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सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १९ संसारसागरस्वरूपनिरूपणम्
क्रियणीयः सः ' तथा ' संतापणिच्चय' सन्तापनित्यकः=सन्तापः =विविधाधि व्याधिवन्धुवियोगादि जातः सागरस्थवडवाग्निसन्तापरूपो दुःखसन्तापो नित्यं यत्र स सन्तापनित्यकः, अतएव - ' चलंतचवलचंचल' चलच्चपलचञ्चलः अत्यन्तमस्थिरः, सतत परिवर्तनशीलमित्यर्थः [: तम्, तथा 'अत्ताणासरण' अत्राणाऽशर णानां, अत्राणानामशरणानां 'पुण्बकम्मसंचय' पूर्वकर्मसञ्चयानां प्राणिनां उदीर्णम् = उदयमानं यत् ' वज्जं ' अवद्य = पापं तस्य यः 'वेदिज्जमाण ' वेद्यमानः उपभुज्यमानः 'दुइसयविवाग' दुःखशतरूपो विपाकः स एव घुर्णन् = भ्रमन् जल समूहो अत्र स तथा तम्, इड्डिरससायगारबोहारगहियकम्मपडिबद्धसत्तकड्डिज्ज माणनिरयतल दुत्तसण्ण विसष्णवहलं ' ऋद्धिरससातगौरवोपहारगृहीतकर्मप्रतिबद्धसत्त्वकृष्यमाणनिरयतलदुत्तसन्नविषण्णबहुलम्, तत्र 'इड्रिरससायगावोहार ' ऋद्धि रससातगौरव पहारा:= ऋद्धिरससानलक्षणानि गौरवाण्येव उपहारा:= जलचरविशेपास्तैः ' गहिय ' गृहीताः 'कम्मपडिबद्ध ' कर्मप्रतिबद्धाः = ज्ञानावर( खोक्रभमाण) यह अत्यंत क्षुभित बना हुआ है। (संतावणिच्चय) विविध व्याधि, बन्धु वियोग आदि जन्य दुःखरूप वडवाग्नि का इसमें नित्य संताप छाया हुआ है । और यह ( चलंतचवलचंचल ) निरन्तर परिवर्तन शील है । एवं इस समुद्र में (अत्ताणा सरण) त्राण एवं शरण रहित ऐसे प्राणियों के जिनके पास ( पुव्वकम्मसंचय) पूर्वकृत कर्मों का संचय मौजूद है (उदण्णवज्ज ) उदय में आया हुआ जो पापकर्म का (वेदिनमा दुहसचिवागं ) उपभुज्यमान जो दुःखशत ( सैकड़ों दुःख) रूप फल है वह फल ही वहां (धुणंतजलसमूह ) चलता हुआ जल भरा हुआ है : (इडिरस सायगार वोहारगहियकम्म पडिबद्ध सत्तकडिज्ज माणनिरयतलदुत्तमण्णविसण्णबहुलं ) ऋद्धि रससातरूप गौरव ही इस संसार समुद्र में (उबहार ) उपहार जलचर जन्तु विशेष भरे हुए हैं "खोक्खुभमाण" अत्यंत मणलगी ठेस छे, “ संतावणिच्चय " विविध व्याधि વ્યાધિ, ખંધુ વિયાગ આદિ જન્ય દુઃખરૂપ વડવાનલના સંતાપ તેમાં નિત્ય વ્યાપેલા હાય છે, અને તે 'चलंतच वलचंचल " निरंतर परिवर्तन शील છે, અને આ સંસારમાં अत्ताणावरण ત્રાણુ અને શરણ રહિત એવા જીવે छे बेमनी पासे " पुत्र्वकम्मसंचय " पूर्वे रेसा भेना समूह रहे छे, उदिण्णवज्ज" भने ? पायमेन उदय थयो छे ते पापभनि “वेदिज्जमाणदुहसयविवाग" लोगवा ३५ सेडो हुः “ सैकडो दुःख રૂપ જે ફળ छे, ते त्यां" घुणंतजलसमूह " वडेतां ण समान हे " इडिटर ससायगारवोहार - गहियक्रम्म-पडिबद्ध - सत्त - कढिज्जमाणनिर-यतल दुसण्ण-विसण्णबहुलं " ऋद्धि रससांत ३५ गौरव ४ मा संसार सागरमा “ उवहार
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