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मुदर्शिनी टीका अ० १ सू०४७ मनुष्यभवदुःखनिरूपणम् निष्पिपासः परजीवनस्नेहवर्जितत्वात् , 'निकलुणो निष्करुणः-दयाभाववर्जितत्वात् 'निरयवासगमणनिधणो' निरयवासगमननिधनः-निरयावासा-नरकावासः, तत्र गमनमेव निधन पर्यवसानम्-अन्तिमफलं यस्य स तथा, नरकमापकत्वात् , 'मोहमहन्भयपयट्टओ' मोहमहाभयप्रवर्तकः-मोहा अज्ञानं स एव महाभयं महाभयहेतुत्वात् , तस्य प्रवर्तकः, ' मरणवेमणस्सी' मरणवैमनस्यः = मरणेनमृत्युरूप कारणेन प्राणिनां वैमनस्यं = दैन्यं यस्मात्स तथा दीनमनः कारित्वात् , इत्येवं लक्षणः प्राणवधा=ज्ञपरिज्ञया तत्स्वरूपं विज्ञायः प्रत्याख्यानपरिज्ञया सर्वथा परित्याज्य इति भावः । श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामिनं कथयति-'त्तिबेमि'
से रहित होने के कारण यह निरपेक्षरूप है । (निद्धम्मो ) श्रुताचारित्र रूप धर्म से रहित होने के कारण यह निर्धर्मरूप है। (निप्पिवासो) इस में दूसरों के जीवन के प्रति स्नेहभाव नहीं रहता है इसलिये यह निषि. पासरूप है । ( निक्कलुणो) दयाभाव का सर्वथा इसमें अभाव रहता है इसलिये यह निष्करुणरूप है। (निरयवासगमणनिधणो) नरक गमन ही इसका अन्तिमफल है, इसलिये यह निरयवासगमननिधनरूप है। (मोह महन्भयपयट्टओ) मोहरूप-महाभय का यह प्रवर्तक है इसलिये यह मोह महाभय प्रवत्तकरूप है। (मरणवेमणस्सो) मृत्युरूप कारण से पाणियो को इससे दैन्यभाव होता है इस लिये यह मरणबैमनस्यरूप है। इसलिये इस प्राणवध का ज्ञ परिज्ञा से स्वरूप जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञो से सर्वथा परित्याग कर देना चाहिये । इस प्रकार कह कर अव सुधर्मा
होवाने ।रणे ते निरपेक्ष३५ छे “निद्धम्मो" श्रुतयारित्र३५ धमाथी २डित डोपाने ४।२६ निभ३५ छ. " निम्पिवासो" तेमा मन्यना न प्रत्ये स्नेहसाव रहेता नथी तेथी ते निपपास३५ छ. “ निकलुणो" तेभा यामाना तहान मला २ छ तेथीते नि४२११३५ छ. " निरयवासगमणनिधणो" न२४ गमन જ તેનું અંતિમ ફળ હોય છે, તે કારણે તે નિરયવાસગમનનિધનરૂપ છે. "मोहमहब्भयपयओ" भो४३५ भडालयन। ते अवत' छे, ते ॥२ ते मोड महालय प्रपत्त ३५ छ. “ मरणवेमणस्सो” भ२४३५ ॥२६४थी प्राणिमामा તેનાથી દૈન્યભાવ ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી તે મરણુમનસ્ય રૂપ છેતે કારણે તે પ્રાણવધનું જ્ઞ પરિણાથી સ્વરૂપ જાણુને પ્રત્યાખ્યાન પરિણાથી તેને સર્વથા પરિત્યાગ કરે જોઈએ. આ પ્રમાણે કહીને હવે સુધર્માસ્વામી જંબુસ્વામીને प्र. २१
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