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सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ७-८ अन्येषामपि मृषाभाषणनिरूपणम् २०५
तदसत्-कालस्यैव कर्तृत्वे कालप्राप्तौ स्त्रीश्मश्रुवन्ध्या पुत्रहस्ततलकेशादीनामपि सद्भावः स्यात् , इत्यपि मतवादिनो मिथ्या जल्पन्ति । तथा 'इडिरससायगारवपरा ' ऋद्धिरससातगौरवपराः, 'वहवे ' वहवः अनेके करणालसा:= कर्तव्याचरणालसाः अनुद्योगिनः 'धम्मवीसंसएण' धर्मविमर्शनेन-धर्मविचारेण 'मोसं' मृषा-असत्यं वस्तु अधर्ममपि धर्ममेव 'परूवेति' प्ररूपयन्ति=पतिपादयन्ति ॥७
अन्येऽपि जना यथा मृपा भाषणपरा भवन्ति तत्परूपयति 'अवरे' इत्यादि
मूलम्-अवरे अहम्माओ रायटै अब्भक्खाणं भगंति अलियंचोरोत्ति अचोरियं करेंत । डामरिओ ति वि य एमेव उदासीणं । दुस्सीलोत्ति य परदारं गच्छइत्ति मइलिंति
सोलकलियं । अयंपि गुरुतप्पओ त्ति । अण्णे एमेव भणंति ____ कालवादियों की यह मान्यता असत्यरूप इसलिये है कि काल को ही कर्ता मानने पर स्त्री जब तरुण अवस्था संपन्न हो जाती है तो पुरुष की तरह उसके भी दाढी मूछ का आना, तथा वंध्या के पुत्र होना, हथेली में बाल उगना आदि भी होना चाहिये-परन्तु यह सब कुछ नहीं होता है । इसलिये ये पूर्वोक्त सब ही बाद मिथ्या प्ररूपणा करते हैं ऐसा जानना चाहिथे । ( एवं ) इस प्रकार (केइ ) कितनेक (करजालसा ) अपने कर्तव्य करने पर योग्य आचरण में आलसी बने हुए, और ( इडिरससायगारवपरा ) ऋद्धि, रस, सातगौरव में तत्पर रहे हुए, ( यहवे ) अनेक अनुद्योगी व्यक्ति ( धम्म वीमंसरणं ) धर्म के विचार से ( मोसं ) मृषा-असत्यं-अधर्म को भी धर्मरूप से (परूति) प्ररूपित करते हैं । सू-७॥ શાશ્વત છે. કાળવાદીઓની તે માન્યતા અસત્યરૂપ તે કારણે છે કે કાળને જ જે કર્તા માનવામાં આવે તે સ્ત્રી જ્યારે તરુણ અવસ્થાએ પહોંચે ત્યારે તેને પણ પુરુષની જેમ દાઢી મૂછ આવવી જોઈએ, તથા વધ્યાને ત્ર થ જોઈએ. હથેલીમાં બાલ ઉગવા જોઈએ, પણ તેમાંનું કંઈ પણ બનતું કથી. તેથી પૂર્વોક્તા मे मा वाह मिथ्या ३३५९॥ ४२ छे ओम मानने मे, " एवं” को १ प्रमाणे “ केइ" 32.४ " करणालसा" पोताना तव्य पसनमा मासु
ने भने “ इड्ढिरससायगारवपरा” ऋद्धि, २४ मने सात मनिभानमा रत थाने "बहवे" मने अनुयोगी सी “धम्मवीमसएणं" धर्मना व्यासथी "मोस' भृषा-२मसत्य-अयमने पाय धर्म३५ "प्ररूवेति' ५३पित ४२ छ ॥-७॥
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