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অশ্বগন
दोनि, 'दव्याई' द्रव्याणि 'परिधेत्तुं' परिग्रहीतुम् इच्छन्ति । 'सदेवमणुयामुरम्मि लोगे' सदेवमनुजासुरे लोके 'लोभपरिग्गहो' लोभपरिग्रहः लोभात्परिग्रहो लोभरूपो वा परिग्रही भवति, जिणवरेहिं ' जिनवरै 'भणिओ' भणितः प्रोक्तः 'नत्यि' नास्ति 'एरिसो ' ईदृशः परिग्रहसदृशोऽन्यः कश्चिदपि 'पासो' पाशः बन्धनम् , 'पडिबंधो' प्रतिवन्धः-प्रतिरोधः । अयं परिग्रहः 'सव्वलोए' सर्वलोके त्रिषु लोकेषु ' सब जीवाणं ' सर्वजीवानाम् सर्वप्राणिनाम् 'अत्थि' 'अस्ति विद्यते । सूक्ष्मजीवानामपि परिग्रहसंज्ञा भवतीति सर्वशब्दग्रहणम् ॥२.४॥ जो भी परिग्रहरूपवस्तु जितनी भी मात्रा में हमारे पास है वह ज्यों कि त्यो बनी रहे-नष्ट न हो, और उतनी मात्रा से भी फिर अधिक मात्रा में वृद्धिंगत हीती रहे तो अच्छी बात है ( सदेवमनुयालुरम्मि लोगे) देवलोक में, मनुष्यलोक में, तथा असुर लोक में ( लोभपरिग्गहो) लोभ परिग्रह-लोभ से परिग्रह अथवा लोभरूप परिग्रह-होता है। (जिगवरेहिं भगिओ) ऐसा जिनेन्द्र देवोंने कहा है । (नत्थि एरिसोपासो -पडिबंधो सन्चलोए सव्वजीवाणं अस्थि) इस परिग्रह के जैसा दूसरा
और कोई भी पास-बंधन, तथा प्रतिबंध-प्रतिरोध-आत्मकल्याण रोधक पदार्थ नहीं है। यह परिग्रह तीनों लोकों में समस्त जीवों के है। प्रश्नसूक्ष्म जीवों के यह परिग्रह किस रूप में है ? उत्तर-यह परिग्रह उनमें परिग्रह संज्ञा रूप में है। इसी बात को कहने के लिये सूत्र में 'सर्व' शब्द का ग्रहण किया है। વર્તિથી લઈને નાનામાં નાને જીવ એ જ ચાહે છે કે જે કઈ પરિગ્રહરૂપ જેટલા પ્રમાણમાં અમારી પાસે છે તે તેમને તેમ રહે-નાશ ન પામે, અને छ ते ४२ता ५ मा पधारे। थत। २७ त सा३. “सदेवमनुया सुरम्मिलोगे" हेपटमi, मनुष्यसोभा तथा मसुरखोमi " लोभ परिग्गहो" सोम परिश-सोलथी परिभ अथवा सोम३५ परियड डाय छ “जिणवरेहि भणिओ" मे जिनेन्द्र वा ४९ छे." नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो सव्वलोए सव्वजीवाणं अत्थि" मा परिबह रे भी ५५ मधन नथी, તથા પ્રતિરોધક–આત્મકલ્યાણ રેધક પદાર્થ નથી. આ પરિગ્રહ ત્રણે લોકમાં સઘળા જીવોને હોય છે.
પ્રશ્ન–સૂમ માં આ પરિગ્રહ કેવી રીતે છે?
ઉત્તર–આ પરિગ્રહ તેમનામાં પરિગ્રહ સંજ્ઞારૂપે છે. એ વાત દર્શાવવાને भाटे सूत्रमा 'सर्व' शहनी प्रयोगा ये छ.
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