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सुर्शिनी टीका अ०४सू. ३ चक्रवादि वर्णनम् य' ग्रथिताश्च-विषयगुम्फितमानसाः, तथा ' अइमुच्छियाय ' अतिमूर्छिताश्च= अतिमोहातिशयमुपगताः 'अवंभे ओसण्णा' अब्रह्मणि अवसन्नाः मैथुने समासक्ताः, 'तामसेण भावेण अणुमुक्का' तामसेन भावेन अनुमुक्ताः, तामसेन भावेनअज्ञानमवर्तितेन परिणामेन अनुमुक्ता: आबद्धाः सन्तः, अत्र-- अन्नोन्नं सेव. माणा' इत्यग्रेण सम्बन्धः अन्योन्य परस्परं पुरुषैः सह स्त्रियः, स्त्रीभिः सह पुरुषा इत्यर्थः सेवमानाः= अब्रह्मसमाचरन्तः, 'दसणचरित्तमोहस्स' दर्शनचारित्रमोहस्य=' अत्र कर्मणः सम्बन्धमात्रविवक्षायां षष्ठो, दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीयरूपं द्विविधं कर्म ‘पंजर पिव' पञ्जरमिव करेंति' कुर्वन्ति-अब्रह्मसेविनो देवादयः खलु दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीयरूपपञ्जरे स्वात्मानं नयन्तीति भावः ॥सू०३॥
साम्प्रतं चक्रवादीन वर्णयति — भुज्जो असुरमुर' इत्यादि-- __ मूलम्-भुजो असुर-सुर-तिरिय-मणुय-भोगरति-विहार संपउत्ता य चकवट्टी-सुर-नरवाइ-सकया, सुरवरव्व देवलोए सेवन करने की आज्ञा से गुंफित मन होकर (अइमुच्छिया य) उन विषयों में अत्यंत मोहको प्राप्त होते रहते हैं और (अबंभे ओसण्णा) अब्रह्म के सेवन करने के लिये अत्यंत आसक्त हो जाते हैं। (तामसेणभावेणं अणुमुक्का ) तामसभाव से-अज्ञानप्रवर्तित परिणाम से-आबद्ध होकर परस्पर में एक दूसरे के साथ पुरुष के साथ स्त्री, और स्त्री के साथ पुरुष रमण करने लग जाते हैं। इस तरह ( अन्नोन्नं सेवमाणा) इस अब्रह्मरूप पापकर्मकों सेवन करने वाले ये देवादिक अपनी आत्मा को (दसणचरित्तमोहस्स पंजरं पि व करेंति )पंजर के जैसे दर्शन मोहनीय एवं चारित्र मोहनीय कर्म में निक्षिप्त कर देते हैं। अर्थात् इन कर्मों का बंध करते हैं ।। सू० ३॥ तेशी व्याकुल थाय छे. तेथी “ गढियाय " विषयानु सेवन ४२वानी भाशामा दीन ने “ अइमुच्छियाय,, तेभर्नु भन ते विषय प्रत्ये अत्यात भाडासत थया ४२ छ, भने “ अबंभेओसण्णा” ते भैथुनर्नु सेवन ४२वाने न्मत्यात भासत थाय छे. भावेण अणु मुक्का" तामस माथी--मज्ञान प्रतित ५.२९ मथीજકડાઈને પરસ્પરમાં-પુરુષની સાથે સ્ત્રી, અને સ્ત્રીની સાથે પુરુષ-રમણ કરવા ensil छ. या शेते “ अन्नोन्नं सेवमाण" २॥ माझा-यय ३५ ५।५४भर्नु सेवन ४२ना२ पाहि पोताना मात्माने "सणचरित्तमोहस्स पंजर पि व करेंति'પિંજરા જેવાં દર્શન મેહનીય અને ચારિત્ર મેહનીય કર્મમાં નાખી દે છે. मेरो त भनि। म मधे छ ॥ सू० ३॥
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