां असत्य वयना संभण वृत्तिना भाणुसो मोटो छे. ॥ सू-- ॥
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