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सुशिनी टीका अ०४ सू० १५ अध्ययनोपसंहार : एयं तं अबंभपि चउत्थं सदेव मणुयासुरस्स लोगस्स पत्थणिज्ज एवं चिरपरिचियमणुगयं दुरंतं तिबमि ॥सू०१५॥
॥चउत्थं अहम्नदारं समत्तं ॥ टोका-' एसो सो' एष सः पूर्वोक्तः 'अभस्स फलविवागो' अब्रह्मगः फलरिपाकः ' इह लोइओ' ऐहलौकिकः-मनुष्यभवापेक्षया, “ परलोइओ य' पारलौकियश्च नरकाद्यपेक्षया ' अप्पनुहो' अल्पमुखाः – क्षणमात्रसुखजनकत्वात् 'बहुदुक्यो' बहुदुक्ख:-प्रचुरदुःख हेतुत्वात् ' महन्भयो' महामयः-वधवन्धन जन्ममरणादिभयोत्पादकसात् 'बहुरयणगाढो' बहुरजः प्रगाढः-कर्मदलिकबहुत्वाम् ' दारूगो' दारूणः-चतुर्गतिसंसारभ्रामकत्वात् 'ककसो' कर्कशः दशविध
अब इस पूर्वोक्त अब्रह्म विषय का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं- 'एप्लो सो' इत्यादि।
टीकार्थ-(एमोसो) यह पूर्वोक्त (अबभस्स) अब्रह्म-कुशीर. सेवन का (फलविवागो) फलरूपविपाक (इहलोइयपरलोइओ य ) मनुष्य भव की अपेक्षा तथा नरकादि गति की अपेक्षा ( अप्पसुहो) क्षणमात्र सुख का जनक होने से अल्पगुखरूप है तथा ( बहुदुक्खो) प्रचुर दुःख का हेतु होने से महादुःखप्रद है, (महमओ) बक्ष, बंधन, जन्म, मरणादि के भय का उत्पादक होने से महाभय स्वरूप है। ( बहुरयप्पगाढो) ऐसे कर्म करने वालो को कर्मों की स्थिति और अनुभाग बहुत अधिक मात्रामें बंधाता है इसलिये वह बहुरजःप्रगाढरूप है। (दारूणा) चतुर्गति रूप संसारमें ऐसे जीवों का ही भ्रमग होता है-अतः
હવે આ પૂર્વોક્ત અબ્રહ્મ વિષયને ઉપસંહાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે– " एसो सो" त्यादि
N:-" एसो सो” मा पूर्वरित “ अबभस्स" माझ पुयारित्र सेवनन। " फलविवागो” सविधा " इहलोइयपरलोइओ य' भनुष्य लqril अपेक्षा “ अप्पसुहो" क्षमात्र सुमनो ४४ पाने २) मा५सु५३५ छ, तथा " बहुदुक्खो" मत्यात दुमन हेतु उपायी महामह छ, " महमओ" वध, धन, सन्म, भ२९१ ६ सय Birs हवाथी महालय २१३५ छ, “ बहुरयप्पगाढो" मे भी ४२नारने भनी स्थिति અને અનુભાગ બહુ જ ધારે પ્રમાણમાં બંધાય છે તેથી તે બહુ જ પ્રગાઢ३५ छ. " दारणो' सेवा याने १ या२ गति ३५ ससारमा भ्रम ४२
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