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सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १ अत्तादानस्वरूपनिरूपणम् णिवायवणं ' दुर्गति विनिपातबर्द्धनं दुर्गती= नरकादिके यो विनिपातः अवशतया गमनं तस्य वर्धनंवर्धकं ' भवपुणब्भवकरं' भवपुनर्भवकरं-पुनःपुनर्जन्ममरणकरं 'चिरपरिचियं' चिरपरिचित-चिरं जन्मजन्मान्तरेण अविच्छिन्नतया परिचितम् , ' अणुगयं' अनुगतम् अनुवृत्तमविच्छिन्नप्रवाहतया प्रवृत्तं, 'दुरंत'दुरन्तंदुःखावसानं-विपाकदारुणत्वात् ' तइयं अधम्मदारं ' तृतीयमधर्मद्वारम्।। मू०१॥ इणं ) यह करने वालों के दुर्गति-नरकादि में अवश होकर गमनरूप विनिपात का वर्धक होता है। (भवपुणभवकर) पुनः पुनः इसके प्रभाव से संसार में ही जन्म मरण करने पड़ते हैं । (चिरपरिचियं ) भव भव में इस कुकृत्य जन्य पाप का उदय साथ में रहता है। ( अणुगयं) इसका प्रवाह विच्छिन्न न होने के कारण यह जीव के साथ अनुगत रहता है । (दुरंतं ) विपाक समयमें दारुण होनेसे यह दुरन्त होता है। (तइयं अधम्मदार) इस प्रकार तृतीय अधर्मद्वारका यहां तक स्वरूप कहा।
भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा तृतीय अधर्मद्वार जो अदत्तादान है उसका स्वरूप निरूपण किया है । वे इसमें कह रहे हैं कि कीसी के धनादिक द्रव्यको ऐसा भय दिखलाकर कि 'मैं तुझे मार डालूंगा, मैं तेरे घरमें आग लगा दूंगा' ऐसा कहकर धनादिका हरण कर लेना अदत्तादान है। इस आदत्तादानका कारण लोभ होता हैं। तथा परके धनमें गृद्धि होती है । तात्पर्य इसका केवल यही है कि विना दी हुई पर की वस्तु को हरण था लय छ, “ दुग्गइविणिवायवडण " ते ४२नारनु हुति-२४ हिमा म१श ने मन३५ विनिपातनु-१५'डाय छ “ भवपुणब्भवकां" तेना ४२ वा वा२ संसारमा म भर मनुमा ५७ छ. चिरपरिचय" ४२४ सपना मा हुकृत्य न्य पान ६य साथे २ छ. " अणुगय " तेने प्रवाई अतूट पाने ४२0 ते ७वनी साथे २५.नुगत २ छ “दुरंतं " qिा४ना समये हा०९ मने दुरन्त डाय छे. " तइय अधम्मदार" | प्रमाणे ત્રિીજા અધર્મ દ્વારનું સ્વરૂપ અહીં સુધીમાં કહેવાયું
ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા અદત્તાદાન નામના ત્રીજા અધર્મદ્રારનું સ્વરૂપ પ્રગટ કર્યું છે. તેઓ તેમાં એ બતાવે છે કે કેટના ધનાદિનું मेवे भय सतावान “ तने भारी नामीश, २॥ १२ने मा . ડીશ” એવું કહીને ધનાદિકનું હરણ કરી લેવું તે અદત્તાદાન છે. આ અદત્તાદાનનું કારણ લેભ તથા બીજાના ધન પ્રત્યેની લાલસા હોય છે આ બધી વાતનું તાત્પર્ય એ છે કે કઈ આપણને વસ્તુ ન આપે તેનું હરણ કરવું તે
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