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प्रश्नव्याकरणसूत्रे
अप्रत्ययकारकं, ' परमसाहुगरहणिज्जं परमसाधुगर्हणीयं परपीडाकारकं 'परमक्किण्हलेससहियं ' परमकृष्णलेश्या सहितं 'दुग्गड़विणिवायवडूणं 'दुर्गतिविनिपातवर्द्धनं भवपुणम्भवकरं ' चिरपरिचियं चिरपरिचितम् ' अणुरायं अनुगतम् ' दुरंतं' दुरन्तम् । एतानि सर्वाणि पदानि पूर्वमस्यैव द्वारस्य प्रथममुत्रे व्याख्यातानि ततो विज्ञेयम् । 'तिवेमि' पूर्ववत ||०१६ |
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इतिश्री - जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर-पूज्य श्री घासीलालवतिविरचितायां प्रश्नव्याकरणसूत्रस्य सुदर्शिन्याख्यायां व्याख्यायां हिसादि पञ्चाद्वारेषु मृपावादाख्यं द्वितीयम्आस्रव (अधर्म) द्वारं समाप्तम् ॥२॥
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निष्फल है, निकृति, साति के प्रयोग से बद्दल है अर्थात् कपट बहुल है | ( णीयजण निसेवियं) जाति, कुल आदि से अधम बने हुए व्यक्तिओं द्वारा निषेवित है । (निसं) क्रूर अथवा प्रशंसा से रहित है । अप्रत्यय - अविश्वास का कारक है । ( परमसाहुगरहणिजं ) परमसाधु-तीर्थकरों द्वारा गर्हणीय है । ( परपीडाकरणं ) दूसरों को पीड़ा पहुंचाने वाला है | ( परमकिण्हलेसमहियं ) अत्यन्तमलिन आत्म परिति से युक्त है ( दुग्गविशिवाय ) दुर्गति का वर्धक है। (भवपुणभवकरं ) पुनः पुनः जन्म प्रदाता है। (चिरपरिचयं ) चिरपरिचित यह जीवों के साथ अनेक भवों की परम्परा तक रहनेवाला है। (अणुगयं ) भव भव में साथ चलने वाला है । ( दुरंतं ) इसका फल दुरन्तकटुफलका देने वाला है "त्ति बेमि" इसकी व्याख्या की जा चुकी है। सू-१६ ॥ ॥ द्वितीय आस्रव --- ' अधर्म ' द्वार समाप्त ॥
छे भेटखे के उपर भय छे " णीयजणनिसेवियं " भति, डुण साहिथी अधम मेवी व्यक्तियों द्वारा सेवायेस छे. " निसंस" हूर-भेटते है प्रशसाथी रहित छे अप्रत्यय - अविश्वास उत्पन्न हरनार छे." परमसाहुगरह णिज्जं ” परमसाधुतीर्थ उरे द्वारा निद्य छे. " परपीडाकरणं " जीलने पीडा पडोयाउनार छे. " परम किण्हलेस सहियं " अत्यंत भदिन आत्म परिशुतिथी युक्त छे. " दुग्गइ विणिवायवड्ढणं " हुर्गतीनुं वधारनार छे. “ भव पुणब्भवकर " इरी इरीने भन्म बेवडावनार छे. “ चिरपरिचियं ” थिरपरिचित मे ते लवोनी साथै मने लवोनी परंपरा सुधी रहेनार छे. " अणुरायं" हरेड लवमां साथै शासना३ छे " दुरंत " तेनुं इज डुरन्त छे-टु इस हेनार छे. " “ तिवेमि " આ વાકયનો અર્થ આવી ગયા છે ( સૂ-૧૬ )
આ રીતે હિંસાદિ પ'ચાસત્ર દ્વારમાં પ્રાણવધ નામનુ બીજી' આસવ (અધમ)દ્વાર સમાપ્ત થયું.
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