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सुशिनी टीका अ० ४ सू० ९ अब्रह्मसेविस्वरूपनिरूपणम् .४४३ प्रधानाभिः देश रत्न रूपाभिः = 'लालियंता' लाल्यमानाः = विलास्यमानाः 'अतुलसदफरिसरसरूवगंधेयअणुभवित्ता' अतुलशब्दरसख्यगन्धाश्च अनुभूय 'ते वि' तेऽपि-ताशा अपि 'अवितित्ता कामाण' अविताः कामानांकामभोगेषु तृप्तिरहिता एव ' उवणमंति मरणधम्म' मरणधर्ममुपनमन्ति ।। सू० ८॥
पुनः केऽब्रह्मसेविनः १ इत्याह 'भुज्जो मंडलिय ' इत्यादि
मूलम्-भुजो मंडलियणरवरिंदा सबला सअंतेउरा सपरिसा सपुरोहियाऽमच्चडंडणायगसेणावइ - मंतिणीइ - कुसला णाणामणि रयण-विउलधणधण्णसंचय-निहिसमिद्धकोसा, रज्जसिरिविउलमणुभवित्ता विकोसंता बलेणमत्ता ते वि उवणमंति मरणधम्म अवितत्ता कामाणं ॥ सू० ९ ॥ ___टोका-'भुज्जो' भूयः पुनरपि · मंडलिय परवरिंदा' माण्डलिकनर वरेन्द्राः मण्डलाधिपतयः (सबला) सवला: सेना सहिताः स अंतेउरा' हि लालियंता) जो जनपदप्रधानभूत देशों में रत्नरूप से मानी गई अर्थात्-सर्वोत्कृष्ट स्त्रियों के साथ आनंद करते हैं-वैषयिक सुखों को भोगते हैं ( तेवि ) ऐसे वे बलदेव और वासुदेव भी ( अतुलसहफरिसरसरूवगंधे य अणुभवित्ता ) अतुल शब्द, स्पर्श, रस रूप, एवं गंध रूप विषयोंका अनुभव करके भी ( अवितत्तकामाणं ) कामभोगों की तृप्तिसे विहीन ही (उवणमंतिमरणधम्मं ) मरणधर्मको प्राप्त करते हैं ।सू०८॥
अब सूत्रकार " और कौन अब्रह्मसेवी होते हैं " इस बात को कहते हैं-'भुज्जो मंडलियणरवरिंदा' इत्यादि।
टीकार्थः-( भुज्जो मंडलिय परवरिंदा ) फिर जो मंडलाधिपति लालियंता" भुभ्य भुण्य देशमा २ल्लसमान ती मेट अनुपम श्रीया साथे भान ४२ छे वैषयि सुभाने लागवे छे “ ते वि" मे ते ५२ मने वासुदेव पY " अतुलसदफरिसरसरूपगंधे य अणुभवित्ता" અનુપમ શબ્દ, સ્પર્શ. રસ, રૂપ અને ગંધ રૂપ વિષયને ઉપભેગ કરવા छतi ५९ " अवितत्तकामाणं " भलोगोथी मतृप्त मेवी हासतम "उव. णमंति मरणधम्म" मृत्यु पामे छ । सू. ८॥
वे सूत्रा२ मताये छ है भी प्रासेवी आधु जाय छ ? "भुज्जो मंडलियणरवरिंदा" त्यादि E -"भुज्जो मॉडलियणरवरिदा" भने से
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