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सुदशिनी टीका अ० ५ सू०५ परिग्रहो यत्फलं ददातितनिरूपणम् ५५१ महमओ बहुरयप्पगाढो दारुणो ककसो, असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चइ, न य अवेदइत्ता अस्थि हु मोक्खोत्ति एवमाहंसु नायकुलनंदणो महप्पा जिणो वीरवरनामधेजो कहेलि य परिग्गहस्स फलविवागं। एसो सो परिग्गहो पंचमो नियमा नाणामणिकणगरयणमहरिह० जीव इमस्स मोक्खवरमुत्तिमग्गस्स फलिहभूओ ॥ सू० ५ ॥
॥ चरिमं अहम्मदारं समत्तं ॥ 'टीका-' परलोगम्मि' इत्यादि
जीवाःयाणिनः लोभवससंनिविट्ठा' लोभवशसंनिविष्टाः लोभवशेन परिग्रहे संनिविष्टाः अभिनिविष्टाः लोभवशपरिग्रहग्रहिलाः 'परलोगम्मि' परलोके जन्मोन्तरविषये चकारात् इहलोके च ' नट्ठा' नष्टाः-विनष्टाः सुगतिनाशात् सत्पथभ्रंशाच, तथा ' तमं ' तमः अज्ञानान्धकारं पविट्ठा' प्रविष्टा 'महया मोहमोहि
पूर्व में 'ये यथा कुर्वन्ति ' यह द्वार कहा अब सूत्रकार परिग्रह जिस प्रकार का फल देता है इस विषय को कहते हैं- परलोगम्मि य' इत्यादि ।
टीकार्थ- (लोभवससंनिविट्ठा जीवा ) लोभ के वश से परिग्रह के वशवतीं बने हुए जीव ( परलोगम्मि य नट्ठा) अपने परभव को भी नष्ट कर डालते हैं । अर्थात् उनका यह लोक तो नष्ट हो ही जाता है, साथ में परभव भी उनका बीगड़ जाता है । क्यों कि ऐसे जीवों को सुगति की प्राप्ति नहीं होती है, तथा इसभव में वे सत्पथ से विहीन बने रहते हैं। तथा (तमपविट्ठा ) अज्ञानरूप अंधकार में प्रविष्ट होकर
___ 20201 " ये यथा कुर्वन्ति " ते भातार १ युं वे सूत्रा२ परियड ॐ ३०॥ मापे छे, ते पाये थे-" परलोगम्मिय" त्याह.
टी -" लोभवससंनिविद्वा जावा " खोलने अधीन. ५४२ परिवहन तामे. थये । “ परलोगम्मि य नट्ठा" पाताना ५२सपने ५ नष्ट ४२ નાખે છે, એટલે કે તેમને આ લેક બરબાદ થાય છે જ, પણ સાથે સાથે તેમને પરભવ પણ બગડે છે કારણ કે એવા અને સુગતિ પ્રાપ્ત થતી નથી, मने 24 सभा त। सन्माथी २ ५ २. तथा “ तमपविट्ठा ” मसान
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