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सुदर्शिनी टीका अ०४ सू० १५ अध्ययनोउपसंहारः जिनः वीरवरनामधेयः-प्रख्यातनामा भगवान् श्रीमहावीरोऽपि ' अबभम्स' अब्रह्मणः ' फलविवाग' फलविषाकं ' कहेसिय' कथितवांश्च एवं तं' एत त्तत्-उपदर्शित स्वरूपम् ' अवंभ ' अब्रह्म-अब्रह्मनामकं ' चउत्थं' चतुर्थमधर्मद्वारं ' सदेवषणुयासुरस्स लोगस्स' सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य 'पत्थणिज्ज' प्रार्थनीयम्। एवं 'चिरपरिचिथं' चिरपरिचितम् , अनादि कालादनुभूयमानम् * अणुगयं ' अनुगतं प्राणिनां पृष्टतोलग्नं, दुरन्तं-दुःखावसानं च । 'ति बेमि' इति ब्रवीमि, एतद् जम्बूस्वामिनं प्रति सुधर्मस्वाभि वाक्यम् ।। सू० १५ ॥ इति श्रीप्रश्नव्याकरणस्य सुदर्शन्याख्यायां व्याख्यायां हिंसादि पश्चास्त्रबद्वारेषु
अदत्तादानाख्यं चतुर्थमधर्मद्वारं समाप्तम् ॥ ३॥ (एवं ) इस प्रकार का कथन ( आहेसु) भूतपूर्व तीर्थकर गणधरादिक देवों का है। और इसी प्रकार से अब्रह्म के फलविपाक उन्ही तीर्थकरों के कहे अनुमार (नायकुलनंदणो) सिद्धार्थकुलको आनंद देनेवाले (महप्पा जिणो उ ) महात्मा जिनेन्द्र (वीरवरनामधेज्जा) वीरवरनेश्री वर्धमानस्वामी ने भी (अयंभस्स) अब्रह्म के (फलविवाग) फलविपाक को (कहेसिय ) कहा है ( एयंत ) यह वह ( अभं) अब्रह्म नाम का (चतुत्थं) चतुर्थ अधर्मद्वार ( देवमणुयासुरस्म लोगस्स) देव मनुष्य
और असुर लोक इन सब के यह (पत्थणिज्ज) प्रार्थनीय है, अर्थात् इस अब्रह्म का ये देवादि सेवन करते हैं । ( एवं ) इस प्रकार यह (चिरपरिचियं ) जोवों के पीछे अनादिकाल से लगा हुआ चला आने के कारण (अणुगय) अनुभूयमान है और (दुरंतं) इसका अवसान (अन्त)से दुरन्त
मा प्रा२- ४१- " आईसु" भूतपूर्व तीथ ४२ गधरा वार्नु छ. भने ते रीते मनाहाना सवियानुं श्थन ते तीथ ४२रीना प्रमाणे : "नायकुल. नंदणो" सिद्धार्थना गुणने मान देना२ " महापाजिणो उ" महात्मा जिनेन्द्र " वीरवरनामधेजा" वा२१२ श्री १५ भान स्वामी ५५५ " अबभन्स” भनझना " फलविवागं" ला " कहेसिय" ४९ छे. “ एयंत" सात बंभ" मप्र नामर्नु “चरत्थं " याथु मधमा२ “ देवमणुयाररस लोगस्स" ३५. मनुष्य, आने २५सु२ ते मधाने ते “ पत्वणिज " प्रार्थ गाय , मेटले
पाहत महानु सेवन ४२ छ. “ एव" 240d 1 . चिरपरिचय " यानी पा७५ Aile Hथी यादयुं आवे छे. तेथी " अणुगय" मनुसूयप्र०६३
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