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सुदर्शिनी टीका २० १ सू० ४७ मनुष्यभवदुःखनिरूपणम् निरूपणेनैव तदन्तर्गतफल विपाकस्यापि तदुक्तत्वसिद्धौ पुनः पृथरु तस्य महावीरोक्तत्वाभिधानं प्राणिवधस्यैकान्तिका शुभफलदायकत्वात्तस्यात्यन्तहेयत्वद्योतनार्थम् । एसो सो' एष सा=पूर्वोपदर्शित स्वरूपः पाणवहो ' प्राणवधः 'चंडो' चण्डः क्रोधजनकत्वात् , ' रुद्दो' रौद्रः-रौद्ररसप्रवर्तितत्वात् , 'खुद्द' क्षुद्र:= अधमजनाचरितत्वात् ' साहसिओ' साहसिका असमीक्ष्यकारिजनप्रवर्तितत्वात् , अइभओ बीहणओ तासणओ अणज्जओ णिरवयक्खो , निद्धम्मो, निप्पिवासो, निक्कलणो, निरयवासगमणनिधणो, मोमहन्भयपयो मरणवेमणस्सो, ति बेमि ) __ शंका-जब सूत्रकार ने इस अध्ययन में महाविरोक्तता निरूपित की है तब यह बात तो स्वतः सिद्ध हो ही जाती है कि तदन्तर्गन फलविपाक भी उन्हीं द्वारा कहा गया है, फिर क्या बात है जो इसमें पृथक रूप से महावीरोक्तता प्रतिपादित की जा रही है ?
उत्तर-शंका ठीक है, परंतु इसका अभिप्राय केवल इतना ही है कि पुनः इसमें जो तदुक्तता प्रतिपादित की है उससे उसमें-प्राणिवध मेंऐकान्तिक अशुभफलदायकता होने से अत्यन्त हेयता प्रकट की गई है। यही बात सूत्रकार इन आगे के पदों द्वारा स्पष्ट करते हैं-( एसो सो) पूर्वोपदर्शित स्वरूप वाला यह ( पाणवहो) प्राणवध-( चंडो) क्रोधजनक होने से चण्ड है, ( रुद्दो) रौद्र रस द्वारा प्रवर्तित होने से रौद्र है, (खुद्दो ) अधमजनों द्वारा आचरित होने से क्षुद्र है, (साहमिओ) बीहणओ तासणओ अणज्जओ णिरवयक्खो, निद्धम्मो, निपिव'सो, निक्कलुणो निरयवासगमणनिधणो, मोहमहब्भयपयट्टो मरणवेमणासो त्तिमि"
શંકા–જ્યારે સૂત્રકારે આ અધ્યયનમાં મહાવીરેક્તતાનું નિરૂપણ કર્યું છે ત્યારે તે વાત તે આપોઆપ સિદ્ધ થઈ જ જાય છે કે તેમાં આવતે ફલવિપાક પણ તેમના દ્વારા કહેવાયેલ છે, તે શા કારણે તેમાં અલગ રીતે મહાવીરેક્તતાનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવેલ છે?
ઉત્તર-શંકા બરાબર છે પણ તેને ઉદ્દેશ કેવળ એટલે જ છે કે ફરીથી તેમાં જે તેમના દ્વારા કથિત હવાનું પ્રતિપાદન કર્યું છે તેથી તેમાં પ્રાણ વધમાં એકાન્તિક અશુભ ફલદાયકતા હોવાથી અત્યંત હયતા પ્રગટ કરાઈ છે. मे १ वात सूत्र४।२ मा मावतi 20 पहो २१ २५८ ४२ छ-"एसो सो" मा० विधामा भावेस २१३५वाणे ते "पाणवहो" प्रावध " चण्डो" धन पाथी य छ, “रुद्दो" शैद्र२स द्वारा प्रपति डोपाथी रौद्र छ, "खुद्दो" मम सी द्वारा आयरित बापाने सो क्षुद्र छ, “साहसिओ"
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