Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम प्रतिपत्ति का कयन] [25 यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रागम में तेजस्काय और वायुकाय का भा त्रस क अन्तर्गत माना गया है। इसी जीवाभिगमसूत्र में आगे कहा गया है कि-त्रस तीन प्रकार के हैं तेजस्काय, वायुकाय और औदारिक त्रस प्राणी।' तत्त्वार्थसूत्र में भी 'तेजोवायुद्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः' कहा गया है / 2 अन्यत्र उन्हें स्थावर कहा गया है। इन दोनों प्रकार के कथनों की संगति इस प्रकार जाननी चाहिए--- __ स जीवों के सम्बन्ध में दो प्रकार की विवक्षाएँ हैं। प्रथम विवक्षा में जो जीव अभिसन्धि. पूर्वक-समझपूर्वक इधर से उधर गमनागमन कर सकते हैं और जिनके असनामकर्म का उदय है वे त्रस जीव लब्धित्रस कहे जाते हैं और इस विवक्षा से द्वीन्द्रियादि जीव त्रस की कोटि में आते हैं, तेज और वायु नहीं। दूसरी विवक्षा में जो जीव अभिसन्धिपूर्वक अथवा अनभिसन्धिपूर्वक भी ऊर्ध्व या तिर्यक् गति करते हैं, वे त्रस कहलाते हैं। इस व्याख्या और विवक्षा के अनुसार तेजस् और वायु ऊर्ध्व या तिर्यक् गति करते हैं, इसलिए वे त्रस हैं। ऐसे त्रस जीवों को गतित्रस कहा गया है। तात्पर्य यह है कि जब केवल गति की विवक्षा है तब तेजस् और वायु को त्रस में गिना गया है / परन्तु जब स्थावर नामकर्म के उदय की विवक्षा है तब उन्हें स्थावर में गिना गया है। तेज और वायु के असनामकर्म का उदय नहीं, स्थावरनामकर्म का उदय है। अतएव विवक्षाभेद से दोनों प्रकार के कथनों की संगति समझना चाहिए। स्थावर-'तिष्ठन्तीत्येवंशीला: स्थावराः' / उष्णादि से अभितप्त होने पर भी जो उस स्थान को छोड़ने में असमर्थ हैं, वहीं स्थित रहते हैं; ऐसे जीव स्थावर कहलाते हैं। यहाँ स्थावर जीवों के तीन भेद बताये गये हैं-१. पृथ्वीकाय 2. अप्काय और 3. वनस्पतिकाय / सामान्यतया स्थावर के पांच भेद गिने जाते हैं। तेजस् और वायु को भी स्थावरनामकर्म के उदय से स्थावर माना जाता है। परन्तु यहाँ गतित्रस की विवक्षा होने से तेजस्, वायु की गणना त्रस में करने से स्थावर जीवों के तीन ही भेद बताये हैं। तत्त्वार्थसूत्र में भी ऐसा ही कहा गया है'पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः / / 1. पृथ्वीकाय--पृथ्वी ही जिन जीवों का काया-शरीर है, वे पृथ्वीकायिक हैं / जो लोग पृथ्वी को एक देवता रूप मानते हैं, इस कथन से उनका निरसन हो जाता है। पृथ्वी एकजीवरूप न होकर--असंख्य जीवों का समुदाय रूप है। जैसा कि आगम में कहा है-पृथ्वी सचित्त कही गई है, उसमें पृथक पृथक् अनेक जीव हैं / 2. अप्काय-जल ही जिन जीवों का शरीर है, वे अप्कायिक जीव हैं / 3. वनस्पतिकाय-वनस्पति जिनका शरीर है, वे वनस्पतिकायिक जीव हैं। 1. तसा तिविहा पण्णत्ता तं जहा तेउकाइया, वाउकाइया पोराला तसा पाणा। -जीवाभि. सूत्र 16 2. तत्त्वार्थ. अ. 2, सू. 14 3. तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 2, सूत्र 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org