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श्रेष्ठि देवचंद लालभाइ जैन-पुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः १२२ । पण्डितश्रीकुशलवर्धनगणिशिष्य-श्रीनगर्षिगणिविरचिता सकलवाचकशिरोमणिमहोपाध्याय
श्रीविमलहर्षगणिसंशोधिता
श्रीस्थानाङ्गसूत्र-दीपिका वृत्तिः ।
(प्रथमो भागः)
सम्पादकः संशोधकश्च पूज्यपाद-सिद्धान्तमहोदधि-कर्मशास्त्ररहस्यवेदि-शासनदिवाकर-आचार्यमहाराजाधिराज-श्रीमदविजयप्रेमसूरीश्वरपट्टप्रद्योतन-ज्ञानदिवाकर-प्रभावकप्रवचनकार-तपोनिधि-पूज्य-आचार्य देव-श्रीमद्विजय-भुवनभानुसूरीश्वर-प्रथमशिप्यस्न-ज्ञाननिधि-संयमत्यागतयोमा -पन्य सप्रवर-श्रीपद्मविजयजीगणव-सुशिष्यविद्वद्वर्य-पूज्यमुनिवर्थ
श्रीमित्रानन्दविजयमहाराजः। प्रकाशकः सुरतवास्तव्य-श्रेष्ठि-देवचन्द लालभाइ पुस्तकोद्धार-कोशकार्यवाहकः। प्रतयः ५.. वीराब्दाः २५०० + विक्रमाब्दाः २०३० निष्क्रयः द्वादश रूप्यकाणि
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अयमागमग्रन्थः श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाइ पुस्तकोद्धारसंस्थायाः कार्यवाहकेन मोतीचंद मगनभाइ चोकसी इत्यनेन अहमदावादनगरे अलकेशप्रिन्टरीमध्ये मगनभाइद्वारा मुद्रापितः ।
अस्य पुनर्मुद्रणायाः सर्वेऽधिकाराः एतदभाण्डागारकार्यवाहकैरायत्तीकृताः सन्ति ।
Printed by Alkesh Printry, Sadmata's Pole, Sankadi Seri, Ahmedabad and Published by the Hon. Managing Trustee, Motichand Maganbhai Choksi, for Sheth Devachand Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund, at Sheth Devachand Lalbhai Jain Boarding House, For Shree RatpaSagar Jain Boarding, Badekhan Chakla Gopipura, Surat.
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Sheth Devchand I albhai Jaia Pustakoddkar Fund Series No. 122
Shree Sthanang Sutra Dipika Parti
(With Commentary)
By Shri Nagarshigani Maharaj Edited by Muni Shree Mitranand Vijay ji
Vir Samvat : 2500
Vikram Samvat : 2030
Price : Rs. 12-30
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: The Board of Trustees : (1) Nemchand Gulabchand Devchared
Javeri (2) Talakchand Motichand Javeri (3) Babubhai Premchand Javeri (4) Amichand Zaverchand Javeri (5) Keshrichand Hirachand Javeri (6) Motichand Maganbhai Choksi
Hon. Managing Trustee.
સંસ્થાનું ટ્રસ્ટી મંડળ : શ્રી નેમથલ ગુલાબચંદ દેવયં ઝવેરી - તલકચં મોતીચંદ ઝવેરી
બાબુભાઈ પ્રેમચંદ ઝવેરી અમીચંદ ઝવેરચંદ ઝવેરી
કેશરીયં હીરાચંદ ઝવેરી ક, મોતીચંદ મગનભાઈ ઝવેરી
માનદ્ મેનેજીંગ ટ્રસ્ટી
ちゅるゆやゆるゆるなら々なかゆゆゆゆゆゆゆゆゆゆゆゆやゆるゆる
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प्रस्तावना।
धीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१॥
१०००००००००००००००००0000000000000000000000000000000000
जयन्तु वीतरागाः
-प्रस्तावना :श्री देवचंद लालभाद जैन पुस्तकोद्धार फंड संस्थाना कार्यवाहक सुश्रावक केशरीचंद हीराचंद सं. २०२३ मां नडीयाद मुकामे मारी पासे आव्या अने 'श्रीठाणांग सूत्र' उपरनी 'दीपिका' टीकार्नु इस्तप्रतना आधारे संशोधन संपादन करी आपवा विनंति करी. परमपूज्य भवोदधितारक सिद्धांतमहोदधि सयमत्यागतपोमूर्ति सुविशालगच्छाधिपति शासनदिवाकर कर्मशास्त्ररहस्यवेदी परमगुरुदेव आचार्य देव श्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज साहेबनी अनुमति मेळवी में आ शुभ कार्यनो स्वीकार को. सं. २०२४ नी सालमां पू. परमशासनप्रभावक व्याख्यानवाचस्पति परमकृपानिधि गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमदविजय रामचद्रसूरीश्वरजी महाराजनी पुण्यनिधामा चोमासु रहेवानु थयु. त्यां श्रीठाणांगसूत्र उपरनी दीपिका टीकाना संशोधननु कार्य शरु कर्यु: श्रीठाणांग (स्थानांग सूत्र):
हालमा विद्यमान ४५ आगमोमां ११ अंगसूत्रो छे तेमां त्रीजु ठाणांग सूत्र छे तेना वर्तमान प्रथम भागमां सूत्रसंख्या ३८८ छे. तेना उपर शासनशिरोमणि पू. आ. अभयदेवसूरीश्वरजी म. रचित विद्वद्भोग्य विस्तृत टीका हाल छे. ते पूर्व विद्वशिरोमणि शीलाकांचार्य भगवाननी रचेली टीका हती. हाल ते उपलब्ध नधी साइकोलोजोथी भरेलो अने घणी तात्त्विक
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मोस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥२॥
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वावतोनो भंडार आ ग्रंथ छे. एकथी दस सुधीनी संख्यामां रहेली वस्तुओनो निर्देश करता आ ग्रंथी शैलीने मळतो बौद्धोमां 'अंगुर निकाय' नामनो ग्रंथ छे.
दीपिका टीका :
आ टीकामां पना रचयिता महर्षि नगर्षिगणिए मोटी टीकानो आधार लीधो छे. वाद-चर्चानां स्थळो अने केटलेक ठेकाणे टीकानो विस्तार हुंकावीने संस्कृतना प्राथमिक अभ्यासीओ पण वांची शके प रीते आ दीपिका टीका तेओप रची-संकलित करी छे. टीकाना रचियता :
आ टीकाना रचयिता पं. नगपिगणि अकबर बादशाह प्रतिबोधक जगद्गुरु आ. श्री हीरविजयसूरीश्वरजी म० ना शिष्य पं उदयवर्धन गणिना शिष्य पं. कुशलवर्धन गणिना शिष्य छे. टीकामां आपणने टीकाकारे पोते करेलो उल्लेख जोवा मळे छे के " श्रीमद् तपागच्छाधिराज सूरीश्वर श्री विजयदेवसेनसूरिना राज्यमां श्रीमद् तपागच्छने शोभावनार हार समा सूरीश्वर श्रीविजयदेवसूरि यौवराज्यमां सकलवाचक शिरोमणि महोपाध्याय श्री विमलहर्ष गणिए संशोधित करेली, पंडित कुशलवर्ध नगणिशिष्य पंडित नगर्षि गणिए स्ववाचन अने परोपकार माटे उद्धार रूपे रचेली स्थानांगदीपिकामां प्रथम अध्ययन समाप्त थयुं."
प्रस्तावन ।
॥२॥
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प्रस्तावना।
श्रीस्थानात
सूत्रदीपिका बृत्तिः ।
||३||
2000000000000000000000000000००००००००००००००००००००....."
पं. नगर्षिगणिनी अन्य कृतिओ :
जैनसत्यप्रकाश क्रमांक ११४ मां नीचे मुजब उल्लेख छे के पं० नगर्षि गणिए सं. १६४९ मां रामसीतारास, अल्पबहुत्वविचारगर्भित भ० महावीरस्वामीनु स्तवन गा० ४९. दंडक अवचूर्णि स. १६५१ ना श्रावण सुदि ३ ना रोज जालोरमां वरकाणा पार्श्वनाथ स्तवन सं. १६५१ भा. व. ३ ना रोज जालुर पंचचैत्यपरिपाटीस्तवन अने सं. १६५७ ना वैशाख सुदि ७ ना रोज स्थानांगदीपिका ग्रंथान १८००० ( आ आंकडो खोटो लागे छे कारण के ग्रंथान १३ थी १४ हजार छे.) तेमज स. १६१७मां गुजरातीमां कडीबद्ध 'कल्पान्तर्वाच्य' वगेरे ग्रंथो रच्या हता. तेमनाथी नगवर्धन शाखा नीकळी छे. दीपिका टीकानी हस्तप्रत :
आ टोकाग्रथना संशोधन संपादनमां लींबडी-जैनसंघ (आणंदजी कल्याणजीनी पेढी) हस्तकना हस्तलिखित ज्ञानभंडारनी एक ज प्रतनो उपयोग थयो छे. तपास करतां बीजी कोइ हस्तप्रत प्राप्त थइ न हती. आ प्रस्तावना लखाय छे त्यारे सांभळवा मल्यु छे के अमदावादना डहेलाना उपाश्रयना ज्ञानभंडारमा तथा देवसाना पाडाना संघहस्तकना शानभंडारमा ठाणांगदीपिकानी हस्तप्रतो छे. लींबडीना शानभंडारनी हस्तप्रत आपवा बदल त्यांना वहीवटदारोनी उदारता प्रशंसनीय छे. आ हस्तप्रतमां आजथी ५४ वर्ष पूर्व आगमोदयसमिति
॥३॥
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प्रस्तावना
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥४॥
तरफथी प्रकाशित थयेली स्थानांग बृहबृत्तिनी प्रत करतां केटलाक स्थळोमा जेम शुद्ध पाठो मल्या छे तेम केटलाक स्थळोमां लेखनदोषथी अशुद्धिओ पण छे. ए अशुद्धिओनु संमार्जन आगमोदय समितिनी प्रतना आधारे तेमज अनेक विद्वानोने पूछीने करवामां आव्यु छे दीपिकानी प्रेसकोपी :
श्री देवच द लालभाई जैन पुस्तके द्धार फंड-सस्थाए करावेली प्रेसकोपी घणी अशुद्ध, अपूर्ण अने अस्तव्यस्त हती में ग्रंथन संशोधन कर्या बाद प. बाबुलाल सवचंदभाईए फरीथी सुंदर अक्षरोथी व्यवस्थित प्रेसकोपी करी हती आ प्रथना संपादनमा तेओनो सारो सहयोग मल्यो छे.
आ संस्करणमा परिशिष्ट रूपे भगवान अभयदेवसूरीश्वरजी म. विरचित वृहबृत्ति अने दीपिका टीकाना पाठभेदो सामसामा आपवामां आव्या छे ते उपरथो पाठोनी शुद्धि-अशुद्धिनो विचार करी शकाशे
दीपिका टीकामां केटलेक ठेकाणे नवा मळेला पाठो संशोधन संपादन वखते विहार दरम्यान प्रूफ तपासता मूळ प्रेसकोपी, हस्तलिखित प्रत तथा ठाणांग वृहत्टीकानी मारी सुधारेली प्रत साथे न होवाथी वृहद्वृत्ति प्रमाणे पाटो भूक्या छे ते शुद्धिपत्रकमां सुधारी लेवामा आव्या छे.
.0000000000000000000000000000000000000000000000०००००००.
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका
वृत्तिः
॥५॥
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आ विषमकाळमां आगमग्रंथो अध्यात्मनो प्रकाश पाथरनारा छे आराधनामां अपूर्व जोम प्रगटावनारा छे. श्री देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड संस्थाप आगमरसिकोने अने संस्कृतना अल्पबोधबाळा मुनिओने पण आगमरस पीवा मळे ते उद्देशथी पूजनीय आगमशास्त्रोनी दीपिका टीकाओ प्रगट करवा मांडी छे. तेथी आ ग्रंथाने वांचवाना अधिकारी मुनिभगवंतो आना वांचन-मनन द्वारा संस्थानो उद्देश सफळ करे अने आगमसुधाना पानथी तत्त्वसंवेदन ज्ञानना आराधक बने !
स्थळ :
विजय दानसूरीश्वर ज्ञानमंदिर कालुपुर, अमदावाद.
सं. २०२९ फागण वद ६.
ता. २९-३-७३ रविवार.
लि. पूज्यपाद तपोरत्नमहोदधि ज्ञानदिवा कर प्रभावक प्रवचनकार परमगुरुदेव पू. आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय भुवनभानुसूरीश्वर सुशिष्यरत्न प्रशमनिधि पू. गुरुदेव पंन्यास प्रवरश्री पद्मविजयजीगणिवर शिष्याणु
मित्रानंद विजय.
प्रस्तावना ।
॥ ५ ॥
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श्रीस्थाना
बे बोल
बे बोल ।
दीपिकावृत्तिः ।
000000000000000000000000000000000000000000000000000.
आगमनी अणमोल वाणीने प्रकाशित करनारी श्री देवचंद लालभाइ जैन पुस्तकोद्धार फंड नामनी संस्था वर्तमानना विषमय वातावरणमां जगतने अमृतर्नु पान करावी रही छे. प्रस्तुत श्री स्थानांग सूत्र १ यी १० संख्यावाळी वस्तुओनो विविध रीते निर्देश करनार खजानो छे आर्नु संपादन कार्य विद्वद्वर्य मुनिराज श्रीमित्रानंदविजयजी करेल छे थी स्थानांग सूत्रना आ प्रथम भागमा १ थी ५ संख्यावाळी वस्तुओनो संग्रह छे.
केटलाक संयोगोने लइने आ ग्रंथ प्रकाशित थवामां विलंब थयो छे. छतां घणा प्रयासथी प्रगट थतुं आ आगमरत्न भव्य जीवोना अंतरमा उज्ज्वळ प्रकाश पाथरी, तेमने मोक्षसुखना भोक्ता बनावे से ज महेच्छापूर्वक विरमुं .
श्रावण पूर्णिमा, वीर संवत २५००
पं. बाबुभाई सवचंद शाह मनसुखमाईनी पोळ
अमदावाद.
100000000000000000000000000000000000000000000000000
॥६॥
ली.
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॥ अहम् ॥ नगर्षिगणिविरचितदीपिकावृत्तिसमेतम श्रीस्थानाङ्गसूत्रम्
ॐ नमः श्रीसर्वज्ञाय ।
श्रीविजयसेनसूरीश्वरपरमगुरुभ्यो नमो नमः। प्रणतसुरासुरनाथं, सुनाथमभिनम्य वीरजिननाथम् । स्मृत्वा श्रीश्रुतदेवीं, श्रीगुरुपादान्नमस्कृत्य ॥१॥ अतिविस्तरवृत्यर्था-दतिगम्भीरभासुरात् । सुखावबोधमुद्धृत्य, शब्दार्थ च मनोहरम् ॥ २॥ श्रीमत्स्थानाङ्गसूत्रस्य, कुवेऽहं दीपिकां वराम् । स्ववाचनकृते सन्तः, प्रसीदन्तु सदा मम ॥३॥
॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ इह हि श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामिन इक्ष्वाकुकुलनन्दनस्य प्रसिद्धसिद्धार्थराजमूनोमहाराजस्येव परमपुरुषाक्रान्तविक्रान्तरागादिशत्रोराज्ञाकरणदक्षमापतिसततसेवितपादपद्मस्य सकलपदार्थसाक्षात्करणदक्षकेवलज्ञानदर्शनस्वरूपप्रधानप्रणिध्यवबुद्धसबविषयग्रा मस्वभावस्य सकलत्रिभुवनातिशा यिप्रवरसाम्राज्यस्य निखिलनीतिप्रवर्तकस्य परमान् गम्भीरान् महानुपदेशान् निपुणबुद्ध्यादिगुणगणमाणिक्यरोहणधरणीधरकल्पेन भाण्डागारनियुक्तेनैव गणधरेण पूर्वकाले चतुर्वर्णश्रीश्रमणसङ्घभट्टारकस्य तत्सन्तानस्य
ला
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स्थानाङ्गमत्र- पिका वृत्तिः।
मालादि १ सू.
मामामा
॥१॥
2
चोपकाराय निरूपितस्य विविधार्थरत्नसारस्य देवताधिष्ठितस्य विद्याक्रियावलवताऽपि पूर्व पुरुषेण केनाऽपि कुतोऽपि कारणादनु- मुद्रितस्यात एव च केषाञ्चिदनयंभीरूणां मनोरथगोचरातिक्रान्तस्य महानिधानस्येव स्थानाङ्गस्य तथाविधविद्याबलविकलैरपि । केवलधाष्टयप्रधानः स्वपरोपकाराय यथार्थविनियोजनाभिलाषिभिरत एवावगणितस्वयोग्यतैनिपुणपूर्वपुरुष-प्रयोगाननुश्रित्य किञ्चित् स्वमत्योत्प्रेक्ष्य तथाविधवर्तमानजनतामापृच्छ्च च तदुपायान् द्यूतादिमहाव्यसनोपेतैरिवास्माभिरुन्मुद्रणमिवानुयोगः प्रारभ्यते इति शास्त्रप्रस्तावनादिविस्तरः सर्वोऽपि वृत्तितो ज्ञेयः । साम्प्रतं सूत्रं तच्चेदं
ॐ नमः सिद्धं । सुयं मे आउ ! संतेण भगवया एवमक्वायं (सू०१)
'सुयं' ति इह किल सुधर्मस्वामी पञ्चमो गणधरदेवो जम्बूनामानं स्वशिष्यं प्रतिपादयाञ्चकार । 'श्रुत'माकर्णितं 'मे' मया 'आउसं' ति आयुर्जीवितं तत्संयमप्रधानतया प्रशस्तं प्रभूतं वा विद्यते यस्यासावायुष्मान् तस्यामन्त्रणं हे आयुष्मन् | शिष्य ! 'तेणं' ति यः सन्निहितव्यवहितसूक्ष्मवादबाह्याध्यात्मिकसकलपदार्थेष्वव्याहतवचनतयाप्तत्वेन जगति प्रतीतोऽथवा | पूर्वभवोपात्ततीर्थकरनामकर्मादिलक्षणपरमपुण्यप्राग्भारो विलीनानादिकालालीनमिथ्यादर्शनादिवासनः परिहृतमहाराज्यो दिव्यायुपसर्गवर्गसंसर्गाविचलितशुभध्यानमार्गों भास्कर इव धनघातिकर्मघनाघनपटल विघटनोल्लसितविमलकेवलभानुमण्डलो विबुध पतिषट्पदपटलजुष्टपादपद्मो मध्यमाभिधानपुरीप्रथमप्रवर्तितप्रवचनो जिनो महावीरस्तेन 'भगवता' अष्टमहाप्रातिहार्यरूपसमग्रेश्वर्यादियुक्तेन 'एव' मित्यमुना वक्ष्यमाणकत्वादिना प्रकारेण 'आख्यात 'मिति आ-मर्यादया जीवाजीवलक्षणासंकीर्णता रूपया अभिविधिना वा समस्तवस्तुविस्तारख्यापनलक्षणेन ख्यातं-कथितमाख्यातमात्मादिवस्तुजातमिति गम्यते । अत्र च 'श्रुत'
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उक्तं च
मित्यनेनावधारणाभिधायिना स्वयमवधारितमेवान्यस्मै प्रतिपादनीयमित्याह, अन्यथाऽभिधाने प्रत्युतापायसम्भवात् " किं इत्तो पावयरं, सम्मं अणहिगयधम्मसम्भावो । अन्नं कुदेसणाए, कट्टयरागंमि पाडेइ " ॥ १ ॥ ति मयेत्यनेनोपक्रमद्वाराऽभिहित भावप्रमाणद्वारा गतात्मानन्तरपरम्परभेदभिन्नागमेनायं वक्ष्यमाणो ग्रन्थोऽर्थतोऽनन्तरागमः सूत्र - तस्त्वात्मागम इत्याह 'आयुष्मन्नि ' त्यनेन तु कोमलवचोभिः शिष्यमनः प्रल्हादयताऽऽचार्येणोपदेशो देय इत्याह, उक्तं च" धम्मम एहिं अइसुंदरेर्हि, कारणगुणोवणीएहिं । पल्हायंतो य मणं, सीसं चोएड आयरिउ ॥ १ ॥ त्ति " आयुष्मत्राभिधानं चात्यन्तमाल्हादकं प्राणिनामायुषोऽत्यन्ताभीष्टत्वात्, यत उच्यते
" सव्वे पाणा पियाउया अपियवहा तह सुहासाया दुक्खपडिकूला, सव्वे जीविकामा, सव्वेसिं जीवियं पियं" ति । तथा " तृणायापि न मन्यन्ते, पुत्रदारार्थसम्पदः । जीवितार्थे नरास्तेन, तेषामायुरतिप्रियम् ॥ १ ॥ " इति, अथवा आयुष्मन्नित्यनेन ग्रहणधारणा गुणवते शिप्याय सूत्रार्थी देय इति ज्ञापनार्थं सकलगुणाधार भूतत्वेनाशेषगुणोपलक्षणेन चिरायुर्लक्षणगुणेन शिष्यामन्त्रणमकारि, यत उक्तम्
" बुडे वि दोणमेहे, न कण्हभूमीओ लोहए उदयं । गद्दणधरणासमत्थे, इय देयमछित्तिकारिम्मि ॥ १ ॥ " विपर्यये तु दोष इति आह च
" आयरिए सुत्तम्मिय, परिवाओ सुत्तअत्थपलिमंथो । अन्नेसिं पि य हाणी, पुट्ठा वि न दुद्धदा वंझा || १ || " इति तथा 'तेनेत्यनेन आप्तत्वादिगुणप्रसिद्धताभिधायकेन प्रस्तुताध्ययनप्रामाण्यमाह - बहुगुणापेक्षयाऽऽप्तवचनप्रामाण्यस्येति, 'भगवते'
ooooooooooo
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मङ्गलादि सू. १
पीस्थानाङ्गसूत्रपिका वृत्तिः।
त्यनेन तु प्रस्तुताध्ययनस्योपादेयतामाह, अतिशयवान् किलोपादेयस्तद्वचनमपि तथेति इत्यादि । यदाख्यातं भगवता तदधु नोच्यते-सकलपदार्थानां सम्यग्मिथ्याज्ञानश्रद्धानानुष्ठानविषयीकरणेनोपयोगनयनादात्मनः सर्वपदार्थप्राधान्यमतस्तद्विचारं ताव
दादावाह
पगे आया (सू. २)
'एग' ति एको न द्वयादिरूपः आत्मा-जीवः कथञ्चिदिति गम्यते, तत्र अतति-सततमवगच्छति । अत सातत्यगमने' | इति वचनाद अतधातोर्गत्यर्थत्वाद् गत्यर्थानां च ज्ञानार्थत्वादनवरतं जानातीति निपातनाद आत्मा-जीवः, उपयोगलक्षणत्वादस्य सिद्धसंसार्यवस्थाद्वयेऽप्युपयोगभावेन सततावबोधभावात् , सततावबोधाभावे चाजीवत्वप्रसङ्गात् अजीवस्य सतश्च पुनर्जीवत्वा- 10 भावात् , भावे चाकाशादीनामपि तथात्वप्रसङ्गात् । एवञ्च जीवानादित्वाभ्युपगमाऽभावप्रसङ्ग इति, अथवा अतति सततं गच्छति स्वकीयान् ज्ञानादिपर्यायानित्यात्मा, नन्वेवमाकाशादीनामप्यात्मशब्दव्यपदेशप्रसङ्गस्तेषामपि स्वपर्यायेषु सततं गमनात् , अन्यथा अपरिणामित्वेनावस्तुत्वप्रसङ्गादिति, नैवं, व्युत्पत्तिनिमित्तमात्रत्वादस्य, उपयोगस्यैव प्रवृत्तिनिमित्तत्वात् , जीव एव आत्मा, नाकाशादिरिति, अथवा जन्ममरणसुखदुःखादिसंवेदनेष्वसहायत्वादेक आत्मेति भावनीयमिति । इह च सूत्रेषु कथञ्चिदित्यनु. स्मरणीयं, कथञ्चिद्वादस्याविरोधेन सर्ववस्तुव्यवस्था निबन्धनत्वात् । उक्तञ्च
"स्याद्वादाय नमस्तस्मै, यं विना सकलाः क्रियाः । लोकद्वितयभाविन्यो, नैव साङ्गत्यमियति ॥१॥ तथा
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"नयास्तव स्यात्पदसवलाञ्छिता, रसोपविद्धा इव लोहधातवः ।
भवन्त्यभिप्रेत (धेय) फला यतस्ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ॥ १ ॥ "
इति, आत्मन एकत्वमुक्तन्यायतोऽभ्युपगच्छद्भिरपि कैश्चिन्निष्क्रियत्वं तस्याभ्युपगतमतस्तन्निराकरणाय तस्य क्रियावचभः क्रियायाः कारणभूतं दण्डस्वरूपं प्रथमं तावदभिधातुमाह
एगे दंडे (०३) एगा किरिया ( सू० ४) एगे लोए ( सू० ५) एगे अलोप ( सू० ६ )
' एगो' तिएकोsविवक्षित विशेषत्वात् दण्डयते - ज्ञानाद्यैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते आत्माऽनेनेति दण्डः, स च द्रव्यतो भावतश्च द्रव्यतो यष्टिर्भावतो दुष्प्रयुक्तं मनःप्रभृति । तेन चात्मा क्रियां करोतीति तामाह - 'एगा किरिया एका अविवक्षि विशेषतया करणमात्र विवक्षणात् करणं क्रिया- कायिक्यादिकेति, अथवा 'एंगे दंडे, एगा किरिय' सिसूत्रद्वयेनात्मनोऽक्रिय त्वनिरासेन सक्रियत्वमाह, यतो दण्डक्रियाशब्दाभ्यां त्रयोदशक्रियास्थानानि प्रतिपादितानि, तत्रार्थदण्डानर्थदण्डहिंसादण्डाक स्माद्दण्ड विपर्यासदण्डरूपः पञ्चविधो दण्डः परप्राणापहारलक्षणो दण्डशब्देन गृहीतः तस्य चैकत्वं वधसामान्यादिति, क्रियाशब्देन तु मृपाप्रत्यया अदत्तादानप्रत्यया आध्यात्मिकी मानप्रत्यया मित्रद्वेषप्रत्यया मायाप्रत्यया लोभप्रत्यया ऐर्यापथिकीत्यष्टविधा क्रियोक्ता, तदेकत्वं च करणमात्रसामान्यादिति दण्ड क्रिययोथ स्वरूपविशेषमुपरिष्टात् स्वस्थान एव वक्ष्याम इति । उक्तस्वरूपस्यात्मन आधारस्वरूपनिरूपणायाह- 'एगे लोग' सि एकोऽविवक्षिता सङ्ख्य प्रदेशाच स्तिर्यगादि दिग्भेदतया लोक्यतेदृश्यते केवलालोकेनेति लोकः - धर्मास्तिकायादिद्रव्याधारभूत आकाशविशेषः, लोकव्यवस्था ह्यलोके तद्विपक्षभूते सति भवतीति
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Po
श्रीस्थानाङ्गसूत्र- तमाह-एगे अलोएत्ति एकोऽनन्तप्रदेशात्मकत्वेऽप्यविवक्षितभेदत्वादलोको लोकव्युदासात न त्वनालोकनीयतया, केवलालो. दीपिका वृत्तिः। केन तस्याप्यालोक्यमानत्यादिति, लोकालोकयोश्च विभागकारण धर्मास्तिकायोऽतस्तत्स्वरूपमाह
पगे धम्मे (सू० ७) पगे अधम्मे (मू० ८) एगे बंधे (सू० ९) पगे मोक्खे (सू० १०) पगे पुण्णे (सू० ११) पगे पावे (सू० १२) पगे आसवे (पू० १३) पगे संवरे (सू० १४. पगा बेया (सू० १५) एगा निज्जरा (सू० १६)
पणे धम् ति एकः प्रदेशार्थतथाऽसख्यातप्रदेशात्मकत्वेऽपि द्रव्यार्थतया तस्यैकत्वात् , जीवपुद्गलानां स्वाभाविके क्रियावच्चे सति गनिरिणतानां तत्स्वभावधारणाद् धर्मः, स चास्तीनां-प्रदेशानां सङ्चातात्मकत्वात् कायोऽस्तिकाय इति । धर्मस्यापि विपक्षस्वरूपमाह--'गे अधम्म त्ति एको द्रव्यत एव, न धर्मोऽधर्मः अधर्मास्तिकाय इत्यर्थः, धर्मो हि जीवपुद्गलानां मत्युपष्टम्भकारी, अयं तु तद्विपरीतत्वात् स्थित्युपष्टम्भकारीति, ननु धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकाययोः कथमस्ति
त्वावगमः ? प्रमाणादिति मः, तच्चेदम्-इह गतिः स्थितिश्च सकललोकप्रसिद्ध कार्यम् , कार्य च परिणाम्यपेक्षाकारणायत्ता हमलाभं वर्तते, घटादिकार्येषु तथादर्शनान् , इत्यादि वृत्तौ इति। आत्मा च लोकवृत्तिधर्माधर्मास्तिकायोपगृहीतः सदण्डः Maक्रियश्च कम्ममा बद्धयत इति बन्धनिरूपगायाह --'एगे बन्धे ति बन्धन बन्धः, सकषायत्वात् जीवः कर्मणो योग्यान पुद्ग
लानादत्ते यत् स बन्ध इति भावः, स च प्रकृतिस्थितिप्रदेशानुभावविभेदात् चतुर्विधोऽपि बन्धसामान्यादेकः, मुक्तस्य सतः पुनर्बन्धाभावाद् वा एको बन्ध इति. अथवा द्रव्यतो निगडादिभिर्भावतः कर्मणा, तयोश्च बन्धनसामान्यादेको बन्ध इति, अनादिबन्धसभावेऽपि भव्यात्मनः कस्य चिन्मोक्षो भवतीति मोक्षस्वरूप माह 'एगे मोक्वे' त्ति मोचनं कर्मपाशवियोजनमा
नमाजमा
।३
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त्मनो मोक्षः, आह च- 'कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्षः' स चैको ज्ञानावरणादिकर्मापेक्षयाऽष्टविधोऽपि मोचनसामान्यात् मुक्तस्य वा पुनर्मोक्षाभावात् ईपत्प्राग्भाराख्यक्षेत्रलक्षणो वा द्रव्यार्थतयैकः, अथवा द्रव्यतो मोक्षो निगडादितो भावतः कर्मतः, तयोश्च मोचनसामान्यादेको मोक्ष इति । मोक्षच पुण्यपापक्षयाद् भवतीति पुण्यपापयोः स्वरूपं वाच्यं तत्रापि मोक्षस्य पुण्यस्य च शुभ स्वरूपसाधर्म्यात्पुण्यं तावदाह - एगे पुणे' 'पुणे शुभे इति वचनात् पुणति - शुभीकरोति पुनाति वा पवित्रीकरोत्यात्मानमिति पुण्यं - शुभकर्म, सद्यादि द्विचत्वारिंशद्विधम्, यथोक्तम्
“ सायं १, उच्चागी २, नरतिरिदेवाउ ५ नाम एयाउ । मणुयदुर्ग ७, देवदुगं ९, पंचिदियजाई १०, तणुपण १५ ॥१॥ अंगोवंगतियं पिव १८ संघयणं वारिसनारायं ४९ । पढमं चिय संठाणं २०, वण्णाइचउकसुपसत्थं २४ ।। २ ।। अगुरुलहु २५, पराघ २६, उस्मा २७, आय २८, च उज्जो २९ । सुपसत्था विहायगई ३०, तसाइदसगं ४०, च निम्मा ४१ ॥ ३ ॥ तित्थयरेण सहिया ४२, वायाला पुण्णपगईओ "त्ति ॥
एवं द्विचत्वारिंशद्विधमपि अथवा पुण्यानुबन्धि-पापानुबन्धिभेदेन द्विविधमपि अथवा प्रतिप्राणि विचित्रत्वादनन्तभेदमपि पुण्यसामान्यादेकमिति । पुण्यप्रतिपक्षभूतं पापमिति तत्स्वरूपमा इ- एगे पावे' त्ति पाशयति गुण्डयति आत्मानं पातयति वा आत्मन आनन्दरसं शोषयति रुक्षयति ( क्षपयति ) इति पापम्, तब ज्ञानावरणादिद्वयशोतिभेदम् यदाऽऽछ— " नाणंतराय निरयदुर्ग ५०,
१०, दंसणणव १९, मोहयछबी ४५ । अस्सायं ४६, निरयाउं ४७, नीयागोएण अडयाला ४८ ॥१॥ तिरियदुगं ५२, जाइचउक्तं च ५६, पंच संघयणा ६१ । संठाणा विष पंच ६६ उ वन्नाइच उक्कमपत्यं ७० ॥
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सू. ३-१६
श्रीस्थानाङ्गसूत्र- दीपिका वृत्तिः।
8 ॥ ४ ॥
उवघाय ७१, कुविहयगई ७२, थावरदसगेण हुंति चोत्तीसं । सव्वाउ मिलियाउ, बासीती पावपगईओ ८२ ॥ ३॥"
तदेवं द्वयशीतिभेदमपि पुण्यानुबन्धिपापानुबन्धिभेदाद् द्विविधमपि वा अनन्तसञ्चाश्रितत्वादनन्तमपि वाऽशुभसामान्यादेकमिति । अनन्तरोक्तपुण्यपापकर्मणोबन्धकारणनिरूपणायाह 'एगे आसवेत्ति आश्रवन्ति-प्रविशन्ति येन कर्माण्यात्मनीति आश्रवः, कर्मबन्धहेतुरिति भावः, स चेन्द्रियकषायाव्रतक्रियायोगरूपः क्रमेण पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतित्रिभेदः, उक्तञ्च"इंदिय ५ कसाय ४ अव्वय ५, किरिया २५ पणचउपणपणवीस । जोगा तिन्नेव भवे, आसवभेया उ बायाला ४२ ॥१॥ त्ति" __तदेवमयं द्विचत्वारिंशद्विधोऽथवा द्विविधो द्रव्यभावभेदात् , तत्र द्रव्याश्रवो जलान्तर्गतनावादौ तथाविधपरिणामेन छिद्रेजलप्रवेशन भावाश्रवस्तु यज्जीवनावीन्द्रियादिच्छिद्रतः कर्मजलसञ्चय इति, स चाश्रवसामान्यादेक एवेति ॥
अथाश्रवप्रतिपक्षभूतं संवरस्वरूपमाह-'एगे संवरें' त्ति संब्रियते-कर्मकारणं प्राणातिपातादि रुध्यते येन परिणामेन स संवरः, आश्रवनिरोध इत्यर्थः, स च समिति-गुप्ति-धर्मानुप्रेक्षा-परीषह(जय)चारित्ररूपः क्रमेण पञ्च-त्रि-दश-द्वादश-द्वाविं. शति-पञ्चभेदः, आह च"समिई ५ गुत्ती ३ धम्मो १०, अणुपेह १२ परीसहा २२ चरित्तं ५ च । सत्तावन्नं भेया, पणतिगभेयाई संवरणे ॥१॥ ति" ___अथवाऽयं द्विधा द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो जलमध्य-गतनावादेरनवरतप्रविशज्जलानां छिद्राणां तथाविधद्रव्येण स्थगनं संवरः, भावतस्तु जीवद्रोण्यामाश्रवत्कर्मजलानामिन्द्रियादिछिद्राणां समित्यादिना निरोधनं संवर इति, स च द्विविधोऽपि संवरसामान्यादेक इति ॥ संवरविशेषे चायोग्यवस्थारूपे कर्मणां वेदनैव भवति न बन्ध इति वेदनास्वरूपमाह-'एगा वेयण'त्ति
ममममममा
॥४।
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वेदनं वेदना-स्वभावेनोदीरणाकरणेन वोदयाविलकाप्रविष्टस्य कर्मणोऽनुभवनमिति भावः, सा च ज्ञानावरणीयादिकर्मापेक्षया-N ऽष्टविधाऽपि विपाकोदयप्रदेशोदयापेक्षया द्विविधाऽपि आभ्युपगमिकी-शिरोलोचादिका औपक्रमिकी-रोगादिजनितेत्येवं द्विवि
धाऽपि वेदनासामान्यादेकवेति ।। अनुभूतरसं कर्म प्रदेशेभ्यः परिशटतीति वेदनानन्तरं कर्मपरिशाटनरूपां निर्जरां निरूपयन्नाह LON -- 'एगा निज्जर ति निर्जरणं निजरा विशरणं परिशटनमित्यर्थः, सा चाऽष्टविधकर्मापेक्षयाऽष्टविधाऽपि द्वादशविधतपो
जन्यत्वेन द्वादश विधाऽपि अकामक्षुत्पिपासाशीताऽऽतपदंशमशकमलसहनवयपर्यधारणाघनेकविधकारणजनितत्वेनानेकविधापि द्रव्यतो वस्त्रादेर्भावतः कर्मणामे द्विधापि वा निजरासामान्यादेकैवेति । ननु निर्जरामोक्षयोः कः प्रतिविशेषः ? उच्यते, AI देशतः कर्मक्षयो निर्जरा सर्वतस्तु मोक्ष इति ॥ इह जीवो विशिष्टनिर्जराभाजनं प्रत्येकशरीरावस्थायामेव भवति न साधारणशरीरावस्थायामतः प्रत्येकशरीरावस्थस्य जीवस्य स्वरूपनिरूपणायाह-एगे जीवे इत्यादि, अथवा उक्ताः सामान्यतः प्रस्तुतशास्त्रव्युत्पादनीया जीवादयो नत्र पदार्थाः, साम्प्रतं जीवपदार्थ विशेषेण निरूपयन्नाह
पगे जोवे पाडिकपणं सरीरएणं (सू० १७) एगा जीवाणं अपरिआइत्ता विगुब्वणा (सू० १८) एगे मणे (सू० १९) पगा वई (सू० २०) एगे कायवायामे (४० २१) एगा उपपा (सु० २२) पगा वियती (सू० २३) पगा वियच्चा (सू०२४) एगा गती (सू० २५) एगा आगती (सू० २६) पगे चयणे (सू. २७) पगे उववाए (सू० २८) पगा तक्का (सू० २९) एगा सन्ना (सू० ३०) एगा मन्ना (सू० ३१) एगा विन्नू (सू. ३२) एगा वेयणा (सू० ३३) पगा छेयणा (सू० ३४) एगा मेयणा (सू०३५) पगे मरणे अंतिमसारीरियाणं (सू०३६) पगे संसुद्धे अहाभूए पत्ते (सू०३७) पगे दुक्खे जीवाणं एगभूए (सू०३८) एगा अहम्मपडिमा जं से आया परिकिले सति (सू० ३९) एगा धम्मपडिमा जे से आया पज्जवजाए (सू० ४०) पगे मणे
Hollola
OM
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र- देवासुरमणुयाणं तंसि तंसि समयंसि (सू. ४१) एगे उट्ठाणकम्मबलबीरियपुरिसकारपरक्कमे देवासुरमणुयाणं तंसि तंसि II दीपिका वृत्तिः। समयंसि (सू० ४२) पगे नाणे एगे दंसणे पगे चरित्ते (सू० ४३)
'एगे'त्ति एकः केवलो जीवितवान् जीवति जीविष्यति चेति जीवः प्राणधारणधर्मा आत्मेत्यर्थः, एकं जीवं प्रति गतं. यच्छरीरं प्रत्येकशरीरनामकर्मोदयात् तत् प्रत्येकं तदेव प्रत्येककं, शरीरं-देहस्तदेवानुकम्पितादिधर्मोपेतं शरीरकं तेन लक्षितस्त-16 दाश्रित एको जीव इत्यर्थः, अथवा अंकारौ वाक्यालङ्कारार्थी, तत एको जीवः प्रत्येकके शरीरे वर्तते इति वाक्यार्थः स्यादिति, इह च 'अपाडिक्कएणं'ति क्वचित् पाठो दृश्यते, स च न व्याख्यातोऽनयबोधादिह च वाचनानामनियतत्वात् सर्वासां व्याख्यातुमशक्यत्वात् काश्चिदेव वाचनां व्याख्यास्याम इति ॥ इह बन्धमोक्षादय आत्मधर्मा अनन्तरमुक्तास्ततस्तदधिकारादेवातः परमात्मधर्मान् 'एगा जीवाणमित्यादिना एगे चरित्ते' इत्येतदन्तेन ग्रन्थेनाह-तत्र 'एगाजीवाणं अपरियाइत्ता विगुब्वणा' 'एगा जीवाणं'ति प्रतीतं 'अपरियाइत्त'त्ति अपर्यादाय परितः-समन्तादगृहीत्वा वैक्रियसमुद्घातेन बाह्यान पुद्गलान्
या विकुर्वणा भवधारणीयवैक्रियशरीररचनलक्षणा स्वस्मिन् स्वस्मिन्नुपत्तिस्थाने जीवैः क्रियते सा एकैव, प्रत्येकमेकत्वाद् भवIN धारणीयस्येति, सकलवैक्रियशरीरापेक्षया वा भवधारणीयस्यैकलक्षणत्वात् कथञ्चिदिति, या पुनर्बाह्यपुदगलपर्यादानपूर्विका सोत्तरबै
क्रियरचनालक्षणा, सा च विचित्राभिप्रायपूर्वकत्वात् वैक्रियलब्धिमतः तथाविधशक्तिमत्वाच्चैकजीवस्याप्यनेका स्यादिति पर्यवसितम् , अथ बाह्यपुद्गलोपादान एवोत्तरवैक्रियं भवतीति कुतोऽवसीयते ?, येनेह सूत्रे 'अपरियाइत्ता' इत्यनेन तद्विकुळणाप्यवच्छिद्यते इति चेत्, उच्यते-भगवतीवचनात् , तथाहि-"देवे णं भंते ! महिड्ढिए जाव महाणुभावे बाहिरए पोग्गले
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अपरियाइत्ता पभू एगवणं एगरूव विउवित्तए ?, गोयमा ! णो इणढे समठे, देवे णं भंते ! बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू ?, हता पभू"त्ति, इह हि उत्तरवैक्रियं बाह्यपुद्गालादानाद् भवतीति विवक्षितमिति ।। 'एग मणेत्ति मननं मनः-औदारिकादिशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसमृहसाचिव्याज्जीवव्यापारी, मनोयोग इति भावः, मन्यते वाऽनेनेति मनो-मनोद्रव्यमानमेवेति, तच्च सत्यादिभेदादनेकमपि संज्ञिनां वा असङ्ख्यातत्वादसङ्ख्यातभेदमपि एकं मननलक्षणत्वेन सर्वमनसामेकत्वादिति ।। 'एगा वह'त्ति वचनं वाग-औदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतवागद्रव्यसमूहसाचिब्याज्जीवव्यापारी, वाग्योग इति भावः, I इयं च सत्यादिभेदादनेकाऽप्येकैव, सर्ववाचां वचनसामान्येऽन्तर्भावादिति ॥ 'एगे कायवायामेति चीयत इति कायःशरीरं तस्य व्यायामो-व्यापारः कायव्यायामः औदारिकादिशरीरयुक्तहस्यात्मनो वीर्यपरिणति विशेष इति भावः. स पुनरौदारिकादिभेदेन सप्तप्रकारोऽपि जीवानन्तत्वेनानन्तभदोऽपि वा एक एव, कायव्यायामसामान्यादिति. यच्चै कस्यैकदा मनःप्रभृतीनामे कत्वं सूत्र एव विशेषेण वक्ष्यति, 'एगे मणे देवासुरेत्यादिनेति सामान्याश्रयमेवेहैकत्वं व्याख्यातमिति ॥ 'एगा उप्पा'त्ति प्राकृतत्वादुत्यादः, स चैक एकसमये एकपर्यायापेक्षया, न हि तस्य युगपदुत्पादद्वयादिरस्ति, अनपेक्षिततद्विशेषकपदार्थतया | कोऽसाविति ।। 'एगा वियसि विगतिर्विगमः, मा चैका उत्पादवदिति ॥ 'एगा वियच्चत्ति विकृतेः (विगतेः) प्रागुक्तत्वादिह विगतस्य विगमको जीवस्य मृतस्येत्यर्थः अर्चा-शरीरं विगतार्चा, प्राकृतत्वादिति, सा चैका सामान्यादिति ।। 'एगा गती ति मरणानन्तरं मनुजत्वादेः सकाशान्नारकत्वादी जीवस्य गमन गतिः, सा चैकदैकस्यका ऋज्वादिका 10 नरकगत्यादिका वा ॥ 'एगा आगतीति आगमनमागतिः-नारकत्वादेरेव प्रतिनिवृत्तिः, तदेकत्वं गतेरिवेति ॥ 'एगे
मामलामा
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श्रीस्थानाङ्गसूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥ ६ ॥
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चणेत्ति च्युतिश्च्यवनं वैमानिकज्योतिष्काणां मरणं, तदेकमेवैकजीवापेक्षया नानाजीवापेक्षया च पूर्ववदिति ॥ 'एगे उबवाए'ति उपपतनमुपपाती - देवनारकाणां जन्म, स चैकश्च्यवनवदिति || 'एगा तक्का' ति तर्कणं तर्कों-विमर्शः अवायात् पूर्व्वा ईहाया उत्तरा प्रायः शिरःकण्डयनादयः पुरुषधर्म्मा इह घटन्त इतिसम्प्रत्ययरूपा, इह चैकत्वं प्रागिवेति ॥
'एगा सन्न' ति संज्ञानं संज्ञा व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेषः आहारभयाद्युपाधिका वा चेतना संज्ञा, अभिधानं वा संज्ञेति । 'एगा मन्ना' सि प्राकृतत्वात्मननं मतिः- कथञ्चिदर्थपरिच्छित्तावपि सूक्ष्मधर्म्मालोचनरूपा बुद्धिरितियावत्, आलोचनमिति केचित् " नाविन्दसि' विद्वान् विज्ञो वा तुल्यावबोधत्वादेक इति, स्त्रीलिङ्गत्वं च प्राकृतत्वादुत्पादस्योपावत् || 'एगा 'त्ति प्राग् वेदना सामान्यकर्मानुभवलक्षणोक्ता इह तु पीडालक्षणैव सा च सामान्यत एवेति ॥ अस्या एव' कारण विशेषनिरूपणायाह- 'एगा छेवणा'ति छेदनं शरीरस्यान्यस्य वा खड्गादिनेति || 'एगा भेयणा'सि भेदनं कुन्ता दिना अथवा छेदनं कर्मणः स्थितिघातः भेदनं तु रसघातः इति एकता च विशेषाविवक्षणादिति || वेदनादिभ्यश्च मरणमतस्तद्विशेषमाह - 'ए मरणेति मृतिर्भरणं अन्ते भवमन्तिमं चरमं तच तच्छरीरं चेत्यन्तिमशरीरं तत्र भवा अन्तिमशारीरिकी उत्तरपदवृद्धिः, तद् वा तेषामस्तीति अन्तिमशारीरिका दीर्घत्वञ्च प्राकृतशैल्या, तेषां चरमदेहानां मरणैकताच सिद्धत्वेन पुनर्मरणाभावादिति || अन्तिमशरीरथ स्नातको भूत्वा म्रियते अतस्तमाह- 'एगे संसुद्धे' इत्यादि, एकः संशुद्धः - अशबल चरणः अकषायत्वात्, 'अहाभूति यथाभूतस्ताचिकः 'पत्ते'त्ति पात्रमिव पात्रमतिशयवद् ज्ञानादिगुणरत्नानां प्राप्तो वा गुणप्रकमिति गम्यते । 'गे दुक्खे' त्ति एकमेवान्तिमभवग्रहणसम्भवं दुःखं यस्य स एकदुःख : 'जीवाणां' ति जीवानां
सू. १
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सू०१७-४३
भीस्थाना
सूत्रदीपिका
वृत्तिः
॥१३॥
प्राणिनामेकभूतः-एक एव-आत्मोपम इत्यर्थः, एकान्तहितवृत्तित्वाद, एकत्वं चास्य बहूनामपि समस्वभावत्वादिति । दुःखं पुनरधर्माभिनिवेशादिति तत्स्वरूपमाह 'एगा अहम्मपडिमा' त्ति धारयति दुर्गतौ प्रपततो जीवान, जन्तून् धारयति सुगतौ वा स्थापयतीति धर्मः, उक्तं च-“दुर्गतौ प्रस्तान् जन्तून् , यस्माद् धारयते ततः । धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद् धर्म इति स्मृतः॥२॥" स च श्रुतचारित्रलक्षणः तत्प्रतिपक्षस्त्वधर्मस्तद्विषया प्रतिमाप्रतिज्ञा अधर्मप्रधानं शरीरं वा अधर्मप्रतिमा, सा चैका, सर्वस्याः परिक्लेशकारणतयेकरूपत्वाद्, अत एवाह'जं से आया' त्ति ' यत् '-यस्मात् 'से' तस्याः स्वाम्यात्मा-जीवोऽथवा 'से' ति सोऽधर्मप्रतिमावानात्मा परिक्तिश्यते-रागादिभिर्बाध्यते संक्लिश्यत इत्यर्थः ॥ एतद्विपर्ययमाह-'एगा धम्मपडिमा' त्ति प्राग्वन्नवरं
पज्जवजाए' त्ति पर्यवाः-ज्ञानादिविशेषा जाता यस्य स पर्यवजातो भवतीति शेषः, विशुद्धयतीत्यर्थः॥ धर्माधर्मप्रतिमे च योगत्रयाद भवत इति तत्स्वरूपमाह-एगे मणे' इत्यादि सूत्रत्रयं, तत्र मन इति मनोयोगः तच्च यस्मिन् यस्मिन् समये विचार्यते तस्मिन् तस्मिन् समये कालविशेषे एकमेव वीप्सानिर्देशेन न वचनापि समये तद द्वयादिसंख्यं भवतीत्याह, एकत्वं च तस्यैकोपयोगत्वाज्जीवानां, स्यादेतत्-नैकोपयोगो जीवो युगपच्छीतोष्णस्पशविषयसंवेदनद्वयदर्शनात, तथाविधभिन्नविषयोपयोगपुरुषद्वयवत् , अत्रोच्यते-यदिदं शीतोष्णोपयोगद्वयं तत स्वरूपेण भिन्नकालमपि समयमनसोरतिसूक्ष्मतया युगपदिव प्रतीयते, न पुनस्तयुगपदेवेति । स मनोयोगः केषामित्याहदेवासरमणयाण' ति तत्र दीव्यन्तीति देवाः-वैमानिकज्योतिष्कास्ते च, न सुराः असुराः-भवनपतिव्यन्तरास्ते च
॥१३॥
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स.१७-४३
श्रीस्थानाक
सूत्र दीपिका
वृत्तिः
પછા
मनोर्जाता मनुजाः-मनुष्यास्ते च देवासुरमनुजास्तेषां तथा 'वागि' ति वाग्योगः स चैषामेकदा एक एव तथाविधमनोयोगपूर्वकत्वात् तथाविधवाग्योगस्य, सत्यादिनामन्यतरभावाद वा, वक्ष्यति च-"छहिं ठाणेहिं नो अस्थि जीवाणं इड्ढीइ वा जाव परक्कमेइ वा, तं जहा-जीवं वा अजीवं करणयाए १ अजीवं वा जीवं करणयाए २, एगसमएणं दो भासाओ भासित्तए" त्ति । तथा कायव्यायामः-काययोगः, स चैपामेकदा एक एव, सप्तानां काययोगानामेकदा एकतरस्यैव भावात्, ननु यदाहारकप्रयोक्ता भवति तदौदारिकस्यावस्थितस्य श्रयमाणत्वात कथमेकदा न काययोगद्वयमिति ? अत्रोच्यते सतोऽप्यौदारिकस्य व्यायामाभावात्, आहारकस्यैव च तत्र व्याप्रियमाणत्वाद्, यदि औदारिकमपि तदा व्याप्रियते तर्हि मिश्रयोगता भविष्यति, केवलिसमुद्घाते सप्तमषष्ठद्वितीयसमयेष्वौदारिकमिश्रवत् , तथा चाहारकप्रयोक्ता न लभ्येत, एवं च सप्तविधकाययोगप्रतिपादनमनर्थकं स्यादित्येक एव कायच्यायाम इति । इह च देवादिग्रहणं विशिष्टवैक्रियलब्धिसंपन्नतयेषामनेकशरीररचने सत्येकदा मनोयोगादीनामनेकत्वं शरीरवद् भविष्यतीति प्रतिपत्तिनिरासार्थ, न तु तिर्यग्नारकाणां व्यवच्छेदार्थमिति विस्तरो वृत्तितो ज्ञेयः। सर्वत्र एवं च काययौगिकत्वे सत्यौदारिकादिकाययोगाहृतमनोद्रव्यवागद्रव्यसाचिव्यजातजीवव्यापाररूपत्वान्मनोयोगवागयोगयोरेककाययोगपूर्वकतयापि प्रागुक्तमेकत्वमवसेयमिति, अथवेदमेव वचनमत्र प्रमाणमाज्ञाग्राह्यत्वादस्य, यतः-"आणागेज्झो अत्थो, आणाए
चेव सो कहेयव्यो । दिळंता दिलुतिय, कहणविही विराहणा इहरा ॥१॥ ति" दृष्टान्ताद् दाान्तिकोऽर्थ इत्यर्थः । एतेषां च मनःप्रभृतीनां यथाप्राधान्यकृतः क्रमः, प्रधानत्वं च बह्वल्पाल्पतरकर्मक्षयोपशमोपशमप्रभवलाभकृतमिति ॥ कायव्यायामस्यैव भेदानामेकतामाह-एगे उहाणे' उत्थान
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॥१४॥
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स.१७४३
श्रीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
चेष्टाविशेषः, कर्म च भ्रमणादिक्रिया, बलं च शरीरसामर्थ्य, वीर्य च जीवप्रभवं, पुरुषकारश्च-अभिमानविशेषः, पराक्रमश्च पुरुषकार एव निष्पादितस्त्रविषय इति विग्रहे द्वन्द्वैकवद्भावः, एते च वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमसमुत्था जीवपरिणामविशेषाः, एतेषु प्रत्येकमेकशब्दो योजनीयो, वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमवैचित्र्यतः प्रत्येकं जघन्यादिभेदैरनेकत्वेऽप्येषामेकजीवस्यैकदा क्षयक्षयोपशममात्राया एकविधत्वादेक एव जघन्यादिरेतद्विशेषो भवति कारणमात्राधीनत्वात् कार्यमात्राया इति सूत्रभावार्थः, शेवं प्राग्वदिति ॥ पराक्रमादेश्च ज्ञानादिमोक्षमार्गोऽवाप्यते, यत आह-"अब्भुटाणे विणये, परकमे साहुसेवणाए य । सम्मईसणलंभो, विरयाविरईय विरई य ॥१॥ ति" अतो ज्ञानादीनां निरूपणार्थमाह-'एगे नाणे' त्ति ज्ञायते-परिच्छिद्यतेऽर्थोऽनेनास्मिन्नस्माद्वेति ज्ञान-ज्ञानदर्शनावरणयोः क्षयः क्षयोपशमो वा, ज्ञातिर्वा ज्ञानम्-आवरणद्वयक्षयाद्याविर्भूत आत्मपर्यायविशेषः, सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषांशग्रहणप्रवणः सामान्यांशग्राहकश्च ज्ञानपश्चकाज्ञानत्रयदर्शनचतुष्टयरूपः, तच्चानेकमप्यवबोधसाम्यादेकमुपयोगापेक्षया वा, तथाहि-लब्धितो बहूनां बोधविशेषाणामेकदा सम्भवेऽप्युपयोगत एक एव सम्भवति, एकोपयोगत्वाज्जीवानामिति, ननु दर्शनस्य ज्ञानव्यपदेशत्वमयुक्तं विषयभेदाद, उक्तं च-"जं सामनग्गहणं, दंसणमेयं विसेसियं नाणं" ति, अत्रोच्यते, ईहावग्रहो हि दर्शन सामान्यग्राहकत्वाद, अवायधारणे च ज्ञानं, विशेषग्राहकत्वात् 'एगे दंसणे' ति दृश्यन्ते श्रद्धीयन्ते पदार्था अनेनास्मादस्मिन् वेति दर्शन-दर्शनमोहनीयस्य क्षयः क्षयोपशम उपशमो वा, दृष्टि दर्शनं दर्शनमोहनीयक्षयाद्याविभूतस्तत्त्वश्रद्धानरूप .. आत्मपरिणामः, तच्चोपाधिभेदादनेकविधमपि श्रद्धानसाम्यादेकम्, एक जीवस्य
॥१५॥
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स०४४-४६
श्रीस्थाना
सूत्र दीपिका वृत्तिः
॥१६॥
वैकदा एकस्यैव भावादिति, नन्ववबोधसामान्यात् ज्ञानसम्यक्त्वयोः कः प्रतिविशेषः, उच्यते, रुचिः सम्यकत्वं रुचिकारणं तु ज्ञानं, यथोक्तं-"नाणमवायधिईओ, देसण मिट्ठ जहोग्गहेहाओ । तह तत्तई सम्म, रोइज्जइ जेण तं नाणं ॥१॥" ति, 'एगे चरित्ते' ति चर्यते मुमुक्षुभिरासेव्यते तदिति, चर्यते वा गम्यते अनेन निवृताविति चरित्रं, चारित्रमोहनीयक्षयाद्याविभूत आत्मनो विरतिरूपः परिणाम इति, सामायिकादितभेदानां विरतिसामान्यान्तर्भावादेकस्यैवैकदा भावादिति, एतेषां च ज्ञानादीनामयमेव क्रमो, यतो नाज्ञातं श्रद्धीयते नाश्रद्धत्तं सम्यगनुष्ठीयत इति ॥ ज्ञानादीनि धुत्पत्तिविगमस्थितिमन्ति, स्थितिश्च समयादिकति समयं प्ररूपयन्नाह--
पगे समए (सू०४४) एगे परसे, पगे परमाणु (सू.४५) पगा सिद्धी, पगे सिद्धे, पगे परिनिव्याणे, पगे परिनिव्वुप (सू०४६)
'एगे समए' ति समयः-परमनिरुद्धकाल उत्पलपत्रशतव्यतिभेददृष्टान्ताज्जरत्पटशाटिकापाटनदृष्टान्ताद वा समयप्रसिद्धादवबोद्धव्यः, स चैक एव वर्तमानस्वरूपः, अतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्वेनाभावात् । निरंशवस्त्वधिकारादेव सूत्रद्वयमाह-'एगे पएसे, एगे परमाणु' ति, प्रकृष्टो-निरंशो धर्माधर्माकाशजीवानां देश:-अवयवविशेषः प्रदेशः, स चैकः स्वरूपतः सद्वितीयत्वादौ देशव्यपदेशत्वेन प्रदेशत्वाभावप्रसङ्गादिति । 'परमाणु' ति परमश्वासावात्यन्तिकोऽणुश्च सूक्ष्मः परमाणुः-यणुकादिस्कन्धानां कारणभूतः, आह-"कारणमेव तदन्त्यं, सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसवर्णगन्धो, द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥२॥" इति, स च स्वरूपत एक
॥१६॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ॥
॥१७॥
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एवान्यथा परमाणुरेवासौ न स्यादिति । सकलबादरस्कन्धप्रधानभूतमीपत्प्राग्भाराभिधानपृथ्वीस्वरूपं प्ररूपयन्नाह - 'एगा सिद्धी' त्ति सिद्धयन्ति कृतार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धिः सा च यद्यपि लोकाग्र, यत आह “इहं बोंदिं चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्झइ " त्ति, तथापि तत्प्रत्यासत्येषत्प्राग्भाराऽपि तथा व्यपदिश्यते, आह च - " बारसहिं जोयणेहिं, सिद्धी सव्वहसिद्धाउ" त्ति यदि च लोकाग्रमेव सिद्धिः स्यात् तदा कथमेतदनन्तरमुक्तं—“निम्मलद्गरयवण्णा, तुसारगोक्खीरहारसविन्ने" त्यादि तत्स्वरूपवर्णनं घटते ? लोकाग्रस्यासूत्वादिति, तस्मादपत्प्राग्भारा सिद्धिरिहोच्यते, सा चैका । सिद्धेरनन्तरं सिद्धिमन्तमाह – 'एगे सिद्धे' त्ति, सिद्धयति स्म कृतकृत्योऽभवत् सेधति स्म वा - अगच्छत् अपुनरावृत्त्या लोकाग्रमिति सिद्धः, सितं वा - बद्धं कर्म्म ध्मातं- दग्धं यस्य स निरुक्तात् सिद्धः कर्मप्रपञ्च निर्मुक्तः स चैको द्रव्यार्थतया पर्यायार्थतस्त्वनन्तपर्याय इति, अथवा सिद्धानामनन्तत्वेऽपि तत्साम्यादेकत्वम् । कर्मक्षयसिद्धस्य च परिनिर्वाणं धर्मो भवतीति तदाह'एगे परिनिव्वाणे' त्ति, परि-समन्तान्निर्वाणं - सकलकर्म्मकृतविकारनिराकरणतः स्वस्थीभवनं परिनिर्व्वाणं तदेकम्, एकदा तस्य सम्भवे पुनरभावादिति || परिनिर्वाणधर्म्मयोगात् स एव कर्म्मक्षयसिद्धः परिनिर्वृत उच्यते इति तद्दर्शनायाह – 'एगे परिनिन्कुए' त्ति परिनिर्वृतः सर्वतः शारीरमानसास्वास्थ्यविरहित इति भावः, तदेकत्वं सिद्धस्येव भावनीयमिति । तदेतावता ग्रन्थेनैते प्रायो जीवधर्म्मा एकतया निरूपिताः, इदानीं जीवोपग्राहकत्वात् पुद्गलानां
सु०४४-४६
શુાં
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स०४७
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः
तल्लक्षणाजीवधा 'एगे सद्दे' इत्यादिना 'जाव लुक्खे' इत्येतदन्तेन ग्रन्थेनैकतयैव दयन्ते, पुद्गलादीनां तु सत्ता केषाश्चिदनुमानतोऽवसीयते घटादिकार्योंपलब्धेः, केपाश्चित् सांव्यवहारिकप्रत्यक्षत इति ॥
एगे सहे, पगे रूबे, एगे गधे, एगे रसे, एगे फासे, पगे सुभिमहे, पगे दुभिसई, एगे सुरुवे, एगे दुरूवे पगे दीहे, एगे हस्से, पगे वट्टे, पगे तसे, एगे चउरसे, एगे पिहुले, एगे परिमंडले, एगे किण्हे, एगे णीले, एगे लोहिप, एगे हलिह, एगे सुकिल्ले, एगे सुब्भिगधे, पगे दुभिगधे, एगे तित्ते, एगे कडुप, एगे कसाए, एगे अंबिले, एगे महुरे, एगे कक्खडे जाव लुक्खे (सू०४७)
तत्र शब्दादिसूत्राणि सुगमानि, तानीमानि, शब्दयते-अभिधीयतेऽनेनेति शब्दो-ध्वनिः श्रोत्रेन्द्रियविषयः, रूप्यते-अवलोक्यते इति रूपम्--आकारश्चक्षुर्विषयः, घ्रायते-सिद्ध्यते इति गन्धो-घाणविषयः, रस्यते आस्वाद्यते इति रस:-रसनेन्द्रियविषयः, स्पृश्यते-छुप्यत इति स्पर्श:-स्पर्शनकरणविषयः, शब्दादीनां चैकत्वं सामान्यतः सजातीयविजातीयव्यावृत्तरूपापेक्षया वा भावनीयम् । शब्दभेदावाह--'सुब्भिस' ति, शुभशब्दा मनोज्ञा इत्यर्थः, 'दुभि' त्ति, अशुभः, एवं च शब्दान्तरमत्रान्तर्भूतमवसेयम्, एवं रूपव्याख्यानेऽपि सुरूपादयचतुर्दश शुक्लान्ता रूपभेदाः, तत्र सुरूपं मनोज्ञरूपमितररूपमिति । 'दीहे' त्ति दीर्घम्--आयततरम् 'हस्से' त्ति, हूस्वं-तदितरद् 'व' इत्यादि, वृत्तादयः पञ्च स्कन्धसंस्थानभेदाः, तत्र वृत्तसंस्थानं मोदकवत् , तच्च प्रतरघनभेदाद् द्विधा, पुनः प्रत्येकं समविषमप्रदेशावगाढमिति चतुर्द्धा, एवं शेषाण्यपि 'तंसे त्ति, तिस्रोऽस्त्रयः-कोटयो यस्मिस्तत् त्र्यखं-त्रिकोणम् , 'चतुरंसे'त्ति, चतस्रोऽत्रयो यस्य तत्तथा चतुष्कोणमित्यर्थः, 'पिहले त्ति, पृथुलं-विस्तीणम् ,
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सु०४८-४९
श्रीस्थानात दीपिका
वृत्तिः
॥१९॥
अन्यत्र पुनरिह स्थाने आयतमभिधीयते. तदेवेह दीर्घहस्वपृथुलशब्दै विभज्योक्तमायतधर्मत्वादेषां, तच्चायतं प्रतरघनश्रेणिभेदात् त्रिधा, पुनरेकैकं समविषमप्रदेशमिति पोढा । 'परिमंडले' त्ति, परिमण्डलसंस्थानं च वलयाकारं प्रतरघनभेदाद् द्विविधमिति, रूपभेदो वर्णः, स च कृष्णादिः पञ्चधा प्रतीत एव, नवरं हारिद्र:पीतः, कपिशादयस्तु संसर्गजा इति न तेषामुपन्यासः । गन्धो द्वेधा-सुरभिर्दुरभिश्च । रसः पञ्चधा, तत्र श्लेष्मनाशकृत् तिक्तः १, वैशद्यछेदनकृत् कटुकः २, अन्नरुचिस्तम्भनकृत् कषायः३, आश्रवणक्लेदनकृदम्ल: ४ हादनबहणकृन्मधुरः ५, संसर्गजो लवण इति नोक्तः । स्पर्शोऽष्टधा, कर्कशः कठिनोऽनमनलक्षणः १, यावत्करणान्मृद्वादयः पडन्ये, तत्र मृदुः सम्नतिलक्षणः २, गुरुरधोगमनहेतुः३, लघुः प्रायस्तियगृर्ध्वगमनहेतुः ४, शीतो वैद्यकृत् स्तम्भनस्वभावः ५, उष्णो मार्दवपाककृत् ६, स्निग्धः संयोगे सति संयोगिनां बन्धनकारणं ७, रुक्षस्तथैवाबन्धकारणमिति ८ । उक्ता पुद्गलधर्माणामेकता, इदानीं पुद्गलालिङ्गितजीवाप्रशस्तधर्माणामष्टादशानां पापस्थानाभिधानानां स्वरूपमाह
एगे पाणाइवाए जाव पगे परिग्गहे, पगे कोहे जाव लोमे, एगे पेज्जे एगे दोसे जाव एगे परपरिवाप, एगा अरतीरतो, पग मायामोसे पगे मिच्छाद सणसल्ले, (सू० ४८) एगे पाणाइवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे, एगे कोहविवेगे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे (सू०४९) 'एगे पाणाइवाए' त्यादि प्राणाः-उच्छ्वासादयस्तेषामतिपातन-प्राणवता सह वियोजनं प्राणातिपातो हिंसेत्यर्थः, उक्तं च-"पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवदभिरुक्ताः, तेषां वियोजीकरणं
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॥१९॥
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सू०४८-४९
श्रीस्थाना
सुत्र दीपिका
॥२०॥
च हिंसा ॥१॥" इति, स च प्राणातिपातो द्रव्यभावभेदाद द्विविधो, विनाश-परिताप-सङ्कलेशभेदात् त्रिविधी वा, आह च-"तप्पज्जायविणासो, दुक्खुप्पाओ य संकिलेसो य । एस वहो जिणभणिओ, वज्जेयव्यो पयत्तेण॥१॥" अथवा मनोवाकायैः करणकारणानुमतिभेदाम्नवधा, पुनः स क्रोधादिभेदात् षट्त्रिंशद्विषो वेति १, तथा 'एगे मुसावाए' त्ति, मृषा-मिथ्या वदनं वादो मृषावादः, स च द्रव्यभावभेदाद् द्विधा, तदभूतोद्भावनादिभिश्चतुर्की वा, तथाहि-अभूतोद्भावनं यथा सर्वगत आत्मा, भूतनिहूनवो यथा नास्त्यात्मा, वस्त्वन्तरन्यासो यथा गौरपि सन्नश्वोऽयमिति, निन्दा च यथा कुष्ठी त्वमसीति २, तथा 'एगे अदिन्नादाणे' त्ति अदत्तस्य स्वामिजीवतीर्थङ्करगुरुभिरवितीर्णस्याननुज्ञातस्य सचित्ताचित्तमिश्रभेदस्य वस्तुन आदान-ग्रहणमदत्तादानं चौर्यमित्यर्थः, तच्च विविधोपाधिभेदादनेकविधमिति ३, तथा 'मेहुण' ति, मिथुनस्य स्त्रीपुरुषलक्षणस्य कर्म मैथुनम्-अब्रह्म, तत् मनोवाकायानां कृतकारितानुमतिभिरौदारिकवैक्रियशरीरविषयाभिरष्टादशधा विविधोपाधिवशाद् बहुविधतरं वेति ४, तथा 'एगे परिग्गहे' त्ति, परिगृह्यते-स्वीक्रियते इति परिग्रहः बाह्याभ्यन्तरभेदाद् द्विधा, तत्र वाह्यो धर्मसाधनव्यतिरेकेण धनधान्यादिरनेकधा, आभ्यन्तरस्तु मिथ्यात्वाविरतिकषायप्रमादादिरनेकधा, परिग्रहणं वा परिग्रहो मृछेत्यर्थः ५, 'एगे कोहे' त्यादि क्रोधमानमायालोभाः कषायमोहनीयकर्मपुद्गलसम्पाद्या जीवपरिणामा इति, एते चानन्तानुबन्ध्यादिभेदतोऽसंख्याताध्यवसायस्थानभेदतो वा बहुधा ६-९ तथा 'पिज्जे' त्ति प्रियस्य भावः कम वा प्रेम, तच्चानभिव्यक्तमायालोभलक्षणस्वभावमभिष्वङ्गमात्रमिति १०, तथा 'दोसे' ति द्वेषणं द्वेषः, स
॥२०॥
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ANA
स०५०
श्रीस्थानासूत्र
दीपिका
वृत्तिः
॥२१॥
चानभिव्यक्तक्रोधमानलक्षणभेदस्वभावोऽप्रीतिमात्रमिति ११, 'कलहे त्यादि कलहो-राटी १२, अभ्याख्यानंप्रकटमसदोषारोपणं १३, पैशून्यं-पिशुनकर्म प्रच्छन्नं सदसदोषाविर्भावनं १४, परेषां परिवादः परपरिवादो विकत्थनमित्यर्थः १५, अरतिश्च तन्मोहनीयोदयजश्चित्तविकार उद्वेगलक्षणो, रतिश्च तथाविधानन्दरूपा अरतिरतिरित्येकमेव विवक्षितं, यतः क्वचन विषये या रतिस्तामेव विषयान्तरापेक्षया अरति व्यपदिशन्त्येवमरतिमेव रतिमित्यौपचारिकमेकत्वमनयोरस्तीति १६, तथा 'मायामोसे' चि, माया च-निकृतिर्मषा चमृषावादो मायया वा सह मृषा मायामृषा प्राकृतत्वात् मायामोसं, दोषद्वययोगः, इदं च मानमृषादिसंयोगदोषोपलक्षणं, वेषान्तरकरणेन लोकप्रतारणमित्यन्ये १७, मिथ्यादर्शनं विपर्यस्ता दृष्टिस्तदेव तोमरादिशल्यमिव शल्यं दुःखहेतुत्वात् मिथ्यादर्शनशल्यमिति १८ एतेषां च प्राणातिपातादीनामुक्तक्रमेणानेकविधत्वेऽपि वधादिसाम्यादेकत्वमवसेयमिति । उक्तान्यष्टादशपापस्थानानीदानीं तद्विपक्षाण्याह-'एगे पाणाइवायवेरमणे' इत्यादिभिरष्टादशभिः सूत्रैरेकतामाह-सुगमानि चैतानि, नवरं विरमणं विरतिः, तथा विवेकस्त्याग इति ॥ उक्तं सपुदगलजीवद्रव्याणामेकत्वमिदानीं कालस्य स्थितिरूपत्वेन तद्धर्मत्वात् तद्विशेषाणां 'एगा ओसप्पिणी' त्यादिना 'सुसमसुसमे' त्येदन्तेनैतदेवाह
एगा ओसप्पिणी । एगा सुसमसुसमा जाव एगा दूसमदृसमा । एगा उस्सप्पिणी पगा दुस्समदुस्समा जाव एगा सुसमसुसमा । (सू० ५०) ___ अथ काल एव कथमवसीयत इति चेद् ?, उच्यते, बकुलचम्पकाशोकादिपुष्पप्रदानस्य नियमेन
॥२१॥
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स०५१
श्रीस्थान'
सूत्रदीपिका
वृत्तिः
॥२२॥
दर्शनात् , नियामकश्च काल इति, तत्र 'ओसप्पिणी 'ति अबसर्पति हीयमानारकतया अवसप्र्पयति वाऽऽयुष्कशरीरादिभावान् हापयतीत्यवसर्पिणी सागरोपमकोटीकोटीदशकप्रमाणः कालविशेषः, सुष्टु समा सुषमा, अत्यन्तं सुषमा सुषमसुषमा अत्यन्तसुखस्वरूपस्तस्या एव प्रथमारक इति, एकत्वं चावसप्पिण्याः स्वरूपेणैकत्वादेवं सर्वत्र, यावदिति सीमोपदर्शनार्थः, ततश्च सुषमसुषमेत्यादि सूत्रं स्थानान्तरप्रसिद्ध तावदध्येयमिह यावद् 'दूसमदूसमे ति पदमित्यतिदेशः, अयं च सूत्रलाघवार्थमिति, एवं सर्वत्र यावदिति व्याख्येयमिति, अतिदेशलब्धानि च पदानि एकशब्दोपपदानि एतानि-एगा सुसमसुसमा, एगा सुसमा, एगा सुसमदूसमा, एगा दृसमसुसमा, एगा दूसमा,एगा दूसमदूसमत्ति, आसां स्वरूपं शब्दानुसारतो ज्ञेयं तथा 'उस्सप्पिणि' त्ति उत्सर्पति वद्धतेऽरकापेक्षया उत्सर्पयति वा भावानायुष्कादीन् वर्द्धयतीति उत्सर्पिणी अवसर्पिणीप्रमाणा, दुष्ठु समा दुष्पमा-दुःखरूपा अत्यन्त दुष्पमा दुष्षमदुष्पमा, यावत्करणाद् ‘एगा दुममा एगा दूममममा, एगा सुसमदूममा एगा सुसमे ति दृश्य, एतत्प्रमाणं च पूर्वोक्तमेव नवरं विपर्ययादिति ।। कृता जीवपुद्गलकाललक्षणद्रव्यविविधधर्मविशेषाणामेकत्वप्ररुपणा, अधुना संसारिमुक्तजीवपुद्गलद्रव्यविशेषाणां नारकपरमाण्वादीनां समुदायलक्षणधर्मस्य 'एगा नेरइयाणं वग्गणे'त्यादिनाऽऽह
एगा नेरइयाण वग्गणा, पगा असुरकुमाराण वग्गणा, चउवीसडओ जाव वेमाणियाण वग्गणा । एगा भवसिद्धियाण वग्गणा, एगा अभवसिद्धियाण वग्गणा, एगा भवसिजिनेरइयाण वग्गणा, पगा अभवसिद्धियाण रइयाग वग्गणा, एवं जाव एगा भवसिद्धियाण वेमाणियाण वग्गणा, पगा अभवसिद्धियाण वेमाणियाण वग्गणा । एगा
॥२२॥
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श्रीस्थानाङ्ग सूत्रदारिका वृत्ति.
॥२३॥
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सम्मद्दिट्ठियाण घग्गणा, एगा मिच्छदिट्ठियाणं वग्गणा, एगा सम्मामिच्छद्दिट्टियाणं वग्ग्णा, एगा सम्मद्दिट्टिया ं णेरइयाण चगणा. एगा मिच्छद्दिडियाण णेरइयाणं वग्गणा, एगा सम्मामिच्छद्दिहियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एवं जाव थणियकुमाराण वग्गणा, पगा मिच्छद्दिडियाणं पुढविकाइयाणं वग्गणा, एवं जाव वणस्सइकाइयाण वग्गणा, पा सम्महिडियाण बेदाग वग्गणा, एगा मिच्छद्दिडियाण बेद दियाणं वग्गणा, एवं तेड़ दियाणपि चउरिदिय(णवि, सेसा जहा रहया जाएगा मिच्छद्दिडियाणं वैमाणियाण वग्गणा, एगा सम्मदिट्ठियाणं वेमाणियाणं वग्गणा, एगा सम्ममिच्छद्दिट्ठियाण' वैमाणियाण' वग्गणा, एगो हपक्खियाणं वग्गणा, पगा सुक्कपक्खियाण वग्गणा, एगा कण्हपक्खियाण णेरइयाण arगणा एगा सुकपक्खियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एवं चडवीसद डओ भाणियव्वो, एवं कण्हलेलाण' वग्गणा, पगा नीलसाण' वग्गणा, एवं जाव सुक्कलेसाणं वग्गणा, पगा कण्हलेसाणं णेरइयाणं वग्गणा, जाव काउलेसाण णेरइयाण वग्गणा, पर्व जस्स जइ लेसाओ, भवणपतिवाणमं तर पुढविआउवणस्स इकाइयाणं च चत्तारि लेसाओ, तेउवाउये दिअतिइ दिय चतुरित्रियाणं तिम्नि लेखाओ, पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं छल्लेसाओ, जोइसियाणं एगा तेउलेस्सा, वेमाणि याण तिन्नि उबरिमलेस्साओ, पगा कण्हलेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणा, एगा किण्डलेसाण अभवसिद्धियाणं वग्गणा एवं सुवि लेसासु दो दो पदाणि भाणियव्वाणि, एगा कण्हले साण ं भवसिद्धियाणं णेरइयाणं वग्गणा, पगा कण्हलेला अभ वसिद्धियाण रयाणं वग्गणा, एवं जस्स जत्तियाउ लेसाओ तस्स तत्तियाउ भाणियव्त्राओ जाव वेमाणियाण, एगा कण्हलेस सम्मद्दिहियाणं वग्गणा, एगा कण्हलेसाणं मिच्छद्दिट्ठियाणं वग्गणो, एगा कण्हलेसाणं सम्मामिच्छद्दिट्टियाण गणा, एवं छवि लेसासु जाव वैमाणियाण जेसि जदि दिडीओ, एगा कण्हलेसाणं कण्हर्पाक्खाणं वग्गणा, एगा कलेमा सुक्कपक्खियाण वग्गणा, जात्र वैमाणियाणं जस्स जइ लेसाओ पर अड (ड) चउवीसदंडगा पगा तित्थसिद्वाणं वग्गणा, एगा अतित्थसिद्धाणं वग्गणा, एवं जाव एगा एक्कसिद्धाणं वग्गणा, एगा अणिकसिद्धाणं वग्गणा, पगा पढमसमयसिद्धाणं वग्गणा, एवं जाव अनंतसमयसिद्धाणं वगणा एगा परमाणुयोग्गलाण वरगणा एवं जाव
२०५१
॥२३॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०५१
and
दीपिका
वृत्तिः
કેરા
एगा अण तिपएसियाण खधाण बग्गणा । एगा एगपएसोगाढाण पोग्गलाण दग्गणा, जाव एगो असं खेजपएसोगाढाण पोग्गलाण वग्गणा । एगा एगसमयट्ठितियाण पोग्गलाण वग्गणा जाय एगा अस खेजसमयहिइयाण पोग्गलाण वग्गणा । एगा एगगुणकालगाण पोग्गलाण वग्गणा, जाव एगा असंखेज्जगुणकालगाण पोग्गलाण वगणा, एगा अणतगुणकालगाण पोग्गलाण वग्गणा, एवं बन्नगधरसफासा भाणियन्वो जाव अणतगुण लक्खाण पोग्गलाण वग्गणा । एगा जहन्नपपसियाण खधाण वग्गणा, एगा उक्कोसपपसियाण खधाण वग्गणा, एगा अजहण्णुक्कोसपएसियाण' खंधाण वग्गणा एवं जहण्णोगाहणयाण उक्कोसोगाहणयाण अजहन्नुक्कोसोगाइणयाण जहन्नठितियाण उक्कोसठितियाण अजहन्नुक्कोसठितियाण वगणा । जहन्नगुणकालगाणं उक्कोसगुणकालगाणं अजहणुक्कोसगुणकालगाणं एवं वण्णगंधरसफासाण वग्गणा भाणियव्वा, जाव एगा अजहण्णुक्कोसगुणलुक्खाण पोग्गलाणं वग्गणा ॥ (सू०५१)
तत्र 'नेरइयाणं' ति निर्गतम्-अविद्यमानमयम्-इष्टफलं कर्म येभ्यस्ते निरयास्तेषु भवा नैरयिका:-क्लिष्टसत्त्वविशेषाः, ते च पृथिवीप्रस्तटनरकावासस्थितिभव्यत्वादिभेदादनेकविधास्तेषां सर्वेषां वर्गणा वर्गः समुदायः, तस्याश्चैकत्वं सर्वत्र नारकत्वादिपर्यायसाम्यादिति तथा असुराश्च ते नवयौवनतया कुमारा इव कुमाराश्चेत्यसुरकुमारास्तेषामेका वर्गणेति । 'चउबीसदंडउ'त्ति चतुर्विंशतिपदप्रतिबद्धो दण्डकोवाक्यपद्धतिश्चतुर्विशतिदण्डकः, स इह वाच्य इति शेषः, स चाय-'नेरइया १ असुरादी १०, पुढवाइ ५ बेइंदियादओ४ चेव । नर १ वंतर १ जोतिसिय १, वेमाणी १ दंडओ एवं ॥१॥" भवनपतयो दशधा-'असुरा नागसुवण्णा, विज्जू अग्गी य दीव उदही य । दिसिपवणथणियनामा, दसहा एए भवणवासि ॥२॥त्ति" एतदनुसारेण सूत्राणि वाच्यानि, यावच्चतुर्विशतितम 'एगा वेमाणियाणं वग्गण' त्ति
Manga-Y
રા
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०५१
दीपिका
वृत्तिः
॥२५॥
एष सामान्यदण्डकः १ । 'एगा भवसिद्धियेत्यादि, भविष्यतीति भवा-भाविनी सा सिद्धिः-निवतिर्येषां ते भवसिद्धिका-भव्याः, तद्विपरीतास्त्वभव्या इत्यर्थः । ननु जीवत्वे समाने सति को भव्याभव्ययोर्विशेषः ?. उच्यते, स्वभावकृतो, द्रव्यत्वेन समानयोर्जीवनभसोरिव, आह च-'दव्वाइत्ते तुल्ले, जीवनभाणं सभावओ भेदो । जीवाजीवाइगओ, जह तह भब्वेयरविसेसो ॥१॥' आभ्यां विशेषितोऽन्यो दण्डकः २ । 'एगा सम्मदिहियाण'मित्यादि, सम्यग-अविपरीता दृष्टिः दर्शनं रुचिस्तत्वानि प्रति येषां ते सम्यग्दृष्टिकाः, ते च मिथ्यात्वमोहनीयक्षयक्षयोपशमोपशमेभ्यो भवन्ति, तथा मिथ्या-विपर्यासवती जिनाभिहितार्थसार्थाश्रद्धानवती दृष्टि:-दर्शनं श्रद्धानं येषां ते मिथ्यादृष्टिकाः, मिथ्यात्वमोहनीयकर्मोदयादरुचितजिनवचना इति भावः, उक्तञ्च"सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः। मिथ्यादृष्टिः सूत्रं हि, नः प्रमाणं जिनाभिहितम् ॥१॥" इति. तथा सम्यग मिथ्या च दृष्टिर्येषां ते सम्यग्मिथ्यादृष्टिका:-जिनोक्तभावान् प्रत्युदासीना इति सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिमिश्रविशेषितोऽन्यो दण्डकः, तत्र च नारकादिष्वेकादशसु पदेषु दर्शनत्रयमप्यस्ति, अत उक्तम 'एवं जाव थगिए'त्यादि, पृथिव्यादीनां मिथ्यात्वमेव, तेन तेषां तेनैव व्यपदेशः, उक्तश्च-'चउदस तस सेसया मिच्छत्ति' चतुर्दशगुणस्थानवन्तस्त्रसाः स्थावरास्तु मिथ्यादृष्टय एवेत्यर्थः । द्वीन्द्रियादीनां मिश्रं नास्ति, संज्ञिनामेव तद्भावात, ततस्तेषु सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टितयैव व्यपदेशः, 'एवं तेइन्दियाणवि चउरिदियागवित्ति, द्वीन्द्रियवद् व्यपदेशद्वयेन वगणैकत्वं वाच्यम्, पञ्चेन्द्रियतियगादीनां दर्शनत्रयमप्यस्ति ततस्त्रिधाऽपि तदव्यपदेशः, अत एवोक्तं-'सेसा जहा नेरइय' ति, तथा वाच्या इति शेषः, दण्डकपर्यन्तसूत्रं पुनरिदम् 'जाव एगा
॥२५॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०५१
दीपिका वृत्तिः
॥२६॥
सम्मामिच्छे' त्यादि ३। 'एगा कण्हे'त्ति व्याख्या, कृष्णपाक्षिकेतरयोर्लक्षणं-'जेसिमवड्ढो पोग्गल-परियट्टो सेसओ उ संसारो । ते मुक्कपक्खिया खलु, अहिए पुण किण्डपक्खिा ॥१॥' त्ति, एतद्विशेषितोऽन्यो दण्डकः ४ । 'एगा कण्हलेसाणमित्यादि, लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या, यदाह- श्लेष इव वर्णबन्धस्य, कर्मवन्धस्थितिविधाच्यः' तथा 'कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं. लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥१॥' इति, इयं च शरीरनामकम्मपरिणतिरूपा योगपरिणतिरूपत्वात्, योगस्य च शरीरनामकम्मपरिणतिविशेषत्वात् , यत उक्तं प्रज्ञापनावृत्तिकृता-'योगपरिणामो लेश्या, कथं पुनर्योगपरिणामो लेश्या? यस्मात् सयोगिकेवली शुक्ललेश्यापरिणामेन बिहुत्यान्तमुहर्ते शेषे योगनिरोधं करोति ततोऽयोगित्वमलेश्यत्वं च प्राप्नोति अतोऽवगम्यते 'योगपरिणामो लेश्येति स पुनर्योगः शरीरनामकर्मपरिणतिविशेषः, यस्मादुक्तम्'कम्म हि कार्मणस्य कारगमन्येषां च शरीराणा'मिति, तस्मादौदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्थपरिणतिविशेषः काययोगः १, तोदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतवाग्द्रव्यसमूहसाचिव्यात् जीवव्यापारो यः स वागयोगः२, तीदारिकादिशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसमूहसाचिव्यात् जीवव्यापारो यः स मनोयोग इति ३, ततो यथैव कायादिकरणयुक्तस्यात्मनो वीयपरिणतिर्योग उच्यते तथैव लेश्यापीति । अन्ये तु व्याचक्षते-'कर्मनिस्यन्दो लेश्येति, सा च द्रव्यभावभेदात् द्विधा, तत्र द्रव्यलेश्या कृष्णादिद्रव्याण्येव, भावलेश्या तु तज्जन्यो जीवपरिणाम इति, इयं च षट्प्रकारा जम्बूफलखादकपुरुषषट्कदृष्टान्ताद् ग्रामघातकचौरपुरुषषटकदृष्टान्ताद्वा आगमप्रसिद्धादवसेयेति, तत्सूत्राणि सुगमानि, नवरं कृष्णवर्णद्रव्यसाचिव्याज्जाता अशुभपरिणामरूपा सा कृष्णलेश्या
॥२६॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका
वृत्तिः
॥२७॥
येषां ते तथा, एवं शेषाण्यपि पदानि, नवरं नीला ईषत्सुन्दररूपैवमिति - अनेनैव क्रमेण यावत्करणात् 'एगा कावोयलेस्साण' मित्यादिसूत्रत्रयं दृश्यं तत्र कपोतस्य पक्षिविशेषस्य वर्णेन तुल्यानि यानिद्रव्याणि धूम्राणि इत्यर्थः, तत्साहाय्याज्जाता कापोतलेश्या मनाक् शुभतरा सा लेश्या येषां ते तथा, तेज:-अग्निज्वाला तदवर्गानि यानि द्रव्याणि लोहितानीत्यर्थः, तत्साचिव्याज्जाता तेजोलेश्या शुभस्वभावा, पद्मगर्भवर्णानि यानि द्रव्याणि पीतानीत्यर्थः, तत्साचिव्याज्जाता पद्मलेश्या शुभतरा, शुक्लवर्णद्रव्यजनिता शुक्ललेश्या अत्यन्त - शुभेति एतासां च विशेषतः स्वरूपं लेश्याध्ययनादव सेयमिति, एवं जस्स जह' ति नारकाणामिव यस्यासुरादेर्या यावत्यो लेश्यास्तदुद्देशेन तद्वर्गणैकत्वं वाच्यम् । 'भवणे 'त्यादिना तल्लेश्यापरिमाणमाह-अत्र सङ्ग्रहणी - "काऊ नीला किण्हा, लेसाओ तिनि होंति नरपसुं । तइयाए काउनीला [पृथिव्यामित्यर्थः ] terror a faare || १ || [ पञ्चम्यामित्यर्थः ] किण्हानीलाकाऊतेउलेसा य भवणवंतरिया । जोइससोहंमीसाण, तेउलेसा मुणेयव्वा ||२|| कप्पे सणकुमारे माहिंदे चेव बंभलोए य । एएस पम्हलेसा, तेण परं सुकलेसा उ ||३|| पुढवी आउ वणस्सई, वायर पत्तेय लेस चत्तारि । गन्भयतिरियन रेसुं, छल्लेसा तिन्नि सेसाणं ॥ ४ ॥ अयं सामान्यो लेश्यादण्डकः ५ । अयमेव भव्याभव्यविशेषणादन्यः, 'एगा कण्हलेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणे'त्यादि, 'एव' मिति कृष्णलेश्यायामिव 'सुवि' ति कृष्णया सह षट्सु, अन्यथा अन्याः पञ्चैवातिदेश्या भवन्तीति द्वे द्वे पदे प्रतिलेश्यं भव्याभव्यलक्षणे वाच्ये, यथा 'एगा नीललेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणे' त्यादि ६, लेश्यादण्डक एव दर्शनत्रयविशेषितोऽन्यः 'एगा कण्हलेसाणं सम्मद्दिट्टियाण' मित्यादि 'जेसि जड़ दिट्ठीओ ति
सू० ५१
॥२७॥
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AIT
सू० ५१
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका
वृत्तिः
॥२८॥
येषां नारकादीनां या यावत्यो दृष्टयः सम्यक्त्वाधास्तेषां ता वाच्या इति तत्र एकेन्द्रियाणां मिथ्यात्वमेव, विकले. न्द्रियाणां सम्यक्त्वमिथ्यात्वे, शेषाणां तिखोऽपि दृष्टय इति ७ । लेश्यादण्डक एव कृष्णशुक्लपक्षविशिष्टोऽन्यः, 'एगा कण्हलेसाणं काहपक्खियाण'मित्यादि, एते 'अट्ट चउवीस दंडय' त्ति, एते चैवं-"ओहो १ भब्वाईहि, विसेसिओ २ दंसणेहि ३ पक्खेहिं ४ । लेसाहिं ५ भव्व ६ देसण ७, पखेहिं विसिहलेसाहि ॥१॥"ति, इतः सिद्धवर्गणा अभिधीयते, तत्र सिद्धा द्विधा-अनन्तरसिद्ध-परम्परसिद्धभेदात्, तत्रानन्तरसिद्धाः पञ्चदशविशः. तद्वगणेकत्वमाह-'एगा तित्थेत्यादिना, तत्र तीर्यतेऽनेनेति तीर्थ, द्रव्यतो नद्यादीनां समोऽनपायश्च भूभागो भौतादिनवचनं वा, द्रव्यतीर्थता त्वस्याप्रधानत्वाद्, अप्रधानत्वं च भावतस्तरणीयस्य संसारसागरस्य तेन तरीतुमशक्यत्वात्, सावद्यत्वादस्येति, भावतीर्थ तु सङ्घो यतो ज्ञानादिभावेन तद्विपक्षादज्ञानादितो भवाच्च भावभूतात् तारयतीति, आह च-"ज णाणदसणचरित्त-भावओ तव्विवकखभावाओ । भवभावओ य तारेइ, तेण तं भावो तित्थं ॥१॥" ति, त्रिषु वा क्रोधाग्निदाहोपशमलोभतृष्णानिरासकर्ममलापनयनलक्षणेषु ज्ञानादिलक्षणेषु वा अर्थेषु तिष्ठतीति त्रिस्थं, प्राकृतत्वात् तित्थं, आह च-"दाहोवसमादिसु वा, जं तिसु थियमहव दंसणाईसुं । तो तित्थं सङ्घो चिय, उभयं च विसेसण विसेसं ॥१॥" ति, तत्र तीर्थे सति सिद्धाः-निवृतास्तीर्थसिद्धाः ऋषभसेनगणधरादिवत् तेषां वर्गणेति १, तथा अतीर्थ-तीर्थान्तरे साधुव्यवच्छेदे जातिस्मरणादिना प्राप्तापवर्गमार्गा मरुदेवीवत सिद्धा अतीर्थसिद्धास्तेषाम् २, एवंकरणात् 'एगा नित्थगरसिद्धाणं गणे'त्यादि दृश्य, तीर्थमुक्तलक्षणं तत्कुर्वन्तीति तीर्थकराः, तीर्थकराः सन्तो ये सिद्धास्ते तीर्थकरसिद्धा ऋषभादिवत तेषां ३ अतीर्थकराः सामान्य केवलिनः सन्तो
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सू०५१
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः
॥२९॥
ये सिद्धाः 'गौतमादिवत्' तेषां ४, तथा स्वयम्-आत्मना बुद्धाः-तत्त्वं ज्ञातवन्तः स्वयम्बुद्धास्ते सन्तो ये सिद्धास्ते तथा तेषां ५, तथा प्रतीत्यैकं किञ्चित् वृषभादिकम् अनित्यतादि( अन्यत्वादि )भावनाकारणं वस्तु बुद्धाः--बुद्धवन्तः परमार्थमिति प्रत्येकबुद्धास्ते सन्तो ये सिद्धास्तेषां ६, स्वयम्बुद्धप्रत्येकबुद्धानां च बोध्युपधिश्रुतलिङ्गकतो विशेषः तथाहि-स्वयम्बुद्धानां बाह्यनिमित्तमन्तरेणैव बोधिः प्रत्येकबुद्धानां तु तदपेक्षया, करकण्ड्वादीनामिवेति, उपधिः स्वयम्बुद्धानां पात्रादिदशविधः, तद्यथा-" पत्तं१ पत्ताबंधो२, पायढवणं३ च पायकेसरिया४ । पडलाइ५ रयत्ताणं च ६, गोच्छ ओ७ पायनिजोगो ॥१॥ तिन्नेव य पच्छागा १०, रयहरणं ११ चेव होइ मुहपोत्ति १२ ॥शाति" प्रत्येकबुद्धानां तु नवविधः प्रावरणवज इति, स्वयम्बुद्धानां पूर्वाधीते श्रुते अनियमः प्रत्येकबुद्धानां त नियमतो भवत्येव, लिङ्गप्रतिपत्तिः स्वयम्बुद्धानामाचार्यसन्निधावपि भवति प्रत्येकबुद्धानां तु देवता प्रयच्छतीति । बद्धबोधिता:-आचार्यादिबोधिता ये सिद्धास्तेषां ७, एतेषामेव स्त्रीलिङ्गसिद्धानां ८, पुलिङ्गसिद्धानां ९, नपुंसकलिङ्गसिद्धानां १० स्वलिङ्गसिद्धानां रजोहरणाद्यपेक्षया ११, अन्यलिङ्गसिद्धानां परिव्राजकादिलिङ्गसिद्धानां १२, गृहिलिङ्गसिद्धानां मरुदेवीप्रभृतीनां १३, एकसिद्धानामेकैकस्मिन् समये एकैकसिद्धानां १४, अनेकसिद्धानामेकसमये द्वयादीनामष्टशतान्तानां सिद्धानामेका वर्गणेति १५। तत्र अनेकसमयसिद्धानां प्ररूपणागाथा-" बत्तीसा अडयाला, सही बावत्तरी य बोधव्या । चुलसीई छन्नउई, दुरहिय अट्ठोत्तरसयं च ॥१॥" एवमनन्तरसिद्धानां तीर्थादिना भूतभावेन प्रत्यासत्तिव्यपदेश्यत्वेन पञ्चदशविधानां वर्गणैकलमुक्तमधुना परम्परसिद्धानामुच्यते, तत्र 'अपढमसमयसिद्धाण'मित्यादित्रयोदशसूत्री, न प्रथमसमयसिद्धाः अप्रथमसमयसिद्धाः सिद्धत्वद्वितीयसमयवर्तिनः तेषामेवं
॥२९॥
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श्रीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः
॥३०॥
'जाव 'त्तिकरणाद 'दुसमयसिद्धाणं तिचउपंचछसत्तहनवदससंखेज्जासंखेजसमयसिद्धाणमिति दृश्यं, तत्र सिद्धत्वस्य तृतीयादिषु समयेषु द्विसमयसिद्धादयःप्रोच्यन्ते, यद्वा सामान्येनाप्रथमसमयाभिधानं विशेषतो द्विसमयाद्यभिधानमिति, अतस्तेषां वर्गणा, क्वचित् 'पढमसमयसिद्धाण'ति पाठः, तत्र अनन्तरपरम्परसमयसिद्धलक्षणं भेदमकृत्वा प्रथमसमयसिद्धा अनन्तरसिद्धा एव व्याख्यातव्याः, द्वयादिसमयसिद्धास्तु यथाश्रुता एवेति ॥ इतो द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य पुद्गलवर्गणकत्वं चिन्त्यते-पूरणगलनधर्माणः पुद्गलाः, ते च स्कन्धा अपि स्युरिति विशेषयति-परमाणवो-निष्प्रदेशास्ते च पुद्गलाश्चेति विग्रहस्तेषाम् , एवंकरणात् 'दुपएसियाणं खंधाणं तिचउपंचछसत्तहनवदससंखेजपएसियाणं असंखेज्जपएसियाणं'ति दृश्यमिति, कृता द्रव्यतः पुद्गलचिन्ता, अतः क्षेत्रतः क्रियते-'एगा एगपएसिए'त्यादि, एकस्मिन् प्रदेश क्षेत्रस्यावगाढाः-अवस्थिता एकप्रदेशावगाढास्तेषां, ते च परमाण्वादयोऽनन्तप्रादेशिकस्कन्धान्ताः स्युः, अचिन्यत्वाद् द्रव्यपरिणामस्य, यथा पारदस्यकेन कर्षेण चारिताः सुवर्णस्य ते सप्ताप्येकीभवन्ति पुनर्वामिताः प्रयोगतः सप्तैव त इति, 'जाव एगा असंखेज्जपएसोगाढाणं ति, अनन्तप्रदेशावगाहित्वं तु नास्ति पुद्गलानां, लोकलक्षणस्यावगाहक्षेत्रस्याप्यसख्येयप्रदेशत्वादिति, कालत आह-'एगा एगसमए'त्यादि, एक समयं यावत् स्थितिः परमाणुत्वादिना एकप्रदेशावगाढादित्वेन एकगुणकालादित्वेन वा अवस्थानं येषां ते एकसमयस्थितिकास्तेपामिति, इह च अनन्तसमयस्थितेः पुद्गलानामसम्भवाद् 'असंखेज्जसमयद्वितियाण'मित्युक्तमिति, भावतः पुद्गलानाह-'एगगुणे 'त्यादि, एकेन गुणो-गुणनं ताडनं यस्य स एकगुणः, एकगुणः कालो वर्णों येषां ते एकगुणकालकाः, तारतम्येन कृष्णतरकृष्णतमादीनां येभ्य आरभ्य प्रथममुत्कर्षप्रवृत्तिर्भवतीति भावस्तेषाम् , इत्येवं सर्वाण्यपि भावसूत्राणि
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॥३०॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सुत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३१॥
षष्ठयधिकद्विशतप्रमाणानि वाच्यानि २६०, विशते: कृष्णादिभावानां त्रयोदशभिर्गुणनादिति । साम्प्रतं भङ्गयन्तरेण द्रव्यादिविशेषितानां जघन्यादिभेदभिन्नानां स्कन्धानां वर्गणकत्वमाह-'एगा जहणे'त्यादि, जघन्याः सर्वाल्पाः प्रदेशाःपरमाणवस्ते सन्ति येषां ते जघन्यप्रदेशिकाः, द्वचणुकादय इत्यर्थः, स्कन्धा:-अणुसमुदयास्तेषां उत्कर्षन्तीत्युत्कर्षाःउत्कर्षवन्तः उत्कृष्टसख्याः परमानन्ताः प्रदेशा:-अणवस्ते सन्ति येषां ते उत्कर्षप्रदेशकास्तेषां, जघन्याश्च उत्कर्षाश्च जघन्योत्कर्षाः न तथा ये ते अजघन्योत्कर्षाः, मध्यमा इत्यर्थः, ते प्रदेशाः सन्ति येषां ते अजन्योत्कर्षप्रदेशिकास्तेषाम्, एतेषां चानन्तवर्गणात्वेऽप्यजघन्योत्कर्षशब्दव्यपदेश्यत्वादेकवर्गणात्वमिति । 'जहमोगाहणगाणं'ति, अवगाहन्ते-आसते यस्यां सा अवगाहना-क्षेत्रप्रदेशरूपा सा जघन्या येषां ते स्वार्थिककप्रत्ययाजघन्यावगाहनकास्तेषाम्, एकप्रदेशावगाढानामित्यर्थः, उत्कर्षावगाहनकानामसङ्ख्यातप्रदेशावगाढानामित्यर्थः, अजघन्योत्कर्षावगाहनकानां सङ्ख्येयासङ्ख्येयप्रदेशावगाढानामित्यर्थः । जघन्या जघन्यसङ्ख्या समयापेक्षया स्थितियेषां ते जघन्यस्थितिकाः, एकसमयस्थितिका इत्यर्थः, तेषां, उत्कर्षा-उत्कर्षवत्सङ्ख्या समयापेक्षया स्थितिर्येषां ते तथा तेषामसङ्ख्यातसमयस्थितिकानामित्यर्थः, तृतीयं कण्ठयं, जघन्येन-जघन्यसङ्ख्याविशेषेणैकेनेत्यर्थः, गुणो-गुणनं ताडनं यस्य स तथा, तथाविधः कालो वर्णों येषां ते जघन्यगुणकालकास्तेषाम्, एवमुत्कर्षगुणकालकानामनन्तगुणकालकानामित्यर्थः, एवं भावसूत्राणि सर्वाण्यपि पष्टिर्भावनीयानि ॥ सामान्यस्कन्धवर्गणकत्वाधिकारादेवाजघन्योत्कर्षप्रदेशिकस्याजघन्योत्कर्षप्रदेशावगाढस्य स्कन्धविशेषस्यैकत्वमाह
एगे जबूहीवे २ सव्वदीवसमुदाण जाव अद्धंगुलग च किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेण (सु०५२) पगे समणे भगव
॥३१॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः
||३२||
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FOOTO FO
महावीरे इमीसे ओसप्पिणीए चउव्वीसाप तित्थगराणं चरमतित्थयरे सिद्धे बुद्धे मुत्ते जाव सव्वदुक्ख होणे (सू०५३) अणुतवायाण देवाण पगा रयणी उड्ढ उच्चत्तेण पन्नत्ता (सू०५४) अहाणखत्ते एतारे पन्नत्ते, चित्ताणक्खत्ते तारे पंप, सातीणक्खत्ते एगतारे पं० (सू०५५) एगपरसोगाढा पोगाला अनंता पन्नत्ता, पचमेगसमयठितिया पगगुणकालगा पोग्गला अनंता पन्नत्ता, जाव एगगुणलुक्खा पोग्गला अनंता पन्नत्ता || (सू०५६) एगड्डाणं समन्तं ॥
'जंबू'त्ति जम्ब्वा - वृक्षविशेषेणोपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपः द्वीप इति नाम सामान्यं यावद्ग्रहणादेवं सूत्रं दृष्टव्यम् - 'सव्वन्तरए सव्वखुड्डाए बट्टे तेल्लापूयसंठाणसंठिए' इत्यादि, मुगममेतत् उक्तविशेषणश्च जम्बूद्वीप एक एव, अन्यथा अनेकेsपि ते सन्तीति ।। अनन्तरं जम्बूद्वीप उक्त इति तत्प्ररूपकस्य भगवतो महावीरस्यैकतामाह'एगे समणे' इत्यादि, एकः - असहायः अस्य च सिद्ध इत्यादिना सम्बन्धः उक्तं च- " एगो भयवं वीरो, तित्तीसाए सह frogओ पासो । छत्तीसएहिं पंचहिं, सएहिं नेमी उसिद्धिगओ || १||" इत्यादि, एकाकी वीरो निर्वृत इत्युक्तं, निर्वृतिक्षेत्रासन्नानि चानुत्तर विमानानीति तन्निवासिदेवदेहमानमाह - 'अनुत्तरे' त्यादि, अनुत्तरत्वादनुत्तराणि - विजयादिविमानानि तेषु य उपपातो जन्म स विद्यते येषां तेऽनुत्तरोपपातिकास्ते, णंकारौ वाक्यालङ्कारे, देवा:- सुराः, 'एगा स्यणि' त्ति, एकां रनिं- हस्तं यावत्, 'उड्ढं उच्चणं' ति, वस्तुनो ह्यनेकधोच्चत्वम्, ऊर्ध्वस्थितस्यैकमपरं तिर्यक्रस्थितस्यान्यत् गुणोन्नति रूपम्, तत्रेतरापोहेनोर्ध्वस्थितस्य यदुच्चत्वं तदूर्ध्वोच्चत्वमित्यागमे रूढमिति तेनोर्ध्वोच्चत्वेन, अनुस्वारः प्राकृतत्वात् प्रज्ञप्ताः - प्ररूपिताः सर्वविद्भिरिति, देवाधिकादेव नक्षत्रदेवानां 'अद्दा नकूखते' त्यादिना कण्ठचेन सूत्रत्रयेण तारैकत्वमुक्तं, तारा च ज्योतिर्विमानरूपेति,
hower
सु०५३-५६
॥३२॥
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श्रीस्थानाङ्ग सूत्रदीपिका "वृत्तिः
॥३३॥
FOSSE
कृत्तिकादिषु च नक्षत्रेष्विदं ताराप्रमाणम् -“छ ६ पंच ५ तिनि ३ एगं १, चउ ४ तिग ३ रस ६ वेय ४ जुयल २ जुयलं २ च। इंदिय ५ एगं १ एगं १, विसय ५ ग्गि ३ समुह ४ वारसगं १२ ॥ १ ॥ चउरो ४ चउ ४ तिय ३ तिय३ पंच ५, सत्त ७ वे २ वे २ भवे तिया तिष्णि ३-३-३ । रिक्खे तारपमाणं, जइ तिहितुल्लं हयं कज्जं ॥२॥'ति, इह चैकस्थानकानुरोधात् नक्षत्रत्रयस्य ताराप्रमाणमुक्तं, शेषनक्षत्राणां तु प्रायोऽग्रेतनाध्ययनेषु तद् वक्ष्यति, यस्तु कचिद्विसंवादस्ताराप्रमाणस्य स तथाविधप्रयोजनेषु तिथिविशेषस्य नक्षत्रविशेषयुक्तस्याशुभसूचनार्थत्वेनोक्तगाथयोर्मतान्तरभूतत्वान्न वाधक इति । 'एगपएसोगांढे' इत्यादि सुगमं, नवरमेकत्र प्रदेशे - क्षेत्रस्यांशविशेषे अवगाढा :- आश्रिता एक प्रदेशावगाढाः, ते च परमाणुरूपाः स्कन्धरूपाचेति, एवं वर्ण ५ गन्ध २ रस ५ स्पर्श ८ भेदविशिष्टाः पुद्गला वाच्याः, अत एवोक्तम् — 'जाब एगगुणलुक्खे' इत्यादि । तदेवमनुगमोऽभिहितः, अन्यो विस्तरो वृत्तितो ज्ञेयः ॥
इति श्रीमत्तपागच्छाधिराजभट्टारक पुरन्दरसूरीश्वर श्रीविजयसेनसूरिराज्ये श्रीमच्छ्री विजय देवसूरीश्वर यौवराज्ये पण्डितश्री कुशलवर्द्धनगणिशिष्यनगपिंगणिना स्ववाचनपरोपकृते कृतोद्धाररूपायां सकलवाचकशिरोमणिमहोपाध्यायश्रीविमलहर्षगणिभिः संशोधितायां सुखावबोधायां स्थानाङ्गदीपिकायां प्रथममेकस्थानकाभिधानमध्ययनं समाप्तम् ।। 卐
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सु०५३-५६
શાં
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स०५७
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः
॥३४॥
अथ द्वितीयं द्विस्थानकाऽऽख्यमध्ययनम् । अथ सख्याक्रमसम्बद्धमेव द्वितीयं द्विस्थानकमारभ्यते, अस्य चायं विशेषसम्बन्धः-इह जैनानां सामान्यविशेपात्मकं वस्तु, तत्र सामान्यमाश्रित्य प्रथमाध्ययने आत्मादिवस्त्वेकत्वेन प्ररूपितमिह तु विशेषाश्रयणात् तदेव द्विविधत्वेन निरूप्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्याऽस्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराण्युपक्रमादीनि भवन्ति, इत्यादि वृत्तितो ज्ञेयम् । साम्प्रतं सूत्रं तच्चेदं
नमो सुयदेवयाप भगवईए । जदत्थि ण लोगे त सव्वं दुपडोयार, तंजहा-जीवच्चेव अजीवच्चेव । तसच्चेव थावरच्चेव १, सजोणियच्चेव अजोणियच्चेव , २ साउयच्चेव अणाउयच्चेव ३, सईदिया चेव अणिदिया चेव ४, सवेदगा चेव अवेदगा चेव ५, सरूवि चेव अरूवि चेव ६, सपोग्गला चेव अपोग्गला चेव ७, संसारसमावन्नगा चेव असं सारसमावन्नगा चेव ८, सासया चेव असासया चेव ९, (सू०५७) _ 'यद्' जीवादिकं वस्तु 'अस्ति' विद्यते, णमित्यलङ्कारे, क्वचित्पाठो 'जदत्थिं च णं' ति, तत्रानुस्वार आगमिकश्वशब्दः पुनरर्थः, एवं चास्य प्रयोग:-अस्ति आत्मादि वस्तु, पूर्वाध्ययनप्ररूपितत्वात्, यच्चास्ति 'लोके' पश्चास्तिकायात्मके, लोक्यते प्रमीयते इति लोकः इति व्युत्पत्त्या लोकालोकरूपे वा तत् “सर्व' निरवशेष द्वयोः पदयोः-स्थानयोः पक्षयोर्विवक्षितवस्तु-तद्विपर्ययलक्षणयोरवतारो यस्य तद् द्विपदावतारमिति, 'दुपडोयाति | क्वचित् पठयते, तत्र द्वयोः प्रत्यवतारो यस्य तद् द्विप्रत्यवतारमिति, स्वरूपवत् प्रतिपक्षवच्चेत्यर्थः, 'तद्यथे'त्युदा
॥३४॥
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श्रीस्थानाङ्ग सूत्र
दीपिका वृत्तिः
॥३५॥
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हरणोपन्यासे, 'जीवच्चेव अजीवच्चेव' त्ति, जीवाश्चैवाजीवाश्चैव, प्राकृतत्वात् संयुक्तपरत्वेन ह्रस्वः, चकारौ समुच्चयार्थी, एवकाराववधारणे, तेन च राज्यन्तरापोहमाह, नोजीवाख्यं राज्यन्तरमस्तीति चेत्, नैवम् सर्वनिषेधकत्वे नोशब्दस्य जीवशब्देाजीव एव प्रतीयते, देशनिषेधकत्वे तु जीवदेश एव प्रतीयते, न च देशो देशिनोऽत्यन्तव्यतिरिक्त इति जीव एवासाविति, 'च्चेय' इति पूर्व्वाध्ययन एवकारार्थे, 'चिय च्चेय एवार्थ' इति वचनात् ततश्च जीवा एवेति विवक्षतवस्तु - अजीवा एवेति च तत्प्रतिपक्ष इति, एवं सर्वत्र अथ 'तसे चेवे'त्यादि, तत्र त्रसनामकर्मोदयतः त्रस्यन्तीति द्वीन्द्रियादयः, स्थावरनामकर्मोदयात् तिष्ठन्तीत्येवंशीलाः स्थावराः - पृथिव्यादयः सह योन्या- उत्पत्तिस्थानेन सयोनिकाः—संसारिणस्तद्विपर्यासभूता अयोनिका :- सिद्धाः, सहायुषा वर्तन्त इति सायुषस्तदन्येऽनायुषः - सिद्धाः, एवं सेन्द्रियाः – संसारिणः, अनिन्द्रियाः- सिद्धादयः, सवेदाः - स्त्रीवेदाद्युदयवन्तः, अवेदकाः - सिद्धादयः, सह रूपेणवर्त्तन्त इति समासान्ते इन्प्रत्यये सति सरूपिणः - संस्थानवर्णादिमन्तः सशरीरा इत्यर्थः, न रूपिणोऽरूपिणोमुक्ताः, सपुद्गलाः-कर्मादिपुद् गलवन्तो जीवाः, अपुद्गलाः सिद्धाः, संसारं भवं समापन्नकाः - आश्रिताः संसारसमापनकाः - संसारिणः, तदितरे सिद्धाः, शाश्वताः - सिद्धाः जन्ममरणादिरहितत्वाद्, अशाश्वताः – संसारिणस्तद्युक्तत्वादिति । एवं जीवतत्त्वस्य द्विपदावतारं निरूप्याजीवतत्त्वस्य तं निरूपयन्नाह -
आगासे चेव नोआगासे चेव । धम्मे चेव अधम्मे चेव । (सू०५८) बंधे चेव मोक्खे चेव १, पुण्णे चैव पावे चैव २, आसवे चेव संवरे चैव ३, वेयणा चैव पिंजरा चैव ४, (सू०५९) दो किरियाड पन्नत्ता, तं०- जीवकिरिया चैव अजीवकिरिया
सु०५७
॥३५॥
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सू०५८-५९
श्रीस्थाना
सूत्रदीपिका
वृत्तिः
॥३६॥
चेव १, जीवकिरिया दुविहा पं०२०-सम्मत्तकिरिया चेव मिच्छत्तकिरिया चेव, अजीन किरिया दुविहा पंत-इरियावहिया चेव संपराइया चेव ३, दो किरियाउ ५० त०-काझ्या चेव अहिगरणिया चेव ४, काइया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तं०-अणुवरयकायकिरिया चेव, दुप्पउत्तकार्याकरिया चेव ५, अहिगरणिया किरिया दुविहा पंतसंजोयणाहिगर्राणया चेव णिवत्तणाहिगरणिया चेव ६, दो किरियाउ ५० त०-पाउसिया चेव पारियावणिया चेव ७, पाउसिया किरिया दुविहा पं० त०--जीवपाउसिया चेव अजीवपाउसिया चेव ८, पारियावणिया किरिया दुविहा पं.२०-सहत्थपारियावणिया चेव परहत्थपारियाणिया चेव ९, दो किरियाउ पं० त०-पाणाइवायकिरिया चेव अपच्चक्खाणकिरिया चेव १०, पाणाइवायकिरिया दुविहा पं०, त-सहत्थपाणाइवायकिरिया चेव परहत्थपाणाइवायकिरिया चेव ११, अपञ्चक्खाणकिरिया दुविहा पं०, तं०-जीवअपञ्चक्खाणकिरिया चेव अजीवअपच्चक्खाणकिरिया चेव १२, दो किरियाउ ५०, तं०-आरंभिया चेव परिरगहिया चेव १३, आर भिया किरिया दुविहा पंत-जीवआर भिया चेव अजीवआर भिया चेव १४, एवं परिग्गहिया वि १५, दो किरियाओ 40 तंमायावत्तिया चेव मिच्छादसणवत्तिया चेव १६, मायावत्तिया किरिया दुविहा ५० त०-आयभावव कणया चेव परभावव कणया चेव १७, मिच्छादसणवत्तियाकिरिया दुविहा पं० त०-ऊणारित्तमिच्छादसणवत्तिया चेव तब्वइरित्तमिच्छादसणवत्तिया चेव १८, दो किरियाउ पं०- तदिट्ठिया चेव पुट्ठिया चेव १९, दिट्ठिया किरिया दुविहा पं० त जीवदिट्ठिया चेव अजीवदिहिया चेव २०, एवं पुट्टिया वि २१, दो किरियाओ ० त० पाहुच्चिया चेव साम तोवणिवाइया चेव २२, पाडुच्चिया किरिया दुविहा ५० त०-जीवपाहुच्चिया चेव अजीवपाडुच्चिया चेव २३, एवं साम तोवणिवाइया वि २४, दो किरियाओ पंत-साहत्थिया चेव णेसत्थिया चेव २५, साहत्थिया किरिया दुविहा पंत-जीवसाहस्थिया चेव अजीवसाहत्थिया चेव २६, एवं सत्थिया वि २७, दो किरियाउ ५००आणवणिया चेव वेयारणिया चेव २८, जहेव णेसत्थियाओ २९-३०, दो किरियाओ पंत-अणाभोगवत्तिया चेव अणवक खत्तिया चेव ३१ अणाभोगवत्तिया किरिया दुविहा पंत-अणाउत्सआइयणता चेव अणाउत्तपमज्जणता चेव ३२,
॥३६॥
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श्रीस्थाना
सूत्र दीपिका वृत्तिः ।
॥३७॥
अणवक खवत्तियाकिरिया दुविहा पं० त०-आयसरीरअणवक खवत्तिया चेव परसरोरअणवक खवत्तिया चेव ३३, दो किरियाउ ५० त०- पिज्जवत्तिया चेव दोसवत्तिया चेव ३४, पेज्जत्तिया किरिया दुविहा पंत-मायावत्तिया चेव लोभवत्तिया चेव ३५, दोसवत्तिया किरिया दुविहां पं००-कोहे चेव माणे चेव ३६, (सू०६०)
'आगासे'त्यादि आकाशं व्योम नोआकाशम् तदन्यद्धर्मास्तिकायादि, धर्म:-धर्मास्तिकायो गत्युपष्टम्भगुणः तदन्योऽधर्म:-अधर्मास्तिकायः स्थित्युपष्टम्भगुणः । सविपक्षबन्धादितत्त्वसूत्राणि चत्वारि प्राग्वदिति । बन्धादयश्च क्रियायां सत्यामात्मनो भवन्तीति क्रियानिरूपणायाह-दो किरिए'त्यादिसूत्राणि षट्त्रिंशत्, करण क्रिया, क्रियत इति वा क्रिया, ते च द्वे प्रज्ञप्ते-प्ररूपिते जिनैः, तत्र जीवस्य क्रिया-व्यापारो जीवक्रिया, तथा अजीवस्यपुद्गलसमुदायस्य यत् कर्मतया परिणमनं सा अजीवक्रिया इति, इह 'चिय'शब्दस्य चैवशब्दस्य च पाठान्तरे प्राकृतत्वाद् द्विर्भाव इति, चैवेत्ययं च समुच्चयमात्र एव प्रतीयते, अपिचेत्यादिवदिति, 'जीवकिरिये'त्यादि, सम्य| क्त्वं-तत्त्वश्रद्धानं तदेव जीवव्यापारत्वात् क्रिया सम्यक्त्वक्रिया, एवं मिथ्यात्वक्रियाऽपि, नवरं मिथ्यात्वम्
अतत्त्वश्रद्धानं तदपि जीवव्यापार एवेति अथवा सम्यग्दर्शनमिथ्यात्वयोः सतोर्ये भवतः ते सम्यक्त्वमिथ्यात्वक्रिये इति ॥ तत्र 'ईरियावहिय'त्ति, ईरणमीर्या-गमनं तद्विशिष्टः पन्थाः ईर्यापथः तत्र भवा ऐर्यापथिकी, व्युत्पत्तिमात्रमिदं, प्रवृत्तिनिमित्तं तु यत्केवलयोगप्रत्ययमुपशान्तमोहादित्रयस्य सातवेदनीयकर्मतया अजीवस्य पुद्गलराशेर्भवनं (बन्धन) सा ऐर्यापथिकी क्रिया, इह जीवव्यापारेऽप्यजीवप्रधानत्वविवक्षया अजीवक्रियेयमुक्ता, कर्मविशेषो वैर्यापथिकी क्रियोच्यते, यतोऽभिहितं-"ईरियावहिया किरिया दुविहा-बज्झमाणा वेइज्जमाणा य, जा[व] पढमसमये बद्धा बीयसमये वेइया सा बद्धा पुट्ठा वेइया णिज्जिण्णा सेयकाले अकम्मं वा वि भवती"ति
॥३७॥
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सू०६०
वृत्तिः
श्रीस्थानाङ्ग
तथा सम्पराया:-कषायास्तेषु भवा साम्परायिकी, सा ह्यजीवस्य पुदगलराशेः कर्मतापरिणतिरूपा जीवव्यापारसूत्र- स्याविवक्षणादजीवक्रियेति, सा च सूक्ष्मसम्परायान्तानां गुणस्थानकवतां भवतीति । पुनरन्यथा द्वे 'दो किरिये'दीपिका
त्यादि, 'काइया चेवत्ति, कायेन निवृत्ता कायिकी-कायव्यापारः, तथा 'अहिगरणिया चेव'त्ति अधिक्रियते
आत्मा नरकादिषु येन तदधिकरणम्-अनुष्टानं बाह्य वा वस्तु, इह च बाह्यं विवक्षितं खड्गादि, तत्र भवा आधिकर| ३८।।
णिकीति ४ ॥ कायिकी द्विधा-'अणुवरयकायकिरिया चेव त्ति' अनुपरतस्य-अविरतस्य सावद्यात् मिथ्यादृष्टेः सम्यग्दृष्टेर्वा कायक्रिया-उत्क्षेपादिलक्षणा कर्मबन्धनिबन्धनमनुपरतकायक्रिया, तथा 'दुप्पउत्तकायकिरिया चेव'त्ति
दुष्प्रयुक्तस्य दुष्टप्रयोगवतो दुष्प्रणिहितस्येन्द्रियाण्याश्रित्येष्टानिष्टविषयप्राप्तौ मनाक् संवेगनिर्वेदगमनेन तथा अनिHI न्द्रियमाश्रित्याशुभमनःसङ्कल्पद्वारेणापवर्गमार्ग प्रति दुर्व्यवस्थितस्य प्रमत्तसंयतस्येत्यर्थः कायक्रिया दुष्प्रयुक्तकाय
क्रियेति ५, आधिकरणिकी द्विधा, तत्र 'संजोयणाहिगरणिया चेव 'त्ति यत् पूर्व निवर्तितयोः खड्गतन्मुष्टयादिकयोरर्थयोः संयोजनं क्रियते सा संयोजनाऽधिकरणिकी, तथा 'णिवत्तणाहिगरणिया चेव'त्ति यच्चादितस्तयोनिवर्त्तनं सा निर्वर्तनाधिकरणिकीति ६ । पुनरन्यथा द्वे पाउसिया चेव 'त्ति प्रद्वेषो-मत्सरस्तेन निवृत्ता प्राद्वेषिकी, तथा परियावणिया चेव'त्ति परितापन-ताडनादिदुःखविशेषलक्षणं तेन निवृत्ता पारितापनिकी ७, आद्या द्विधा-'जीवपाउसिया चेव'त्ति जीवे प्रद्वेषाजीवप्राद्वेषिकी, तथा 'अजीवपाउसिया चेव 'त्ति अजीवे-पाषाणादौ प्रद्वेषादजीवप्राषिकीति ८, द्वितीयाऽपि द्विधा 'सहत्थपारियावणिया चेव'त्ति स्वहस्तेन स्वदेहस्य परदेहस्य वा परितापनं कुर्वतः स्वहस्तपारितापनिकी, तथाऽन्या 'परहत्य'त्ति परहस्तेन तथैव तत्कारयतः परहस्तपा
॥३८॥
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६०
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्ति ।
॥३९॥
रितापनिकीति ९॥ अन्यथा द्वे 'पाणाइवायकिरिया चेव'त्ति प्रतीता, तथा 'अपच्चकखाणकिरिया चेवत्ति अप्रत्याख्यानम्-अविरतिस्तनिमित्तः कर्मबन्धोऽप्रत्याख्यानक्रिया सा चाविरतानां भवतीति १०।।
आद्या द्वेधा 'सहत्थपाणाइवायकिरिया चेव'त्ति स्वहस्तेन स्वप्राणान् निर्वेदादिना परप्राणान् वा क्रोधादिना अतिपातयतः स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया, तथा 'परहत्य'त्ति परहस्तेनापि तथैव परहस्तप्राणातिपातक्रियेति ११ । द्वितीयापि द्विधा, 'जीवअपच्चकखाणकिरिया चेव'त्ति जीवविषये प्रत्याख्यानाभावेन यो बन्धादिापारः सा जीवाप्रत्याख्यानक्रिया, तथा 'अजीवअपच्चकखाणकिरिया चेव' त्ति यदजीवेषु मद्यादिष्वप्रत्याख्यानात कर्मबन्धनं सा अजीवाप्रत्याख्यानक्रियेति १२ । 'पुनरन्यथा द्वे 'आरंभियाचेव 'त्ति आरम्भणमारम्भः तत्र भवा आरम्भिकी, तथा 'परिग्गहिया चेव'त्ति पारिग्रहे भवा पारिग्रहिकी १३ । आद्या द्वेधा 'जीवआरंभिया चेवत्ति यजीवानारभमाणस्य-उपमृदनतः कर्मबन्धनं सा जीवारम्भिकी, तथा 'अजीवारंभिया चेव' त्ति यच्चाजीवान् जीवकडेवराणि पिष्टादिमयजीवाकृतींश्च वस्त्रादीन् वा आरभमाणस्य सा अजीवारम्भिकी १४ । एवं परिग्गहिया चेव'ति आरम्भिकीवद् द्विधेत्यर्थः, जीवाजीवपरिग्रहप्रभवत्वात्तस्या इति भावः १५ । पुनरन्यथा द्वे 'मायावत्तिया चेव'त्ति माया-शाठयं प्रत्ययो-निमित्तं यस्याः कर्मबन्धक्रियाया व्यापारस्य वा सा तथा 'मिच्छादसंणवत्तियां चेव'ति मिथ्यादर्शन-मिथ्यात्वं प्रत्ययो यस्याः सा तथेति १६। आद्या द्वेषा-'आय भाववंकणया चेव'त्ति आत्मभावस्याप्रशस्तस्य वङ्कनता-चक्रीकरण प्रशस्तत्वोपदर्शनता आत्मभाववङ्कनता, वङ्कनानां च बहुत्वविवक्षायां भावप्रत्ययो न विरुद्धः, सा च क्रियाव्यापारत्वात , तथा 'परभावकणया चेव'त्ति
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॥३९॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥४०॥
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परभावस्य वङ्कनता - वञ्चनता या कूटलेखकरणादिभिः सा परभाववङ्कनतेति यतो वृद्धव्याख्येयं तं तं भावमायर जेण परो वंचिज्जर कूडलेहकरणाईहिं" ति १७। तथा द्वितीयाऽपि द्वेधा - 'ऊणाइरित्तमिच्छा दंसणवत्तिया चेव'त्ति ऊनं स्वप्रमाणादीनमतिरिक्तं- ततोऽधिकमात्मादि वस्तु तद्विषयं मिथ्यादर्शनमूनातिरिक्त मिथ्यादर्शन तदेव प्रत्ययो यस्याः सा ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्ययेति, तथाहि - कोऽपि मिथ्यादृष्टिरात्मानं शरीरव्यापकमपि अङ्गुष्ठपर्वमात्र [ यवमात्रं ] श्यामाकतन्दुलमात्रं वेति हीनतया वेत्ति तथाऽन्यः पश्वधनुःशतिकं सर्वव्यापकं वेत्यधिकतयाऽभिमन्यते, तथा 'तव्वइरित्तमिच्छादंसणवत्तियां चैव'ति तस्माद् ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनाद् व्यतिरिक्तं मिथ्यादर्शनं - नास्त्येवात्मेत्यादिमतरूपं प्रत्ययो यस्याः सा तथेति १८ । पुनरन्यथा द्वे - 'दिट्टिया चेव' ति जता दृष्टिजा अथवा दृष्टं दर्शनं वस्तु वा निमित्ततया यस्यामस्ति सा दृष्टिका - दर्शनार्थ या गतिक्रिया, दर्शनाद् वा यत् कम्र्म्मोदेति सा दृष्टिजा दृष्टिका बा, तथा 'पुट्टिया चेव'त्ति पृष्टिः- पृच्छा ततो जाता पृष्टिजा प्रश्नजनितो व्यापारः, अथवा पृष्टं - प्रश्नः वस्तु वा तदस्ति कारणत्वेन यस्यां सा पृष्टिकेति, अथवा स्पृष्टिः-स्पर्शन ततो जाता स्पृष्टिजा, तथैव स्पृष्टिकाऽपीति १९ । आद्या द्वेधा 'जीवदिट्टिया चेव'त्ति या अश्वादिदर्शनार्थं गच्छतः, तथा 'अजीव दिट्टिया चेव'त्ति अजीवानां चित्रकर्म्मादीनां दर्शनार्थं गच्छतो या सा अजीवदृष्टिकेति २०। ' एवं पुडियाविति एवमिति जीवाजीवभेदेन द्विधैव तथाहि - जीवमजीवं वा रागद्वेषाभ्यां पृच्छतः स्पृशतो वा या सा जीवपृष्टिका जीवस्पृष्टिका वा अजीवपृष्टिका अजीवस्पृष्टिका वेति २१ । पुनरन्यथा द्वे – 'पाडुच्चिया चेव' त्ति बाह्यं वस्तु प्रतीत्य आश्रित्य भवा प्रातीत्यिकी, तथा 'सामंतोवणिवाइयां चेव'त्ति समन्तात् सर्वत उप
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सू० ६०
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श्रीस्थानाङ्ग
सु०६०
H
दीपिका वृत्तिः ।
॥४१॥
निपातो-जनमीलकः तस्मिन् भवा सामन्तोपनिपातिकी २२। आधा द्वधा जीवपाडच्चिया चेवत्ति जीवं |Atl प्रतीत्य यः कर्मबन्धः सा तथा, तथा 'अजीव०' अजीवं प्रतीत्य यो रागद्वेषोदभवः तज्जो वा बन्धः सा अजीवप्रातीत्यिकीति २३। द्वितीयापि द्विविधेत्यतिदिशन्नाह- 'एवं सामंतोवणिवाइयावित्ति तथाहि-कस्यापि पण्डो रूपवानस्ति, तं च जनो यथा यथा प्रलोकयति प्रशंसयति च तथा तथा तत्स्वामी हृष्यतीति जीवसामन्तोपनिपातिकी, तथा रथादौ तथैव हृष्यतोऽजीवसामन्तोपनिपातिकीति २४। अन्यथा वा द्वे 'साहत्थियां चेव'त्ति स्वहस्तेन निर्धत्ता स्वाहस्तिकी, तथा 'नेसत्थिया चेव'त्ति निसर्जन-निसृष्टं क्षेपणमित्यर्थः, नत्र भवा तदेव वा नैसृष्टिकी, निसृजतो यः कर्मबन्ध इत्यर्थः, निसर्ग एव वेति २५। तत्र आद्या द्वेधा-'जीवसाहत्थिया चेव' त्ति यत् स्वहस्तगृहीतेन जीवेन जीवं मारयति सा जीवस्वाहस्तिकी, तथा 'अजीवसाहत्थिया चेव'त्ति यच्च स्वहस्तगृहीतेनैवाजीवेन-खड्गादिना जी मारयति सा अजीवस्वाहस्तिकीति, अथवा स्वहस्तेन जीवं ताडयत | एका अजीवं ताडयतोऽन्येति २६। द्वितीयापि जीवाजीवभेदैवेत्यतिदिशन्नाह–'एवं नेसत्थिया चेवत्ति तथाहि |
राजादिसमादेशाद् यदुदकस्य यन्त्रादिभिनिसज्जनं सा जीवनैसृष्टिकीति, यत्तु काण्डादीनां धनुरादिभिः सा अजीवनसृष्टिकीति, अथवा गुर्बादौ जीव-शिष्यं पुत्रं वा निसृजतो-ददत एका, अजीवं पुनरनेषणीयं भक्तपानादिकं निसृजतस्त्यजतोऽन्या इति २७। पुनरन्यथा द्वे 'आणवणिया चेव'त्ति आज्ञापनस्य आदेशनस्येयमाज्ञापनमेब | वेत्याज्ञापनी सैवाऽऽज्ञापनिका तज्जः कर्मबन्धः, आदेशनमेव वेति, आनायनं वा आनायनी तथा 'येयारणिया चेव' त्ति विदारणं विचारणं वितारणं वा स्वार्थिकप्रत्ययोपादानाद् वैदारिणीत्यादि वाच्यमिति २८ । एते च द्वे अपि
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व-शिष्यं पुसा जीवनमृष्टिकोनाह एवं स्वहस्तेन जीत
॥४१॥
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श्रीस्थाना
सू.६०
सुत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥४२॥
द्वेधा-जीवाजीवभेदादिति, तथाहि-जीवमाज्ञापयत आनाययतो वा परेण जीवाज्ञापनी जीवानायनी वा, एवमेवाजीबविषया अजीवाज्ञापनी अजीवानायनी वेति २९। तथा 'वेयारणिय'त्ति जीवमजीवं वा विदारयति-स्फोटयतीति अथवा जीवमजीवं वा असमानभावेषु विक्रीणति सति यद्वैभाविको विचारयति परियच्छावेइ'त्ति भणितं होति, अथवा जीवं पुरुषं वितारयति-प्रतारयति चश्चयतीत्यर्थः, असद्गुणैरेतादृशः तादृशस्त्वमिति, पुरुषादिविप्रतारणबुद्धयेव वाऽजीव भणत्येतादृशमेतदिति यत्सा 'जीववेयारणिआऽजीववेयारणिया वत्ति ३०। एतत्सर्वमतिदेशेनाह-'जहेव नेसत्थियत्ति, अन्यथा वा द्वे 'अणाभोगवत्तिया चैव'त्ति अनाभोगः-अज्ञानं प्रत्ययो-निमित्तं यस्याः सा तथा, 'अणवखवत्तिया चेव'त्ति अनवकाङ्क्षा स्वशरीराधनपेक्षत्वं सैव प्रत्ययो यस्याः साऽनवकाङ्क्षाप्रत्ययेति ३१ । आद्या द्विधा-'अणाउत्तआइयणया चेव'त्ति अनायुक्तः-अनाभोगवाननुपयुक्त इत्यर्थः, तस्याऽऽदानता-वस्त्रादिविषये ग्रहणता अनायुक्तादानता, तथा 'अणाउत्तपमज्जणया चेव'त्ति अनायुक्तस्यैव पात्रादिविषया प्रमार्जनता अनायुक्तप्रमार्जनता, इह च 'ता' प्रत्ययः स्वार्थिकः प्राकृतत्वेन आदानादीनां भावविवक्षया वेति ३२। द्वितीयापि द्विविधा 'आयसरीरेत्यादि, तत्रात्मशरीरानवकाक्षाप्रत्यया स्वशरीरक्षतिकारिकर्माणि कुर्वतः, तथा परशरीरक्षतिकारि| कर्माणि कुर्वतो द्वितीयेति ३३। 'दो किरिये'त्यादि त्रीणि सूत्राणि कण्ठयानि, नवरं प्रेम-रागो मायालोभलक्षणः, द्वेषः क्रोधमानलक्षण इति ३४। यदत्र न व्याख्यातं तत्सुगमत्वादिति ॥ एताश्च क्रियाः प्रायो गर्हणीया इति गर्दामाह
दुविहा गरिहा पं० त०-मणसा बेगे गरहा । वयसा वेगे गरहा । अहवा गरहा दुविहा पं० त०-दोह वेगे
॥४२॥
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सु०६१
शीस्थाना
सुत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥४३॥
अद्ध गरह्इ, हस्सं वेगे अद्ध गरहा । (सू० ६१) 'दुविहा गरहे'त्यादि विधान--विधा द्वे विधे-भेदौ यस्याः सा द्विविधा, गर्हणं गर्हा-दुश्चरितं प्रति कुत्सा, सा च स्वपरविषयत्वेन द्विविधा, सापि मिथ्यादृष्टेरनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेश्च द्रव्यगर्हा, अप्रधानगर्हेत्यर्थः, द्रव्यशब्दस्याप्रधानार्थत्वाद्, उक्तं च-"अप्पाहन्ने वि इहं, कत्थइ दिह्रो हु दव्वसदो त्ति । अंगारमद्दओ जह, दव्यायरिओ सयाऽभन्यो ॥१॥ ति" सम्यग्दृष्टेस्तूपयुक्तस्य भावगर्हा चतुर्दा, गर्हणीयभेदाद् बहुप्रकारावा, सा चेह करणापेक्षया द्विविधोक्ता, तथा चाह--'मण' मनसा-चेतसा वाशब्दो विकल्पार्थाऽवधारणार्थों वा, ततो मनसैव न वाचेत्यर्थः। कायोत्सर्गस्थो दुर्मुखसुमुखाभिधानपुरुषद्वयनिन्दिताभिष्टुतस्तद्वचनोपलब्धसामन्तपरिभूतस्वतनयराजवात्तों मनसा समारब्धपुत्रपरिभवकारिसामन्तसङ्ग्रामो वैकल्पिकप्रहरणक्षये स्वशीर्षकग्रहणार्थव्यापारितहस्तसंसृष्टलुश्चितमस्तकः ततः समुपजातपश्चात्तापाऽनलज्वालाकलापदन्दह्यमानसकलकर्मेन्धनो राजर्षिप्रसन्नचन्द्र इव एकः कोऽपि साध्वादिर्गहते-जुगुप्सते गयमिति गम्यते, तथा वचसा-वाचा अथवा वचसैव न मनसा भावतो दुश्चरिताविरक्तत्वाज्जनरजनार्थ गर्हाप्रवृत्ताङ्गारमईकादिप्रायसाधुवत् एकोऽन्यो गर्हत इति, अथवा 'मणसाऽवेगे'त्ति इह अपिः, स च सम्मावने, तेन सम्भाव्यते अयमर्थ:-अपि मनसैको गर्हते अन्यो वचसेति, अथवा मनसाऽपि न केवलं वचसा एको गई ते, तथा वचसाऽपि न केवलं मनसा एक इति स एव गर्हते, उभयथाऽप्येक एव गर्हत इति भावः, अन्यथा गर्हाद्वैविध्यमाह-'अहवे 'त्यादि, अथवेति पूर्वोक्तद्वैविध्यप्रकारापेक्षो, द्विविधा गर्दा प्रज्ञप्तेति प्रागिव, अपिः सम्भावने, तेन अपि दीर्घा-बृहती अद्धां-कालं यावदेकः कोऽपि गईते गईणीयमाजन्मापीत्यर्थः, भन्यथा
॥४॥
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श्रीस्थानाङ्ग सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
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वा दीर्घत्वं विवक्षया भावनीयम्, आपेक्षिकत्वात् दीर्घ ह्रस्वयोरिवेति एवमपि हस्वाम् - अल्पां यावदेकोऽन्य इति, अथवा दीर्घामेव यावत् ह्रस्वामेव यावदिति व्याख्येयम पेरवधारणार्थत्वादिति, एक एव वा द्विधा कालभेदेन गते भावभेदादिति, अथवा दीर्घ ह्रस्वं वा कालमेव गर्हत इति ॥ अतीते गर्ने कर्मणि गर्दा भवति, भविष्यति तु प्रत्याख्यानम्, उक्तं च- “अईयं निंदामि पड़प्पन्नं संवरेमि अणागयं पच्चक्रखामीति प्रत्याख्यानमाह-दुविहे पञ्चकखाणे पं० तं - मणसा वेगे पञ्चखाइ, वयसा वेगे पञ्चकुखाइ, अहवा पञ्चकखाणे दुविहे पं० त० दी वेगे अर्द्ध पच्चकुखाइ, इस्स वेगे अद्ध पच्चकुखाइ (सू० ६२ ) दोहि ठाणेहिं अणगारे संपन्ने अणादीय अणवदग्गं दीहमद्ध चाउरत संसारक तार वीतिवपज्जा, तजहा-विजाए चेव चरणेण चेव (सू० ६३)
'दुविहे 'त्यादि, प्रमादप्रातिकूल्येन मर्यादया ख्यानं कथनं प्रत्याख्यानं, विधिनिषेधविषया प्रतिज्ञेत्यर्थः, तच्च द्रव्यतो मिथ्यादृष्टेः सम्यग्रदृष्टेर्वाऽनुपयुक्तस्य कृतचतुर्मासमांसप्रत्याख्यानायाः पारण कदिनमांसदानप्रवृत्ताया राजदुहितुरिवेति भावप्रत्याख्यानमुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेरिति, तच्च देशसर्वमूलगुणोत्तरगुणभेदादनेकविधमपि करणभेदाद् द्विविधम् आह च - मनसा वैकः प्रत्याख्याति - वधादिकं निवृत्तिविषयीकरोति, शेषं प्रागिव । प्रकारान्तरेणापि तदाह - ' अहवे 'त्यादि, सुगमम् । ज्ञानपूर्वकं प्रत्याख्यानादि मोक्षफलमत आह- 'दोहि 'ति, द्वाभ्यां स्थानाभ्यां गुणाभ्यां सम्पन्नो - युक्तो नास्यागारं - गेहमस्तीत्यनगारः - साधुः नास्त्यादिरस्येत्यनादिकं तत् अवदग्रंपर्यन्तस्तन्नास्ति यस्य सामान्यजीवापेक्षया तदनवदग्रं तत् दीर्घा अद्धा कालो यस्य तद् दीर्घाद्धं तत् मकार आममिकः दीर्घो वा अध्वा मार्गों यस्मिंस्तदीर्घाध्वं तच्चतुरन्तं - चतुविभागं
नरकादिगतिविभागेन, दीर्घत्वं प्राकृत
12000TOHOOTOXE
सू०६२-६३
॥४४॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू.६३-६४
सुत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥४५॥
त्वादिति, संसारकान्तारं-भवारण्यं व्यतिव्रजेद-अतिक्रामेत् , तद्यथा-विद्यया चैव-ज्ञानेन चैव-चरणेन चैवचारित्रेण चैवेति, इह च संसारकान्तारव्यतिव्रजनं प्रति विद्याचरणयोयोर्गपधेनैव कारणत्वमवगन्तव्यम्, एकैकशो विद्याक्रिययोरैहिकार्थेष्वप्यकारणत्वात, नन्वनयोः कारणतया अविशेषाभिधानेऽपि प्रधानं ज्ञानमेव न चरणम् , अथवा ज्ञानमेवैकं कारणं न तु क्रिया, यतो ज्ञानफलमेवासौ, किञ्च--यथा क्रिया ज्ञानस्य फलं तथा शेषमपि यत् क्रियानन्तरमवाप्यते बोथकालेऽपि यज्ज्ञेयपरिच्छेदात्मकं यच्च रागादिविनिग्रहमयमेषामविशेषेण ज्ञानं कारणं, यथा मृत्तिका घटस्य कारणं भवन्तीत्यादिविस्तरो वृत्तौ । विद्याचरणे च कथमात्मा न लभत इत्याह--'दोहि'- 11t मित्यादिसूत्राण्येकादश,
दो ठाणाई अपरियाणित्ता आया णो केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज सवणयाए त-आर मे चेव परिग्गहे चेव १, दो ठाणाई अपरियाइत्ता आया णो केवल वोधि बुज्झेजा त-आर मे चेव परिग्गहे चेव २, दो ठाणाई अपरियाइत्ता आया नो केवल मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वइजा तं- आर मे चेव परिग्गहे चेव ३, एवं णो केवल व भचेरवासमावसेजा ४, णो केवलेण संजमेण संजमेजा ५, णो केवलेण संवरेण स घरेजा ६, णो केवलमाभिणिबोहियणाण उप्पाडेजा ७, पवं सुयनाणं ८, ओहिनाण ९, मणपजवनाण १०, केबलनाण ११ । (सू० ६४) | 'द्वे स्थाने द्वे वस्तुनी, 'अपरियाणित्त'त्ति अपरिज्ञाय ज्ञपरिक्षया यथैतावारम्भपरिग्रहावनाय तथा अलं ममाऽऽभ्यामिति परिहाराभिमुख्यद्वारेण प्रत्याख्यानपरिज्ञया अप्रत्याख्याय च ब्रह्मदत्तवत्तयोरनिविण्ण इत्यर्थः, आत्मा 'नो' नैव केवलिप्रज्ञप्तं-जिनोक्तं धम्म-श्रुतधर्म लभेत श्रवणतया-श्रवणभावेन श्रोतुमित्यर्थः, तद्यथाआरम्भाः -कृष्यादिद्वारेण पृथिव्याधुपमर्दास्तान् परिग्रहा-धर्मसाधनव्यतिरेकेण धनधान्यादयस्तान् , इह
॥४५॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
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चैकवचनप्रक्रमेऽपि व्यक्त्यपेक्ष बहुवचनम्, अवधारणसमुच्चयौ स्वबुद्धया ज्ञेयाविति १, केवलां शुद्धां बोधिदर्शनं सम्यक्त्वमित्यर्थं बुध्येत - अनुभवेत्, अथवा केवलया वोध्येति विभक्तिपरिणामात् बोध्यं जीवादीति गम्यते, बुध्येत - श्रीति २, मुण्डो द्रव्यतः शिरोलोचेन भावतः कषायाद्यपनयनेन भूत्वा - संपद्य अगाराद्-गृहाद् निष्क्रम्येति गम्यते, केवलामित्यस्येह सम्बन्धात् केवलां- परिपूर्ण शुद्धां वा अनगारितां प्रवज्यां प्रव्रजेदिति ३, 'एव 'मिति यथा प्राक तथोत्तरवाक्येष्वपि ' दो ठाणाई' इत्यादिवाक्यं पठनीयमित्यर्थः ब्रह्मचर्येण-अनविरमणेन वासो - रात्रौ स्वापः तत्रैव वा वासो— निवासो ब्रह्मचर्यवासः तमावसेत् कुर्यादिति ४, संयमेनपृथिव्यादिरक्षणलक्षणेन संयमयेदात्मानमिति, संवरेण-आश्रवनिरोधलक्षणेन संवृणुयादाश्रवद्वाराणीति गम्यते ५, 'केवलं ' परिपूर्ण सर्वस्वविषयग्राहकम् 'आभिणित्रोहियनाणं' ति अर्थाभिमुखोऽविपर्ययरूपत्वान्नियतोऽसंशयस्वभावत्वाद् बोधो वेदनमभिनिबोधः स एवाभिनिवोधिकं तच्च तज्ज्ञानं चेत्याभिनिवोधिकज्ञानम् - इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तमोघः सर्व्वद्रव्यासर्व्वपर्यायविषयं 'उप्पाडेज्ज चि उत्पादयेदिति ६, तथा 'एव 'मित्यनेनोत्तरपदेषु 'नोकेवलं उप्पाडेज्ज 'त्ति द्रष्टव्यम् ' सुधनाणं 'ति श्रूयते तदिति श्रुतं शब्द एव स च भावश्रुतकारणत्वात् ज्ञानं श्रुतज्ञानं श्रुतग्रन्थानुसारि ओघतः सर्वद्रव्यासर्वपर्यायविषयमक्षरश्रुतादिभेदमिति ७, तथा ' ओहिनांणं 'ि अवधीयतेऽनेनास्मादस्मिन् वेत्यवधिः, अवधीयते इत्यधोऽधो विस्तृतं परिच्छिद्यते मर्यादया वेत्यवधिः - अवधिज्ञानावरणक्षयोपशम एव तदुपयोग हेतुत्वादिति, अवधानं वा अवधिर्विषयपरिच्छेदनमिति, अवधिश्वासौ ज्ञानं चेत्यवधि - ज्ञानम् - इन्द्रियमनोनिरपेक्षमात्मनो रूपिद्रव्यसाक्षात्करणमिति ८, तथा 'मणपज्जवनाणं 'ति मनसि मनसो वा
सु० ६४
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श्रीस्थानाङ्ग सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
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पर्यवः - परिच्छेदः स एव ज्ञानमथवा मनसः पर्यवाः पर्यायाः पर्यया वा विशेषावस्था मनः पर्यवादयस्तेषां तेषु वा ज्ञानं मनः पर्यवज्ञानमेवमितरत्रापि, समयक्षेत्रगत संज्ञिमन्यमानमनोद्रव्यसाक्षात्कारीति १०, केवलनाणं 'ति केवलम् - असहायं मत्यादिनिरपेक्षत्वादकलङ्कं वा आवरणमलाभावात् सकलं वा तत् प्रथमतयैवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेरसाधारणं वा अनन्यसदृशत्वादनन्तं वा ज्ञेयानन्तत्वात् तच्च तज्ज्ञानं च केवलज्ञानमिति ११ ॥ कथं पुनर्द्धर्मादीनि विद्याचरणस्वरूपाणि प्राप्नोतीत्याह - 'दो ठाणाइ' मित्याद्यकादशसूत्री
दो ठाणाई परियाइत्ता आया केवलिपन्नत्त धम्मं लभेज्ज सवणयार त०-आर मे चैव परिग्गहे चेव, एवं जाव केवलनाणं उप्पाडेज्जा (सू० ६५) । दोहि ठाणेहिं आया केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज सवणयाप तं०- सोच्च च्चेव अभिसमेच्च च्चेव जाव केवलनाणं उप्पाडेजा (सु० ६६) ।
धर्मादिलाभ एव पुनः कारणान्तरद्वयमाह 'दो ठाणे 'त्यादि एकादशसूत्री सुगमा 'दोही 'त्यादि सुगमं, केवलं श्रवणतया श्रवणभावेन, 'सोच्च च्चेव' त्ति ह्रस्वत्वादि प्राकृतत्वादेव, श्रुत्वा - आकर्ण्य तस्यैवोपादेयतामिति गम्यते, 'अभिसमेत्य'-- समधिगम्य तामेवावबुद्धयेत्यर्थः, उक्तं च- "सद्धर्मश्रवणादेव, नरो विगतकल्मषः । ज्ञाततत्त्वो महासत्त्वः, परं संवेगमागतः ॥ १ ॥ धर्मोपादेयतां ज्ञात्वा सञ्जातेच्छोऽत्र भावतः । दृढं स्वशक्तिमालोच्य, ग्रहणे संप्रवर्त्तते ॥२॥” इति 'एवं बोहि बुज्झेज्जे 'त्यादि यावत् 'केवलनाणं उप्पडेज्जन्ति' केवलज्ञानं च कालविशेषे भवतीति तमाह
दो समाओ पन्नत्ताओ त ० -ओसप्पिणी समा चेव उस्सप्पिणी सभा चेव (सू० ६७) दुविहे उम्मार पं० त०अक्खावेसे चेव मोहणिज्जस्स चैव कम्मस्स उदपण, तत्थ णं जे से जक्खावेसे से णं सुहवेयतराप चैव सुहविमोय
सु०६५६६-६७
॥४७॥
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श्रीस्थाना सूत्र
दीपिका
वृत्तिः ।
॥४८॥
तराए चेव, तत्थ ण जे से मोहणिज्जस्स कम्मरस उदपण से ण दुहवेयतराए चेव दुहविमोयतराए चेव । (सू०६८) दो दंडा पंत-अट्ठाद डे चेव अणट्ठाद डे चेव, नेरइयाण दो दंडा पं० त० अट्ठाद डे य अणद्वादडे य, एवं चउवीसा दंडओ जाय वेमाणियाण । (सू०६९) समा-कालविशेषः, शेषं सुगमम् ॥ केवलज्ञानं मोहनीयोन्मादक्षय एव भवत्यतः सामान्येनोन्मादं निरूपयन्नाइ'दविहे उम्माए' इत्यादि, उन्मादो ग्रहो बुद्धिविप्लव इत्यर्थः, यक्षावेशो---देवताधिष्ठितत्वं ततो यः स यक्षावेश एवेत्येको, मोहनीयस्य-दर्शनमोहनीयादेः कर्मण उदयेन यः सोऽन्य इति, तत्रेति तयोर्मध्ये योऽसौ यक्षावेशेन भवति स मुखवेद्यतरक एव---मोहननितग्रहापेक्षयाऽकृच्छ्रानुभवनीयतर एव, अनैकान्तिकानात्यन्तिकभ्रमरूपत्वादस्येति, अतिशयेन सुखं विमोच्यते--त्याज्यते यः स सुखविमोच्यतरकश्चैव, मन्त्रमूलादिमात्रसाध्यत्वादस्येति, अथवा अत्यन्तं सुखापेयः--सुखापनेयः सुखापनेयतरः, तथा अत्यन्तं सुखेनैव विमुञ्चति यो देहिनं स | सुखविमोचतरक इति, मोहजस्तु तद्विपरीतः, ऐकान्तिकात्यन्तिकभ्रमस्वभावतयाऽत्यन्तानुचितप्रवृत्तिहेतुत्वेनानन्तभवकारणत्वात् तथाऽऽन्तरकारणजनितत्वेन मन्त्राधसाध्यत्वात् कर्मक्षयोपशमादिनैव साध्यत्वादिति, अत एव उक्तं-'दुहवेयतराए चेव दुहविमोयतराए चेव' त्ति ॥ उन्मादात् प्राणी प्राणातिपातादिरूपे दण्डे प्रवर्तते दण्डभाजनं वा भवतीति तं (दण्डं) निरूपयन्नाह-दो दंडे 'त्यादि, दण्ड:-प्राणातिपातादिः, स चार्थाय-इन्द्रियादिप्रयोजनाय यः सोऽर्थदण्डः, निष्प्रयोजनस्त्वनर्थदण्ड इति । उक्तरूपमेव दण्डं सर्वजीवेषु चतुर्विंशतिदण्डकेन निरूपयन्नाह-'णेरइयाण 'मित्यादि, 'एव 'मिति नारकवदर्थदण्डानर्थदण्डाभिलापेन चतुर्विशतिदण्डको ज्ञेयो, नवरंनारकस्य स्वशरीररक्षार्थ परस्योपहननमर्थदण्डः प्रद्वेषमात्रादनर्थदण्डः, पृथिव्यादीनां त्वनाभोगेनाप्याहारग्रहणे जीव
॥४८॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः
॥४९॥
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भावादर्थदण्डोऽन्यथा त्वनर्थदण्डः अथवोभयमपि भवान्तरार्थदण्डादिपरिणतेरिति । सम्यग्दर्शनादित्रयवतामेव च दण्डो नास्तीति त्रितयनिरूपणेच्छुर्दर्शनं समान्येन तावन्निरूपयति - तत्र
दुविहे दस पन्नते ० -- सम्मद्दसणे चैव मिच्छाद सणे चेव १, सम्म सणे दुबिहे पं०त०- णिसग्गसम्मद्दसणे अभिगमसम्म सणे चैव २, णिसग्गसम्म सणे दुविहे पं० त०-- पडिवाई चेव अपडिवाई चेव ३, अभिगमसम्म - इस दुविहे पं० त०- पडिवाई चेव अपडिवाई चेव ४, मिच्छादसणे दुविहे पं० त० - अभिग्गहिय मिच्छादसणे चैव अभिग्गहियमिच्छादसणे चेव ५, अभिग्गहियमिच्छादसणे दुविहे पं० त०-- सपज्जवसिते चेव अपज्जवलिते चेव ६, पवमर्णाभिहितमिच्छाद सणेऽधि । (सू० ७०)
'दुविहे दसणे' इत्यादिसूत्राणि सप्त सुगमान्येव, नवरं दृष्टिर्देशनम् - तवेषु रुचिः, तच्च सम्यग् ---अविपरीतं जिनोक्तानुसार, तथा मिथ्या -- विपरीतमिति । 'सम्मदंसणे' इत्यादि, निसर्गः स्वभावोऽनुपदेश इत्यनर्थान्तरम्, अभिगमोऽधिगम गुरूपदेशादिरिति, ताभ्यां यत्तत् तथा, क्रमेण मरुदेवी भरतवदिति, 'निसर्गे' त्यादि, प्रतिपतनशीलं प्रतिपाति सम्यग्दर्शनमौपशमिकं क्षायोपशमिकं च, अप्रतिपाति क्षायिकं तत्रैषां क्रमेण लक्षणं---इहोपशमिकों श्रेणिमनुप्रविष्टस्यानन्तानुबन्धिनां दर्शनमोहनीयत्रयस्य चोपशमादौपशमिकं भवति । यो वाऽनादिमिध्यादृष्टिरकृत - सम्यक्त्वमिथ्यात्वमिश्राभिधानभूतशुद्धाशुद्धोभयरूपमिथ्यात्वपुद्गलत्रिपुञ्जीक एवाक्षीणमिथ्यादर्शनोऽक्षपक इत्यर्थः, सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते तस्योपशमिकं भवतीति, कथम् ?---इह यदस्य मिथ्यादर्शनमोहनीयमुदीणं तदनुभवेनैवोपक्षीणमन्यच्च मन्दपरिणामतया नोदितमतस्तदन्तर्मुहूतमात्रमुपशान्तमास्ते, विष्कम्भितोदयमित्यर्थः, तावन्तं कालमस्यौष
सू० ७०
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श्रीस्थाना
सूत्रदीपिका
वृत्तिः ।
॥५०॥
शमिकसम्यक्त्वलाभ इति, आह च--"उवसामगसेढिगयस्स, होइ उवसामिअं तु सम्मत्तं । जो वा अकय-तिपुंजो, अखवियमिच्छो लहइ सम्मं ॥१॥ खीणमि उदिण्णमी, अणुदिज्जते य सेसमिच्छत्ते । अंतोमुहुत्तकालं, उवसमसम्मं लहइ जीवो ॥३॥"त्ति, अन्तर्मुहर्त्तमात्रकालत्वादेवास्य प्रतिपातित्वं, यच्चानन्तानुवन्ध्युदये औपशमिकसम्यकत्वात् प्रतिपततः सास्वादनमुच्यते तदौपशमिकमेव, तदपि च प्रतिपात्येव, जघन्यतः समयमात्रत्वादुत्कृष्टतस्तु षडावलिकामानत्वादस्येति, तथा इह यदस्य मिथ्यादर्शनदलिकमुदीर्ण तदुपक्षीणं यच्चानुदीर्ण तदुपशान्तम्, उपशान्तं नाम विष्कम्भितोदयमपनीतमिथ्यास्वभावं च, तदिह क्षयोपशमस्वभावमनुभूयमानं क्षायोपशमिकमित्युच्यते, नन्वौपशमिकेऽपि क्षयश्चोपशमश्च तथेहापीति कोऽनयोविशेषः ? उच्यते, अयमेव हि विशेषः-यदिह वेद्यते दलिक | न तत्र, इह हि क्षायोपशमिके पूर्वशमितमनुसमयमुदेति वेद्यते क्षीयते च, औपशमिके तूदयविष्कम्भणमात्रमेव, आह च-"मिच्छत्तं जमुदिण्णं, तं खीणं अणुदियं च उवसंतं । मीसीभावपरिणयं, वेइज्जतं खओवसमं ॥१॥"ति, एतदपि जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तस्थितिकत्वादुत्कर्पतः षट्पष्टिसागरोपमस्थितिकत्वाच्च प्रतिपातीति, यदपि च क्षपकस्य सम्यग्दर्शनदलिकचरमपुद्गलानुभवनरूपं वेदकमित्युच्यते तदपि क्षायोपशमिकभेदत्वात् प्रतिपातित्वात् प्रतिपात्येवेति, तथा मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वमोहनीयक्षयात् क्षायिकमिति, आह च---"खीणे देसणमोहे, तिविहंमि वि भवनियाणभूयंमि । निप्पच्चवायमउलं, सम्मत्तं खाइयं होइ ॥१॥" इदं तु क्षायिकत्वादेवाप्रतिपाति, अत एव सिद्धत्वेऽप्यनुवर्तत इति । 'मिच्छादसणे 'त्यादि, अभिग्रहः-कुमतपरिग्रहः स यत्रास्ति तदाभिग्रहिक तद्विपरीतम्-अनभिग्रहिकमिति । 'अभिग्गहिए'इत्यादि, अभिग्रहिकमिथ्यादर्शनं सपर्यवसितं---सपर्यवसानं सम्यक्त्व
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श्रीस्थानाङ्ग
दीपिका
वृत्तिः ।
प्राप्तौ, अपर्यवसितमभव्यस्य सम्यकत्वाप्राप्तः, तच्च मिथ्यात्वमात्रमप्यतीतकालनयानुवृत्त्याऽऽभिग्रहिकमिति व्यपदिश्यते, अनभिग्रहिकं भव्यस्य सपर्यवसितमितरस्यापर्यवसितमिति, अत एवाह--'एवं अगभी'त्यादि । दर्शनमभिहितमथ ज्ञानमभिधीयते, तत्र 'दुविहे नाणे' इत्यादीनि 'आवस्तगवइरित्ते दुविहे' इत्यादिसूत्रावसानानि त्रयोविंशतिः सूत्राणि।
दुविहे गाणे पंत-पञ्चक्खे चेव परोक्खे चेव १, पच्चक्खे नाणे दुविहे पं०२०-केवलनाणे चेव नोकेवलनाणे चेव २, केवलनाणे दुबिहे पंत-भवत्थकेवलनाणे चेव सिद्धकेवलनाणे चेव ३, भवत्थकेवलनाणे दुविहे पंत०-सजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव, अजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव ४, सजोगिभवत्थकेवलणाणे दुविहे पंत. पढमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव अपढमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव५, अहवा चरिमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव अचरिमसमयसजोगिभवत्थकेवलनाणे चेव ६, एवं अजोगिभवत्थकेवलनाणेऽवि ७-८, सिद्धकेवलणाणे दुविहे पं००-अणंतरसिद्धकेवल णाणे चेव पर परसिद्धकेवलणाणे चेव ९, अणतरसिद्धकेवलनाणे दुविहे पं०२०-एक्काण तरसिद्धकेवलणाणे चेव अणेकाण तरसिद्ध केवलणाणे चेव १०, परंपरसिद्धकेवलणाणे दुविहे पंत--पक्कपर परसिद्धकेवलणाणे चेव अणेकपरपरसिद्धकेवलणाणे चेव ११, णोकेवलणाणे दुविहे पं० त०-ओहिणाणे चेव मणपज्जवणाणे चेव १२, ओहिणाणे दुविहे पं० त० भवपच्चइप चेव खओवसमिए चेव १३, दोण्ह भवपच्चइए पन्नत्ते त०-देवाण चेव नेरइयाण चेव १४, दोण्ड खओवसमिए ६० त०-मणुस्साण चेव पविदियतिरिक्ख जोणियाण चेव १५, मणपजवणाणे दुविहे पंतउज्जुमति चेव विउलमति चेत्र १६, परोक्खे णाणे दुविहे पन्नते, त-आभिणियोहियणाणे चेव सुयनाणे चेव १७, आभिणिबोहियणाणे दुविहे ५० त०-सुयनिस्सिप चेव असुनिस्सिए चेव १८, सुयनिस्सिप दुविहे ५० त०-अत्थो
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सू ७१
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥५२॥
गहे चेव वजणोग्गहे चेव १९, असुयनिस्सितेऽवि एमेव २०, सुयनाणे दुविहे पंत-अंगपविटूठे चेव अंगबाहिरे चेव २१, अंगबाहिरे दुविहे पं० त०-आवस्सए चेव आवस्सयवइरित्ते चेव २२, आवस्सयवतिरित्ते दुविहे ५० त०. कालिए चेव उकालिए चेव २३ ॥ (सू०७१) ___ नवरं 'ज्ञान' विशेषावबोधः, अनाति-भुङ्क्ते अश्नुते वा-व्याप्नोति ज्ञानेनार्थानित्यक्षः-आत्मा तं प्रति यद वर्तते इन्द्रियमनोनिरपेक्षत्वेन तत् प्रत्यक्षम्-अव्यवहितत्वेनार्थसाक्षात्करणदक्षमिति, आह च-"अक्खो जीवो अत्थव्यावणभोयणगुणण्णिओ जेण । तं पइ वट्टइ नाणं, जे पच्चक्खं तमिह तिविहं ॥१॥" परेभ्यः-अक्षापेक्षया पुदगलमयत्वेन द्रव्येन्द्रियमनोभ्योऽक्षस्य-जीवस्य यत्तत्परोक्षं निरुक्तिवशादिति, आह च-"अक्खस्स पोग्ग स्कया, जं दबिंदियमणा परा तेणं । तेहिंतो जं नाणं, परोक्खमिह तमणुमाणं व ॥१॥"त्ति, अथवा परैरुक्षा-सम्बन्धनं जन्यजनकभावलक्षणमस्येति परोक्षम्-इन्द्रियमनोव्यवधानेनात्मनोऽर्थप्रत्यायव.मसाक्षात्कारीत्यर्थः । 'पच्चक्खे'त्यादि, केवलम्-एकं ज्ञानं केवलज्ञानं तदन्यन्नोकेवलज्ञानम्-अवधिमनःपर्यायलक्षणमिति । 'केवले'त्यादि, 'भवत्थकेवल. नाणे चेव'त्ति भवस्थस्य केवलज्ञानं यत्तत्तथा, एवमितरदपि, "भवत्थे'त्यादि, सह योगैः-कायव्यापारादिभियः स सयोगी इन्समासान्तत्वात् स चासौ भवस्थश्च तस्य केवलज्ञानमिति विग्रहः, न सन्ति योगा यस्य स न योगीति वा योऽसावयोगी-शैलेशीकरणव्यवस्थितः, शेषं तथैव, 'सयोगी'त्यादि, प्रथमः समयः सयोगित्वे यस्य स तथा, एवमप्रथमो-द्वयादिसमयो यस्य स तथा, शेषं तथैव, 'एव'मिति सयोगिसूत्रवत् प्रथमाप्रथमचरमाचरमविशेषणयुक्तमयोगिसूत्रमपि वाच्यमिति, 'सिद्धे'त्यादि, अनन्तरसिद्धो यः सम्प्रति समये सिद्धः, स चैकोऽनेको वा, तथा
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सू०७१
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥५३॥
परम्परसिद्धो यस्य द्वयादयः समयाः सिद्धस्य सोऽप्येकोऽनेको वेति, तेषां यत् केवलज्ञानं तत्तथा व्यपदिश्यत इति । 'ओहिनाणे'इत्यादि, 'भवपच्चइए'त्ति क्षयोपशमनिमित्तत्वेऽप्यस्य क्षयोपशमस्यापि भवप्रत्ययत्वेन तत्प्राधान्येन भव एव प्रत्ययो यस्य तद् भवप्रत्ययमिति व्यपदिश्यत इति, इदमेव भाष्यकारेण साक्षेपपरिहारमुक्तं, तथा तदावरणस्य क्षयोपशमे भबं क्षायोपमिकमिति । 'दोण्हं भवपच्चइए'त्यादि सुगमम् । 'मणपज्जवे'त्यादि 'उज्जमह'त्ति ऋज्वी-सामान्यग्राहिणी मतिः ऋजुमतिः-घटोऽनेन चिन्तित इत्यध्यवसायनिबन्धनं मनोद्रव्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः, विपुला-विशेषग्राहिणी मतिविपुलमतिः-घटोऽनेन चिन्तितः स च सौवर्णः पाटलिपुत्रकोऽद्यतनो महानित्यायथ्यवसायहेतुभूता मनोद्रव्यविज्ञप्तिरिति, 'आभिणियोहिए' इत्यादि, श्रुतं कर्मतापन्नं निश्रितम्आश्रितं श्रुतं वा निश्रितमनेनेति श्रुतनिश्रितं, यत् पूर्वमेव श्रुतकृतोपकारस्येदानीं पुनस्तदनपेक्षमेवानुप्रवर्तते तदवग्रहादिलक्षणं श्रुतनिश्रितमिति, यत् पुनः पूर्व तदपरिकर्मितमतेः क्षयोपशमपटीयस्त्वादौत्पत्तिक्यादिलक्षणमुपजायतेऽन्यद् वा श्रोत्रादिप्रभयं तदश्रुतनिश्रितमिति, 'सुए'त्यादि, 'अत्थोग्गहे'त्ति अर्यते-अधिगम्यतेऽर्थ्यते वा अन्विष्यत इत्यर्थः, तस्य सामान्यरूपस्य अशेषविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यस्य रूपादेरवग्रहणं-प्रथमपरिच्छेदनमर्थावग्रह इति, निर्विकल्पकं ज्ञानं दर्शनमिति यदुच्यत इत्यर्थः, स च नैश्चयिको यः स सामयिको यस्तु व्यावहारिकः शब्दोऽयमित्याद्युल्लेखवान् स आन्तमौहर्तिक इति, अयं चेन्द्रियमनःसम्बन्धात् पोढा इति, तथा व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनं-तचोपकरणेन्द्रियं शब्दादित्वपरिणतद्रव्यसङ्घातो वा, ततश्च व्यञ्जनेन-उपकरणेन्द्रियेण शब्दादित्वपरिणतद्रव्याणां व्यञ्जनानामवग्रहो व्यञ्जनावग्रह इति, 'सुयणाणे'त्यादि, प्रवचनपुरुषस्याङ्गानीवाङ्गानि तेषु प्रविष्टं
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श्रीस्थानाङ्ग सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
।। ५४ ।।
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तदभ्यन्तरं तत्स्वरूपमित्यर्थः तच्च गणधर कृतं 'उपपन्ने इ वे'त्यादिमातृकापदत्रयप्रभवं वा ध्रुवश्रुतं वा आचारादि, यत् पुनः स्थविरकृतं मातृकापदत्रयव्यतिरिक्तव्याकरण निबद्धमध्रुवश्रुतं वोत्तराध्ययनादि तदङ्गबाह्यमिति, 'अंगबाही'त्यादि, अवश्यं कर्त्तव्यमित्यावश्यकं - सामायिकादि पड्विधम् आह च - "समणेण सावरण य, अवस्सका यव्वयं हवइ जहा । अंतो अहोणिसस्स य, तम्हा आवस्सयं नाम ||१||" आवश्यकाद् व्यतिरिक्तं ततो यदन्यदिति । 'आवस्वतिरित्त' इत्यादि, यदिह दिवस निशाप्रथमपश्चिमपौरुषीद्वय एव पठ्यते तत् कालेन निर्वृत्तं कालिकम्उत्तराध्ययनादि, यत्पुनः कालवेलावर्ज पठ्यते तदूर्ध्वं कालिकादित्युत्कालिकं - दशवैकालिकादीति । उक्तं ज्ञानं चारित्रं प्रस्तावयति —
दुविहे धम्मे पं० त० - सुयधम्मे चेव चरित्तधम्मे चेव, सुयधम्मे दुविहे पं० त०- सुत्तसुयधम्मे चैव अत्थसुय धम्मे चैव चरितम् दुविहे पं० त० - अगारचरित्तधम्मे चेव अणगारचरितधम्मे चेव, दुविहे सजमे पं० त०- सरागसंजमे चैव वीतरागसं जमे चेव, सरागस जमे दुविहे पं० त० - सुहमसं परायसरागस जमे चेव बादरसं परायसरागसंजमे चेव, हुम परायसरागस जमें दुविहे पन्नत्ते, त०- पढमसमय सुहुमस परायसरागस जमे चेत्र, अपढमसमय सु० अथवा चरमसमयसु अचरिमसमयसु०, अहवा सुहुमस पराय सरागस जमे दुविहे पं० त०-संकिलेसमाणए चेव विसु ज्झमाण चेव, बादरसं परायसरागस जमे दुविहे पं० तं ० पढमसमय बादर• अपढमसमयबादरसं०, अहवा चरिमसमय ० अचरिसमय०, अहवा वायरस परायसरागस जमे दुबिहे पं० त०-पडिवाति चेव अपडिवाति चेव, वोयरागस जमे दुवि पं० तं ०-उवस तकसायवीयरागलं जमे चेत्र खीणक सायवीयरागस जमे चेव, उवस तकसायवीयरागसंजमे दुविहे, पं०त०
सू०७२
॥५४॥
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Pre
सू०७२
श्रीस्थानाङ्ग
प्सूत्र दोषिका वृत्तिः ।
॥ ५५॥
पढमसमय उवसंतकसायवीतरागस जमे चेव अपढमसमयउव, अहवा चरिमसमय अचरिमसमय०, खीणकसायवीतराग संजमे दुविहे पं० त०-छउमत्थखीणकसायवीयरागसंजमे चेव केवलिखोणकसायवीयरागसंजमें चेव, छउमत्थस्त्रीणकसाय. वीयरागसंजमे दुविहे पं० २०-सय बुद्धछ उमत्थखोणकसाय० बुद्धबोहियछउमत्थ०, सय बुद्धछउमत्थ० दुविहे पं० त०पढमसमय० अपढमसमय०, अहवा चरिमसमय अचरिमसमय०, बुद्धबोहियछउमत्थखीण. दुविहे पं० त०-पढमसमय० अपढमसमय, अहवा चरिमसमय० अचरिमसमय०, केवलिखीणकसायवीतरागसंजमे दुविहे पं० २०-सजोगिकेवलिखीणकसय० अजोगिकेवलिखीणकसायवीयराग०, सजोगिकेवलिखीणकसायसंजमे दुविहे पंत-पढमसमय० अपढम समय, अहवा चरिमसमय० अचरिमसमय०, अजोगिकेवलिखीणकसाय० संजमे दुबिहे 40 त-पढमसमय अपढमसमय०, अहवा चरिमसमय अचरिमसमय० ॥ (सू०७२) ___ 'सुयधम्मे' इत्यादि, सूत्र्यन्ते सूच्यन्ते वाऽर्था अनेनेति सूत्रम् , सुस्थितत्वेन व्यापितत्वेन च सुष्ठक्तत्वाद वा सूक्तं, सुप्तमिव वा सुप्तम् , अव्याख्यानेनाप्रबुद्धावस्थत्वादिति, 'चरित्ते'त्यादि, अगारं-गृहं तदयोगादगारा:गृहिणस्तेषां यश्चारित्रधर्मः-सम्यक्त्वमूलाणुव्रतादिपालनरूपः स तथा, एवमितरोऽपि, नवरमगारं नास्ति येषां तेऽनगाराः-साधव इति । चारित्रधर्मश्च संयमोऽतस्तमेवाह-'दुविहे त्यादि, सह रागेण-अभिष्वङ्गेण मायादिरूपेण यः स सरागः, स चासौ संयमश्च सरागस्य वा संयम इति वाक्यम् , वीतो-विगतो रागो यस्मात् स चासौ संयमश्च, वीतरागस्य वा संयम इति वाक्यमिति । 'सरागे'त्यादि, सूक्ष्मः-असङ्ख्यातकिट्टिकावेदनतः सम्परायःकषायः सम्परैति-संसरति संसारं जन्तुरनेनेति व्युत्पादनात्, स च लोभकपायरूपः उपशमकस्य क्षपकस्य वा
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०७३
सूत्र
दीपिका
वृत्तिः ।
यस्य स मूक्ष्मसम्परायः साधुस्तस्य संरागसंयमः, विशेषणसमासो वा भणनीय इति, बादराः-स्थराः सम्पराया:कपाया यस्य साधोः यस्मिन् वा संयमे स तथा-सूक्ष्मसम्परायप्राचीनगुणस्थानकेषु, शेष प्रागिवेति । 'सुहुमे'त्यादिसूत्रद्वये प्रथमाप्रथमसमयादिविभागः केवलज्ञानवदिति । 'अहवे'त्यादि, सक्तिश्यमानः संयमः उपशमश्रेण्याः प्रतिपततः, विशुद्धयमानस्तामुपशमश्रेणी क्षपकश्रेणी वा समारोहत इति । 'बादरे'त्यादिसूत्रद्वयं बादरसम्परायसरागसंयमस्य प्रथमाप्रथमसमयता संयमप्रतिपत्तिकालापेक्षया, चरमाचरमसमयता तु यदनन्तरं सूक्ष्मसम्परायता असंयतत्वं वा भविष्यति तदपेक्षयेति, 'अहवे'त्यादि प्रतिपाती उपशमकस्यान्यस्य वा अप्रतिपाती क्षपकस्येति । सरागसंयम उक्तोऽतो | वीतरागसंयममाह-'वीयरागे'त्यादि उपशान्ताः-प्रदेशतोऽप्यवेद्यमानाः कपाया यस्य यस्मिन् वा स तथा साधुः संयमो वेति एकादशगुणस्थानवर्तीति । क्षीणकषायो द्वादशगुणस्थानवर्तोति 'उपसंते'त्यादिसूत्रद्वयं प्रागिव । 'खीणेत्यादि' छादयत्यात्मस्वरूपं यत्तच्छद्म-ज्ञानावरणादिधातिकर्म तत्र तिष्ठतीति छद्मस्थः--अकेवली, शेष तथैव, केवलमुक्तस्वरूपं ज्ञानं च दर्शनं चास्यास्तीति केवलीति 'मयंवुद्ध'त्यादि नव सूत्राणि गतार्थान्येव । उक्तः संयमः, स च जीवविषय इति पृथिव्यादिजीवस्वरूपमाह--दुविहा पुवी'त्यादिरष्टाविंशतिः सूत्राणि ॥ ___दुविहा पुढविकाइया ५० त०-सुहुमा चेव बादरा चेव १, एवं जाव दुविहा वणस्सइकाइया ५० त०-सुहुमा चेव बायरा चेव ५, दुविहा पुढविकाइया पत-पजत्तगा चेव अपजत्तगा चव ९, पव जाव वणस्सइकाइया १०, दुविहा पुढविकाइया पंत-परिणया चेव अपरिणया चेव ११, एवं जाव वणस्सइकाइया १५, दुविहा व्या पन्नत्ता तं०-परिणता चेव अपरिणता चेव १६, दुयिहा पुढविकाइया पं० २०-गइसमावन्नगा चेव अगइसमावन्नगा चेव १७,
BECHERS
॥५६॥
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सु०७३
एवं जाव वणस्सकाइया २१, दुविहा दवा पं० त०-गतिसमावन्नगा चेय अगतिसमावन्नगा चेव २२, दुविहा पुढविश्रीस्थानाङ्गा
काइया पंत-अण तरोगाढा चेव पर परोगाढा चेव २३, जाव दव्वा०२८ (सू०७३) सूत्रदीपिका
तत्र पृथिव्येव कायो येषां ते पृथिवीकायिनः समासान्तविधौ एव स्वार्थिककप्रत्ययविधानात् पृथिवीकायिकाः, वृत्तिः ।
पृथिव्येव वा कायः-शरीरं सोऽस्ति येषां ते पृथिवीकायिकास्ते सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्माश्चैव ये सर्वलोकापन्नाः, बादरनामकर्मोदयात् बादरा ये पृथिवीनगादिष्वेवेति । नैपामापेक्षिकं सूक्ष्मबादरत्वमिति 'एवमिति'
पृथिवीसूत्रवदप्तेजोवायूनां सूत्राणि वाच्यानि यावद्वनस्पतिसूत्रम् , अत एवाह-'दुधिहे'त्यादि पर्याप्तनामकर्मोदय!! वर्तिनः पर्याप्ताः, ये हि चतस्रः पर्याप्तीः पूरयन्ति, अपर्याप्तनामकर्मोदयाद् अपर्याप्तका ये स्वपर्याप्तीनं पूरयन्तीति,
इह पर्याप्ति म शक्तिः सामर्थ्य विशेष इतियावत्, सा च पुदगलद्रव्योपचयादुत्पद्यते, पइभेदा चेयं, तद्यथा"आहार १ सरीर २ इंदिय ३ पज्जती, आणपाण ४ भास ५ मणे ६ । चत्तारि पंच छप्पिय, एगिदियविगलसन्नीण ॥१॥ तत्रैकेन्द्रियाणां चतस्रो विकलेन्द्रियाणां पञ्च संज्ञिनां पड़ इति ॥
'दुविहा पुढवी'त्यादि षट्रसूत्री, परिणताः--स्वकायपरकायशस्त्रादिना परिणामान्तरमापादिताः अचित्तीभूता इत्यर्थः तत्र द्रव्यतः क्षेत्रादिना मिश्रेण द्रव्येण, कालतः पौरुष्यादिना कालेन, भावतो वर्णगन्धरसस्पर्शान्यथात्वेन परिणताः, क्षेत्रतस्तु
जोयणसयं तु गंता, अणाहारेणं तु भंडसंकंती । वायागणिधमेग, विद्धत्थं होइ लोणाइ ॥१॥ हरियालमणसिलपिप्पली य, खज्जूरमुद्दिया अभया । आइन्नमणाइन्ना, ते वि हु एमेव नायव्वा ॥२॥
॥ ५७ ॥
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सू०७४
प्रास्थानाङ्ग
सूत्र दीपिका ।
वृत्तिः ।
॥ ५८ ॥
आरुहणे ओरोहणे, णिसियणगोणाउणं च गाउम्हा । भूमाहारच्छेदे, उवक्कमेणेव परिणामो ॥३॥ 'अणाहारेणं' ति स्वदेशजाहाराभावेनेति 'भंडसंकती'त्ति भाजनाद भाजनान्तरसंक्रान्त्या, खजूरादयोऽनाचरिताअभयादयस्तु आचरिता इति । परिणामान्तरेण पृथिवीकायिका एव ते, केवलमचेतना इति, कथमन्यथाऽचेतनपृथिवीकायपिण्डप्रयोजनाभिधानमिदं स्यात, यथा-घट्टगडगलगलेवो, एमाइ पओयणं बहुहत्ति । "एवमि"त्यादि प्रागिव, तदेवं पञ्चैतानि सूत्राणि ॥ द्रवन्ति-गच्छन्ति विचित्रपर्यायानिति द्रव्याणि-जीवपुदगलरूपाणि, तानि च विवक्षितपरिणामत्यागेन परिणामान्तरापन्नानि परिणतानि-विवक्षितपरिणामवन्त्येव, अपरिणातानीति द्रव्यसूत्रं षष्ठम् । 'दुविहे'त्यादि षट्स्त्री, गतिर्गमनं तां समापन्नाः प्राप्तास्तद्वन्तो गतिसमापन्नाः, ये हि पृथिवीकायिकाद्यायुष्कोदयात् पृथिवीकायिकादिव्यपदेशवन्तो विग्रहगत्या उत्पत्तिस्थान ब्रजन्ति, अगतिसमापन्नास्तु स्थितिमन्तः, द्रव्यसूत्रे गतिगमनमात्रमेव, शेषं तथैवेति । 'दुविहा पुढवी'त्यादि षट्सूत्री, 'अनन्तरं' सम्प्रत्येव समये क्वचिदाकाशदेशे अवगाढाः आश्रितास्त एवानन्तरावगाढाः । येषां तु द्वयादयः समया अवगाढानां ते परम्परावगाढाः । अथवा विवक्षितं क्षेत्र द्रव्यं वाऽपेक्ष्यानन्तरमव्यवधानेनावगाढा इतरे तु परम्परावगाढा इति ॥ अनन्तरं द्रव्यस्वरूपमुक्तमधुना द्रव्याधिकारादेव द्रव्यविशेषयोः कालाकाशयोर्द्विसूच्या प्ररूपणामाह--
दुविहे काले ५० त०-ओसप्पिणीकाले चेव उस्सप्पि गोकाले चेत्र, दुविहे आगासे ५० त०-लोगागासे चेव अलोगागासे चेव (सू. ७४)
'दुविहे 'त्यादि कल्यते--सङ्ख्यायतेऽसावनेन वा कलनं वा कलासमूहो वेति काल:---वर्तनापरापरत्वा
॥५८॥
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स०७५
श्रीस्थानाङ्ग
मूत्रदीपिका वृत्तिः ।
AN
दिलक्षणः स चावसर्पिण्युत्सप्पिणीरूपतया द्विविधो द्विस्थानकानुरोधादुक्तोऽन्यथाऽवस्थितलक्षणो महाविदेहभोगभूमिसम्भवी तृतीयोऽप्यस्तीति ॥ 'आगासे'त्ति सर्व्वद्रव्यस्वभावानाकाशयति-आदीपयति तेषां स्वभावलाभेऽवस्थानदानादित्याकाशम् । तत्र लोको यत्राकाशदेशे धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां वृत्तिरस्ति स एवाकाशं लोकाकाशमिति, विपरीतमलोकाकाशमिति ॥ अनन्तरं लोकालोकभेदेना काशद्वैविध्यमुक्तं, लोकश्च शरीरिशरीराणां सर्चत आश्रयरूप इति नारकादिशरीरिदण्डकेन शरीरप्ररूपणामाह
॥५९||
नेरइयाण दो सरीरगा पं०० अब्भतरगे चेव बाहिरगे चेव, अब्भतरए कम्मए बाहिरप वेउब्धिए, एवं देवाण भाणियव्व, पुढदिकाइयाण दो सरीरगा पं०२०-अभं तरगे चेव बाहिरगे चेव, अन्त रगे कम्मए बाहिरगे ओरालगेजाव वणस्सइकाइयाण, बेड दियाणं दो सरीरगा पं० त०-अभंतरगे चेव बाहिरगे चेब, अभंतरगे कम्मप, बाहि. रगे अद्विमि जसोणियवद्धे ओरालिए जाव चउरिदियोण, पचिदियतिरिक्खजोणियाण दो सरीरगा पं० तंअब्भतरगे चव बाहिरगे चेव अम्भत रंगेकम्मए, अद्विमससोणियोहारुसिराबद्ध बाहिरए ओरालिए, मणुस्साण वि पर्व चेव, विग्गहगतिसमावनगाण नेरइयाण दो सरीरगा पं००-तेयते चेव कम्मए चेव, निरन्तर जाव वेमाणियाण, णेरड्याण दोहि ठाणेहिं सरीरुप्पत्ती सिया, तं० रागेण चैव दोसेणचेव, जाव वेमाणियाण, रइयाण दोठाणणियत्तिप सरीरगे पं० त०-रागनिव्वेत्तिए चेवे दोसणिब्यत्तिप चेव, जाव वेमाणियाण, दो काया पंतं तसकाए चेव थावरकाप चेव, तसकाए दुविहे ५०० भवसिद्धिए चेवे अभवसिद्धिए चेव, एवं थावरकाए वि (सू०७५) ..
'नेरइयाण'मित्यादि प्रायः कण्ठय, नवरं शीर्यते-अनुक्षणं चयापचयाभ्यां विनश्यतीति शरीरं, तदेव शटना
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सू०७५
O
श्रीस्थानाङ्ग सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
11
॥६
॥
दिधर्मतयाऽनुकम्पितत्वात् शरीरकं, ते च द्वे प्रज्ञप्ते जिनः, अभ्यन्तमध्ये भवमाभ्यन्तरं, आभ्यन्तरत्वं च तस्य जीवप्रदेशैः सह क्षीरनीरन्यायेन लोलीभवनात् , भवान्तरगतावपि च जीवस्यानुगतिप्रधानत्वादपवरकाद्यन्तःप्रविष्टपुरुषवदनतिशयिनामप्रत्यक्षत्वाच्चेति, तथा बहिर्भवं बाह्यं, बाह्यता चास्य जीवप्रदेशैः कस्यापि केषुचिदवयवेष्वव्याप्तेभवान्तराननुयायित्वान्निरतिशयिनामपि प्रायः प्रत्यक्षत्वाच्चेति, अगाभ्यन्तरं 'कम्मए'त्ति कार्मणशरीरनामकर्मोदयनिर्वृत्तमशेषकर्मणां प्ररोह भूमिराधारभूतं, संसार्यात्मनां गत्यन्तरसङ्क्रमणे साधकतमं तत्कार्मणवर्गणास्वरूपं, कर्मैव कर्मकमिति, कर्मकग्रहणे च तैजसमपि गृहीतं द्रष्टव्यं, तयोरव्यभिचारित्वेनैकत्वस्य विवक्षितत्वादिति, 'एवं देवाणं भागियति अयमर्थः, यथा नैरयिकाणां शरीरद्वयं भणितमेवं देवानाममुरादीनां वैमानिकान्तानां भणितव्यम् , कार्मणवैक्रिययोरेव तेषां भावात् , चतुर्विंशतिदण्डकस्य विवक्षेति । 'पुढवी 'त्यादि पृथिव्यादीनां तु बाह्यमौदारिकशरीरनामकर्मोदयादुदारपुद्गलनिवृत्तमौदारिकं, केवलमेकेन्द्रियाणामस्थ्यादिविरहितं, वायूनां यद् वैक्रिय तन्न विवक्षितं, प्रायिकत्वात् तस्येति, 'बेइंदियाण'मित्यादि, अस्थिमांसशोणितैर्बद्धं-नद्धं यत्तत्तथा, द्वीन्द्रीयादीनामौदारिकत्वेऽपि शरीरस्यायं विशेषः । 'पंचेंदिए'त्यादि पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां पुनरयं विशेषो यदस्थिमांसशोणितस्नायुशिराबद्धमिति, अस्थ्यादयस्तु प्रतीता इति ॥ प्रकारान्तरेण चतुविशतिदण्डकेन शरीरप्ररूपणामाह-विग्गहे'त्यादि विग्रहगतिर्वक्रगतियदा विश्रेणिव्यवस्थितमुत्पत्तिस्थान गन्तव्यं भवति तदा या स्यात् तां समापना विग्रहमतिसमापन्नास्तेषां द्वे शरीरे, इह तैजसकार्मणयोर्भदेन विवक्षेति, एवं दण्डकः ॥ शरीराधिकारात् शरीरोत्पत्ति दण्डकेन निरूपयन्नाह-'नेरइयाण मित्यादि कण्ठयं, किन्तु रागद्वेषजनितकर्मणा शरीरोत्पत्तिः, सा रागद्वेषाभ्या
II૬થી
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श्रीस्थानात
सू०७६ ।
दीपिका वृत्तिः ।
॥६
॥
मेवेति व्यपदिश्यते, कार्ये कारणोपचारादिति, 'जाव वैमाणियाण'ति दण्डकः सूचितः । शरीराधिकाराच्छरीरनिवर्तनसूत्रं, तदप्येवं, नवरमुत्पत्तिः-आरम्भमात्रं निवर्तना तु निष्ठानयनमिति । शरीराधिकाराच्छरीरवतां राशि-R द्वयेन प्ररूपणामाह-दो काए'त्ति त्रसनामकर्मोदयात् त्रस्यन्तीति त्रसाः तेषां कायो-राशिस्त्रसकाय इति । स्थावरनामकर्मोदयात् तिष्ठन्तीत्येवंशीलाः स्थावरास्तेषां कायः स्थावर काय इति । सस्थावरकाययोरेव द्वैविध्यप्ररूपणार्थ 'तसकाए'त्यादि सूत्रद्वयं, सुगम चेति । पूर्वसूत्रो भव्याः शरीरिणः उक्ता इति तद्विशेषाणामेव यद् यथा कत्तुमुचितं तत् तथा द्विस्थानकानुपातेनाह-- दो दिसाओ अभिगिज्झ कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पव्वा वित्तए-पाईण चेव, उदीण चेव, एवं मुंडावित्तए, सिक्खावित्तए, उवट्ठावित्तप, सभुजित्तप, संवसित्तए, सज्झाय उद्दिसित्तए; सज्झायं समुद्रिसित्तए, सज्झायमणुजाणितप, आलोपत्तए, पडिक्कमित्तए, निदित्तप, गरहित्तए, विउट्टित्तप, बिसाहित्तए, अकरणयाए अब्भुद्वित्तए, अहारिह पायच्छित्त तवोकम्म पडिवज्जित्तए दो दिसाओ अभिगिज्य कप्पति निग्ग थाण वा निग्ग थीण वा अपच्छिममारणतियस लेखणाझूसित्ताण भत्तपाणपडियाइक्खित्ताण पाओवगताण काल अणवक स्त्रमाणाण विहरित्तए, तपाईण चेव उदीण चेव ॥ (सू०७६) विठाणस्स पढमो उद्देसो ॥२-१॥ 'दो दिसाओ'त्ति व्याख्या । द्वे दिशौ-काष्ठे अभिगृह्य-अङ्गीकृत्य तदभिमुखीभूयेत्यर्थः कल्पते-युज्यते, निर्गता ग्रन्थाद धनादेरिति निर्ग्रन्थाः-साधवः तेषां, निग्रन्थ्यः-साध्व्यस्तासां प्रवाजयित रजोहरणादिदानेन 'प्राचीनां' प्राची पूर्वामित्यर्थः, “उदीचीनाम्' उदीचीमुत्तरामित्यथः, उक्तं च “पुवामहो उ उत्तर-मुहो व देजाऽहवा पडिच्छेज्जा । जाए जिगादओ वा, हविज्ज जिणचेइयाइं वा ॥१॥"त्ति, 'एव'मिति यथा प्रव्राजनसूत्रं
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॥६॥
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सू०७६ ।
भीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥६॥
दिग्द्वयाभिलापेनाधीतमेवं मुण्डनादिसूत्राण्यपि षोडशाध्येतव्यानीति, तत्र मुण्डयितुं शिरोलोचनेन १, शिक्षयितुं ग्रहणशिक्षापेक्षया सूत्रार्थी ग्राहयितुं आसेवनाशिक्षापेक्षया तु प्रत्युपेक्षणादि शिक्षयितुं २, उत्थापयितुं महाव्रतेषु व्यवस्थापयितुं ३, संभोजयितुं भोजनमण्डल्यां निवेशयितुं ४, संवासयितुं संस्तारकमण्डल्यां निवेशयितुं ५, मुष्ठ आ-मर्यादया अधीयत इति स्वाध्यायः-अङ्गादिस्तमुद्देष्टुं योगविधिक्रमेण सम्यग् योगेनाधीष्वेदमित्येवमुपदेष्टुमिति ६, समुद्देष्टुं योगसामाचार्यैव तु चिरपरिचितं कुर्विदमिदमिति वक्तुमिति ७, अनुज्ञातुं तथैव सम्यगेतद् धारयान्येषां च प्रवेदयेत्येवमभिधातुमिति ८, आलोचयितुं गुरवेऽपराधानिवेदयितुमिति ९, प्रतिक्रमितुं-प्रतिक्रमणं कर्तुमिति १०, निन्दितुमतिचारान् स्वसमक्षं जुगुप्सितुं ११, आह च"सचरित्तपच्छयावो निंद"त्ति, गर्हितुं गुरुसमक्षं तानेव जुगुप्सितुं, आह च-"गरिहा वि तहाजातीयमेव नवरं परप्पयासणय"त्ति १२ 'विउट्टित्तए'त्ति व्यतिवर्तयितुं वित्रोटयितुं विकुट्टयितुं वा, अतिचारानुबन्ध विच्छेदयितुमित्यर्थः १३, विशोधयितुमतिचारपङ्कापेक्षयाऽऽत्मानं विमलीकर्तमिति १४, अकरणतया-पुनर्न करिष्यामीत्येवमभ्युत्थातुमभ्युपगन्तुमिति १५, 'यथार्ह मतिचाराद्यपेक्षया यथोचितं पापच्छेदकत्वात् प्रायश्चित्तविशोधकत्वाद् वा प्रायश्चित्तं तपःकर्म निर्विकृतिकादिकं प्रतिपत्तुमभ्युपगन्तुमिति १६, सप्तदशसूत्रं साक्षादेवाह-'दो दिम'त्यादि, पश्चिमैवामङ्गलपरिहारार्थमपश्चिमा सा चासौ मरणमेव योऽन्तस्तत्र भवा मारणान्तिकी सा चासौ संलिख्यतेऽनया शरीरकपायादीति संलेखना-तपोविशेषः सा चेति अपश्चिममारणान्तिकीसंलेखना तस्याः 'झसण' त्ति जोषणा-सेवा तल्लक्षणधर्मेणेत्यर्थः 'झुसियाण' ति सेवितानां तयुक्तानामित्यर्थः तया वा 'झोषितानां क्षपितानां क्षपितदेहानामि
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॥२॥
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श्रीस्थानात
सू०७७1
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥६॥
त्यर्थः, तथा भक्तपाने प्रत्याख्याते येस्ते तथा तेषां, पादपवदुपगतानां-अचेष्टतया स्थितानामनशनविशेष प्रतिपन्नानामित्यर्थः 'कालं' मरणकालमनवकाक्षतां-तत्रानुत्सुकानां विहर्तु-स्थातुमिति १७ । एवमेतानि दिक्सूत्राण्यादितोऽष्टादश । सर्वत्र यन्न व्याख्यातं, तत्सुगमत्वादिति ॥ द्विस्थानकस्य प्रथमोद्देशः समाप्तः ।।
इहानन्तरोद्देशके जीवाजीवधर्मा द्वित्वविशिष्टा उक्ताः, द्वितीयोद्देशके तु द्वित्वविशिष्टा एव जीवधर्मा उच्यन्ते, इत्यनेन सम्बन्धेन आयातस्याऽस्योद्देशकस्येदमादिसूत्रम्जे देवा उड्ढोववन्नगा ते दुविहा पंत-कप्पोववन्नगा विमाणोषवन्नगा, चारोववन्नगा चारद्वितिया गतिरतिया गतिसमावन्नगा, तेसि ण देवाण सया समियं जे पावे कम्मे कज्जई तत्थगता वि पगतिया वेयण वेय ति अन्नत्थगया वि पगड्या घेण वेयंति, रइयाण सया समिय जे पावे कम्मे कज्जई तत्थगता वि एगतिया वेयण वेयं ति अण्णत्थगया वि पगतिया वेयण वेय ति, जाव पंचिदियतिरिक्खजोणियाण मणुस्साण सया समिय जे-पावकम्मे कजइ इगया वि एगइया वेयण वेयति अण्णत्थगया वि एगतिया वेयण वेय ति, मणुस्सवजा सेसा एक्कगमा ॥ (सू ० ७७) 'जे देवे'त्यादि, अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः-प्रथमोद्देशकान्त्यसूत्रे पादपोपगमनमुक्तम् . तस्माच्च देवत्वं केषाञ्चिद् भवतीति देवविशेष भणनेन तत्कर्मबन्धवेदने प्रतिपादयन्नाह-'जे देवे'त्यादि ये देवाः सुगः वक्ष्यमाणविशेषणेभ्यो वैमानिका अनशनादुत्पन्नाः, किम्भूताः- 'उड्ढ'त्ति ऊर्ध्वलोकस्तत्रोपपन्नका-उत्पन्नाः ऊोपपन्नकास्ते च द्विधा कल्पोपपत्रकाः सौधर्मादिदेवलोकोत्पन्नास्तथा विमानोपपन्नका:-प्रेवेयकानुत्तरलक्षणविमानोत्पन्नाः कल्पातीता इत्यर्थः । तथा परे 'चारोववण्णग'त्ति चरन्ति-भ्रमन्ति ज्योतिष्कविमानानि यत्र स चारो-ज्योतिश्चक्रक्षेत्रं समस्तमेव, व्युत्पत्त्यर्थमात्रानपेक्षणेन शब्दप्रवृत्तिनिमित्ताश्रयणात् , तत्रोपपन्न
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॥६३॥
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सू०७७1
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
॥६४||
काश्वारोपपन्नका-ज्योतिष्काः, न च पादपोपगमनादेज्योतिष्कत्वं न भवति परिणामविशेषादिति, तेऽपि च | द्विधैव, तथाहि-चारे-ज्योतिश्चक्रक्षेत्रे स्थितिरेव येषां ते चारस्थितिकाः-समयक्षेत्रबहिर्वतिनो घण्टाकृतय इत्यर्थः, तथा गतौ रतिर्येषां ते गतिरतिकाः, समयक्षेत्रवर्तिन इत्यर्थः, गतिरतयश्चाऽसततगतयोऽपि भवन्तीत्यत आह-गतिः-गमन 'सम्' इति-सन्ततमापनकाः प्राप्ता गतिसमापनकाः, अनुपरतगतय इत्यर्थः, तेषां देवानां द्विविधानां पुनर्द्विविधानां सदा--नित्यं समितं-सन्ततं यत्पापं कर्म ज्ञानावरणादि, सततबन्धकत्वात् जीवानां क्रियते, बध्यते, कर्मकतृप्रयोगोऽयं भवति सम्पद्यते इत्यर्थः-ते देवाः, तस्य-कर्मणः अबाधाकालातिक्रमे सति 'तत्थगया वित्ति अपिरेवकारार्थस्तस्य चैवं प्रयोगः-तत्रैव देवभव एव कल्पातीतानां क्षेत्रान्तरादिगमनासम्भवादिह तत्रान्यत्रशब्दाभ्यां भव एव विवक्षितः, न क्षेत्रशयनादीति, गताः-वर्तमाना 'एके' केचन देवा वेदनामनुभवन्ति 'अन्नत्थगया वित्ति देवभवादन्यत्रैव भवान्तरे गता उत्पन्ना वेदनामनुभवन्ति, केचित्तभयत्रापि, अन्ये विपाकोदयापेक्षया नोभयत्रापीति, एतच्च विकल्पद्वयं सूत्रे नाश्रितं, द्वित्वाधिकारादिति ॥ सूत्रोक्तमेव विकल्पद्वयं सर्वजीवेषु चतुर्विशतिदण्डकेन निरूपयनाह-'णेरईयाण' मित्यादि प्रायः सुगमम् , नवरं, "तत्थगया वि अनत्थया वि" एवमभिलापेन दण्डको नेयो यावत्पञ्चन्द्रियतिर्यश्चोऽत एवाह — जावे'त्यादि, मनुष्येषु पुनरभिलापविशेषो दृश्यः, यथा 'इहगया वि एगइया' इति, सूत्रकारो हि मनुष्योऽतस्तत्रेत्येवंभूतं परोक्षाऽनासन्न निर्देशं विाच्य मनुष्यसूत्रो इहेत्येवं निर्दिशति स्म, मनुष्यभवस्य स्वीकृतत्वेन प्रत्यक्षासन्नवाचिन इदंशब्दस्य विषयत्वादिति, अत एवाह-'मणुस्सवज्जा सेसा एक्कगमति शेषाः व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका एकगमा:-तुल्याभिलापाः, ननु प्रथमसूत्र
॥६॥
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श्रीस्थानात
सू०७८
दीपिका वृत्तिः ।
॥६५॥
एव ज्योतिष्कवैमानिकदेवानां विवक्षितार्थस्याभिहितत्वात् किं पुनरिह तदभणनेनेति उच्यते, तत्रानुष्ठानफलदर्शनप्रसङ्गन भेदतश्चोक्तत्वाद, इह तु दण्डकक्रमेण सामान्यतश्चोक्तत्वादिति न दोषो, दृश्यते चेह तत्र तत्र विशेषोक्तावपि सामान्योक्तिरितरोक्तौत्वितोतिः॥ तत्रगता वेदनां वेदयन्तीत्युक्तमतो नारकादीनां-गति तद्विपर्यस्तामागति च निरूपयनाह
___णेरइया दुर, इया दुआगइया ५० त०-णेरइए गेरइएसु उबवजमाणे मणुस्सेहिंतो वा पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो वा उववज्जेज्जा, से चेव ण से रहए णेरइयत्त विप्पजहमाणे मणुस्सत्ताए वा पंचे दियतिरिक्खजोणियत्ताप वा गच्छेजा, एवं असुरकुमारा वि, णवरं से चेव से असुरकुमारे असुरकुमारत्त विप्पजहमाणे मणुस्सत्ताए वा तिरिक्खजोणियत्ताए या गच्छिज्जा, एवं सव्वदेवा, पुढविकाइया दुगसिया दुयागतिया ५००-पुढविकाइए पुढविका इएसु उववज्जमाणे पुढविकाइपहिंतो वा णोपुढविकाइएहिंतो वा उववज्जेज्जा, से चेव ण से पुढविकाइए पुढविकाइयत्त' विप्पजहमाणे पुश्किाइयत्ताए वा णोपुढविकाइयनाए गच्छेज्जा एवं जाय मणुस्सा (सू०७८)
'गेरइये त्यादिदण्डकः कण्ठयो, नवरं नरयिका-नारका द्वयोः-मनुष्यगतितिर्यग्गतिलक्षणयोर्गत्योरधिकरणभूतयोर्गतिर्येषां ते तथा, द्वाभ्यामेताभ्यामेवावधिभूताभ्यामागतिः-आगमनं येषां ते तथा, उदितनारकायु रक एव व्यपदिश्यते, अत उच्यते 'णेरइए णरइएसुत्ति, नारकेषु मध्ये इत्यर्थः, इह चोदेशक्रमव्यत्ययात प्रथमवाक्येनागतिरुक्ता 'से चेव णं से'त्ति; यो मानुषत्वादितो नरकं गतः स एवासौ नारको नान्यः, अनेनैकान्तनित्यत्वं निरस्तमिति, 'विष्पजहमाणे' ति विप्रजहन्-परित्यजन्, ह च भूतभावतया नारकव्यपदेशः, अनेन वाक्येन गतिरुक्ता, इत्थं च व्याख्यानं 'तेजस्कायिका द्वयागतयति वैमनुष्यापेक्षया एकगतयस्तियगपेक्षयेति वाक्यमुपजीव्येति, एवं असुरकुमाराविति नारकवद् वक्तव्या इत्यर्थः, 'नवरंति केवलमयं विशेषः
॥६५॥
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सु०७२।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥६६॥
तिर्यक्षु न पश्चेन्द्रियेष्वेवोत्पधन्ते पृथिव्यादिष्वपि तदुत्पत्तरित्यतः सामान्यत आह-'स चेव ण मे इत्यादि 'जाव तिरिक्खजोणियत्ताए वा गच्छेज्ज'त्ति एवं सव्वदेव'त्ति, असुरवत् द्वादशापि दण्डकदेवपदानि वाच्यानि, तेषामप्येकेन्द्रियेषत्पत्तेरिति । 'णोपदविकाइएहिंतोत्ति अनेन पृथिवीकायिकनिषेधद्वारेणाप्कायिकादयः सर्वे गृहीता द्विस्थानकानुरोधादिति, तेभ्यो वा-नारकवर्जेभ्यः समुत्पद्यते, 'णोपढविकाइयत्ताए'त्ति देवनारकवप्किायादितया गच्छेदिति, 'एवं जाव मणुस्स'त्ति, यथा पृथिवीकायिका 'दुगतिया' इत्यादिभिरालापैरुक्ता एवमेभिरेवाप्कायिकादयो मनुष्यावसानाः पृथिवीकायिकशब्दस्थानेऽष्कायादिव्यपदेश कुर्वभिरभिधातव्या इति । व्यन्तरादयस्तु पूर्वमतिदिष्टा एवेति । जीवाधिकारादेव भव्यादिविशेषणैः षोडशभिर्दण्डकप्ररूपणायाह
दुविहा रइया पन्नत्ता, तंजहा-भवसिद्धिया चेव अभवसिद्धिया चेव, जाव वेमाणिया १। दुविहा णेरइया पंत-अण तरोववण्णगा चेव पर परोववण्णगा चेव जाव वेमाणिया २ । दुविहा णेरड्या पं० २० गइसमावन्नगा चेव अगइसमावन्नगा चेव, जाव वेमाणिया ३ । दुविहा जेरइया ५० त०-पढमसमओवषण्णगा चेष अपढमसमओवषण्णगा चेव, जाव वेणाणिया ४ । दुबिहा रइया पंत-आहारगा चेव अणाहारगा चेव, पर्व जाव वेमाणिया ५ । दुविहा णेरड्या ५० त०-उस्सासगा चेव णोउस्सासगा चेव जाव वेमाणिया ६ । दुविहा णेरड्या पंत---सह दिया चेव अणि दिया चेव, जाव वेमाणिया ७ । दुविहा णेरइया ५० त०--पज्जत्तगा चेव अपज्जत्तगा चेव, जाव वेमाणिया ८ । दुविहा रइया पं०२०-सणि चेव अलगि चेव, एवं पंचे दिया सव्वे विगलि दियवज्जा, जाव बाणमंतरा (वेमाणिया) ९ । दुविहा गेरइया ५० त०-भासगा चेव अभासगा चेव, एवमेगि दियवजा सव्वे १० । दविहा रइया पंत-सम्मदिहिया चेव मिच्छद्दिहिया चेव, एगिदियवजा सको ११ । दुविहा णेरड्या पं.
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सू०७९ ।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र दीपिका
वृत्तिः
।
॥६
॥
तं-परित्तसंसारिया चेव अण तसं सारिया चेव जाव वेमाणिया १२ । दुविहा णेरड्या, पं० तं0--संखेजकालसमयद्विया चेव असंखेज कालसमयद्विइया चेव, एवं पंचे दिया पनि दियविंगलि दिययजा जाब वाणमंतरा १३ ।
विहा रया पंतं०-सुलभयोहिया चेव दुलभबोहिया चेव, जाव बेमाणिवा १४ । विहाणेरड्या पं० तं०कण्हपक्खिया चेव सुक्कपक्खिया चेव, जाव वेमाणिया १५ । दुविहा णेरइया पं० त०-चरिमा चेव अचरिमा चेव, जाव बेमाणिया १६ । (सू० ७९) तत्र भव्यदण्डकः कण्ठ्यः , अनन्तरदण्डके 'अणंतर'त्ति एकस्मादनन्तरमुत्पन्ना ये तेऽनन्तरोपपन्नकाः, तदन्यथा त परम्परोपपन्नकाः, विवक्षितदेशापेक्षया वा येऽनन्तरतयोत्पन्नास्ते आद्याः, परम्परया वितरे इति २ गतिदण्डले गतिसमापन्नका-नरकं गच्छन्तः इतरे तु तत्र ये गताः, अथवा गतिसमापन्ना-नरकं प्राप्ता इतरे तु द्रव्यनारकाः, अथवा चलस्थिरत्वापेक्षया ते ज्ञेया इति ३ । प्रथमसमयदण्ड के 'पढमे त्यादि, प्रथमः समयः उपपन्नानां येषां ते प्रथमसमयोपपन्नकाः, तदन्ये अप्रथमसमयोपपन्नका इति ४, आहारदण्डके आहारकाः सदैव, अनाहारकास्तु विग्रहगतावेकं द्वौ वा समयौ ये नाडीमध्ये मृत्वा तत्रैवोत्पद्यन्ते, ये त्वन्यथा ते त्रीनिति, ५ उच्छ्वासदण्डके उच्छवसन्तीत्युच्छ्वासकाः तत्पर्याप्तिपर्याप्तकाः, तदन्ये तु नोच्छ्वासकाः ६, इन्द्रियदण्डके सेन्द्रियाःइन्द्रियपर्याप्त्या पर्याप्ताः, तदपर्याप्तास्तु अनिन्द्रियाः ७, पर्याप्तदण्डके पर्याप्ताः पर्याप्तनामकर्मोदयादितरे त्वितरोदयादिति ८, संझिद्वारे (दण्डके) संज्ञिनो-मनःपर्याप्त्या पर्याप्तकाः तथा अपर्याप्तकास्तु ये (न तथा) तेऽसंज्ञिन इति | 'एवं पंचिदिए' इत्यादि, अस्यायमर्थः--यथा नारकाः संज्यसंज्ञिभेदेनोक्ता एवं 'विगलिंदियवज्ज'त्ति, विकलानि | अपरिपूर्णानि सङ्करूययेन्द्रियाणि येषां ते विकलेन्द्रियाः, तानु पृथिव्यादीन् द्वित्रिचतुरिन्द्रियांश्च वर्जयित्वा येऽन्ये
॥६॥
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सू०७९ ।
भीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
I૬૮
चतुर्विशतिदण्डके पञ्चेन्द्रिया अमुरादयो भवन्ति ते सर्वेऽपि संझ्यसंबितया वाच्याः, दण्डकावसानमाह-जाब वेमाणिय'त्ति मानिकपर्यवसाना अप्येवं वाच्या इति, कचिद् 'जावाणमंतर'त्ति पाठस्तत्रायमों-येऽसंज्ञिभ्यो नारकादितयोत्पद्यन्ते तेऽसंझिन एवोच्यन्ते, असंझिनश्च नारकादिषु व्यन्तरावसानेषत्पद्यन्ते न ज्योतिष्कवैमानिकेष्विति तेषामसंज्ञित्वाभावादिहाग्रहणमिति ९, भाषादण्डके भाषका--भाषापर्याप्त्युदये, अभाषकास्तदपर्याप्तावस्थायामिति, एकेन्द्रियाणां भाषापर्याप्तिर्नास्तीत्यत आह-'एव'मित्यादि १०, सम्यग्दृष्टिदण्डके सम्यक्त्वमेकेन्द्रियाणां नास्ति, द्वीन्द्रियादीनां तु सास्वादनं स्यादपीत्युक्तम्-'एगिदियवज्जा सम्वेत्ति' ११, संसारदण्ड के परीत्तसंसारकाः-सङ्क्षिप्तभवा इतरे वितरे १२, स्थितिदण्डके कालः कृष्णोऽपि स्यात् , समय आचारोऽपि स्यादतः कालश्चासौ समयश्चेति कालसमयः सङ्ख्येयो वर्षप्रमाणतः स यस्यां सा सख्येयकालसमया सा स्थितिः-अवस्थान येषां ते सङ्ख्येयकालसमयस्थितिकाः, दशवर्षसहस्त्रादिस्थितय इत्यर्थः, इतरे तु पल्योपमासङ्ख्येयभागादिस्थितयः, 'एव'मिति नारकवद् द्विविधस्थितिका दण्डकोक्ताः किं सर्वेऽपि ? नेत्याह--पञ्चेन्द्रिया असुरादयः, किमुक्तं भवति ?-एकेन्द्रियविकलेन्द्रियवर्जाः, एतेषां हि द्वाविंशतिवर्षसहस्रादिका सङ्ख्यातैव स्थितिः, पञ्चेन्द्रिया अपि किं सर्वे नेत्याह, यावद् व्यन्तराः व्यन्तरान्ताः, एते हि उभयस्वभावा भवन्ति, ज्योतिष्कवैमानिकास्तु असङ्ख्यातकालस्थितय एवेति १३, बोधिदण्डके बोधिः-जिनधर्म(प्राप्तिः) सा सुलभा येषां ते सुलभबोधिकाः, एवमितरेऽपि १४, पाक्षिकदण्डके शुक्लो विशुद्धत्वात् पक्ष:-अभ्युपगमः शुक्ल पक्षस्तेन चरन्तीति शुक्ल पाक्षिकाः, शुक्लत्वं च क्रियावादित्वेनेति, आह च-'किरियावाई भव्वे णो अभब्वे सुक्कपक्खिए नो किण्डपक्खिए'त्ति
॥६८॥
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स०८०
श्रीस्थानाक
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥६॥
शुक्लानां वा आस्तिकत्वेन विशुद्धानां पक्षो-वर्गः शुक्लपक्षस्तत्र भवाः शुक्लपाक्षिकाः, तद्विपरीतास्तु कृष्णपाक्षिका इति १५, चरमदण्डके येषां स नारकादिभवश्वरमः पुनस्तेनैव नोत्पत्स्यन्ते सिद्धिगमनात् ते चरमाः, अन्ये त्वचरमा इति १६, एवमेते आदितोऽष्टादश दण्डकाः। प्राय वैमानिकाचरमाचरमत्वेनोक्ताः, ते चावधिनाऽधोलोकादीन् विदन्त्यतस्तद्वेदने जीवस्य प्रकारद्वयमाह
दोहि ठाणेहि आया अहोलोग जाणइ पासइ त-समोहएण चेव अप्पाणेण आया अहेलोग जाणइ पासइ असमोहपण चेव अप्पाणेण' आया अहेलोग जाणइ पासइ, आहोहि समोहयासमोहपण चेव अप्पाणेण आया अहेलोग जाणइ पासइ; एवं तिरियलोग २ उइढलोग ३ केवलकप्प लोग ४। दोहि ठाणेहि आया अहोलोग जाणइ पासइ त. विउविएण चेव अप्पाणेण आया अहोलोग जाणइ पासइ अविउविवरण चेव अप्पाणेण आया अहोलोग जाणा पासइ आहोहि विउव्वियाविउविएण चेय अप्पाणेण आया अहोलोग जाणइ पासइ १, एवं तिरियलोग उइढलोग०४ दोहि ठाणेहि आया सद्दाइ सुणेइ त०-देसेणवि आया सद्दाइ सुणेइ सम्वेणवि आया सद्दाइ सुणेइ, पवं रूवाई पासइ, गधाइ अग्घाई, रसाई आसापड, फासाइ पडिस वेदेइ ५। दोहि ठाणेहि आया ओभासइ, त.. देसेणवि आया भोभासह सवेणवि आया आभासह, पवं पभासद, विउब्वेइ, परियारेइ, भासं भासइ, आहारेड, परिणामेह, वेदेइ, णिजरेइ ९ । दोहि ठाणेहि देवे सहाईसुणेइ, तं०-वेसेणवि देवे सहाई सुणेइ सव्येणवि देवे सहाई सुणेइ जाव जिरेड १४ । मरुया देवा दुविहा ५० त०-पगसरीरे चे दुसरीरे चेब, एवं किनरा किंपुरिसा गधव्वा नागकुमारा सुवन्नकुमारा अग्गिकुमारा वायुकुमारा ८, देवा दुमिहा ५० त०-एगसरीरा चेव बिसरीरा चेव । (सू० ८०) बिट्ठाणस्स बीओ उद्दसो सम्मत्तो २-१ । 'दोही त्यादि सूत्रचतुष्टयं, द्वाभ्यां स्थानाभ्या' प्रकाराभ्यामात्मगताभ्यामात्मा-जीवोऽधोलोकं जानात्यवधिज्ञानेन
॥६॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
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पश्यत्यवधिदर्शनेन 'समवहतेन' वैक्रियसमुद्घातगतेनात्मना - स्वभावेन, समुद्घातान्तरगतेन वा असमवहतेन त्वन्यथेति एतदेव व्याख्याति - 'आहोही' त्यादि यत्यकारोऽवधिरस्येति यथावधिः, आदिदीर्घत्वं प्राकृतत्वात् परमावत्रेर्वा अयोधवधिर्यस्य सोऽत्रोऽवधिरात्मा-नियतक्षेत्र विषयावधिज्ञानी स कदाचित् समवहतेन कदाचिदन्यथेति समवहता समवहतेनेति 'एव 'मित्यादि, 'एव' मिति यथाऽघोलोकः समवहतासमवहतप्रकाराभ्यामवधेविषयतयोक्त एवं तिर्यग्रलोकादयोऽपीति, सुगमानि च तियँग्लोकोर्ध्वलोककेवललोकसूत्राणि, नवरं केवलः – परिपूर्णः स चासौ स्वकार्यसामर्थ्यात् कल्पश्च केवलज्ञानमिव वा परिपूर्णतयेति केवलकल्पः, अथवा केवलकल्पः समयभाषया परिपूर्णः तं 'लोकं ' चतुद्दशरज्ज्वात्मकमिति । वैक्रियसमुद्घातानन्तरं वैकियं शरीरं भवतीति वैक्रियशरीरमाश्रित्याधोलोकादिज्ञाने प्रकारद्वयमाह - 'दोही 'त्यादि सूत्रचतुष्टयं कण्ठयम्, नवरं 'विउविएणं' ति कृतवैक्रियशरीरेणेति । ज्ञानाधिकार एवेदमपरमाह‘दोही’त्यादिपञ्चसूत्री, द्वाभ्यां 'स्थानाभ्यां' प्रकाराभ्यां 'देसेण वित्ति देशेन च शृणोत्येकेन श्रोत्रेणैकश्रोत्रापघाते सति, सर्वेण वाऽनुपहतश्रोगेन्द्रियो, यो वा सम्भिन्नश्रोतोऽभिधानलब्धियुक्तः स सर्वैरिन्द्रियैः शृणोतीति सर्वेणेति व्यपदिश्यते, 'एव' मिति यथा शब्दान् देशसवीभ्यामेवं रूपादीनपि, नवरं जिहादेशस्य प्रसुप्त्यादिनोपघाताद् देशेनास्वादयतीत्यवसेयमिति । शब्दश्रवणादयो जीवपरिणामा उक्ताः, तत्प्रस्तावात् तत्परिणामान्तराण्याह- 'दोही 'त्यादि, नव मूत्राणि सुगमानि, नवरम्, अवभासते - द्योतते देशेन खद्योतवत्, सर्वतः प्रदीपवत्, अथवा अवभासते - जानाति स च देशतः फडकावधिज्ञानी सर्वतोऽभ्यन्तरावधिरिति १, 'एव'मिति देशसवीभ्यां प्रभासते - प्रकर्षेण द्योतते २ विकरोति देशेन हस्तादेवै क्रियकरणेन, सर्वेण सव्र्व्वस्यैव
सू०८० ।
॥७०॥
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सु०८०।
श्रीस्थामाङ्ग
सूत्रदीपिद्वा वृत्तिः ।
७१॥
कायस्येति ३, परियारेह'त्ति मथुन सेवते देशेन मनोयोगादीनामन्यतमेन सर्वेण योगत्रयेणापि ४, भाषां भाषते देशेन जिहाग्रादिना, सर्वेण मस्तकताल्वादिस्थानः ५, आहारयति देशेन मुखमात्रेण सर्वेण ओजआहारापेक्षया ६, आहारमेव परिणमयति-परिणाम नयति खलरसविभागेनेति भक्ताशयदेशस्य प्लीहादिना रुद्धत्वाद् देशतः अन्यथा तु सर्वतः ७, वेदयति-अनुभवति, देशेन हस्तादिना अवयवेन सर्वेण सर्वावयवैराहारसत्कान् परिणमितपुद्गलान् इष्टानिष्टपरिणामतः ८, निर्जरयति-त्यजत्याहरितान् परिणामितान् वेदितानाहारपुद्गलान् देशेनापानादिना सर्वेण सर्वशरीरेणैव प्रस्वेदवदिति ९ अथवैतानि चतुर्दशापि सूत्राणि विवक्षितवस्त्वपेक्षया नेयानि, तत्र देशसर्वयोजना यथा 'देशेनापी'ति देशतोऽपि शृणोति विवक्षितशब्दानां मध्ये कांश्चिच्छ्रणोतीति, 'सर्वेणापी ति | सर्वतश्च सामस्त्येन, सर्वाने वेत्यर्थः, एवं रूपादीनपि, तथा विवक्षितस्य देशं सर्व वा विवक्षितमत्रभासयति, एवं | प्रभासयति, एवं विकुर्वणीयं विकुरुते, परिचारणीयं स्त्रीशरीरादि परिचारयति, भाषणीयापेक्षया देशतो भाषां भाषते, सर्वतो वेति अभ्यवहार्यमाहारयति आहृतं परिणामयति, वेद्यं कर्म वेदयति देशतः सर्वतो वा, एवं निर्जरयत्यपि । देशसर्वाभ्यां सामान्यतः श्रवणायुक्तं विशेषविवक्षायां प्रधानत्वाद् देवानां तानाश्रित्य तदाह-'दोही त्यादि, एतदपि विवक्षितशब्दादिविषयापेक्षया सूत्रचतुर्दशकं ज्ञेयं देशतः सर्वतो वा । एतेऽनन्तरोक्ता भावाः शरीर एव सति सम्भवन्तीति देवानां च प्रधानत्वात् तेषामेव व्यक्तितः शरीरनिरूपणायाह-'मरुए'त्यादि सूत्राष्टकं कण्ठयं, नवरं, मरुतो देवा लोकान्तिकदेवविशेषाः, यत उक्तम्- "सारस्वता १ दित्य २ वहून्य ३ रुण ४ गर्दतोय ५-तुषिताऽ ६ व्यावाध ७ मरुतो ८ ऽरिष्टा ९ चेति" (तत्त्वा० अ० ४ सू० २६) ते चैकशरीरिणो विग्रहे कार्मणशरीर
॥७२॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥७२॥
त्वात् , तदनन्तरं वैक्रियसभावाद् द्विशरीरिणः द्वयोः शरीरयोः समाहारो द्विशरीरं तदस्ति येषां ते तथा,
सू०८१ अथवा भवधारणीयमेव यदा तदैकशरीरः यदा तूत्तरवैक्रियमपि तदा द्विशरीराः, किन्नराधास्त्रयो व्यन्तराः, शेषा भवनपतय इति, परिगणित भेदग्रहणं च भेदान्तरोपलक्षणं न तु व्यवच्छेदार्थ, सर्वजीवानामपि विग्रहे एकशरीर-14 त्वस्यान्यदा द्विशरीरत्वस्य चोपपद्यमानत्वादिति ८, अत एव सामान्यत आह–'देवा दुविहे'त्यादि कण्ठयम् , द्विस्थानकस्य द्वितीय उद्देशकः समाप्तः ॥
उक्तो द्वितीयोद्देशकः, अथ तृतीय आरभ्यते, अस्य चानन्तरेण सहाऽयमभिसम्बन्धः--अनन्तरोद्देशके जीवपदार्थोऽनेकधोक्तः, अत्र तु तदुपग्राहकपुद्गलजीवधर्मक्षेत्रद्रव्यलक्षणपदार्थप्ररूपणोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिमसूत्राष्टकम्--
दुविहे सद्द पंत-भासासद्दे चेव णोभासासद्दे चेव, भासास दुविहे पंत-अक्खरसद्दे (संबद्ध) चेव णोअक्खरसद्दे (संबद्धे) चेव, णोभासासद्दे दुविहे पंत-आउजसद्दे चेव णोआउज्जसह चेव; आउज्जलहे दुविहे पं० २०-तते चेव वितते चेव, तते दुधिहे पं० २०-घणे चेव झुसिरे चेव, एवं विततेऽवि, णोआउज्जसद्दे दुविहे पं००--भूसणसद्दे चेव णोभूसणसह चेव; णोभूसणसह दुविहे 40 त--तालसद्दे चेव लत्तियासह चेव. दोहि ठाणेहिं सद्दप्पाए सिया; त--साहन्न ताण चेव पुग्गलाण सदुप्पाए सिया भिज्ज ताण चेव पोग्गलाण सहप्पार सिया (सू०८१)
आदिसूत्रं 'दुनिहे'त्यादि अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः--इहानन्तरोद्देशकान्त्यसूत्रे देवानां शरीरं ml ॥७२॥ निरूपितं तद्वांश्च शब्दादिग्राहको भवतीत्यत्र शब्दस्तावनिरूप्यते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या, सा च सुकरैव, |
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सू०८२-८३॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र दीपिका वृत्तिः ।
॥७३॥
नवरं भाषाशब्दो भाषापर्याप्तिनामकर्मोदयापादितो जीवशब्दः इतरस्तु नोभापाशब्दः १, अक्षरसम्बद्धो-वर्णव्यक्तिमान् नोअक्षरसम्बद्धस्त्वितर इति २, आतोद्यं-पटहादि तस्य यः शब्दः स तथा, नोआतोद्यशब्दो वंशस्फोटादिरवः ३, ततं यत्तन्त्रीवर्धादिबद्धमातोघं ४, तच्च किश्चिद् घनं यथा पिञ्जनिकाति, किञ्चिच्छपिरं यथा वीणापटहादिकं तजनितः शब्दस्ततो घनः भुषिरश्चति व्यपदिश्यते ५, विततं ततविलक्षणं तन्त्र्यादिरहितं तदपि धनं भाणकवन शपिरं काहलादिवत तज्जः शब्दो विततो घनः शुपिरश्चेति, चतु:स्थानके पुनरिदमेवं भणिष्यते-'ततं वीणादिकं ज्ञेय, वित्तं पटहादिकम् । घनं तु काश्यतालादि, वंशादि, शुपिरं मतम् ॥१॥' इति, विवक्षाप्राधान्याच्च न विरोधो मन्तव्य इति ६, भूपणं नुपूरादि, नोभूषणं भूषणादन्यत् ७, तालो-हस्ततालः, 'लत्तिय'त्ति
कांसिकाःता हि आतोद्यत्वेन न विवक्षिता: ति, अथवा 'लत्तियासद्देत्ति पाणिप्रहारशब्दः ८॥ उक्ताः शब्दभेदाः, इत|स्तत्कारणनिरूपणायाह-'दोही'त्यादि, द्वाभ्यां स्थानाभ्यां' कारणाभ्यां शब्दोत्पादः स्याद्-भवेत् ८, 'संहन्यमानानां च' सघातमापद्यमानानां सतां कार्यभूतः शब्दोत्पादः स्यात्, पठनम्यर्थे वा षष्ठीति संहन्यमानेभ्य इत्यर्थः, पुदगलानां बादरपरिणामानां यथा घण्टालालयोः एवं भिद्यमानानां-वियोज्यमानानां च यथा वंशदलानामिति । पुदगलसरातभेदयोरेव कारणनिरूपणायाह
दोहि ठाणेहिं पोग्गला साहपण ति, त-सयं वा पोग्गला साहष्ण ति परेण या पोग्गला साहण्ण ति १। दोहि ठाणेहि पोग्गला भिजति, त-सयं वा जाव परेण या जाव २ एवं परिसडं ति परिसाडिजति ३, एवं परिवति ४ विसति ५। विहा पोगाला पंत-भिण्णा चेय अभिषणा चेव १, दुविहा पोग्गला पंत-भेउरेधम्मा चेव णोमेउरधम्मा चेव
॥७३॥
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भीस्थाना
२, दुविहा पोग्गला पं० त-परमाणुपोग्गला चेव णोपरमाणुपोग्गला चेव ३, दुधिहा पोग्गला पं०२०- सुहुमा चेव बायरा चेव ४, दुविहा पोग्गला पं०२०-बद्धपासपुट्ठा चेव णोबद्धपासपुठ्ठा चेव ५, दुविहा पोग्गला ६० त०-परियाइय च्चेव
सू०८२-८३ सूत्र दीपिका
अपरियाइय उचेव ६, दुविहा पोग्गला पंत-अत्ता चेव अणत्ता चेव ७, दुविहा पोग्गला पंत-इट्टा चेव अणिद्वा वृत्तिः । चेव ८, एवं कता ९पिया १० मणुण्णा ११ मणामा १२; (सू०८२) । दुविहा सद्दां पन्नत्ता. तं०-अत्ता चेव अणत्ता चेव
१ एवमिट्ठा जाव मणामा ६ । दुविहा रूवा पंत-अत्ता चेव अणत्ता चेव, जाव मणामा, एवं गंधा रसा फासा, 1.७४|
पर्व एक्केक्के छ आलावगा भाणियव्वा (सू०८३)।
दोही'त्यादि सूत्रपञ्चकं कण्ठयम् , नवरं 'स्वयं वेत्ति स्वभावेन वा अभ्रादिष्विव पुद्गलाः संहन्यन्तेसम्बध्यन्ते, कर्मकर्तृप्रयागोऽयं परेण वा-पुरुषादिना वा संहन्यन्ते-संहताः क्रियन्ते, कर्मप्रयोगोऽयमेवं भिद्यन्तेविघटन्ते, तथा परिपतन्ति पर्वतशिखरादेरिवेति, परिशटन्ति कुष्ठादेनिमित्तादङगुल्यादिवत् विध्वस्यन्ते-विनश्यन्ते घनपटलवदिति ५॥ पुद्गलानेव द्वादशसूत्र्या निरूपयन्नाह-'दुविहे'त्यादि, भिन्नाः-विघटिता इतरे त्वभिन्नाः १, स्वयमेव भिद्यते इति भिदुरं, भिदुरत्वं धर्मों येषां ते भिदुरधर्माणः अन्तर्भूतभावप्रत्ययोऽयं, प्रतिपक्षः प्रतीत एवेति, परमाश्च ते अणवश्चेति परमाणवः, नोपरमाणवः-स्कन्धाः, सूक्ष्मा:-येषां सूक्ष्मपरिणामः शीतोष्ण स्निग्धरूक्षलक्षणाः चत्वार एव स्पर्शाः ते च भाषादयः, बादरास्तु येषां बादरः परिणामः पञ्चादयश्च स्पर्शाः ते चौदारिकादयः ४, पार्श्वन स्पृष्टा देहत्वचा छुप्ता रेणुवत्पार्श्वस्पृष्टास्ततो बद्धाः-गाढतरं श्लिष्टाः तनौ तोयवत् पार्श्वस्पृष्टाश्च ते बद्धाश्चेति राजदन्तादित्वाद् बद्धपार्श्वस्पृष्टाः, आह च 'पुट्ठं रेणुं व तणुंमि बद्धमप्पीकयं पएसेहिति, एते च
॥७॥ HAI घाणेन्द्रियादिग्रहणगोचराः, यत उक्तम्-"पुटं सुणेइ सई, रूवं पुण पासइ अपुटं तु, गंधं रसं च फासं च, IA
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सू०८४
भीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
1७५॥
बद्धपटठं वियागरे ॥१॥" उभयपदनिषेधे श्रोत्रायविषयाश्चक्षुर्विषयाश्चेति, इयमिन्द्रियापेक्षया बद्धपार्श्वस्पृष्टता पुदगलानां व्याख्याता, एवं जीवप्रदेशापेक्षया परस्परापेक्षया च व्याख्येयेति ५, 'परियाइय'त्ति विवक्षितं पर्यायमतीताः पर्यायातीताः पर्यात्ता वा-सामस्त्यगृहीताः कर्मापुद्गलवत् , प्रतिषेधः मुज्ञानः ६, आत्ता:-गृहीताः स्वीकृता जीवेन परिग्रहमात्रतया शरीरादितया वा ७, इष्यन्ते स्म अर्थक्रियार्थिभिरितीष्टाः ८, कान्ताः-कमनीया विशिष्टवर्णाद्यक्ताः ९, प्रिया:-प्रीतिकरा इन्द्रियाह्लादकाः १०, मनसा ज्ञायन्ते शोभना एत इत्येवंविकल्पमुत्पादयन्तः शोभनत्वप्रकर्षाद् ये ते मनोज्ञाः ११, मनसो मता-वल्लभाः सर्वस्याप्युपभोक्तुः सर्वदा च शोभनत्वप्रकर्षादेव निरुक्तविधिना मणामा १२ इति, व्याख्यानान्तरं त्वेवं-इष्टाः-वल्लभाः सदैव जीवानां सामान्येन, कान्ता:-कमनीयाः सदैव तदभावेन, ग्रिया:-अद्वेष्याः सर्वेषामेव, मनोज्ञा:-मनोरमाः कथयाऽपि, मनआमा-मन:प्रियाश्चिन्तयाऽपीति, विपक्षः सुज्ञानः सर्वत्रेति.॥ पुद्गलाधिकारादेव तद्धर्मान् शब्दादीन् अनन्तरोक्तसविपर्ययात्तादिविशेषणषटकविशिष्टान् 'दुविहा सद्दे'त्यादिसूत्रत्रिंशताऽऽह-कण्ठया चेयमिति । उक्ताः पुदगलधर्माः, सम्प्रति धर्माधिकाराज्जीवधर्मानाह--
दुविहे आयारे ५० त०-णाणायारे चेष नोणाणायारे चेव १, णोणाणायारे दुविहे ५० त०-दसणायारे चेव णोदसणायारे चेव २ णोदसणायारे दुविहे पं० त०-चरित्तायारे चेव णोचरित्तायारे चेव ३, णोचरितायारे दुविहे पंत-तवायारे चेव वीरियायारे चेव ४। दो पडिमाओ पंत-समाहिपडिमा चेव उवहाणपडिमा चेव १, दोपडिमाओ पंत-विवेगपडिमा चेव विउस्सग्गपडिमा चेव २, दो पडिमाओ पं० त०-भद्दा चेव सुभद्दा चेव ३, दो पडिमाओ पंत-महाभदा चेव सव्वओभद्दा चेव ४, दो पडिमाओ पंत-खुड्ड्यिा चेव मोयपहिमा महल्लिया
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॥७॥
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UL.
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श्रीस्थानाङ्ग सूत्र
दीपिकावृत्तिः ।
॥७६॥
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चैव मोयपडिमा ५. दो पडिमाओ पं० त० - जबमज्झे चेव चंदपडिमा बहरमज्झे चेव चंदपडिमा ६, दुबिहे सामाइप पं त० - अगारसामाइए चेव अणगारसामाइर चेव (सु०८४) ।
'दुविहे 'त्यादि सूत्रचतुष्टयं कण्ठ्ये, नवरं आचरणमाचारी व्यवहारो ज्ञानं श्रुतज्ञानं तद्विषय आचारः कालादिरष्टविधो ज्ञानाचारः, उक्तं च “काले विणये बहुमाणे, उवहाणे व तह अनिन्दवणे । बंजण अत्थ तदुभये, fast नाणमाया ||१|| "त्ति, नोज्ञानाचारः - एतद्विलक्षणो दर्शनाचार इति, दर्शनं - सम्यक्त्वं तदाचारो निःशकितादिरष्टविध एव, आह च - "निस्संकिय निकंखिय, निव्वितिगिच्छा अमूढदिही या उबवूह थिरीकरणे, वच्छ भावणे अ || २ || "त्ति, नोदर्शनाचारश्चारित्रादिरिति, चारित्राचारः समितिगुप्तिरूपोऽष्टधा आह च"पणिहाणजोगजुत्तो, पंचहि समिईहि तीहिं गुत्तीहि । एस चरित्तायारो, अट्टविहो होइ नायव्वो ||२||"त्ति, नोचारित्राचारस्तपआचारप्रभृतिः, तत्र तपआचारो द्वादशधा, उक्तं च-- “बारसविहंमि वि तवे, सब्भिंतरवाहिरे कुसलदिट्ठे । अगिलाए अणाजीवी, नायव्यो सो तवायारो || ४ || "त्ति, वीर्याचारस्तु ज्ञानादिष्वेव शक्तेरगोपनं तदनतिक्रमश्चेति, उक्तं च-- “ अणि गूहियवलविरिओ, परकमर जो जहुत्तमाउत्तो । जुजइ य जहाथामं, नायव्वो वीरियायारो ||५|| "त्ति, अथ वीर्याचारस्यैव विशेषाभिधानाय पसूत्रीमाह - 'दो पडिमे 'त्यादि, प्रतिमा प्रतिपत्तिः प्रतिज्ञेतियावत्, समाधानं समाधिः - प्रशस्तभावलक्षणः तस्य प्रतिमा समाधिप्रतिमा दशाश्रुतस्कन्धोक्ता द्विभेदा- श्रुतसमाधिप्रतिमा सामायिकादिचारित्रसमाधिप्रतिमा च, उपधानं तपस्तत्प्रतिमोपधानप्रतिमा द्वादश भिक्षुप्रतिमा एकादशोपासकप्रतिमाश्चेत्येवंरूपेति । विवेचनं विवेक:- त्यागः स चान्तराणां कपायादीनां बाह्यानां गणशरीरभक्तपाना
सु०८४ ।
॥७६॥
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श्रीस्थाना
सूत्र दीपिका वृत्तिः ।
॥७॥
दीनामनुचितानां तत्प्रतिपत्तिविवेकप्रतिमा, व्युत्सर्गप्रतिमा-कायोत्सर्गकरण मेवेति, भद्रा-पूर्वादिदिक्चतुष्टये प्रत्येक प्रहरचतपयकायोत्सर्गकरणरूपा अहोरात्रद्वयमानेति, सुभद्राऽप्येवकारैव सम्भाव्यते, अदृष्टत्वेन तु नोक्तेति, महाभद्राऽपि तथैव, नवरमहोरात्रकायोत्सर्गरूपा अहोरात्रचतुष्टयमाना, सर्वतोभद्रा तु दशसु दिक्षु प्रत्येकमहोरात्रकायोत्सर्गरूपा अहोरात्रदशकप्रमाणेति, मोकप्रतिमा-प्रस्रवणप्रतिमा, सा च कालभेदेन क्षुद्रिका महती च भवतीति, यत उक्तं व्यवहारे-"खुड्डियं णं मोयपडिमं पडिवण्णस्से"त्यादि, इयं च द्रव्यतः प्रखवणविषया, क्षेत्रतो ग्रामादेवहिः, कालतः शरदि निदाचे वा प्रतिपद्यते, भुक्त्वा चेत् प्रतिपद्यते चतुर्दशभक्तेन समाप्यते, अभुक्त्वा तु षोडशभक्तेन, भावतस्तु दिव्याद्यपसगसहनमिति, एवं महत्यपि, नवरं भुक्त्वा चेत् प्रतिपद्यते षोडशभक्तेन समाप्यते अन्यथा त्वष्टादशभक्तेनेति, यवस्येव मध्यं यस्याः सा यवमध्या, चन्द्र इव कलावृद्धि हानिभ्यां या प्रतिमा सा चन्द्रप्रतिमा, तथाहि-शुक्लप्रतिपदि एकं कवलमभ्यवहृत्य ततः प्रतिदिनं कवलवृद्धया पञ्चदश पौर्णमास्यां कृष्णप्रतिपदि च पञ्चदश भुक्त्वा प्रतिदिनमेकैकहान्याऽसावास्यायामेकमेव यस्यां भुङ्क्ते सा यवमध्या चन्द्रप्रतिमेति, एवं भिक्षादावपि वाच्यमिति ॥ प्रतिमाश्च सामायिकवतामेव भवन्तीति सामायिकमाह-'दुविहे' इत्यादि, समानां-ज्ञानादीनामायो-लाभः समायः स एव सामायिकमिति, तद् द्विविधम्-अगारवदनगारस्वामिभेदाद, देशसर्वविरती इत्यर्थः॥ जीवधर्माधिकार एव तद्धर्मान्तराणि आह
दोण्ह उववाए ५० त०-देवाण चेव नेरइयाण चेव १, दोण्ह उव्वट्टणा पं० त०-णेरेयाण चेव भवणवासीण चेव २ दोण्ह चयणे ६० त-जोइसियाण चेव वेमाणियाण चेव ३ दोण्ह गम्भवक ती ५० त० मणुस्साण चेव
||७७॥
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श्रीस्थानात
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
|७८॥
पंचिदियतिरिक्खजोणियाण चेव ४ दोण्ह गम्भत्थाण आहारे ५००-मणुस्साण चेव पबिंदियतिरिक्खजोणियाण चेव ५ दोण्ह गम्भत्थाण वुड्ढी पं० २०-मणुस्साण चेव पंचिदियतिरिकूखजोणियाण व ६ एवं णिबुड्ढी ७ विगुब्वणा ८ गइपरियाए ९ समग्माण १०कालसजोगे ११ आयाए (पा आयाती) १२ मरणे १३, दोण्ह छविपव्वा ५० त-मणुस्साण चेव पंचिदियतिरिक्खजोणियाण चेव १४, दो सुक्कसोणियसंभवा पंत-मगुस्सा चेव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया चेव १५, दुविहा ठिई ५००-कायट्टिई चेव भवट्टिई चेव १६, दोण्डं कायट्टिई पंत-मणुस्साण चेव पंचिंदियतिरिक्ख जोणियाण चेव १७, दोण्ह भवढिई ५० त०-देवाण चेव रइयाण व १८, दुविहे आउए पं०२०-अद्धाउप चेच भवाउए चेव १९, दोण्ह अद्धाउए ५००-मणुस्साणचेव पंचिदियतिरिक्खजोणियाण चेव २०, दोण्ह भवाउए पं० त०-देवाण चेव णेरइयाण चेव २१, दुविहे कम्मे पं००-पएसकम्मे चेव अणुभावकम्मे चेव २२, दो अहाउय पालयति -देवा चेव णेरड्या चेव २३, दोण्ह आउयस वट्टए पंत-मणुस्साण चेव पंचे दियतिरिक्खजोणियाण चेव २४ (सू०८५) ।
सुगमानि चैतानि नवरं 'दोण्हंति द्वयोर्जीवस्थानकयोरुपपतनमुपपातो-गर्भसंमूर्छनलक्षणजन्मप्रकारद्वयविलक्षणो जन्मविशेष इति, दीव्यन्ति इति देवा:-चतुनिकायाः सुरा नैरयिकाः प्राग्वत् तेषाम् १, उद्वर्तनमुद्वर्तना तत्कायान्निगेमो मरणमित्यर्थः, तच्च नैरयिकभवनवासिनामवैवं व्यपदिश्यते, अन्येषां तु मरणमेवेति, नैरयिकाणां-नारकाणां तथा भवनेष्वधोलोकदेवावासविशेषेषु वस्तुं शीलमेषामिति भवनवासिनस्तेषाम् २, च्युतिश्चवनं मरणमित्यर्थः तच्च ज्योतिष्कवैमानिकानामेव व्यपदिश्यते, ज्योतिष्षु-नक्षत्रेषु भवा ज्योतिष्काः, शब्दव्युत्पत्तिरेवेयं, प्रवृत्तिनिमित्ताश्रयणात्त चन्द्रादयो ज्योतिष्का इति, विमानेषु-ऊर्ध्वलोकवत्तिषु भवा वैमानिकाः सौधर्मादिनिवासिनस्तेषाम
॥७८॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका
वृत्तिः ।
॥७९॥
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३, गर्भे - गर्भाशये व्युत्क्रान्तिरुत्पत्ति-गव्युत्क्रान्ति:, मनोरपत्यानि मनुष्यास्तेषां तिरोऽञ्चन्ति गच्छन्तीति तिर्यञ्चस्तेषां सम्बन्धिनी योनिरुत्पत्तिस्थानं येषां ते तिर्यग्योनिकाः, ते चैकेन्द्रियादयोऽपि भवन्तीति विशिष्यन्ते - पञ्चेन्द्रियाश्च तिर्यग्योनिकाश्चेति पञ्चेन्द्रियतियंग्योनिकास्तेषाम् ४, तथा तयोरेव गर्भस्थयोराहारोऽन्येषां गर्भस्यैवाभावादिति ५, वृद्धि: - शरीरोपचयः ६, निवृद्धिस्तद्धानिर्वातपित्तादिभिः, 'निशब्दस्याभावार्थत्वात् निवरा कन्येत्या' दिवत् ७. वैक्रियलब्धतां विकुर्वणा, गतिपर्यायश्चलनं मृत्या वा गत्यन्तरगमनलक्षणः, यच्च वैनियलब्धिमान् गर्भान्निर्गत्य प्रदेशतो बहिः सङ्ग्रामयति स वा गतिपर्यायः, उक्तं च भगवत्यां - 'जीवेण भंते ! गन्भगए समाणे णेरइएमु उववज्जेज्जा ?, गोयमा !, अत्थेगइए उववज्जेजा अगइए नो उबवज्जेज्जा, से केणद्वेण गोयमा ! सेणं सनी पंचिदिए सव्वाहि पज्जतीहि पज्जत्तए वीरियलद्धीए बिउब्वियलद्धीए पराणीयं आगयं सोच्चा णिसम्म पएस णिच्छुब्भइ२ वेउव्वसमुग्धारणं समोहणइ चाउरंगिथि सेणं विउन्नइ२ चाउरंगिणीए सेणाए पराणीपण सद्धिं संगामं संगामेइ” इत्यादि ९, समुद्घातो मारणान्तिकादिः १०, कालसंयोगः - कालकृतावस्था ११, आयातिः - र्भान्निर्गमो १२, मरणं - प्राणत्यागः १३ 'दोन्हं छविपव्य'ति द्वयानाम् उभयेषां 'छवि' त्ति मतुब्लोपाच्छविमन्ति-सम्बन्ति 'पव्य'त्ति पर्वाणि सन्धिबन्धानि छविर्वाणि कचित् 'हवियत्त'त्ति पाठः तत्र छवियोगाच्छविः स एव छविकः स चासो 'अत्त'ति आत्मा च शरीरं छविकात्मेति, गर्भस्थानामिति सर्वत्र सम्बन्धनीयम् १४, 'दो मुक्के'त्यादि, द्वयोः शुक्रं -रेतः शोणितम्–आर्त्तवं ताभ्यां सम्भवो येषां ते तथा १५, 'काय हिति' ति काये - निकाये पृथिव्यादिसामान्यरूपेण स्थितिः कार्यस्थितिः असङ्ख्योत्सर्पिण्यादिका, भवे भवस्वरूपा वा स्थितिः भवस्थितिर्भवकाल इत्यर्थ १६, 'दोहं'ति
सु०८५ ।
॥७९॥
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सू०८५ ।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
11001
द्वयानामुभयेषामित्यर्थः, कायस्थितिः सप्ताष्टभवग्रहणरूपा, पृथिव्यादीनामपि साऽस्ति, न चानेन तदव्यवच्छेदः, अयोगव्यवच्छेदपरत्वात् सूत्राणामिति १७, 'दोहे'त्यादि देवनारकाणां भवस्थितिरेव, देवादेः पुनर्देवादित्वेनानुत्पत्तरिति १८ 'दुविहे' इत्यादि, अद्धा-कालः तत्प्रधानमायु:-कर्मविशेषोऽद्धायुः, भवात्ययेऽपि कालान्तरानुगामीत्यर्थो, यथा मनुष्यायुः कस्यापि भवात्यय एव नापगच्छत्यपि तु सप्ताष्टभवमानं कालमुलतोऽनुवर्तत इति, तथा भवप्रधानमायुभवायुः, यद् भवात्यये अपगच्छत्येव न कालान्तरमुपयाति, यथा देवायुरिति १९, 'दोण्ह'-5 मित्यादि सूत्रद्वयं भावितार्थमेव २०-२१, 'दुविहे कम्मे त्ति, प्रदेशा एव-पुद्गला एव यस्य वेद्यन्ते न यथाबद्धो रसस्तत्प्रदेशमात्रतया वेद्य कर्म, यस्य त्वनुभावो यथाबद्धरसो वेद्यते तदनुभावतो वेद्यं कर्मानुभावकर्मेति२२, 'दो' इत्यादि, यथावद्धमायुयथायुः पालयन्ति-अनुभवन्ति नोपक्रम्यते तदिति,-"देवा नेरइयावि य, असंखवासाउया य तिरिमणुया। उत्तमपुरिसा य तहा, चरमसरीरा य निरुवकमा ॥१॥” इति वचने सत्यपि देवनारकयोरेवेह भणनं द्विस्थानकानुरोधादिति २३, दोण्ड'मित्यादि, संवर्तनमपवर्तनं संवतः, स एव संवर्तकः, उपक्रम इत्यर्थः, आयुषः संवर्तकः आयुःसंवर्तक इति २४ । पर्यायाधिकारादेव नियतक्षेत्राश्रयित्वात् क्षेत्रव्यपदेश्यान् पुदगलपर्यायानभिधित्सुः 'जंबुद्दीवे' इत्यादिना क्षेत्रप्रकरणमाह
१ मनुयाति पाठा०।
॥८
॥
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STA
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥८१॥
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जंबृद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेण दो वासा पं० त० - बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अन्नमन्न नातिवति आयामविक्ख भस ठाणपरिणाहेणं तं भरहे चेव परवर चेव, एवमेपणम हिलावेण नेयव्वं, हिमवए चेव रण्णव चेव, हरिवरिसे चेव रम्मए चेव, जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्त पव्त्रयस्स पुरित्थिमपच्चत्थिमेण देा खेत्ता पं०त०बहुसमतुल्ला अविसेस जाय पुण्यविदेहे चेव अधरविदेहे चेव, जंबूमंदरस्स पञ्चग्रस्त उत्तरदाहिणेण दा कुराओ पं०त०बहुमतुलाओ जाव देवकुरा चेव उत्तरकुरा चेव, तत्थ णं दो महइमहालया महादुमा पं० त०- बहुसमतुल्ला अविसमणाणत्ता अण्णमण्णं णाइवति आयामचिक्ख भुच्च त्तोवेहस ठाणपरिणाहेण त० - कूडसामली चेव जंबू चेव सुदंसणा । तत्था देवा महिड्डिया जाव महासोक्खा पलिओवर्माडिइया परिवसन्ति त०- गरुले चेव वेणुदेवे अणादिप चैव जंबूद्दीवाहिवई (सू०८६) ।
'जंबू'त्ति सुगमं चैतत्, नवरमिह जम्बूद्वीपप्रकरणं, परिपूर्णचन्द्रमण्डलाकारं जम्बूद्वीपं तन्मध्ये मेरुमुत्तरदक्षिणतः क्रमेण वर्षाणि च स्थापयित्वा तद्यथा- 'भरहं हेमवयंति य, हरिवासंति य महाविदेहति । रम्मय हेरन्नवयं एरवयं चैव वासाई ||१||ति, तथा वर्षान्तरेषु वर्षपरपर्वतान् कल्पयित्वा तद्यथा - 'हिमवंत १ महाहिमवंत २, पन्चया निसढ ३ नीलवंता ४ य । रुप्पी ५ सिहरी ६ एए, वासहरगिरी मुणेयव्त्रा || १ ||' इति सर्व बोद्धव्यमिति । मन्दरस्य - मेरोः, उत्तरा च दक्षिणा च उत्तरदक्षिणे तयोरुत्तरदक्षिणयोरिति वाक्ये उत्तरदक्षिणेनेति स्याद्, एनप्रत्ययविधानादिति । द्वे वर्षे क्षेत्रे प्रज्ञप्ते जिनैः, समतुल्यशब्दः सदृशार्थः अत्यन्तं समतुल्ये बहुसमतुल्ये प्रमाणतोऽविशेषे - अविलक्षणे नगनगर नद्यादिकृतविशेषरहिते, अनानात्वे अवसर्पिण्यादिकृतायुरादिभावभेदवर्जिते, किमुक्तं भवतीत्याह- 'अन्योऽन्यं' परस्परं नातिवर्त्तते, इतरेतरं न लङ्घयत इत्यर्थः, कैरित्याह- 'आयामेन' देर्येण 'विष्कम्भेन' पृथुत्वेन 'संस्थानेन'
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०८६ ।
दीपिका वृत्ति
T૮રાઈ
आरोपितज्याधनुराकारेण 'परिणाहेन' परिधिनेति, इह च द्वन्द्वकवदभावः कार्य इति, तद्यथा, 'भरहे चेवेत्यादि, 'उत्तरदाहिणेणं ति, एतस्य पाठस्य यथासङ्ख्यन्यायानाश्रयणाद् यथासत्तिन्यायाश्रयणाच्च जम्बूद्वीपस्य दक्षिणे भागे भरतमाहिमवतः, तस्यैवोत्तरे भागे एरवतं शिखरिणः परत इति, 'एव' प्रिति भरतैरवतवत् 'एतेनाभिलापेन' 'जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स'त्यादिना उच्चारणेनापरसूत्रद्वयं वाच्यं, तयोश्चायं विशेष:-'हेमवए चेवे'त्यादि, तत्र हैमवतं दक्षिणतो हिमवन्महाहिलवतोर्मध्ये, हैरण्यवतमुत्तरतो रुक्मिशिखरिणोरन्तः, इरिवर्ष दक्षिणतो महाहिमनिषधयोरन्तः, रम्यकवर्ष चोत्तरतो नीलरुक्मिणोरन्तरिति । 'पुरथिमपच्चत्थिमेणं ति, पुरस्तात्-पूर्वस्यां दिशि पश्चात्-पश्चिमायामित्यर्थः, यथाक्रम, पूर्वश्चासौ विदेहश्चेति पूर्व विदेहः, एवमपरविदेह इति, एतेषां चायामादि ग्रन्थातरादवसेयमिति । 'जबू' इत्यादि, दक्षिणेन देवकुरवः उत्तरेण उत्तरकुरवः, तत्राद्या विद्यत्प्रभसौमनसाभिधानवक्षस्कारपर्वताभ्यां गजदन्ताकाराभ्यामावृताः, इतरे तु गन्धमादनमाल्यवद्ध्यामावृताः, उभये चामी अद्धचन्द्राकाराः दक्षिणोत्तरतो विस्तृताः, तत्प्रमाणं चेदम्-"अट्ठसया बायाला, एकारस सहस दो कलाओ य । विक्खंभो य (उत्तर)कुरूणं, तेवन्नसहस्स जीवा सि ॥१॥" पूर्वापरायामाश्चैता इति 'महमहालय'त्ति महान्तौ गुरू 'अतीति अत्यन्तं महसां-तेजसा महानां वा-उत्सवानामालयौ-आश्रयौ महाति-महालयौ वा समयभाषया महान्तावित्यर्थः, महामौ प्रशस्ततया आयामो-ट्रैय विष्कम्भो-विस्तारः उच्चत्वम्-उच्छ्यः उद्वेधो-भुवि प्रवेशः संस्थानम्-आकारः परिणाहः-परिधिरिति, तत्रानयोः प्रमाणम्-" रयणमया पुप्फफला, विक्खंभो अट्ट अट्ठ उच्चत्तं । जोयणमवेहो, खंधो दो जोयणुचोत्ति ॥१॥ दो जोयण (दो कोसे) विच्छिन्नो, विडिमा छज्जोयणाणि जंबूए । चाउद्दिसिंपि
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सू०८७॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका | वृत्तिः । ॥८३।।
साला, पुब्बिल्ले तत्थ सालंमि ॥१॥ भवणं कोसपमाणं, सयणिज्जं तत्थऽणाढियसुरस्स । तिमु पासाया सालासु, तेमु सीहासणा रम्मा ॥३॥"त्ति, शाल्मल्यामप्येवमेवेति, कूटाकारा-शिखराकारा शाल्मली कूटशाल्मलीति संज्ञा, मुष्ठ दर्शनमस्या इति सुदर्श नेतीयमपि संज्ञेति, 'तत्थति तयोर्महाद्वमयोः 'महे'त्यादि महती ऋद्धिरावासपरिवार| रत्नादिका ययोस्तौ महद्धिकौ, यावदग्रहणात् 'महज्जुइया महायसा महाबला महासोक्ख'ति, तत्र द्युतिः-शरीराभरणदीप्तिः अनुभाग:-अचिन्त्या शक्तिर्वक्रियकरणादिका यश:-ख्यातिः बल-सामर्थ्य शरीरस्य सौख्यमानन्दात्मकं, 'महेसक्खा' इति क्वचित्पाठः, महेशौ-महेश्वरावित्याख्या ययोस्तौ महेशाख्याविति, पल्योपमं यावत् स्थितिःआयुर्ययोस्तौ तथा । गरुड:-सुपर्णकुमारजातीयः वेणुदेवो नाम्ना, 'अणाढिउत्ति नाम्ना ॥
जंबूम दरस्स पव्वयम्स य उत्तरदाहिणेण दो वासहरपव्वया पं०-बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अण्णमाण णातिबट्ट ति आयामविक्व भुच्चत्तोब्वेहसं ठाणपरिणाहेण, त-चुल्लहिमव ते चेव सिहरी चेव, एवं महाहिमव ते चेव रूपिपच्चेव एवं णिसढे चेव णीलव ते चेव । ज बूम दरपव्वयस्स उत्तरदाहिणेण हेमवएरण्णषयवासेसु दो वट्टवेयड्ढपन्चया पंत-बहु समतुल्ला अविसेसमणाणत्ता जाव सद्दावाती चेव वियडावाती चेय; तत्थ ण दो देवा महिड्ढिया जाव पलिओवमद्वितीया परिवसति त-साती चेव पभासे चेव, जंबूम दरस्स उत्तरदाहिणेण हरिवासरम्मएसु वासेसु दो वट्टवेयड्ढपव्वया पं० त-बहुसम० जाच ग धावाती चेव मालवंतपरियाए चेव, तत्थ ण दो देवा महिइढिया जाव पलिओवमडिईया परिवसति. त० अरुणे चेव पउमे चेवः जबूमंदरपवयस्त दाहिणेण देवकुराए पुवावरे पासे एत्थ ण यासक्ख धगसरिसा अद्धचं दस ठाणस ठिया दो वक्खारपव्वया पंत-बहुसमा जाव सोमणसे चेव विज्जुप्पमे चेव, ज बूम दर० उत्तरेण उत्तरकुराए पुव्वावरे पासे एत्थ ण आसक्ख धगसरिसा अद्धच दस ठाणसठिया दो वक्खारपब्धया पतं०-बहु० जाव गंधमायणे चे मालव ते चेव, ज बूम दरपवयस्स उत्तरदाहिणेण दो दीदवेयडूढपव्वया
॥८॥
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सू०८७।।
श्रीस्थाना
सूत्र दीपिका वृत्तिः ।
॥८४॥
पत-बहुसमतुल्टा जाव भारहे चेव दीडधेयड्ढे एरावते चेव दीहवेयड्ढे, भारहए नंदीहवेयड्ढे दो गुहाओ पं०२०बहुसमतुल्लाओ अविसेसमणाणत्ताओ अण्णमण्ण णातिवेदृ ति भायाभविक्ख भुच्चत्त सठाणपरिणाहेणं, त-तिमिसगुहा चेव खंडपवाय गुहा चेव तत्थ ण दो देवा महिढिग जाव पलि भोवमद्वितिया परिवेस ति, तं-कयमालप चेव नट्टमालर चेव, परवा नदीहय इढे । गुहाओ पं० त०-कयमालए चेव हमालए चेव । जबूमदरस्स पब्वयस्स दाहिणेण चुल्लाहमवे ते वाराहरेपन्चए दो कूड़ा पं० त०-बहुसमतुल्ला जात्र विकख भुच्चत्तस ठाणपरिणाहेणं, तचुल्लहिमवंतकडे चेव वेलमणकृडे चेव, बूमदरदाहिणेण महाहिमवे ते वासहरपब्वए दो कडा पं० त०-बहुसमक जावे महामिव तकृडे चेव वेरुलियकृडे चेव, एवं णिसढे वासहरपब्वए दो कूडा पं० त०-बहुसमजाव णिसढकूडे चेवे रुयगप्पमे चेव । जबूम दर० उत्तरेण नीलबते वासहरपेवए दो कूड़ा पंत-बहुसम० जाव तं-णीलवंतकडे चेव उवेद सणकडे चेवे, एवं रुम्पिमि बोसहरपब्वेष दो कृडा पंत-बहुसमा जावत- रुप्पिकूडे चेव मणिकचणकूडे चेब, पवं सिहरिमि वासहरपव्वए दो कूडा पं० -बहुसम जावे तं- सिहरकूडे चेव तिर्गिच्छिकूडे चेव (सू० ८७)
'जंबू' इत्यादि, वर्ष-क्षेत्रविशेष धारयतो-व्यपस्थापयत इति वर्षधरौ, 'चुल्ले'त्ति महदपेक्षया लघुर्हिमवान् चुल्लहिमवान् भारतानन्तरः, शिखरी पुनयत्परमैरावतम्, तौ च पूर्वापरतो लवणसमुद्रावबद्धावायामतश्च 'चउवीसं सहस्साई, णव य सए जोयणाण बत्तीसे । चुल्लहिमवंतजीवा, आयामेणं कलद्धं च ॥१॥ एवं शिखरिणोऽपि, तथा भरतद्विगुणविस्तारौ योजनशतोच्छ्यौ पञ्चविंशति योजनावगाढौ आयतचतुररखसंस्थानसंस्थितौ, परिणाहस्तु तयोः .. पणयालीससहस्सा, सयभेगं नव य बारस कलाओ। अद्धं कलाए हिमवंत-परिरओ सिहरिणो चेवं ॥१॥"ति, ४५१०९ १२ १ 'एव 'मिति यथा हिमवच्छिखरिणौ 'जंबूद्दीवे 'त्यादिनाऽभिलापेनोक्ती
॥८४||
१९३८
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥८५॥
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एवं महाहिमवदादयोऽपीति, एषामायामादयो विशेषतः क्षेत्रसमासाद् अवसेयाः, 'जंबू' इत्यादि ' दो व वेयइढपञ्वय'त्ति, द्वौ वृत्तौ पल्याकारत्वाद् वैताढ्यौ नामतः तौ च तौ पर्वतौ चेति विग्रहः, सर्वतः सहस्रपरिमाण रजतमयौ, तत्र हैमवते शब्दापाती, उत्तरतस्तु ऐरण्यवते विकटापातीति, ' तत्थ 'ति तयोर्वृत्तवैताययोः क्रमेण स्वातिप्रभासौ देवौ वसतः तद्भवन भावादिति । एवं हरिवर्षे गन्धापाती रम्यग्वर्षे माल्यवत्पर्यायौ देवौ क्रमेणैवेति । प्रागिव व्याख्या 'जंबू ' इत्यादि ' पुब्वावरे पासे 'ति, पार्श्वशब्दस्य प्रत्येक सम्बन्धात् पूर्वपार्श्वे अपरपार्श्वे च किंभूते-' एल्थ 'त्ति प्रज्ञाप केनोपदर्श्यमाने क्रमेण सौमनसविद्युत्प्रभौ प्रज्ञप्ती, किंभूतौ ? -अवस्कन्धसदृशावादौ १ निमग्नौ पर्यवसान उन्नतौ यतो निषधसमीपे चतुःशतोच्छ्रितौ मेरुसमीपे तु पञ्चशतोच्छ्रिताविति, आह च - " वासहरगिरि तेण, रुंदा पंचेव जोयणसयाई । चत्तारि सउव्विद्धा, ओगाढा जोयणाण सयं ॥ १ ॥ पंचसए उब्विद्धा, ओगाढा पंच गाउयसयाई । अंगुल असंखभागो विच्छिन्ना मंदरंतेण ||२|| वक्रखारपव्वयाणं, आयामो. तीस जोयणसहस्सा । दोनि य सया नवहिया, छच्च कलाओ चउन्ह पि ॥३॥”त्ति, 'अवद्धचंद'त्ति अपकृष्टमर्द्ध चन्द्रस्यापार्द्धचन्द्रस्तस्य यत्संस्थानमाकारो गजदन्ताकृतिरित्यर्थः, तेन संस्थितावपार्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थितौ, अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिताविति क्वचित् पाठः, तत्रार्द्धशब्देन विभागमात्र विवक्ष्यते, न तु समप्रविभागतेति, ताभ्यां चार्द्धचन्द्राकारा देवकुरवः कृताः, अत एव वक्षाराकारक्षेत्रकारिणौ पर्वतौ वक्षारपर्वताविति । 'जंबू' इत्यादि तथैव, नवरम् अपरपार्श्वे गन्धमादनः पूर्वपार्श्वे माल्यवानिति ।
१ निम्नौ पाठा० !
सू० ८७ ।
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सू०८७।
श्रीस्थानाङ्गसूत्रदीपिका वृत्तिः ।
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'दो दीहवेयडूढ'त्ति, वृत्तवैतादयव्यवच्छेदार्थ दीर्घग्रहणं, वैताढयौ विजयवैताढयो वेति संस्कारः, तौ च भरतेरावतयोर्मध्यभागे पूर्वापरतो लवणोदधि स्पृष्टवन्तौ पञ्चविंशतियोजनोच्छूितौ तत्पादावगाढी पञ्चाशद्विस्तृत्तौ आयतसंस्थितौ सर्वराजतावुभयतो बहिः काञ्चनमण्डनाकाविति, "भारहए ण 'मित्यादि, वैताढयेऽपरतस्तमिस्रागुहा गिरिविस्तरायामा द्वादशयोजनविस्तारा अष्टयोजनोच्छ्या आयतचतुरस्रसंस्थाना विजयद्वारप्रमाणद्वारा वनकपाटपिहिता बहुमध्ये द्वियोजनान्तराभ्यां त्रियोजनविस्ताराभ्यामुन्मग्नजलानिमग्नजलाभिधानाभ्यां नदीभ्यां युक्ता, तद्वत् पूर्वतः खण्डप्रपातागुहेति 'तस्थ ण 'ति तयोः तमिस्रायां कृतमालक इतरस्यां नृत्तमालक इति । 'एरावए' इत्यादि तथैव । 'जंबू' इत्यादि, हिमवद्वर्षधरपर्व ते ह्येकादशकूटानि सिद्धायतन १ क्षुल्लहिमवत् २ भरत ३ इला ४ गङ्गा ५ श्री ६ रोहितांशा ७ सिन्धु ८ सुरा ९ हैमवत १० वैश्रमण ११ कूटाभिधानानि भवन्ति, पूर्वदिशि सिद्धायतनकूट, ततः क्रमेणापरतोऽन्यानि सर्वरत्नमयानि स्वनामदेवतास्थानानि पञ्चयोजनशतोच्छ्रयाणि तावदेव मूले विस्तृतानि उपरि तदर्द्धविस्तृतानि, आद्ये सिद्धायतनं पञ्चाशद्योजनायाम तदर्द्धविष्कम्भ पत्रिंशदुच्चम् अष्टयोजनायामैः चतुर्योजनविष्कम्भप्रवेशैः त्रिभिरि रुपेतं जिनप्रतिमाष्टोत्तरशतसमन्वित, शेषेषु प्रासादाः सार्द्धद्विषष्टियोजनोच्चास्तदर्द्धविस्तृतास्तनिवासिदेवतासिंहासनवन्त इति । इह तु प्रकृतनगनायकनिवासभूतत्वाद्देवनिवासभूतानां तेषां मध्ये आद्यत्वाच्च हिमवत्कूट गृहीत सर्वान्तिमत्वाच्च वैश्रवणकूटं द्विस्थानकानुरोधेनेति, आह च “ कत्थइ देसग्गहण, कत्थइ
00000000000000000000000000000000000000000000000000
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सू०८८1
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥८
॥
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घेपंति निरवसेसाई। उक्कमकमजुत्ताई, कारणवसओ निउत्ताई ॥१॥"ति, कूटसङ्ग्रहश्चाय-"वेयइह ९ मालवते ९, विज्जुप्पह ९ निसढ ९ नीलवं ते ९ य । नव नव कूडा भणिया, एक्कारस सिहरि ११ हिमवते ११ ॥१॥ रुप्पि ८ महाहिमवं ते ८, सोमणसे ७ गंधमायणनगे ७ य । अढ सत्त सत्त य, वक्खारगिरीमु चत्तारि ॥२॥"त्ति । 'जंबू' इत्यादि, महाहिमवति ह्यष्टौ कूटानि, सिद्ध १ महाहिमवत् २ हैमवत् ३ रोहिता ४ ही ५ हरिकान्ता ६ हरि ७ वैडूर्य ८कूटाभिधानानि, द्वयग्रहणे च कारणमुक्तमिति । 'एव 'मित्यादि, एवं करणात् 'जंबू' इत्यादिरभिलापो दृश्यः,, निषधवर्षधरपर्व ते हि सिद्ध १ निषध २ हरिवर्ष ३ प्राग्विदेह ४ हरि ५ धृति ६ शीतोदा ७ अपरविदेह ८ रुचकाख्यानि ९ स्वनामदेवतानि नव कूटानि, इहापि द्वितीयान्त्ययोग्रहण प्राग्वद् व्याख्येयमिति । नीलवद्वर्षधरपर्वते हि सिद्ध १ नील २ पूर्वविदेह ३ शीता ४ कीर्ति ५ नारीकान्ता ६ अपरविदेह ७ रम्यक ८ उपदर्शनाख्यानि नव कूटानि, इहापि द्वितीयान्त्यग्रहण प्राग्वदिति । ' एवं 'मित्यादि, रुक्मिवर्षधरे हि सिद्ध १ रुक्रिम २ रम्यक ३ नरकान्ता ४ बुद्धि ५ रूप्यकूला ६ हैरण्यवत् ७ मणिकाश्चनकूटाटख्यानि अष्ट कूटानि, द्वयाभिधानं च प्राग्वदिति । ' एवं 'मित्यादि, शिखरिणि हि वर्षधरे सिद्ध १ शिखरि २ हैरण्यवत ३. सुरादेवी ४ रता ५ लक्ष्मी ६ सुवर्णकूला ७ रक्तोदा ८ गन्धापाति ९ ऐरावत १० तिगिच्छिकूटा११ख्यानि एकादश कूटानि, इहापि द्वयोर्ग्रहण तथैवेति ।।
जंबूमंदर० उत्तरदाहिणणं चुलहिमवंतसिहरीसु वासहरपव्वपसु दो महद्दहा पं० त०-बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अण्णमण्णणाइवटृति, आयामविक्खंभउब्वेहसंठाणपरिणाहेण, सं०-पउमद्दहे चेव पोंडरीयदहे चेव, तत्थ णं
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सू०८८1
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
11८
॥
30000000000000000000000000000000000000000000000000000000
दो देवीओ महिड्ढियाओ जाव पलिओवमट्ठितियाओ परिवसंति, तं०-सिरी चेव, लच्छी चेव, एवं महाहिमवंतरुप्पीसु वासहरपन्वपसु दो महद्दहा पं०त बहुसमजाव त महापउमद्दहे चेव महापुंडरीयबहे चेव, दो देवीओ हिरिच्चेव बुद्धिच्चेव, एवं णिसढणीलवतेसु तिगिछिद्दहे चेव केसरिबहे चेव, देवताओ धिती चेव कित्ती चेव, जंबूमंदर दाहिणेण महाहिमवंताओ वासहरपब्वयाओ महापउमद्दहाओ दहाओ दो महाणदीओ पवहति, तं०-रोहियच्चेव हरिकंतच्चेव, एवं निसढाओ वासहरपब्वयाओ तिगिच्छिद्दहाओ दो महानईओ पं० त०-हरिच्चेव सीओयच्चेव, जंबूमंदर० उत्तरेण णीलवंताओ वासहरपव्वयाओ केसरिइहाओ दो महानईओ पवहति, तं०-सीता चेव णारिकता चेव, एवं रुप्पीओ वासहरपव्वयाओ महापोंडरीयद्दहाओ दो महानईओ पवहति, तं०-णरकता चेव रुप्पकूला चेव, जंबूमंदर० दाहिणेणं भारहे वासे दो पवायदहा पं० त-बहुसम०, त० गंगप्पवायदहे चेव सिंधुप्पवायदहे चेव । एवं हेमवए वासे दो पवायदहा पं० २०-बहुसम० त०-र हियप्पवायहहे चेव रोहियंसप्पवायद्दहे चेव, जंबूमंदर० दाहिणेण हरिवासे वासे दो पवायद्दहा पं० बहुसमतुल्ला जाव० त०-हरिप्पवायहहे व हरिकंतप्पवायहहे चेव, जंबूमंदरउत्तरदाहिणेण महाविदेहे वासे दो पवायदहा पं. बहुसम० जाव सीयप्पवायहहे चेव सीओयप्पवायहहे चेव, जंबूमंदरउत्तरेण रम्मए वासे दो पवायद्दहा पं० २०-बहुसम० जाव णरकंतप्पवायहहे चेव णारिकतप्पवायहहे चेव, एवं हेरण्णवप वासे दो पवायदहा पं० त०-बहुसम० सुवन्नकूलप्पवायहहे चेव रुप्पकूलप्पवायइहे चेव, जंबूमंदरउत्तरेण परवए वासे दो पवायदहा पं० बहुसम० जाव रत्तप्पवायद्दहे चेव रत्तावइप्पवायहहे चेव, जबूमंदरदाहिणेण भरहे वासे दो महानईओ पं० बहु० जाव गंगा चेव सिंधू चेव, एवं जधा पवातद्दहा एवंणईओ भाणियवाओ, जाव परवप वासे दो महानईओ पं०-बहुसमतुल्लाओ जाव रत्ता चेव रत्तवती चेव ॥ (सू० ८८)
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सू०८८
श्रीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
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100000000000000000000000000000000000000000000000000000000
'जम्बू' इत्यादि, इह च हिमवदादिषु षट्सु वर्षधरेषु क्रमेणैते पद्मादयः पडेव हृदाः, तद्यथा-"पउमे य महापउमे, तेगिच्छी केसरी दहे चेव । हरए महपुंडरीए, पुंडरीए चेव य दहाओ॥१॥" हिमवत उपरि बहुमध्यभागे पद्महूदः, एवं शिखरिणः पोण्डरीकः, तौ च पूर्वापरायतौ सहस्रं पञ्चशतविस्तृतौ चतुष्कोणौ दशयोजनावगाढौ रजतकूलौ वज्रमयपाषाणौ तपनीयतलौ सुवर्णमध्यरजतमणिवालुकौ चतुर्दशमणिसोपानौ शुभावतारौ तोरणध्वजच्छत्रादिभूषितौ नीलोत्पलपुण्डरीकादिचितौ विचित्रशकुनिमत्स्यविचरितौ षट्रपदपटलोपभोग्याविति । 'तत्थ 'ति, तयोर्महादयो₹ देवते परिवसतः, पद्महदे श्री: पोण्डरीके लक्ष्मीः , ते च भवनपतिनिकायाभ्यन्तरभूते, पल्योपमस्थितिकत्वाद, व्यन्तरदेवीनां हि पल्योपमार्द्धमेवायुरुत्कर्षतोऽपि भवतीति । शेष हुदायामादि सर्व वृत्तितो ज्ञेयम् । 'जम्बू' इत्यादि, तत्र रोहिन्नदी महापद्महदाइक्षिणतोरणेन निर्गत्य षोडश पञ्चोत्तराणि योजनशतानि सातिरेकाणि दक्षिणतो गिरिणा गत्वा हाराकारधारिणा सातिरेकयोजनद्विशतिकेन प्रपातेन मकरमुखप्रणालेन महाहिमवतो रोहिदभिधानकुण्डे निपतति, मकरमुखजिह्वा योजनमायामेन अर्द्धत्रयोदशयोजनानि विष्कम्भेन क्रोशं बाहल्येन, रोहित्प्रपातकुण्डाञ्च दक्षिणतोरणेन निर्गत्य हैमवतवर्षमध्यभागवतिनं शब्दापातिवृत्तवैताढयमयोजनमप्राप्ताष्टाविंशत्या नदीसहस्रः संयुज्याधो जगतीं विदार्य पूर्वतो लवणसमुद्रमतिगच्छतीति, रोहिन्नदी हि प्रवाहेऽर्द्धत्रयोदशयोजनविष्कम्भा क्रोशोद्वेधा ततः क्रमेण वर्द्धमाना मुखे पञ्चविंशत्यधिकयोजनशतविष्कम्भा सार्द्धद्वियोजनोद्वेधा, उभयतो वेदिकाभ्यां वनखण्डाभ्यां च युक्ता, एवं सर्वा महानद्यः पर्वताः कूटानि च वेदिकादियुक्तानीति, हरिकान्ता तु महापद्मदादेवोत्तरेण तोरणेन निर्गत्य पञ्चोत्तराणि पोडशशतानि सातिरेकाणि
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श्रीस्थानाङ्ग
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दीपिका वृत्तिः ।
112.011
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उत्तराभिमुखी पर्वतेन गत्वा सातिरेकयोजनशतद्वयप्रमाणेन प्रपातेन हरिकान्ताकुण्डे तथैव पति, मकरमुख जिद्दादिप्रमाण पूर्वोद्विगुणं ततः प्रपातकुण्डादुत्तरतोरणेन हरिवर्षमध्यभागवर्त्तिनं गन्धापातिवृत्तवैतादयं योजनेनासंप्राप्ता पश्चिमाभिमुखीभूय षट्पञ्चाशत्सरित्सहस्रैः समग्रा समुद्रमभिगच्छति, इयं च हरिकान्ता प्रमाणतो रोहिनदीतो द्विगुणेति । ' एवं 'मित्यादि, एवमिति 'जम्बुद्दीवे' त्याद्यभिलापसूचनार्थः । हरिन्महानदी तिगिञ्छिह'दस्य दक्षिणतोरणेन निर्गत्य सप्त योजनसहस्राणि चत्वारि चैकविंशत्यधिकानि योजनशतानि सातिरेकाणि दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा सातिरेकचतुर्योजनशतिकेन प्रपातेन हरिकुण्डे निपत्य पूर्वसमुद्रे प्रपतति शेष हरिकान्तासमानमिति । शीतोदामहानदी तिगिञ्छिदस्योत्तरतोरणेन निर्गत्य तावन्त्येव योजनसहस्राणि गिरिणा उत्तराभिमुखी गत्वा सातिरेकचतुर्योजनशतिकेन प्रपातेन शीतोदाकुण्डे निपततीति, जिद्दिका मकरमुखस्य चत्वारि योजनानि आयामेन पञ्चाशद्विष्कम्भेण योजन बाहल्येन, कुण्डादुत्तरतोरणेन निर्गत्य देवकुरून् विभजन्ती चित्रविचित्रकूट पर्वतौ निषधहूदादीञ्च पञ्च हदान् द्विधा कुर्वती चतुरशीत्या नदीसहस्रैरापूर्यमाणा भद्रशालवनमध्येन मेरु योजनद्वयेनाप्राप्ता प्रत्यङ्मुखी आवर्त्तमाना अधो विद्युत्प्रभ वक्षारपर्वत दारयित्वा मेरोरपरतोऽपरविदेहमध्यभागेन एकैकस्माद् विजयादष्टाविंशत्या अष्टाविंशत्या नदीसह त्रैरापूर्यमाणा अधो जयन्तद्वारस्य अपरसमुद्रं प्रविशतीति, शीतोदा हि प्रवाहे पञ्चाशद्योजनविष्कम्भा योजनोद्वेधा ततो मात्रया परिवर्द्धमाना मुखे पञ्चयोजनशतविष्कम्भा दशयोजनोद्वेधेति । 'जम्बू ' इत्यादि, शीता महानदी केसरिहदस्य दक्षिणतोरणेन निर्गत्य कुण्डे पतित्वा मेरोः पूर्वतः पूर्वविदेहमध्येन विजयद्वारस्याधः
सू० ८८ ।
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श्रीस्थानाङ्ग
| सू०८८।
दीपिका वृत्तिः ।
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पूर्वसमुद्रं शीतोदासमानशेषवक्तव्या प्रविशतीति । नारीकान्ता तु उत्तरतोरणेन निर्गत्य कुण्डे पतित्वा हरिन्महानदीसमानवक्तव्या रम्यकवर्षमध्येनापरसमुद्रं प्रविशतीति । 'एव'मित्यादि, नरकान्ता महापुण्डरीकहूदादक्षिणतोरणेन विनिर्गत्य रम्यकवर्ष विभजन्ती हरिकान्तातुल्यवक्तव्या पूर्वसमुद्रमधिगता । रूप्यकूला तु तस्यैवोत्तरतोरणेन निर्गत्य ऐरण्यवर्ष विभजन्ती रोहिनदीतुल्यवक्तव्या अपरसमुद्र गच्छतीति । 'जम्बू' इत्यादि, 'पवायदह 'त्ति प्रपतनं प्रपातस्तदुपलक्षितौ इदौ प्रपातहूदौ, इह यत्र हिमवदादे गाद् गङ्गादिका महानदी प्रणालेनाधो निपतति स प्रपातहूदः प्रपातकुण्डमित्यर्थः, 'गंगापवायदहे चेव 'त्ति हिमवद्वर्षधरपर्वतोपरिवर्तिपद्मइदस्य पूर्वतोरणेन निर्गत्य पूर्वाभिमुखी पञ्च योजनशतानि गत्वा गङ्गावर्तनकूटे आवृत्ता सती पञ्च त्रयोविंशत्यधिकानि योजनशतानि साधिकानि दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा गङ्गामहानदी अर्द्धयोजनायामया सक्रोशपइयोजनविष्कम्भयाऽर्धक्रोशबाहल्यया जिहिकया युक्तेन विवृतमहामकरमुखप्रणालेन सातिरेकयोजनशतिकेन मुक्तावलीकल्पेन यत्र प्रपतति यश्च पष्टियोजनायामविष्कम्भः किञ्चिन्यूननवत्युत्तरशतपरिक्षेपो दशयोजनोद्वेधो नानामणिनिबद्धः, यस्य च पूर्वापरदक्षिणामु त्रयस्त्रिसोपानप्रतिरूपकाः सविचित्रतोरणा मध्यभागे च गङ्गादेवीद्वीपोऽष्टयोजनायामविष्कम्भः सातिरेकपञ्चविंशतियोजनपरिक्षेपो जलान्ताद द्विक्रोशोच्छूितो वज्रमयो गङ्गादेवीभवनेन क्रोशायामेन तदर्द्धविष्कम्भेन किञ्चिन्यूनकोशोच्चेनानेकस्तम्भशतसन्निविष्टेनालङ्कृतोपरितनभागः, यतश्च दक्षिणतोरणेन निर्गत्य प्रवाहे सक्रोशपड़योजनविष्कम्भाऽर्द्धकोशोद्वेधा गङ्गा उत्तरभरतार्द्ध विभजन्ती सप्तभिनंदीसहस्ररापूर्यमाणा अधः पूर्वतः खण्डप्रपातगुहाया वैताढयपर्वतं विदार्य दक्षिणार्द्धभरत विभजन्ती तन्मध्यभागेन गत्वा पूर्वाभिमुखी आवृत्ता सती
-0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥२१॥
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श्रीस्थानाङ्ग
दीपिका वृत्तिः ।
॥२२॥
चतुर्दशभिनंदीसहस्रः समग्रा मुखे साईद्विषष्टियोजनविष्कम्भा सक्रोशयोजनोद्वेधा जगी विदार्य पूर्वलवणसमुद्र प्रविशति स गङ्गाप्रपातहदः, एतदनुसारेण सिन्धुप्रपातहदोऽपि व्याख्यातव्यः, अत एव एतौ बहुसमादिविशेषणावायामविष्कम्भोद्वेधपरिणाहैर्भावनीयाविति, सर्व एव प्रपातहदा दशयोजनोद्वेधा वक्तव्या इति । यच्चेह वर्षधरनद्यधिकारे गङ्गासिन्धुरोहितांशानां तथा सुवर्णकूलारक्तारक्तवतीनामनभिधान तद् विस्थानकानुरोधात् , तासां हि एकैकस्मात् पर्वतात् त्रयं त्रयं प्रबहतीति द्विस्थानके नावतार इति । 'एव'मित्यादि एवमिति प्राग्वत् 'रोहियप्पवायदहे चेव 'त्ति रोहिदुक्तस्वरूपा यत्र प्रपतति यश्च सविंशतिक योजनशतमायामविष्कम्भाभ्यां किञ्चिन्यूनाशीत्यधिकानि त्रीणि शतानि परिक्षेपेण, यस्य च मध्यभागे रोहिद्द्वीपः पोडशयोजनायामविष्कम्भः सातिरेकपश्चाशद्योजनपरिक्षेपः जलान्ताद् द्विक्रोशोचिठूतो यश्च रोहिदेवताभवनेन गङ्गादेवताभवनसमानेन विभूषितोपरितनभागः स रोहित्प्रपातहूद इति । 'रोहियंसप्पवायदहे चेव 'त्ति हिमवद्वर्षधरपर्वतोपरिवर्तिपद्मदोत्तरतोरणेन निर्गत्य रोहितांशा महानदी द्वे पट्सप्तत्युत्तरे योजनशते सातिरेकम् उत्तराभिमुखी पर्वतेन गत्वा योजनायामया अर्द्धत्रयोदशयोजनविष्कम्भया क्रोशबाहल्यया जिहिकया विवृतमकरमुखप्रणालेन हाराकारेण च सातिरेकयोजनशतिकेन प्रपातेन यत्र प्रपतति यश्च रोहित्प्रपातकुण्डसमानमानः यस्य च मध्ये रोहितांशाद्वीपो रोहिद्द्वीपसमानमानो रोहितांशाभवनेन प्रागुक्तमानेनालकृतः, यतश्च रोहितांशानदी रोहिन्नदीसमानमानोत्तरतोरणेन निर्गत्य पश्चिमसमुद्रं प्रविशति स रोहितांशाप्रपातहद इति । 'जम्बू'इत्यादि, 'हरिप्पवायदहे' इत्यादि सर्व वृत्तितो ज्ञेयं यावत् 'जह 'ति यथा पूर्व वर्षे २ द्वौ द्वौ प्रपातहृदावुक्तो एवं नद्यो वाच्याः , ताश्चैव-"गङ्गा १ सिंधू २
るるるるるるるるるるる?ややややややや???????????やるやるるるるるるるるるるる
॥२२॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥९३॥
तह रोहियंस ३, रोहीणई य ४ हरिकंता ५ । हरिसलिला ६ सीयोया ७, सत्तेया होंति दाहिणओ || १ || सीया १ य नारिकंता २, नरकंता ३ चैव रूप्पकूला य ४ । सलिला सुवण्णकूला ५, रत्तवती ६ र ७ उत्तरओ ||२||"त्ति । अथ जम्बूद्वीपाधिकारात् क्षेत्रधर्मव्यपदेश्य पुद्गलधर्माधिकाराच्च जम्बूद्वीपसम्बन्धि भरतादिसत्ककाललक्षणपर्यायधर्माननेकधाऽष्टादशसूत्र्याऽऽह
जंबूद्दीवे दीवे भरहेरवपसु वासेसु तीयाए उस्सप्पिणीए सुसमद्समाए समाए दो सागरोवमकोडाकोडीओ काले होत्था १, एवमिमीसे ओसप्पिणीए जाव पण्णत्ते २ आगमिस्साए उस्सप्पिणीप जाव भविस्सर ३, जंबूद्दीवे दीवे भररवसु वासेसु तीयाए उस्सप्पिणीए सुसमा समाए मणुया दो गाउयाई उड्ढ उच्चत्तेण होत्था ४, दो पलिओवमाइ परमाउय पालहत्था ५, एवं इमीसे ओसप्पिणीए जाव पालयित्था ६ एवं आगमिस्साए उस्सप्पिणीप जाव पालयिस्संति ७, जम्बू० भरहेरवण्सु वासेसु एगसमए एगजुगे दो अरिहंतव सा उप्पज्जिसु वा उप्पज्जंति वा उपज्जिस्संति वा ८, एवं चक्कवट्टिवंसा ९, दसारवंसा १०, जम्बू०भरहेरवपसु एगसमए दो अरहंता उप्पज्जिसु वा उपज्जति वा उपज्जिस्संति वा ११, एवं चक्कवट्टी १२, एवं बलदेवा एव ं वासुदेवा जाव उप्पज्जिसु वा उप्पज्जेति वा उपज्जिसति वा १३, जम्बू० दोसु कुरासु मणुया सया सुसमसुसमुत्तमिढि पत्ता पच्चणुभवमाणा विहरंति, त०देवकुराए चेव उत्तरकुराए चैव १४, जम्बूद्दीवे दीवे दोसु वासेसु मणुया सया सुसमुत्तमं इढि पत्ता पच्चणुब्भव. माणा विहरंति त० - हरिवासे चेव रम्मगवासे चेव १५, जम्बू० दोसु वासेसु मणुया सया सुसममुत्तममिढि पत्ता पच्चणुभवमाणा विहरंति त० - हेमवर चेव परण्णवण चेव १६, जम्बूद्दीवे दीवे दोसु खेत्तेसु मणुया सया दूसमसु सममुत्तममिडिंड पत्ता पच्चणुत्रभवमाणा विहरंति, त० - पुव्यविदेहे चेव अवरविदेहे चेव १७, जम्बू० दोसु वासेसु
सू० ८९ ।
॥९३॥
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सू० ८९॥
श्रीस्थानाङ्गसूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥२४॥
ఉరి వివరించి మంచి మంచి మంచి మంచి మంచి మంచి మంచి మంచి మంచి మంచి అవక
मगुया छब्बिईपि काल पच्चणुभवमाणा विहरंति, त-भरहे चेव एरवए चेव १८, (सू० ८९)
जम्बूद्दीवे 'त्यादि, सुगमानि चैतानि, नवरं तीताए 'त्ति अतीता या उत्सर्पिणी प्राग्वत् तस्यां तस्या वा सुषमदुष्पमाया:-बहुमुषमायाः कालविभागस्य चतुर्थारकलक्षणस्य 'कालो 'त्ति स्थितिः प्रमाण वा होत्थ'त्ति बभूवेति । ' एव 'मिति जम्बूद्वीप इत्यादि उच्चारणीयम् नरवं, 'इमीसे'त्ति अस्यां प्रत्यक्षायां वर्तमानायामित्यर्थः, अवसर्पिण्यामुक्तार्थायाम् , ' जाव'त्ति सुसमदू समाए समाए-तृतीयारक इत्यर्थः, 'दो सागरोवमकोडाकोडीओ काले' 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्त इति पूर्वसूत्राद्विशेषः, पूर्वसूत्रे हि होत्थ'त्ति भणितमिति । 'एव'मित्यादि 'आगमिस्साए'त्ति आगमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्यामिति भविष्यतीति पूर्वसूत्राद्विशेषः, 'जम्बू 'इत्यादि, सुषमायां पञ्चमारके 'होत्थ'त्ति वभूवुः, 'पालयित्थ'त्ति पालितवन्तः पूर्वसूत्राद्विशेषः पालयिष्यन्तीत्यपि । 'जम्बू 'इत्यादि, 'एगजुगे 'त्ति पञ्चाब्दिकः कालविशेषो युग तत्रैकस्मिन् तस्याप्येकस्मिन् समये 'एगसमए एकजुगे' इत्येवं पाठेऽपि व्याख्योक्तक्रमेणैव, इत्यमेवार्थसम्बन्धादन्यथा वा भावनीयेति । द्वावहतां वंशौ-प्रवाहावेको भरतप्रभवोऽन्य ऐवतप्रभव इति । 'दसार 'त्ति दसाराः-समयभाषया वासुदेवाः । 'जम्बू 'इत्यादि, सदा-सर्वदा 'सुसमसुसम 'त्ति प्रथमारकानुभागः सुषमसुषमा तस्याः सम्बन्धिनी या सा मुपममुपमैव तां उत्तमद्धि-प्रधानविभूतिम् उच्चस्त्वायुःकल्पवृक्षदत्तभोगोपभोगादिकां प्राप्ताः सन्तस्तामेव प्रत्यनुभवन्तो-वेदयन्तो न सत्तामात्रेणेत्यर्थः, अथवा सुषममुपमा-कालविशेष प्राप्ता-अधिगता उत्तमामृद्धिं प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति-आसत इति, अभिधीयते च-"दोसुवि कुरासु मणुया, तिपल्लपरमाउणो तिकोमुच्चा । पिट्ठकरंडसयाई, दोछप्पण्णाई मणु
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॥२४॥
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श्रीस्थानाङ्ग
दीपिका वृत्तिः ।
याणं ॥१॥ मुसमसुसमाणुभावं, अणुभवमाणाणऽवच्चगोवणया । अउणापनदिणाई, अट्ठमभत्तस्स आहारो ॥२॥ "त्ति, देवकुरवो दक्षिणा उत्तरकुरव उत्तरास्तेष्विति । 'जम्बू 'इत्यादि, 'मुसम'ति मुषमा द्वितीयारकानुभागः, शेषं तथैव, पठ्यते च-"हरिवासरम्मएमु, आउपमाण सरीरउस्सेहो । पलिओवमाणि दोन्नि उ, दोन्नि य कोसा समा भणिया ॥१॥ छट्ठस्स य आहारो, चउसहिदिणाणुपालणा तेसिं । पिद्विकरंडाण सयं, अट्ठावीस मुणेयव्यं ॥२॥"ति, 'जम्बू 'इत्यादि, 'सुसमदूसम 'ति सुषमदुःषमा तृतीयारकानुभागस्तस्या या सा सुषमदुःषमा ऋद्धिः, शेष तथैव, उच्यते च-“गाउयमुच्चा पलिओ-बमाउणो बजरिसहसंघयणा । हेमवएरन्नवए, अहमिदनरा मिहुणवासी ॥१॥ चउसद्विपिटिकर-डयाण मणुयाण तेसिमाहारो । भत्तस्स चउत्थस्स य, उणसीइदिणाणुपालणय ॥२॥" ति 'जम्बु'इत्यादि, 'दूसमसुसम ति दुष्पमसुपमा चतुर्थारकप्रतिभागस्तत्सम्बन्धिनी ऋद्धिः दुष्पममुपमैव, शेष तथैव, अधीयते च-"मणुयाण पुच्चकोडी, आउ पंचुस्सिया धणुसयाई । दुसमसुसमाणु भावं, अणुहोति नरा निययकाल ॥१॥" — जम्बुद्दीवे' इत्यादि, 'छब्विहंपि'त्ति सुषममुषमादिकम् उत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपमिति । अनन्तरं जम्बूद्वीपे काललक्षणद्रव्यपर्यायविशेषा उक्ताः, अधुना तु जम्बूद्वीप एव कालपदार्थव्यजकानां ज्योतिषां द्विस्थानकानुपातेन प्ररूपणामाह
जम्बूद्दीवे दीवे दो चंदा पभास्सुि वा पभासंति वा पभासिरसति वा, दो सूरिया तसुि वा तवैति वा तविस्संति वा, दो कत्तियाओ, दो रोहिणीओ, दो मगसिराओ, दो अदाओ, एवं भाणियवं, “कत्तियरोहिणिमगसिर-अद्दा य पुणव्यसू य पुस्सो य । तत्तोवि य अस्सलेसा, महा य दो फग्गुणीओ य ॥१॥ हत्थो चित्ता साई,
॥२५॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२६॥
विसाहा तह य होइ अणुराहा । जेट्टा भूलो पुव्वा य, आसाढा उत्तरा चेव ॥२॥ अभिईसवणधणिहा, सयभिसया दो य हुँति भद्दवया । रेवति अस्सिणि भरणी, णेयव्वा आणुपुव्वीए ॥३॥" एवं गाहाणुसारेण णेयव्व जाव दो भरणीओ । दो अग्गी दो पयावती दो सोमा दो रुद्दा दो अदिती दो बहस्सती दो सप्पी दो पीती दो भगा दो अज्जमा दो सविया दो तट्ठा दो वाऊ दो इंदग्गी दो मित्ता दो इंदा दो णिरती दो आऊ दो विस्सा दो बंभा दो विण्ह दो वसू दो वरुणा दो अया दो विविद्धी दो पुस्सा दो अस्सा दो जमा । दो इंगालगा दो वियालगा दो लोहितक्खा दो सणिस्सरा दो आहुणिया दो पाहुणिया दो कणा दो कणगा दो कणकणगा दो कणगविताणगा दो कणगसंताणगा दो सोमा दो साहिया दो आसासणा दो कज्जोवगा दो कब्बडगा दो अयकरगा दो दुंदुभगा दो संखा दो संखवन्ना दो संखवन्नाभा दो कसा दो कंसवन्ना दो कंसवन्नाभा दो रुप्पी दो रुप्पाभासा दो णीला दो णीलोभासा दो भासा दो भासरासी दो तिला दो तिलपुप्फवण्णा दो दगा दो दगपंचवन्ना दो काका दो कक्कंधा दो इंदग्गीवा दो धूमकेऊ दो हरी दो पिंगला दो बुद्धा दो सुक्का दो वहस्सती दो राहू दो अगत्थी दो माणवगा दो कासा दो फासा दो धुरा दो पमुहा दो वियडा दो विसंधी दो णियल्ला दो पल्ला दो जडियाएलगा दो अरुणा दो अग्गिल्ला दो काला दो महाकालगा दो सोत्थिया दो सोवत्थिया दो वद्धमाणगा दो पसूमाणगा दो अंकुसा दो पलंबा दो णिच्चालोया दो णिच्चुज्जोया दो सयपभा दो ओभासा दो सेय करा दो खेम करा दो आभकरा दो पभ करा दो अपराजिया दो अरया दो असोगा दो विगतसोगा दो विमुहा (विमला) दो वितत्ता दो वितत्था दो विसाला दो साला दो सुव्वता दो अणियट्टा दो एगजडी दो दुजडी दो करकरिगा दो रायग्गला दो पुप्फकेऊ दो भावकेऊ । (सू०९०)
000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥१६॥
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सू० ९०॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२७॥
00000000000000000000000000000000000000000000000000
"जम्बुद्दीवे' इत्यादि सूत्रद्वयं, 'पभासिसु वत्ति प्रभासितवन्तौ वा प्रकाशनीयमेवं प्रभासयतः प्रभासयिष्यतः, चन्द्रयोश्च सौम्यदीप्तिकत्वात् प्रभासनमात्रमुक्तम् , आदित्ययोश्च खररश्मित्वात् तापितवन्तौ वा एवं तापयतः तापयिष्यतः इति वस्तुतस्तापनमुक्तम् , अनेन कालत्रयप्रकाशनभणनेन सर्वकाल चन्द्रादिभावानामस्तित्वमुक्तम् , अत एवोच्यते-'न कदाचिदर्नादृश जगदिति । द्विसङ्ख्यत्वाच्चन्द्रयोस्तत्परिवारस्यापि द्वित्वमाह 'दो कत्तिए' इत्यादिना 'दो भावकेऊ 'इत्येतदवसानेन ग्रन्थेन, सुगमश्चाय, नवरं द्वे कृत्तिके नक्षत्रापेक्षया, न तु तारिकापेक्षयेत्येवं सर्वत्रेति, 'कत्तिए 'त्यादिगाथात्रयेण नक्षत्रसूत्रसङ्ग्रहः, कृत्तिकादीनामष्टाविंशतिनक्षत्राणां क्रमेणाग्न्यादयोऽष्टाविंशतिरेव देवता भवन्ति, ता आह-द्वावग्नी १ एवं प्रजापती २ सोमौ ३ रुद्रौ ४ अदिती ५ बृहस्पती ६ सप्पौं ७ पितरौ ८ भगौ ९ अर्यमणौ १० सवितारौ ११ त्वष्टारौ १२ वायू १३ इन्द्राग्नी १४ मित्रौ १५ इन्द्रौ १६ निर्ऋती १७ आपः १८ विश्वौ १९ ब्रह्माणौ २० विष्णू २१ व २२ वरुणौ २३ अजौ २४ विवृद्धी २५ ग्रन्थान्तरे अहिर्बुध्नायुक्तौ, पूषणौ २६ अश्विनौ २७, यमाविति २८, ग्रन्थान्तरे पुनरश्विनीत आरभ्यता एवमुक्ताः-"अश्वियमदहनकमलज-शशिशूलभृददितिजीवफणिपितरः । योन्यर्यमदिनकृत्त्वष्टपवनशक्राग्निमित्राख्याः ॥१॥ ऐन्द्रो निक्रतिस्तोय, विश्वो ब्रह्मा हरिर्वसुर्वरुणः । अजपादोहिर्बुध्नः, पूषा चेतीश्वरा भानाम् ॥२॥" अङ्गारकादयोऽष्टाशीतिग्रहाः सूत्रप्रसिद्धाः, केवलमस्मदृष्टपुस्तकेषु केषुचिदेव यथोक्तसङ्ख्या संवदतीति सूर्यप्रज्ञप्त्यनुसारेणासाविह संवादनीया, तथाहि-तत्सूत्रमित्यादि वृत्तितो ज्ञेयम् । जम्बूद्वीपाधिकारादेवेदमाह
॥२७॥
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హరి
श्रीस्थानाङ्ग
सू०१२।
सूत्रदीपिका
वृत्तिः ।
॥२८॥
హరించి శిశిశిశిశిశిశిశిశిరించి మరింత శాంతం
जम्बूद्दीवस्स ण दीवस्स वेइया दो गाउयाइ उद्ध उच्चत्तेण पन्नत्ता । लवणे ण समुद्दे दो जोयणसयसहस्साइ चक्कवालविक्खंमेण पन्नत्ते । लवणस्स ण समुदस्स वेइया दो गाउयाई उद्ध उच्चत्तेण पन्नत्ता । (सूत्र ९१) धायइसंडे दीवे पुरच्छिमद्धण' मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरदाहिणेण दो वासा पत्ता वहुसमतुल्ला जाव भरहे चेव परवए चेव, एवं जहा जम्बुद्दीवे तहा पत्थवि भाणियव्व जाव दोसु वासेसु मणुया छविहंपि काल पच्चणुभवमाणा विहरंति, त०-भरहे चेव एरवए चेव, णवरं कूडसामली चेव धायइरुक्खे चेव, देवा गरुले चेव वेणुदेवे सुदंसणे चेव, धायइसंडपच्चत्थिमद्धे ण भंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेण दो वासा पन्नत्ता, बहु० जाव भरहे चेव परवए चेव जाव छविहंपि काल पच्चणुभवमाणा विहरंति, णवर कूडसामली चेव महाधायईरुक्खे चेव, देवा गरुले चेव वेणुदेवे पियदसणे चेव, धायईसंडे ण दीवे दो भरहाई दो परवयाई दो हेमवयाई दो हेरन्नवयाई दो हरिवासाई दो रम्मगवासाई दो पुवविदेहाई दो अवरविदेहाई दो देवकुराओ दो देवकुरुमहद्दुमवासी देवा, दो उत्तरकुराओ दो उत्तरकुरुमदुमा दो उत्तरकुरुमहदुमवासी देवा दो चुलहिमवंता दो महाहिमवंता दो णिसढा दो णीलवंता दो रुप्पी दा सिहरी दो सद्दावाती दो सद्दावातवासी साती देवा देो वियडावाती दो वियडावाईवासी पभासा देवा दो गंधावाई दो गंधावाईवासी अरुणा देवा दो मालवंतपरियागा दो मालवंतपरियागावासी पउमा देवा दो मालवंता दो चित्तकूडा दो पम्हकूडा दो णलिणकूडा दो एगसेला दो तिकूडा दो वेसमणकूडा दो अंजणा दो मायंजणा दा सोमणसा दो विज्जुप्पभा दो अंकावई दो पम्हावई दो आसीविसा दो सुहावहा दो चंदपव्वया दो सूरपव्वया दो णागपव्वया दो देवपब्वया दो गंधमायणा दो उसुयारपव्वया, दो चुल्लहिमवंत कूडा दो वेसमणकूडा देो महाहिमवंतकूडा दो वेरुलियकूडा दो णिसढकृडा दो रुयगकूड़ा दो णीलवंतकूडा दो उवदंसणकूडा दो
000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥२८॥
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విరిచి
सू०९२
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥९
॥
పాశం శాంతి శాంతింగరించి వివరించి తిరిగి తిరిగి
रुष्पिकूडा दो मणिकंचणकूडा दो सिहरिकूडा दो तिगिछिकूडा, दो पउमद्दहा दो पउमद्दवासिणीओ सिरीओ देवीओ दो महापउमद्दहा दो महापउमद्दहवासिणीओ हिरीओ देवीओ एवं जाव दो पुंडरीयद्दहा दो पुंडरीयद्दहवासिणीओ लच्छीदेवीओ, दो गंगप्पवायदहा जाव दो रत्तावतिप्पवायदहा दो रोहियाओ जाव दो रुप्पकूलाओ, दो गाहावईओ दो दहबईओ दो पंकवतीओ दो तत्तजलाओ दो मत्तजलाओ दो उम्मत्तजलाओ दो खीरोदगाओ दो सीहसोयाओ दो अन्तोवाहिणीओ दो उम्मिमालिणीओ दो फेणमालिणीओ दो गंभीरमालिणीओ दो कच्छा दो सुकच्छा दो महाकच्छा दो कच्छगावती दो आवत्ता दो मंगलावत्ता दो पुषखला दो पुक्खलावई दो वच्छा दो सुवच्छा दो महावच्छा दो वच्छगावती दो रम्मा दो रम्मगा दो रमणिज्जा दो मंगलावती दो पम्हा दो सुपम्हा दो महापम्हा दो पम्हगावई दो संखा दो णलिणा दो कुमुदा दोणलिणावई दो वप्पा दो सुवप्पा दो महावप्पा दो वप्पगावई दो वग्गू दो सुवग्गू दो गंधिला दो गंधिलबई ३२, दो खेमाओ दो खेमापुरीओ दो रिट्ठाओ दो रिट्टपुरीओ दो खन्गीओ दो मंजूसाओ दो ओसहीओ दो पुंडरिगिणीओ दो सुसीमाओ दो कुंडलाओ दो अपराजियाओ दो पहंकराओ दो अंकावतीओ दो पम्हावतीओ दो सुभाओं दो रयणसंचयाओ दो आसपुराओ दो सिंहपुराओ दो महापुराओ दो विजयपुराओ दो अवराजियाओ दो अवराओं दो असोगाओ दो विगयसोगाओ दो विजयाओ दो वेजयंतीओ दो जयंतीओ दो अपराजियाओ दो चक्कपुराओ दो खगपुराओ दो अवज्झाओ दो अउज्झाओं ३२, दो भद्दसालवणा दो णंदणवणा दो सोमणसवणा दो पंडगवणा दो पंडुकंबलसिलाओ दो अइपंडुकंबलसिलाओ दो रत्तकंबलसिलाओ दो अइरत्तकंबलसिलाओं दो मंदरा दो मंदरचूलिया, धायइसंडस्स ण दीवस्स वेश्याओ दो गाउयाई उड्ढ उच्चत्तेण पन्नत्ता । (सूत्र' ९२) कालोदस्सण समुद्दस्स वेइया दो गाउयाई उडूढ उच्चत्तेण पन्नत्ता। पुक्खरवरदीवाढपुर
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5-0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥९
॥
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सू० ९३।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१०॥
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च्छिमणि भंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेण दो वासा पं०-बहुसमतुल्ला जाव भरहे चेव परवए थेव, तहेव जाच दो कुराओ देवकुरा चेव उत्तरकुरा चेव, तत्थ ण दो महइमहालया महद्दुमा पं० तं०-कूडसामली चेव पउमरुक्खे चेव, जाव छव्विहंपि काल पच्चणुभवमाणा विहरति । पुक्खरवरदीवाढपच्चत्थिमद्धे ण मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेण दो वासा पण्णत्ता तं-तहेव णाणत्त कूडसामली चेव महापउमरुक्खे चेव, देवा गरुले चेव वेणुदेवे पुंडरीए चेव, पुक्खरवरदीवड्ढे ण दीवे दो भरहाई दो एरवयाई जाव दो मंदरा दो मंदरचूलियाओं, पुक्खरवरस्स ण दीवस्स वेइया दो गाउयाई उड्ढमुच्चत्तेण पन्नत्ता, सव्वेसिपि ण दीवसमुद्दाण वेदियाओ दो गाउयाई उड्ढमुच्चत्तेण पण्णत्ताओ (सू० ९३)
'जंबू 'इत्यादि कण्ठय, नवरं वज्रमय्याः अष्टयोजनोच्छ्रायायाः चतुर्दादशोपर्यधोविस्तृताया जम्बूद्वीपनगरप्राकारकल्पाया जगत्या द्विगव्य॒तोच्छ्रितेन पञ्चधनुःशतविस्तृतेन नानारत्नमयेन जालकटकेन परिक्षिप्ताया उपरि वेदिकेति पद्मवरवेदिकेत्यर्थः, पञ्चधनु शतविस्तीर्णा गवाक्षहेमकिङ्किणीघण्टायुक्ता देवानामासनशयनमोहनविविधक्रीडास्थानमुभयतो वनखण्डवतीति ॥ जम्बूद्वीपवक्तव्यतानन्तरं तदनन्तरत्वादेव लवणसमुद्रवक्तव्यतामाह'लवणे णमित्यादि कण्ठय, नवरम् , चक्रवालस्य-मण्डलस्य विष्कम्भः-पृथुत्वं चक्रवालविष्कम्भस्तेनेति, समुद्रवेदिकासूत्र जम्बूद्वीपवेदिकासूत्रवद्ववाच्यमिति । क्षेत्रप्रस्तावाल्लवणसमुद्रवक्तव्यतानन्तरं धातकीखण्डवक्तव्यता 'धायइसंडे दीवे' इत्यादिना वेदिकासूत्रान्तेन ग्रन्थेनाऽऽह-कण्ठ्यश्चाय, नवरं धातकीखण्डप्रकरणमपि जम्बूद्वीपलवणसमुद्रमध्यं वलयाकृति धातकीखण्डमालिख्य हिमवदादिवर्षधरान् जम्बूद्वीपानुसारणैवोभयतः पूर्वापरविभागेन भरतहैमवतादिवर्षाणि च व्यवस्थाप्य पूर्वापरदिशोर्वलयविष्कम्भमध्ये मेरुं च कल्पयित्वाऽवबोद्धव्यम् । अनेनैव
0000000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥१०॥
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सू० ९३।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१०॥
1000000000000000000000000000000000000000000000000000000004
क्रमेण पुष्करवरद्वीपार्द्धप्रकरणमपीति । तत्र धातकीनां-वृक्षविशेषाणां खण्डो वनसमूह इत्यर्थों धातकीखण्डस्तद्युक्तो यो द्वीपः स धातकीखण्ड एवोच्यते, यथा दण्ड योगाद्दण्ड इति, धातकीखण्डश्चासौ द्वीपश्चेति धातकीखण्डद्वीपः तस्य 'पुरच्छिम'ति पौरस्त्यं पूर्वमित्यर्थों यदर्द्ध-विभागस्तद्धातकीखण्डद्वीपपौरस्त्याई, पूर्वापरार्द्धता च लवणसमुद्रवेदिकातो दक्षिणत उत्तरतश्च धातकीखण्डवेदिकां यावद् गताभ्यामिषुकारपर्वताभ्यां धातकीखण्डस्थ विभक्तत्वादिति, उक्तं च-"पंचसयजोयणुच्चा, सहस्समेगं तु होति विच्छिन्ना । कालोययलवणजले, पुट्ठा ते दाहिणुत्तरओ ।।१।। दो इसुयारनगवरा, धायइसंडस्स मज्झयारठिया । तेहि दुहा निहिस्सइ, पुबद्धं पच्छिमद्धं च ॥२॥" तत्र णमिति वाक्यालङ्कारे, 'मन्दरस्य' मेरोरित्येवं धातकीखण्डपूर्वार्द्धपश्चिमार्द्धप्रकरणे प्रत्येकमेकोनसप्ततिसूत्रप्रमाणे जम्बूद्वीपप्रकरणवदध्येतव्ये व्याख्येये च, अत एवाह-एवं जहा जंबूद्दीवे तहेवे'त्यादि नवरं वर्षधरादिस्वरूपमायामादिसमता चैवं भावनीया-"पुब्बद्धस्स य मज्झे मेरू, तस्स पुण दाहिणुत्तरओ । वासाई तिन्नि तिन्निवि, विदेहवासं च मज्झमि ॥शा" इत्यादिविस्तरार्थों वृत्तितो ज्ञेयो यावद् वेदिकासूत्र जम्बूद्वीपवत् , धातकीखण्डानन्तरं कालोदसमुद्रो भवतीति तद्वक्तव्यतामाह-'कालोदे'त्यादि कण्ठयम् , कालोदानन्तरं पुष्करद्वीपवाव्यतामाह-'पुक्खरे'त्यादि, त्रीण्यप्यतिदेशप्रधानानि, अतिदेशलभ्यश्चार्थः सुगम एव, नवरं पूर्वापरार्द्धता धातकीखण्डवदिषुकाराभ्यामवगन्तव्या, भरतादीनां चायामादिसमतैवं भावनीया-विस्तरो वृत्तितो ज्ञेयः, पुष्करवरद्वीपवेदिकाप्ररुपणानन्तरं शेषद्वीपसमुद्रवेदिकाप्ररूपणामाह- 'सब्वेसि पि ण'मित्यादि कण्ठचम् । एते च द्वीपसमुद्रा इन्द्राणामुत्पातपर्वताश्रया इतीन्द्रवक्तव्यतामाह
॥१०॥
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सू०९४।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
అతి చింతించి వివరించి
॥१०॥
दो असुरकुमारिंदा पन्नत्ता, त-चमरे चेव बली चेव, दो णागकुमारिंदा ५० त-धरणे चेव भूयाणंदे चेव, दो सुवण्णकुमारिंदा ५० त०-वेणुदेवे चेव वेणुदाली चेव, दो विज्जुकुमारिंदा ५० तंव्हरि च्चेव हरिस्सहे चेव दो अग्गिकुमारिंदा पं० सं०-अग्गिसिहे चेव अग्गिमाणवे चेव, दो दीवकुमारिंदा पं० त०-पुण्णे चेव विसिटूटे चेव, दो उदहिकुमारिंदा पं० त०-जलकते चेव जलप्प चेव, दो दिसाकुमारिंदा ५० त०-अमियगती चेव अमियवाहणे चेव, दो वातकुमारिदा ५० त०-वेलंबे चेव पभंजणे चेव, दो थणियकुमारिदा ५० त०-घोसे चेव महाघोसे चेव । दो पिसाइंदा पन्नत्ता तं०काले चेव महाकाले चेव, दो भूइंदा पं० तं०-सुरुवे चेव पडिरूवे चेव, दो जक्खिंदा पं० २०-पुण्णभद्दे चेव माणिभद्दे चेव, दो रक्खसिंदा पं० त०-भीमे चेव महाभीमे चेव, दो किणरिंदा पं० त०-किन्नरे चेव किंपुरिसे चेव, दो किंपुरिसिंदा ५० त०-सप्पुरिसे चेव महापुरिसे चेव, दो महोरगिंदा ५० तं०-अइकाए चेव महाकाए चेव, दो गंधबिदा ५० त०-गीयरती चेव गीयजसे चेव, दो अणपण्णिदा पं० तं०संणिहते चेव सोमणसे चेव, दो पणपष्णिदा पं० त०-धाते चेव विधाते चेव, दो इसिवाईदा ५० त०-इसिच्चेव इसिवालए चेव, दो भूयवाईदा पं० त०-इस्सरे चेव महिस्सरे चेव, दो कंदिदा ५० त०-सुवच्छे चेव विसाले चेव, दो महाकदिंदा पं० त-हस्से चेव हस्सरती चेव, दो कुहडिदा ५० त०-सेते चेव महासेते चेव, दो पयइदा ५० त०-पतए चेव महापतए चेव [पतयवई चेव । जोइसियाणं देवाणं दो इंदा ५०, त-चंदे चेव सूरे
चेव, सोहम्मीसासु णं कप्पेसु दो इदा पं०, त-सक्के चेव ईसाणे चेव, एवं सर्णकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु दो इंदा ५०, तसर्णकुमारे चेव माहिदे चेव, बंभलोगलंतएसु णं कप्पेसु दो इंदा पं, त-बमे चेव लंतप चेव, महासुक्कसहस्सारेसु ण क पेसु दो इंदा पं० त०-महासुक्के चेव सहस्सारे चेव, आणयपाणयारणच्चुएसु णं
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వివరించి చివరి వణి
॥१०२॥
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सू०
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१०३॥
कप्पेसु दो इदा पं०, त-पाणए चेव अच्चुए थेव, महासुक्कसहस्सारेसु णं कप्पेसु विमाणा दुवण्णा पंत| हलिद्दा चेव सुक्किला चेव, गेविज्जगाणं देवाणं दो रयणीओ उड्ढं उच्चत्तेणं पन्नत्ता (सू० ९४) बिट्ठाणगस्स तइओ उद्देसओ समत्तो ।
'दो असुरे'त्यादि 'अच्चुए चेवेले तदन्तं सूत्र सुगम, नवरं अमुरादीनां दशानां भवनपतिनिकायानां मेवपेक्षया दक्षिणोत्तरदिग्द्वयाश्रितत्वेन द्विविधत्वाद् विंशतिरिन्द्राः, तत्र चमरो दाक्षिणात्यो बली त्वौदीच्य इत्येवं सर्वत्र, एवं बन्तराणामष्टनिकायानां द्विगुणत्वात् षोडशेन्द्राः तथा अणपन्निकादीनामष्टानामेव व्यन्तरविशेषरूपनिकायानां द्विगुणत्वात् षोडशेति, ज्योतिष्कानां त्वसङ्ख्यातचन्द्रसूर्यत्वेऽपि जातिमात्राश्रयणाद द्वावेव चन्द्रसूर्याऽऽख्याविन्द्रावुक्तौ सौधर्मादिकल्पानां तु दशेन्द्रा इत्येवं सर्वेऽपि चतुःपष्टिरिति । देवाधिकारात् तन्निवासभूतविमानवक्तव्यतामाह-'महासुक्के'त्यादि कण्ठय, नवरं हारिद्राणि-पीतानि, क्रमश्चायं सौधर्मादिविमानवर्णविषयो यथा-सौधर्मेशानयोः पञ्चवर्णानि ततो द्वयोरकृष्णानि पुनर्द्वयोरकृष्णनीलानि ततो द्वयोः शुक्रसहस्राराभिधानयोः पीतशुक्लानि ततः शुक्लान्येवेति, आह-"सोहम्मे पंचवन्ना, एकगहाणी उ जा सहस्सारो । दो दो तुल्ला कप्पा, तेण परं पुंडरीयाई ॥१॥"ति । देवाधिकारादेव द्विस्थानकानुपातिनी तदवगाहनामाह-'गेवेजगाण'मित्यादि, पूर्ववद् व्याख्येयमिति । द्विस्थानकस्य तृतीयोद्देशकः समाप्तः ॥
उक्तस्तृतीयोद्देशकः साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते-अस्य च जीवाजीववक्तव्यताप्रतिवद्धस्य पूर्वेण सहायं सम्बन्धः-पूर्वस्मिन् हि पुद्गलजीवधर्मा उकता इह तु सर्व जीवाजीवात्मकमिति वाच्यम् , अनेन सम्बन्धेनायातस्या
॥१०३॥
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et
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सू० ९५॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२०४॥
स्योद्देशकस्थेमानि पञ्चविंशतिरादिसूत्राणि समयेत्यादीनि
समयाइ वा आवलियाइ वा जीवाइ वा अजीवाइ वा पवुच्चइ १, आणापाणेति वा थोवाति वा जीवाति वा अजीवाति वा २, खणाति वा लवाति वा जीवाति वा अजीवाति वा पवुच्चइ ३, एवं मुहुत्ताति या अहोरत्ताति वा ४, पक्खाति वा मासाति वा ५, उउति वा अयणाति वा ६, संबच्छराति वा जुगाति वा ७, वाससयाति वा वाससहस्साति वा ८, वाससयसहस्साति वा वासकोडीति वा ९, पुवंगाति वा पुव्वाति वा १०, तुडियंगाति वा तुडियाति वा ११, अडडंगाति वा अडडाति वा १२, अववंगाति वा अववाति वा १३, हुहूयं गाति वा हयाति वा १४, उप्पलंगाति वा उप्पलाति वा १५, पउमंगाइ वा पउमाति वा १६, णलिणंगाइ वा णलिणाइ वा १७, अत्थणिपुरंगाइ वा अत्थणिउराइ वा १८, अउअंगाइ वा अउताति वा १९, णउयंगाइ वा णउताति वा २०, पउयगाइ वा पउताति वा २१, चूलिय गाइ वा चूलियाति वा २२, सीसपहेलिय गाइ वा सीसपहेलियाइ वा २३, पलिओवमाइ वा सागरोवमाइ वा २४, उस्सप्पिणीइ वा ओसप्पिणीइ वा जीवाति वा अजीवाति वा पवुच्चइ २५ । गामाइ वा णगराइ वा णिगमाइ वा रायहाणीति वा खेडाइ वा कबडाइ वा मडंबाइ वा दोणमुहाइ वा पट्टणाइवा आगराइ वा आसमाइ वा संबाहाति वा संनिवेसाइ वा घोसाइ वा आरामाइ वा उज्जाणाइ वा वणाइ वा वणसंडाइ वा वावीइ वा पुक्खरणीइ वा सराइ वा सरपंतियाइ वा अगडाइ वा तलागाइ वा दहाइ वा णदीइ वा पुढवीइ वा उदहीइ वा वातखंधाइ वा वासंतराणि वा वलयाइ वा विग्गहाइ वा दीवाइ वा समुद्दाइ वा वेलाइ वा वेदि. याइ वा दाराइ वा तोरणाइ वा रइयाइ वा रइयवासाइ वा जाव वेमाणियाइ वा वेमाणियवासाइ वा कप्पाइ वा कप्पविमाणाइ वा वासाइ वा वासहरपब्बयाइ वा कृडाइ वा कृडागाराइ वा विजयाइ वा रायहाणीइ वा
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सू० ९५।
श्रीस्थानाङ्ग
सुत्रदीपिका वृत्तिः । ॥१०॥
जीवाइ वा अजीवाइ वा पउच्चइ ४७ । छायाइ वा आतबाइ वा जोसिणाइ वा अंधगाराइ वा उमाणाइ वा ओमा. णाइ वा अतियाणगिहाइ वा उज्जाणगिहाइ वा अवलिंबाइ वा सणिप्पवायाति वा जीवाइ वा अजीवाइ वा पवुच्चइ । दो रासी पंत-जीवरासी चेव अजीवरासी चेव (सू० ९५) । एषां चानन्तरसूत्रेणायमभिसम्बन्धः-पूर्वत्र जीवविशेषाणामुच्चत्वलक्षणो धर्मोऽभिहितः, इह तु धर्माधिकारादेव समयादिस्थितिलक्षणो धर्मो जीवाजीवसम्बन्धी जीवाजीवतयैव धर्मधर्मिणोरभेदेनेवोच्यते इति, तत्र सर्वेषां कालप्रमाणानामाद्यः परमसूक्ष्मोऽभेद्यो निरवयव उत्पलपत्रशतव्यतिभेदाधुदाहरणोपलक्षितः समयः, तस्य चातीतादिविवक्षया बहुत्वाद् बहुवचनमित्याह-'समयाइ वा इत्यादि, इतिशब्द उपप्रदर्शने, वाशब्दो विकल्पे, तथा असङ्ख्यातसमयसमुदयात्मिका आवलिका क्षुल्लकभवग्रहणकालस्य षट्पञ्चाशदुत्तरद्विशततमभागभूता इति, तत्र समया इति वा आवलिका इति वा यत् कालवस्तु तदविगानेन जीवा इति वा जीवपर्यायत्वात् , पर्यायपर्यायिणोश्च कथञ्चिदभेदात् , तथा अजीवानां-पुद्गलादीनां पर्यायत्वादजीवा इति च, चकारौ समुच्चयायौँ, दीर्घता च प्राकृतत्वात् , प्रोच्यते-अभिधीयत इति, न जीवादिव्यतिरेकेण (०व्यतिरेकिणः) समयादयः, तथाहि-जीवाजीवानां सादिसपर्यवसानादिभेदा या स्थितिः तुभेदाः समयादयः, सा च तद्धमों धर्मश्च धर्मिणो नात्यन्तं भेदवान् , अत्यन्तभेदे हि विप्रकृष्टधर्ममात्रोपलब्धौ प्रतिनियतधर्मिविषय एव संशयो न स्यात् , तदन्येभ्योऽपि तस्य भेदाविशेषाद, दृश्यते च कश्चिद्धरिततरुतरुणशाखाविसरविवरान्तरित किमपि शुक्लं पश्यति तदा किमियं पताका किं वा बलाकेत्येवं प्रतिनियतधर्मिविषयः संशय इति, अभेदेऽपि सर्वथा संशयानुत्पत्तिरेव, गुणग्रहणत
॥१०॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१०६॥
02800000000000000000000000000000000000000000000000000000000
एव तस्यापि गृहीतत्वादिति, इह त्वभेदनयाश्रयणात् 'जीवाइ वा' इत्याधुक्तम् , इह च समयावलिकालक्षणार्थद्वयस्य जीवादिद्वयात्मकतया भणनाद् द्विस्थानकावतारो दृश्यः, एवमुत्तरसूत्राण्यपि नेयानि, विशेषं तु वक्ष्याम इति, 'आणापाणू 'इत्यादि, 'आनप्राणा'विति-उच्छ्वासनिःश्वासकालः सङ्ख्यातावलिकाप्रमाणः, आह च-"हट्ठस्स अणवगल्लस्स, निरुवकिट्ठस्स जंतुणो । एगे ऊसासणीसासे, एस पाणुत्ति वुच्चइ ॥१॥" तथा स्तोकाः सप्तोच्छ्वासनिःश्वासप्रमाणाः, क्षणाः सङ्ख्यातानप्राणलक्षणाः, सप्तस्तोकप्रमाणा लवाः, मुहूर्ताः-सप्तसप्ततिलवप्रमाणाः, 'अहोरत्त'त्ति अहोरात्राः त्रिंशन्मुहर्तप्रमाणाः, पक्षाः पञ्चदशाहोरात्रप्रमाणाः, मासा द्विपक्षाः, ऋतवो द्विमासमाना वसन्ताद्याः, अयनानि ऋतुत्रयमानानि, संवत्सरा अयनद्वयमानाः, युगानि पञ्चसंवत्सराणि, वर्षशतादीनि प्रतीतानि, पूर्वाङ्गानि चतुरशीतिवर्षलक्षप्रमाणानि, पूर्वाणि पूर्वाङ्गान्येव चतुरशीतिलक्षगुणितानि, इदं चैषां मानम्"पुव्वस्स य परिमाणं, सयरिं खलु होति कोडिलकखाओ । छप्पण्णं च सहस्सा, बोद्धव्या वासकोडीणं॥१॥" ति, (७०५६०००,०००००००), पूर्वाणि चतुरशीतिलक्षगुणितानि त्रुटिताङ्गानि भवन्ति, एवं चतुरशीतिलक्षगुणनेनोत्तरमुत्तरं सङ्ख्यानं भवति यावच्छीर्षप्रहेलिकेति, तस्यां चतुर्नवत्यधिकमङ्कस्थानशतं भवति, अत्र करणगाथा- "इच्छियठाणेण गुणं, पणसुन चउरसीइगुणियं च । काऊणं तइवारे, पुव्यंगाईण मुण संखं ॥१॥" शीर्षप्रहेलिकान्तः सांव्यवहारिकः सङ्ख्यातकालः, तेन च प्रथमपृथिवीनारकाणां भवनपतिव्यन्तराणां भरतैरावतेषु सुषमदुष्पमायाः पश्चिमे भागे नरतिरश्वां चायुर्मीयत इति, किञ्च-शीर्षप्रहेलिकायाः परतोऽप्यस्ति सङ्ख्यातः कालः, स चानतिशयिनां न व्यवहारविषय इतिकृत्वौपम्ये प्रक्षिप्तः, अत एव इ.पप्रहेलिकायाः परतः
॥१०६॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥१०७॥
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पल्योपमाद्युपन्यासः, तत्र पल्येनोपमा येषु तानि पल्योपमानि - असङ्ख्यातवर्षकोटी कोटी प्रमाणानि वक्ष्यमाणलक्षणानि, सागरेणोपमा येषु तानि सागरोपमाणि- पल्योपमकोटी कोटी दशकमानानि दशसागरोपमकोटी कोट्य उत्सर्पिणी, एवमेवावसर्पिणीति । कालविशेषवद् ग्रामादिवस्तुविशेषा अपि जीवाजीवा एवेति द्विपदैः सप्तचत्वारिंशता सूत्रैराह - 'गामेत्यादि, इह च प्रत्येकं 'जीवाइ येत्यादिरालापोऽध्येतव्यो, ग्रामादीनां च जीवाजीवता प्रतीतैव, तत्र करादिगम्या ग्रामाः, नैतेषु करोऽस्तीति नकराणि १, निगमाः वणिग्निवासाः, राजधान्यो- यामु राजानोऽभिषिच्यन्ते २ खेटानि - धूलिप्राकारोपेतानि कर्बटानि-कुनगराणि ३, मडम्बानि सर्वतोऽर्द्धयोजनात् परतो ऽवस्थितग्रामाणि द्रोणमुखानि येषां जलस्थलपथावुभावपि स्तः ४, पत्तनानि येषु जलस्थलपथयोरन्यतरेण पर्याहारप्रवेशः, आकरा लोहाद्युत्पत्तिभूमयः ५, आश्रमाः - तीर्थस्थानानि संवाहाः - समभूमौ कृषिं कृत्वा येषु दुर्गभूमिभूतेषु धान्यानि कृषीवलाः संवहन्ति रक्षार्थमिति ६, सन्निवेशा: सार्थकटकादे: घोपा-गोष्ठानि ७, आरामाविविधवृक्षलतोपशोभिताः कदल्यादिप्रच्छन्नगृहेषु स्त्रीसहितानां पुंसां रमणस्थानभूता इति उद्यानानि पत्रपुष्प - फलच्छायोपभोगादिवृक्षोपशोभितानि बहुजनस्य विविधवेपस्योन्नतमानस्य भोजनार्थं यानं गमनं येष्विति ८, वनान्येकजातीयवृक्षाणि, वनखण्डाः - अनेकजातीयोत्तमवृक्षाः ९, वापी चतुरस्रा पुष्करिणी वृत्ता पुष्करवती वेति १०, सरांसि - जलाशयविशेषाः, सरपक्तयः - सरसां पद्धतयः ११, 'अगड'त्ति अवटा : - कूपाः, तडागादीनि प्रतीतानि १२, पृथिवी - रत्नप्रभादिका १३, उदधिः - तदधो घनोदधिः १४, वातस्कन्धाः - घनवाततनुवाता इतरे वा अवकाशान्तराणि वातस्कन्धानामधस्तादाकाशानि जीवता चैां सूक्ष्मपृथिवीकायिकादिजीवव्याप्तत्वात् १५, बल
सू० ९५ ।
॥१०७॥
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,
सू०९५।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१०८॥
यानि-पृथिवीनां वेष्टनानि घनोदधिधनवाततनुवातलक्षणानीति, विग्रहा-लोकनाडीवक्राणि, जीवता चैषां पूर्ववत् १६, द्वीपाः समुद्राश्च प्रतीताः १७, वेला-समुद्रजलवृद्धिः, वेदिकाः प्रतीताः १८, द्वाराणि-विजयादीनि, तोरणानि तेष्वेवेति १९, नैरयिकाः - किलष्टसत्त्वविशेषाः, तेषां चाजीवता कर्मपुद्गलाद्यपेक्षया तदुत्पत्तिभूमयो नैरयिकावासास्तेषां च जीवता पृथिवीकायिकाद्यपेक्षया, इत्येवं चतुविशतिदण्डकोऽभिधेयः ४३, अत एवाह'यावदि'त्यादि, कल्पा:-देवलोकास्तदंशाः कल्पविमानावासाः ४४, वर्षाणि-भरतादिक्षेत्राणि वर्षधरपर्वताः-हिमवदादयः ४५, कूटानि-हिमवत्कूटादीनि कूटागाराणि-तेष्वेव देवभवनानि ४६, विजयाः-चक्रवर्तिविजेतव्यानि कच्छादीनि क्षेत्रखण्डानि, राजधान्यः क्षेमादिकाः, 'जीवे'त्यादि इहोक्तं सर्वत्र सम्बन्धनीयमिति ४७ । येऽपि पुद्गलधर्मास्तेऽपि तथैवेत्याह-'छायेत्यादिसूत्रपञ्चकं गतार्थम् , नवरं छाया वृक्षादीनाम् , आतप आदित्यस्य, 'जोसिणाति वत्ति ज्योत्स्ना-चन्द्रप्रकाशः, अन्धकाराणि-तमांसि, अवमानानि-क्षेत्रादीनां प्रमाणानि हस्तादीनि, उन्मानानि-तुलायाः कर्षादीनि, अतियानगृहाणि-नगरादिप्रवेशे यानि गृहाणि, उद्यानगृहाणि प्रतीतानि, 'अवलिंबा सणिप्पवाया य' रूढितोऽवसेया इति, किमेतत् सर्वमित्याह-जीवा इति च, जीवव्याप्तत्वात् तदाश्रितत्वाद् वा, अजीवा इति च पुद्गलाद्यजीवरूपत्वात् तदाश्रितत्वाद्वेति, प्रोच्यते-जिनः प्ररूप्यत इति । इह च 'जीवाइ येत्यादि मूत्रपञ्चकेऽपि प्रत्येकमध्येतव्यमिति । अथ समयादिवस्तु जीवाजीवस्वरूपमेव कस्मादभिधीयते ?, उच्यते, तद्विलक्षणराश्यन्तराभावाद् अत एवाह-'दो रासी'त्यादि कण्ठ्यम् । जीवराशिश्च द्विधा-बद्धमुक्तभेदात् , तत्र बद्धानां बन्धनिरूपणायाह
ఉంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంం
॥१०८॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका
सू० ९६
वृत्तिः ।
॥१०॥
.000000000000000000000000000000000000000000000000000000
__ दुविहे बंधे ५०, तं०-पेज्जबंधे चेव दोसबंधे चेव, जीवा णं दोहिं ठाणेहिं पावं कम्मं बंधति, तं०-रागेण चेव दोसेण चेव, जीवा णं दोहि ठाणेहि पावं कम्म उदीरें ति, तं०-अम्भोवगमियाए चेव वेदणाए उवक्कमियाए चेव वेयणाए, एवं वेदेति एवं निज्जरेंति-अब्भोवगमियाए चेव वेयणाए उवक्कमियाए चेव वेयणाए । (सू०९६)
प्रेम-रागो मायालोभकपायलक्षणो, द्वेषस्तु क्रोधमानकषायलक्षणो, यदाह-"माया लोभकषायश्चेत्येतद् रागसंज्ञित द्वन्द्वम् । क्रोधो मानश्च पुनद्वैप इति समासनिर्दिष्टः ॥१॥" इति, प्रेम्णः-प्रेमलक्षणचित्तविकारसम्पादकमोहनीयकर्मपुद्गलराशेवयन-जीवप्रदेशेषु योगप्रत्ययतः प्रकृतिरूपतया प्रदेशरूपतया च सम्बन्धनम् तथा कषायप्रत्ययतः स्थित्यनुभागविशेषापादन च प्रेमबन्धः, एवं द्वेषमोहनीयस्य बन्धो द्वेषवन्ध इति, उक्त हि"जोगा पयडिपएसं, ठितिअणुभागं कसायओ कुणइ"त्ति, प्रेमद्वेषलक्षणाभ्यां कर्मभ्यामुदयगताभ्यां जीवानामशुभकर्मबन्धो भवतीत्याह-'जीवाण'मित्यादि, अथवा पूर्वसूत्रमन्यथा व्याख्याय सम्बन्धान्तरमस्य क्रियते-सामान्येन बन्धो द्वेधा-प्रेमतो द्वेपतश्चेति, स चानिवृत्तिसूक्ष्मसम्परायान्तान् गुणस्थानिनः प्रतीत्य द्रष्टव्यः, यस्तूपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिनां स योगप्रत्यय एव, स तु बन्धत्वेन न विवक्षितो, बन्धस्यापि तस्य शेषकर्मबन्धविलक्षणतयाऽबन्धकल्पत्वात् , यस्य हि कर्मणोऽसौ तदल्पस्थितिकादिविशेषणम् , उक्त च-"अप्पं बायर मउयं, बहु च रुख च मुक्केिल चेव । मंदं महव्वयं ति य, सायाबहुलं च त कम्म ॥१॥"ति, अल्पं स्थित्या बादरं परिणामतः मृद्वनुभावतः बहु प्रदेशः मन्दं लेपतो वालुकावत् , महाव्ययं सर्वापगमात् । एतदेव दर्शयन्नाह'जीवा णमित्यादि, जीवाः-सत्त्वाः ण वाक्यालङ्कारे द्वाभ्यां 'स्थानाभ्यां' कारणाभ्यां पापम्-अशुभमशुभभव
॥१०॥
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सू०९७
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥११०॥
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निबन्धनत्वात् , न तु निरनुबन्धं द्विसमयस्थितिकमत्यन्तं शुभं, तस्य केवलयोगप्रत्ययत्वादिति, बध्नन्ति-स्पृष्टाद्यवस्थं कुर्वन्ति, रागेण चैव द्वेषेण चैव कपायरित्यर्थः, ननु मिथ्यात्वाविरतिकपाययोगा बन्धहेतवः तत्कथ कवाया एवेहोक्ता इत्युच्यते-कषायाणां पापकर्मबन्ध प्रति प्राधान्यख्यापनार्थ, प्राधान्यं च स्थित्यनुभागप्रकर्षकारणत्वात्तेपामिति, अथवा अत्यन्तमनर्थकारित्वाद्, उक्तश्च-"को दुक्ख पाविजा, कस्स व सुकूखेहिं विम्हओ होजा । को व न लहेज मोक्खं ?, रागद्दोसा जइ न होज्जा ॥१॥" इति, उक्तस्थानद्वयवद्धपापकर्मणश्च यथोदीरणवेदननिर्जराः कुर्वन्ति देहिनस्तथा सूत्रत्रयेणाह-'जीवे'त्यादि गतार्थम् , नवरं उदीरयन्ति अप्राप्तावसरं सदुदये प्रवेशयन्ति, अभ्युपगमेन-अङ्गीकरणेन निवृत्ता तत्र वा भवा आभ्युपगमिकी तया-शिरोलोचतपश्चरणादिकया वेदनया-पीडया उपक्रमेण-कर्मोदीरणकारणेन निवृत्ता तत्र वा भवा औपक्रमिकी तया-ज्वरातीसारादिजन्यया 'एव मिति उक्तप्रकारत एव 'वेदयन्ति' विपाकतोऽनुभवन्त्युदीरित सदिति, 'निर्जरयन्ति' प्रदेशेभ्यः शाटयन्तीति । निर्जरणे च कर्मणो देशतः सर्वथा वा भवान्तरे सिद्धौ वा गच्छतः श्रीरानिर्याणं भवतीति सूत्रपञ्चकेनाह
दोहि ठाणेहि आता सरीरं फुसित्ताणं णिज्जाति, तं०-देसेणवि आता सरीरं फुसित्ताणं णिजाति सवेणावि आया सरीरगं फुसित्ताणं णिज्जाति, एवं फुरित्ताणं एवं फुडित्ता एवं संवट्टतित्ता एवं निचट्टतित्ता । (सू० ९७)
___'दोही'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां 'देसेणाव'त्ति देशेनापि-कतिपयप्रदेशलक्षणेन केषाञ्चित्प्रदेशानामीलिकागत्योत्पादस्थान गच्छता जीवेन शरीराद् बहिः क्षिप्तत्वात् , 'आत्मा'-जीवः, 'शरीर' देह
॥११०॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥ १११ ॥
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'पृष्ट्वा ' श्लिष्ट्वा 'निर्याति' शरीरान्मरणकाले निःसरतीति, 'सत्रेणावि'त्ति सर्वेण सर्वात्मना सर्वैर्जीवप्रदेशैः कन्दु कगत्योपादस्थानं गच्छता शरीराद् बहिः प्रदेशानामप्रक्षिप्तत्वादिति, अथवा देशेनापि देशतोऽपि, अपिशब्दः सर्वेणापीत्यपेक्षः, आत्मा, शरीरं, कोऽर्थ : ? - शरीरदेशं पादादिकं स्पृष्ट्वा अवयवान्तरेभ्यः प्रदेशसंहारान्निर्याति स च संसारी, 'सर्वणापि' सर्वतयाऽपि, अपिर्देशेनापीत्यपेक्षः, सर्वमपि शरीरं स्पृष्ट्वा निर्यातीति भावः, स च सिद्धो वक्ष्यति च - " पायणिज्जाणा णिरएसु उववज्र्ज्जती" त्यादि, यावत् " सव्वंग निज्जाणा सिद्धेमु "त्ति । आत्मना शरीरस्य स्पर्शने सति स्फुरणं भवत्यत उच्यते- 'एव' मित्यादि, 'एव' मिति 'दोहि ठाणेही 'त्याद्यभिलापसंसूचनार्थः, तत्र देशेनापि कियद्भिरप्यात्मप्रदेशैरिलिकागतिकाले 'सवेणवित्ति सव्वैरपि गेन्दुकगतिकाले शरीरं 'फुसित्ताण 'ति स्फोरयित्वा सस्पन्दं कृत्वा निर्याति, अथवा शरीरकं देशतः शरीरदेशमित्यर्थः स्फोरयित्वा पादादिनिर्याणकाले, सर्वतः - सर्व शरीर स्फोरयित्वा सर्वाङ्गनिर्याणावसर इति । स्फोरणाच्च सात्मकत्व स्फुटं भवतीत्याह - 'एवमित्यादि, 'एव' मिति तथैव देशेन - आत्मदेशेन शरीरकं 'फुडित्ताणं ति सचेतनतया स्फुरणलिङ्गतः स्फुटं कृत्वा इलिकागतौ सर्वेण सर्वात्मना स्फुटं कृत्वा गेन्दुकगताविति, अथवा शरीरं देशतः - सात्मकतया स्फुट ं कृत्वा पादादिना निर्याणकाले सर्वतः - सर्वाङ्गनिर्याणप्रस्ताव इति, अथवा फुडित्ता-स्फोटयित्वा विशीर्ण कृत्वा तत्र देशतोऽक्ष्यादिविघातेन सर्वतः सर्व विशरणेन देवदीपादिजीववदिति । शरीरं सात्मकतया स्फुटीकुर्वं स्तत्संवर्तनमपि कश्चित् करोतीत्याह - 'एव' मित्यादि, 'एव' मिति तथैव, 'संवत्ताणं 'ति संवर्त्य - सङ्गकोच्य शरीरकं देशेनेलिकागतौ शरीरस्थितप्रदेशैः सर्वेण सर्वात्मना गेन्दुकगतौ सर्वात्मप्रदेशानां शरीरस्थितत्वान्निर्यातीति,
सू० ९७ ।
॥ १११ ॥
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सू० ९८
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥११२॥
अथवा शरीरकं देशतः संवर्त्य हस्तादिसङ्कोचनेन सर्वतः-सर्वशरीरसङ्कोचनेन पिपीलिकावदिति । आत्मनश्च संवर्तनं कुर्वन् शरीरस्य निवर्त्तन करोतीत्याह-एवं 'निवयित्ताण'ति, तथैव निर्वर्त्य-जीवप्रदेशेभ्यः पृथक कृत्वेत्यर्थः, तत्र देशेनेलिकागतौ सर्वेण गेन्दुकगतो, अथवा देशतः शरीरं निर्वात्मनः पादादिनिर्याणवान् सर्वतः सर्वाङ्गनिर्याणवानिति, अनन्तरं सर्वनिर्याणमुक्तम् , तच्च परम्परया धर्मश्रवणलाभादिषु, ते च यथा स्युस्तथा दर्शयन्नाह
दोहि ठाणेहि आता केवलिपन्नत्तं धम्म लभेज्जा सवणताते, त०-खतेण चेव उवसमेण चेव, एवं जाव मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा, तं०-खतेण चेव उवसमेण चेव । (सू० ९८)
दोही त्यादि कण्ठय, नवरं 'खएण चेव'त्ति ज्ञानावरणीयस्य दर्शनमोहनीयस्य च कर्मण उदयप्राप्तस्य क्षयेण-निर्जरणेन अनुदितस्य चोपशमेन-विपाकाननुभवेन क्षयोपशमेनेत्युक्तं भवति, यावत्करणात् केवलं बोहिं बुज्झज्जा मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पन्चएज्जा केवल बंभचेरवासमावसेज्जा, केवलेण संजमेण संजमेज्जा, केवलेण संवरेण संवरेज्जा, केवलं आभिणिवोहियणाणं उप्पाडेजा इत्यादि दृश्यम् , एवं यावन्मनःपर्यायज्ञानमुत्पादयेदिति, केवलज्ञान तु क्षयादेव भवतीति तन्नोक्तम् । इह च यद्यपि बोध्यादयः सम्यक्त्वचारित्ररूपत्वात् केवलेन क्षयेण उपशमेन च भवन्ति तथाऽप्येते क्षयोपशमेनापि भवन्ति, श्रवणाभिनिवोधिकादीनि तु क्षयोपशमेनैव भवन्तीति सर्वसाधारणः क्षयोपशम उक्तः पदद्वयेनातः स एव व्याख्यात इति । बोध्याभिनिवोधिकश्रुतावधिज्ञानानि च षट्पष्टिसागरोपमस्थितिकान्युत्कर्षतो भवन्ति, सागरोपमाणि च पल्योपमाश्रितानीति तद्वितयारूपणामाह
+00000000000000000000000000000000000000000000000.
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥११३॥
दुविहे अद्धोमिए पं० त०-पलिओवमे चैव सागरोवमे चेव, से किं तं पलिओ मे ?, पलिओ मे-ज' जोयणविच्छिण्णं, पल्ल ं एगाहियप्परूढाणं । होज्ज णिरंतरणिचितं, भरिय, वालग्गकोडीणं ॥१॥ वाससए वाससए, पक्केके अवडंमि जो कालो । सो कालो बोद्धव्वो, उवमा फगस्स पलस्स ||२|| एपसि पलाणं, कोडाकोडी हविज्ज दसगुणिया । त सागरोवमस्स उ, एगस्स भवे परीमाणं ||३|| (सू० ९९ )
'दुविहे 'त्यादि, उपमा- औपम्यं, तया निर्वृत्तमीपमिकम्, अद्धा - कालस्तद्विषयमौ पमिकमद्धौपमिकम्, उपमानमन्तरेण यत्कालप्रमाणमनतिशयिना ग्रहीतुं न शक्यते तदद्धौपमिकमिति भावः, तच्च द्विधा पल्योपमं चैव सागरोपमं चैव तत्र पल्यवत् पल्यस्तेनोपमा यस्मिंस्तत्पल्योपमम्, तथा सागरेणोपमा यस्मिंस्तत्सागरोपमः, सागरवन्महापरिमाणमित्यर्थः । इदं च पल्योपमसागरोपमरूपमौपमिकं सामान्यत उद्धाराद्धाक्षेत्रभेदात् त्रिधा, पुनरेकैकं संव्यवहारसूक्ष्मभेदाद् द्विधा, तत्र संव्यवहारपल्योपमं नाम यावता कालेन योजनायामविष्कम्भोच्चत्वः पल्यो मुण्डनानन्तरमेकादिसप्तान्ताहोरात्रप्ररूढानां वालाग्राणां भृतः प्रतिसमयं वालाग्रोद्धारे सति निर्लेपो भवति स कालो व्यावहारिकमुद्धारपल्योपममुच्यते, तेषां दशभिः कोटाकोटीभिर्व्यावहारिकमुद्धारसागरोपममुच्यते, तेषामेव वालाग्राणां दृष्टिगोचरातिसूक्ष्मद्रव्यासङ्गख्येयभागमात्रसूक्ष्मपनकावगाहनाऽसङ्ख्यातगुणरूपखण्डीकृतानां भृतः पल्यो येन कालेन निर्लेपो तथैवोद्धारे तत् सूक्ष्ममुद्धारपल्योपमं तथैव च सूक्ष्ममुद्धारसागरोपमम् अनेन च द्वीपसमुद्राः परिसङ्ख्यायन्ते, आह च - " उद्धारसागराणं, अड्ढाइज्जाण जत्तिया समया । दुगुणादु गुणपवित्थर, दीवोदहि रज्जु एवइया ॥ १ ॥ त्ति" अद्धापल्योपमसागरोपमे अपि सूक्ष्मवादरभेदे एवमेव, नवरं वर्षशते वर्षशते वालस्य
सू० ९९ ।
॥११३॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥११४॥
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वालासइयेयखण्डस्य चोद्धार इति, अनेन नारकादिस्थितयो मीयन्ते, क्षेत्रतोऽपि ते द्विविधे एवमेव, नवर प्रतिसमय मे कैका काशप्रदेशापहारे यावता कालेन वालाग्रस्पृष्टा एव प्रदेशा उद्भियन्ते स कालो व्यावहारिक इति, यावता च वालाग्रासख्यातखण्डैः स्पृष्टा अस्पृष्टाश्रोड्रियन्ते स कालः सूक्ष्म इति एते च प्ररूपणामात्रविषये एव, आभ्यां च दृष्टिंवादे स्पृष्टास्पृष्टप्रदेशविभागेन द्रव्यमाने प्रयोजनमिति श्रूयते, बादरे च त्रिविधे अि प्ररूपणामात्रविषये एवेति, तदेवमिह प्रक्रमे उद्धारक्षेत्रौपमिकयोर्निरुपयोगित्वादद्धौपमिकस्यैव चोपयोगित्वाद् अद्धेतिविशेषण सूत्रे उपात्तमिति, अत एवाद्धापल्योपमलक्षणाभिधित्सयाऽऽह सूत्रकारः - ' से किं तमित्यादि, अथ किं तत् पल्योपमं ?, यदद्धौपमिकतया निदिष्टमिति प्रश्ने निर्वचनमेतदनुवादेनाह - 'पलिओ मे 'त्ति, पल्योपममेव भवतीति वाक्यशेषः, 'ज' गाहा, किल यद्योजनविस्तीर्णमित्युपलक्षणत्वात् सर्वतो यद्योजनप्रमाणं पल्यं - धान्यस्थानविशेषः, एकाह एव ऐकाहिकस्तेन प्ररूढानां - वृद्धानां मुण्डिते शिरसि एकेनाका यावत्यो भवन्तीत्यर्थः, एतस्य चोपलक्षणत्वादुत्कर्षतः सप्ताहप्ररूढानां वालाग्राणां कोट्यो - विभागाः सूक्ष्मपल्योपमापेक्षयाऽसङ्ख्येयखण्डाि बादरपल्योपमापेक्षया तु कोट्यः - सङ्ख्याविशेषाः तासां किं भवेत् ? - 'भरित 'भृतं कथमित्याह - 'निरन्तर'निचित' निविडतया निचयवत् कृतमिति 'वासा' गाहा, एतस्मात् पल्याद् वर्षशते वर्षशते व्युत्क्रान्ते सति प्रतिवर्षशतमित्यर्थः, एकैकस्मिन् वालाग्रेऽसङ्ख्येयखण्डे चापहृते सति 'यः कालो'यावती अद्धा भवति प्रमाणतः स तावान् कालो बोद्धव्यः, किमित्याह - 'उपमा' उपमेयः कस्येत्याह-एकस्य पल्यस्य इदमुक्तं भवति स काल एकं पल्योपमं सूक्ष्मं व्यावहारिक' चोच्यत इति । 'एएसिं" गाहा, एतेषाम् उक्तरूपाणां सूक्ष्मवादराणां 'पल्याना'
सू० ९९ ।
॥११४॥
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सू० १००-१०१।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः । ॥१५॥
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पल्योपमानां कोटीकोटी भवेद् दशगुणिता यदिति गम्यते दश कोटीकोट्य इत्यर्थः, तदेकस्य सूक्ष्मरूपस्य बादररूपस्य वा सागरोपमस्यैव भवेत् परिमाणमिति ॥ एतैश्च येषां क्रोधादीनां फलभूतकर्मस्थितिनिरूप्यते तत्स्वरूपनिरूपणायाह
दुविहे कोहे पं० त०-आयपतिट्टिए चेव परपतिट्टिए चेव, एवणेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, एवं जाव मिच्छादसणसल्ले (सू० १००)। दुविहा संसारसमावन्नगा जीवा ५० त-तसा चेव थावरा चेव, दुविहा सब्बजीवा पं० २०-सिद्धा चेव असिद्धा चेव, दुविहा सव्वजीवा पं० त०-सइंदियच्चेव अणिदियच्चेव, एवं एसा गाहा फासेयव्वा जाव ससरीरी चेव असरीरी चेव-"सिद्धसईदियकाए, जोए वेए कसाय लेसा य । णाणुवओगाहारे, भासग चरिमे य ससरीरी ॥१॥" (सू० १०१)।
'दुविहे ति आत्मापराधादेहिकापायदर्शनादात्मनि प्रतिष्ठितः-आत्मविषयो जातः आत्मना वा परत्राक्रोशादिना प्रतिष्ठितो-जनित आत्मप्रतिष्ठितः, परेणाक्रोशादिना प्रतिष्ठित-उदीरितः परस्मिन् वा प्रतिष्ठितो-जातः परप्रतिष्ठित इति । 'एव'मिति यथा सामान्यतो द्विधा क्रोध उक्त एवं नारकादीनां चतुर्विशतेर्वाच्यः, नवरं पृथिव्यादीनामसंज्ञिनामुक्तलक्षणमात्मप्रतिष्ठितत्वादिपूर्वभवसंस्कारात् क्रोधगतमवगन्तव्यमिति । एवं मानादीनि मिथ्यात्वान्तानि पापस्थानकान्यात्मपरप्रतिष्ठितविशेषणानि सामान्यपदपूर्वक चतुर्विंशतिदण्डकेनाध्येतव्यानि, अत एवाह"एवं जाव मिच्छादंसणसल्ले'त्ति, एतेषां च मानादीनां स्वविकल्पजातपरजनितत्वाभ्यां स्वात्मवर्तिपरात्मवतिभ्यां वा स्वपरप्रतिष्ठितत्वमवसेयम् । एवमेते पापस्थानाश्रितात्रयोदश दण्डका इति ॥ उक्तविशेषणानि च पापस्थानानि संसारिणामेव भवन्तीति तान् भेदत आह-'दुविहे'त्यादि कण्ठयम् । ननु संसारिण एव जीवा उतान्येऽपि
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सू०१००-१०१।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥११६॥
सन्ति ?, सन्त्येवेति प्राय उभयदर्शनाय त्रयोदशसूत्रीमाह-'दुविहा सव्वे'त्यादिकं, कण्ठया चेय', नवर सेन्द्रियाःसंसारिणोऽनिन्द्रियाः-अपर्याप्तककेवलिसिद्धाः २, एवं एस'त्ति, 'एवं सिद्धादिसूत्रोक्तक्रमेण 'दुविहा सव्वजीवे 'त्यादिलक्षणेन एषा-चक्ष्यमाणा प्रस्तुतसूत्रसग्रहगाथा स्पर्शनीया-अनुसरणीया । 'सिद्ध'गाहा, सिद्धाः सेन्द्रियाश्च सेतरा उक्ताः, एवं 'काए'त्ति, कायाः पृथिव्यादयस्तानाश्रित्य सर्वे जीवाः सविपर्यया वाच्याः, एवं सर्वाणि व्याख्येयानि, वाचना चैव- सकायच्चेव अकायच्चेव' 'सकाया' पृथिव्यादिषविधकायविशिष्टाः संसारिणः, अकायास्तद्विलक्षणाः सिद्धाः ३, सयोगा-संसारिणः अयोगा-अयोगिनः सिद्धाश्च ४, वेदेत्ति सवेदाः-संसारिणः अवेदाः अनिवृत्तिबादरसम्परायविशेषादयः पट् सिद्धाश्च ५, 'कसाय'त्ति, सकपायाः-सूक्ष्मसम्परायान्ताः अकषाया-उपशान्तमोहादयश्चत्वारः सिद्धाश्च ६, 'लेसा यत्ति, सलेश्याः-सयोग्यन्ताः संसारिणः अलेश्याः-अयोगिनः सिद्धाश्च ७, 'नाणे'त्ति, ज्ञानिनः सम्यग्दृष्टयोऽज्ञानिनो-मिथ्यादृष्टयः ८, 'उवओगे'त्ति, सागारोवउत्ते चेव अणागारोवउत्ते चेव त्ति, साकारेण-विशेषांशग्रहणशक्तिलक्षणेन वर्तते य उपयोगः स साकारो ज्ञानोपयोग इत्यर्थः, तेनोपयुक्ताः साकारोपयुक्ताः , अनाकारस्तु तद्विलक्षणो दर्शनोपयोग इत्यर्थः, अभिधीयते च-"जं सामनग्गहण, भावाण नेय कटु आगारं । अविसेसिऊण अत्थे, दंसणमिति बुच्चए समए ॥२॥"त्ति, तेनोपयुक्ता अनाकारोपयुक्ता इति ९, आहारे'त्ति, आहारका-ओजोलोमकवलभेद भिन्नाहारविशेषग्राहिणः, अनाहारकास्तु “विग्गहगइमावण्णा१ , केवलिणो समोहया २ अजोगी य ३। सिद्धा ४ य अणाहारा, सेसा आहारगा जीवा ॥१॥"त्ति, १० । 'भास'त्ति, भाषका-भाषापर्याप्तिपर्याप्तकाः अभाषका:-तदपर्याप्तकाः अयोगिनः सिद्धाश्च ११, 'चरम'त्ति, चरमा
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सू० १०२।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥११७॥
येषां चरमो भवो भविष्यति, अचरमास्तु येषां भव्यत्वे सत्यपि चरमो भवो न भविष्यति, न निर्वास्यन्तीत्यर्थः १२ । | 'ससरीरि'त्ति, सह यथासम्भवं पञ्चविधशरीरेण ये ते इन्समासान्तविधेः सशरीरिणः-संसारिणोऽशरीरिणस्तुशरीरमेषामस्तीति शरीरिणस्तनिषेधादशरीरिणः-सिद्धाः १३ ॥ एते च संसारिणः सिद्धाश्च मरणामरणधर्मकाः, अप्रशस्तप्रशस्तमरणतश्चैते भवन्तीति प्रशस्ताप्रशस्तमरणनिरूपणाय नवसूत्रीमाह
दो मरणाई समणेण भगवया महावीरेण समणाणणिग्गंथाण णो णिच्च वनियाई णो णिच्चं कित्तियाई णो णिच्चं पूइयाई णो णिच्चं पसत्थाई णो णिच्च अभणुण्णायाई भवंति, तंजहा-वलायमरणे चेव वसट्टमरणे चेव १, एवं णियाणमरणे व तब्भवमरणे चेव २, गिरिपडणे चेव तरुपडणे चेव ३, जलप्पवेसे चेव जलणप्पवेसे चेव ४, विसभक्खणे चेव सत्थोवाडणे चेव ५, दो मरणाई णिच्च णो अब्भणुण्णायाई भवंति, कारणेण पुण अप्पडिकुट्ठाई तं. वेहाणसे चेव गिद्धपिटूठे चेव ६, दो मरणाई समणेणं भगवया महावीरेण समणाणं णिग्गंथाणं णिच्च वन्नियाई जाव अब्भणुण्णयाई भवति, त-पाओवगमणे चेव भत्तपच्चक्खाणे चेव ७, पाओवगमणे दुविहे पं० तंणीहारिमे चेव अणीहारिमे चेव णियम अपडिकम्मे ८, भत्तपच्चक्खाणे दुविहे पंत-णीहारिमे चेव अणीहारिमे चेव णियम सपडिकम्मे ९ (सू० १०२)
दो मरणाई'इत्यादि कण्ठय, नवरं द्वे मरणे श्रमणेन भगवता महावीरेण श्राम्यन्ति-तपस्यन्तीति श्रमणास्तेषां, ते च शाक्यादयोऽपि स्युः, यथोक्त-"निग्गंथ १ सक्क २ तावस ३, गेरुय ४ आजीव ५ पंचहा समणा" इति तद्वयवच्छेदार्थ माह-निर्गता ग्रन्थाद्-बाह्याभ्यन्तरादिति निर्ग्रन्थाः-साधवस्तेषां नो नित्य-सदा 'वर्णिते' तांस्तयोः प्रवर्तयितुमुपादेयफलतया नाभिहिते कीर्तिते-नामतः संशब्दिते उपादेयधिया 'बुइयाई ति व्यक्त
॥११॥
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सू०
१०२।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥११८॥
10000000000000000000000000000000000000000000000000000000004
वाचा उक्ते उपादेयस्वरूपतः पाठान्तरेण 'पूजिते वा' तत्कारिपूजनतः 'प्रशस्ते' प्रशंसिते श्लाधिते, 'शंसु स्तुता विति वचनात् , 'अभ्यनुज्ञाते' अनुमते यथा कुरुतेति, 'वलायमरण'ति वलतां-संयमानिवर्तमानानां परीषहादिवाधितत्वात् मरणं वलन्मरण, 'वसट्टमरण"ति इन्द्रियाणां वशम्-अधीनतां ऋतानां-गतानां स्निग्धदीपकलिकावलोकनाकुलितपतङ्गादीनामिव मरण वशार्त्तमरणमिति, एवं 'णियाणे त्यादि, 'एव मिति 'दो मरणाई समणेण' इत्याद्यमिलापस्योत्तरसूत्रेष्वपि सूचनार्थः, ऋद्धिभोगादिप्रार्थना निदानं, तत्पूर्वक मरण निदानमरण, यस्मिन् भवे वर्त्तते जन्तुस्तद्भवयोग्यमेवायुर्वध्वा पुनम्रियमाणस्य मरण तद्भवमरणम् , एतच्च सङ्ख्यातायुष्कनरतिरश्चामेव, तेषामेव तद्भवायुर्बन्धी भवतीति, उक्त च-"मोत्तुं अकम्मभूमग-नरतिरिए सुरगणे य णेरइए । सेसाण जीवाण, तब्भवमरणं तु केसिंचि ॥१॥"त्ति, 'सत्थोवाडणे त्त, शस्त्रेण-क्षुरिकादिना अवपाटन-विदारण स्वशरीरस्य यस्मिंस्तच्छस्त्रावपाटनम् , 'कारणे पुणे'त्यादि, शीलभङ्गरक्षणादौ पाठान्तरे तु कारणेन अप्रतिक्रुष्टे-अनिवारिते भगवता, वृक्षशाखादावुद्वद्धत्वाद् विहायसि नभसि भवं वैहायस प्राकृतत्वात्तु 'वेहाणस'मित्युक्तमिति, गृधैः स्पृष्ट-स्पर्शन यस्मिंस्तद् गृध्रस्पृष्टम् , यदि वा गृध्राणां भक्ष्य पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदरादि च तद्भक्ष्यकरिकरभादिशरीरानुप्रवेशेन महासत्त्वस्य मुमूर्षोयस्मिस्तद् गृध्रपृष्ठमिति, एते द्वे मरणे कारणे जातेऽभ्यनुज्ञाते इति । अप्रशस्तमरणानन्तरं तत् प्रशस्तं भव्यानां भवतीति तदाह-'दो मरणाई'इत्यादि, पादपो-वृक्षः, तस्येव छिन्नपतितस्योपगमनम्-अत्यन्तनिश्चेष्टतयाऽवस्थान यस्मिंस्तत्पादपोपगमन, भक्त-भोजन तस्यैव न चेष्टाया अपि पादपोपगमन इव प्रत्याख्यान-वर्जन यस्मिंस्तद् भक्तप्रत्याख्यानमिति, 'णीहारिमति यद्वसतेरेकदेशे विधीयते, तत्ततः शरीरस्य निर्हरणात्-निस्सारणान्निारिम,
॥११८॥
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सू०१०३-१०४।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
5-00000000000000000000000000000000000000000000000000000000
यत् पुनर्गिरिकन्दरादौ तदनिर्हरणादनिर्दारिमम् । 'णियम"ति विभक्तिपरिणामानियमादप्रतिकर्म-शरीरप्रतिक्रियावर्ज पादपोपगमनमिति, इङ्गितमरण विह नोकतं, द्विस्थानकानुरोधात् , तल्लक्षण चेदम्-"इंगियदेसंमि सय, चउन्विहाहारचायनिप्फन । उव्वत्तणाइजुत्तं, (तत्तेण) नऽण्णेण उ इंगिणीमरण ॥१॥ति" इदं च मरणादिस्वरूपं भगवता लोके प्ररूपितमिति लोकस्वरूपप्ररूपणाय प्रश्नं कारयन्नाह___केऽयं लोए ?, जीवच्चेव अजीवच्चेव, के अणंता लोप ?, जीवच्चेव अजीवच्चेव, के सासया लोए ?, जीवच्चेव अजीवच्चेव, (सू० १०३) । दुविहा बोही पं० त०-णाणबोही चेव दंसणबोही चेव, दुविहा बुद्धा ५० त०-णाणबुद्धा चेव दसणबुद्धा चेव, एवं मोहे, मूढा (सू० १०४) ।
'के' इति प्रश्नार्थः, 'अय'मिति देशतः प्रत्यक्ष आसन्नश्च, यत्र भगवता मरणादिप्रशस्ताप्रशस्तसमस्तवस्तुस्तोमतत्त्वमभ्यधायि, लोक्यत इति लोक इति प्रश्नः, अस्य निर्वचन जीवाश्चाजीवाश्चेति, पञ्चास्तिकायमयत्वालोकस्य, तेषां जीवाजीवरूपत्वादिति, उक्त च-"पंचत्थिकायमइयं लोगमणाइणिहण जिणक्खाय"ति । लोकस्वरूपभूतानां जीवाजीवानां स्वरूपं प्रश्नपूर्वकेण सूत्रद्वयेनाह-'के अणते'त्यादि के अनन्ताः लोके ? इति प्रश्नः, अत्रीत्तरं-जीवा अजीवाश्चेति, एत एव च शाश्वता द्रव्यार्थतयेति ॥ ये चैतेऽनन्ताः शाश्वताश्च जीवास्ते बोधिमोहलक्षणधर्मयोगाद् बुद्धा मूढाश्च भवन्तीति दर्शनाय द्विस्थानकानुपातेन सूत्रचतुष्टयमाह-'दुविहे'त्यादि, बोधन बोधिःजिनधर्मलाभः, ज्ञानबोधिः-ज्ञानावरणक्षयोपशमसंभूता ज्ञानप्राप्तिः, दर्शनबोधिः-दर्शनमोहनीयक्षयोपशमादिसम्पन्नः श्रद्धानलाभ इति, एतद्वन्तो द्विविधा बुद्धाः, एते च धर्मत एव भिन्ना न धर्मितया, ज्ञानदर्शनयोरन्योऽन्याविना
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॥११९॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०१०५।
दीपिका वृत्तिः । ॥१२०॥
ఈశాంతం శాంతి శాంతి శాంతి శాంతి శాంతి శాంతంలో
भूतत्वादिति, एवं 'मोहे मूढ'त्ति, यथा बोर्बुिद्धाश्च द्विधोक्ताः तथा मोहो मूढाश्च वाच्या इति, तथाहि-'मोहे दुविहे पन्नत्ते त-णाणमोहे चेव दंसणमोहे चेव' ज्ञानं मोहयति-आच्छादयतीति ज्ञानमोहो-ज्ञानावरणोदयः, एवं 'दसणमोहे चेव' सम्यग्रदर्शनमोहोदय इति, 'दुविहा मूढा पं० त-नाणमूढा चेब' ज्ञानमूढा-उदितज्ञानावरणाः, 'दंसणमूढा चेव' दर्शनमूढा-मिथ्यादृष्टय इति । द्विविधोऽप्यय मोहो ज्ञानावरणादिकर्मनिबन्धनमिति सम्बन्धेन ज्ञानावरणादिकर्मणामष्टाभिः सूत्रैविध्यमाह___णाणावरणिज्जे कम्मे दुविहे ५० त०-देसणाणावरणिज्जे चेव सव्वणाणावरणिज्जे चेव, दसणावरणिज्जे कम्मे एवं चेव, वेयणिज्जे कम्मे दुविहे पं० त०-सायवेयणिज्जे चेव, असायवेयणिज्जे चेव, मोहणिज्जे कम्मे दुविहे पं. त-दसणमोहणिज्जे चेव चरणमोहणिज्जे चेव, आउए कम्मे दुविहे १० त०-अद्धाउए चेव भवाउए चेव, णामे कम्मे दुविहे ५० त०- सुभणामे चेव असुभणामे चेव, गोत्ते कम्मे दुविहे पं० त०-उच्चागोए चेव णीयागोए चेव, अंतराइए कम्मे दुविहे पं० त०-पडप्पण्णविणासिए चेव पेहोतियआगामिपह । (सू० १०५)
'णाणे'त्यादि, सुगमानि चैतानीति, नवरं ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयं, देश-ज्ञानस्याभिनिवोधिकादिकमावृणोतीति देशज्ञानावरणीयम् , सर्व ज्ञान-केवलाख्यमावृणोतीति सर्वज्ञानावरणीय, केवलावरण हि आदित्यकल्पस्य केवलज्ञानरूपस्य जीवस्याच्छादकतया सान्द्रमेघवृन्दकल्पमिति तत् सर्वज्ञानावरण, मत्याद्यावरण तु घनाच्छादितादित्येषत्प्रभाकल्पस्य केवलज्ञानदेशस्य कटकुटयादिरूपावरणतुल्यमिति देशावरणमिति, पठ्यते च-"केवलणाणावरण, दसणछक्कं च मोहबारसगं । अनन्तानुबन्ध्यादीत्यर्थः] ता सव्वघाइसन्ना, भवंति मिच्छत्तवीसइम॥१॥"ति,
॥१२०॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१२१॥
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अथवा देशोपघातिसर्वोपघातिफडकापेक्षया देशसर्वावरणत्वमस्य यदाह - "म सुयणाणावरण, दंसणमोह च तदुबधाईणि । तप्फङगाई दुविहार, देससव्वोवघाईणि ॥ | १ ||" इत्यादि, दर्शनं - सामान्यार्थबोधरूपमावृणोतीति दर्शनावरणीय, उक्तं च- "दंसणसीले जीवे, दंसणघाय करेइ जं कम्मं । तं पडिहारसमाण, दंसणवरणं भवे जीवे ॥१॥ इति, एवं चेव' त्ति, देशदर्शनावरणीय चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणीयम्, सर्वदर्शनावरणीयं तु निद्रापञ्चकं केवलदर्शनावरणीय च, तथा वेद्यते - अनुभूयत इति वेदनीय, सातं मुखं तद्रूपतया वेद्यते यत्तत्तथा, इतरद् - एतद्विपरीतम्, आह च - " महुलित्तनिसियकरवाल - धार जीहाए जारिस लिहण । तारिसय वेयणियां, सुहदुहउपायगं मुह ||१||" इति, मोहयतीति मोहनीयं तथाहि - "जह मज्जपाणमूढो, लोए पुरिसो परव्वसो हो । तह मोहेण विमूढो, जीवो उपरव्यसो होइ || १ ||" इति दर्शन मोहयतीति दर्शनमोहनीयं - मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वभेद ं चारित्र सामायिकादि मोहयति यत् कपाय १६ नोकपाय ९ भेद तत्तथा एति च याति चेत्यायुः, एतद्रूपं च - "दुक्ख न देइ आउ, नविय सुह दे चउवि गई । दुक्खस्रुहाणाहारं, धरेइ देहद्विय जीव ं ॥१॥”ति, अद्धायुः- कायस्थितिरूपं, भावना तु प्राग्वत्, भवायुर्भवस्थितिरिति, विचित्रपर्यायैर्नमयति- परिणमयति यज्जीवं तन्नाम, एतत्स्वरूपं च - "जह चित्तयरो निउणो, अणेगरूवाई कुणइ रुवाई | सोहणमसोहणाई, चोक्खमचोक्खेहिं वण्णेहिं ॥ | १ || तह नामपि हु कम्म अणेगरूवाइ कुणइ जीवस्स । सोहणमसोहणाई, इहाणिट्ठाई लोयस्स ||२||त्ति" शुभं - तीर्थकरादि, अशुभम् - अनादेयत्वादीति । पूज्योऽयमित्यादिव्यपदेशरूपां गां वाचं त्रायत इति गोत्र, स्वरूपं चास्येद - "जह कुंभारो भंडाई, कुणइ पुज्जेयराई लोयस्स । इय गोयं कुणइ जियं, लोए पुज्जे
सू० १०५ ।
॥१२१॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०१०६-१०७
१०८॥
सूत्रदीपिका
वृत्तिः
।
॥१२२॥
వరించిందించిన వరి వంశాంశం వరిసారి ఆ అంశం
यरावत्यं ॥१॥" उच्चैर्गोत्र पूज्यत्वनिवन्धनमितरत्तद्विपरीतम् । जीवं चार्थ साधन चान्तरा एति-पततीति अन्तरायम् , इदं चैवम्-"जह राया दाणाई, न कुणइ भंडारिए विकूलंमि । एवं जेणं जीवो, कम्मं तं अंतराय ति ॥१॥" 'पडुपन्नविणासिए चेवत्ति, प्रत्युत्पन्न-वर्तमानलब्ध वस्तु इत्यर्थों विनाशितम्-उपहतं येन तत्तथा, पाठान्तरे प्रत्युत्पन्न विनाशयतीत्येवंशील प्रत्युत्पन्नविनाशि, चैवः समुच्चये, इत्येकम् , अन्यच्च पिधत्ते च निरुणद्धि च आगामिनो-लब्धव्यस्य वस्तुनः पन्था आगामिपथस्तमिति, कवचिद आगामिपथानिति दृश्यते, क्वचिच्च 'आगमपह 'ति, तत्र च लाभमार्गमित्यर्थः । इदं चाष्टविध कर्म मृजिन्यमिति मृ स्वरूपमाह
दुविहा मुच्छा पं० त०-पेज्जवत्तिया चेव दोसवत्तिया चेव, पेज्जवत्तिया मुच्छा दुविहा पं० त०-मायच्चेव लोभच्चेव, दोसवत्तिया मुच्छा दुविहा पं० २०-कोहे चेव माणे चेव, (सू० १०६) दुविहा आराहणा प० त०धम्मियाराहणा चेव केवलिआराहणा चेव, धम्मियाराहणा दुविहा पं० त०-सुयधम्माराहणा चेव चरित्तधम्माराहणा चेच, केवलिआराहणा दुविहा पंत-अंतकिरिया चेव कप्पविमाणोवत्तिया चेव (सू०१०७) दो तित्थगरा नीलुप्पलसमा वण्णेणं पंत-मुणिसुब्बए चेव अरिट्ठनेमी चेव, दो तित्थगरा पियंगुसमा वण्णेणं पं० त०-मल्ली चेव पासे चेव, दो तित्थगरा पउमगोरा वण्णेणं पं० त०-पउमप्पभे चेव वासुपुज्जे चेव, दो तित्थगरा चंदगोरा वण्णेण' ५० त०-चंदप्पभे चेव पुष्फदंते चेव (सू० १०८) ।
'दुविहे'त्यादि सूत्रत्रयं कण्ठय, नवरं मूच्र्छा-मोहः सदसद्विवेकनाशः प्रेम-रागो वृत्तिः-वर्तन रूप प्रत्ययो वा हेतुर्यस्याः सा प्रेमवृत्तिका प्रेमप्रत्यया वा, एवं द्वेषवृत्तिका द्वेषप्रत्यया वा इति । मूर्होपात्तकर्मणश्च क्षय आराधनयेति तां सूत्रत्रयेणाह-'दुविहे'त्यादिसूत्रत्रयं कण्ठयम् , नवरम् आराधनमाराधना-ज्ञानादिवस्तुनोऽनुकूल
॥२२॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०१०९-११०
१११-१.२
दीपिका वृत्तिः ।
1000000000000000000000000000000000000000000000000000000
वर्तित्वं निरतिचारज्ञानाद्यासेवेतियावत् , धर्मेण-श्रुतचारित्ररूपेण चरन्तीति धार्मिका:-साधवस्तेषामियं धार्मिकी सा चासावाराधना च धार्मिकाराधना, केवलिनां-श्रुतावधिमनःपर्यायकेवलज्ञानिनामियं केवलिकी सा चासावाराधना चेति केवलिकाराधनेति । 'सुयधम्मे'त्यादौ विषयभेदेनाराधनाभेद उक्तः, 'केवलिआराहणे'त्यादौ तु फलभेदेनेति, तत्र अन्तोभवान्तस्तस्य क्रिया अन्तक्रिया, भवच्छेद इत्यर्थः, तद्धतुर्याऽऽराधना शैलेशीरूपा साऽन्तक्रियेति उपचारात्, एषा च क्षायिकज्ञाने केवलिनामेव भवति । तथा 'कल्पेसु' देवलोकेषु, न तु ज्योतिश्चारे, विमानानि-देवावासविशेषाः अथवा कल्पाश्च-सौधर्मादयो विमानानि च-तदुपरिवर्तित्रैवेयकादीनि कल्पविमानानि तेषूपपत्तिः-उपपातो जन्म यस्याः सकाशात् सा कल्पविमानोपपत्तिका ज्ञानाद्याराधना, एषा च श्रुतकेवल्यादीनां भवतीति, एवंफला चेयमनन्तरफलद्वारेणोक्ता परम्परया तु भवान्तक्रियाऽनुपातिन्येवेति । तीर्थ करान् द्विस्थानकानुपातेनाह-'दो तित्थयरे'त्यादि सूत्रचतुष्टय कण्ठय, नवरं पद्म-रकोपलं तद्वद् गौरी, पद्मगौरौ, रक्तावित्यर्थः, तथा चन्द्रगौरौ चन्द्रशुभ्रावित्यर्थः। तीर्थकरस्वरूपमनन्तरमुक्तम् , तीर्थ कर्तृत्वात् तीर्थ कराः, तीर्थं च प्रवचनमिति प्रवचनैकदेशस्य पूर्वविशेषस्य द्विस्थानकावतारायाह
सच्चप्पवायपूव्वस्स ण दुवे वत्थू पं० त० सुभनामे चेव असुभनामे चेव (सू० १०९) पुबाभद्दवयाणक्खत्ते दुतारे ५०, उत्तरभद्दवयाणक्खत्ते दुतारे ५०, एवं पुवाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी (सू० ११०) अंतो णमणुस्सखेत्तस्त दो समुद्दा ५० त० लवणे चेव कालोदे चेव (सू० १११) दो चक्कवट्टी अपरिचत्तकामभोगा कालमासे कालं किच्चा अहेसत्तमाए पुढबीए अपइट्ठाणे णरए णेरइयत्ताए उववण्णा त-सुभूमे चेव बंभदत्ते चेव (सू० ११२) ।
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॥१२३॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०२०९-११८
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥१.२४॥
విరిచి ఉంచి మంచి
పరిపాలించిన అంశాలు తిరిగి
'सच्चपवाये'त्यादि, सद्भ्यो-जीवेभ्यो हितः सत्यः-संयमः सत्यवचन वा स यत्र सभेदः सप्रतिपक्षश्च प्रकर्षणोच्यते-अभिधीयते तत् सत्यप्रवाद, तच्च तत्पूर्व च सकलश्रुतात् पूर्व क्रियमाणत्वादिति सत्यप्रवादपूर्व, तच्च षष्ठ, तत्परिमाण च एका पदकोटी षट्पदाधिका, तस्य च द्वे वस्तुनी, वस्तु च-तद्विभागविशेषोऽध्ययनादिवदिति । अनन्तरं पष्ठपूर्वस्वरूपमुक्तमधुना पूर्वशब्दसाम्यात् पूर्वभाद्रपदानक्षत्रस्वरूपमाह-'पुब्वे त्यादि कण्ठयम् । नक्षत्रवन्तश्च द्वीपाः समुद्राश्चेति समुद्रद्विस्थानकमाह-'अंतो णमित्यादि, अन्तः-मध्ये 'मनुष्यक्षेत्रस्य' मनुष्योत्पत्त्यादिविशिटाकाशखण्डस्य पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाणस्य, शेष कण्ठयमिति। मनुष्यक्षेत्रप्रस्तावाद् भरतक्षेत्रोत्पन्नोत्तमपुरुषाणां नरकगामितया द्विस्थानकावतारमाह-दो चक्कवट्टी'त्यादि, द्वौ चक्रेण-रत्नभूतप्रहरणविशेषेण वर्तितुं शील ययोस्तो चक्रवर्ति नौ, 'कामभोग'त्ति कामौ च-शब्दरूपे भोगाश्च-गन्धरसस्पर्शाः कामभोगाः, न परित्यक्तास्ते यकाभ्यां तौ तथा, 'कालमासे ति कालस्य-मरणस्य मास उपलक्षण चैतत् पक्षाहोरात्रादेः, ततश्च कालमासे, मरणावसर इति भावः, 'काल' मरण कृत्वा अधः सप्तम्यां पृथिव्यां, तमस्तमायामित्यर्थः, अधोग्रहण विना सप्तमी उपरिष्टाच्चिन्त्यमाना रत्नप्रभाऽपि स्यादित्यधोग्रहण, अप्रतिष्ठाने नरके पश्चानां मध्यमे नैरयिकत्वेनोत्पन्नौ, 'सुभूमोऽष्टमो ब्रह्मदत्तश्च द्वादशः, तत्र च तयोस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिरिति । नारकाणां चासङ्ख्येयकालाऽपि स्थितिर्भवतीति भवनपत्यादीनामपि तां दर्शयन् पञ्चसूत्रीमाह___ असुरिंदवज्जियाण देवाण देसूणाई दो पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता, सोहम्मे कप्पे देवाण उक्कोसेण दो सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता, ईसाणे कप्पे देवाण उक्कोसेण साइरेगाई दो सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता, सणंकुमारे कप्पे
20000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥१२४॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
सू०११३-११४
११५-१२६११७-११८
॥१२५॥
देवाण' जहन्नेण दो सागरोवमाइ ठिई पन्नत्ता, मा हदे कष्पे देवाण जहन्नेण साइरेगाई दो सागरोवमाई ठिई पन्नत्तः । (सू० ११३) दोसु कप्पेसु कप्पित्थियाओ पन्नत्ताओ, त-सोहम्मे चेव ईसाणे चेव । (सू० ११४) दोसु कप्पेसु देवा तेउल्लेसा प० त०-सोहम्मे चेव ईसाणे चेव (सू० ११५) दोसु कप्पेसु देवा कायपरियारगा पं० त०-सोहम्मे चेव ईसाणे चेव, दोसु कप्पेसु देवा फासपरियारगा पं० त-सणंकुमारे चेव माहिंदे चेव, दोसु कप्पेसु देवा रूवपरियारगा ५० त०-बभलोए चेव लंतए चेव, दोसु कप्पेसु देवा सद्दपरियारगा पं० त०-महासुक्के चेव सहस्सारे चेव, दो इंदा मणपरियारगा पं० त०-पाणए चेव अच्चुए चेव, (सू० ११६) जीवा ण दुट्ठाणणिव्यत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, संजहा-तसकायणिब्बत्तिए चेव थावर कायणिवत्तिए चेव, एवं उबचिणिसु वा उवचिणति वा उवचिणिस्संति वा, बंधिसु वा बंधति वा बंधिस्सति वा, उदीरिंसु वा उदीरेति वा उदीरिस्सति वा, वेदेसु वा वेदिति वा वेदिस्सति वा, णिज्जरिंसु वा णिज्जरति वा णिज्जरिस्सति वा (सू० ११७) दुपएसिया खधा अणंता पन्नत्ता, दुपएसोगाढा पोग्गला अणंता पन्नत्ता, पवजाव दुगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पन्नत्ता (सू० ११८) । विठ्ठाण अज्झयणं सम्मत्त ॥
'असुरे'त्ति, असुरेन्द्रौ-चमरवली तद्वर्जितानां तत्सामानिकवर्जितानां च, सूत्रे इन्द्रग्रहणेन सामानिकानामपि ग्रहणाद् , अन्यथा सामानिकत्वमेव तेषां न स्यादिति, शेपाणां त्रायस्त्रिंशादीनामसुराणां तदन्येषां च भवनवासिनां देवानामित्यसुरेन्द्रवर्ज तनागकुमारादीन्द्राणामित्यर्थः उत्कर्षतो द्वे पल्योपमे किश्चिदूने स्थितिः प्रज्ञप्ता, उत्कर्पत एवैतज्जघन्यतस्तु दशवर्षसहस्राणीति, शेष सुगमम् , नवरं सौधर्मादिष्वियं स्थिति:-"दो १ साहि २ सत्त ३ |साही ४, दस ५ चोदस ६ सतर चेव ७ अयराई । सोहम्म जा मुक्को, तदुवरि एकेकमारोवे ।।"त्ति, इय
॥१२५||
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥१२६॥
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मुत्कृष्टा, जघन्या तु - "पलियं १ अहियं २ दो सार ३, साहिया ४ सत्त ५ दस य ६ चोदस य ७ । सत्तरस सहस्सारे ८ तदुवरि एक्केकमारोवे ||" । देवलोकप्रस्तावात् स्त्र्यादिद्वारेण देवलोकद्विस्थानकावतारं सप्तसूत्र्याऽऽह'दोसु' इत्यादि, कल्पयोर्देवलोकयोः स्त्रियः कल्पस्त्रियो- देव्यः, परतो न सन्ति, शेषं कण्ठ्यम् १, नवरं 'तेउलेस 'ति तेजोरूपा लेश्या येषां ते तेजोलेश्याः, ते च सौधर्मेशानयोरेव न परतः, तयोश्च तेजोलेश्या एव, नेतरे, आह च - " किण्हा नीला काऊ, तेउलेसा य भवणवंतरिया । जोइस सोहम्मीसाण, तेउलेस्सा मुणेयव्वा"त्ति, "काय परियारग'त्ति परिचरन्ति सेवन्ते स्त्रियमिति परिचारकाः, कायतः परिचारकाः कायपरिचारकाः, एवमुत्तरत्रापि, नवरं स्पर्शादिपरिचारकाः स्पर्शादेरेवोपशान्तवेदोपतापा भवन्तीत्यभिप्रायः, आनतादिषु चतुर्षु कल्पेषु मनः परिचारका देवा भवन्तीति वक्तव्ये द्विस्थानकानुरोधाद 'दो इंदा' इत्युक्तम्, आनतादिषु हि द्वाविन्द्राविति - "दो कायष्पवियारा, कप्पा फरिसेण दोणि दो रूवे । सदे दो चउर मणे, उवरिं परियारणा नत्थि ||" इयं च परिचारणा कर्मतः, कर्म च जीवाः स्वहेतुभिः कालत्रयेऽपि चिताद्यवस्थं कुर्वन्तीत्याह - 'जीवाण' मित्यादि, सूत्राणि पट् स्रुगमानि, नवरं, जीवा - जन्तवो, ण वाक्यालङ्कारे, द्वयोः स्थानयोः सस्थावरकायलक्षणयोः समाहारो द्विस्थानं, तत्र मिथ्यात्वादिभिर्ये निर्वर्त्तिताः - सामान्येनोपार्जिता वक्ष्यमाणावस्थापट्कयोग्यीकृता द्वयोर्वा स्थानयोर्निवृत्तिर्येषां ते द्विस्थाननवृत्तिकास्तान् पुद्गलान् कार्मणान् पापकर्म-धातिकर्म सर्वमेव वा ज्ञानावरणादि तद्भावस्तत्ता तया पापकर्मतया तद्रूपतयेत्यर्थः, चितवन्तो वा अतीतकाले चिन्वन्ति वा सम्प्रति चेष्यन्ति वा अनागतकाले केचिदिति गम्यते, चयन च कपायादिपरिणतस्य कर्मपुद्गलोपादानमात्रम् उपचयनं तु चितस्यावाघाकाल' मुक्त्वा ज्ञानावरणीया
सू० ११३-११८ ।
॥१२६॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥१२७॥
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दितया निषेकः, स चैवं - प्रथमस्थितौ बहुतरं कर्मदलिक निषिञ्चति ततो द्वितीयायां विशेषहीनमेवं “जावुकोसियाए विसेसहीणं णिसिंचर "त्ति, बन्धनं तु तस्यैव ज्ञानावरणादितया निषितस्य पुनरपि कषायपरिणतिविशेषानिकाचनमिति, उदीरणं त्वनुदयप्राप्तस्य करणेनाकृष्योदये क्षेपणमिति, वेदनम् - अनुभवः, निर्जरा-कर्मणोऽकर्म ताभवनमिति । कर्म च पुद्गलात्मकमिति पुद्गलान् द्रव्यक्षेत्रकालभावैर्द्धिस्थानकावतारेण निरूपयन्नाह - 'दुपएसिए'त्यादिसूत्राणि त्रयोविंशतिः, सुगमा चेयं, नवरं यावत्करणाद् 'दुसमयडिइए 'त्यादि सूत्राण्येकविंशतिर्वाच्यानि, काल पञ्चद्विपञ्चाष्टभेदान् वर्णगन्धरसस्पर्शा चाश्रित्येति वाचना चैव - 'दुसमपठितिया पोग्गले 'त्यादि । द्विस्थानकस्य चतुर्थोद्देशकः समाप्तः । तत्समाप्तौ च श्रीमत्तपोगच्छाधिराजसूरीश्वर श्रीविजयसेनसूरिराज्ये श्रीमत्तपोगच्छशृङ्गारहारसूरिश्रीविजयदेवसूरीश्वरयौवराज्ये सकलवाचकशिरोमणिमहोपाध्याय श्रीविमलह पेगणिभिः संशोधितायां पण्डितश्री कुशलवर्द्धन गणिशिष्यनगपिंगणिना स्ववाचनपरोपकारकृते कृतोद्धाररूपायां श्रीस्थानाङ्गदीपिकायां द्वितीयस्थानकाव्य द्वितीयमध्ययनं समाप्तम् ॥
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द्विस्थानकानन्तरं त्रिस्थानकमेव भवति सख्याक्रमप्रामाण्यादित्यनेन सम्बन्धेनायातस्य चतुरनुयोगद्वारस्य चतुरुद्देशकस्यास्य तत्रापि द्वितीयाध्ययनान्त्योद्देशके जीवादिपर्याया उक्ता अस्याप्यध्ययनस्य प्रथमोद्देश त एवाभिधीयन्त इत्येवंसम्बन्धस्यैतत्प्रथमोदेशकस्य तत्राप्यनन्तरोदेशकान्त्यसूत्रे पुद्गलधर्मा उक्रेता एतत्प्रथमसूत्रे तु जीवधर्मा उच्यन्त इत्येवंसम्बन्धस्यादिसूत्रम् ।
सू० ११३-११८ |
॥१२७॥
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सू०११९
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१२८॥
ఉండశాంతించి పరిశీలించి వివరించిన అంశాలను మంచం శాంతి
तओ इंदा पन्नत्ता त-णार्मिदे ठवणिदे दबिदे, तओ इंदा ५० त०-णाणिदे दसणिदे चारित्तिदे, तओ इंदा पं० त०-देविंदे असुरिंदे मणुस्सिदे (सू० ११९) ।
तओ इंदे'त्यादेाख्या, सा च मुकरैव, नवरमिन्दनाद्-ऐश्वर्याद् इन्द्रः, नाम-संज्ञा तदेव यथार्थमिन्द्रेत्यक्षरात्मकमिन्द्रो नामेन्द्रः, अथवा सचेतनस्याचेतनस्य वा यस्येन्द्र इत्ययथार्थ नाम क्रियते स नामनामवतोरभेदोपचारात् नाम चासाविन्द्रश्चेति नामेन्द्रोऽयमर्थः-यद्वस्त्वित्यादिना यथार्थमिन्द्र इत्याधुक्त, स्थितमित्यादिना त्वयथार्थं गोपालादाविन्द्रेत्यादि, यादृच्छिकमनर्थकंडित्थादीति ३। तथा इन्द्रायभिप्रायेण स्थाप्यत इति स्थापनालेप्यादिकर्म सैवेन्द्रः स्थापनेन्द्रः, इन्द्रप्रतिमा साकारस्थापनेन्द्रः अक्षादिन्यासस्त्वितर इति, स्थापनालक्षणमिद“यत्तु तदर्थ वियुक्त, तदभिप्रायेण यच्च तत्करणिः । लेप्यादिकर्म तत् स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालञ्च ॥१॥" इति, तथा, "लेप्पगहत्थी हस्थित्ति, एस सब्भाविया भवे ठवणा । होइ असब्भावे पुण, हस्थित्ति निरागिई अक्खो ॥१॥” इति । तथा द्रवति-गच्छति तांस्तान् पर्यायान् अनुभूयते वा तैस्तैः पर्यायैौर्वा-सत्ताया अवयवो विकारो वा वर्णादिगुणानां वा द्रावः-समूह इति द्रव्यं, तच्च भूतभावं भाविभावं चेति, आह च-"दवए १ दुयए २ दोरवयवो विगारो ३ गुणाण संदावो ४ । दव्वं भव्वं भावस्स, भूयभावं च ज जोग ॥१॥"ति, तथा “भूतस्य भाविनो वा, भावस्य हि कारण तु यल्लोके । तद् द्रव्यं तत्त्वज्ञैः, सचेतनाचेतनं गदितम् ।।१॥" तथा "अनुपयोगो द्रव्यमप्रधान चेति" तत्र द्रव्यं चासाविन्द्रश्चेति द्रव्येन्द्रः, स च द्विधा आगमतो नोआगमतश्वेत्यादि वृत्तौ । तथा भव्यो-योग्य इन्द्रशब्दार्थ ज्ञास्यति यो न तावद्विजानाति स भव्य इति तस्य शरीर
॥१२८॥
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श्रीस्थानानसूत्र
सू० ११९।
दीपिका
वृत्तिः ।
॥१२९॥
1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
भव्यशरीरं तदेव द्रव्येन्द्रो (भव्येन्द्रो) भव्यशरीरद्रव्येन्द्रः, अयमत्र भावार्थों-भाविनी वृत्तिमङ्गीकृत्य इन्द्रोपयोगाधारत्वान्मधुघटादिन्यायेनैव तद् बालादिशरीरं भव्यशरीरद्रव्येन्द्र इति, स द्रव्येन्द्रोऽवस्थाभेदेन त्रिविधः, तद्यथा-एकभविको बद्धायुष्कोऽभिमुखनामगोत्रश्चेति, तत्र एकस्मिन् भवे तस्मिन्नेवातिक्रान्ते भावी एकभविको योऽनन्तर एव भवे भावेन्द्रतयोत्पत्स्यत इति, स चोकर्पतस्त्रीणि पल्योपमानि भवति, देवकुर्वादिमिथुनकस्य भवनपत्यादीन्द्रतयोत्पत्तिसम्भवादिति, तथा स एवेन्द्रायुर्वन्धानन्तरं बद्धमायुरनेनेति बद्धायुरुच्यते, स चोत्कर्पतः पूर्वकोटीत्रिभागं यावत् , तस्मात् परतः आयुष्कबन्धाभावात् , अभिमुखे-संमुखे जघन्योत्कर्षाभ्यां समयान्तर्मुहर्तानन्तरभावितया नामगोत्रे इन्द्रसम्बन्धिनी यस्य स तथा, इति द्रव्येन्द्रः । भावेन्द्रस्त्विह त्रिस्थानकानुरोधानोक्तः, तल्लक्षण चेदम्भावम्-इन्दनक्रियानुभवनलक्षणपरिणाममाश्रित्येन्द्र इन्दनपरिणामेन वा भवतीति भावः, स चासाविन्द्रश्चेति भावेन्द्रः इति । इदानीं भावेन्द्र त्रिस्थानकावतारेणाह-'तओ इंदे'त्यादि कण्ठ्य, नवरं ज्ञानेन ज्ञानस्य ज्ञाने वा इन्द्रः परमेश्वरी ज्ञानेन्द्रः-अतिशयवच्छताद्यन्यतरज्ञानवशविवेचितवस्तुविसरः केवली वा, एवं दर्शनेन्द्रः-क्षायिकसम्यग्दर्शनी, चारित्रेन्द्रो-यथाख्यातचारित्रः, एतेषां च भावेन-सकल भावप्रधानक्षायिकलक्षणेन विवक्षितक्षायोपशमिकलक्षणेन वा भावतः-परमार्थतो बेन्द्रत्वात्-सकलसंसार्यप्राप्तपूर्वगुणलक्ष्मीलक्षणपरमैश्वर्ययुक्तत्वाद् भावेन्द्रताऽवसेयेति । उक्त| माध्यात्मिकैश्वर्यापेक्षया भावेन्द्रत्रैविध्यमथ बाह्येश्वर्यापेक्षया तदेवाह-'तओ इंदे'त्यादि, भावितार्थ, नवरं देवा-वैमानिका ज्योतिष्कवैमानिका वा रूढेः, असुरा-भवनपतिविशेषा भवनपतिव्यन्तरा वा सुरपर्युदासात् , (सुरसादृश्यात् ), मनुजेन्द्रः-चक्रवर्त्यादिरिति ॥ त्रयाणामप्येषां वैक्रियकरणादिशक्तियुक्ततयेन्द्रत्वमिति विकुर्वणानिरूपणायाह
శాంతి శాంతి శాంతివంతరించి పరిశీలించి
అంతరించి ఉంది
| ॥१२९॥
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सू०१२०-१२१ ।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१३०||
तिविहा विगुव्वणा पन्नत्ता त-बाहिरप पोग्गले परियाइत्ता पगा विगुव्वणा, बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता एगा विगुव्वणा, बाहिरप पोग्गले परियाइत्तावि अपरियाइत्तावि पगा विगुब्वणा । तिविहा विगुब्वणा पंत-अम्भितरे पोग्गले परियाइत्ता एगा विगुव्वणा, अभितरे पोग्गले अपरियाइत्ता एगा विगुव्वणा, अम्भितरए पोग्गले परियाइत्तावि अपरियाइत्तावि एगा विगुव्यणा । तिविहा विगुव्वणा पं० त०-बाहिरभंतरे पोग्गले परियाइत्ता पगा विगुव्वणा, बाहिर तरे पोग्गले अपरियाइत्ता एगा विगुव्वणा, बाहिरभंतरे पोग्गले परियाइत्तावि अपरियाइत्तावि एगा विगुव्वणा । (सू० १२०)। तिविहा णेरइया पं० २०-कइसंचिया अकइसंचिया अवत्तव्वगसंचिया, एवमेगिदियवजा जाव बेमाणिया (सू० १२१) ।
तिविहे 'त्ति सूत्रत्रयी कण्ठ्या , नवरं बाह्यपुद्गलान् भवधारणीयशरीरानवगाढक्षेत्रप्रदेशवत्तिनो वैक्रियसमुद्घातेन पर्यादाय-गृहीत्वैका विकुर्वणा क्रियत इति शेषः तानपर्यादाय, या तु भवधारणीयरूपैव साऽन्या, यत्पुनभवधारणीयस्यैव किञ्चिद्विशेषापादन सा पर्यादायापि अपर्यादायापि इति तृतीया व्यपदिश्यते, अथवा विकुर्वणाभूषाकरण, तत्र बाह्यपुद्गलानादायाभरणादीन् अपर्यादाय केशनखसमारचनादिना उभयतस्तूभयथेति, अवा अपर्यादायेति कुकलाससादीनां रक्तत्वफणादिकरणलक्षणेति । एवं द्वितीयसूत्रमपि मुगमम् , नवरमभ्यन्तरपुद्गला भवधारणीयेनौदारिकेण वा शरीरेण ये क्षेत्रप्रदेशा अवगाढास्तेष्वेव ये वर्त्तन्ते तेऽवसेयाः, विभूषणपक्षे तु निष्ठीवनादयोऽभ्यन्तरपुद्गला इति । तृतीय सूत्रं तु बाह्याभ्यन्तरपुद्गलयोगेन वाच्यम् , तथाहि-उभयेषामुपादानाद् भवधारणीयनिष्पादन तदनन्तरं तस्यैव केशादिरचनच, अनादानाच्चिरविकुर्वितस्यैव मुखादिविकारकरणम् , उभयतस्तु बाह्याभ्यन्तराणामनभिमतानामादानतोऽन्येषामनादानतोऽनिष्टरूपभवधारणीयेतररचनमिति ॥ अनन्तरं विकुर्वणोक्ता,
००००००००००००००००००00000000000000000000000000000000000000000
॥१३०॥
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सू० १२०-१२१ ।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१३॥
సంహరించి శాంతించి వివరించిందించింది.
| सा च नारकाणामप्यस्तीति नारकानिरूपयन्नाह-तिविहे'त्यादि नवरं 'कती'त्यनेन सङ्ख्यावाचिना द्वयादयः | सङ्ख्यावन्तोऽभिधीयन्ते, अयं चान्यत्र प्रश्नविशिष्टसङ्ख्यावाचकतया रूढोऽपीह सङ्ख्यामात्रे द्रष्टव्यः, तत्र नारकाः कतिसङ्ख्याता एकैकसमये य उत्पन्नाः सन्तः सञ्चिताः-कत्युत्पत्तिसाधाद् बुद्धया राशीकृतास्ते कतिसञ्चिताः, तथा न कतिसङ्ख्याता इत्यकतिसङ्ख्याता अनन्ता वा, तत्र ये अकति-अकतिसङ्ख्याता असङ्ख्याता एकैकसमये उत्पन्नाः सन्तस्तथैव सञ्चितास्ते अकतिसञ्चिताः, तथा यः परिमाणविशेषो न कति नाप्यकतीति शक्यते वक्तुं सोऽवक्तव्यकः स चैक इति तत्सञ्चिता अवक्तव्यकसञ्चिताः, समये समये एकतयोत्पन्ना इत्यर्थः, उत्पद्यन्ते हि नारका एकसमये एकादयोऽसङ्ख्येयान्ताः, उक्तंच-“एगो व दो व तिम्नि व, संखमसंखा व एगसमएण । उववज्जंतेवइया, उबटुंता वि एमेव ॥१॥"त्ति, 'एव'मिति नारकवच्छेपाश्चतुर्विंशतिदण्डकोक्ता वाच्या एकेन्द्रियवर्जाः, यतस्तेषु प्रतिसमयमसङ्ख्याता अनन्ता वा अकतिशब्दवाच्या एवोत्पद्यन्ते, न त्वेकः सङ्ख्याता वा इति, आह च-"अणुसमयमसंखेज्जा संखेजाऊय तिरियमणुया य । एगिदिएसु गच्छे, आरा ईसाणदेवा य ॥१॥ एगो असंखभागो, वट्टइ उन्चट्टणोववायंमि । एगनिगोए निच्चं, एवं सेसेसु वि स एव ॥२॥"त्ति, अनन्तरसूत्रे कतिसञ्चितादिको धर्मों वैमानिकानां देवानामुक्तः, अधुना देवानां सामान्येन परिचारणाधर्मनिरूपणायाह
तिविहा परियारणा पं० त०-एगे देवे अण्णे देवे अण्णेसि देवाण देवीओ अ अभिजुजिय २ परियारेइ, अप्पणिज्जिआओ देवीओ अभिजुजिय २ परियारेइ, अप्पाणमेव अप्पणा विउब्विय २ परियारेइ १, एगे देवे णो अण्णे देवे णो अण्णेसिं देवाणं देवीओ अभिजु जिय २ परियारेइ, अप्पणिज्जियाओ देवीओ अभिजुजिय २ परियारेइ,
॥१३॥
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सू०१२२-१२३ ।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१३२॥
अप्पाणमेव अप्पणा विउब्विय २ परियारेइ २, एगे देवे णो अन्ने देवे णो अण्णेसिं देवाणं देवीओ अभिमुंजिय २ परियारेइ, णो अप्पणिज्जियाओ देवीओ अभिजु जिय २ परियारेइ, अप्पणामेव अप्पाण विउव्विय २ परियारेइ ३, (सू० १२२) । तिविहे मेहुणे ५० त०-दिब्वे माणुस्सए तिरिक्खजोणिए तओ मेहुणं गच्छति त०-देवा मणुस्सा तिरिक्खजोणिआ, तओ मेहुण सेवंति त-इत्थी पुरिसा णपुंसगा (सू० १२३)।
तिविहा परी'त्यादि, कण्ठयम् , नवरं परिचारणा-देवमैथुनसेवेति, एकः कश्चिद्देवो न सर्वोऽप्येवमिति, | किम् ?-'अण्णे देवे'त्ति अन्यान् देवान्-अल्पर्धिकान् तथाऽन्येषां देवानां सत्का देवीश्चाभियुज्याभियुज्य-आश्लिष्याश्लिष्य वशीकृत्य वा परिचारयति-परिभुङ्क्ते वेदबाधोपशमायेति, न च न सम्भवति देवस्य देवसेवा पुंस्त्वेनेत्याशङ्कनीयम् , मनुष्येष्वपि तथा श्रवणात् , न चात्रार्थे नरामरयोः प्रायो विशेषोऽस्तीति, एक एवायं प्रकारो देवदेवीनामन्यत्वसामान्यादत एव द्वयोरपि पदयोरेकः क्रियाभिसम्बन्ध इति, एवमात्मीया देवीः परिचारयतीति द्वितीयः, तथाऽऽत्मानमेव परिचारयति, कथ?-आत्मना विकृत्य विकृत्य परिचारणायोग्यं विधायेति तृतीयः, एवं प्रकार त्रयरूपाप्येकेय परिचारणा, प्रभविष्णूत्कटकामैकपरिचारकवशादिति, अथान्यो देव आद्यप्रकारपरिहारेणान्त्यप्रकारद्वयेन परिचारयतीति द्वितीयेयमप्रभविष्णूचितकामपरिचारकदेवविशेषात् , तथाऽन्यो देव आद्यप्रकारद्वयवर्जनेनान्त्यप्रकारेण परिचारयतीति तृतीयाऽनुत्कटकामाल्पर्दिकदेवविशेषस्वामिकत्वादिति ।। परिचारणेति मैथुनविशेष उकूतोऽधुना तदेव मैथुन सामान्यतः प्ररूपयन्नाह-'तिविहे मेहुणे' इत्यादि कण्ठयं, नवरं मिथुनं-स्त्रीपुंसयुग्मं तत्कर्म मैथुन, नारकाणां तन्न सम्भवति द्रव्यत इति चतुर्थ नास्त्यवेति नोक्तम् । मिथुनकर्मण एव कारकानाह-'तो'
॥१३२॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सू०१२४।
दीपिका
वृत्तिः ।
॥१३३॥
इत्यादि कण्ठय, तेषामेव भेदानाह-'तओ मेहुण मित्यादि, कण्ठय, नारं स्त्र्यादिलक्षणमिदमाचक्षते विचक्षणाः| “योनि १ मदुत्वरमस्थैर्य, मुग्धता ४ क्लीवता ५ स्तनौ ६। पुंस्कामितेति ७ लिङ्गानि, सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते॥१॥मेहनं१ खरतार दाढयं ३, शौण्डीर्य ४ श्मश्रु ५ धृष्टता । स्त्रीकामितेति ७ लिङ्गानि, सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते ॥२॥ स्तनादिश्मश्रुकेशादि-भावाभावसमन्वितम् । नपुंसक बुधाः प्राहुः, मोहानलमुदीपितम् ॥३॥" तथाऽन्यत्राप्युक्तम्-"स्तनकेशवती स्त्री स्याद् , रोमशः पुरुषः स्मृतः । उभयोरन्तरं यच्च, तदभावे नपुंसकम् ॥१॥"इत्यादि । एते च योगवन्तो भवन्तीति योगप्ररूपणायाह
तिविहे जोगे ५० त०-मणजोगे वयजोगे कायजोगे, एवं नेरइयाणं विगलिंदियवज्जाणं जाव वेमाणियाणं, तिविहे पओगे पंत-मणपओगे वयपओगे कायपओगे, जहा जोगो विगलिंदियव जाणं तहा पओगो वि, तिविहे करणे पं० त०-मणकरणे वइकरणे कायकरणे, एवं विगलिंदियवज्ज जाव वेमाणियाणं, तिविहे करणे ५० त०आरंभकरणे संरंभकरणे समारंभकरणे निरंतरं जाव वेमाणियाणं (सू० १२४) । _ तिविहे जोए'इत्यादि, इह वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमसमुत्थलब्धिविशेषप्रत्ययमभिसन्ध्यनभिसन्धिपूर्वमात्मनो वीर्य योगः, स च द्विधा-सकरणोऽकरणश्च, तत्रालेश्यस्य केवलिनः कृत्स्नयो यदृश्ययोरर्थयोः केवल ज्ञान दर्शन चोपयुजानस्य योऽसावपरिस्पन्दोऽप्रतिघो वीर्यविशेषः सोऽकरणः, स च नेहाधिक्रियते, सकरणस्यैव त्रिस्थानकावतारित्वाद् , अतस्तत्रैव व्युत्पत्तिस्तमेव चाश्रित्य सूत्रव्याख्या, युज्यते जीवः कर्मभिर्येन 'कम्म जोगनिमित्त बज्झइ'त्ति वचनात् युङ्क्ते प्रयुङ्कते यं पर्यायंस योगो-वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितो जीवपरिणामविशेष इति, मनसा करणेन युक्तस्य
ఆంతరం వరించింహశాంంంంంంంంంచి మంచి మంచి మంచి మంచి మంచి
॥१३३॥
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सू०१२४।
श्रोस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१३४॥
जीवस्य योगो-वीर्यपर्यायो दुर्बलस्य यष्टिकाद्रव्यवदुपष्टम्भकरो मनोयोग इति, स चतुर्विधः-सत्यमनोयोगो १ मृपामनोयोगः २ सत्यमृषामनोयोगो ३ असत्यमृषामनोयोग४श्चेति, एवं वाग्योगोऽपि, एवं काययोगोऽपि, नवरं | स सप्तविधः-औदारिकौ १ दारिकमिश्र २ वैक्रिय ३ वैक्रियमिश्रा ४ हारका ५ हारकमिश्र ६ कार्मणकाययोग७ भेदादिति । सामान्येन योगं प्ररूप्य विशेषतो नारकादिषु चतुर्विंशतौ पदेषु तमतिदिशश्नाह-एव'मित्यादि, कण्ठय, नवरमतिग्रसङ्गपरिहारायेदमुक्तं - "विगलिंदियव जाण"ति, तत्र विकलेन्द्रियाः - अपञ्चेन्द्रियाः, तेषां ह्ये केन्द्रियाणां काययोग एव, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां तु काययोगवाग्योगाविति ॥ मनःप्रभृतिसम्बन्धेनैवेदमाह-'तिविहे पओगे' इत्यादि कण्ठय, नवरं मनःप्रभृतीनां व्याप्रियमाणानां जीवेन हेतुकर्तृभूतेन यद् व्यापारण-प्रयोजन स प्रयोगः, मनसः प्रयोगो मनःप्रयोगः, एवमितरावपि, 'जहे'त्याद्यतिदेशसूत्रं पूर्ववद् भावनीयमिति । मनःप्रभृतिसम्बधेनैवेदमपरमाह-'तिविहे करणे' इत्यादि कण्ठय, नवरं क्रियते येन तत् करण-मननादिक्रियासु प्रवर्त्तमानस्यात्मन उपकरणभूतः तथा तथापरिणामवत्पुद्गलसङ्घात इति भावः, तत्र मन एव करण मनःकरण, एवमितरेऽपि, 'एव'मित्याद्यतिदेशसूत्रं पूर्ववदेव भावनीयमिति, अथवा योगप्रयोगकरणशब्दानां मनःप्रभृतिकमभिधेयतया योगप्रयोगकरणसूत्रेष्वभिहितमिति नार्थभेदोऽन्वेषणीयः, त्रयाणामप्येषामेकार्थतया आगमे बहुशः प्रवृत्तिदर्शनात् । प्रकारान्तरेण करणत्रैविध्यमाह-'तिविहे' इत्यादि, आरम्भणमारम्भः-पृथिव्याधुपमईन, तस्य कृतिः-करण स एव वा करणमित्यारम्भकरणमेवमितरे अपि वाच्ये, नवरमय विशेषः-संरम्भकरण पृथिव्यादिविषयमेव मनःसङ्क्लेशकरण, समारम्भकरण-तेषामेव सन्तापकरणमिति, आह च-"संकप्पो संरंभो, परितावकरी
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॥१३४॥
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सू०
२५॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१३५॥
भवे समारंभो । आरंभो उद्दवओ, मुद्धनयाण तु सव्वेसिं ॥१॥"ति, इदमारम्भादिकरणत्रयं नारकादीनां वैमानिकान्तानां भवतीत्यतिदिशन्नाह-'निरन्तर'मित्यादि, सुगम, केवल संरम्भकरणमसंज्ञिनां पूर्वभवसंस्कारानुवृत्तिमात्रतया भावनीयमिति ॥ आरम्भादिकरणस्य क्रियान्तरस्य च फलमुपदर्शयन्नाह
तिहिं ठाणेहिं जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरिति, तपाणे अतिपातेत्ता भवइ मुसं वइत्ता भवइ तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुपणं अणेसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेण पडिलामेत्ता भवइ, इच्चेतेहिं तिहि ठाणेहिं जीवा अप्पाउयत्ताप कम्म पकरिति । तिहि ठाणेहि जीवा दीहाउयत्ताए कम्म पकरिति, त०-णो पाणे अइवाएत्ता भवइ णो मुसं वइत्ता भवइ, तहारूवं समणं वा माहण वा फासुपसणिज्जेण असणपाणखाइमसाइमेण पडिलामेत्ता भवइ, इच्चेतेहिं तिहि ठाणेहि जीवा दीहाउयत्ताए कम्म पकरिति । तिहि ठाणेहि जीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्म पकरंति, तंजहा-पाणे अइवापत्ता भवइ मुसं वइत्ता भवइ तहारूवं समणं वा माहण वा हीलेत्ता णिदित्ता खिसित्ता गरिहित्ता अवमाणित्ता अण्णयरेणं अमणुण्णेण अप्पीतिकारपण' असण० ४ पडिलामेत्ता भवइ, इच्चेतेहि ठाणेहि जीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्म पगरिति । तिहि ठाणेहि जीवा सुहदीहाउयत्ताए कम्म पकरि ति, तंजहा-णो पाणे अइवाइत्ता भवइ णो मुस' वइत्ता भवइ तहारूवं समणं वा माहणं वा वंदित्ता णमंसित्ता सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता कल्लाण मंगल देवयं चेइय पज्जुवासित्ता मणुण्णेण पीइकारपण असणपाणखाइमसाइमेण पडिलामेत्ता भवइ, इच्चेतेहि तिहि ठाणेहि जीवा सुहदीहाउयत्ताए कम्म पगरि ति (सू० १२५) ।
तिहि ठाणेहि'इत्यादि, त्रिभिः 'स्थानैः'-कारणैः 'जीवाः' प्राणिनः 'अप्पाउयत्ताए'त्ति' अल्पं-स्तोकमायुः
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॥१३५॥
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सू०१२५।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१३६॥
సంభందించింది అంశాంశ పరిచింది మరియు చివరిసారి
जीवित यस्य सोऽल्पायुस्तद्भावस्तत्ता तस्यै अल्पायुष्टायै तदर्थ तन्निबन्धनमित्यर्थः, कर्म-आयुष्कादि, अथवा अल्पमायुः-जीवित यत आयुषस्तदल्पायुः तद्भावस्तत्ता तया कर्म-आयुर्लक्षण 'प्रकुर्वन्ति' वघ्नन्तीत्यर्थः, तद्यथा'प्राणान् ' प्राणिनोऽतिपातयितेति 'शीलार्थे तृन्नन्तमिति कर्मणि द्वितीयेति, प्राणिनां विनाशनशील इत्यर्थः, एवंभूतो यो भवति, एवं मृपावाद वता यश्च भवति, तथा-तत्प्रकारं रूपं-स्वभावो नेपथ्यादि वा यस्य स तथारूपो दानोचित इत्यर्थः, तं, श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणः-तपोयुक्तस्त, "मा हन"इत्याचष्टे यः परं प्रति, स्वयं हनननिवृत्तः सन्निति स माहनो-मूलगुणधरस्त, वाशब्दौ विशेषणसमुच्चयाथौं, प्रगता असवः-अमुमन्तःप्राणिनो यस्मात् तत् प्रासुक, तन्निषेधादप्रामुक सचेतनमित्यर्थः तेन, एष्यते-गवेष्यते उद्गमादिदोपविकलतया साधुभिर्यत्तदेषणीय-कल्प्य, तन्निषेधादनेषणीयं तेन, अश्यते-भुज्यते इत्यशन च-ओदनादि, पीयत इति पान च-सौवीरादि, खादन खादः तेन निवृत्तं खादनार्थ तस्य निर्वर्त्य मानत्वादिति खादिम च भक्तोपादि, स्वादन स्वादः तेन निर्वृत्तं स्वादिम दन्तपवनादीति समाहारद्वन्द्वस्तेन, गाथाश्चात्र-"असण ओयणसत्तुग-मुग्गजगाराइखज्जगविही य । खीराइमरणाई, मडगपभिई य विन्नेयं ॥१|| पाण सोवीरजवोदगाइ चित्तं सुराइयं चेव । आउकाओ सव्यो, कक्कडगजलाइयं च तहा ॥२॥ भत्तोस दंताई, खज्जूरं नालिकेरदकखाई । कक्कडियबगफणसाइ, बहुविहं खाइम नेयं ॥३॥ दंतवण तंबोल, चित्तं तुलसी (अजग) कुहेडगाई य । महुपिप्पलिमुंठाइ, अणेगहा साइम होइ।।४।। इति, प्रतिलम्भयिता-लाभवन्तं करोतीत्येवं शीलो यश्च भवति, ते अल्पायुष्कतया कर्म कुर्वन्तीति प्रक्रमः, 'इच्चेएहि ति इत्येतेः प्राणातिपातादिभिरुक्तप्रकारैः त्रिभिः स्थानर्जीवा अल्पायुष्टया कम प्रकुर्वन्तीति निगमनमिति ।
000000000000000000000000000000000000000000000000000000004
॥१३६॥
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श्रीस्थानाङ्ग
। सू० १२५॥
दीपिका वृत्तिः ।
॥१३७॥
इह च प्राणातिपातयित्रादिपुरुपनिर्देशेऽपि प्राणातिपातादीनामेवाल्पायुबन्धनिबन्धनत्वेन तत्कारणत्वमुक्त द्रष्टव्यमिति, इयं चास्य सूत्रस्य भावना-अध्यवसायविशेषेणैतत्त्रयं यथोक्तफलं भवतीति, अथवा यो हि जीवो जिनादिगुणपक्षपातितया तत्पूजाद्यर्थ पृथिव्याद्यारम्भेण न्यासापहारादिना च प्राणातिपातादिषु प्रवर्तते तस्य सरागसंयमनिरवद्यदाननिमित्तायुष्कापेक्षयेयमल्पायुष्टा समवसेया, अथ नैतदेवं, निर्विशेषणत्वात् सूत्रस्य, अल्पायुष्कस्य क्षुल्लकभवग्रहणरूपस्यापि प्राणातिपातादिहेतुतो युज्यमानत्वाद , अतः कथमभिधीयते-सविशेषणप्राणातिपातादिवर्ती जीव आपेक्षिकी चाल्पायुष्कतेति ?, उच्यते, अविशेषणत्वेऽपि सूत्रस्य प्राणातिपातादेविशेपणमवश्य वाच्यं, यत इतस्तुतीयसूत्रे प्राणातिपातादित एव अशुभदीर्घायुष्टां वक्ष्यति, न हि समानहेतोः कार्यवेषम्यं युज्यते, सर्वत्रानाश्वासप्रसङ्गात् , तथा “समणोवासयस्स ण भंते ! तहारूवं समण वा माहण वा अफासुएण अणेसणिज्जेण असणपाणखाइमसाइमेण पडिलाभमाणस्स किं कज्जइ ?, गोयमा! बहुतरिया से निज्जरा कज्जइ, अप्पतराए से पावे कम्मे कज्जइ"त्ति भगवतीवचनश्रवणादवसीयते - नैवेयं क्षुल्लकभवग्रहणरूपाऽल्पायुष्टा, न हि स्वल्पपापबहुनिर्जरानिबन्धनस्यानुष्ठानस्य क्षुल्लकभवग्रहणनिमित्तता सम्भाव्यते, जिनपूजाधनुष्ठानस्यापि तथाप्रसङ्गात् , अथाप्रामुकदानस्य भवतूक्ताऽल्पायुष्टा, प्राणातिपातमृपावादयोस्तु क्षुल्लकभवग्रहणमेव फलमिति, नैतदेवम् , एकयोगप्रवृत्तत्वाद् अविरुद्धत्वाच्वेति, अथ मिथ्यादृष्टिश्रमणब्राह्मणानां यदप्रामुकदान ततो निरुपचरितैवाल्पायुष्टा युज्यते, इतराभ्यां तु को विचार इति ?, नैवम् , अप्रामुकेनेति तत्र विशेषणस्यानर्थकत्वात् , प्रामुकदानस्यापि अल्पायुष्कफलत्वाद् , उतं च भगवत्याम् – “समणोवासगस्स ण भंते ! तहारूवं असंजयअविरयअप्पडि
అంతరించి మరింత చించి అంత మంచి చివరి
అవంతి శాంతం
॥१३७॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१३८॥
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हयअपच्चक्रखायपावकम्मं फासुएण वा अफारएण वा एसणिज्जेण वा अणेसणिज्जेण वा असण० ४ पडिला भेमाणस्स किं कज्जइ ?, गोयमा ! एगंतसो पावे कम्मे कज्जइ, नो से काइ निज्जरा कज्जइ "त्ति, यच्च पापकर्मण एव कारणं तदल्पायुष्टाया अपि कारणमिति, नन्वेवं प्राणातिपातमृपावादावप्रासुकदानं च कर्तव्यमापन्नमिति?, उच्यते, आपद्यतां नाम भूमिकापेक्षया को दोषः ?, यतः - " अधिकारिवशाच्छास्त्रे, धर्मसाधनसंस्थितिः । व्याधिप्रतिक्रियातुल्या, विज्ञेया गुणदोषयोः ||१|| ” तथा च गृहिणं प्रति जिनभवनकारणफलमुक्तम् - "एतदिह भावयज्ञः, सद्गृहिणो जन्मफलमिदं परमम् । अभ्युदयान्युच्छित्त्या, नियमादपवर्गबीजमिति ॥ | १ || ” तथा “भन्नइ जिणपूयाए, कायवो जवि होइ उ कहिंचि । तहवि तई परिसुद्धा, गिहीण कूवाहरणजोगा ||१|| असदारंभपवत्ता, जं च गिही तेण तेसिं विन्नेया । तनिव्वित्तिफलच्चिय, एसा परिभावणीयमिदं ||२||" ति दानाधिकारे तु श्रूयते द्विविधाः श्रमणोपासका :- संविग्नभाविता लुब्धकदृष्टान्तभाविताश्चेति यथोक्तं - “ संविग्गभावियाण, लोयदित भावियाणं च । मोण खेत्तकाले भावं च कहिंति सुन्छ ||१||" इति तत्र लुब्धकदृष्टान्तभाविता यथाकथञ्चिददति, संविग्नभावितास्त्वौचित्येनेति, तच्चेदम् - "संथरणंमि अमुद्ध दोहवि गिहंदि तयाणऽहिय । आउरदितेण तं चैव हियं असंथरणे ॥१॥" तथा " नायागयाण कप्पणिज्जाण अन्नपाणाईण दव्या देसकालसद्धासकारकमजुयं " इत्यादि, गम्भीरार्थं चेदं सूत्रमतोऽन्यथाऽपि भावनीयमिति।। अल्पायुष्कताकारणान्युक्कान्यधुनैतद्विपर्ययस्यैतान्येव विपर्यस्ततया कारणान्याह - 'तिहि 'ति प्राग्वदवसेयम्, नवरं 'दोहाउत्ताए 'त्ति शुभदीर्घायुष्टायै शुभदीर्घायुष्टया वेति प्रतिपत्तव्यम् प्राणातिपातविरत्यादीनां दीर्घायुषः शुभस्यैव निमि
,
सू० १२५ ।
॥१३८॥
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सू०१२५
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
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॥१३९॥
1000000000000000000000000000000000
त्तत्वाद् , उक्त च-"महव्यय-अणुव्वएहि य, बालतवोऽकामनिज्जराए य । देवाउयं निबंधइ, सम्मदिट्ठी य जो जीवो ॥२॥" तथा, “पयईए तणुकसाओ, दाणरओ सीलसंजमविहणो । मज्झिमगुणेहि जुत्तो, मणुयाउं बंधए जीवो ॥२॥ देवमनष्यायुषी च शुभे इति । तथा भगवत्यां दातारमुद्दिश्योक्त-"समणोवासगस्स ण भंते ! तहारुवं समण वा माहणं वा फासुएसणिज्जेण असणपाणखाइमसाइमेण पडिलाभेमाणस्स कि कज्जइ ?, गोयमा !, एगंतसो णिज्जरा कज्जइ, णो से पावे कम्मे कज्जइ"त्ति, यच्च अतिनिर्जराकारण तच्छुभदीर्घायुःकारणतया न विरुद्ध, महाव्रतवदिति । अनन्तरमायुषो दीर्घताकारणान्युकानि, तच्च शुभाशुभमिति तत्रादौ तावदशुभायुर्दीर्घताकारणान्याह-'तिहिति प्राग्वत् , नवरं अशुभदीर्घायुष्टाय इति नारकायुष्कायेति भावः, तथाहि-अशुभं च तत् पापप्रकृतिरूपत्वात् , दीर्घ च तस्य जघन्यतोऽपि दशवर्षसहस्रस्थितिकत्वात् , उत्कृष्टतस्तु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमरूपत्वादशुभदीर्घ, तदेवंभूतमायुः-जीवितं यस्मात् कर्मणस्तदशुभदीर्घायुस्तद्भावस्तत्ता तस्यै तया वेति, प्राणान्-प्राणिन इत्यर्थः, अतिपातयिता भवति मृपावाद वक्ता भवति तथा श्रमणमाहनादीनां हीलनां कृत्वा प्रतिलम्भयिता भवतीत्यक्षरार्थघटना, हीलनं तु जात्यायुद्घट्टनतो निन्दन मनसा खिंसन जनसमक्ष गर्हण तत्समक्षम् अपमाननमऽनभ्युत्थानादिभिः 'अन्यतरेण बहूनां मध्ये एकतरेण, क्वचित्चन्यतरेणेति न दृश्यते, 'अमनोज्ञेन' स्वरूपतोऽशोभनेन कदन्नादिनाऽत एवाप्रीतिकारकेण, भक्तिमतस्त्वमनोज्ञमपि मनोज्ञमेव, तत्फलत्वाद् , 'आर्यचन्दनाया इव' आर्यचन्दनया
हि कुल्माषाः सूप्पकोणकृता भगवते 'महावीराय' पञ्चदिनोनपाण्मासिकक्षपणपारणके दत्ताः, तदेव च तस्या लोहनि|| गडानि हेमरयन एरी सम्पन्नी केशाः पूर्ववदेव जाताः पञ्चवर्णविविधरत्नराशिमिर्गेहं भृत सेन्द्रदेवदानवनरनायकैर
3-600000000000000000000000000000000-600000000000000000000
॥१३९॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
శాంతి శాంతం
सू०१२५।
॥१४०||
भिनन्दिता कालेनावाप्तचारित्रा च सिद्धिसौधशिखरमुपगतेति, इह च सूत्रे अशनादि प्रासुकाप्रासुकत्वादिना न विशेपित, हीलनादिकर्तुः प्रामुकादिविशेषणस्य फलविशेष प्रत्यकारणत्वात् , मत्सरजनितहीलनादिविशेषणानामेव प्रधानतया तत्कारणत्वादिति । प्राणातिपातमृषावादयोनविशेषणपक्षव्याख्यानमपि घटत एव, अवज्ञादानेऽपि प्राणातिपातादेदृश्यमानत्वादिति, भवति च प्राणातिपातादेनरकायुः, यदाह च-"मिच्छादिट्ठी महारंभ-परिग्गहो तिव्वलोभनिस्सीलो । निरयाउयं निबंधइ, पावरुई मई रुद्दपरिणामो॥१॥" इति । उक्तविपर्ययेणाधुनेतरदाह-'तिहिमित्यादि, पूर्ववत् , नवरं 'वन्दित्वा' स्तुत्वा 'नमस्यित्वा' प्रणम्य सत्कारयित्वा वस्त्रादिना सन्मानयित्वा प्रतिपत्तिविशेषेण कल्याणसमृद्धिः तद्धेतुत्वात् साधुरपि कल्याणमेवं मङ्गल-विघ्नक्षयस्तद्योगान्मङ्गल देवतमिव [देवतेव दैवतं चैत्यमिवजिनादिप्रतिमेव चैत्यं श्रमण पर्युपास्य' उपसेव्येति, इहापि प्रासुकाप्रामुकतया दान न विशेपित, पूर्वसूत्रविपर्ययत्वादस्य, पूर्वसूत्रस्य चाविशेषणतया प्रवृत्तत्वादिति, न च प्रासुकाप्रामुकदानयोः फल प्रति न विशेषोऽस्ति, पूर्वसूत्रयोस्तस्य प्रतिपादितत्वात् , तस्मादिह प्रासुकैपणीयस्य कल्पप्राप्तावितरस्य चेदं फलमवसेयम् , अथवा भावप्रकर्षविशेषादनेपणीयस्यापीदं फलं न विरुध्यते, अचिन्त्यत्वाच्चित्तपरिणतेः, सा हि बाह्यस्यानुगुणतयैव न फलानि साधयति, 'भरतादीनामिवेति, इह च प्रथममल्पायुःसूत्रं द्वितीय तद्विपक्षः तृतीयमशुभदीर्घायुःसूत्रं चतुर्थ तद्विपक्ष इति न पुनरुक्ततेति ।। प्राणानतिपातनादि च गुप्तिसद्भावे भवतीति गुप्तीराह
तओ गुत्तीओ पं० त०-मणगुत्ती वइगुत्ती कायगुत्ती, संजयमणुस्साणं तओ गुत्तीओ पं० त०-मणगुत्ती वइगुत्ती कायगुत्ती, तओ अगुत्तीओ पं० २०-मणअगुत्ती वइअगुत्ती कायअगुत्ती, एवं नेरइयाण जाव थणियकुमाराणं,
శాంతి
శాంతం హరివంశం
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥ १४१ ॥
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पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं अस्संजयमणुस्साणं वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाणं । तओ दंडा पं० त०-मणदंडे arदंडे कायदंडे, नेरइयाण तओ दंडा पण्णत्ता, त० मणदंडे वहदंडे कायदंडे, विगलिदियवज्ज' जाव वैमाणियाण' ( सू० १२६) ।
'ओ' इत्यादि कण्ठ्य, नवरं गोपनं गुप्तिः - मनःप्रभृतीनां कुशलानां प्रवर्त्तनमकुशलानां च निवर्तनमिति, आह च - "मणगुत्तिमाइयाओ, गुत्तीओ तिन्नि समयकेऊहिं । पवियारेयरख्वा, गिट्ठाओ जओ भणियं ॥ १ ॥ समिओ णियमा गुत्तो, गुत्तो समियत्तणंमि भयव्वो । कुसलवइमुईरंतो, जं वइगुत्तोव समिओवि ||२||" इति, एताश्चतुर्विंशतिदण्डके चिन्त्यमाना मनुष्याणामेव, तत्रापि संयतानां न तु नारकादीनामित्यत आह- 'संजयमणुस्साण'मित्यादि कण्ठम् । उक्ता गुप्तयस्तद्विपर्ययभूता अथागुप्ती राह - 'तओ' इत्यादि कण्ठ्यम्, विशेषतश्चतुर्विंशतिदण्डके एता अतिदिशन्नाह-'एव'मिति सामान्यसूत्रवन्नारकादीनां तिस्रोऽगुप्तयो वाच्याः, शेषं कण्ड्यम्, नवरमिहैकेन्द्रिय विकलेन्द्रया नोक्ताः, वाङ्मनसस्तेषां यथायोगमसम्भवात् संयतमनुप्या अपि नोकाः तेषां गुप्तिप्रतिपादनादिति । अगुप्तयश्रात्मनः परेषां च दण्डनानि भवन्तीति दण्डान्निरूपयन्नाह - 'तओ दण्डे 'त्यादि कण्ठचम्, नवरं मनसा दण्डनमात्मनः परेषां चेति मनोदण्डः, अथवा दण्ड्यतेऽनेनेति दण्डो मन एव दण्डो मनोदण्ड इति, एवमितरावपि विशेषचिन्तायां चतुर्विंशतिदण्ड के 'नेरइयाणं तओ दंडा' इत्यादि यावद्वैमानिकानामिति सूत्रं वाच्यं नवरं 'विगलिदियवज'' ति एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियान् वर्जयित्वेत्यर्थः तेषां हि दण्डचयं न सम्भवति यथायोगं वाङ्मनसोरभावादिति ॥ दण्ड गर्हणीयो भवतीति गह सूत्राभ्यामाह -
सू० १२६ ।
॥ १४१ ॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥१४२॥
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तिविहा गरहा पं० त० - मनसा वेगे गरहर, वयसा वेगे गरहर, कायसा वेगे गरहइ पावाण' कम्माण अकरणयाए, अहवा तिविहा गरहा पं० त० - दीपेगे अद्ध गरह, हस्संपेगे अद्ध गरहइ, कार्यपेगे पडिसाहरइ पावाणं कम्माणं अकरणयाए, तिविहे पच्चक्खाणे पं० त०-मणसा वेगे पच्चक्खाइ वयसा वेगे पच्चक्खाइ कायसा वेगे, पच्चक्खाइ, एवं जहा गरहा तहा पच्चक्खाणेवि दो आलावगा भाणिव्वा (सू० १२७ ) |
'तिविहे'त्यादि सूत्रद्वयं गतार्थ, नवरं, गर्हते - जुगुप्सते दण्डं स्वकीयं परकीयम् आत्मान' वा 'कायसा वत्ति सकारस्यागमिकत्वात् कायेनाप्येकः, कथमित्याह-पापानां कर्म्मणामकरणतया हेतुभूतया, हिंसाद्यकरणेनेत्यर्थः, कायग हि पापकर्माप्रवृत्त्यैव भवतीति भावः उक्तं च- "पापजुगुप्सा तु तथा, सम्यक् परिशुद्ध चेतसा सततम् । पापोद्वेगोsकरण, तदचिन्ता चेत्यनुक्रमतः ||१||" इति अथवा पापकर्मणामकरणतायै - तदकरणार्थं त्रिधाऽपि गर्हते, अथवा चतुर्थे दृष्टी, ततः पापेभ्यः कर्मभ्यो गर्हते तानि जुगुप्सत इत्यर्थः किमर्थम् ? - अकरणतायै - मा कार्षमहमेतानीति, ‘दीहंपेगे अर्द्ध'ति दीर्घ कालं यावत्, तथा कायमप्येकः प्रतिसंहरति-निरुणद्धि, कया ? - पापानां कर्मणामकरणतया हेतुभूतथा तदकरणेन तदकरणतायै वा तेभ्यो वा गर्हते, कार्य वा प्रतिसंहरति तेभ्यः, अकरणतायै तेषामेवेति ।। अतीते दण्डे गर्दा भवति सा चोक्ता, भविष्यति च प्रत्याख्यानमिति सूत्रद्वयेन तदाह - 'तिविहेत्यादि गतार्थ, नवरं 'गरिह 'त्ति गर्हायाम्, आलापको चेमौ 'माणसे' त्यादि, 'कायसा वेगे पच्चक्खाइ पावाणं कम्माण अकर याए' इत्येतदन्तः एकः, 'अहवा पञ्चकखाणे तिविहे पं० तं० - दीपेगे अर्द्ध पच्चक्खाइ हस्स पेगे अर्द्ध पच्चक्रखाइ काय पेगे पडिसाहरति पावाण' कम्माण अकरणयाए' इति द्वितीयः, तत्र कायमप्येकः प्रतिसंहरति पापकर्म्माकरणाय
० १२७ ।
॥१४२॥
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सू० १२८॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
अथवा कार्य प्रतिसंहरति पापकर्मभ्योऽकरणतया तेषामेवेति ॥ पापकर्मप्रत्याख्यातारश्च परोपकारिणो भवन्तीति तदुपदर्शनाय दृष्टान्तभूतवृक्षाणां तदान्तिकानां च पुरुषाणां प्ररूपणार्थमाह
__ तओ रुक्खा पं० त०-पत्तोचते पुप्फोवते फलोवते १, एवामेव तो पुरिसज्जाया ५० त०-पत्तोवारुक्खसमाणा पुष्फोवारुखसमाणा फलोवारुक्खसमाणा २, तओ पुरिसजाया प० त०-नामपुरिसे ठवणपुरिसे दवपुरिसे ३, तओ पुरिसजाया प० त०-णाणपुरिसे दसणपुरिसे चरित्तपुरिसे ४, तओ पुरिसजाया पं० त०-वेदपुरिसे चिंधपुरिसे अभिलावपुरिसे ५, तिविहा पुरिसजाया पं० त०-उत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा जहण्णपुरिसा ६, उत्तमपुरिसा तिविहा पं० त०-धम्मपुरिसा भोगपुरिसा कम्मपुरिसा, धम्मपुरिसा अरिहंता भोगपुरिसा चक्कवट्टी कम्मपुरिसा बासुदेवा ७, मज्झिमपुरिसा तिविहा पत-उग्गा भोगा राइन्ना ८, जहण्णपुरिसा तिविहा पंत-- दासा भयगा भाइलगा ९ (सू० १२८)।
'तओ रुक्खे'त्यादि सूत्रद्वयं, पत्राण्युपगच्छति-प्राप्नोति पत्रोपगः, एवमितरौ, एवमेवे ति दान्तिकोपनयनार्थः, पुरुषजातानि-पुरुषप्रकारा यथा पत्रादियुक्तत्वेनोपकारमात्र विशिष्टविशिष्टतरविशिष्टतमोपकारिणोऽर्थिषु वृक्षाः तथा लोकोत्तरपुरुषाः सूत्रार्थोभयदानादिना यथोत्तरमुपकारविशेषकारित्वात् तत्समाना मन्तव्याः, एवं लौकिका अपीति, इह च 'पत्तोवग' इत्यादिवाच्ये 'पत्तोवा' इत्यादिकं प्राकृतलक्षणवशादुक, 'समाणे' इत्यत्रापि च 'सामाणे' इति ॥ अथ पुरुषप्रस्तावात् पुरुषान् सप्तसूत्र्या निरूपयन्नाह-'तओ' इत्यादि कण्ठ, नवरं नामपुरुषः पुरुष इति नामैव, स्थापनापुरुषः पुरुषप्रतिमादि, द्रव्यपुरुषः पुरुषत्वेन य उत्पत्स्यते उत्पन्नपूर्वो वेति, विशेषोऽत्रेन्द्रसूत्राद्
10000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥१४३॥
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అవతరించి
सू०१२९।
श्रोस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
వివరించిన
॥२४४॥
పాత
द्रष्टव्यो भवति, भावपुरुषभेदाः पुनर्ज्ञानपुरुषादयः, ज्ञानलक्षणभावप्रधानपुरुषो ज्ञानपुरुपः एवमितरावपि । वेद:- | पुरुषवेदः तदनुभवनप्रधानः पुरुषो वेदपुरुषः, स च स्वीपुंनपुंसकसम्बन्धिषु त्रिष्वपि लिङ्गेषु भवतीति, तथा पुरुषचिहनैः-श्मश्रुप्रभृतिभिरुपलक्षितः पुरुषः चिहनपुरुषो, यथा नपुंसक श्मश्रुचिहनमिति, पुरुषवेदो वा चिह्ननपुरुषस्तेन चिहन्यते पुरुष इति कृत्वेति, पुरुषवेषधारी वा स्त्र्यादिरिति, अभिलप्यतेऽनेनेति अभिलापः शब्दः स एव पुरुषः पुंल्लिङ्गतयाऽभिधानाद् यथा घटः कुटो वेति, 'धम्मपुरिस'त्ति धर्मः क्षायिकचारित्रादिस्तदर्जनपराः पुरुषा धर्मपुरुषाः, उक्तं च-"धम्मधुरिसो तयजणवावारपरो जहा सुसाहु"त्ति, भोगाः-मनोज्ञाः शब्दादयस्तत्पराः पुरुषा भोगपुरुषाः १, 'कम्म'त्ति कर्माणि-महारम्भादिसम्पाद्यानि नारकायुष्कादीनीति, उग्रा-भगवतो नाभेयस्य राज्यकाले ये आरक्षका आसन , भोगास्तत्रैव गुरवः, राजन्यास्तत्रैव वयस्याः, एषां मध्यमत्वमनुत्कृष्टत्वाजघन्यत्वाभ्यामिति, दासा-दासीपुत्रादयः, भृतका-मूल्यतः कर्मकराः, 'भाइल्लग'त्ति भागो विद्यते येषां ते भागवन्तः शुद्धचातुर्थिकादय इति। उक्त मनुष्यपुरुषाणां त्रैविध्यमधुना सामान्यतस्तिरश्चां जलचरस्थलचरखेचरविशेषाणां 'तिविहा मच्छेत्यादिसूत्रैदशभिराह
तिविहा मच्छा पं० त०-अंडया पोतगा संमुच्छिमा १, अंडगा मच्छा तिविहा प० त०-इत्थी पुरिसा णपुं. सगा २, पोतया मच्छा तिविहा प० त०-इत्थी पुरिसा णपुंसगा ३, तिविहा पक्खी ५० त०-अंडया पोतया समुच्छिमा १, अंडया पक्खी तिविहा प० त०-इत्थी पुरिसा णपुंसगा २, पोयया पक्खी तिविहा प० त०-इत्थी पुरिसा णपुंसगा। एवमेतेण अभिलावेण उरपरिसप्पावि भाणियब्वा, भुयपरिसप्पावि ३ भाणियब्या ९ (सू०१२९) ।
వివరించి
॥१४॥
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सू०१३०-१३१॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१४५॥
एवं चेव तिविहाओ इत्थीओ पं० त०-तिरिक्खजोणित्थीओ मणुस्सित्थीओ देवित्थीओ १, तिरिक्खजोणित्थीओ तिविहाओ पं० त०-जलचरीओ थलचरीओ खहचरीओ २, मणुस्सित्थीओ तिविहाओ पं० तं-कम्मभूमियाओ अकम्मभूमियाओ अंतरदीवियाओ ३, तिविहा पुरिसा पं० त०-तिरिक्खजोणियपुरिसा मणुस्सपुरिसा देवपुरिसा १, तिरिक्खजोणियपुरिसा तिविहा पं० त०-जलचरा थलचरा खहचरा २, मणुस्सपुरिसा तिविहा पं० तकम्मभूमिगा अकम्मभूमिगा अंतरदीवगा तिविहा णपुंसगा पं० त०-णेरइयणपुंसगा तिरिक्खजोणियणपुसगा मणुस्सणपुंसगा १, तिरिक्खजोणियपुंसगा तिविहा पं० त०-जलचरा थलचरा खहचरा २, मणुस्सणपुंसगा तिविहा पंत-कम्मभूमिगा अकम्मभूमिगा अंतरदीवगा ३ (सू० १३०) तिविहा तिरिक्खजोणिया ५० त०-इत्थी पुरिसा णपुंसगा (सू० १३१) ।
मुगमानि चैतानि, नवरम् अण्डाजाता अण्डजाः, पोतं-वस्त्रं तद्वजरायुर्वज्जितत्वाज्जाताः पोतजा हस्त्यादयः, सम्मृच्छिमा अगर्भजा इत्यर्थः, सम्मृच्छिमानां स्त्र्यादिभेदो नास्ति नपुंसकत्वात्तेपामिति स न सूत्रे दर्शित इति । पक्षिणोऽण्डजा हंसादयः, पोतजा बल्गुलीप्रभृतयः, सम्मूच्छिमाः खजनकादयः, उद्भिज्जत्वेऽपि तेषां सम्मूछेजत्वव्यपदेशो भवत्येव, उद्भिज्जादीनां सम्मूछेनजविशेषत्वादिति, 'एव'मिति पक्षिवत् , एतेन प्रत्यक्षाभिलापेन 'तिविहा उरपरिसप्पे'त्यादि सूत्रत्रयलक्षणेन, उरसा वक्षसा परिसर्पन्तीति उरःपरिसर्पाः-सर्पादयस्तेऽपि भणितव्याः, तथा भुजाभ्यां-बाहुभ्यां परिसर्पन्ति येते तथा नकुलादयस्तेऽपि भणितव्याः, 'एवं चेव'त्ति, एवमेव-यथा पक्षिणस्तथैवेत्यर्थः, इहापि सूत्रत्रयमध्येतव्यमिति भावः । उक्त तिर्यग्विशेषाणां त्रैविध्यमिदानी स्त्री पुरुषनपुंसकानां तदाह
ఉంచింహరించి వివరించిన అంశం వరించింది అందుకు
॥१४५॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०१३२॥
दीपिका वृत्तिः ।
'तिविहा इत्थीओ'इत्यादिनवसूत्री सुगमा, नवरं 'खह'ति प्राकृतत्वेन खम्-आकाशमिति, कृष्यादिकम्मप्रधाना भूमिः कर्मभूमिः-भरतादिका पञ्चदशधा, तत्र जाताः कर्मभूमिजाः, एवमकर्मभूमिजाः, नवरमकर्मभूमिभॊगभूमिरित्यर्थः, देवकुर्वादिका त्रिंशद्विधा, अन्तरे-मध्ये समुद्रस्य द्वीपा ये ते तथा तेषु जाता आन्तरद्वीपास्त एवान्तरद्वीपिकाः। विशेषतस्वैविध्यमुक्त्वा सामान्यतस्तिरश्चां तदाह-'तिविहे'त्यादि कण्ठयम् ।। स्त्र्यादिपरिणतिश्च जीवानां लेश्यावशतो भवतीति तनिबन्धनकर्मकारणत्वात् तासामिति नारकादिपदेषु लेश्याः त्रिस्थानकावतारेण निरूपयन्नाह
रइयाण तओ लेसाओ पंत-कण्हलेसा नीललेसा काउलेसा १, असुरकुमाराण तओ लेसाओ संकिलिट्ठाओ पंत-कण्हलेसा नीललेसा काउलेसा २, एवं जाव थणियकुमाराणं ११, एवं पुढविकाइयाणं १२, आउवणस्सइकाइयाणवि १३-१४, तेउकाइयाणं १५ वाउकाइयाणं १६ बेंदियाणं १७ तेंदियाणं १८ चतुरिंदियाण १९ वि तओ लेस्सा जहा नेरइयाणं, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं तओ लेस्साओ संकिलिट्ठाओ पंत-कण्हलेसा णीललेसा काउलेसा २०, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं तओ लेस्साओ असंकिलिट्ठाओ पं० त०-तेउलेसा पम्हलेसा, सुक्कलेसा २१, एवं मणुस्साण वि २२, वाणमंतराणं जहा असुरकुमाराण' २३, वेमाणियाण तओ लेस्साओ पं० त०-तेउलेसा पम्हलेसा सुक्कलेसा २४ (सू० १३२) ।
___'नेरइयाण'मित्यादिदण्डकसूत्र कण्ठय, नवरं 'नेरइयाण तओ लेस्साओ'त्ति एतासामेव तिसृणां सद्भावादविशेषणो निर्देशः, असुरकुमाराणां तु चतसृणां भावात् सक्लिष्टा इति विशेषितं, चतुर्थी हि तेषां तेजोलेश्याऽस्ति, किन्तु सा न सकक्लिष्टेति, पृथिव्यादिष्वसुरकुमारसूत्रार्थमतिदिशन्नाह-'एवं पुढवी'त्यादि, पृथिव्यब्च
॥१४६॥
ఉపాధి వంచించి తిరిగి తిరిగి మ
రి మన వ చివరి వారికి
॥१४६॥
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सू० १३३।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१४७॥
10000000000000000000000000000000000000000000000000000000
स्पतिषु देवोत्पादसम्भवाच्चतुर्थी तेजोलेश्याऽस्तीति सविशेषणो लेश्यानिर्देशोऽतिदिष्टः, तेजोवायुद्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु तु देवानुत्पत्त्या तदभावान्निर्विशेषण इति, अत एवाह-'तओ'इत्यादि, पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च पडपीति संक्लिष्टासंकिलष्टविशेषणतश्चतु:सूत्री, नवरं मनुष्यसूत्रेऽतिदेशेनोक्ते इति व्यन्तरसूत्रे स किलष्टा वाच्याः, अत एवोक्त-वाणमतरे'त्यादि, वैमानिकसूत्र निर्विशेषणमेव, असं किलष्टस्यैव त्रयस्य सद्भावात् , व्यवच्छेद्याभावेन विशेषणायोगादिति । ज्योतिष्कसूत्र नोक्तं, तेषां तेजोलेश्याया एव भावेन त्रिस्थानकानवतारादिति ॥ अनन्तरं वैमानिकानां लेश्याद्वारेणेहावतार उक्तो, ज्योतिष्काणां तु तथा तदसम्भवाच्चलनधम्मेण तमाह
तिहिं ठाणेहिं तारारूवे चलेज्जा त-विकुब्वमाणे वा परियारेमाणे वा ठाणाओ वा ठाण संकममाणे तारारूवे चलेज्जा, तिहिं ठाणेहिं देवे विज्जुयारं करेज्जा त-विकुव्वमाणे वा परियारेमाणे वा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा इइिंढ जुत्ति जसं बलं वीरिय पुरिसक्कारपरक्कम उवदंसेमाणे देवे विज्जुयार करेज्जा । तिहिं ठाणेहिं देवे थणियसदं करेजा त-विकुव्वमाणे, एवं जहा विज्जुयारं तहेव थणियसपि (सू० १३३)।
'तारारूवे'त्ति तारकमात्र 'चलेज्जा' सस्थानं त्यजेत् , वैक्रिय कुर्वद वा परिचारयमाण वा, मैथुनार्थ संरम्भयुक्तमित्यर्थः, स्थानाद्वैकस्मात् स्थानान्तरं सक्रामद्-गच्छदित्यर्थः, यथा धातकीखण्डादिमेरुं परिहरेदिति, अथवा क्वचिन्महर्दिके देवादौ चमरवद्वैक्रियादि कुर्वति सति तन्मार्गदानार्थ चलेदिति, उक्त च-"तत्थ ण जे से वाघाइए अंतरे से जहण्णेण दोण्णि छावढे जोयणसए, उक्कोसेण बारस जोयणसहस्साई"ति, तत्र व्याघातिकमन्तरं महर्टिकदेवस्य मार्गदानादिति ॥ अनन्तरं तारकदेवचलनक्रियाकारणान्युक्तान्यथ देवस्यैव विद्युत्स्तनित
॥१४७
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सू० १३३॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः । ॥१४८॥
000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
क्रिययोः कारणानि सूत्रद्वयेनाह-तिही त्यादि कण्ठय, नवरं 'विजुयारं ति विद्युत्-तडित् सैव क्रियत इति कारःकार्य विद्युतो वा कारण कारः-क्रिया विद्युत्कारस्तं, विद्युतं कुर्यादित्यर्थः, वैक्रियकरणादीनि हि सर्पस्य भवन्ति, तत्प्रवृत्तस्य च दर्षोल्लासवतश्चलनविद्युद्गर्जनादीन्यपि भवन्तीति चलनविद्युत्कारादीनां वैक्रियादिकं कारणतयोक्तमिति, 'ऋद्धि विमानपरिवारादिकां द्युति-शरीराभरणादीनां 'यशः' प्रख्याति 'बल' शारीरं 'वीर्य'-जीवप्रभवं 'पुरुषकारश्च'अभिमानविशेषः स एव निष्पादितस्वविषयः पराक्रमश्चेति पुरुषकारपराक्रम समाहारद्वन्द्वः, तदेततसर्वमुपदर्शयमान इति । तथा स्तनितशब्दो मेघगर्जित 'एव'मित्यादिवचनं 'परियारेमाणे वा तहारूवस्से'त्याद्यालापकसूचनार्थमिति ।। विद्युत्कारस्तनितशब्दावुत्पातरूपावनन्तरमुक्तावथोत्पातरूपाण्येव लोकान्धकारादीनि पञ्चदशसूत्र्या-'तिहि ठाणेही'त्यादिकया प्राह
तिहिं ठाणेहि लोगंधयारे सिया, त-अरिहंतेहि वोच्छिज्जमाणेहिं अरिहंतपन्नत्ते धम्मे वोच्छिज्जमाणे पुव्वगए वोच्छिज्जमाणे १, तिहिं ठाणेहिं लोगुज्जोते सिया त-अरिहंतेहिं जायमाणेहिं अरिहंतेसु पब्वयमाणेसु अरिहंताण णाणुप्पायमहिमासु २, तिहिं ठाणेहिं देवंधकारे सिया तंजहा-अरहतेहिं वोच्छिज्जमाणेहिं अरहंतपण्णत्ते धम्मे वोच्छिज्जमाणे पुब्वगए वोच्छिज्जमाणे ३, तिहिं ठाणेहिं देवुज्जोप सिया, त०-अरहतेहि जायमाणेहि अरहंतेहि पव्वयमाणेहि अरहताण णाणुप्पायमहिमासु ४, तिहि ठाणेहिं देवसन्निवाए सिया तजहा-अरहंतेहिं जायमाणेहि अरहंतेहि पव्वयमाणेहि अरहताणं णाणुप्पायमहिमासु ५, एवं देवुक्कलिया ६ देवकहकहए ७। तिहि ठाणेहि देविंदा माणुस लोगं हब्वमागच्छति त-अरहंतेहिं जायमाणेहि अरहतेहि पव्वयमाणेहि अरहताण णाणुप्पायमहिमासु ८,
॥१४८॥
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श्रीस्थाना
सू०१३४।
दीपिका वृत्तिः ।
॥१४९॥
एवं सामाणिया ९ तायत्तीसगा १० लोगपाला देवा ११ अग्गमहिसीओ देवीओ १२ परिसोववण्णगा देवा १३ अणियाहिवई देवा १४ आयरक्खा देवा १५ माणुस लोगं हव्वमागच्छति । तिहि ठाणेहि देवा अम्भुटूठेज्जा, तं०अरहतेहि जायमाणेहिं जाव त चेव १, एवमासणाई चलेज्जा २, सीहणाय' करेज्जा ३, चेलुक्खेव करेज्जा ४, तिहि ठाणेहि देवाण चेइयरुक्खा चलेज्जा, त०-अरहतेहि त चेव ५ । तिहि ठाणेहि लोगंतिया देवा माणुस लोगं हव्वमागच्छिज्जा, त० अरहतेहिं जायमाणेहि अरहतेहि पब्वयमाणेहि अरहताण णाणुप्पायमहिमासु (सू०१३४)।
कण्ठ्या चेय, नवरं, 'लोके क्षेत्रलोकेऽन्धकारं-तमो लोकान्धकार स्याद्-भवेद द्रव्यतो लोकानुभावाद् भावतो वा प्रकाशकस्वभावज्ञानाभावादिति, तद्यथा-अर्हन्त्यशोकाद्यष्टप्रकारां परमभक्तिपरसुरासुरविसरविरचितां जन्मान्तरमहालवालविरूदानवद्यवासनाजलाभिषिक्तपुण्यमहातरुकल्याणफलकल्पां महापातिहार्यरूपां पूजां निखिलप्रतिपन्थिप्रक्षयात् सिद्धिसौधशिखरारोहण चेत्य हन्तः, तेषु 'व्यवच्छिद्यमानेषु' निर्वाण गच्छत्सु, तथा अर्हत्प्रज्ञप्ते धम्म व्यवच्छिद्यमाने तीर्थव्यवच्छेदकाले, तथा 'पूर्वाणि' दृष्टिवादाङ्गभागभूतानि तेषु गत-प्रविष्टं तदभ्यन्तरीभूत तत्स्वरूपं यच्छुत तत्पूर्वगतं तत्र व्यवच्छिद्यमाने, इह च राजमरणदेशनगर भङ्गादावपि दृश्यते दिशामन्धकारमात्र रजस्वलतयेति, यत् पुनर्भगवत्स्वहंदादिषु निखिलभुवनजनानवद्यनयनसमानेषु विगच्छत्सु लोकान्धकारं भवति तत् किम
द्भुतमिति ? । लोकोद्योतोऽपि लोकानुभावान्मनुष्यलोके देवागमाद् बा, 'नाणुप्पायमहिमासु केवलज्ञानोत्पादे देवकृतमहोत्सवेष्विति, 'तिहि'इत्यादि, देवानां भवनादिष्वन्धकार देवान्धकारं लोकानुभावादेवेति, लोकान्धकारे उक्तेऽपि यदेवान्धकारमुक्त, तत्सर्वत्रान्धकारसद्भावप्रतिपादनार्थमिति । एवं देवोद्योतोऽपि, देवसन्निपातो-भुवि तत्समवतारो,
100000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥१४९॥
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सू०१३४।
श्रीस्थानाङ्गसूत्रदीपिका
वृत्तिः ।
॥१५०॥
10000000000000000000000000000000000000000000000000004
देवोत्कलिका-तत्समवायविशेषः एव मिति त्रिभिरेव स्थानः, 'देवकहकह'त्ति देवकृतप्रमोदकलकलस्त्रिभिरेवेति, 'हब'ति शीघ्र, 'सामाणिय'त्ति इन्द्रसमानर्द्धयः, 'तायत्तीसगत्ति त्रयस्त्रिंशका महत्तरकल्पाः पूज्याः, 'लोकपालाः' सोमादयो दिग्नियुक्ताः, 'अग्रमहिष्यः' प्रधानभार्याः 'परिषत् ' परिवारस्तत्रोपपन्नका ये ते तथा 'अनीकाधिपतयो' गजादिसैन्यप्रधाना ऐरावतादयः, आत्मरक्षा' अङ्गरक्षा राज्ञामिवेति, 'माणुस्स लोय हब्वमागच्छंती'ति प्रतिपदं सम्बन्धनीय १५ । मनुष्यलोकागमने देवानां यानि कारणान्युक्तानि तान्येव देवाभ्युत्थानादीनां कारणतया सूत्रपञ्चकेनाह-'तिहि'इत्यादि कण्ठय, नवरं 'अब्भुठेज्ज'त्ति सिंहासनादभ्युत्तिष्ठेयुरिति, 'आसनानि' शक्रादीनां सिंहासनानि, तच्चलन लोकानुभावादेवेति, सिंहानादचेलोत्क्षेपौ प्रमोदकायौं, चैत्यवृक्षा ये सुधर्मादिसमानां प्रतिद्वारं पुरतो मुखमण्डपप्रेक्षामण्डपचैत्यस्तूपचैत्यवृक्षमहाध्वजादिक्रमतः श्रूयन्ते, लोकान्तिकानां प्रधानतरत्वेन भेदेन मनुष्यक्षेत्रागमनकारणान्याह-'तिही मित्यादि कण्ठय, नवरं लोकस्य ब्रह्मलोकस्यान्तः-समीपं कृष्णराजीलक्षण क्षेत्रं निवासो येषां ते लोकान्ते वा-औदयिकभावलोकावसाने भवा अनन्तरभवे मुक्तिगमनादिति लोकान्तिकाः-सारस्वतादयोऽष्टधा वक्ष्यमाणरूपा इति ॥ अथ किमर्थ भदन्त ! ते इहागच्छन्तीति ? उच्यते, अर्हतां धर्माचार्यतया महोपकारित्वात् पूजाद्यर्थम् , अशक्यप्रत्युपकाराश्च भगवन्तो धर्माचार्याः, यतः
तिण्ह दुप्पडियारं समणाउसो ! तजहा-अम्मापिउणो १ भट्टिस्स २ धम्मायरियस्स ३, संपातोऽवि य ण केह पुरिसे अम्मापियर सतपागसहस्सपागेहिं तेल्लेहि अभंगेत्ता सुरहिणा गंधट्टपण उव्वदृत्ता तिहिं उदगेहिं मज्जावेत्ता सब्बालंकारविभूसिय करेत्ता मणुण्ण थालीपागसुद्ध अट्ठारसर्वजणाउल भोयण भोयाबित्ता जावज्जीचं पिडिवडे
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॥१५०॥
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सू० १३५॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
000000000000000000000000000000000000000000000000000000
सियाए परिवहेज्जा तेणावि तस्स अम्मापिउस्स दुप्पडियार भवइ, अहे ण से त' अम्मापियरं केवलिपन्नत्ते धम्मे आघवइत्ता पण्णवइत्ता परूवइत्ता ठावइत्ता भवइ, तेणामेव तस्स अम्मापिउस्स सुप्पडियारं भवइ समणाउसो! १, केइ महच्चे दरिई समुक्कसेज्जा, तए ण से दरिद्दे समुक्किठे समाणे पच्छा पुरं च ण विपुलभोगसमितिसमण्णागए यावि विहरेज्जा, तए ण से महच्चे अण्णया कयाइ दरिद्दीहए समाणे तस्स दरिद्दस्स अंतिए हव्वमागच्छेज्जा, तए ण से दरिद्दे तस्स भट्टिस्स सव्वस्समविदलयमाणे तेणावि तस्स भट्टिस्स दुप्पडियारं भवइ, अहे ण से त' भट्टि केवलिपण्णत्ते धम्मे आघवइत्ता पण्णवइत्ता परूवइत्ता ठावइत्ता भवइ, तेणामेव तस्स भट्टिस्स सुप्पडियार भवइ २, केइ तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए पगमवि आयरिय धम्मिय सुवयण सोच्चा णिसम्म कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोपसु देवत्ताए उववण्णे, तप ण से देवे त धम्मायरिय दुभिक्खाओ वा देसाओ सुभिक्ख देस साहरिज्जा, कंताराओ वा णिकतार करेज्जा, दीहकालिएण वा रोगातकेण अभिभूय समाण विमोएज्जा, तेणावि तस्स धम्मायरियस्स दुप्पडियार भवद, अहे ण से तधम्मायरिय केवलिपण्णत्ताओ धम्माओ भट्ठ समाण भुज्जोवि केवलिपण्णत्ते धम्मे आघवइत्ता जाव ठावइत्ता भवइ, तेणामेव तस्स धम्मायरियस्स सुप्पडियारं भवइ ३ (सू० १३५) ।
____ 'तिण्ह ति त्रयाणां दुःखेन-कृच्छ्रेण प्रतिक्रियते-कृतोपकारेण पुंसा प्रत्युपक्रियत इति 'खल् 'प्रत्यये सति दुष्प्रतिकर प्रत्युपक मशक्यमितियावत् , हे श्रमण ! आयुष्मन् ! समस्तनिर्देशो वा हे श्रमणायुष्मन्निति भगवता शिष्यः सम्बोधितः, अम्बया-मात्रा सह पिता-जनकः अम्बापिता तस्येत्येक स्थानं, जनकत्वेनैकत्वविवक्षणात् , तथा 'भट्टिस्स'त्ति भर्तुः-पोषकस्य स्वामिन इत्यर्थ इति द्वितीय, धर्मदाता आचार्यों धम्माचार्यः तस्येति तृतीयम् ,
॥१५॥
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सू०१३५।
श्रोस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१५२॥
आह च-"दुष्प्रतिकारौ माता-पितरौ स्वामी गुरुश्च लोकेऽस्मिन् । तत्र गुरुरिहामुत्र च सुदुष्करतरप्रतीकारः" ॥१॥ इति, तत्र जनकदुष्प्रतिकार्यतामाह-संपाओ'त्ति प्रातः-प्रभात तेन सम सम्प्रातः सम्प्रातरमपि च-प्रभातसमकालमपि च, यदैव प्रातः सम्प्रवृत्तं तदैवेत्यर्थः, अनेन कार्यान्तराव्यग्रतां दर्शयति, संशब्दस्यातिशयार्थाद् वाऽतिप्रभाते, प्रतिशब्दार्थत्वाद् वाऽस्य प्रतिप्रभातमित्यर्थः, 'कश्चिदिति कुलीन एव, न तु सर्वोऽपि 'पुरुषो'मानवो देवतिरश्चोरेवंविधव्यतिकरासम्भवात् , शतं पाकानाम्-औषधिकाथानां पाके यस्य १ ओषधिशतेन वा सह पच्यते यत् २ शतकृत्वो वा पाको यस्य ३ शतेन वा रूपकाणां मूल्यतः पच्यते ४ यत् तच्छतपाकम् , एवं सहस्रपाकमपि, ताभ्यां तैलाभ्याम् , 'अब्भंगेत्ता' अभ्यङ्ग कृत्वा गन्धरण ति गन्धाट्टकेन-गन्धद्रव्यक्षोदेन 'उद्वर्त्य'उद्वलन कृत्वा त्रिभिरुदकैः-गन्धोदकोष्णोदकशीतोदकैः ‘मजयित्वा' स्नपयित्वा 'मनोज्ञ' कलमौदनादि 'स्थाली' पिठरी तस्यां पाको यस्य तत्तथा, अन्यत्र हि पक्कमपर्क वा न तथाविध स्यादितीद विशेषणमिति 'शुद्ध' भक्तदोपवर्जित स्थालीपाकं च तच्छुद्धं च स्थालीपाकेन वा शुद्धमिति विग्रहः, अष्टादशभिर्लोकप्रतीतेयंजनैः-शालनकैस्तक्रादि| भिर्वा आकुल-सङ्कीर्ण यत्तथा, भोजन भोजयित्वा, एते चाष्टादशभेदाः-सूओ १ दणो २ जवन्ने ३, तिण्णि
य मंसाई ६ गोरसो ७ जूसो ८ । भक्खा ९ गुललावणिया १०, मूलफला ११ हरियग' १२ सागो१३ ॥१॥ | होइ रसालू य तहा १४, पाण १५ पाणीय १६ पाणगं चेव १७ । अट्ठारसमो सागो १८, निरुवहओ लोइओ पिंडो ॥२॥" मांसत्रयं जलजादिसत्क, जूषो-मुद्गतन्दुलजीरककटुभाण्डादिरसः, भक्ष्याणि-खण्डखाद्यादीनि, गुललावणिका-गुडपर्पटिका, लोकप्रसिद्धा गुडधाना वा, मूलफलान्येकमेव पद, हरितकं जीरकादि, शाको-वस्तुलादि
॥१५२॥
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सू०१३५।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः । ॥१५॥
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भर्जिका, रसालू-मज्जिका, तल्लक्षणमिदम्-"दो घयपला महुपलं, दहिस्स अद्धाढय मिरिय वीसा । दस खण्डगुलपलाइ, एस रसालू णिवइजोग्गो ॥१॥"त्ति, पान-सुरादि, पानीयं-जलं, पानक-द्राक्षापानकादि, शाकः-तक्रसिद्ध इति, यावान् जीवो यावज्जीव-यावत् प्राणधारण पृष्ठे-स्कन्धे अवतंस इवावतंस:-शेखरस्तस्य करणमवतंसिका पृष्ठयवतंसिका तया पृष्ठयवत सिकया परिवहेत , पृष्ठ्यारोपितमित्यर्थः, तेनापि परिवाहकेन परिवहनेन वा तस्य-अम्बापितुदुष्प्रतिकारम् , अशक्यः प्रतीकार इत्यर्थः, अनुभूतोपकारतया तस्य प्रत्युपकारकारित्वाद् , आह च-"कयउवयारो जो होइ, सज्जणो होइ को गुणो तस्स ? । उवयारबाहिरा जे, हवंति ते सुंदरा सुयणा ॥१॥"त्ति, 'अहे ण से'त्ति अथ चेत् णमिति वाक्यालङ्कारे स पुरुषस्तम्-अम्बापितरं धम्म स्थापयिता' स्थापनशीलो भवति, अनुष्ठानतः स्थापयतीत्यर्थः, किं कृत्वेत्याह 'आघवइत्ता' धर्ममाख्याय 'प्रज्ञाप्य' बोधयित्वा 'प्ररूप्य' भेदत इति, 'तेणामेव'त्ति ततस्तेनैव धर्मस्थापनेनैव न परिवहनेन 'तस्य' अम्बापितुः 'सुप्पडियार"ति सुखेन प्रतिक्रियते इति सुप्रतिकार, भावसाधनोऽयं, तद्भवति-प्रत्युपकारः कृतो भवतीत्यर्थः, धर्मस्थापनस्य महोपकारत्वाद् , आह च-"संमत्तदायगाण, दुप्पडियारं भवेसु बहुएसुं । सव्वगुणमेलियाहि वि, उवयारसहस्सकोडीहिं ॥" इति १ । अथ भर्तुर्दुष्प्रतिकार्यतामाह-'केइ'त्ति कश्चित्-कोऽपि महती ऐश्वर्यलक्षणाऽर्चाज्वाला पूजा वा यस्य अथवा महांश्चासावर्थपतितया अर्यश्च-पूज्य इति महा! महायों वा माहत्य-महत्त्वं तद्योगान्माहत्यो वा, ईश्वर इत्यर्थः, दरिद्रम्-अनीश्वरं कश्चन पुरुषमतिदुःस्थ समुत्कर्ष येत्' धनदानादिनोत्कृष्ट कुर्यात् , 'तत:' समुत्कर्षणानन्तरं स दरिद्रः समुत्कृष्टो धनादिभिः 'समाणे'त्ति सन् 'पच्छत्ति पश्चात्काले 'पुरं च ण'ति
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०१३६।
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥१५४॥
पूर्वकाले च समुत्कर्षणकाल एवेत्यर्थः अथवा पश्चाद-भर्तुरसमक्ष पुरश्च भर्तुः समक्ष च विपुलया 'भोगसमित्या' भोगसमुदयेन 'समन्वागतो' युक्तो यः स तथा स चापि 'विहरेत् ' वर्त्तत, ततोऽनन्तरं 'स' महा) भर्त्ता 'सव्वस्सं'ति सर्व च तत् स्वं च-द्रव्यं चेति सर्वस्वं तदपि, आस्तामल्पमिति, 'दलयमाणे'त्ति ददत् न कृतप्रत्युपकारो भवेदिति शेषः, अतस्तेनापि-सर्वस्वदानेन सर्वस्वदायकेनापि वा दुष्प्रतिकरणमेवेति २ । अथ धर्माचार्यदुष्प्रतिकार्यतामाह-'केइत्यादि', 'आयरिय'ति पापकर्मभ्य आराद्यातमित्यार्यमत एव धार्मिकमत एव सुवचनं श्रुत्वा श्रोत्रेण 'निशम्य' मनसाऽवधार्य अन्यतरेषु देवलोकेष्वन्यतरदेवानां मध्ये इत्यर्थों देवत्वेनोत्पन्न इति, दुर्लभा भिक्षा यस्मिन् देशे स दुर्भिक्षस्तस्मात् 'संहरेत् ' नयेत, कान्तारम्-अरण्य, निर्गतः कान्तारान्निष्कान्तारस्तन्निष्क्रमितारं वा, दीर्घः कालो विद्यते यस्य स दीर्घकालिकस्तेन, रोगः-कालसहः कुष्ठादिरातङ्कः-कृच्छ्रजीवितकारी सद्योघातीत्यर्थः शूलादिरनयोर्द्वन्द्वैकत्वे रोगातङ्क तेनेति, धर्मस्थापनेन तु भवति कृतोपकारो, यदाह-"जो जेण जंमि ठाणंमि, ठाविओ दंसणे व चरणे वा। सो त तओ चुय तंमि, चेव काउंभवे निरिणो ॥१॥"त्ति, शेष मुगमत्वान्न स्पृष्टमिति । धर्मस्थापनेन चास्य भवच्छेदलक्षणः प्रत्युपकारः कृतः स्यादिति धर्मस्य स्थानत्रयावतारणेन भवच्छेदकारणतामाह
तिहिं ठाणेहिं संपणे अणगारे अणादिम अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरतं संसारकतार वीतीवएज्जा, तंजहा-अणि याणयाए दिद्विसंपण्णयाए जोगवाहियाए (सू० १३६) तिविहा ओसप्पिणी पं० २०-उकोसा मज्झिमा जहन्ना १, एवं छप्पि समाओ भाणियब्वाओ, जाव दूसमदूसमा ७, तिविहा उस्सप्पिणी पं० २०-उक्कोसा मज्झिमा जहन्ना ८
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॥१५४॥
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सू० १३७-१३८
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
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एवं छप्पि समाओ भाणियवाओ, जाव सुसमसुसमा १४ (सू० १३७) तिहिं ठाणेहिं अच्छिण्णे पोगाले चलेज्जा तंआहारिजमाणे वा पोग्गले चलेज्जा विकुब्वमाणे वा पोग्गले चलेज्जा ठाणाओ वा ठाणं संकामिजमाणे पोग्गले चलेज्जा, तिविहे उवही पं० २०-कम्मोवही सरीरोवही बाहिरभंडमत्तोवही, एवं असुरकुमाराणं भाणियन्व, एवं एगिदियणेरइयवज्ज जाव वेमाणियाण १, अहवा तिविहे उवही पं० २०-सच्चित्ते अचित्ते मीसए, एवं णेरइयाणं णिरंतरं जाव वेमाणियाण २, तिविहे परिग्गहे पं० त-कम्मपरिग्गहे सरीरपरिग्गहे बाहिरभंडमत्तपरिग्गहे, एवं असुरकुमाराणं, एवं एगिदियनेरतियवज्ज जाव वेमाणियाण ३, अहवा तिविहे परिग्गहे पतं०-सचित्ते अचित्ते मीसए, एवं नेरतियाण' निरंतरं जाव वेमाणियाणं ४ (सू० १३८) ।
तिही त्यादि कण्ठय, नवर, अनादिकम्-आदिरहितमनवदग्रमनन्तं दीर्घाव-दीर्घमार्ग चत्वारोऽन्ताविभागा नरकगत्यादयो यस्य तच्चतुरन्त, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् , संसार एव कान्तारम्-अरण्य संसारकान्तारं तद् ' व्यतिव्रजेत् ' व्यतिक्रामेदिति, अनादिकत्वादीनि विशेषणानि कान्तारपक्षेऽपि विवक्षया योजनीयानि, तथाहिअनाद्यनन्तमरण्यमतिमहत्त्वाच्चतुरन्त दिग्भेदादिति, निदान-भोगद्धिप्रार्थनास्वभावमार्तध्यान तद्विवर्जितता अनिदानता तया 'दृष्टिसम्पन्नता' सम्यग्दृष्टिता तया 'योगवाहिता' श्रुतोपधानकारित्वं समाधिस्थायिता वा तयेति ॥ भवव्यतिवजनं च कालविशेष एव स्यादिति कालविशेषनिरूपणायाह-'तिविहे'त्यादिसूत्राणि चतुर्दश कण्ठयानि, नवरम् अवसपिणी प्रथमेऽरके उत्कृष्टा, चतुर्पु मध्यमा, पश्चिमे जघन्या, एवं सुषमसुषमादिषु प्रत्येक त्रयं त्रयं कल्पनीयम् , तथा उत्सर्पिण्या दुष्षमदुष्पमादि, तभेदानां चोक्तविपर्य येणोत्कृष्टत्वं प्राग्वद् योज्यमिति ॥ काललक्षणा अचेतनद्रव्यधर्मा
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॥१५५॥
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सू०१३८
श्रोस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१५६॥
अनन्तरमुक्ताः तत्साधर्म्यात पुद्गलधर्मान् निरूपयन् सूत्राणि पञ्च चतुरश्च दण्डकानाह-'तिही'त्यादि, छिन्नः खड्गादिना पुद्गलः समुदायाच्चलत्येवेत्यत आह-'अच्छिन्नपुद्गल'इति, 'आहारेज्जमाणे'त्ति आहारतया जीवेन गृह्यमाणः स्वस्थानाच्चलति, जीवेनाकर्षणात , एवं विक्रियमाणो वैक्रियकरणवशवर्तितयेति, स्थानात् स्थानान्तर सङ्क्रम्यमाणो हस्तादिनेति । उपधीयते-पोष्यते जीवोऽनेनेति उपधिः, कर्मवोपधिः कर्मोपधिः, एवं शरीरोपधिः, बाह्यःशरीरबहिर्वी 'भाण्डानि' च-भाजनानि मृण्मयानि 'मात्राणि' च-मात्रायुक्तानि कांस्यादिभाजनानि भाजनोपकरणानीत्यर्थः, भाण्डमात्राणि तान्येवोपधिः भाण्डमात्रोपधिः, अथवा भाण्डं-वस्त्राभरणादि तदेव मात्रा-परिच्छदः सैवोपधिरिति, ततो बाह्यशब्दस्य कर्मधारय इति, चतुर्विंशतिदण्डकचिन्तायामसुरादीनां त्रयोऽपि वाच्याः, नारकैकेन्द्रियवर्जाः, तेषामुपकरणस्याभावाद् , द्वीन्द्रियादीनां तूपकरण दृश्यत एव केषाश्चिदित्यत एवाह-'एव'मित्यादि, 'अहवे'त्यादि, सचित्तोपधिर्यथा शैलं भाजनम् , अचित्तोपधिः-वस्त्रादिः, मिश्रः-परिणतप्राय शैलभाजनमेवेति, दण्डकचिन्ता सुगमा, नवरं सचित्तोपधि रकाणां शरीरम् , अचेतनः-उत्पत्तिस्थान मिश्रः-शरीरमेवोच्छ्वासादिपुद्गलयुक्त तेषां सचेतनाचेतनत्वेन मिश्रत्वस्य विवक्षणादिति, एवमेव शेषाणामप्ययमूह्य इति । 'तिविहे परिग्गहे' इत्यादिसूत्राणि उपधिवज्ज्ञेयानि, नवरं परिगृह्यते-स्वीक्रियते इति परिग्रहो-मृ.विषय इति, इह चैषामयमिति व्यपदेशभागेव ग्राह्यः, स च नारकैकेन्द्रियाणां कादिरेव सम्भवति, न भाण्डादिरिति ।। पुद्गलधर्माणां त्रित्वं निरूप्य जीवधर्माणां 'तिविहे' इत्यादिभित्रिभिर्दण्डकैः सूत्रैस्तदाह
तिविहे पणिहाणे ५० त०-मणपणिहाणे वयपणिहाणे कायपणिहाणे, पवं पंचि दियाणं जाव वेमाणियाण,
॥१५६॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०१३९-२४०।
दीपिका वृत्तिः ।
तिविहे सुप्पणिहाणे ५० त०-मणसुप्पणिहाणे वयसुप्पणिहाणे कायसुप्पणिहाणे, संजयमणुस्साण तिविहे सुप्पणिहाणे पं० त०-मणसुप्पणिहाणे वयसुप्पणिहाणे कायसुप्पणिहाणे, तिविहे दुप्पणिहाणे प० त०-मणदुप्पणिहाणे वइदुष्पणिहाणे कायदुप्पणिहाणे, एवं पंचिंदियाण' जाव बेमाणियाण (सू० १३९) तिविहा जोणी ५० त०-सीता उसिणा सीतोसिणा, एवं एगिदियाण विगलिंदियाणं तेउकाइयवज्जाणं समुच्छिमपंचि दियतिरिक्खजोणियाणं समुच्छिममणुस्साण य । तिविहा जोणी ५० त०-सचित्ता अचित्ता मीसिया, एवं एगिदियाण विगलि दियाणं समुच्छिमपंचि दियतिरिक्खजोणियाण समुच्छिममणुस्साण य । तिविहा जोणी ५० त०-सवुडा वियडा सबुडवियडा । तिविहा जोणी ५० त०-कुम्मुण्णया सखावत्ता वंसीपत्तिया, कुम्मुण्णया ण जोणी उत्तमपुरिसमाऊण, कुम्मुण्णयाए ण जोणीए तिविहा उत्तमपुरिसा गम्भ वक्कमंति, त०-अरहता चक्कवट्टी बलदेववासुदेवा, सखावत्ता णं जोणी इत्थीरयणस्स, सखावत्ताए ण जोणीए बहवे जीवा य पोग्गला य वक्कमंति विउक्कमति चयति उववज्जति णो चेव ण णिप्फज्जति, वसीपत्तिया ण जोणी पिहज्जणस्स, वसापत्तियाए ण जोणीए बहवे पिहज्जणे गभवकर्मति (सू०१४०)।
कण्ठयानि चैतानि, नवरं प्रणिहितिः प्रणिधानम्-एकाग्रता, तच्च मनःप्रभृतिक भेदात् विधेति, तत्र मनसः प्रणिधानं मनःप्रणिधानमेवमितरे, तच्च चतुर्विंशतिदण्डके सर्वेषां पञ्चेन्द्रियाणां भवति, तदन्येषां तु नास्ति, योगानां सामस्त्येनाभावादित्यत एवोक्तम्-‘एवं पञ्चे दिए'त्यादि, प्रणिधानं हि शुभाशुभभेदमय शुभमाह-तिविहे' इत्यादि सामान्यसूत्रं १, विशेषमाश्रित्य चतुर्विंशतिदण्डकचिन्तायां मनुष्याणामेव तत्रापि संयतान मेवेदं भवति, चारित्रपरिणामरूपत्वादस्येति, अत एवाह-'संजयेत्यादि २, दुष्टं प्रणिधानं दुष्प्रणिधानम्-अशुभमनःप्रवृत्त्यादिरूपं सामान्यप्रणिधानवत् व्याख्येयमिति ३ । जीवपर्यायाधिकारात् 'तिविहे'त्यादिना गम्भ दकमती'त्येतदन्तेन ग्रन्थेन योनिस्व
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॥१५७॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०१३९-१४०।
दीपिका वृत्तिः । ॥१५८॥
॥ रूपमाह-तिविहे 'त्यादि, तत्र युवन्ति-तैजसकामगशरीवन्तः सन्त औदारिकादिशरीरेण मिश्रीभवन्त्यस्यामेति योनिःजीवस्योत्पत्तिस्थान शीतादिस्पर्शवदिति, 'एव"ति यथा सामान्य स्त्रिविधा तथा चतुर्विंशतिदण्डकचिन्तायामेकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणां तेजोवर्जानां, तेजसामुष्णयोनित्वात् , पञ्चेन्द्रियतिर्यपदे मनुष्यपदे च सम्मूर्छनजानां त्रिविधा, शेपाणां त्वन्यथेति, यत आह-"सीओसिणजोणिया, सव्वे देवा य गब्भवकंती । उसिणा य तेउकाए, दुह निरए तिविह सेसाण ॥१॥"ति ॥ अन्यथा योनित्रैविध्यमाह-'तिविहे'त्यादि कण्ठय, नवरं दण्डकचिन्तायामेकेन्द्रियादीनां सचित्तादिविविधा योनिरन्येषां त्वन्यथा, यत उत्तम्-"अच्चित्ता खलु जोणी, नेरइयाण तहेव देवाणं । मीसा य गम्भवसही, तिविहा जोणी य सेसाण ॥१॥"ति, पुनरन्यथा तामाह-तिविहे'त्यादि, संवृता-सङ्कटा घटिकालयवत् , | विवृता-विपरीता संवृतविवृता-तूभयरूपेति, एतद्विभागोऽयम्-"एगिदियनेरइया, संवुडजोणी हवंति देवा य । विगलि. दियाण वियडा, संवुडवियडा य गम्भंमि ॥१॥"त्ति, 'कुम्मुन्नये'त्यादि कण्ठय, नवरं कूर्मः-कच्छपः तद्वदुघ्नता कूर्मोन्नता, शङ्खस्येवाव? यस्यां सा शखावर्ता, वंश्या-वंशजाल्याः पत्रकमिव या सा वंशीपत्रिका, गर्भ वक्कम तित्ति गर्ने उत्पद्यन्ते, बलदेववासुदेवानां सहचरत्वेनैकत्वविवक्षयोत्तमपुरुषत्रैविध्यमिति, 'बहवे'इत्यादि, योनित्वाजीवाः पुद्गलाश्च तद्ग्रहणप्रायोग्याः, किम् ?-'व्युत्क्रामन्ति' उत्पद्यन्ते, 'व्यवक्रामन्ति' विनश्यन्ति, एतदेव व्याख्याति'विउक्कमन्ती'ति, कोऽर्थः ?-च्यवन्ते, 'वक्कमन्ति'त्ति, किमुक्त भवति ?-उत्पद्यन्त इति, 'पिहजणस्स'त्ति पृथग्जनस्यसामान्यजनस्योत्पत्तिकारण भवतीति । अनन्तरं योनितो मनुष्याः प्ररूपिताः, अधुना मनुष्यस्य सधर्मणो बादरवनस्पतिकायिकान् प्ररूपयन्नाह
680-80-6000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥१५८॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका
वृत्तिः ।
॥१५९॥
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तिविहा वणस्सइकाइया पं० त० - संखेज्जजीविया असंखेजजीविया अनंतजीविया (सू० १४९) जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे तओ तित्था पं० त० - मागधे वरदामे पभासे, एवं परवर वि, जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वाले पगमेगे कट्टिविजये तओ तित्था पं० त०-मागहे वरदामे प्रभासे ३ एवं धायइसंडे दीवे पुरच्छिमद्धेवि ६, पच्चत्थि - मद्धेवि ९, पुक्खरवरदीवड्ढपुरच्छिमद्धेवि १२, पच्चत्थिमद्धेवि १५ (सू० १४२ ) ।
'तिविहे 'त्यादि, तृणवनस्पतयो बादरा इत्यर्थः, सख्यातजीविकाः - सङ्ख्यातजीवाः, यथा नालिकाबद्धकुसुमानि जात्यादीनीत्यर्थः, असङ्ख्यातजीविका यथा निम्बाम्रादीनां मूलकन्दस्कन्धत्वक्छाखाप्रवालाः, अनन्तजीविकाःपनकादय इति, इह 'प्रज्ञापना' सूत्राणीत्थ - " जे केई नालियाबद्धा, पुप्फा संखेज्जजीविया भणिया" इत्यादि ॥ अनन्तरं वनस्पतय उक्तास्ते च जलाश्रया बहवो भवन्तीतिसम्बन्धाज्जलाश्रयाणां तीर्थानां निरूपणायाह- 'ज' बुद्दीवे' इत्यादिपञ्चदशसूत्री साक्षादतिदेशतश्च सुगमा च, केवल तीर्थानि चक्रवर्त्तिनः समुद्रशीतादिमहानद्यवतारलक्षणानि तम्नामक देवनिवासभूतानि, तत्र भरतैरावतयोस्तानि पूर्वदक्षिणापरसमुद्रेषु क्रमेणेति, विजयेषु शीताशीतोदामहानद्योः पूर्वादिक्रमेणैवेति । जम्बूद्वीपादौ मनुष्यक्षेत्रे सन्ति तीर्थानि प्ररूपितानि, अधुना तत्रैव सन्तं कालं त्रिस्थानको - पयोगिनं सूत्रपञ्चदशन साक्षादतिदेशाभ्यां निरूपयन्नाह -
जम्बूद्दीवे दीवे भर हेरवपसु वासेसु तीयाए उस्सप्पिणीए सुसमाए समाप् तिन्नि सागरोबमकोडाकोडीओ कालो होत्था १, एवं ओसप्पिणीए णवर पण्णत्ते २ आगमिस्साए उस्सप्पिणीप भविस्सर ३, एवं धायइसंडे पुरच्छिमद्धे पच्चत्थिमद्धेवि ९, एवं पुक्खरवरदीवडूढपुरच्छिमद्धे पच्चत्थिमद्धेवि कालो भाणियव्यो १५ । जंबुद्दीवे दीवे भरहेरचासु
सू० १४१-१४२ ।
॥१५२॥
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सू०१४३-१४४।
श्रोस्थानाङ्गसूत्र
द.पिका वृत्तिः । ॥१६॥
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वासेसु तीयाए उस्सप्पिणीप सुसमसुसमाए समाए मणुया तिण्णि गाउयाइ उड्ढ उच्चत्तेण, तिण्णि पलिओवमाई परमाउय पालयित्था १, एवं इमीसे ओसप्पिणीए २, आगमेस्साए उस्सप्पिपणीए ३, जम्बूद्दीवे दीवे देवकुरुउत्तरकुरासु मणुया तिण्णि गाउयाइ उइढ उच्चत्तेणं ५०, तिणि पलिओवमाइ परमाउय पालयति, ४, पब जाब पुक्खरवरदीवइढपच्चत्थिमद्धे २० ! जवूद्दीवे दीवे भरहेरवपसु वासेसु एगमेगाए ओसप्पिणीउस्सप्पिणीए तओ वंसाओ उपजिसु वा उप्पज्जति वा उप्पज्जिस्संति वा तंजहा-अरहंतवंसे चक्कवहिवंसे दसारवसे २१, एवं जाव पुक्खरवरदीवडूढपच्चत्थिमद्धे २५ । जंबूद्दीवे दीवे भरहेरवपसु वासेसु एगमेगाए ओसप्पिणीउस्सप्पिणीए तओ उत्तमपुरिसा उप्पजिसु वा उप्पज्जंति वा उप्पज्जिस्संति वा त-अरहंता चकवट्टी बलदेववासुदेवा २६, एवं जाव पुक्खरवरदीवड्ढपच्चत्थिमद्धे ३०, तओ अहाउय पालयति त-अरहंता चक्कवट्टी बलदेववासुदेवा ३१, तओ तओ मज्झिमाउय पालय ति, त-अरहता चक्कवट्टी बलदेववासुदेवा ३२ (सू० १४३) ।
'जम्बूद्दीवे' इत्यादि सुवोध, किन्तु 'पन्नत्ते'त्ति अवसर्पिणीकालस्य वर्तमानत्वेनातीतोत्सर्पिणीवत् होत्यत्ति न व्यपदेशः कार्यः, अपि तु पन्नत्तेत्ति कार्य इत्यर्थः, 'जम्बूद्दीवेत्यादिना वासुदेवे'त्येतदन्तेन ग्रन्थेन कालधर्मानेवाहसुगमश्चाय, किन्तु 'अहाउयं पालयति'त्ति निरुपक्रमायुष्कत्वात् , मध्यमायुः पालयन्ति वृद्धत्वाभावात् । आयुष्काधिकारादिदं सूत्रद्वयमाह
बायरतेउकाइयाण उक्कोसेण तिण्णि राईदियाई ठिई पन्नत्ता । बादरवाउकाइयाण उक्कोसेण तिणि वाससहस्साई ठिई ५० (सू० १४४) । अह भंते ! सालीण वीहीण गोधूमाण जवाणजवजवाणं एतेसि ण धन्नाण कोट्टाउत्ताण पल्लाउत्ताण मंचाउत्ताणं मालाउत्ताणं ओल्लित्ताणं लित्ताणं लंछियाण मुद्दियाणं पिहियाणं केवइय
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॥१६॥
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सू०१४५-१४६।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१६॥
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काल जोणी सचिट्ठइ ?, गोयमा ! जहण्णेण अंतोमुहुत्त उक्कोसेण तिणि संवच्छराई, तेण परं जोणी पमिलाइ, तेण परं जोणी पविद्ध सइ, तेण परं बीए अबीए भवइ, तेण परं जोणीवोच्छेदो पण्णत्तो (सू० १४५)। दोच्चाए ण सकरप्पभाए पुढवीए णेरइयाण उक्कोसेण तिणि सागरोचमाई ठिई पण्णत्ता १, तच्चाए णं वालुयप्पभाए पुढवीए जहण्णेण' णेरइयाण तिणि सागरोवमाइ ठिई पण्णत्ता २ (सू० १४६) ।
स्पष्टम् ॥ स्थित्यधिकारादेवेदमपरमाह-'अह भंतेत्ति 'अथ' परिप्रश्नार्थकः, 'भदन्त इति भदन्तः-कल्याणस्य मुखस्य च हेतुत्वात् कल्याणः सुखश्चेति, अथवा भज्यते-सेव्यते शिवार्थिभिरिति भजन्तः, अत्र बबर्थयुक्तः, अतो 'भंतेत्ति महाबीरमामन्त्रयन्नुक्तवान् गौतमादिः । 'शालीनां' कलमादिकानामिति विशेषः, शेषाणां व्रीहीणामिति सामान्य, 'यवयवा' यवविशेपा एव, 'एतेषाम् ' अभिहितत्वेन प्रत्यक्षाणां, 'कोष्ठे-कुशूले 'आगुप्तानि-प्रक्षेपणेन सरंक्षितानि कोष्ठागुप्तानि तेषामेवं सर्वत्र, नवरं पल्यो-वंशकटकादिकृतो धान्याधारविशेषः, मञ्च:-स्थूणानामुपरि स्थापितो वंशकटकादिमयो जनप्रतीतः, मालको-गृहस्योपरितनभागः, अभिहितं च-"अक्कुड्डो होई मंचो, मालो य घरोवरि होइ"त्ति, 'ओलित्ताण ति द्वारदेशे पिधानेन सह गोमयादिना अवलिप्तानां, 'लित्ताण ति सर्वतः 'लछियाण ति रेखादिभिः कृतलान्छनानां, 'मुहियाण'ति मृत्तिकादिमुद्रावतां 'पिहियाण"ति स्थगितानां, 'केवतिय'ति कियन्तं काल योनिर्यस्यामकुर उत्पद्यते ?, ततः परं योनिः प्रम्लायति-वर्णादिना हीयते, प्रविध्वस्यते-विध्वंसाभिमुखा भवति, विध्वस्यते-क्षीयते, एवं च तद्बीजमबीज भवति-उप्तमपि नाङ्कुरमुत्पादयति, किमुक्त भवति ?-ततः परं योनिव्यवच्छेदः प्रज्ञप्तो मयाऽन्यैश्च केवलिभिरिति, शेषं स्पष्टम् ॥ स्थित्यधिकारादेवेदमपरं सूत्रद्वयमाह-'दोच्चाए'इत्यादि
B-000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000.
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०१४७-१४८
श्रीस्थानाङ्गसूत्रदीपिका
वृत्तिः ।
॥१६॥
स्फुटं, नवरं द्वितीयायां पृथिव्यां विनामिकायामित्याह-शर्कराप्रभायामित्येवं योजनीय, नरकपृथिव्याधिकारान्नरकनारकविशेषस्वरूपनरूपणाय सूत्रत्रयमाह
पंचमाए ण धूमप्पभाए पुढवीए तिणि णिरयावाससयसहस्सा ५०, तिनु ण पुढवीसु णेरइयाण उसिणवेयणा पं० त०- पढमाए दोच्चाए तच्चाए, तिसु ण पुढवीसु णेरइया उसिणवेयण पञ्चणुभवमाणा विहरंति, त-पढमाए दोच्चाए तच्चाए (सू० १४७) । तओ लोगे समा सपक्खि सपडिदिसि पं० त०-अपइट्टाणे परए जंबूद्दीवे दीवे सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे, तओ लोए समा सपक्खि सपडिदिसिं पं० त०-सीमंतए नरए समयखेत्ते ईसीपभारा पुढवी (सू० १४८) तओ समुद्दा पगईए उदगरसेणं पं० त०-कालोदे पुक्खरोदे सयंभूरमणे३, तओ समुद्दा बहुमच्छकच्छभाइण्णा पं० त०-लवणे कालोदे सयभूरमणे (सू० १४९) ।
'पंचमाए इत्यादि, सुबोध कवलं. 'उसिणवेयणत्ति तिसणामुष्णस्वभावत्वात् , तिसृषु नारका उष्णवेदना इत्युक्त्वापि यदुच्यते नैरयिका उष्णवेदनां प्रत्यनुभवन्तो बिहरन्तीति तत्तद्वेदनासातत्यप्रदर्शनार्थम् ॥ नरकपृथिवीनां क्षेत्रस्वभावानां प्राकस्वरूपमुक्तमथ क्षेत्राधिकारात् क्षेत्रविशेषस्वरूपस्य त्रिस्थानकावतारिणो निरूपणाय सूत्रचतुष्टयमाह'तओ'इत्यादि, त्रीणि लोके समानि-तुल्यानि योजनलक्षप्रमाणत्वात् न च प्रमाणत एवात्र समत्वमपि तु औत्तराधर्यव्यवस्थितया समश्रेणितयाऽपीत्यत आह-'सपक्खि मित्यादि, पक्षाणां-दक्षिणवामादिपार्थानां सदृशता-समता सपक्षमित्यव्ययीभावः तेन समपार्श्वतया समानीत्यर्थः, वारस्तु प्राकृतत्वात् , तथा च प्रतिदिशां-विदिशां सदृशता सप्रतिदिक् तेन समप्रतिदिकूतयेत्यर्थः, अप्रतिष्ठानः सप्तम्यां पञ्चानां नरकावासानां मध्यमः, तथा जम्बूद्वीपः
చివరిసారించిందని వివరించండి
॥१६२॥
అం అమ చిమ చిమ చిమ
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सू०१५० ।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
सकलद्वीपमध्यमः, सर्वार्थसिद्ध विमानं पञ्चानामनुत्तराणां मध्यममिति । सीमन्तकः प्रथमपृथिव्यां प्रथमप्रस्तटे नरकेन्द्रकः पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षाणि, समयः कालः तत्सत्तोपलक्षित क्षेत्र समयक्षेत्रं मनुष्यलोक इत्यर्थः, ईषद् - अल्पो योजनाष्टकबाहल्यपञ्चचत्वारिंशल्लक्षविष्कम्भात् प्राग्भार:-पुद्गलनिचयो यस्याःसेपत्ताग्भाराऽष्टममृथिवी, शेषपृथिव्यो हि रत्नप्रभाद्या महापाग्भारा, अत्यादिसहस्राधिकयोजनलक्षबाहल्यत्वात् , तथाहि-"पढमाऽसीइसहस्सा, बत्तीसा अट्ठबीस बीसा य । अट्ठार सोलस य अठ्ठ, सहस्स लक्खोवरि कुज्जा ॥१॥"त्ति, विष्कम्भस्तु तासां क्रमेण एकाद्याः सप्तान्ता रज्जव इति, अथवेपत्प्रग्भारा मनागवनतत्वादिति॥ प्रकृत्या-स्वभावेनोदकरसेन युक्ता इति, क्रमेण चैते द्वितीय तृतीयान्तिमाः। प्रथमद्वितीयान्तिमाः समुद्रा बहुजलचराः अन्ये त्वल्पजलचरा इति, उक्त च-"लवणे उदगरसेसु य, महोरया यरा मच्छकच्छहा भणिया । अप्पा सेसेसु भवे, न य ते णिम्मच्छया भणिया ॥११॥" अन्यच्च-"लवणे कालसमुद्दे, सयंभुरमणे य होति मच्छा उ। अवसेससमुद्देमुं, न हुँति मच्छा न मयरा य ॥२॥" 'नस्थित्ति पउरभावं पडुच्च न उ सव्वमच्छपडिसेहो त्ति क्षेत्राधिकारादेवाप्रतिष्ठाने नरकक्षेत्रे ये उत्पद्यन्ते तानाह
तो लोए णिस्सीला णिव्वया णिग्गुणा णिम्मेरा णिप्पच्चक्खाणपोसहोववासा कालमासे काल किच्चा अहे सत्तमाए पुढवीए अपइहाणे णरए णेरइयत्ताए उबवति, त-रायाणो मंडलीया जे य महारंभा कोडंबी । तओ लोए सुसीला सुब्धया सग्गुणा समेरा सपच्चक्खाणपोसहोववासा कालमासे काल किच्चा सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववत्तारो भवति, त-रायाणो परिचत्तकामभोगा सेणावई पसत्थारो (सू० १५०)। बंभलोगलंतएसु णं
॥१६३॥
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श्रोस्थानाङ्ग
सू०१५१-१५२।
सूत्रदीपिका
वृत्तिः ।
॥१६॥
कप्पेसु विमाणा तिवन्ना प० त०-किण्हा नीला लोहिच्चा, आणयपाणयारणच्चुपसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणीयसरीरगा उक्कोसेण तिपिण रयणीओ उढ़ उच्चत्तेणं पण्णत्ता (सू० १५१) । तओ पण्णत्तीओ कालेणं अहिज्जति, तं-चंदपण्णत्ती सूरपण्णत्ती दीवसागरपण्णत्ती (सू० १५२) । तिट्ठाणस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ।
'तओ'इत्यादि, 'निःशीला' निर्गतशुभस्वभावाः दुःशीला इत्यर्थः, एतदेव प्रपच्यते-'निर्वता:' अविरताः प्राणातिपातादिभ्यो 'निर्गुणा' उत्तरगुणाभावात् 'निम्मेर'त्ति निर्मर्यादाः प्रतिपन्नापरिपालनादिना, तथा प्रत्याख्यान च नमस्कारसहितादि, पौषधः-पर्वदिनमष्टम्यादि तत्रोपवासः-अभक्तार्थकरण स च, तौ निर्गतौ येषां ते निष्प्रत्याख्यानपौषधोपवासाः 'कालमासे'मरणमासे 'काल"मरणमिति, 'णेरइयत्ताएत्ति पृथिव्यादित्वव्यवच्छेदार्थ, तत्र धेकेन्द्रियतया तदन्येऽप्युत्पद्यन्ते इति, तत्र राजानः-चक्रवर्त्तिवासुदेवाः माण्डलिकाः-शेषा राजानः, ये च महारम्भाःपञ्चेन्द्रियादिव्यपरोपणप्रधानकर्मकारिणः कुटुम्बिन इति, शेष कण्ठयम् ॥ अप्रतिष्ठानस्य स्थित्यादिभिः समाने सर्वार्थे ये उत्पद्यन्ते तानाह-'तओ' इत्यादि सुगम', केवल राजानः-प्रतीताः परित्यक्तकामभोगाः-सर्वविरताः, एतच्चोत्तरपदयोरपि सम्बन्धनीय, सेनापतयः-सैन्यनायकाः, प्रशास्तारो-लेखाचार्यादयः, धर्म शास्त्रपाठका इति क्वचित् ॥ अनन्तरोक्तसर्वार्थसिद्धविमानसाधाद् विमानान्तरनिरूपणायाह-'बभेत्यादि, इह च "किण्हा नीला लोहिय'त्ति, पुस्तकेष्वेवं त्रैविध्य दृश्यते, स्थानान्तरे च लोहितपीतशुक्लत्वेनेति, यत उक्त-"सोहम्मे पंचवन्ना, एकगहाणी य जा सहस्सारो । दो दो कप्पा तुल्ला, तेण परं पुंडरीयाई ॥१॥"ति, अनन्तरं विमानान्युक्तानि तानि च देवशरीराश्रया इति देवशरीरमान त्रिस्थानकानुपात्याह-'आणये'त्यादि भवं-जन्मापि यावद् धार्यन्ते भवं
2000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥१६४॥
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श्रीस्थानाङ्ग
दीपिका
वा-देवगतिलक्षण धारयन्तीति भवधारणीयानि तानि च तानि शरीराणि चेति भवधारणीयशरीराणीति, उत्तरवैक्रियव्यवच्छेदार्थ चेद, तस्य लक्षप्रमाणत्वात् , 'उक्कोसेण"ति उत्कर्षेण, न तु जघन्यत्वादिना, जघन्येन तस्योत्पत्तिसमयेऽगुलासङ्ख्येयभागमात्रत्वादिति, शेषं कण्ठयमिति । अनन्तरं देवशरीराश्रयवक्तव्यतोक्ता तत्प्रतिबद्धाश्च प्रायस्त्रयो ग्रन्था इति तत्स्वरूपाभिधानायाह-'तओ'इत्यादि, कालेन-प्रथमपश्चिमपौरुषीलक्षणेन हेतुभूतेनाधीयन्ते, व्याख्याप्रज्ञप्तिर्जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिश्च न विवक्षिता, त्रिस्थानकानुरोधादिति, शेष स्पष्टम् ॥ इति त्रिस्थानकस्य प्रथमोदेशको विवरणतः समाप्तः ॥
वृत्तिः ।
0000000000000000000000000000000000000000000000000000000
व्याख्यातः प्रथमोद्देशकः, तदनन्तरं द्वितीयः प्रारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, प्रथमोदेशके जीवधर्माः प्राय उक्ताः, इहापि प्रायस्त एवेति । इत्थंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्__नमो सुयदेवयाए ॥ तिविहे लोए पं० त०-णामलोए ठवणलोए दब्बलोए, तिविहे लोए पं० २०-णाणलोए दसणलोए चरित्तलोए, तिविहे लोए पं० त०-उइढलोए अहोलोए तिरियलोए (सू० १५३)।
तिविहे' इत्यादि, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तरसूत्रेण चन्द्रप्रज्ञप्त्यादिग्रन्थस्वरूपमुक्तमिह च चन्द्रादीनामेवार्थानामाधारभूतस्य लोकस्य स्वरूपमभिधीयत इत्येवंसम्बन्धवतोऽस्य सूत्रस्य व्याख्या- लोक्यते केवलालोकेनेति लोकः, नामस्थापने इन्द्रसूत्रवत् , द्रव्यलोकोऽपि तथैव, नवरं ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यलोको धर्मास्तिकायादीनि जीवाजीवरूपाणि रूप्यरूपीणि सप्रदेशाप्रदेशानि द्रव्याण्येव, द्रव्याणि च तानि लोकश्चेति विग्रहः, भावलोक
100000000000000000000000000000000000000000000000000000६
॥१६५॥
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सू०१५३ ।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१६६॥
त्रिधाऽऽह-तत्र ज्ञान चासौ लोकश्चेति ज्ञानलोकः, भावलोकता चास्य क्षायिकक्षायोपशमिकभावरूपत्वात् , क्षायिकादिभावानां च भावलोकत्वेनाभिहितत्वात् , उक्तंच-"ओदइए उवसमिए य, खइए य तहा खओवसमिए य । परिणामसन्निवाए य, छबिहो भावलोओ ॥१॥"त्ति, एवं दर्शनचारित्रलोकावपीति ॥ अथ क्षेत्रलोक त्रिधाऽऽह'तिविहे' इत्यादि, इह च बहुसमभूमिभागे रत्नप्रभाभागे मेरुमध्ये अष्टप्रदेशो रुचको भवति, तस्योपरितनप्रतरस्योपरिष्टान्नव योजनशतानि यावत् ज्योतिश्चक्रस्योपरितलः तावत् तिर्यग्लोकस्ततः परत ऊर्श्वभागस्थितत्वात् ऊर्ध्वलोको देशोनसप्तरज्जुप्रमाणो रुचकस्याधस्तनप्रतरस्याधो नवयोजनशतानि यावत्तिर्यग्लोकः, ततः परतोऽधोभागस्थितत्वादधोलोकः सातिरेकसप्तरज्जुप्रमाणः, अधोलोकोयलोकयोमध्ये अष्टादशयोजनशतप्रमाणतिर्यग्भागस्थितत्वात् तिर्यग्लोक इति, प्रकारान्तरेण चायं गाथाभिर्व्याख्यायते-"अहवा अहपरिणामो, खेत्तणुभावेण जेण ओसन्न । अमुहो अहोत्ति भणिओ, दव्वाण तेणऽहोलोगो ॥१॥" उइद उवरिंज ठिय, सुहखेत्तं खेत्तओ य दव्वगुणा । उप्पज्जति मुभा वा, तेण तओ उइढलोयोत्ति ॥२॥" मज्झणुभावं खेत्त, ज त तिरियंति वयणपज्जवओ। भण्णइ तिरिय विसाल, अओ य तं तिरियलोगोत्ति ॥३॥" लोकस्वरूपनिरूपणानन्तरं तदाधेयानां चमरादीनां 'चमरस्सेत्यादिना अच्चुयलोगवालाण'मित्येतदन्तेन ग्रन्थेन पर्षदो निरूपयति--
चमरस्स ण असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तओ परिसा पण्णत्ता, त-समिया चंडा जाया, अभितरिया समिया मज्झिमिया चंडा बाहिरिया जाया, चमरस्स ण असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो सामाणियाण देवाण तओ परिसाओं पं० त०-समिया० जहेव चमरस्स, एवं तायत्तीसगाण वि, लोगपालाण
॥१६६॥
तओ परमझिमिया चंडा बारकुमाररण्णो तो
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सू० १५४।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१६७॥
तुंबा तुडिया पव्वा, एवं अग्गमहिसीणवि, बलिस्सवि एवं चेव, जाव अग्गमहिसीण, धरणस्स य सामाणियतायत्तीसगाण च मिया चंडा जाया, लोगपालाण अग्गमहिसीणं ईसा तुडिया दढरहा, जहा धरणस्स तहा सेसाण भवणवासीण, कालस्स ण पिसाइदस्स पिसायरण्णो तओ परिसाओ पण्णत्ताओ, तं०-ईसा तुडिया दढरहा, एवं सामाणियअग्गमहिसीणंपि, एवं जाव गीयरतीगीयजसाण, चंदस्स ण जोइसिंदस्स जोइसरण्णो तओ परिसाओ पण्णत्ताओ त-तुंबा तुडिया पन्या, एवं सामाणियअग्गमहिसीण', पव सूरस्सवि, सक्कस्स ण देविंदस्स देवरण्णो तओ परिसाओ पं० त०-समिया चंडा जाया, एव जहा चमरस्स जाव अग्गमहिसीणं, एवं जाव अच्चुयस्स लोगपालाणं (सू० १५४)।
सुगमश्चाय, नवरं 'असुरिंदस्से त्यादौ इन्द्र ऐश्वर्ययोगात् राजा तु राजनादिति, 'परिषत्' परिवारः, सा च त्रिधा प्रत्यासत्तिभेदेन, तत्र ये परिवारभूता देवा देव्यश्चात्यन्तगौरव्यत्वात् प्रयोजनेऽप्याहृता एवागच्छन्ति सा अभ्यन्तरा पर्पत , ये त्वाहता अनाहूताश्चागच्छन्ति सा मध्यमा, ये त्वनाहृता अप्यागच्छन्ति सा बाह्येति, तथा यया सह प्रयोजन पर्यालोचयति साऽऽद्या, यया तु तदेव पर्यालोचित सत् प्रपञ्चयति सा द्वितीया, यस्यास्तु तत् प्रवर्णयति साऽन्त्येति ॥ अनन्तरं पर्पदुपपन्ना देवाः प्ररूपिताः, देवत्वं च कुतोऽपि धर्मात् , तत्प्रतिपत्तिश्च कालविशेषे भवतीति कालविशेषनिरूपणापूर्व तत्रैव धर्मविशेषाणां प्रतिपत्तीराह
तओ जामा ५० तं-पढमे जामे मज्झिमे जामे पच्छिमे जामे, तिहिं जामेहिं आया केवलिपण्णत्त धम्म लभेज्जा सवणयाए त-पढमे जामे मज्झिमे जामे पच्छिमे जामे, एवंजाव केवलणाणं उप्पाडेज्जा पढमे जामे मज्झिमे जामे पच्छिमे जामे । तओ वया पं० त०-पढमे वए मज्झिमे वये पच्छिमे वए, तिहिं वपहिं आया केवलिपण्णत्त धम्म लभेज्ज
॥१६७॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥१६८॥
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सवण्यात ०-पढमे वप मज्झिमे वप पच्छिमे वप, एसो चैव गमो णेयव्वो, जाव केवलणाणंति (सू० १५५) ।
'तओ जामे 'त्यादि स्पष्टम्, नवरं यामो - रात्रेर्दिनस्य च चतुर्थभागो यद्यपि प्रसिद्धस्तथापीह त्रिभाग एव विवक्षितः पूर्वरात्रमध्यरात्रापररात्रलक्षणो यमाश्रित्य रात्रिस्त्रियामेत्युच्यते, एवं दिनस्यापि, अथवा चतुर्थभाग एव सः, किन्त्विह चतुर्थो न विवक्षितः, त्रिस्थानकानुरोधादित्येवमपि त्रयो यामा इत्यभिहितम्, सुगम, नवरं, 'जावत करणादिद दृश्य - ' केवल बोहिं बुज्झेज्जा, मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वज्जा, केवल बंभ
वासमावसेज्जा एवं संजमेण संजमेज्जा, संवरेण संवरेज्जा, आभिणिवोहियणाण उप्पाडेज्जा" इत्यादि । यथा कालविशेषे धर्म्मप्राप्तिरेवं वयोविशेषेऽपीति तन्निरूपणतस्तद्धर्मविशेषप्रतिपत्तीराह - 'तओ वयेत्यादि स्पष्ट, किन्तु प्राणिनां कालकृतावस्था वय उच्यते, तत् त्रिधा - बालमध्यमवृद्धत्वभेदादिति, वयोलक्षण ं चेदम्-"आषोडशाद् भवेद् बालो, यावत्क्षीरान्नवर्त्तकः । मध्यमः सप्ततिं यावत्, परतो वृद्ध उच्यते || १ ||” शेषं प्राखत् ॥ उक्तानेव धर्मविशेषांस्त्रिधा बोधिशब्दाभिधेयान् १ बोधिमतो २ बोधिविपक्षभूतं मोहं ३ तद्वतच ४ सूत्रचतुष्टयेनाऽऽह —
तिविहा बोही प ० ० णाणबोही दंसणबोही चरितबोही १, तिविहा बुद्धा प०त० णाणबुद्धा दंसणबुद्धा चरित्तबुद्धा २ (एव बुद्धा २) एवं मोहे ३ मूढा ४ (सू० १५६ ) । तिविहा पव्वज्जा पं० त० - इहलोगपडिबद्धा परलोगपडिबद्धा दुहतोपडिबद्धा, तिविहा पव्वज्जा पं० त० पुरतो पडिबद्धा मग्गतो पडिबद्धा दुहतो पडिबद्धा, तिविहा पव्वज्जा पं० त ं०-तुयावइत्ता पुयावइत्ता बुयावइत्ता, तिविहा पव्वज्जा पं० त०-उवातपव्वज्जा अक्खातपव्वज्जा संगार - पव्वज्जा ( सू० १५७) ।
सू० १५५-१५६१५७ ॥
॥१६८॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१६॥
सुबोध, किन्तु बोधिः-इह सम्यग्बोधः, इह चारित्रं बोधिफलत्वात् बोधिरुच्यते, जीवोपयोगरूपत्वाद् वा, बोधिविशिष्टाः पुरुषास्त्रिधा ज्ञानबुद्धादय इति, एवं मोहे मूढ'त्ति बोधिवद् बुद्धवच्च मोहो मृढाश्च त्रिविधा वाच्याः, तथाहि-'तिविहे मोहे पण्णत्ते त-नाणमोहे'इत्यादि, 'तिविहा मूढा पन्नत्ता, तंजहा-णाणमूढे इत्यादि । चारित्रबुद्धाः प्रागभिहिताः ते प्रव्रज्यायां सत्यामतस्तां भेदतो निरूपयन्नाह-'तिविहे'त्यादिसूत्रचतुष्टयं भुगम, केवल प्रव्रजन-गमनं पापाचरणव्यापारेष्विति प्रव्रज्या, एतच्च चरणयोगगमन मोक्षगमनमेव, कारणे कार्योपचारात् , तन्दुलान् वर्षति पर्जन्य इत्यादिवदिति, इहलोकप्रतिवद्धा-ऐहलौकिकभोजनादिकार्यार्थिनां परलोकप्रतिबद्धा-जन्मान्तरकामाद्यर्थिनां द्विधा प्रतिबद्धा-इहलोकपरलोकप्रतिबद्धा सा चोभयार्थिनामिति, पुरतः-अग्रतः प्रतिबद्धा प्रव्रज्यापर्यायभाविषु शिष्यादिप्वाशंसनतः प्रतिबन्धात , मार्गत:-पृष्ठतः स्वजनादिपु स्नेहाच्छेदात् तृतीया द्विधाऽपीति । 'तुयावइत्त'त्ति 'तुद व्यथने' इति वचनात तोदयित्वा-तोदं कृत्वा व्यथामुत्पाद्य या प्रव्रज्या दीयते 'मुनिचन्द्रपुत्रस्य सागरचन्द्रेणेव' सा तथोच्यते, 'पुयावइत्त'त्ति, प्लुङ् गता वितिवचनात् प्लावयित्वा-अन्यत्र नीत्वा आर्य रक्षितवद् या प्रव्रज्या दीयते सा तथेति, 'बुयावइत्ता' संभाष्य गौतमेन कर्षकवदिति । अथवा अवपातः-सेवा सद्गुरूणां ततो या सा अवपातप्रव्रज्या, तथा आख्यातेन-धर्मदेशनेन आख्यातस्य वा प्रव्रजेत्यभिहितस्य गुरुभिर्या साऽऽख्यातप्रव्रज्या 'फल्गुरक्षितस्ये'वेति, 'संगार'त्ति सङ्केतस्तस्माद् या सा सङ्गारप्रव्रज्या 'मेतार्यादी'नामिवेति, अथवा यदि त्वं प्रव्रजसि तदा मया प्रबजितव्यमित्येवं या सा तथा ॥ उक्तप्रवज्यावन्तो निर्ग्रन्था भवन्तीति निर्ग्रन्थस्वरूपं सूत्रद्वयेनाह
00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥१६९॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥१७८॥
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तओ नियंडा णोसण्णोवउत्ता पं० त०-पुलाए नियंठे सिणाते । तओ जियठा सण्णणोसण्णोवउत्ता पं० त०वउसे पडि सेवणाकुसीले कसायकुसीले । (सू० १५८) । तओ सेहभूमीओ पं० त०-उक्कोसा मज्झिमा जहन्ना, उक्कोसा छम्मासा, मज्झिमा चउमासा, जहण्णा सत्तराइ दिया । तओ थेरभूमीओ पं० त०-जाइथेरे सुत्तथेरे परियायथेरे, सविसजाए समणे णिग्गंथे जाइथेरे, ठाणंगसमवायधरे समणे निग्गंथे सुयथेरे, वीसवासपरियाए समणे निर्गथे परियायथेरे (सू० १५९) ।
'ओ' इत्यादि, निर्गता ग्रन्थाद् वाह्याभ्यन्तरादिति निर्ग्रन्थाः - संयताः, 'नो' नैव संज्ञायाम् - आहाराद्यभिलापरूपायां पूर्वानुभूतस्मरणानागतचिन्ताद्वारेणोपयुक्ता ये ते नोज्ञोपयुकाः, तत्र पुलाको - लब्ध्युपजीवनादिना संयमासारताकारको वक्ष्यमाणलक्षणः, निर्ग्रन्थः-उपशान्तमोहः क्षीणमोहो वेति, स्नातको घातिकर्ममलक्षालनावाप्तशुद्धज्ञानस्वरूपः ॥ तथा त्रय एव संज्ञोपयुक्ता नोसंज्ञोपयुकाश्चेति सङ्कीर्णस्वरूपाः, तथास्वरूपत्वात् तथा चाह-'सणणोसण्णोवउत्त'त्ति, संज्ञा च-आहारादिविषया नोसंज्ञा च तदभावलक्षणा संज्ञानोसंज्ञे तयोरुपयुक्का इति विग्रहः, पूर्वह्रस्वता च प्राकृतत्वादिति, तत्र कुश:- शरीरोपकरणविभूपादिना शवलचारित्रपटः प्रतिसेवनया मूलगुणादिविषयया, कुत्सितं शीलं यस्य स तथा एवं कपायकुशील इति ।। निर्ग्रन्थावारोपितव्रताः केचिद भवन्तीति व्रतारोपणकालविशेषानाह-'तओ सेहे त्यादि सुगम', किन्तु 'संहे'त्ति 'षिधू संराद्धा' वितिवचनात् सेध्यते - निष्पाद्यते यः स सेधः शिक्षां वाsata इति शैक्षः, तस्य भूमयो- महाव्रतारोपणकाललक्षणाः अवस्थापदव्य इति से भूमयः शैक्षभूमयो वेति, अयमभिप्रायः- उत्कर्षतः पभिर्मासैरुपस्थाप्यते न तानतिक्राम्यते, जघन्यतः सप्तभिरेव रात्रिन्दिवैगृहीतशिक्षत्वादिति, उक्तं च- "सेहस्स
सू० १५८-१५९ ।
॥ १७० ॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
పావు వంచించించిన
सू०१५९-१६०।
॥१७॥
చివరి చివరి చివరి వరించిన
तिनि भूमी, जहन्न तह मज्झिमा य उक्कोसा । राइंदिसत्त चउमासिगा य छम्मासिया चेव ॥१॥"त्ति, आसु चाय व्यवहारोक्तो विभाग:-"पुन्बोवट्ठपुराणे, करणजयट्ठा जहन्निया भूमी । उकोसा दुम्मेहं, पडुच्च अस्सदहाण च ॥१॥ एमेव य मज्झिमगा, अणहिज्जते असइहंते य । भावियमेहाविस्सवि, करणजयट्ठा य मज्झिमगा ॥२॥"त्तिा शैक्षस्य च विपर्यस्तः स्थविरो भवतीति तद्भू मनिरूपणायाह-'तओ थेरे' इत्यादि कण्ठय, नवरं स्थविरो-वृद्धस्तस्य भूमयः-पदव्यः स्थविरभूमय इति, जाति:-जन्म श्रुतम्-आगमः पर्यायः-प्रवज्या तैः स्थविरा-वृद्धा ये ते तथोका इति, भूमिकाभूमिकावतोरभेदादेवमुपन्यासः, अन्यथा भूमिका उद्दिष्टा इति ता एव वाच्याः स्युरिति, एतेषां न त्रयाणां क्रमेणानुकम्पापूजावन्दनानि विधेयानि, यत उक्त व्यवहारे"-आहारे उवही सिज्जा, संथारे खेत्तसंकमे । किइच्छंदाणुवत्तीहिं, अणुकंपइ थेरगं ॥१॥ उहाणासणदाणाई, जोगाहारप्पसंसणा । नीयं सेज्जाइ णिद्देसवत्तित्ते पूयए सुयं ॥२॥ उहाण वंदण चेव, गहण दंडगस्स य । अगुरुणोऽवि य निदेसे, तइयाए पवत्तए ॥३॥"त्ति, स्थविरा इति पुरुषप्रकारा उक्ताः , तदधिकारात् पुरुषप्रकारानेवाह__ तओ पुरिसजाया पं० त०-सुमणे दुम्मणे णोसुमणेणोदुम्मणे १, तओ पुरिसजाया पं० त०-गंता णामेगे सुमणे भवइ, गंता णामेगे दुम्मणे भवइ, गंता णामेगे णोसुमणेणोदुम्मणे भवइ २, तओ पुरिसजाया पं० त०जामीतेगे सुमणे भवइ, जामीतेगे दुम्मणे भवइ, जामीतेगे णोसुमणेणोदुम्मणे भवइ ३, एवं जाइस्लामीतेगे सुमणे भवर, जाइस्सामीतेगे दुम्मणे भवइ, जाइस्सामीतेगे जोसुमणेणोदुम्मणे भवइ ३४, तओ पुरिसजाया पं० २०-अगता णामेगे सुमणे भवइ ३५, तओ पुरिसजाया ५० त०-ण जामि एगे सुमणे भवइ ३६, तओ पुरिसजाया पं० त०
॥१७॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका
वृत्तिः ।
॥ १७२ ॥
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ण जास्सामि पगे सुमणे भवइ ३७, एवं आगंता णामेगे सुमणे भवइ ३८, एमितेगे सु० ३ एस्सामीति एगे सुमणे भइ ३, एवं पण अभिलावेण 'गंता य अंगंता य १, आगंता खलु तहा अणागंता २ । चिट्टित्तमचिट्टित्ता ३, णिसत्ता चैव नो चेव ४ ॥१॥ हंता य अहंता य ५, छिंदित्ता खलु तहा अछिंदित्ता ६ । वूइत्ता अबूइत्ता ७, भासित्ता चेव ८ णो चेव ॥२॥ दच्चा य अदच्चा य ९ भुंजित्ता खलु तहा अभुंजित्ता १० । भित्ता अलंभित्ता ११, पिइत्ता चेव नो चेव १२ ||३|| सुइत्ता असुइत्ता य १३, जुज्झित्ता खलु तहा अजुज्झित्ता १४ । जइत्ता अजइत्ता य १५, पराजिणित्ता या चेव १६ ||४|| सद्दा १७ रुवा १८ गंधा १९, रसा य २०, फासा २१ (२१x६ = १२६ + १ = १२७) तहेव ठाणा य । णिस्सीलस्स गरहिता, पसत्था पुण सीलवंतस्स ॥५॥ एवमेक्क्के तिन्नि तिन्नि आलावगा भाणियव्वा, सद्दं सुणेत्ता नामेगे सुमणे भवइ ३ एवं सुणेमीति ३ सुणेस्सामीति ३, एवं असुणेत्ता णामेगे सुमणे भवइ ३ न सुणेमीति ३ न सुणिस्सामीति ३, एवं रुवाई गंधाई रसाई फासाई, एक्केक्के छ छ आलावगा भाणियव्वा, १२७ आलावगा भवंति (सू० १६०) तओ ठाणा णिस्सीलस्स निव्वयस्स णिम्मेरस्स (अ) णिप्पच्चक्खाणपोसहोववासस्स गरहिता भवंति, तंजहा- अस्सि लोए गरिहिते भवइ उववार गरहिते भवइ आयाती गरहिता भवइ, तओ ठाणा सुसीलस्स सुव्वयस्स सगुणस्स सुमेरस्स सपच्चक्खाणपोसहोववासस्स प्रसत्था भवति, तंजहा अस्सि लोप पसत्थे भवइ उदाए पत्थे भव आयाई पसत्था भवर [सू० १६१] ।
'तओ पुरिसे'त्यादि, पुरुषजातानि - पुरुषप्रकाराः सुष्ठु मनो यस्यासौ सुमनाः - हर्षवान् रक्त इत्यर्थः एवं दुर्मना - दैन्यादिमान् द्विष्ट इत्यर्थः, नोसुमनानोदुर्मना - मध्यस्थः, सामायिकवानित्यर्थः । सामान्यतः पुरुषप्रकारा उक्ताः, एतानेव विशेषतो गत्यादिक्रियापेक्षया 'तओ' इत्यादिभिः सूत्रैराह - तत्र 'गत्वा ' यात्वा क्वचिद् विहारक्षेत्रादौ
सू० १६०-१६६ ।
॥ १७२ ॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०१६१ ।
दीपिका वृत्तिः ।
-000000000000000000000000000000000000000000000000000004
नामेति सम्भावनायामेकः कश्चित् सुमना भवति-हृष्यति, तथैवान्यो दुर्मनाः-शोचति, अन्यः सम एवेति, अतीतकालसूत्रमिव वर्तमानभविष्यत्कालसूत्रे, नवरं जामीतेगे'इत्यादिषु इतिशब्दो हेत्वर्थः । एवमगते'त्यादिप्रतिषेधसूत्राणि आगमनसूत्राणि च सुगमानि, 'एवम् ' एतेनानन्तरोक्तेनाभिलापेन शेषसूत्राण्यपि वक्तव्यानि । अथोक्तान्यनुक्तानि च सूत्राणि संगृह्णन् गाथापञ्चकमाह-'गते'त्यादि, गन्ता अगन्ता आगन्तेत्युक्तम् , 'अणागत'त्ति अणागंता नामेगे सुमणे भवइ, अणागंता णामेगे दुम्मणे भवई, अणागंता णामेगे जोसुमणेणोदुम्मणे भवइ ३, एवं नागच्छामीति ३, एवं न आगमिस्सामीति ३, 'चिद्वित्त'त्ति स्थित्वा ऊर्श्वस्थानेन सुमना दुर्मना अनुभयं च
भवति, एवं 'चिट्ठामीति, चिट्ठिस्सामीति अचिट्ठित्ता' इहापि कालतः सूत्रत्रयम् , एवं सर्वत्र, नवरं 'निषद्य' उपविश्य'नो || चेव'त्ति-अनिषद्य-अनुपविश्य ३, हत्वा-विनाश्य किञ्चित् ३, अहत्वा-अविनाश्य ३, छित्त्वा-द्विधा कृत्वा ३,
अच्छित्त्वा-प्रतीतं ३, 'बुइत्त'त्ति उकूत्वा-भणित्वा पदवाकयादिकं ३, 'अबुइत्त'त्ति अनुकत्वा ३, 'भासित्ते'ति भाषित्वा संभाष्य भणनीयं वचनं ३, 'नो चेव'त्ति अभासित्ता असंभाष्य कञ्चन ३, 'दच'ति दवा ३ अदचा ३, भुक्त्वा ३ अभुक्त्वा ३, लब्ध्वा ३ अलब्ध्वा ३, पीत्वा ३, 'नो चेव'त्ति अपीत्वा ३ सुप्त्वा ३ अमुप्त्वा ३ युद्ध्वा ३ अयुद्ध्वा ३ 'जइत्त'त्ति जित्वा परं ३ अजित्वा परमेव ३ 'पराजिणित्ता' भृश जित्वा ३ परिभङ्ग वा प्राप्य सुमना भवति, वर्द्धनकभाविमहावित्तव्ययविनिर्मुक्तत्वात् , पराजितान्-प्रतिवादिनः, सम्भावितानर्थविनिमुक्तत्वाद्वा, 'नो चेव'त्ति अपराजित्य ३ । 'सद्दे 'त्यादिगाथा सूत्रत एव बोद्धव्या, प्रपञ्चितत्वात् तत्रैवास्या इति । 'एवमिक्के' इत्यादि, 'एव'मिति गत्वादिसूत्रोकतक्रमेण एकैकस्मिन् शब्दादौ विषये विधिप्रतिषेधाभ्यां प्रत्येक त्रयस्त्रय
100000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥१७३॥
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सू० १६१-१६२।
श्रोस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१७॥
00000000000000000000000000000000000000000000000000000.
आलापकाः-सूत्राणि कालविशेषाश्रयाः सुमना दुर्मना नोसुमनानोदुर्मना इत्येतत्पदत्रयवन्तो भणितव्याः, एतदेव दर्शयन्नाह-'सह'मित्यादि, भावितार्थम् , 'एवं रूवाई गंधाई'इत्यादि, यथा शब्दे विधिनिषेधाभ्यां त्रयस्त्रय आलापका भणिता एवं 'रूवाई पासित्ते'त्यादयः त्रयस्त्रय एव दर्शनीयाः, एवञ्च यद् भवति तदाह-'एक्के' इत्यादि, एकैकस्मिन् विषये पडालापका भणितव्या भवन्तीति, तत्र शब्दे दर्शिता एव, रूपादिषु पुनरेवं-रूपाणि दृष्ट्वा सुमना दुर्मना अनुभयं १ एवं पश्यामीति २ एवं द्रक्ष्यामीति ३ एवं अदृष्ट्वा ४ न पश्यामीति ५ न द्रक्ष्यामीति ६ पद, एवं गन्धान् घात्वा ६ रसानास्वाद्य ६ स्पर्शान् स्पृष्ट्वेति ६ । 'तहेव ठाणा यत्ति यत्सङ्ग्रहगाथायामुक्त तद् भावयन्नाह-'तओ ठाणा' इत्यादि, त्रीणि स्थानानि निःशीलस्य-सामान्येन शुभभाववर्जितस्य विशेषतः पुनः निव्रतस्य-प्राणातिपाताद्यनिवृत्तस्य निर्गुणस्योत्तरगुणापेक्षया, निमर्यादस्य लोककुलाद्यपेक्षया, निष्प्रत्याख्यानपौषधोपवासस्य-पौरुष्यादिनियमपर्वोपवासरहितस्य गर्हितानि-जुगुप्सितानि भवन्ति, तद्यथा-'अस्सि"ति विभक्तिपरिणामादयं लोकः-इदं जन्म गर्हितो भवति, पापप्रवृत्त्या विद्वज्जनजुगुप्सितत्वात् , तथा उपपातः-अकामनिर्जरादिजनितः किल्बिषिकादिदेवभवो नारकभवो वा, 'उपपातो देवनारकाणा'मिति वचनात् , स गर्हितो भवति किल्विपिकाभियोग्यादिरूपतयेति, आजातिः-तस्माच्युतस्योवृत्तस्य वा कुमानुषत्वतिर्यक्त्वरूपा गर्हिता, कुमानुषादित्वादेवेति । उक्तविपर्ययमाह-'तओ'इत्यादि, निगदसिद्धम् ॥ एतानि च गर्हितप्रशस्तस्थानानि संसारिणामेव भवन्तीति संसारिजीवनिरूपणायाह
तिविहा संसारसमावनगा जीवा पं० त०-इत्थी पुरिसा नपुंसगा, तिविहा सर्ज.वा पं० त०-सम्महिट्ठी
॥१७४॥
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सू०१६२-१६३।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१७५॥
000000000000 0000000000:00:00:00かゆかゆかゆかゆかゆかゆかゆかゆかゆかゆ000000]
मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छदिछी य, अहवा तिविहा सव्वजीवा ५० तं-पजत्तगा अपजत्तगा णोपज्जत्तगाणोअपज्जत्तगा । पर्व सम्मदिद्विपरित्ता पज्जत्तगसुहुमसण्णिभविया य । (सू० १६२)।
'तिविहे'त्यादि सूत्रसिद्धम् ॥ जीवाधिकारात् सर्वजीवान् त्रिस्थानकावतारेण पइभिः सूत्रैराह-'तिविहे'त्यादि सुगम, नवरं 'नोपज्जत्त'त्ति नोपर्याप्तकानोअपर्याप्तकाः-सिद्धाः 'एव'मिति पूर्वक्रमेण 'सम्मट्रिी'त्यादिगाथार्द्धमुक्तानुक्तसूत्रसङ्ग्रहार्थमिति । “तिविहा सव्वजीवा पंत-परित्ता १ अपरित्ता २ नोपरित्तानोअपरित्ता ३" तत्र 'परीत्ताः' प्रत्येकशरीराः 'अपरीत्ताः' साधारणशरीराः, परीत्तशब्दस्य छन्दोऽर्थ व्यत्यय इति, 'सुहुम'त्ति एवं संज्ञिनो भव्याश्च भावनीयाः, सर्वत्र तृतीयपदे सिद्धा वाच्या इति ॥ सर्व एव चैते लोके व्यवस्थिता इति लोकस्थितिनिरूपणायाह
तिविहा लोगढिई ५० त-आगासपइट्ठिए वाए वायपइट्ठिए उदही उदहिपइट्ठिया पुढवी, तओ दिसाओ पं. त-उड्ढा अहो तिरिया १, तिहिं दिसाहिं जीवाण गती पवत्तइ, उड्ढाए अहाए तिरियाए २, एवं आगती ३, वर्कती ४, आहारे ५, वुड्ढी ६, णिवुड्ढी ७, गइपरियार ८, समुग्धाए ९, कालसंजोगे १०, देसणाभिगमे ११, णाणाभिगमे १२, जीवाभिगमे १३, तिहिं दिसाहिं जीवाण' अजीवाभिगमे ५० त०-उइढाए अहाए तिरियाए १४, पवं पंचि दियतिरिक्खजोणियाण', एवं मणुस्साणवि (सू०१६३) ।
_ तिविहे'त्यादि कण्ठयं, किन्तु लोकस्थितिर्लोकव्यवस्था आकाश-व्योम तत्र प्रतिष्ठितो-व्यवस्थित | आकाशप्रतिष्ठितो वातो-धनवाततनुवातलक्षणः सर्वद्रव्याणामाकाशप्रतिष्ठितत्वात् उदधिः-घनोदधिः पृथिवी
....०००००000000000000000000000000000000000000000000000000
॥१७॥
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सू०१६३।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१७६॥
तमस्तमःप्रभादिकेति ॥ उक्तस्थितिके च लोके जीवानां दिशोऽधिकृत्य गत्यादि भवतीति दिग्निरूपणपूर्वक तासु गत्यादि निरूपयन् 'तओ दिसे'त्यादिसूत्राणि चतुर्दश सुगमानि, नवरं दिश्यते-व्यपदिश्यते पूर्वादितया वस्त्वनयेति दिक, सा च नामादिभेदेन सप्तधा, आह च “नाम १ ठवणा २ दविए ३, खेत्तदिसा ४ तावखेत ५ पनवए ६ । सत्तमिया भावदिसा, सा होअट्ठारसविहा उ ॥१॥" तत्र द्रव्यस्य - पुद्गलस्कन्धादेर्दिन द्रव्यदिक, क्षेत्रस्य-आकाशस्य दिक् क्षेत्रदिक, सा चैवं-"अट्ठपएसो रुयगो, तिरियंलोगस्स मज्झयारंमि । एस पभवो दिसाण, एसेव भवे अणुदिसाण ॥१॥ तत्र पूर्वाद्या महादिशश्चतस्रोऽपि द्विप्रदेशादिका द्वयुत्तराः, अनुदिशस्तु एकप्रदेशा अनुत्तराः, ऊर्ध्वाधोदिशौ तु चतुरादी अनुत्तरे, यतोऽवाचि-“दुपदेसादि दुरुत्तर ४, एगपएसा अणुत्तरा चेव । चउरो चउरो य दिसा, चउरादि अणुत्तरा दुन्नि २ ॥१॥ सगडुद्धिसंठियाओ, महादिसाओ हवंति चत्तारि । मुत्तावलीओ चउरो, दो चेव य होति रुयगनिभा ॥२॥" नामानि चासाम्-"ईद १ ग्गेयी २ जम्मा ३ य, नेरई ४ वारुणी ५ य वायव्वा ६ । सोमा ७ ईसाणावि य ८, विमला य ९ तमा य १० बोद्धव्या ॥१॥" तापः-सविता तदुपलक्षिता क्षेत्रदिक् तापक्षेत्रदिक्, सा चाऽनियता, यत उक्त-"जेसिं जत्तो सूरो, उदेइ तेसिं तई हवइ पुब्वा । तावक्खित्तदिसाओ, पयाहिण सेसियाओ सिं ॥१॥" तथा प्रज्ञापकस्य-आचार्यादेर्दिक, प्रज्ञापकदिक सा "चैवं-पनवओ जयभिमुहो, सा पुव्या सेसिया पयाहिणी। तस्सेवऽणुगंतव्वा, अग्गेयाई दिसा नियमा ॥१॥ भावदिक चाष्टादशविधा-"पुढवि १ जल २ जलण ३ वाया ४, मूला ५ खंध ६ ग्ग ७ पोरबीया य ८ । वि ९ ति १० चउ ११ पंचिंदियतिरिय १२, नारगा १३ देवसंघाया १४ ॥१॥ संमुच्छिम १५ कम्मा १६ कम्म
॥२७६॥
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सू०१६३।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१७॥
-00000000000000000000000000000000000000000000000000000000
भूमगनरा १७ तहतरदीवा १८ । भावदिसा दिस्सइ ज, संसारी निययमेयाहिं ॥२॥"ति, इह च क्षेत्रतापप्रज्ञा॥ पकदिग्भिरेवाधिकारः, तत्र तिर्यग्रहणेन पूर्वाद्याश्चतप्त एव दिशो गृह्यन्ते,विदिक्षु जीवानामनुश्रेणिगामितया वक्ष्यमाणगत्यागतिव्युत्क्रान्तीनामयुज्यमानत्वात् , शेषेषु पदेषु च विदिशामविवक्षितत्वात् , यतोऽत्रैव वक्ष्यति,-"छहिं दिसाहिं जीवाणौं गई पवत्तइ" इत्यादि, तथा ग्रन्थान्तरेऽप्याहारमाश्रित्योक्त-"निवाघाएण नियमा छदिसिं"ति, तत्र 'तिहिं दिसाहिति सप्तमी तृतीया पञ्चमी वा यथायोगं व्याख्येयेति, 'गतिः'-प्रज्ञापकप्रत्यासन्नस्थानापेक्षया मृत्वाऽन्यत्र गमनम् , 'एब'मिति पूर्वोक्ताभिलापसूचनार्थः, 'आगति:'-प्रज्ञापकप्रत्यासन्नस्थाने आगमनमिति, व्युक्रान्तिः-उत्पत्तिः, आहारः प्रतीतः, वृद्धिः-शरीरस्य वर्द्धन, निवृद्धिः-शरीरस्यैव हानिः गतिपर्यायश्चलन जीवत एव, समुद्घातो-वेदनादिलक्षणः, कालसंयोगो-वर्तनादिकाललक्षणानुभूतिः मरणयोगो वा, दर्शनेन-अवध्यादिना प्रत्यक्षप्रमाणभूतेनाभिगमो-बोधो दर्शनाभिगम इति । “तिहिं दिसाहिं जीवाणं अजीवाभिगमे पं० त०-उड्ढाते.... ३, एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण एवं मणुस्साणवि' एवं सर्वत्राभिलपनीयमिति दर्शनार्थ परिपूर्णान्त्यसूत्राभिधानमिति । एतान्यपि जीवाभिगमान्तानि सामान्येन जीवसूत्राणि, चतुर्विंशतिदण्डकचिन्तायां तु नारकादिपदेषु दिकत्रये गत्यादीनां त्रयोदशानामपि पदानां सामस्त्येनासम्भवात् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्येषु च तत्सम्भवात् तदतिदेशमाह-एव'मित्यादि, यथा सामान्यसूत्रेषु गत्यादीनि त्रयोदशपदानि दिक्त्रये अभिहितानि, एवं पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्येष्विति भावः, एवं चैतानि पइविंशतिः सूत्राणि भवन्तीति ॥ अथैषां नारकादिषु कथमसम्भव इति ? उच्यते, नारकादीनां द्वाविंशतिजीवविशेषाणां नारकदेवेषत्पादाभावार्ध्वाधोदिशोर्विवक्षया गत्यागत्योरभावः, तथा
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सू० १६४-१६५।
श्रोस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका
वृत्तिः ।
॥१७८॥
दर्शनज्ञानजीवाजीवाभिगमा गुणप्रत्यया अवध्यादिप्रत्यक्षरूपा दिक्त्रये न सन्त्येव, भवप्रत्ययावधिपक्षे(क्षेत्रे) तु नारकज्योतिष्कास्तिर्यगवधयो भवनपतिव्यन्तरा ऊर्ध्वावधयो वैमानिका अधोऽवधय एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणां त्ववधि - स्त्येवेति । यथोक्तानि च गत्यादिपदानि सानामेव सम्भवन्तीति सम्बन्धात् सान् निरूपयन्नाह
तिविहा तसा पं० त-तेउकाइया वाउकाइया ओराला तसा पाणा, तिविहा थावरकाइया पं० तं-पुढविकाइया आउकाइया वणस्सइकाइया (सू० १६४) ।
'तिविहे'त्यादि स्पष्ट, किन्तु त्रस्यन्तीति त्रसाः-चलनधर्माणः, तत्र तेजोवायवो गतियोगात् त्रसाः, उदाराःस्थूलाः, 'त्रसा'इति त्रसनामकर्मोदयवर्तित्वात् , 'प्राणा'इति व्यक्तीच्छ्वासादिप्राणयोगाद् द्वीन्द्रियादयस्तेऽपि गतियोगादेव असा इति । उकूताः त्रसाः, तद्विपर्ययमाह-'तिविहे'त्यादि, स्थानशीलत्वात् स्थावरनामकर्मोदयाच्च स्थावराः, शेष व्यक्तम् । इह च पृथिव्यादयः प्रायोऽगुलासङ्ख्येयभागमात्रावगाहनत्वात् अच्छेद्यादिस्वभावा व्यवहारतो भवन्तीति तत्प्रस्तावानिश्चयाच्छेद्यादीनष्टभिः सूत्रैराह
तओ अच्छेज्जा पं० त०-समए पपसे परमाणू १, एवमभेज्जा २ अडझा ३ अगिज्झा ४ अणडूढा ५ अमज्झा ६ अपएसा ७ । तओ अविभाइमा ५० त०-समए पपसे परमाणू ८ (सू० १६५) । अज्जोत्ति समणे भगव महावीरे गोतमादी समणे निग्गंथे आमंतेत्ता एवं वदासी-किंभया पाणा? समणाउसो !, गोयमाई समणा वदंति णमंसंति निग्गंथा समण भगवं महावीर उवसंकमंति, उपसंकमित्ता वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-णो खलु वयं देवाणुप्पिया! एयम? जाणामो वा पासामो वा, त जइ ण देवाणुप्पिया एयमट्ट णो गिलायति परिकहित्तए त इच्छामो ण देवाणुप्पियाण अंतिए एयम? जाणित्तए, अज्जोत्ति समणे भगव
00000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥२७८॥
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सू० १६६।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१७॥
महावीरे गोतमादिसमणे णिग्गंथे आमंतेत्ता पव वयासी-दुक्खभया पाणा समणाउसो! १, से ण भंते ! दुक्खे केण कडे ?, जीवेणं कडे पमादेण २, से ण भंते ! दुक्खे कह वेइज्जइ ?, अप्पमाएणं ३ (सू० १६६)।
'तओ अच्छेज्जेत्यादि, छेत्तुमशक्या बुद्धया क्षुरिकादिशस्त्रेण वेत्यच्छेद्याः, छेद्यत्वे समयादित्वायोगादिति, समयः-कालविशेषः, प्रदेशो-धर्माधर्माकाशजीवपुद्गलानां निरवयवोऽशः परमाणु:-अस्कन्धः पुद्गल इति, उक्तं च-"सत्थेण सुतिक्खेणवि, छेत्तुं भेत्तुं च ज किर न सका । त परमाणुं सिद्धा, वयंति आई पमाणाण॥१॥"ति, 'एव'मिति पूर्वसूत्राभिलापसूचनार्थ इति, अभेद्याः सूच्यादिना अदाह्या अग्निक्षारादिना अग्राह्या हस्तादिना न विद्यतेऽद्धं येषामित्यनर्दा विभागद्वयाभावात् , अमध्या विभागत्रयाभावात् , अत एवाह-'अप्रदेशा' निरक्यवाः, अत एवाविभाज्या-विभक्तुमशक्याः, अथवा विभागेन निवृत्ता विभागिमास्तनिषेधादविभागिमाः । एते च पूर्वतरसूत्रोक्ताः त्रसस्थावराख्याः प्राणिनो दुःखभीरव इत्येतत् संविधानकद्वारेणाह- अन्जो' इत्यादि सुगम, केवलम् 'अञ्जो'त्ति आरात् पापकर्मभ्यो याता आर्यास्तदामन्त्रण हे आर्या ! 'इतिः' एवमभिलापेनामन्त्र्येतिसम्बन्धः, श्रमणो भगवान महावीरो गौतमादीन् श्रमणान् निर्ग्रन्थानेवं-वक्ष्यमाणन्यायेनावादीदिति, कस्माद् भयं येषां ते किंभयाः, कुतो विभ्यतीत्यर्थः, 'प्राणा' प्राणिनः ‘समणाउसो'त्ति हे श्रमणाः! हे आयुष्मन्तः! इति गौतमादीनामेवामन्त्रणमिति, अयं च भगवतां प्रश्नः शिष्याणां व्युत्पादनार्थ एव, अनेनाऽपृच्छतोऽपि शिष्यस्य हिताय तत्त्वमाख्येयमिति ज्ञापयति, उच्यते च-"कत्थइ पुच्छइ सीसो, कहिचऽपुट्ठा वयंति आयरिया । सीसाण तु हियटा, विउलतरागं तु पुच्छाए॥१॥"इति. ततश्च 'उवसंकमति'त्ति उपसङ्क्रामन्ति-उपसङ्गच्छन्ति तस्य समीपतिनो भवन्ति, इह च
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॥१७॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०१६६-१६७।
दीपिका वृत्तिः ।
॥१८॥
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तत्कालापेक्षया वर्तमान निर्देशो न दुष्टः, उपसङ्क्रम्य वन्दन्ते स्तुत्या नमस्यन्ति प्रणामतः, 'एवम् ' अनेन प्रकारेण 'वयासित्ति छान्दसत्वात् बहुवचनार्थ एकवचन मिति अवादिषुः-उक्तवन्तो नो जानीमो विशेषतः नो पश्यामः सामान्यतो, वाशब्दौ विकल्पाौं , 'तदिति तस्मादेतमर्थ -किंभयाः प्राणा इत्येवंलक्षण', 'नो गिलायति'त्ति नग्लायन्ति न श्राम्यन्ति परिकथयितु परिकथनेन 'त"ति ततः, 'दुक्खभय'त्ति दुःखात्-मरणादिरूपाद् भयमेपामिति दुःखभयाः, ‘से गं'ति तद् दुःखं 'जीवेणं कडे'त्ति दुःखकारणकर्मकरणाजीवेन कृतमित्युच्यते, कथमित्याह-'पमाएण'ति प्रमादेनाज्ञानादिना बन्धहेतुना करणभूतेनेति । उक्त च-“पमाओ य मुर्णिदेहिं. भणिओ अट्ठभेयओ। अन्नाण संसओ चेव, मिच्छाणाण तहेव य ॥१॥ रागो दोसो मइन्भंसो, धम्म मि य अणायरो । जोगाण दुप्पणीहाण, अट्टहा वज्जियव्वओ ॥२॥"त्ति । तच वेद्यते-क्षिप्यते अप्रमादेन, बन्धहेतुप्रतिपक्षभूतत्वादिति । अस्य च सूत्रस्य दुःखभया पाणा १ जीवेण कडे दुक्खे पमाण २ अप्पमाएण वेइज्जइ ३ इत्येवंरूपप्रश्नोत्तरत्रयोपेतत्वात् त्रिस्थानकावतारो द्रष्टव्य इति ॥ जीवेन कृतं दुःखमित्युक्तमधुना परमतं निरस्यैतदेव समर्थ यन्नाह
___ अन्नउत्थिया णं भंते ! पव' आइक्वंति एवं भासंति एवं पण्णवे ति एवं परूवेति कहण्ण' समणाणं णिग्गंथाणं किरिया कज्जइ ? तत्थ जा सा कडा कज्जइ यो त पुच्छंति, तत्थ जा सा कडा को कज्जइ, णो त पुच्छेति, तत्थ जा सा अकडा णो कजइ णो त पुच्छंति, तत्थ जा सा अकडा कज्जइ त पुच्छंति, से एवं वत्तव्य सिया? अकिच्च दुक्ख अफुर्स दुक्ख अकज्जमाणकर्ड दुक्ख अकटु अकट्टु पाणा भूया जीवा सत्ता वेदण वेदेतित्ति वत्तव्यं, जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु, अहं पुण एवमाइक्खामि एवं भासामि एवं पण्णवेमि
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सू०१६७।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः । ॥१८॥
एवं परूवेमि-किञ्च दुक्ख फुस्स दुक्ख कज्जमाणकड दुक्ख कटूटु २ पाणा भूया जीवा सत्ता वेयण वेदे तित्ति वत्तव्व सिया(सू० १६७) । तइयठाणस्स बीओ उद्देसओ सम्मत्तो॥
'अन्नउथिए'त्यादि, प्रायः स्पष्ट, किन्तु अन्ययथिका इह तापसा विभङ्गज्ञानवन्तः ‘एवं वक्ष्यमाणप्रकारमाख्यान्ति सामान्यतो भाषन्ते विशेषतः क्रमेणेतदेव प्रज्ञापयन्ति-प्ररूपयन्तीति पर्यायरूपपदद्वयेनोक्तमिति । किं तदित्याह'कथं' केन प्रकारेण 'श्रमणानां निर्ग्रन्थानां, मते इति शेषः, क्रियत इति क्रिया-कर्म सा 'क्रियते' भवति दुःखायेति विवक्षया इति प्रश्नः, इह तु चत्वारो भङ्गाः, तद्यथा-कृता क्रियते-विहितं सत् कर्म दुःखाय भवतीत्यर्थः१ एवं कृता न क्रियते २ अकृता क्रियते ३ अकृता न क्रियते ४ इति, एतेष्वनेन प्रश्नेन यो भङ्गः प्रष्टुमिष्टः त शेषभङ्गनिराकरणपूर्वकमभिधातुमाह-'तत्थ'त्ति तेषु चतुर्यु भङ्गकेषु मध्ये प्रथम द्वितीय चतुर्थं च न पृच्छन्ति, एतत्त्रयस्यात्यन्त रुचेरविषयतया तत्प्रश्नस्याप्यप्रवृत्तेरिति, तथाहि-याऽसौ कृता क्रियते' यद् कर्म कृत सत् भवति नो तत् ते पृच्छन्ति, पूर्वकालकृतत्वस्याप्रत्यक्षतया असत्त्वेन निर्ग्रन्थमतत्वेन चासम्मतत्वादिति, 'तत्र याऽसौ कृता नो क्रियते' इति तेषु-भङ्गकेषु मध्ये यत्तत्कर्म कृतं नो तत् पृच्छन्ति, अत्यन्तविरोधेनासम्भवात् , तथाहि-कृत चेत् कर्म कथं न भवतीत्युच्यते ?, न भवति चेत् कथं कृतं तदिति, कृतस्य कर्मणोऽभवनाभावात् , 'तत्र' तेषु 'याऽसावकृता' यत्तदकृत कर्म 'नो क्रियते' न भवति नो तां पृच्छन्ति, अकृतस्यासतश्च कर्मणः खरविषाणकल्पत्वादिति, अमुमेव भङ्गत्रयनिषेधमाश्रित्यास्य सूत्रस्य त्रिस्थानकावतार इति सम्भाव्यते, तृतीयभङ्गकस्तु तत्सम्मत इति त पृच्छन्ति, अत एवाह-तत्र 'याऽसावकृता क्रियते' यत्तदकृतं-पूर्वमविहितं कर्म भवति-दुःखाय सम्पद्यते
॥१८॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥१८२॥
तां पृच्छन्ति, पूर्वकालकृतत्वस्याप्रत्यक्षतया असत्त्वेन दुःखानुभूतेश्व प्रत्यक्षतया सत्त्वेन कृतकर्म भवनपक्षस्य सम्मतत्वादिति पृच्छतां चायमभिप्रायो - यदि निर्ग्रन्था अपि अकृतमेव कर्म्म दुःखाय देहिनां भवतीति प्रतिपद्यन्ते ततः सुशोभनम्, अस्मत्समानबोधत्वादिति शेषान पृच्छन्तस्तृतीयमेव पृच्छन्तीति भावः, 'से'त्ति अथ तेषामकृतकर्म्माभ्युपगमवतामेवं वक्ष्यमाणप्रकारं वक्तव्यम् - उल्लापः स्यात्, त एव वा एवमाख्यान्ति परान् प्रति यदुत - अथैवं वक्तव्य - प्ररूपणीयं तत्त्ववादिनां स्याद् - भवेत्, अकृते सति कर्म्मणि दुःखभावाद् अकृत्यम् - अकरणीयमबन्धनीयम् - अप्राप्तव्यमनागते काले जीवानामित्यर्थः, किं ? - 'दुक्ख' दुःखहेतुत्वात् कर्म्म, 'अफुस्सं' ति अस्पृश्य कर्म अकृतत्वादेव, तथा क्रियमाणं च वर्त्तमानकाले बध्यमानं कृतं चातीतकाले बद्ध, क्रियमाणकृतं द्वाद्वैकत्वं कर्म्मधारयो वा न क्रियमाणकृतमक्रियमाणकृतं किं तत् ? - दुःख कर्म्म' 'अकिच' दुक्ख' मित्यादिपदत्रय', 'तत्थ जा सा अकडा कज्जइ तं पुच्छति' इत्यन्यतीर्थिकमतमाश्रितं कालत्रयालम्बनमाश्रित्य त्रिस्थानकावतारोऽस्य द्रष्टव्यः किमुक्तं भवतीत्याहअकृत्वा अकृत्वा कर्म्म प्राणा- द्वीन्द्रियादयः भूतास्तरवो जीवाः - पञ्चेन्द्रियाः सत्त्वाः- पृथिव्यादयो, यथोक्तम् - " प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः शेषाः सत्त्वाः प्रकीर्तिताः || १ ||" इति, वेदनां-पीडां वेदयन्तीति वक्तव्यमित्ययं तेषामुल्लापः, एतद् वा तेऽज्ञानोपहतबुद्धयो भाषन्ते परान् प्रति यदुत एवं वतव्यं स्यादिति प्रक्रमः ॥ एवमन्यतीर्थ कममुपदश्ये निराकुर्वन्नाह - 'जे ते' इत्यादि, य एते अन्यतीर्थि का एवम् उक्तप्रकारम् 'आह'सु'त्ति उक्तवन्तः 'मिथ्या' असम्यक् तेऽन्यतीर्थिका एवमुक्तवन्तः, अकृतायाः क्रियायाः क्रियात्वानुपपत्तेः क्रियत इति हि क्रिया, यस्यास्तु कथञ्चनापि करणं नास्ति सा कथं क्रियेति ?, अकृतकर्मा
सू० १६७ ।
॥१८२॥
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सू०१६७-२६८।
श्रीस्थानाङ्ग
नुभवने हि बद्धमुक्तमुखितदुःखितादिनियतव्यवहाराभावप्रसङ्ग इति, स्वमतमादिशन्नाह-'अहमि'त्यादि, 'अहति सूत्र- अहमेव नान्यतीथिकाः, पुनःशब्दो विशेषणार्थः स च पूर्ववाक्यादुत्तरवाक्यार्थस्य विलक्षणतामाह, 'एवमाइक्खामी'दीपिका
त्यादि पूर्ववत् , कृत्यं-करणीयमनागतकाले दुःखं, तद्धेतुकत्वात् कर्म, स्पृश्य-स्पृष्टलक्षणवन्धावस्थायोग्य वृत्तिः ।
क्रियमाग वर्तमानकाले कृतमतीते, अकरण नास्ति कर्मणः कथश्चनापीति भावः, स्वमतसर्वस्वमाह-कृत्वा कृत्वा ॥१८३॥ कर्मे ति गम्यते, प्राणादयो वेदनां-कर्मकृतशुभाशुभानुभूति वेदयन्ति-अनुभवन्तीति वक्तव्यं स्यात् सम्यग्वादि
नामिति । त्रिस्थानकस्य द्वितीयोद्देशकः विवरणतः समाप्तः ॥
उक्तो द्वितीयोद्देशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके विचित्रा जीवधर्माः प्ररूपिता इहापि त एव प्ररूप्यन्त इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रत्रयम्
तिहिं ठाणेहिं मायी माय कटु णो आलोपज्जा णो पडिक्कमेज्जा णो णिदिज्जा णो गरहिज्जा णो बिउद्देजा णो विसोहेज्जा णो अकरणयाए अब्भुटूठेज्जा णो अहारिह पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जेज्जा, तंजहा-अकरेंसु वाऽह करेमि वाऽहं करेस्सामि वाऽहं १ । तिहिं ठाणेहिं मायी माय कटूटु णो आलोपज्जा णो पडिक्कमेज्जा जाव णो पडिवज्जेज्जा त-अकित्ती वा मे सिया अवण्णे वा मे सिया अविणए वा मे सिया२। तिहिं ठाणेहि मायी माय कटु णो आलोपज्जा जाव णो पडिवज्जेज्जा त-कित्ती वा मे परिहाइस्सइ जसे वा मे परिहाइस्सइ पूयासक्कारे
वा मे परिहाइस्सइ ३ । तिहि ठाणेहिं मायी माय कटूटु आलोएज्जा पडिक्कमेजा जाव पडिवज्जेज्जा, त-माइस्स Bण अस्सि लोए गरहिए भवइ उववाए गरहिए भवइ आयाई गरहिया भवइ ४ । तिहि ठाणेहि मायी माय कटु
.60000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥१८३॥
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सू०
६८
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१८४॥
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आलोपज्जा जाव पडिवज्जेज्जा त-अमाइस्स णं अस्सि लोए पसत्थे भवइ उववाए पसत्थे भवइ आयाई पसत्था भवइ ५। तिहि ठाणेहि मायी माय कटु आलोएज्जा जाव पडिवज्जेज्जा, तं०-णाणट्ठयाए दसणट्ठयाए चरित्तयाए ६ । (सू० १६८)।
'तिहि ठाणेही त्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहाऽयं सम्बन्धः-पूर्वसूत्रे मिथ्यादर्शनवतामसमजसतोक्ता, इह तु कषायवतां तामाहेत्येवंसम्बन्धस्याऽस्य व्याख्या-'मायी' मायावान् 'मायां' मायाविषयं गोपनीय प्रच्छन्नमकार्य कृत्वा नो आलोचयेत् मायामेवेति, शेष सुगम, नवरं आलोचन-गुरुनिवेदन प्रतिक्रमण-मिथ्यादुष्कृतदान निन्दा-आत्मसाक्षिकी गर्दा-गुरुसाक्षिका वित्रोटन-तदध्यवसायविच्छेदन विशोधनम्-आत्मनः चारित्रस्य वाऽतिचारमलक्षालनम् अकरणताभ्युत्थान-पुन:तत् करिष्यामीत्यभ्युपगमः 'अहारिह' यथोचितं 'पायच्छित्त'ति पापच्छेदक प्रायश्चित्तविशोधकं वा तपःकर्म निर्वि कृतिकादि प्रतिपद्येत, तद्यथा-अकार्षमहमिदमतः कथं निन्द्यमित्यालोचयिष्यामि स्वमाहात्म्यहानिप्राप्तेरित्येवमभिमानात् १, तथा करोमि चाहमिदानीमेव कथमसाध्विति भणामि २, करिप्यामीति चाहमेतदकृत्यमनागतकालेऽपि कथं प्रायश्चित्तं प्रतिपद्य इति ३। कीर्तिः-एकदिग्गामिनी प्रसिद्धिः सर्वदिग्गामिनी सैव वर्णों यशःपर्यायत्वात्तस्य अथवा दानपुण्यफला कीर्तिः पराक्रमकृतं यशः, तच्च वर्ण इति तयोः प्रतिषेधोऽकीतिः अवर्णश्चेति, अविनयः साधुकृतो मे स्यादिति, इदं सूत्रमप्राप्तप्रसिद्धिपुरुषापेक्ष, 'मायं कटु'त्ति मायां कृत्वा-मायां पुरस्कृत्य माययेत्यर्थः, 'परिहास्यति' हीना भविष्यति पूजा पुष्पादिभिः सत्कारो वस्त्रादिभिः, इदमेकमेव विवक्षितमेकरूपत्वादिति, इदं तु प्राप्तप्रसिद्धिपुरुषापेक्ष, शेष सुगमम् ॥ उक्तविपर्ययमाह
॥१८४॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥१८५॥
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'तिहि ' इत्यादि सूत्रत्रय' स्फुट, किन्तु इह मायी अकृत्यकरणकाल एव आलोचनादिकाले त्वमाय्येव आलोचनाद्यन्यथानुपपत्तेरिति ‘अहिंस’ति अय, यतो मायिन इहलोकाद्या गर्हिता भवन्ति यतश्चामायिन इहलोकाद्या प्रशस्ता भवन्ति यतश्चामायिन आलोचनादिना निरतिचारीभूतस्य ज्ञानादीनि स्वस्वभावं लभन्ते अतोऽहममायी भूत्वाऽऽ - लोचनादि करोमीति भावः । अनन्तर शुद्धिरुक्ता, इदानीं तत्कारिणोऽभ्यन्तरसम्पदा त्रिधा कुर्वन्नाह
तओ पुरिसजाया पं० त० - सुत्तधरे अत्थधरे तदुभयधरे (सू० १६९) कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा तओ वत्था धारित वा परिहरितए वा, त० - जंगिए भंगिए खोमिए १, कप्पर निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा तथ पाया धारित वा परिहरित्तर वा त० - लाउयपादे वा दारुयपादे वा मट्टियापादे वा (सू० १७०) तिङि ठाणेहि वत्थं धरिज्जा, त० - हरिवत्तिय दुर्गुछावत्तिय परीसहवत्तिय (सू० १७१) तओ आयरक्खा पं० त० धम्मियाप पडिचोयणाए पडिचोपत्ता भवइ तुसिणिए वा सिया उठेत्ता वा आयाए पगंतमंतमवक्क मेज्जा । निग्गंथस्स ण गिलाय - माणस्स कप्पंति तओ वियडदत्तीओ पडिगाहित्तए, तंजहा-उक्कोसा मज्झिमा जहन्ना (सू० १७२) ।
'तओ पुरी'त्यादि सुवोध, नवरमेते यथोत्तरं प्रधाना इति । तेषामेव वाह्यां सम्पदं सूत्रद्वयेनाह - 'कप्पती 'ति कल्पते - युज्यते युक्तमित्यर्थः, 'धारित 'त्ति धर्त्तु परिग्रहे 'परिहर्त्ती' परिभोक्तुमिति, 'ज' गिय' जङ्गमजमौर्णिकादि 'भ' गिय' अतसीमय' 'खोमिय' कार्पासिकमिति । अलाबुपात्रं - तुम्बकं दारुपात्र - काष्ठमयं मृत्तिकापात्र - मृण्मय शराववाघटिकादि, शेषं सुगमम् । वस्त्रग्रहणकारणान्याह - 'तिही 'त्यादि, ही-लज्जा संयमो वा प्रत्ययो - निमित्तं यस्य धारणस्य तत्तथा, जुगुप्सा - प्रवचनखिसा विकृतादर्शनेन मा भूदित्येवं प्रत्ययो यत्र तत्तथा, एवं परीपहाः शीतो
सू० १६८-१६९१७०-१७११७२ ।
॥१८५॥
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सू० १७२-१७३।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१८६॥
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ष्णदंशमशकादयः प्रत्ययो यत्र तत्तथा, निर्ग्रन्थप्रस्तावाग्निर्ग्रन्थानेवानुष्ठानतः सप्तसूत्र्याऽऽह-तओ'इत्यादि सुगमा, नवरम् आत्मानं रागद्वेषादेरकृत्याद् भवकूपाद् वा रक्षन्तीत्यात्मरक्षाः 'धम्मियाए पडिचोयणाए'त्ति धामि केणोपदेशेननेदं भवादृशां विधातुमुचितमित्यादिना प्रेरयिता-उपदेष्टा भवति अनकूलेतरोपसर्गकारिणः, ततोऽसावुपसर्गकरणानिवर्त्तते ततोऽकृत्यसेवा न भवतीत्यात्मा रक्षितो भवतीति १, तूष्णीको वा वाचंयम उपेक्षक इत्यर्थः स्यादिति २, प्रेरणाया अविषये उपेक्षासामथ्र्ये च ततः स्थानादुत्थाय 'आय'त्ति आत्मना एकान्त-विजनमन्त-भूविभागमवक्रामेत्-गच्छेत् ३। निर्ग्रन्थस्य ग्लायतः-अशक्नुवतः, तृड्वेदनादिना अभिभूयमानस्येत्यर्थः, आहारग्रहण हि वेदनादिभिरेव कारणैरनुज्ञातम् । 'तओ'त्ति तिस्रः 'बियड'त्ति पानकाहारः, तस्य दत्तयः-एकप्रक्षेपप्रदानरूपाः प्रतिग्रहीतुम्आश्रयितु वेदनोपशमायेति, उत्कर्षः-प्रकर्षः तद्योगादुत्कर्षा उत्कर्ष वतीति वोत्कर्षा उत्कृष्टेत्यर्थः, प्रचुरपानकलक्षणा यया दिनमपि यापयति, मध्यमा ततो हीना, जघन्या यया सकृदेव वितृष्णो भवति यापनामात्र वा लभते, अथवा पानकविशेषादुत्कृष्टाद्या वाच्याः, तथाहि-कलमकाग्जिकावश्रावणादेः द्राक्षापानकादेर्वा प्रथमा १ पष्ठिकादिकाब्जिकादेमध्यमा २ तृणधान्यकाग्जिकादेरुष्णोदकस्य वा जघन्येति ३, देशकालस्वरुचिविशेषाद् वोत्कर्षादि नेयमिति ॥
तिहिं ठाणेहि समणे निग्गथे साहम्मिय संभोइय विसंभोइय करेमाणे णातिकमइ, त-सय वा दटु', सडूढस्स चा निसम्म, तच्च मोसं आउट्टति चउत्थं णो आउदृति, (सू० १७३) तिविहा अणुन्ना पंतआयरियत्ताए उवज्झायत्ताप गणित्ताए । तिविहा समणुन्ना पं० त-आयरियत्ताए उवज्झायत्ताए गणित्ताण, एवं
॥१८६॥
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|| सू०१७३-१७४।
श्रीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२८॥
उवसंपया, एवं विजहणा । (सू० १७४) । _ 'साहम्मिय'ति समानेन धर्मेण चरतीति साधर्मिकस्त सम्-एकत्र भोगो-भोजन सम्भोगः-साधूनां समान| सामाचारीकतया परस्परमुपध्यादिदानग्रहणसंव्यवहारलक्षणः स विद्यते यस्य स साम्भोगिकस्तं, विसम्भोगोदानादिभिरसंव्यवहारः स यस्यास्ति स विसम्भोगिकस्तं कुर्वन् नातिकामति-न लघयत्याज्ञां सामायिक वा विहितकारित्वादिति, स्वयमात्मना साक्षाद् दृष्ट्वा साम्भोगिकेन क्रियमाणामसाम्भोगिकदानग्रहणादिकामसमाचारी, तथा 'सहस्स'ति श्रद्धा-श्रद्धानं यस्मिन् अस्ति स श्राद्धः-श्रद्धेयवचनः कोऽप्यन्यः साधुस्तस्य वचनमिति गम्यते निशम्य अवधार्य, तथा 'तच्च'ति एक द्वितीय यावत् तृतीयं 'मोस'ति मृपावादं अकल्पग्रहणपार्श्वस्थदानादिना सावधविषयपतिज्ञाभङ्गलक्षणमाश्रित्येति गम्यते, आवर्त्तते-निवर्त्तते तमालोचयतीत्यर्थः, अनाभोगतस्तस्य भावात् प्रायश्चित्तं वोचित दीयते, चतुर्थ त्वाश्रित्य प्रायो नो आवर्त्तते-तं नालोचयति, तस्य दर्पत एव भावादिति, आलोचनेऽपि प्रायश्चित्तस्यादानमस्येति, अतश्चतुर्थासम्भोगकारणकारिण विसम्भोगिक कुर्वनातिक्रामतीति प्रकृतम् , उक्त च-“एगं व दो व तिन्नि व, आउटुंतस्स होइ पच्छित्तं । आउटुंते वि तओ, परेण तिण्हं विसंभोगो ॥१॥" इह चाद्य स्थानद्वयं गुरुतरदोषाश्रय, यतस्तत्र ज्ञातमात्रे श्रुतमात्रे च विसम्भोगः क्रियते, तृतीय स्वल्पतरदोषाश्रयं तत्र हि चतुर्थवेलायां स विधीयत इति । 'अणुन्न'त्ति, अनुज्ञानमनुज्ञा-अधिकारदानम् , आचर्यते-मर्यादावृत्तितया सेव्यत इत्याचार्यः, आचारे वा पञ्चप्रकारे साधुरित्याचार्यः, आह च-"पंचविहं आयारं, आयरमाणा तहा पयासंता। आयारं दंसंता, आयरिया तेण वुच्चंति ॥१॥" नद्भावस्तत्ता तया, उत्तरत्र गणाचार्यग्रहणादनुयोगाचार्यतयेत्यर्थः,
900000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000004
॥२८॥
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सू०१७३-१७४।
श्रीस्थानाङ्गसूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१८८॥
1000000000000000000000000000000000000000000000000000000
तथा उपेत्याऽधीयतेऽस्मादित्युपाध्यायः, आह च-"संमत्तनाणदंसणजुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिष्णु। आयरियठाणजुग्गो, सुत्तं वाएइ उवझाओ ॥१॥" इति, तद्भाव उपाध्यायता तया, तथा गणः-साधुसमुदायो यस्याऽस्ति स्वस्वामिसम्बन्धेनासौ गणी-गणाचार्यस्तद्भावस्तत्ता, तया गणनायकतयेति भावः, तथा समिति-सङ्गता औत्सर्गिकगुणयुक्तत्वेनोचिता आचार्यादितया अनुज्ञा समनुज्ञा, तथाहि-अनुयोगाचार्यस्यौत्सर्गिकगुणा:-"तम्हा वयसंपन्ना, कालोचियगहियसयलमुत्तत्था । अणुजोगाणुन्नाए, जोगा भणिया जिणिदेहिं ॥१॥ इहरा उ मुसावाओ, पवयणखिंसा य होइ लोयंमि । सेसाण वि गुणहाणी, तित्थुच्छेओ य भावेण ॥२॥" गणाचार्योऽप्यौत्सर्गिक एवं-"सुत्तत्थे निम्माओ, पियदढधम्मोऽणुवत्तणाकुसलो । जाईकुलसंपन्नो, गंभीरो लद्धिमन्तो य ॥१॥ संगहुवग्गहनिरओ, कयकरणो पवयणाणुरागी य । एवंविहो य भणिओ गणसामी जिणवरिंदेहिं ॥२॥" अथैवंविधगुणाभावे अनुज्ञाया अप्यभावात् कथमन्या समनुज्ञा भविष्यतीति?, अत्रोच्यते-उक्तगुणानां मध्यादन्यतमगुणाभावेऽपि कारणविशेषात सम्भवत्येवासौ, कथमन्यथाऽभिधीयते-"जे यावि मंदित्ति गुरुं वइत्ता, डहरे इमे अप्पमुएत्ति नच्चा । हीलंति मिच्छे पडिवज्जमाणा, करेंति आसायण ते गुरूण ॥"ति, अतः केपाश्चित् गुणानामभावेऽप्यनुज्ञा समग्रगुणभावे तु समनुज्ञेति स्थितम् , अथवा स्वस्य मनोज्ञाः-समानसामाचारीकतया अभिरुचिताः स्वमनोज्ञाः सह वा मनोज्ञेर्ज्ञानादिभिरिति समनोज्ञाः-एकसम्भोगिकाः साधवः, कथं त्रिविधा इत्याह-'आचार्यतये'त्यादि, भिक्षुक्षुल्लकेत्यादिभेदाः सन्तोऽपि न विवक्षिताः, त्रिस्थानकाधिकारादिति । एवं उवसंपय'त्ति, एव'मित्याचार्यत्वादिभित्रिधा समनुज्ञावत् । उपसंपत्तिरूपसम्पत्-ज्ञानाद्यर्थं भवदीयोऽहमित्यभ्युपगमः, तथाहि-कश्चित् स्वाचार्यादिसन्दिष्टः सम्यक्श्रुत
॥२८८॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥ १८९ ॥
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ग्रन्थानां दर्शनप्रभावकशास्त्राणां वा सूत्रार्थयोर्ग्रहणस्थिरीकरणविस्मृतसन्धानार्थं तथा चारित्रविशेषभूताय वैयावृत्त्याय क्षपणाय वा सन्दिष्टमाचार्यान्तरं यदुपसम्पद्यते, उक्तं च - " उवसंपया य तिविहा, नाणे तह दंसणे चरिते य । दंसणनाणे तिविहा, दुविहा य चरितअट्ठाए || १ | "त्ति, सेयमाचार्योपसम्पद्, एवमुपाध्यायगणिनोरपीति, एवं विजण 'त्ति 'एवमित्याचार्यत्वादिभेदेन त्रिधैव विहान - परित्यागः तच्च आचार्यादेः स्वकीयस्य प्रमाददोषमाश्रित्य वैयावृत्त्यक्षपणार्थमाचार्यान्तरोपसम्पत्त्या भवतीति, आह च - " नियगच्छादन्नम्मि उ सीयणदोसाइणा होइ "त्ति, अथवा आचार्यो ज्ञानाद्यर्थमुपसम्पन्नं यतिं तमर्थमननुतिष्ठन्तं सिद्धप्रयोजनं वा परित्यजति यत् साऽऽचार्यविहानिः, उक्तं च- "उवसंपन्नो जं कारणं तु तं कारण अपूरितो | अहवा समाणियमि य, सारणया वा विसग्गो वा ॥१॥”त्ति, एवमुपाध्यायगणिनोरपीति । इयमनन्तरं विशिष्टा साधुकायचेष्टा त्रिस्थानकेऽवतारिता, अधुना तु वचनमनसी तत्पर्युदासौ च तत्रावतारयन्नाह -
तिविहे वयणे पं० त ० -तव्वयणे तयण्णवयणे णोअवयणे, तिविहे अवयणे पं० त०- णो तव्वयणे णो तदन्नवयणे अवयणे । तिविहे मणे पं० त०-तम्मणे तदण्णमणे णोअमणे, तिविहे अमणे पं० त० - णोतम्मणे णो तयण्णमणे अमणे ( सू० १७५) ।
'तिविहे’त्यादिसूत्रचतुष्टयम्, अस्य गमनिका - तस्य-विवक्षितार्थस्य घटादेर्वचन - भणनं तद्वचनं, घटार्थापेक्षया घटवचनवत्, तस्माद् - विवक्षितघटादेरन्यः पटादिस्तस्य वचनं तदन्यवचनं, घटापेक्षया पटवचनवत्, नोअवचनम् - अभणननिवृत्तिर्वचनमात्र डित्थादिवदिति, अथवा सः शब्दव्युत्पत्ति (प्रवृत्ति) निमित्तधर्मविशिष्टोऽर्थोऽने
सू० १७४-१७५।
॥ १८९॥
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सू० १७५-१७६।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
300000000000000000000000000000000000000000000000000000
नोच्यत इति तद्वचन यथार्थनामेत्यर्थः, ज्वलनतपना दिवत् , तथा तस्मात्-शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तधर्मविशिष्टादन्यःशब्दप्रवृत्तिनिमित्तधर्मविशिष्टोऽर्थ उच्यते अनेनेति तदन्यवचनमयथार्थमित्यर्थः, मण्डपादिवत् , उभयव्यतिरिक्त नोअवचन, निरर्थकमित्यर्थः, डित्थादिवत् , अथवा तस्य-आचार्यादेर्वचनं तद्वचनं तव्यतिरिक्तवचनं तदन्यवचनम्-अविवक्षितप्रणेतृविशेष नोअवचनं वचनमात्रमित्यर्थः, त्रिविधवचनप्रतिषेधस्त्ववचन, तथाहि-नोतद्वचनं घटापेक्षया पटवचनवत् , नोतदन्यवचनं घटे घटवचनवत् , अवचन वचननिवृत्तिमात्रमिति, एवं व्याख्यान्तरापेक्षयाऽपि ज्ञेयम् , तस्य-देवदत्तादेस्तस्मिन् वा घटादौ मनस्तन्मनः, ततो-देवदत्तादन्यस्य-यज्ञदत्तादेघटापेक्षया पटादौ वा मनस्तदन्यमनः, अविवक्षितसम्बन्धिविशेष तु मनोमात्र नोअमन इति, एतदनुसारेणामनोऽभ्यामिति ॥ अनन्तरं संयतमनुष्यादिव्यापारा उक्ताः, इदानीं प्रायो देवव्यापारान् 'तिहिं'इत्यादिभिरष्टाभिः सूत्रैराह--
तिहि ठाणेहि अप्पबुट्टिकाए सिया, त-तस्सिं च ण देसंसि वा पएसंसि वा णो बहवे उद्गजोणिया जीवा य पुग्गला य उदगत्ताए वक्कमंति विउक्कमति चयंति उववज्जति, देवा णागा जक्खा भूया णो सम्म आराहिया भवंति, तत्थ समुट्ठियं उदगपुग्गल परिणत वासितुकाम अन्न देसं साहरंति अब्भवद्दलग च ण समुट्ठिय परिणत वासिउकाम वाउकाए विधुणति, इच्चेएहि तिहि ठाणेहि अप्पबुट्टिकाए सिया १ । तिहि ठाणेहि महाबुट्ठिकाण सिया, तंजहा-तसि च ण देसंसि वा पएसंसि वा बहवे उदगजोणिया जीवा य पुग्गला य उदगत्ताप वक्कमंति विउक्कमति चयति उववज्जंति, देवा जक्खा णागा भूया सम्ममाराहिया भवंति, अण्णत्थ समुट्ठित उदगपोग्गलं परिणय वासिउकाम त देस साहरंति अभवद्दलग च ण समुट्ठित परिणय वासिउकाम णो वाउयाओ विहुणति
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सू०१७६-१७७।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१९॥
इच्चेएहि तिहि ठाणेहि महावुट्टिकाए सिया २ (सू० १७६) । ___मुगमानि चैतानि, किन्तु 'अप्पट्टिकाए'त्ति, अल्पः-स्तोको अविद्यमानो वा वर्षण वृष्टिः-अधःपतन वृष्टिप्रधानः कायो-जीवनिकायो व्योमनिपतदप्काय इत्यर्थः, वर्षणधर्मयुतं वोदक वृष्टिः, तस्याः कायो-राशिष्टिकायः, अल्पचासौ वृष्टिकायश्च अल्पवृष्टिकायः स 'स्याद् ' भवेत् तस्मिंस्तत्र-मगधादौ, चशब्दोऽल्पवृष्टिताकारणान्तरसमुच्चयार्थः, (सूचनार्थः), णमित्यलङ्कारे, 'देशे'जनपदे प्रदेशे-तस्यैवैकदेशरूपे, वाशब्दो विकल्पाथी,उदकस्य योनयः-परिणामकारणभूता उदकयोनयस्त एवोदकयोनिका-उदकजननस्वभावा 'व्युत्क्रामन्ति' उत्पद्यन्ते 'व्यपक्रामन्ति' च्यवन्ते, एतदेव यथायोगं पर्यायत आचष्टे-च्यवन्ते, उत्पद्यन्ते क्षेत्रस्वभावादित्येक, तथा 'देवा' वैमानिकज्योतिष्काः 'नागा' नागकुमारा भवनपत्युपलक्षणमेतत् , 'यक्षा' भूता इति व्यन्तरोपलक्षणम् , अथवा देवा इति सामान्य नागादयस्तु विशेषः, एतद्ग्रहण च प्राय एपामेवंविधे कर्मणि प्रवृत्तिरिति ज्ञापनाय, विचित्रत्वाद् वा सूत्रगतेरिति, नो सम्यगाराधिता भवन्ति अविनयकरणाजनपदैरिति गम्यते, ततश्च तत्र-मगधादौ देशे प्रदेशे वा तस्यैव समुत्थितम्-उत्पन्नमुदकप्रधान पौद्गलपुद्गलसमूहो मेघ इत्यर्थः उदकपौद्गलं, तथा परिणत' उदकदायकावस्थाप्राप्तम् , अत एव विद्युदादिकरणाद् वर्षितुकाम सदन्य देशमङ्गादिकं संहरन्ति-नयन्तीति द्वितीय, अभ्राणि-मेघास्तैर्वलक-दुदिनमभ्रवईलक 'वाउयाओ'त्ति वायुकायः प्रचण्डवातो विधुनाति-विध्वंसयतीति तृतीयम् । 'इच्चे' इत्यादि निगमनमिति, एतद्विपर्यासादनन्तरसूत्रं मुगम, व्याख्या विपर्ययतः कार्या ।
तिहिं ठाणेहिं अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु इच्छिज्जा माणुस लोग हव्वमागच्छित्तए, णो चेव ण संचापड
॥१९॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१९२॥
हव्वमागच्छित्तए, त-अहुणोववण्णे देवे देवलोएसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववण्णे से ण माणुस्सए कामभोगे णो आढाइ णो परियाणाइ णो अट्ठ बंधइ णो णिदाण पगरेइ णो ठिइपकप्पंपकरेति १, अहुणोववण्णे देवे देवलोपसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववण्णे तस्स ण माणुस्सए पेम्मे वोच्छिण्णे दिव्वे संकते हवइ २, अहुणोचवण्णे देवे देवलोएसु दिब्वेसु कामभोगेसु मुच्छिए भवइ जाव अज्झोववण्णे तस्स ण एवं भवइ-इण्हि न गच्छ मुहुत्त गच्छ तेण कालेण (तेण समएण') अप्पाउया मणुस्सा कालधम्मुणा संजुत्ता भवंति, इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं अहुणोववण्णे देवे देवलोएसु इज्छेजा माणुस लोग हब्वमागच्छित्तए णो चेव ण संचाएइ हब्बमागच्छित्तए ३ ॥ तिहिं ठाणेहिं अहुणोववण देवे देवलोएसु इच्छेजा माणुस लोग हव्वमागच्छित्तए, संचाएइ हव्वमागच्छित्तए-अहुणोववण्णे देवे देवलोएसु दिब्बेसु कामभोगेसु अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोपवण्णे तस्स ण एवं भवइ अत्थि ण मम माणुस्सए भवे आयरिएइ वा उवज्झापइ वा पवत्तीइ वा थेरेइ वा गणीइ वा गणधरेइ वा गणावच्छेपइ वा, जेसि पभावेण मए इमा एयारूवा दिव्या देविडूढी दिव्या देवजुती दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए त गच्छामि ते भगवते वदामि णमंसामि सक्कारेमि सम्मामि कल्लाण मंगल देवयं चेइयं पज्जुवासामि, अहुणोववण्णे देवे देवलोएसु दिव्वेसु कामभोगेसु अमुच्छिए जाव अणज्झोववण्णे तस्स ण एवं भवइ-एस ण माणुस्सए भवे णाणीइ वा तवस्सीइ वा अइदुक्कर दुक्करकारए तगच्छामि ण त भगवंतं वदामि णमंसामि जाव पज्जुवासामि, अहुणोववण्णे देवे देवलोपसु जाव अणज्झोववण्णे, तस्स ण पव भवइ-अत्थि णं मम माणुस्सते भवे मायाति वा जाव सुण्हाइ वा त गच्छामि ण तेसि तिय पाउन्भवामि पासतु ता मे इम एयारूव दिव्य देविढि दिव्वं देवज्जुइ दिब्ब देवाणुभाव लद्ध पत्त अभिसमण्णागय इच्चेतेहिं तिहि ठाणेहि अहुणोववण्णे देवे
॥१९२॥
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सू०१७७।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१९३॥
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देवलोएसु इच्छेजा माणुस लोग हव्वमागच्छित्तए ४ (सू० १७७) ।
'अहुणो'त्ति अधुनोपपन्नो देवः, कवेत्याह-देवलोकेष्विति, इह च, बहुवचनमेकस्यैकदा अनेकेषत्पादासम्भवादेकार्थे दृश्य वचनव्यत्ययादेवलोकानेकत्वोपदर्शनार्थ वा, अथवा देवलोकेषु मध्ये कचिदेवलोक इति, 'इच्छेद' अभिलषेत् , पूर्वसङ्गतिकदर्शनाद्यर्थ मानुषाणामय मानुषस्त 'हव्व'ति शीघ्र 'न संचाएइ'त्ति न शक्नोति, दिविदेवलोकेषु भवा दिव्यास्तेषु, कामौ च-शब्दरूपलक्षणौ भोगाश्च गन्धरसस्पर्शाः कामभोगास्तेषु, अथवा काम्यन्त इति कामाः-मनोज्ञास्ते च ते भुज्यन्त इति भोगा:-शब्दादयस्ते च ते कामभोगास्तेषु मृच्छित इव मूर्छितो-मूढः, तत्स्वरूपस्यानित्यत्वादेविबोधाक्षमत्वात् , गृद्धः-तदाकाङ्क्षावान् अतृप्त इत्यर्थः, ग्रथित इव ग्रथितस्तद्विषयस्नेहरज्जुभिः सन्दभित इत्यर्थः, अध्युपपन्न:-आधिक्येनासकोऽत्यन्ततन्मना इत्यर्थः, 'नो आद्रियते' न तेष्वादरवान् भवति 'नो परिजानाति' एतेऽपि वस्तुभूता इत्येवं न मन्यते, तथा तेष्विति गम्यते, नो अर्थ वध्नाति-एतैरिद प्रयोजनमिति न विनिश्चयं करोति, तथा न तेषु निदान करोति-एते मे भूयासुरित्येवमिति, तथा तेष्वेव नो स्थितिप्रकल्पम्अवस्थानविकल्पनमेतेष्वहं तिष्ठेयमिति एते वा मम तिष्ठन्तु-स्थिरीभवन्त्वित्येवंरूप स्थित्या वा-मर्यादया विशिष्टः प्रकल्पः-आचार आसेवेत्यर्थस्त 'प्रकरोति' कर्तुमारभते, प्रशब्दस्यादिकर्मार्थत्वादिति, एवं दिव्यविषयप्रसक्तिरित्येक कारण १, तथा यतोऽसावधुनोपपन्नो देवो दिव्येषु कामभोगेषु मूर्छितादिविशेषणो भवति ततस्तस्य मानुष्यकमनुध्यविषय प्रेम-स्नेहो येन मनुष्यलोके आगम्यते तद् व्यवच्छिन्न, दिवि भव दिव्य-स्वर्गगतवस्तुविषय सक्रान्त-तत्र देवे प्रविष्ट भवतीति दिव्यप्रेमसङ्क्रान्तिरिति द्वितीयम् २, तथाऽसौ देवो यतो दिव्यकामभोगेषु
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सू० १७७।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१९४॥
मच्छितादिविशेषणो भवति, ततस्तत्प्रतिबन्धात् ' तस्स 'ति तस्य-देवस्य एवं ति एवंप्रकार चित्तं भवति, यथा 'इण्हि'ति यत इदानीं न गच्छामि, 'मुहुत्तति मुहर्तेन गच्छामि कृत्यसमाप्तावित्यर्थः, 'तेण कालेण"ति येन तत् कृत्य समाप्यते स च कृतकृत्यत्वादागमनशको भवति तेन कालेन, गतेनेति शेषः, तस्मिन् वा काले गते, णंशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, अल्पायुषः स्वभावादेव मनुष्या मात्रादयो यद्दर्शनार्थमाजिगमिषति ते कालधर्मेण-मरणेन संयुक्ता भवन्ति, कस्यासौ दर्शनार्थमागच्छतु ? इति असमाप्तकर्तव्यता नाम तृतीयमिति ३, 'इच्चे'त्यादिनिगमनम् ३ ॥ तदागमे हेतुमाह-देवकामेषु कश्चिदमूच्छितादिविशेषणो भवति, तस्य च मन इति गम्यते, एवंभूतं भवति-'आचार्यः' प्रतिबोधकः प्रव्राजकादिरनुयोगाचार्यों वा 'इतिः' एवंप्रकारार्थो वाशब्दो विकल्पार्थः, प्रयोगश्चैव-मनुष्यभवे ममाचार्योऽस्तीति वा, उपाध्यायः-सूत्रदाता सोऽस्तीति वा, एवं सर्वत्र, नवर प्रवर्त्तयति साधूनाचार्योपदिष्टेषु वैयावृत्त्यादिष्विति प्रवर्ती, उक्त च-"तवसंजमजोगेसु, जो जोगो तत्थ त पयट्टेइ । असहु च नियत्तेइ, गणतत्तिल्लो पवत्ती उ ॥१॥"त्ति, प्रवर्तिव्यापारितान् साधून संयमयोगेषु सीदतः स्थिरीकरोति इति स्थविरः, उक्तं च-"थिरकरणा पुण थेरो, पवत्तिवावारिएसु अत्थेसु । जो जत्थ सीयइ जई, संतबलो त थिरीकुज्जा ॥१॥"इति, गणोऽस्यास्तीति-गणाचार्यः, गणधरो-जिनशिष्यविशेषः, आर्यिकाप्रतिजागरको वा साधुविशेषः, उक्त च-"पियधम्मो दढधम्मो, संविग्गो उज्जुओ य तेयंसी । संगहुवग्गहकुसलो, सुत्तस्थविऊ, गणाहिबई ॥१॥" गणस्यावच्छेदो-विभागोऽशोऽस्यातीति, यो हि गणांश गृहीत्वा गच्छोपष्टम्भायैवोपधिमार्गणादिनिमित्त विहरति स गणावच्छेदकः, आह च-"उद्धावणापहावण-खित्तोवहिमग्गणामु अविसाई । मुत्त
॥१९४॥
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सू०१७७-१७८।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१९५॥
.000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
स्थतदुभयविऊ, गणवच्छो एरिसो होइ ॥१॥"त्ति, 'इम'त्ति इयं प्रत्यक्षासना एतदेव रूप यस्या न कालान्तरे रूपान्तरभाक सा एतद्रू पा दिव्या-स्वर्गसम्भवा प्रधाना वा देवानां-सुराणामृद्धिः-श्रीविमानरत्नादिसम्पदेवर्द्धिरेव सर्वत्र, नवरं द्युतिः-दीप्तिः शरीराभरणादिसम्भवा युतिर्वा-युक्तिरिष्टपरिवारादिसंयोगलक्षणाऽनुभागोऽचिन्त्या वैक्रियकरणादिका शक्तिः, लब्धः-उपार्जितो जन्मान्तरे, प्राप्तः-इदानीमुपनतः, अभिसमन्वागतो-भोग्यतां गतः, 'तदिति तस्मात्तान् भगवतः-पूज्यान वन्दे स्तुतिभिर्नमस्यामि प्रणामेन सत्करोम्यादरकरणेन वस्त्रादिना वा सन्मानयाम्युचितप्रतिपत्त्या कल्याण मङ्गल दैवत चैत्यमितिबुद्धया 'पर्युपासे' सेवे इत्येक, 'एस ण'ति 'एषः' अवध्यादिप्रत्यक्षीकृतो मानुष्यके भवे वर्तमान इति शेषो, मनुष्य इत्यर्थः, ज्ञानीति वा कृत्वा तपस्वीति वा कृत्वा, किमिति ? दुष्कराणां-सिंहगुहाकायोत्सर्गकरणादीनां मध्ये दुष्करमनुरक्तपूर्वोपभुक्तप्रार्थनापरतरुणीमन्दिरवासाप्रकम्पब्रह्मचर्यानुपालनादिकं करोतीति अतिदुष्करदुष्करकारकः स्थूलभद्रवत् , 'तत् ' तस्माद् गच्छामित्ति-पूर्वमेकवचननिर्देशेऽपीह पूज्यविवक्षया बहुवचनमिति, तान् दुष्करदुष्करकारकान् भगवतो बन्दे इति द्वितीय, तथा 'माताइ वा पिताइ वा भजाइ वा भायाइ वा भयणीइ वा पुत्ताइ वा धूयाइ वा' यावच्छब्दाक्षेपः स्नुषा-पुत्रभार्या, 'तदिति तस्मात् तेषामन्तिक-समीपे 'प्रादुर्भवामि' प्रकटीभवामि, 'ताव मे'त्ति तावन् मे-ममेति तृतीयम् ॥
तओ ठाणाई देवे पीहेज्जा त-माणुस्सग भव १ आरिप खेत्ते जम्म २ सुकुलपच्चायाति ३, ५ । तिहिं ठाणेहिं देवे परितप्पेजा, त-अहो ण मए संते बले सते वीरिए सते पुरिसक्कारपरक्कमे खेमंसि सुभिक्खंसि आयरियउवज्झाएहिं विज्जमाणेहि कल्लसरीरेण णो बहुए सुप अहीए १, अहो णमए इहलोगपडिबीण परलोग
॥१९५||
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका
वृत्तिः ।
॥१९६॥
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परंमुहेण विसयतिसिएण णो दीहे सामण्णपरियार अणुपालिए २, अहो णं मए इडिटरससायगरुपण भोगास - सागद्वेण णो विसुद्धे चरिते फासिए ३, इच्चेतेहि तिहि ठाणेहि परितप्पेज्जा ६ (सू० १७८) । तिहिं ठाणेहि देवे चइस्लामित्ति जाणइ, तंजहा- विमाणाभरणाई णिप्पभाई पासित्ता १, कप्परुक्खग मिलायमाणं पासित्ता २, अप्पण तेयलेस्स परिहायमाणि पासित्ता ३, इच्चेतेहि ७ । तिहि ठाणेहि देवे उब्वेगमागच्छेज्जा, तंजहा - अहो णं मए इमाओ यारुवाओ दिव्याओ देविडूढीओ दिव्वाओ देवज्जुतीओ दिव्वाओ देवाणुभावाओ लद्धाओ पत्ताओ अभिसमण्णागयाओ चइयव्वं भविस्सर १, अहो णं मए माउओय पिउसुक्क तं तदुभयसंसड तप्पढमयाप आहारो आहारेव्व भविस्सर २, अहो णं मए कलमलजबालाते असुतीते उव्वेयणीयाए भीमाए गभवसइ वसियव्व' भविस्सर ३ । इच्चेपहि तिहिं ८ । (सू० १७९) । तिसंठिया विमाणा पं० त० वट्टा तसा चउरंसा ३, तत्थ णं जे ते वट्टा विमाणा ते ण पुक्खरकण्णियासंठाणसठिया सव्चओ समता पागारपरिक्खित्ता एगदुवारा पन्नत्ता, तत्थ ण जे ते तसा विमाणा ते णं सिंघाडगसंठाणस ठिया दुहओ पागारपरिक्खित्ता, एगओ वेश्या परिक्खित्ता तिदुवारा पन्नत्ता, तत्थ ण जे ते चतुरंसविमाणा ते णं अक्खाडगस ठाणस ठिया, सव्वओ समंता वेश्यापरिक्खित्ता, चदुवारा पण्णत्ता । तिपइट्टिया विमाणा पं० त० घणोदहिपट्टिया घणवातपइट्टिया ओवास तरपट्टिया, तिविहा विमाणा पं० तं - अवट्टिया वेउब्विया परिजाणिया (सू० १८० ) ।
'पहिज्ज'त्ति स्पृहयेदभिलषेन्मानुष्यकं भवमार्यक्षेत्रमर्द्धषड् विंशतिजनपदानामन्यतरन्मगधादि, सुकुले - इक्ष्वा - arat देवलोकात् प्रतिनिवृत्तस्याजातिः - जन्मायातिर्वा - आगतिः सुकुलप्रत्याजातिः सुकुलप्रत्यायातिर्वा तामिति । 'परितप्पे 'ति पश्चात्तापं करोति, अहो विस्मये, सति विद्यमाने वले - शारीरे वीर्ये - जीवाश्रिते पुरुषकारे - अभिमान
सू० १७८-१७९१८० ।
॥१९६॥
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सू० १८०।
श्रीस्थानान
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥१९७॥
++00000000000000000000000000000000000000000000000000000000
विशेषे पराक्रमेऽभिमान एव च निष्पादितस्वविषये इत्यर्थः, 'क्षेमे' उपद्रवाभावे सति 'सुभिक्षे मुकाले सति 'कल्यशरी रेण' नीरोगदेहेनेतिसामग्रीसद्भावेऽपि नो बहुश्रुतमधीतमित्येक, 'विसयतिसिएण"ति विषयतृषितत्वादिहलोकप्रतिबन्धादिना दीर्घश्रामण्यपर्यायापालनमिति द्वितीय, तथा ऋद्धिराचार्यत्वादौ नरेन्द्रादिपूजा, रसा-मधुरादयो मनोज्ञाः, सात-सुखमेतानि गुरूण्यादरविषया यस्य सोऽयमृद्धिरससातगुरुकस्तेन, भोगेषु-कामेषु आशंसा चाप्राप्तप्रार्थन गृद्ध च-प्राप्तातृप्तिर्यस्य स भोगाशंसागृदः, इह चानुस्वारलोपह्रस्वत्वे प्राकृततयेति, इति तृतीयम् , इत्येतैरिति निगमनम् । 'तिहिति विमानाभरणानां निष्प्रभत्वमौत्पातिक तच्चक्षुविभ्रमरूपं वा, 'कप्परुक्खग'ति चैत्यवृक्ष, 'तेयलेस्सं'ति शरीरदीप्ति सुखासिकां वा, 'इच्चेतेही'त्यादिनिगमन, भवन्ति चैवंविधानि लिङ्गानि देवानां च्यवनकाले, उक्त च-"माल्यम्लानिः कल्पवृक्षप्रकम्पः, श्रीहीनाशो वाससां चोपरागः । दैन्यं तन्द्रा कामरागाङ्गभङ्गो, दृष्टिभ्रान्तिर्वेपथुश्चारतिश्च ॥१॥"इति, 'तिहिति उद्वेग-शोक मयेतश्च्यवनीय भविष्यतीत्येक १, तथा मातुरोजः-आर्तवं पितुः शुक्र तत्तथाविधं किमपि विलीनानामतिविलीन तयोरोजःशुक्रयोरुभय-द्वयं तदुभयं तच्च तत्संसृष्टं च, संश्लिष्ट चेति वा, परस्परमेकीभूतमित्यर्थः, तदुभयसंसृष्टं तदुभयसंश्लिष्टं वा एवंलक्षणो य आहारस्तस्य-गर्भावासकालस्य प्रथमता तस्यां, प्रथमसमय एवेत्यर्थः, स आहर्त्तव्योऽभ्यवहार्यों भविष्यतीति द्वितीय, तथा कलमलोजठरद्रव्यसमूहः स एव जम्बाल:-कर्दमो यस्यां सा तथा तस्यामत एवाशुचिकायामुद्वेजनीयायाम्-उद्वेगकारिण्यां भीमायां-भयानिकायां गर्भ एव वसतिर्गर्भवसतिस्तस्यां वस्तव्यमिति तृतीयम् , अत्र गाथे भवतः-"देवा वि देवलोए, दिव्वाभरणाणुरंजियसरीरा । ज परिवडंति तत्तो, त दुखं दारुण तेसिं ॥१॥ त सुरविमाणविभवं,
॥१९॥
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श्रीस्थाना
सू० १८०।
दीपिका वृत्तिः ।
चिंतिय चवण च देवलोगाओ । अइबलिय चिय ज नवि, फुट्टइ सयसकर हिययं ॥२॥" 'इच्चेएही'त्यादि निगमनम् ॥ अथ देववक्तव्यतानन्तरं तदाश्रयविमानवक्तव्यतामाह-'तिसंठिए'त्यादि, सूत्रत्रयं स्फुटमेव केवलं त्रीणि संस्थितानि-संस्थानानि येषां तानि त्रिभिर्वा प्रकारः संस्थितानि त्रिसंस्थितानि, 'तत्थ णति तेषु मध्ये 'पुक्खरकण्णिए'त्ति पुष्करकर्णिका-पद्ममध्यभागः, सा हि वृत्ता समोपरिभागा च भवति. 'सर्वत इति दिक्ष 'समन्तादिति विदिक्षु सिंघाडग"ति त्रिकोणो जलजफलविशेषः एकत' एकस्यां दिशि यस्यां वृत्तविमानमित्यर्थः. 'अक्वाडगो' चतुरस्रः प्रतीत एव, वेदिका-मुण्डप्राकारलक्षणा, एतानि चैवंक्रमेणावलिकाप्रविष्टानि भवन्ति, पुष्पावकीर्णानि त्वन्यथाऽपीति, भवन्ति चात्र गाथास्ताश्चमा:-"सब्वेमु पत्थडेमु. मज्झ बट्ट अणंतरे तंसं। एयंतरचतरंसं. पुणोवि व पुणो तंस ॥१।। वर्ल्ड बट्टस्सुवरिं, तसं तंसस्स उप्परि होइ । चउरंसे चउरंसं, उटं तु विमाणसेहीओ ॥२॥ वर्ल्ड च वलयग पिव. तंस सिंघाडग पिव विमाण । चउरंसविमाणंपि य, अक्खाडगसंठिय भणिय ॥३॥ सव्वे वट्टविमाणा, एगवारा हवंति विन्नेया । तिनि य तंसविमाण, चत्तारि य हुंति चउरंसे ॥४॥ पागारपरिक्खित्ता, वट्टविमाणा हवंति सव्वेवि । चउरंसविमाणाण, चउदिसि वेइया होइ ॥५॥ जत्तो वट्टविमाण, तत्तो सस्स वेइया होइ । पागारो बोद्धव्यो, अवसेसेसु तु पासेमु ॥६।। आवलियासु विमाणा, वट्टा तसा तहेव चउरंसा । पुप्फावकिन्नया पुण, अणेगविहरूवसंठाणा ||७||" अथ प्रतिष्ठानसूत्र-प्रतिष्ठानसूत्रस्येय विभजना-"घणउदहिपइटाणा, सुरभवणा होंति दोसु कप्पेसु । तिसु वाउपट्टाणा, तदुभयमुपइट्ठिया तीम् ॥१॥ तेण पर उवरिमगा, आगासंनरपइटिया सव्वे"ति । अवस्थितानि-शाश्वतानि वैक्रियाणि-भोगाद्यर्थ निष्पादितानि. यतोऽभिहित भगवत्या
వరించి చింతిత శిశిరం పరిధివంచితివంతం
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥१९२॥
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“जाहे ण भंते! सक्के देविंदे देवराया दिव्वाई भोग भोगाई भुंजिकामे भवइ, से कहमियाणिं पगरेति ? गोयमा ! ताहे चेवण से सक्के देविंदे देवराया एवं मह नेमिपडिख्वं विउच्चड़ [नेमिरिति चक्रधारा तद्वद्वृत्तविमानमित्यर्थः ] इत्यादि, परियान-तिर्यग्लोकावतरणादि तत्प्रयोजनं येषां तानि पारियानकानि - पालकपुष्पकादीनि वक्ष्यमाणानीति ॥ पूर्वसूत्रेषु देवा उक्ताः अधुना वैक्रियादिसाधर्म्यान्नारकान्निरूपयन्नाह—
तिविहा नेरइया पं० त०-सम्मद्दिट्टी मिच्छद्दिट्ठी सम्मामिच्छद्दिट्टी. एवं विगलिंदियवज्ज' जाव वेमाणियाण | तओ दुग्गईओ पं० त०-णेरइयदुग्गई तिरिक्खजोणिय दुग्गई मणुयदुग्गई १, तओ सुगईओ पं० त० सिद्धिसोग्गई देवसोग्गई मणुयसोग्गई २ । तओ दुग्गता पं० त०-णेरइयदुग्गया निरिक्खजोणियदुग्गया मणुस्सदुग्गया ३. तओ सुगया पं० त०-सिद्धसोगया देवसोग्गया मणुस्ससोग्गया (स०] १८१) ।
'तिविहे 'इत्यादि गतार्थ, नवर 'विगलिंदियवज्ज" ति नारकar aण्डकस्त्रिधा वाच्यः एकेन्द्रियविकलेन्द्रियान् वर्जयित्वा यतः पृथिव्यादीनां मिथ्यात्वमेव द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां तु न मिश्रमिति । त्रिविधदर्शनाश्च दुर्गति|सुगतियोगात् दुर्गताः सुगताश्च भवन्तीति दुर्गत्यादिदर्शनाय सूत्रचतुष्टयमाह - 'तओ' इत्यादिसूत्रचतुष्टयं व्यक्त', परं दृष्टा गतिर्दुगतिर्मनुष्याणां दुर्गतिर्विवक्षयैव, तत्मुगतेरप्यभिधास्यमानत्वादिति, दुर्गताः - दुःस्याः मुगताः- गुस्थाः । सिद्धादिगताच तपस्विनः सन्तो भवन्तीति तत्कर्त्तव्यपरिहर्तव्यविशेषमाह
उत्थभक्तिस्स भिक्खुरस कप्पंति तओ पाणगाई' पडिगाहित्तए, तैजहा - उरसेइमे स सेहम चाउलधोयणं १. छट्टभत्तियस्स णं भिक्खुस्स कम्पति तओ पाणगाई पडिगाहित्तण, त० - तिलोदर तुसोदण जवोदय २. अट्टमभक्ति
सू० १८०-१८११८२॥
॥१०९॥
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सू० १८२॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२०॥
यस्स ण भिक्खुस्स कप्पति तओ पाणगाई पडिगाहित्तए, त-आयामए सोवीरए सुद्धविषडे ३, तिविहे उवहडे पं० त०-फलितोवहडे सुद्धोवहडे संसट्ठोवहडे ४, तिविहे उम्गहिए ५० त०-जच ओगिण्हइ ज च साहरइ ज च आसगंसि पक्खिवइ ५, तिविहा ओमोयरिया ५० त०-उवगरणोमोयरिया भत्तपाणोमोयरिया भावोमोयरिया ६, उवगरणोमोयरिया तिविहा पं० त०-एगे वत्थे एगे पादे चियत्तोवहिसातिज्जणया ७, तओ ठाणा णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अहियाय असुहाय अखमाय अणिस्सेयसाय अणाणुगामियत्ताए भवंति, त-कृयणया कक्करणया अवज्झाणया८, तओ ठाणा णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा हियाए सुहाए खमाए णिस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भवंति, त-अकूयणया अकक्करणया अणवज्झाणया ९, तओ सल्ला ५० त०-मायासल्ले णियाणसल्ले मिच्छादसणसल्ले १०, तिहिं ठाणेहि समणे णिग्गंथे सखित्तविउलतेउल्लेसे भवइ, त-आयावणयाए खंतिखमाए अपाणपण तवोकम्मेण ११ । तिमासियण भिक्खुपडिम पडिवन्नस्स अणगारस्स कप्पंति तओ दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहित्तए तओ पाणगस्स १२, एगराइय भिक्खुपडिम सम्म अणणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे तओ ठाणा अहियाए असुभाए अखमाए अणिस्सेयसाए अणाणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा-उम्माय वा लभेजा दीहकालिय वा रोगायक पाउणेज्जा केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ भंसेजा १३, एगराइयं भिक्खुपडिम सम्म अणुपालेमाणस्स अणगारस्स तओ ठाणा हियाए सुहाए खमाए णिस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भवंति, त-ओहिणाणे वा से समुप्पज्जेज्जा १ मणपज्जवणाणे वा से समुप्पज्जेज्जा २ केवलणाणे वा से समुप्पज्जेज्जा ३, १४ । (सू० १८२)।
'चउत्थे'त्यादिचतुर्दशसूत्राणि व्यक्तानि, केवलमेक पूर्वदिने द्वे उपवासदिने चतुर्थ पारणकदिने भक्तभोजनं परिहरति यत्र तपसि तच्चतुर्थभक्तं तद्यस्य स्ति स चतुर्थभक्तिकस्तस्य, एवमन्यत्रापि, शब्दव्युत्पत्तिमात्रमेतत् ,
100000000000000000000000000000000000000000000000000000०००
॥२०॥
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श्रीस्थाना
| सू०१८२।
दीपिका
वृत्तिः
।
॥२०१॥
प्रवृत्तिस्तु चतुर्थ भक्तादिशब्दानामेकाधुपवासादिष्विति, भिक्षण शीलं धर्मः तत्साधुकारिता वा यस्य स भिक्षुर्भिनत्ति वा क्षुधमिति भिक्षुस्तस्य पानकानि-पानाहाराः, उत्स्वेदेन निवृत्तमुत्स्वेदिम-येन व्रीह्यादिपिष्ट सुराद्यर्थमुत्स्वेद्यते, तथा संसेकेन निवृत्तमिति संसेकिम-अरणिकादिपत्रशाकमुत्काल्य यत् शीतलजलेन संसिच्यते तदिति, तन्दुलधावनं प्रतीतमेव १, तिलोदकादि तत्प्रक्षालनजल, नवरं तुषोदक-त्री दकम् २, आयामकमवश्रावण सौवीरक-काजिक शुद्धविकटमुष्णोदकं ३, उपहृतमुपहितं, भोजनस्थाने ढौकित भक्तमिति भावः, फलिक-प्रहेणकादि, तच्च तदुपहृतं चेति फलिकोपहृतम् , अवगृहीताभिधानपञ्चमपिण्डैषणाविषयभूतमिति, तथा शुद्धमले पकृत शुद्धौदन च, तच्च तदुपहृत चेति शुद्धोपहृतम् , एतच्चाल्पलेपाभिधानचतुर्थेषणाविषयभूतमिति, तथा संस्पृष्ट नाम भोक्तुकामेन गृहीत, गृहीतकुरादौ क्षिप्तो हस्तः क्षिप्तो न तावन्मुखे क्षिपति तच्च लेपालेपकरणस्वभावमिति, तदेवंभूतमुपहृतं संस्पृष्टोपहृतम् , इदं चतुर्थेषणात्वेन भजनीय, लेपालेपकृतादिरूपत्वादस्येति, अत्र च गाथा-"सुद्धच अलेवकड , अहव ण सुद्धोदणो भवे सुद्धं । संसर्ट आउत्तं, [भोक्तुमारब्धमित्यर्थः] लेवाडमलेवड वावि ॥१॥"त्ति, इह त्रये एकद्वित्रिसंयोगैः सप्ताभिग्रहवन्तः साधवो भवन्तीति ४ । अवगृहीत नाम केनचित्प्रकारेण दायकेनात्तं भक्तादि 'यदि ति भक्तम् , चकाराः समुच्चयार्थाः, अवगृह्णाति-आदत्ते हस्तेन दायकस्तदवगृहीतम् , एतच्च षष्ठी पिण्डैपणेति, एवं च वृद्धव्याख्या-परिवेषकः पिढिकायाः कूरं गृहीत्वा यस्मै दातुकामस्तद्भाजने क्षेप्तुमुपस्थितः, इत्यादि ५। तथा अवममूनमुदरं-जठरं यस्यासाववमोदरः, अवम बोदरमवमोदरं तद्भावोऽवमोदरता, प्राकृतत्वादोमोयरियत्ति, अवमोदरस्य वा करणमवमोदरिका, व्युत्पत्तिरेवेयमस्य, प्रवृत्तिस्तूनतामात्रे, तत्र प्रथमा जिनकल्पिकादीनामेव न पुनरन्येषां
॥२०१॥
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सू० १८२॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२०२॥
शास्त्रीयोपध्यभावे हि समग्रसंयमाभावादिति, अतिरिक्ताग्रहणतो वोनोदरतेति, उक्तं च-"जवट्टइ उवयारे, उवगरणं तसि होइ उवगरण । अइरेग अहिगरण', अजओ अजय परिहरंतो ॥१॥" अयतश्च यत्तद् भुजानो भवती| त्यर्थः, भक्तपानावमोदरता पुनरात्मीयाहारमानपरित्यागतो वेदितव्या, उक्त च-"बत्तीस किर कवला, आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ । पुरिसस्स महिलियाए, अट्ठावीस भवे कवला ॥१॥ कवलाण य परिमाण, कुक्कुडिअंडपमाणमित्तं तु । जो वा अविगियवयणो, वयणमि छुहेज्ज वीसत्थो ॥२॥" इयं चाष्ट १ द्वादश २ पोडश ३ चतुर्विंशति-४ एकत्रिंशदन्तैः कवलैः ५ क्रमेणाल्पाहारादिसंज्ञिता पञ्चविधा भवति, 'एवम् । अनेनानुसारेण पानेऽपि वाच्या, भावोनीदरता पुनः क्रोधादित्यागः, उक्त च-"कोहाईणमणुदिण, चाओ जिणवयणभावणाओ य । भावेणोमोदरिया, पन्नत्ता वीयरागेहिं ॥१॥"६। उपकरणावमोदरिकाया भेदानाह-'उवकरणे'त्यादि, एक वस्त्र जिनकल्पिकादेरेव, एवं पात्रमपि, 'एग पाय जिणकप्पियाणमिति वचनादिति, तथा 'चियत्तेण' संयमोपकारकोऽयमिति प्रीत्या मलिनादावप्रीत्यकरणेन वा 'चियत्तस्स वा' संयमिनां संमतस्योपधेः-जोहरणादिकस्य 'साइजणय'ति सेवा 'चियत्तोवहिसाइज्जणय'त्ति ७ । 'चियत्तेण'ति प्रागुतमेतद्विपर्ययभेदान् सकलानाह-'तओ'इत्यादि स्पष्ट, किन्तु अहिताय-अपथ्याय असुखाय-दुःखाय अक्षमाय-अयुक्तत्वाय अनिःश्रेयसाय-अमोक्षाय अनानुगामिकत्वाय-न शुभानुबन्धायेति, कूजनता-आर्तस्वरकरण कर्करणता-शय्योपधिदोषोद्भावनागर्भ प्रलपनमपध्यानता-आर्त्तरौद्रध्यायित्वमिति ८ उक्तविपर्ययसूत्रं व्यक्तम् ९। निग्रन्थानामेव परिहर्त्तव्यत्रयमाह-'तओ'इत्यादि, शल्यते-वाध्यते अनेनेति शल्यं, द्रव्यतस्तोमरादि भावतस्तु इदं त्रिविध-माया-निकृतिः सैव शल्य मायाशल्यं १, एवं सर्वत्र, नवरं नितरां दीयते
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२०३॥
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लूयते मोक्षफलमनिन्द्यब्रह्मचर्यादिसाध्यं कुशलकम्र्म्मकल्पतस्वनमनेन देवर्द्धयादिप्रार्थनापरिणामनिशिता सिनेति निदानं २. मिथ्या - विपरीत दर्शनं मिथ्यादर्शन मिति ३, १० । निर्ग्रन्थानामेव लब्धिविशेषस्य कारणत्रयमाह - 'तिहि "ति सङ्क्षिप्तालघूकृता विपुला विस्तीर्णाऽपि सती अन्यथाऽऽदित्यविम्बवद् दुर्दर्शः स्यादिति तेजोलेश्या - तपोविभूतिज तेजस्वित्वं तैजसशरीरपरिणतिरूपं महाज्वालाकल्पं पेन स सक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः, आतापनानां - शीतादिभिः शरीरस्य सन्तापानां भाव आतापनता शीतातपादेः सहनमित्यर्थस्तया, 'क्षान्त्या' क्रोधनिग्रहेण क्षमा-मर्पण न त्वशऋततयेति क्षान्तिक्षमा तया, अपानकेन पारणककालादन्यत्र 'तपःकर्म्मणा' पष्ठादिनेति, अभिधीयते च भगवत्याम् - "जे णं गोसाला ! एगाए सनहाए कुम्मासपिंडियाए एगेण य वियडासणेण छछद्वेण अणिकिखत्तेण दवोकम्मेण उड़द वाहाओ पगिज्झिय २ सूराभिमुद्दे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ से ण अंतो छण्डं मासाणं संखित्तविउलतेयलेस्से भवः "त्ति ११ । 'तेमा सिय' मित्यादि, भिक्षुप्रतिमाः - साधोरभिग्रह विशेषाः, ताथ द्वादश, तत्रैकमासिक्रयादयो मासोत्तरा सप्त तिस्रः सप्तरात्रन्दिवप्रमाणाः प्रत्येकमेकाऽहोरात्रिकी एका एकरात्रिकीति, तत्र त्रिमासिकी तृतीया, तां प्रतिपन्नस्याश्रितस्य 'दत्तिः' सकृत्प्रक्षेपलक्षणेति १२ । एकरात्रिकी द्वादशी तां सम्यगननुपालयतः उन्मादश्चित्तविभ्रमो, रोगः कुष्ठादिरातङ्कः शूलविशुचिकादिः सद्योघाती, स च स चेति रोगातङ्क' ' पाउणेज्जे 'त्ति प्राप्नुयात् 'धर्मात् ' श्रुतचारित्रलक्षणाद् भ्रश्येत्, सम्यक्त्वस्यापि हान्येति, उन्मादरोगधर्म्मभ्रंशाः प्रतिमायाः सम्यगननुपालनाजन्या 'अहितार्थार्थाः' दुःखार्था भवन्तीति हृदयम् १३ । विपर्ययसूत्रमेतदनुसारतो बोद्धव्यमिति १४ ॥ उक्तरूपाणि साध्वजुष्ठानानि कर्मभूमिष्वेव भवन्तीति तन्निरूपणायाह
सू० १८२ ।
॥२०३॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥२०४॥
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जंबूद्दीवे दीवे तओ कम्मभूमीओ पं० त०-भरहे परवर महाविदेहे, एवं धायइसंडे दीवे पच्चत्थिमद्धे पुरच्छिमद्धे जाव पुक्खरवरदीवडूढपच्चत्थिमद्धे ५ ( सू० १८३) । तिविहे दंसणे पं० त० - सम्मदंसणे मिच्छ दंसणे सम्मामिच्छदंसणे १ तिविहा रुई पं० त० सम्मरुई मिच्छरुई सम्मामिच्छरुई २, तिविहे पओगे पं० त०सम्मपओगे मिच्छपओगे सम्मामिच्छपओगे ३, (सू०१८४) । तिविहे ववसाए पं०त०- धम्मिए ववसाए अधम्मिए ववसाप धम्मियाधम्मिए ववसाए ४, अहवा तिविहे ववसाए पं० त०- पञ्चकखे पच्चइप आणुगामिए ५, अहवा तिविहे ववसाप पं० त०-इहलोइप परलोइए इहलोगपरलोइए ६, इहलोइए ववसाए तिविहे पं० त० - लोइप वेइए सामइप ७, लोइए ववसाए तिविहे पं० त०-अत्थे धम्मे कामे ८, वेदिए ववसाए तिविहे पं० त० - रिउब्वेइए जउव्वेइए सामare ९, सामतिए ववसाए तिविहे पं० त०-- णाणे दंसणे चरित्ते १०, तिविहा अत्थजोणी पं० त०-साम दंडो भेदो ११, ( सू० १८५) ।
''बूदीवे' त्यादिसूत्राणि साक्षादतिदेशाभ्यां पञ्च सुगमानि चेति । उक्ताः कर्मभूमयः अथ तद्गतजनधर्म्मनिरूपणायाह–‘तिविहे’त्यादिसूत्राण्येकादश कण्ठयानि, किन्तु त्रिविधं दर्शन - शुद्धाशुद्धमिश्रपुरञ्जयरूपं मिथ्यात्वमोहनीयं तथाविधदर्शनहेतुत्वादिति १, रुचिस्तु तदुदयसम्पाद्यं तत्त्वानां श्रद्धान' २, 'प्रयोग' सम्यक्त्वादिपूर्वो मनःप्रभृतिव्यापारोऽथवा सम्यगादिप्रयोगः - उचितानुचितोभयात्मक औषधादिव्यापारः ३, 'व्यवसायो' वस्तुनिर्णयः पुरुषार्थसिद्ध्यर्थमनुष्ठानं वा, स च व्यवसायिनां 'धार्मिका १ धार्मिक २ धार्मिकाधाम्मिकाणां ३' संयतासंयतदेशस - यतलक्षणानां सम्वन्धित्वादभेदेनोच्यमानस्त्रिधा भवतीति, संयमास यमदेशसं यमलक्षण विषयभेदाद्वा ४, व्यवसायो
सू० १८३-१८४ १८५ ।
॥२०४॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२०॥
00000000000000000000000000000000000000000000000000000000
निश्चयः स च प्रत्यक्षोऽवधिमनःपर्यायकेवलाख्यः, प्रत्ययादिन्द्रियानिन्द्रियलक्षणानिमित्ताज्जातः प्रात्ययिकः, साध्यमग्न्यादिकमनुगच्छति साध्याभावे न भवति यो धूमादिहेतुः सोऽनुगामी, ततो जातमानुगामिकमनुमान, तपो व्यवसाय आनुगामिक एवेति, अथवा प्रत्यक्षः-स्वयंदर्शनलक्षणः, प्रात्ययिकः-आप्त(त्म)वचनप्रभवः, तृतीयस्तथैवेति ५, इहलोके भव ऐहलौकिको-य इहभवे वर्तमानस्य निश्चयोऽनुष्ठान वा स ऐहलौकिको व्यवसाय इति भावः, यस्तु परलोके भविष्यति स पारलौकिकः, यस्त्विह परत्र च स ऐहलौकिकपारलौकिक इति ६, लौकिकः सामान्यलोकाश्रयो निश्चयोऽनुष्ठान वा, वेदाश्रितो वैदिकः, समयः-साङ्ख्यादीनां सिद्धान्तस्तदाश्रितस्तु सामयिकः ७, लौकिकादयो व्यवसायाः प्रत्येक त्रिविधास्ते च प्रतीता एव, नवरमर्थधर्मकामविषयो निर्णयो यथा"अर्थस्य मूलं निकृतिः क्षमा च, धर्मस्य दान च दया दमश्च । कामस्य वित्तं च वपुर्वयश्च, मोक्षस्य सर्वोपरमः क्रियासु ॥१॥" इत्यादिरूपस्तदर्थ मनुष्ठान वा अर्थादिरेव व्यवसाय उच्यत इति, ८, ऋग्वेदाधाहितो निर्णयो. व्यापारो वा ऋग्वेदादिरेवेति ९, ज्ञानादीनि सामायिको व्यवसायः, तत्र ज्ञान व्यवसाय एव पर्यायशब्दत्वात् दर्शनमपि श्रद्धानलक्षण व्यवसायो, व्यवसायांशत्वात्तस्येति प्रतिपादितमेव, चारित्रमपि समभावलक्षणो व्यवसाय एव, बोधस्वभावस्यात्मनः परिणतिविशेषत्वात् १०, अर्थस्य राज्यलक्ष्म्यादेोनिरुपायोऽर्थयोनिः, साम - प्रियवचनादि दण्डो-वधादिरूपः परनिग्रहः भेदो-जिगीषितशत्रुवर्गस्य ॥ स्वाम्यादिस्नेहापनयनादिः, कचिद् दण्डपदत्यागेन प्रदानेन सह तिस्रोऽर्थयोनयः पठयन्ते, भवन्ति चात्र श्लोकाः"परस्परोपकाराणां, दर्शन १ गुणकीर्तनम् २ । सम्बन्धस्य समाख्यान ३मायत्याः सम्प्रकाशनम् ४ ॥१॥" अस्मि
300000000000000000000000000000000000000000000000000
॥२०॥
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सू०१८५-१८६।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२०६॥
न्नेवं कृते इदमावयोर्भविष्यतीत्याशाजननमायतिसम्प्रकाशनमिति, "वाचा पेशलया साधु, तवाहमिति चार्पणम् ५ । इति सामप्रयोगः, साम पञ्चविध स्मृतम् ॥२॥ वधश्चैव परिकलेशो, धनस्य हरण तथा । इति दण्डविधान - दण्डोऽपि त्रिविधः स्मृतः ॥३॥" संहर्ष:-स्पर्द्धा सन्तर्जन च-अस्यास्मन्मित्रवर्गस्य( विग्रहस्य) परित्राण मत्तो भविष्यतीत्यादिरूपमिति, प्रदानलक्षणमिदम्-"यः सम्प्राप्तो धनोत्सर्गः, उत्तमाधममध्यमः । प्रतिदान तथा तस्य, गृहीतस्यानुमोदनम् ॥१॥ द्रव्यदानमपूर्व च, स्वयंग्राहप्रवर्तनम् । देयस्य प्रतिमोक्षश्च, दानं पञ्चविधं स्मृतम् ।।२।।" धनोत्सर्गो-धनसम्पत् स्वयंग्राहप्रवर्त्तनम्-परस्त्रेषु देयप्रतिमोक्ष-ऋणमोक्ष इति, प्रयोगश्चासामेवम्-"उत्तम प्रणिपातेन, शूरं भेदेन योजयेत् । नीचमल्पप्रदानेन, सम तुल्यपराक्रमैः ॥१॥" इति ॥ अनन्तरं जीवा धर्मतः प्ररूपिताः इदानीं पुद्गलांस्तथैव प्ररूपयन्नाह
तिविहा पोग्गला पं० त०-पओगपरिणया मीसापरिणया वीससापरिणया, तिपइट्ठिया गरगा पं० त०-पुढविपइट्ठिया आगासपइट्ठिया आयपइट्ठिया, णेगमसंगहववहाराण पुढविषइट्ठिया, उज्जुसुत्तस्स आगासपतिट्टिया तिण्ह सद्दणयाण आयपइडिया (सू० १८६) ।
तिविह'त्ति प्रयोगपरिणताः-जीवव्यापारेण तथाविधपरिणतिमुपनीताः, यथा पटादिषु कर्मादिषु वा, 'मीस'त्ति प्रयोगविस्रसाभ्यां परिणताः, यथा पटपुद्गला एव प्रयोगेण पटतया विस्रसापरिणामेन चाऽभोगेऽपि पुराणतयेति, विस्रसा-स्वभावः तत्परिणता अभेन्द्रधनुरादिवदिति । पुद्गलप्रस्तावाद्विस्रसापरिणतपुद्गलरूपाणां नरकावासानां प्रतिष्ठाननिरूपणायाह - 'तिपइट्ठिए'त्यादि, स्फुट, केवल नरका-नारकावासाः आत्मप्रतिष्ठिता-स्वरूपप्रतिष्ठिताः ।
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॥२०६॥
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सू०१८६।
श्रीस्थानाक
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
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॥२०७||
तत्प्रतिष्ठान नयैराह-'णेगमे त्यादि, नैकेन-सामान्यविशेषग्राहकत्वात्तस्य नैकेन ज्ञानेन मिनोति परिच्छिनत्तीति नैकमः, अथवा निगमा:-निश्चितार्थबोधास्तेषु कुशलो भवो वा नैगमः १, संग्रहण भेदानां, संगृह्णाति वा तान् संगृह्यते वा ते येन स सङ्ग्रहो-महासामान्यमात्राभ्युपगमपर इति २, व्यवहरण ब्यवहियते वा तेन विशेषेण वा सामान्यमवह्रियते-निराक्रियतेऽनेनेति लोकव्यवहारपरो वा व्यवहारो-विशेषमात्राभ्युपगमपरः ३, एतेषां नयानां मतेनेति गम्यम् , ऋजु-अवक्रमभिमुखं श्रुत-श्रुतज्ञान यस्येति ऋजुश्रुतः, ऋजु वा-अतीतानागतवक्रपरित्यागाद् वर्तमान वस्तु सूत्रयति गमयतीति ऋजुसूत्रः-स्वकीय साम्प्रतंच वस्तु नान्यदित्यभ्युपगमपरः ४, शब्द्यतेअभिधीयतेऽभिधेयमनेनेति शब्दो-वाचको धनिः, नयन्ति-परिच्छिन्दन्त्यनेकधर्मात्मक सद् वस्तुसा(अन)वधारणतयैकेन धर्मेणेति नयाः, शब्दप्रधाना नयाः शब्दनयाः, ते च त्रयः-शब्दसमभिरूढेवंभूताख्याः, तत्र शब्दनमभिधानं शब्द्यते वा येन वस्तु स शब्दः, तदभिधेयविमर्शपरो नयोऽपि शब्द एवेति, स च भावनिक्षेपरूपं वर्तमानमभिन्नलिङ्गवाचकं बहुपर्यायमपि च वस्त्वभ्युपगच्छतीति ५, वाचक वाचकं प्रति वाच्यभेदं समभिरोहयति-आश्रयति यः स समभिरूढः, सह्यनन्तरोक्तविशेषणस्यापि वस्तुनः शक्रपुरन्दरादिवाचकभेदेन भेदमभ्युपगच्छति घटपटादिवदिति, यदा शब्दार्थों घटते-चेष्टत इति घट इत्यादिलक्षणः ६, 'एव'मिति तथाभूतः सत्यो घटादिरों | नान्यथेत्येवमभ्युपगमपर एवंभूतो नयः, अयं हि भावनिक्षेपादिविशेषणोपेतं व्युत्पत्त्याविष्टमेवार्थमिच्छति, जलाहरणादिचेष्टावन्त घटमिवेति ७, तत्राद्यत्रयस्याशुद्धत्वात् प्रायो लोकव्यवहारपरत्वाच्च पृथिवीप्रतिष्ठितत्व नरकाणामिति मतं, चतुर्थस्य शुद्धत्वादाकाशस्य च गच्छतां तिष्ठतां वा सर्व भावानामेकान्तिकाधारत्वाद् भुवोऽनैकान्तिक
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॥२०७॥
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१८७।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२०८॥
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त्वाच्चाकाशप्रतिष्ठितत्वमिति, त्रयाणां तु शुद्धतरत्वात् सर्वभावानां स्वभावलक्षणाधिकरणस्यान्तरङ्गत्वादव्यभिचारित्वाच्चात्मप्रतिष्ठितत्वमिति, न हि स्वस्वभावं विहाय परस्वभावाधिकरणा भावाः कदाचनापि भवन्तीति, यत आह"वत्थु बसइ सहावे, सत्ताओ चेयणव्व जीवम्मि । न विलक्खणतणाओ, भिन्ने [अन्यत्र छायातवे चेव ॥१॥"त्ति।। नरकेषु च मिथ्यात्वाद गतिर्जन्तूनां भवतीति अथवा नया मिथ्यादृश इति सम्बन्धान्मिथ्यात्वस्वरूपमाह
तिविहे मिच्छत्ते पं० त०-अकिरिया अविणए अण्णाणे १, अकिरिया तिविहा पं० त०-पओगकिरिया समु. दाणकिरिया अण्णाणकिरिया २, पओगकिरिया तिविहा पं० त०-मणप्पओगकिरिया वइपओगकिरिया कायपओगकिरिया ३, समुदाणकिरिया तिविहा ५० त०-अणंतरसमुदाणकिरिया परंपरसमुदाणकिरिया तदुभयसमुदाणकिरिया ४, अण्णाणकिरिया तिविहा ५० त०-मइअण्णाणकिरिया सुतअण्णाणकिरिया विभंगअण्णाणकिरिया ५, अविणए तिविहे पं० त०-देसञ्चायी निरालंबणया णाणापेजदोसे ६, अण्णाणे तिविहे ५० त०-देसण्णाणे सब्वण्णाणे भावण्णाणे ७ (सू० १८७)। _ 'तिविहे' इत्यादिसूत्राणि सप्त सुगमानि, नवर मिथ्यात्वं विपर्यस्तश्रद्धानमिह न विवक्षित, प्रयोगक्रियादीनां वक्ष्यमाणतभेदानामसम्बद्धयमानत्वात् , ततोऽत्र मिथ्यात्वं क्रियादीनामसम्यग्रपता मिथ्यादर्शनानाभोगादिजनितो विपर्यासो दुष्टत्वमशोभनत्वमिति भावः, 'अकिरिय'त्ति नञिह दुःशब्दार्थों यथा अशीला दुःशीलेत्यर्थः, ततश्चाक्रिया-दुष्टक्रिया मिथ्यात्वाद्युपहतस्यामाक्षसाधकमनुष्ठान, यथा मिथ्यादृष्टेनिमप्यज्ञानमिति, एवमविनयोऽपि, अज्ञानमसम्यग्ज्ञानमिति, अक्रिया हि अशोभना क्रियैवाऽतोऽक्रिया त्रिविधेत्यभिधायापि प्रयोगेत्यादिना क्रियेवो
5000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥२०८॥
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सू०१८७।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२०॥
कतेति, तत्र वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतवीर्येणात्मना प्रयुज्यते-व्यापार्यत इति प्रयोगो-मनोवाकायलक्षणस्तस्य क्रियाकरण व्यापृतिरिति प्रयोगक्रिया, अथवा प्रयोगैः-मनःप्रभृतिभिः क्रियते-बध्यत इति प्रयोगक्रिया कर्मेत्यर्थः, सा च दुष्टत्वादक्रिया, अक्रिया च मिथ्यात्वमिति सर्वत्र प्रक्रमः, 'समुदाण'ति प्रयोगक्रिययैकरूपतया गृहीतानां कर्मवर्गणानां समिति-सम्यक प्रकृतिबन्धादिभेदेन देशसर्वोपघातिरूपतया च आदान-स्वीकरण समुदान निपातनात्तदेव क्रिया-कर्मति समुदानक्रियेति १, अज्ञानाद् या चेष्टा कर्म वा साऽज्ञानक्रियेति २, प्रयोगक्रिया त्रिविधा व्याख्यातार्था ३, नास्त्यन्तर-व्यवधान यस्याः साऽनन्तरा, सा चासौ समुदानक्रिया चेति विग्रहः, प्रथमसमयवर्तिनीत्यर्थः, द्वितीयादिसमयवर्तिनी तु परम्परसमुदानक्रियेति, प्रथमाप्रथमसमयापेक्षया तु तदुभयसमुदानक्रियेति ४, 'मइअण्णाणकिरिय'त्ति-"अविसेसिया मइ चिय, सम्मदिहिस्स सा मइष्णाण । मइअण्णाण मिच्छा-दिहिस्स सुयपि एमेव ॥१॥"त्ति, मत्यज्ञानात् क्रिया-अनुष्ठान मत्यज्ञानक्रिया, एवमितरे अपि, नवरं विभङ्गो-मिथ्यादृप्टेरवधिः स एवाज्ञान विभङ्गाज्ञानमिति । 'अविणए'त्यादि, विशिष्टो नयो विनयः-प्रतिपत्तिविशेषः तत्प्रतिषेधादविनयः, देशस्यजन्मक्षेत्रादेस्त्यागो देशत्यागः स यस्मिन्नविनये प्रभुगालीप्रदानादावस्ति स देशत्यागी, निर्गत आलम्बनादआश्रयणीयाद् गच्छकुलादे(० कुटुम्बकादे)रिति निरालम्बनस्तद्भावो निरालम्बनता-आश्रयणीयानपेक्षत्वमिति भावः, पुष्टालम्बनाभावेन वोचितप्रतिपत्तिभ्रंशः, प्रेम च द्वेषश्च प्रेमद्वेष नानाप्रकारं प्रेमद्वेष नानाप्रेमद्वेषमविनयः, इयमत्र भावना-आराध्यविषयमाराव्यसंमतविषय वा प्रेम तथाऽऽराध्यसंमतविषयो द्वेष इत्येवं नियतावेतौ विनयः स्यात् , उक्तं च-"सरुपि नतिः स्तुतिवचनं, तदभिमते प्रेम तद्विषि द्वेषः। दानमुपकारकीर्तन-ममन्त्रमूलं वशीकरणम् ।।१।।"
॥२०॥
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सू० १८७-१८८।
श्रोस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२१०॥
इति, नानाप्रकारौ तु तावाराध्यतत्संमतेतरलक्षणविशेषाऽनपेक्षत्वेनानियतविषया विनय इति, अज्ञानमिथ्यात्वमित उच्यते-'अण्णाणे'त्यादि, ज्ञान हि द्रव्यपर्यायविषयो बोधस्तन्निषेधोऽज्ञान, तत्र विवक्षितद्रव्य देशतो यदा न जानाति तदा देशाज्ञानमकारप्रश्लेपात , यदा सर्वतस्तदा सर्वाज्ञान, यदा विवक्षितपर्यायतो न जानाति तदा भावाज्ञानमिति । उक्त मिथ्यात्वं, तच्चाधर्म इति तद्विपर्ययमधुना धर्ममाह--
तिविहे धम्मे पं० सुयधम्मे चरित्तधम्मे अस्थिकायधम्मे, तिविहे उवक्कमे पंत-धम्मिए उवक्कमे अधम्मिए उवक्कमे धम्मियाधम्मिए उवक्कमे १, अहवा तिविहे उवक्कमे पंत-आओवक्कमे परोवक्कमे तदुभयोवक्कमे २, एवं वेयावच्चे ३, अणुग्गहे ४, अणुसट्ठी ५, उवालंभे ६, एवं पक्केक्के तिण्णि तिण्णि आलावगा जहेव उवक्कमे (सू० १८८)। ___'तिविहे धम्मे' इत्यादि, श्रुतमेव धर्मः श्रुतधर्मः-स्वाध्यायः, एवं चारित्रधर्म:-क्षान्त्यादिश्रमणधर्मः, अयं च द्विविधोऽपि द्रव्यभावभेदे धर्मे भावधर्म उक्तः, यदाह-"दुविहो उ भावधम्मा, सुयधम्मो खलु चरित्तधम्मो य । मुयधम्मो सज्झाओ, चरित्तधम्मो समणधम्मो ॥१॥"त्ति, अस्तिशब्देन प्रदेशा उच्यन्ते, तेषां कायो-राशिरस्तिकायः स चासो संज्ञया धर्मश्चेत्यस्तिकायधर्मो, गत्युपष्टम्भलक्षणो धर्मास्तिकाय इत्यर्थः, अयं च द्रव्यधर्म इति । अनन्तरं श्रुतधर्माचारित्रधर्मावुक्तावधुना तद्विशेषानाह-'तिविहे उवक्कमे' इत्यादि, सूत्राण्यष्टौ मुगमानि, परमुपक्रमणमुपक्रमःउपायपूर्वक आरम्भः, धर्म-श्रुतचारित्रात्मके भवः स वा प्रयोजनमस्येति धार्मिकः, श्रुतचारित्रार्थ आरम्भ इत्यर्थः, तथा न धाम्मिकोऽधार्मिक:-असंयमार्थः, तथा धार्मिकश्चासौ देशतः संयमरूपत्वाद् अधार्मिकश्च तथैवासंयमरूप
00000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥२१०॥
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सू०१८८
श्रीस्थानाक
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२१॥
त्वाद् धार्मिकाधामिकः, देशविरत्यारम्भ इत्यर्थः १ । अथ स्वाम्यन्तरभेदेनोपक्रममेव त्रिधाऽऽह-तत्रात्मनोऽनुकूलोपसर्गादौ शीलरक्षणनिमित्तमुपक्रमा-बैहानसादिना विनाशः परिकर्म वा आत्मार्थ वा उपक्रमोऽन्यस्य वस्तुनः आत्मोपक्रम इति, तथा परस्य परार्थ वोपक्रमः परोपक्रम इति, तदुभयस्य-आत्मपरलक्षणस्य तदुभयार्थ वोपक्रमस्तदुभयोपक्रम इति २ । 'एव'मिति उपक्रमसूत्रबद् आत्मपरोभयभेदेन वैयावृत्त्यादयो वाच्याः, व्यावृत्तस्य भावः कर्म वा वैयावृत्त्य-भक्तादिभिरुषष्टम्भः, तत्रात्मवैयावृत्त्यं गच्छनिर्गतस्यैव, परवैयावृत्त्यं ग्लानादिप्रतिजागरकस्य, तदुभयवैयावृत्त्यं गच्छवासिन इति ३ । अनुग्रहो- ज्ञानाद्युपकारः, तत्राऽऽत्मानुग्रहोऽध्ययनादिप्रवृत्तस्य, परानुग्रहो वाचनादिप्रवृत्तस्य, तदुभयानुग्रहः शास्त्रव्याख्यानशिष्यसङ्ग्रहादिप्रवृत्तस्येति ४ । अनुशिष्टिरनुशासन, तत्रात्मनो यथा-"बायालीसेसणसंकमि, गहणंमि जीव ! न हु छलिओ । इहिं जह न छलिजसि, मुंजतो रागदोसेहिं ॥१॥"ति, तथा विधेयनिति शेष इति, परानुशिष्टिर्यथा-"ता तंसि भावविज्जो, भवदुक्खनिपीडिता तुहं एते । हंदि सरण पवन्ना, मोएयव्वा पयत्तेण ॥२॥"ति, तदुभयानुशिष्टिर्यथा"कहकहवि माणुसत्ताइ, पावियं चरणपवररयण च । ता भो ! एत्थ पमाओ, कइयावि न जुज्जए अम्हं ॥३॥"ति, ५ । उपालम्भः-इयमेवानौचित्यप्रवृत्तिप्रतिपादनगर्भा, स चात्मनो यथा-"चोल्लगदिटुंतेण, दुलहं लहिऊण माणुसं जम्म । ज न कुणसि जिणधम्म, अप्पा किं वेरिओ तुज्झ ? ॥१॥"त्ति, परोपालम्भो यथा-"उत्तमकुलसंभूओ, उत्तमगुरुदिक्खिओ तुम वच्छ ! । उत्तमनाणगुणड्ढो, कह सहसा वसिओ एवं ? ॥२॥"ति, तदुभयोपालम्भो यथा-"एगस्स कए नियजीवियस्स, बहुयाओ जीवकोडीओ । दुक्खे ठवंति जे केवि, ताण किं सासय
10000-00-00-6000-0000-00-000000000000000000000000000000000000
॥२१२॥
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श्रीस्थानाङ्क
सूत्रदीपिका वृत्तिः । ॥२१२॥
100000000000000000000000000000000000000000000000000000
जीय? ॥३॥"ति ६ । 'एव'मित्यादिना पूर्वोक्तोऽतिदेशो व्याख्यातः, एवं चात्राऽक्षरघटना-यथैवोपक्रमे आत्मपरतदुभयैस्त्रयवय आलापका उक्ता एवमेकैकस्मिन् वैयावृत्त्यादिसूत्रे ते त्रयस्त्रयो वाच्या इति ॥ अथ श्रुतधर्मभेदा उच्यन्ते
तिविहा कहा पं० त०-अत्थकहा धम्मकहा कामकहा ७, तिविहे विणिच्छए पं० त०-अत्थविणिच्छप धम्म'विणिच्छए कामविणिच्छए ८, (सू० १८९) ।
तिविहा कह'त्ति, अर्थस्य-लक्ष्म्याः कथा-उपायप्रतिपादनपरो वाक्यप्रबन्धोऽर्थकथा, उक्त च-"सामादिधातुवादादि-कृष्यादिप्रतिपादिका । अर्थोपादानपरमा, कथाऽर्थस्य प्रकीर्तिता ॥१॥" तथा-"अर्थाख्यः पुरुषार्थोऽय, प्रधानः प्रतिभासते । तृणादपि लघु लोके, धिगर्थरहितं नरम् ॥१॥” इति, इयं कामन्दकादिशास्त्ररूपा, एवं धर्मोपायकथा धर्मकथा, उक्त च-"दयादानक्षमायेषु धर्मागेषु, प्रतिष्ठिता। धर्मापादेयतागर्भा, बुधैर्धर्मकथोच्यते ॥१॥" तथा-"धर्माख्यः पुरुषार्थोऽयं, प्रधान इति गीयते । पापसक्त पशोस्तुल्यं, धिग्धर्मरहितं नरम् ॥२॥" इति, इयं चोत्तराध्ययनादिरूपाऽवसेयेति, एवं कामकथाऽपि, यदाह-"कामोपादानगर्भा च, वयोदाक्षिण्यसूचिका । अनुरागेगिताद्युत्था, कथा कामस्य वर्णिता ॥१॥" तथा-"स्मित न लक्षण वचो न कोटिभिः, न कोटिलक्षः सविलासमीक्षितम् । अवाप्यतेऽन्यैह दयोपगृहन, न कोटिकोट्रयाऽपि तदस्ति कामिनाम् ।।१।।"इति, इयमपि वात्स्यायनादिरूपाऽवसेयेति, प्रकीर्णा वा तत्तदर्था वचनपद्धतिः कथा चरित्रवर्णनरूपा वा, 'अस्थविणिच्छए'त्ति अर्थादिविनिश्वयाः-अर्थादिस्वरूपपरिज्ञानानि, तानि च-"अर्थानामर्जने दुःख-मर्जितानां च रक्षणे । आये दुःख, व्यये दुःख, धिगर्थं दुःखकारणम् ॥१॥" तथा-"धनदो धनार्थिनां धर्मः, कामदः सर्वकामिनाम् । धर्म एवाऽपवर्गस्य, पारम्पर्यण
॥२२॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०१८९-१९०।
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२१३॥
साधकः ॥२॥" तथा-शल्यं कामा विषं कामाः, कामा आशीविषोपमाः । कामानभिलपन्तोऽपि, निष्कामा यान्ति दुर्गतिम् ॥३॥" इत्यादीनि ॥ अनन्तरमादिविनिश्चय उक्त इति तत्कारणफलपरम्परां त्रिस्थानकानवतारिणीमपि प्रसङ्गतो भगवत्प्रश्नद्वारेण निरूपयन्नाह
तहारूवं ण भंते ! समण वा माहण वा पज्जुवासमाणस्स किंफला पज्जुवासणया ?, सवणफला, से ण भंते ! सवणे किंफले ?, णाणफले, से ण भंते ! णाणे किंफले ?, विण्णाणफले, एवं एएण अभिलावेण इमा गाहा अणुगंतव्या-सवणे णाणे य विण्णाणे, पञ्चक्खाणे य संजमे । अणण्हए तवे चेव, वोदाणे अकिरिय णिवाणे ॥१॥ जाव से ण भंते ! अकिरिया किंफला ?, णिव्वाणफला, से ण भंते ! णिव्वाणे किंफले?, सिद्धिगइगमणपज्जयसाणफले पण्णत्ते, समणाउसो ! (सू० १९०)। तइअस्स तइओ उद्देसओ सम्मत्तो ॥
तहारूवे'त्यादि पाठसिद्ध, केवल पर्युपासना-सेवा, श्रवण फलं यस्याः सा तथा, साधवो हि धर्मकथादिस्वाध्याय कुर्वन्तीति श्रवण तत्सेवायां भवतीति, ज्ञान-श्रुतज्ञान, विज्ञानमर्यादीनां हेयोपादेयत्वविनिश्चयः, 'एव'मिति पूर्वोक्तेनाभिलापेन 'से ण भंते ! विनाणे किंफले ?, गोयमा ! पच्चकखाणफले'इत्यादिना, इयं गाथा अनुगन्तव्या-अनुसरणीया, एतद्गाथोक्तानि पदान्यध्येतव्यानीत्यर्थः, 'सवणे' इत्यादि, भावितार्था, नवरं प्रत्याख्यान-निवृत्तिद्वारेण प्रतिज्ञाकरण, संयमः-प्राणातिपाताद्यकरणम् , अनाश्रवो-नवकर्मानुपादानम् , अनाश्रवाल्लघुकर्मत्वेन तपोऽनशनादिभेद भवति, व्यवदान-पूर्वकृतकर्मवनलवन 'दार लवने' इति वचनात् कर्मकचवरशोधन | वां, 'देप् शोधने' इति वचनादिति, अक्रिया-योगनिरोधः, निर्वाण कर्मकृतविकाररहितत्वं, सिद्धयन्ति-कृतार्था भवन्ति
॥२१॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥२२४॥
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यस्यां सा सिद्धि: - लोकाग्र सैव गम्यमानत्वाद् गतिस्तस्यां गमनं तदेव पर्यवसानफल - सर्वान्तिमप्रयोजन यस्य निर्वाणस्य तत् सिद्धिगतिगमनपर्यवसानफलं प्रज्ञप्तं मया अन्यैश्व केवलिभिः, हे श्रमणायुष्मन्निति गौतमादिक शिष्य भगवानामन्त्रयन्निदमुवाचेति । त्रिस्थानकस्य तृतीयोदेशकः समाप्तः ॥
व्याख्यातस्तृतीयोदेशकः, अधुना चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - पूर्वस्मिन्नुदेशके पुद्गलजीवधर्मास्त्रित्वेनो इहापि त एव तथैवोच्यन्त इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्येदमादिसूत्रषट्क' 'पडिमे'त्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः - पूर्व सूत्रे श्रमणमाहनस्य पर्युपासनायाः फलपरम्परोक्ता इह तु तद्विशेषस्य कल्पविधिरुच्यत इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या
पडिमा पडिवन्नस्स णं' अणगारस्स कप्पंति तओ उवस्सया पडिलेहित्तए, जहा अहे आगमण िहंसि वा अहे farsगिर्हसि वा अहे रुक्खमूलगिहंसि वा, एवं अणुण्णवेत्तर, उवाइणित्तए । पडिमापडिवन्नस्स णं अणगारस्स कति त संथारा पडिलेहित्तए, त० - पुढविसिला कट्ठसिला अहासंथडमेव, एवं अणुण्णवेत्तर उवाइणित्तप ( सू० १९९) ।
'प्रतिमा' मासिक्यादिकां भिक्षुप्रतिमाविशेषलक्षणां प्रतिपन्नोऽभ्युपगतवान् यः स तथा तस्यानगारस्य 'कल्पन्ते' युज्यन्ते त्रय उपाश्रीयन्ते - भज्यन्ते शीतादित्राणार्थं ये ते उपाश्रयाः - वसतयः प्रत्युपेक्षितुमवस्थानार्थ निरीक्षितुमिति, 'अहे'त्ति अथार्थ:, अथशब्दवेह पदत्रयेऽपि त्रयाणामप्याश्रयाणां प्रतिमाप्रतिपन्नस्य साधोः कल्पनीयतया तुल्यताप्रतिपादनार्थी वा विकल्पार्थः पथिकादीनामागमनेनोपेत तदर्थ वा गृहमागमनगृहं - सभाप्रपादि यदाह
सू० १९०-१९९ ।
॥२१४॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥२१५॥
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“आगंतु गारत्थजणो जहिं तु, संठाइ जं वाऽऽगमणंमि तेसिं । तं आगमो किं तु विदु वयंति, सभापवादेउमाइयं च ॥१॥"त्ति, तस्मिन्नुपाश्रयस्तदेकदेशभूतः प्रत्युपेक्षितुं कल्पत इति प्रक्रम इति, तथा 'वियड' ति विवृतम्अनावृत, तच्च द्वेधा-अध ऊर्ध्वं च तत्र पार्श्वत एकादिदिक्षु अनावृतमधोविवृत अनाच्छादितममालगृहं चोर्ध्वविवृत ं तदेव गृहं विवृतगृहम् तस्मिन् वा, तथा वृक्षस्य - करीरादेर्निर्गलस्य मूलमधोभागस्तदेव गृहं वृक्षमूलगृहं तस्मिन् वेति । प्रत्युपेक्षया चोपाश्रये शुद्धे गृहस्थं प्रति तदनुज्ञापनं भवतीत्यनुज्ञापनासूत्रम् - 'एव' मिति, एतदेव 'पडिमा पडिवन्ने' त्याद्युच्चारणीय, नवरं प्रत्युपेक्षणास्थाने अनुज्ञापनं वाच्यमिति । अनुज्ञाते च गृहिणा तस्योपादानमित्युपादानसूत्रं, तदप्येवमेवेतिं, 'उवायणावित्तए'त्ति उपादातुं ग्रहीतुं प्रवेष्टुमित्यर्थः, एवं संस्तारकसूत्रत्रयमपि, नवरं पृथिवीशिला 'उगोत्ति यः प्रसिद्धः काष्ठं चासौ शिलेवायतिविस्ताराभ्यां शिला सा चेति काष्ठशिला, ' यथासंस्कृतमेवे 'ति यत्तृणादि यथोपभोगाई भवति तथैव लभ्यते इति । प्रतिमाच नियतकाला भवन्तीति कालं त्रिधाss -
तिविहे काले पं० त०-तीते पपन्ने अणागते, तिविहे समए पं० त०-तीते पपन्ने अणागते, एवं आवलिया आणापाणू थोवे लवे मुहुत्ते अहोरते जाव वाससतसहस्से पुव्यंगे पुग्वे जाव ओसप्पिणी, तिविधे पोग्गलपरियटे पं० त०-तीते पदुष्पस्ने अणागते ( सू० १९२) । तिविधे वयणे पं० त० - पगवयणे दुवयणे बहुवयणे, अहवा तिविधे वयणे पं० त०-इत्थवयणे पुरिसवयणे णपुंसगवयणे, अहवा तिविहे वयणे पं० त ० तीयवयणे पडपण्णवयणे अणागतवयणे ( सू० १९३ ) ।
सू० १९१-१९२१९३ ।
॥२२५॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥२१६॥
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'तिविहे'त्ति अति-अतिशयेनेतो- गतोऽतीतः, पिधानवदकारलोपे तीतो, वर्तमानत्वमतिक्रान्त इत्यर्थः, साम्प्रतमुत्पन्नः प्रत्युत्पन्नो वर्त्तमान इत्यर्थः, न आगतोऽनागतो वर्तमानत्वमप्राप्तो भविष्यन्नित्यर्थः । कालसामान्य विधाविभज्य तद्विशेषांस्त्रिधा विभजन्नाह - 'तिविहे समए 'इत्यादिकालसूत्राणि, समयादयो द्विस्थानकाद्योदेशकवद् व्याख्येयाः, नवरं 'पोग्गलपरियट्टे' इत्यादि वृत्तौ । एते च समयादयः पुद्गलपरिवर्त्तान्ताः स्वरूपेण बहवोऽपि तत्सामान्यलक्षणमेकमर्थमाश्रित्यैकवचनान्ततयोक्ताः भवन्ति चैकादिष्वर्थेष्वेकवचनादीनीत्येकवचनादि प्ररूपयन्नाह–‘तिविहे’इत्यादि, एकोऽर्थ उच्यतेऽनेनोक्तिर्वेति वचनमेकस्यार्थस्य वचनमेकवचनमेवमितरे अपि अत्र क्रमेणोदाहरणानि - देवो देवौ देवाः । वचनाधिकारे ' अहवे' त्यादि सूत्रद्वयं' सुगम, उदाहरणानि तु स्त्रीवचनादीनां नदी नदः कुण्डं, तीतादीनां कृतवान् करोति करिष्यति । वचनं हि जीवपर्यायस्तदधिकारात् तत्पर्यायान्तराणि त्रिस्थान केऽवतारयन्नाह -
तिविहा पण्णवणा पं० त०-णाणपण्णवणा दंसणपण्णवणा चरित्तपण्णवणा १, तिविहे सम्मे प० त०-णाणसम्मे दंसणसम्मे चरितसम्म २, तिविहे उवघाते पं० त०--उग्गमोवधाते उप्पायणोवधाते एसणोवघाते ३, एवं विसोही ४ ( सू० १९४) । तिविहा आराहणा पं० त०-णाणाराहणा दंसणाराहणा चरिताराहणा ५ णाणाराहणा तिविहा पं० त०-उक्कोसा मज्झिमा जहण्णा ६, एव दंसणाराहणावि ७ चरिताराहणावि ८, तिविहे संकिलेसे पं० त०free किसे सणस किलेसे चरित्तस किलेसे ९, एवं अस किलेसेवि १०, एवमतिक्कमेवि ११, वक्कमेवि १२, अइप्यारे व १३, अणायारेवि १४ । तिन्हं अइकमाण आलोपज्जा पडिक्कमेज्जा णिदिज्जा गरहेज्जा जाव पडिवज्जेज्जा, - णाणातिक्कमे सणातिक्कमे चरित्तातिक्कमे १५ एवं वइक्कमाण १६ अइयाराण १७ अणायारा १८ (सू० १९५) । तिविहे पायच्छित्ते पं० त० - आलोयणारिहे पडिक्कमणारिहे तदुभयारिहे १९ (सू० १९६) ।
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सू० १९३-१९४१९५-१९६ ।
॥२१६॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥२१७॥
'ति विदे' इत्यादिसूत्राणामेकोनविंशतिः, स्पष्टा चेयम् परं प्रज्ञापना-भेदाद्यभिधानं तत्र ज्ञानप्रज्ञापनाआभिनिबोधिकादि पञ्चधा ज्ञानम्, एवं दर्शनं क्षायिकादि त्रिधा, चारित्र सामायिकादि पञ्चधेति, समञ्चतीति सम्यगविपरीतं मोक्षसिद्धिं प्रतीत्यानुगुणमित्यर्थः तच्च ज्ञानादीनि उपहननमुपघातः, पिण्डशय्यादेरकल्प्यतेत्यर्थः, तत्र उद्गमनमुद्गमः पिण्डादेः प्रभव इत्यर्थः, तस्य चाधाकर्मादयः पोडश दोपाः, 'आहाकम्मु' इत्यादि, इह चाभेदविवक्षया उद्गमदोषा एवोद्गमोऽतस्तेनोद्गमेनोपघातः-पिण्डादेर कल्पनीयता करण ं चरणस्य वा शबलीकरण मुद्गमोपघातः, उद्गमस्य वा पिण्डादिप्रसूतेरुपघातः- आधा कर्मत्वादिभिर्दुष्टतोद्गमोपघातः, एवमितरावपि, केवलमुत्पादनासम्पादन गृहस्थात् पिण्डादेरुपार्जनमित्यर्थः, तदोपा धात्रीत्वादयः पोडश, 'धाईदुई' इत्यादि, तथा एषणा - गृहिणा दीयमानपिण्डादेब्रेण तद्दोषाः शाङ्कितादयो दश 'संकियमक्खिय' इत्यादि, 'एवं विसोही 'त्ति, एवमुद्गमादिभिर्दोषरविद्यमानतया वा विशुद्धि: - पिण्डचरणादीनां निर्दोषता सा उद्गमादिविशुद्धिरुद्गमादीनां वा विशुद्धिर्या सा तथेति । 'तिविहाराहण'त्ति ज्ञानस्य श्रुतस्याराधना - कालाध्ययनादिष्वष्टस्वाचारेषु प्रवृत्त्या निरतिचारपालना ज्ञानाराधना, एवं दर्शनस्य निःशङ्कितादिषु, चारित्रस्य समितिगुप्तिषु सा चोत्कृष्टादिभेदा भावभेदात् कालभेदाद्वेति, ज्ञानादिप्रतिपतनलक्षणः सविश्यमानपरिणामनिबन्धनो ज्ञानादिसकलेशः, ज्ञानादिविशुद्धिलक्षणो विशुद्धयमानपरिणामहेतुकस्तदसङ्गवलेशः । 'एव' मिति, ज्ञानादिविषया एवातिक्रमादयश्चत्वारः, राधाकर्माश्रित्य चतुर्णामपि निदर्शनम्"आहाकम्मामंतण, पडिमुणमाणे अकमो होड़ । पयभेयाइ वकम, गरिए तःएयरो गिलिए ||१|| "त्ति, इत्थमेवोत्तरगुणरूपचारित्रस्य चत्वारोऽपि एतदुद्देशेन ज्ञानदर्शनयोस्त ु पग्रहकारिद्रव्याणां च पुस्तकचैत्यादीनामुपघाताय
सु० १९६ ।
॥२१७॥
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सू०१९६-१९७ ।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२१८॥
मिथ्यादृशामुपबृहणार्थ वा निमन्त्रणप्रतिश्रवणादिभिनिदर्शनातिक्रमादयोऽप्यायोज्या इति । "तिण्डं अइक्कमाण'ति षष्ठया द्वितीयार्थत्वात् त्रीनतिक्रमानालोचयेद-गुरवे निवेदयेदित्यादि प्राग्वत् , नवरं यावत्करणाद 'विसोहेज्जा विउद्देजा भकरणयाए अब्भुटेजा अहारिहं तवोकम पायच्छित्तमित्यध्येतव्यमिति, पापच्छेदकत्वात् प्रायश्चित्तविशोधकत्वाद्वा प्राकृते 'पायच्छित्तमिति शुद्धिरुच्यते, तद्विषयः शोधनीयाऽतिचारोऽपि प्रायश्चित्तमिति, तच्च त्रिधा, दशविधत्वेऽपि तस्य त्रिस्थानकानुरोधादिति, तत्रालोचनमालोचना-गुरवे निवेदन, तां शुद्धिभूतामर्हति तयैव शुद्धयति यदतिचारजाल भिक्षाचर्यादि तदालोचनाई मिति, एवं प्रतिक्रमण-मिथ्यादुष्कृत तदई सहसा असमितत्वमगुप्तत्वं चेति, उभयम्-आलोचनाप्रतिक्रमणलक्षणमर्हति यत्तत्तथा, मनसा रागद्वेषगमनादि, सार्द्धगाथेह-"भिक्खायरियाइ मुज्झइ, अइयारो कोवि वियडणाए उ । बीओ य असमिओमित्ति, कीस सहसा अगुत्तो वा ? ॥१॥ सदाइएमु राग, दोस च मणो गओ तइयगम्मि"त्ति । एते च प्रज्ञापनादयो धर्माः प्रायो मनुष्यक्षेत्र एव स्युरिति तद्वक्तव्यतामाह -
जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेण तओ अकम्मभूमीओ पं० त-हेमवए हरिवासे देवकुरा, जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्ययस्स उत्तरेण तओ अकम्मभूमीओ पं० त०-उत्तरकुरा रम्मगवासे एरन्नवप, जम्बूद्दीवे दीवे मंदरदाहिणेण तओ वासा पंत-भरहे हेमवए हरिवासे, जम्बू० मंदर० उत्तरेण तओ घासा पंत-रम्मगवासे हेरपणए पेरावए, जंबूमंदर० दाहिणेण तओ वासहरपब्वया पंतचुल्लहिमवंते महाहिमवन्ते निसढे, जंबू० मन्दर० उत्तरेण तओ वासहरपब्वया 4 तं०-णीलवते
॥२१८॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृतिः ।
॥२१९॥
मन्दर० दाहिणेण तओ
रुष्पी सिहरी, जंबू० मद्दद्दहा पं० त०- पउमद्दहे महापउमद्दहे तिगिछिदहे, तत्थ णं तओ देवताओ महिदियाओ जाव पलिओमवडितियाओ परिवसंति, त० - सिरी हिरी धिती, एवं उत्तरेणवि, णवरं केसरिदहे महापोंडरीयदहे पोंडरीयदहे, तओ देवताओ कित्ती बुद्धी लच्छी । जम्बूद्दीवमंदर० दाहिणेण चुल्लहिमवंताओ वासहरपव्वयाओ पउमद्दद्दाओ महादहाओ तओ महानदीओ पवति, त०-गंगा सिंधू रोहियंसा, जंबूद्दीवमंदर० उत्तरेण सिहरीओ वासहरपव्वयाओ पोंडरीयद्दहाओ महादहाओ तओ महानदीओ पवहंति, त०- सुवण्णकूला रत्ता रत्तवती, जंबू० मंदर० पुरत्थिमेण सीताप महानदीप उत्तरेण तओ अंतरणदीओ पं० त०- गाहावती दहवती पंकवती, जंबू० मंदर० पुर० सीयाप महादीप दाहिणेण तथ अंतरणदीओ पं० त०-तत्तजला मत्तजला उम्मत्तजला, जंबू० मन्दर० पच्चत्थिमेण सीओयाए महानदीप दाहिणेण तओ अन्तरणदीओ पं० तं० खीरोदा सीयसोया अन्तोवाहिणी, जम्बू० मन्दर० पच्चत्थिमेण सीतोदाए महानदीप उत्तरेण तओ अन्तरनदीओ पं० त० उम्मिमालिणी फेणमालिणी गंभीरमाणि । एवं धायइसंडे दीवे पुरच्छिमद्धेवि अकम्मभूमीओ आढवेत्ता जाव अन्तरणदीओत्ति निरवसेसं भाणियव्य', जाव पुक्खरवर दीवइढपच्चत्थिमड्ढे तहेव णिरवसेस भाणियत्र्व (सू० १९७) |
'जम्बूदवे' इत्यादि, सर्व सुगमम् इदं प्रकरण द्विस्थानकानुसारेण जम्बूद्वीपपटानुसारेण चावसेयमिति । नवरमन्तरनदीनां विष्कम्भः पञ्चविंशत्यधिकं योजनशतमिति । अनन्तरं मनुष्य क्षेत्रलक्षण क्षितिखण्डवक्तव्यतोकूतेत्यधुना भङ्ग्यन्तरेण सामान्यपृथ्वीदेशवक्तव्यतामाह
सू० १९७ ।
॥२६॥
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श्रीस्थाना
सू०
दीपिका वृत्तिः ।
॥२२०॥
तिहिं टाणेहिं देसे पुढवीए चलेजा, जहा-महे णमिमीसे रयणप्पभाए पुढवीए ओराला पोग्गला णिवज्जेजा, तर णते उराला पोग्गला णिवतमाणा देस पुढवीए चलेज्जा १, महोरगे वा महीढिप जाव महेसक्खे इमाप रयणप्पभाए पुढबीए अहे उम्मणिमज्जण' करेमाणे देस पुढवीए चलेज्जा २, णागसुवन्नाण घा संगामंसि वट्टमाणसि देस पुढवीए चलेज्जा ३, इच्चेतेहिं तिहिं० । तिहि ठाणेहि केवलकप्पा पुढवी चलेज्जा, तंजहा-अहे ण इमीसे रयणप्पभाप पुढवीप घणवाप गुप्पेज्जा, तप ण से घणवाए गुविए समाणे घणोदहिमेपज्जा, तए ण से घणोदही पइए समाणे केवलकप्पं पुढचं चालेज्जा १, देवे वा महीढिए जाव महासोक्खे तहारुवस्स समणस्स माहणस्स वा इढि जुर्ति जस बल वीरिय पुरिसयारपरक्कम उपदंसेमाणे केवलकप्पं पुढवि चालेज्जा २, देवासुरसंगाम सि वा वट्टमाणंसि केवलकप्पा पुढवी चलेज्जा, इच्चेतेहिं तिहि (स० १९८) ।
तिही'त्यादि स्पष्ट, केवलं देश इति भागः, पृथिव्याः-रत्नप्रभाभिधानाया इति, 'अहे'त्ति अधः 'ओराल'त्ति उदारा-बादरा निपतेयुः-विलसापरिणामात् ततो विचटेयुरन्यतो वाऽऽगत्य तत्र लगेयुः, यन्त्रमुक्तमहोपलवत् , 'तए "ति ततस्ते निपतन्तो देशं पृथिव्याश्चलयेयुरिति पृथिवीदेशश्चलेदिति, महोरगो-व्यन्तरविशेषः, 'महिड्ढीए' परिवारादिना यावत्करणात् 'महज्जुईए' शरीरादिदीप्त्या 'महाबले' प्राणतः 'महाणुभागे वैक्रियादिकरणतः 'महेसक्खे' महेश इत्याख्या यस्येति, उन्मग्ननिमग्निकामुत्पतनिपतां कुतोऽपि दादेः कारणात्कुर्वन् देश पृथिव्याश्चलयेत् , संचलेदिति, नागकुमाराणां सुपर्णकुमाराणां च भवनपतिविशेषाणां परस्परं सग्रामे वर्तमाने-जायमाने सति
10+000000000000000000०००००००००००००००000000000000000000
॥२२०॥
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m
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृप्तिः ।
॥२२९॥
'i' area | 'इच्चेएहि' इत्यादि निगमनमिति । पृथिव्या देशस्य चलनमुक्तमधुना समस्तायास्तदाह'तिहिं 'ति स्पष्ट', किन्तु केवलै: केवलकल्पा, ईषदुनता चेह न विवक्ष्यते, अतः परिपूर्णेत्यर्थः परिपूर्णप्राया वेति, पृथिवी - भूः, 'अहे'त्ति अधो घनवातस्तथाविधपरिणामो वातविशेषो 'गुप्येत' व्याकुलो भवेत् क्षुभ्येदित्यर्थः, ततः सगुप्तः सन् धनोदधिं तथाविधपरिणाम जलसमूहलक्षण मेजयेत् कम्पयेत् । 'तएण 'ति ततोऽनन्तरं स घनोदधिरेजितः सन् केवलकल्पां पृथिवीं चालयेत् सा च चलेदिति, देवो वा ऋद्धि-परिवारादिरूपां, धुतिं शरीरादेः, यशः-पराक्रमकृतां ख्याति बल-शारीरं वीर्य-जीवप्रभवं, पुरुषकार - साभिमानव्यवसायं निष्पन्नफलं तमेव पराक्रममिति, पदर्शनं हि पृथिव्यादिचलन विना न भवतीति तद्दर्शयंस्तां चलयेदिति, देवाच वैमानिका असुराraayari भवप्रत्ययं वैर भवति, अभिधीयते च 'भगवत्याम् ' किंपत्तियण्णं भंते ! असुरकुमारा देवा सोहम्म कप्पं गच्छति गमिस्संति य ? गोयमा ! तेसि ण देवाण भवपच्चइए वेराणुबंधे "त्ति, ततश्च सङ्ग्रामः स्यात्, तत्र च वर्त्तमाने पृथिवी चलेत्, तत्र तेषां महान्यायामत उत्पातनिपातसम्भवादिति, 'इच्चेतेहि' इत्यादि निगमनमिति । देवासुराः सग्रामकारितयाऽनन्तरमुकाः ते च दशविधा: - 'इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपापद्यात्मरक्षलोकपालानी कप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिकाश्चैकशः (तत्त्वा० अ० ४ ० ४) इति वचनात् । तन्मध्यवर्त्तिनः त्रिस्थान कावतारित्वात् freefuकानभिधातुमाह-
तिविडा देवकिन्विसिया पं० त० - तिपलिओवमडिया १ तिसागरोवमट्टिश्या २ तेरससागरोचमट्टिया ३, aft rid ! तिपलिओयमद्वितिया देवकिम्बिसिया परिवसंति ? उपि जोइसियाण हेट्ठि सोइम्मीसाणेसु
| सू० १९८-१९९ ।
॥२२९॥
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सू०१९९-२००
२०१।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२२२॥
कप्पेसु, एत्थ ण तिरलिओवमट्टिइया देवकिब्बिसिया परिवसंति १, कहिण भंते ! तिसागरोवमट्टिया देवकिब्बिसिया परिवसंति ?, उप्पि सोहम्मीसाणाण' कप्पाण हेडि सणंकुमारमाहि'देसु कप्पेसु पत्थ ण तिसागरोवमट्ठिश्या देवकिब्बिसिया परिवसति २, कहिण भंते ! तेरससागरोवमद्वितिया देवकिबिसिया परिवसंति ?, उप्पि बंभलोगस्स कप्पस्स हेहि लंतए कप्पे पत्थ ण तेरससागरोवमद्वितिया देवकिम्बिसिया परिवसंति (सू० १९९) । सक्कस्स ण देविंदस्स देवरणो बाहिरियपरिसाए देवीण तिण्णि पलिओवमाइ ठिई ५०,। सक्कस्स ण देविंदस्स देवरपणो अभितरपरिसाए देवीण तिण्णि पलिओवमाई ठिई पं। ईसाणस्स ण देविदस्स देवरण्णो बाहिरपरिसाए देवीण तिणि पलिओचमाई ठिई ५० (सू० २००) । तिविहे पायच्छित्ते पं० त०-णाणपायच्छित्ते, दंसणपायच्छित्ते, चरित्तपायच्छित्ते, । तओ अणुग्धाइमा ५० त-हत्थकम्म करेमाणे मेहुण पडिसेवमाणे राईभोयण भुंजमाणे, तओ पारंचिया ५० त०-दुट्ठपारचिते पमत्तपारंचिते अन्नमन्न करेमाणे पारंचिते, तओ अणवठ्ठप्पा ५० त०-साहम्मियाण तेण करेमाणे, अण्णधम्मियाण तेण करेमाणे, हत्थताल दलमाणे (सू० २०१) ।
___'तिविहे' स्फुटम् , केवल 'किब्बि सिय'त्ति-"नाणस्स केवलीण, धम्मायरियस्स संघसाहण । माई अवन्नवाई, | किब्बिसिय भावण कुणइ ॥१॥"त्ति, एवंविधभावनोपात्तं किल्विषं-पापमुदये विद्यते येषां ते किल्बिषिकाः,
देवानां मध्ये किल्बिषिका:-पापा अथवा देवाश्च ते किल्बिपिकाश्च देवकिल्बिपिका मनुष्येषु चाण्डाला इवास्पर्शा इति । 'कहि 'ति, 'उप्पि' उपरि 'हेट्ठि'ति-अधस्तात् 'सोहम्मीसाणेसु'त्ति षष्ठ्यर्थे सप्तमी । देवाधिकारायात 'सकस्से'त्यादिसूत्रत्रय सुगमम् । देवादीनामनन्तरं स्थितिरुक्ता, देवीत्वं च पूर्व नवे सायश्चित्तानुष्ठानाद् भवतीति
॥२२२॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
सू०१९९-२०१
॥२२३॥
प्रायश्चित्तस्य तद्वतां च प्ररूपणायाह-'तिविहे'त्यादिसूत्रचतुष्टयं सुगम, केवल 'नाणे'त्यादि, ज्ञानाद्यतिचारशुद्धद्यर्थ यदालोचनादि ज्ञानादीनां वा योऽतिचारस्तज्झानप्रायश्चित्तादि, तत्राकालाविनयाध्ययनादयोऽष्टावतिचारा ज्ञानस्य, शङ्कितादयोऽष्टी दशनस्य, मूलोत्तरगुणविराधनारूपा विचित्राश्चारित्रस्येति । 'अणुग्धाइम'त्ति, उद्घातो-भागपातस्तेन निर्वृत्तमुद्घातिम, लघ्वित्यर्थः, यत उक्तम्-"अरेण छिन्नसेस, पूवरेण तु सं तुय काउ। देजाहि लहुयदाणं, गुरुदाण तत्तियं चेव ॥१॥"त्ति । भावना-मासोऽर्द्धन छिन्नो जातानि पञ्चदश दिनानि, ततो मासापेक्षया पूर्व तपः पञ्चविंशतितम तदर्द सार्द्धद्वादशकं तेन संयुत मासार्द्ध, जातानि सप्तविंशतिदिनानि सार्दानीत्येवं कृत्वा यद्दीयते तल्लघुमासदानम् । एवमन्यान्यपि । एतन्निषेधादनुद्घातिम तपो, गुर्वित्यर्थः । तद्योगात साधवोऽपि तथोच्यन्ते । 'हत्थकम्मे'त्ति हस्तेन शुक्रपुद्गलनिपांतनक्रिया हस्तकर्म, आगमप्रसिद्धं, तत्कुर्वन् , सप्तमी चेय षष्ठया, तेन कुर्वत इति व्याख्येयम् । एतेषां च हस्तकर्मादीनां यत्र विशेषे योऽनुदघातिमविशेषो दीयते स कल्पादितोऽवसेयः । 'पार चिय'त्ति, पारं-तीर तपसाऽपराधस्याश्चति-गच्छति, ततो दीक्ष्यते यः स पाराची, स एव पाराञ्चिकः, तस्य यदनुष्ठानं तच्च पाराञ्चिकमिति दशम प्रायश्चित्त, लिङ्गक्षेत्रकालतपोभिर्वहिःकरणमिति भावः, इह च सूत्रे 'कल्पभाष्ये' इदमभिधीयते-"आसायण-पडिसेवि, दुविहो पारंचिओ समासेण । एकेक्कम्मि य भयणा, सचरित्ते चेव अचरिते ॥१॥ सव्वचरितं भस्सइ, केण वि पडिसेविएण उ वएण । कत्थइ चिट्ठइ देसो परिणामवराहमासज्ज ॥२।। तुल्लुम्मि वि अवराहे, परिणामवसेण होइ णाणत्तं । कत्थइ परिणामम्मि दि, तुल्ले अवराहनाणन ॥३॥" तत्राशातकपाराश्चिक:-"तित्थयरपवयणमुए, आयरिए गगहरे महिढीए। एते आसायंते,
॥२२३॥
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श्रीस्थानाहू
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥२२४॥
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पच्छिते मरगणा होइ ॥ १॥"त्ति, तत्र - " सव्वे आसायंते, पावति पारंचिय ठाण "ति, इह सूत्रे प्रतिदेवकपाराचिक एव त्रिविध उक्तः, तदुक्त' - "पडिसेवणपारंची, तिविहो सो होइ आणुपुवीए । दुट्ठे य पमत्ते या नायव्वो अन्नमन्ने] य ॥१॥ तत्र दुष्टो दोपवान् कपायतो विषयतश्च पुनरेकैको द्विधा - सपक्षविपक्षभेदात् उक्तं च"दुविडोय होइ दुट्ठो, कसायदुट्ठो य विसयदुट्ठो य । दुविडो कसायदुट्ठो, सपक्खपरपख चभंगो ॥१॥" तत्र स्वपक्ष पायदुष्टो यथा सर्वपनालिकाभिधानशाक भर्जिकाग्रहणकुपितो मृताचार्यदन्तभ अकसाधुः, विषय दुष्टस्तु साध्वीकामुकः, तत्र चोक्त - "लिंगेण लिंगिणीए, संपत्ति जो णिगच्छई पावो । सव्वजिणाणजाओ, संघो वाssसाइओ तेण ॥ १ ॥ पावाण पावयरो, दिविष्फासे वि सो न कप्पति हु । जो जिणपुंगवमुई, नमिऊण तमेव रिसे ||२||ति, “संसारमणवयग्ग, जाइजरामरणवेयणापउरं । पावमलपडलछन्ना, भमंति मुद्दाधरिसणेण || ३ ||" इति परपक्षकपाय दुष्टस्तु राजवत्रको, द्वितीयो राजाग्रमहिष्यधिगन्तेति उक्त च "जो य सलिंगे दुट्ठो, कसायबस यहगो य | रायग्गमहिसि परिसेवओ य बहुसो पयासो य ॥ १॥" प्रमत्तः - पञ्चम निद्रावान्, मांसाशिप्रव्रजितसाधुवदिति, अय सद्गुणोऽपि त्याज्य इति, तथाऽन्योन्यं - परस्परं मुखपायुप्रयोगतो मैथुनं कुर्वन्, पुरुषयुगमिति शेषः, उच्यते च - " आसयपोसयसेवी, केवि भणुस्सा दुवेयगा होंति । तेसि लिंगविवेगो "त्ति, 'reaठप्पे 'ति । आसेवितातिचारविशेषः सन्ननाचरिततपोविशेषः तदोषोपरतोऽपि महाव्रतेषु नावस्थाप्यते - नाधिक्रियते इत्यनवस्थाप्यः, तदतिचारजातं तच्छुद्धिरपि वाऽनवस्थाप्यमुच्यत इति नवमं प्रायश्चित्तमिति, तत्र साधमिका:- सावस्तेषां सत्कस्योत्कृष्टोपवेः शिष्यादेव बहुशो वा प्रद्विष्टचित्तो वा 'ते' ति स्तेयं [ स्तैन्य' ] - चौर्य
सू० १९९-२०१ ।
॥२२४॥
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सू०२०१-२०२।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२२५॥
0000000000000000000000000000000000000000000000000000004
कुर्वन् , तथा अन्यधार्मिकाः-शाक्यादयो गृहस्था वा तेषां सत्कस्योपध्यादेः स्तेय कुर्वन्निति १, तथा हस्तेनाऽऽताडन हस्ततालस्त 'दलमाणे' ददत् , यष्टिमुष्टिलकुटादिभिर्मरणादिनिरपेक्ष आत्मनः परस्य वा प्रहरन्निति भावः, उक्तं च-"उक्कोस बहुसो वा, पदुद्दचित्तो व तेणिय कुणइ । पहरइ य जो सपकूखे, णिरविक्खो घोरपरिणामो ॥१॥"त्ति पूर्वोक्तप्रायश्चित्तं प्रजाजनादियुक्तस्य भवति, तानि चायोग्यनिरासेन योग्यानां विधेयानीति तदयोग्यान्निरूपयन् सूत्रपटूकमाह
तओ न कप्पति पव्वावित्तए, त-पंडए वातिए कीवे १, पव मुंडावित्तग २, सिक्खावेत्तए ३, उवट्ठावेत्तए ४, संभुंजावेत्तए ५, संवासेत्तए ६, (सू० २०२)।
___ 'तओ न कप्पंति पञ्चावित्तए' इत्यादिक कण्ठय, किन्तु पण्डक-नपुंसक, तच्च लक्षणादिना विज्ञाय परिहर्तव्य, लक्षणानि चास्य-"महिलासहावो सरवन्नभेओ, मेंहें महंतं मउया अ वाणी । ससद्दगं मुत्तमफेणग च, एयाणि छप्पंडगलक्खणाणि ॥१॥"त्ति, तथा वातोऽस्यास्तीति वातिकः, यदा स्वनिमित्ततोऽन्यथा वा मेहन कपायित तदा न शक्नोति यो वेद धारयितु यावन्न प्रतिसेवा कृता स वातिक इति, अयं च निरुद्धवेदो नपुंसकतया परिणमति, क्वचित्त 'वाहिए'त्ति पाठः, तत्र च व्याधितो रोगीत्यर्थः, तथा क्लीवोऽसमर्थः, सच चतुर्दा बृत्तितो ज्ञेयः । इह त्रयोऽप्रवाज्या उताः, त्रिस्थानकानुरोधात् , अन्यथाऽन्येप्येते सन्ति 'बालबुड्ढे इत्यादि । यथैते प्रव्राजयितु न कल्पन्ते एवमेत एव क्वचिच्छलितेन प्रबाजिता अपि सन्तो मुण्डयितु शिरोलोचनेन न कल्पन्ते । एवं शिक्षयितु-प्रत्युपेक्षणादिसामाचारी ग्राहयितु, तथा उपस्थापयितु-महावतेषु व्यवस्था
2000000000000000000000000000000000000000000000000000000001
॥२२५॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥२२६॥
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पयितुं, तथा संभोक्तुमुपध्यादिना, एवमनाभोगात् संभुक्ताश्च संवासयितुमात्मसमीप आसयितुं न कल्पन्त इति प्रक्रम इति । कथञ्चित् संवासिता अपि वाचनाया अयोग्या न वाचनीया इति तानाह
तओ अवायणिज्जा पं० त०- अविणीए विगतीए पडिबद्धे अवितोसवितपाहुडे, तओ कप्पंति वाइत्तर, त० - विणीप अविगतिपडिबद्धे वितोसवितपाहुडे । तओ दुसण्णप्पा पं० त० - दुठे मूढे बुग्गाहिए, तओ सुसण्णप्पा पं० त० - अवुट्ठे अमूढे अबुग्गाहिए (सू० २०३ ) |
'तओ'त्ति सुगम', नवरमवाचनीयाः सूत्रं न पाठनीयाः, अत एवार्थमप्यश्रावणीयाः, सूत्रादर्थस्य गुरुत्वात्, तत्राविनीतः सूत्रार्थदातुर्वन्दनादिविनयरहितः, तद्वाचने हि दोषः, उक्त च - "विणयाहीया य विज्जा, देइ फल इह परे य लोयंमि । न फलंतविणयगहिया, सस्साणि व तोयहीणाई || १|| "ति, तथा विकृतिप्रतिबद्धो-घृतादिरसविशेषगृद्धोऽनुपधानकारीति भावः इहापि दोष एव यदाह - "अतवो न होइ जोग्गो, न य फलए इच्छिय फलं विज्जा । अवि फल विउलमगुणा, साहणहीणा जहा विज्जा || १ || "त्ति, तथाऽव्यवसितमनुपशान्तं प्राभृतमित्र प्राभृतं नरकपालकौशलक परमक्रोधो यस्य सोऽव्यवसितप्राभृतः उक्तं च- "अप्पे वि पारमाणि, अवराहे वयइ खामिय ं त ं च । बहुसो उदीरयंतो, अविओसियपाहुडो स खलु || १||" 'पारमाणि" परमक्रोधसमुद्घातं व्रजतीति भावः । एतस्य वाचने इहलोकतस्त्यागोऽस्य प्रेरणायां कलहनात् प्रान्तदेवताछलनाच्च, परलोकतोऽपि त्यागः, तत्र श्रुतस्य दत्तस्य निष्फलत्वात्, ऊपरक्षिप्तवीजवदिति, आह च- “दुविहो उ परिच्चाओ, इह चोयण कलह देवयाछ । परलोम्म य अफलं खित्तं पिव ऊसरे वीर्य || १|| "ति एतद्विपर्ययसूत्र सुगमम् । श्रुतदानस्या
सू० २०२-२०३ ।
॥२२६॥
:
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
सू०२०३-२०४
२०५।
॥२२७॥
योग्या उक्ताः, इदानी सम्यक्त्वस्यायोग्यानाह-'तओ' इत्यादि सुगम, किन्तु दुःखेन-कृच्छेण संज्ञाप्यन्ते-बोध्यन्त इति दुःसंज्ञाप्याः, तत्र दुष्टो-द्विष्टस्तत्त्वं प्रज्ञापक वा प्रति, स चाप्रज्ञापनीयो, द्वेषेणोपदेशाप्रतिपत्तेः, एवं मूढोगुणदोपानभिज्ञः, व्युदग्राहितः-कुप्रज्ञापकदृढीकृतविपर्यासः, सोऽप्युपशदेशन प्रतिपद्यते, उक्त च-"पुव्वं कुग्गाहिया केई, बाला पंडियमाणिणो । नेच्छंति कारण सोउ, दीवजाए जहा नरे ॥१॥"त्ति, एतेषां स्वरूपं 'कल्पात् कथाकोशा'च्चावसेयमिति । एतद्विपर्यस्तान् सुसंज्ञाप्यतयाऽऽह-'तओ'इत्यादि, स्फुटमिति, उक्ताः प्रज्ञापनार्हाः पुरुषाः, अधुना तत्प्रज्ञापनीयवस्तूनि त्रिस्थानकावतारीण्याह
तओ मंडलिया पव्वया पं० त०-माणुसुत्तरे कुंडलवरे रुअवगरे (सू० २०४)। तओ महइमहालया पं० त०-जबुद्दीवम दरे मदरेसु, सयंभूरमणसमुहे समुद्देसु, बंभलोए कप्पे कप्पेसु (सू० २०५) ।।
'तओ मंडलिए'त्यादि, मण्डल-चक्रवाल तदस्ति येषां ते मण्डलिकाः-प्राकारवलयवदवस्थिता मानुषेभ्योमानुपक्षेत्राद्वोत्तरः-परतोवी मानुषोत्तर इति, तत्स्वरूपं चेदं-"पुक्खरवरदीवइट, परिखिवइ माणुसोत्तरो सेलो । पायारसरिसरूवो, विभयंतो माणुस लोगं ॥१॥ सत्तरस एगवीसाई, जोयणसयाई सो समुव्बिद्धो । चत्तारि य तीसाई, मूले कोस च ओगाढो ॥२॥ दस बावीसाइ अहे, वित्थिण्णो होइ जोयणसयाई । सत्त य तेवीसाई, वित्थिनो होइ मज्झम्मि ॥३॥ चत्तारि य चउवीसे, वित्थारो होइ उवरि सेलस्स । अड्रहाइज्जे दीवे, दो य समुद्दे अणुपरीइ ॥४॥"इति "जंबुद्दीवो धायद, पुक्खरदीवो य वारुणिवरो य । खीरवरो वि य दीयो, घयवरदीवो य खोयवरो ॥५॥ गंदीसरो य अरुणो, अरुणोवाओ य कुंड लवरो य । तह संख रुयग भुयवर, कुस
॥२२॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०२०५-२०६।
दीपिका वृत्तिः ।
ܕ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥२२८॥
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कुंचवरो तओ दीयो ॥६॥” इति क्रमापेक्षयकादशे कुण्डलवराख्ये द्वीपे प्राकारकुण्डलाकृतिः कुण्डलवर इति, तद्रपमिदं-'कुण्डलवरस्से'त्यादि । तथा त्रयोदशे रुचकाख्ये द्वीपे कुण्डलाकृती रुचक इति, एतस्य विद स्वरूपं"रुयगवरस्स उ मज्झे, नगुत्तमो होइ पव्वओ रुयगो । पागारसरिसरूवो, रुअगं दीवं विभयमागो॥१॥"इत्यादि, मानुपोत्तरादयो महान्त उठा इति महदाधिकारादतिमहत आह-'तओ महई'त्यादि व्यक्त, केवलमतिमहान्तश्च ते आलयाश्च-आश्रयाः अतिमहालयाः, महान्तश्च ते अतिमहालयाश्चेति महातिमहालयाः, 'मदरेसुत्ति, मेरूणां मध्ये जम्बूद्वीपकस्य सातिरेकलक्षयोजनप्रमाणत्वाच्छेषाणां चतुर्णा सातिरेकपञ्चाशीतियोजनसहस्रप्रमाणत्वादिति, स्वयम्भूरमणो महान् मुमेरोरारभ्य तस्य शेषसर्वद्वीपसमुद्रेभ्यः समधिकप्रमाणत्वात् , तेषां तस्य च क्रमेण किञ्चिन्यूनाधिकरज्जुपादप्रमाणत्वादिति, ब्रह्मलोकस्तु महान् , तत्प्रदेशे पञ्चरज्जुप्रमाणत्वात् लोकविस्तरस्य, तत्प्रमाणतया च विवक्षितत्वात् ब्रह्मलोकस्येति । अनन्तरं ब्रह्मलोककल्प उक्त इति कल्पशब्दसाधात् कल्पस्थिति त्रिधाऽऽह
तिविहा कप्पट्टिई पं० त०-सामाइयकप्पट्टिई छेदोवट्ठावणियकप्पट्टिई णिविसमाणकप्पष्टिई ३, अहवा तिविहा कप्पट्टिई प० त-णिब्विट्टकप्पट्टिई जिणकप्पट्टिई थेरकप्पट्टिई ३ (सू० २०६) । ___तिविहे 'त्यादिसूत्रद्वयं कण्ठय, केवल समानि-ज्ञानादीनि तेषामायो लाभः समायः स एव सामाथिक-संयमविशेषः, तस्य तदेव या कल्पः-करणमाचारः, यथोक्त-"सामर्थ्य वर्णनायांच, करणे छेदने तथा । औपम्ये चाधिवासे च,कल्पशब्द विदुर्बुधाः॥१॥"इति सामायिककल्पः, स च प्रथमचरमतीर्थयोः साधूनामल्पकालः, छेदोपस्थापनीयसद्भावात् , मध्यमतीर्थेषु महाविदेहेषु च यावत्कथिकः, छेदोपस्थापनीयाभावात् , तदेवं तस्य तत्र वा स्थितिमर्यादा सामायिककल्पस्थितिः । तथा
||२२८॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०२०६।
दीपिका वृत्तिः ।
॥२२॥
2010000000000000000000000000०.००००००००००००००००००००००००००००
पूर्वपर्यायच्छेदेनोपस्थापनीयमारोपणीय छेदोपस्थापनीय, व्यक्तितो महावतारोपणमित्यर्थः, तच्च प्रथमपश्चिमतीर्थयोरेवेति, शेषा व्युत्पत्तिस्तथैव, तत्स्थितिश्चोक्तलक्षणेष्वेव दशसु स्थानकेष्ववश्यपालनलक्षणेति, तथाहि-"दसट्ठाणढिओ कप्पो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । एसो धुयरयकप्पो, दसठाणपइटिओ होइ ॥१॥"त्ति । तथा णिविसमाण'त्ति, निर्विशमाना ये परिहारविशुद्धितपोऽनुचरन्ति परिहारिका इत्यर्थः, तेषां कल्पे स्थितियथा-ग्रीष्मशीतवर्षाकालेषु क्रमेण तपो जघन्य चतुर्थषष्ठाष्टमानि मध्यम पष्ठादीन्युत्कृष्टमष्टमादीनि, पारण त्वायाममेव. पिण्डैषणासप्तके चाद्ययोरभिग्रह एक, पञ्चमु पुनरेकया भक्तमेकया च पानकमित्येवं द्वयोरभिग्रहः । ‘णिब्बि?माण'त्ति, निर्विष्टाआसेवितविवक्षितचारित्रा अनुपरिहारिका इत्यर्थः, तत्कल्पस्थितियथा-प्रतिदिनमायाममात्र तपो भिक्षा तथैवेति, उक्त च-"कप्पट्ठिया वि पइदिण करंति एमेवमायाम"ति, एते च निर्विशमानका निर्विष्टाश्च परिहारविशुद्धिका उच्यन्ते, तेषां च नवको गणो भवति, ते चैवंविधा:-"सन्वे चरित्तवंतो उ, दसणे परिनिद्विया । नवपुब्बिया जहण्णेण, उक्कोसा दसपुब्विया ॥१॥"इत्यादि । 'जिणकप्पत्ति, जिना-गच्छनिर्गतसाधुविशेषास्तेषां कल्पस्थितिजिनकल्पस्थितिः, सा चैव-जिनकल्पं हि प्रतिपद्यते जघन्यतोऽपि नवमपूर्वस्य तृतीयवस्तुनि सति, उत्कृष्टतस्तु दशसु भिन्नेषु प्रथमे संहनने, दिव्याधुपसर्ग रोगवेदनाश्चासौ सहते, एकाक्येव भवति, दशगुणोपेतस्थण्डिल एवोच्चारादि जीर्णवस्त्राणि च त्यजति, वसतिः सर्वोपाधिविशुद्धाऽस्य, भिक्षाचर्या तृतीयपौरुष्यां, पिण्डैषणोत्तरासां पञ्चानामेकतरैव, विहारो मासकल्पेन, तस्यामेव वीथ्यां षष्ठदिने भिक्षाटनमिति, एवंप्रकारा चेय 'सुयसंधयणे'त्यादिकात् गाथासमहात् 'कल्पोक्ता'दवगन्तव्येति, भणित च-"गच्छम्मि य निम्माया, धीरा जाहे य गहिय
+000000000000000000000000000000000000000000000000000000
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०२०६-२०७
२०८।
दीपिका वृत्तिः ।
॥२३०॥
परमट्ठा । अग्गहि जोग अभिग्गहि, उविंति जिणकप्पियचरित्त ॥" अग्रहे आद्ययोरभिग्रहे-पञ्चानां पिण्डषणानां योगे पञ्चानां मध्ये (द्वयोर्योमे-द्वयोर्मध्ये) एकतरस्या गृहीतपरमार्थाः, "धिइबलिया तबसूरा, निती गच्छाओ ते पुरिससीहा । बलवीरियसंघयणा, उवसग्गसहा अभीरुया ॥१॥"त्ति, 'थेरकप्पडिइत्ति, स्थविरा-आचार्यादयो गच्छप्रतिबद्धास्तेषां कल्पस्थितिः स्थविरकल्पस्थितिः, सा च-"पव्वज्जा सिक्खावय-मत्थग्गहणं च अनियओ वासो। निप्फत्ती य विहारो, सामायारी ठिई चेव ॥१॥"इत्यादिकेति, इह च सामायिके सति छेदोपस्थापनीयं तत्र च परिहारविशुद्धिकभेदरूपं निर्विशमानक तदनन्तरं निर्विष्टकायिक तदनन्तरं जिनकल्पः स्थविरकल्पो वा भवतीति सामायिककल्पस्थित्यादिकः सूत्रयोः क्रमोपन्यास इति । उक्तकल्पस्थितिव्यतिक्रामिणो नारकादिशरीरिणो भवन्तीति तत्स्वरूप(तच्छरीर) निरूपणायाह
नेरइयाण तओ सरीरगा पण्णत्ता, त-वेउविए तेयए कम्मए, असुरकुमाराण तओ सरीरगा पं. त०-वेउब्बिए० पव' चेव, एवं सब्वेसि देवाण, पुढविकाइयाण तओ सरीरगा ५० त०-ओरालिये तेयए कम्मए, एवं वाउकाइयवज्जाण जाव चउरिंदियाण (सू० २०७)। गुरुं पडुच्च तओ पडिणीया पं० त-आयरियपडिणीए उवज्झायपडिणीए थेरपडिणीप १, गई पडुच्च तओ पडिणीया ५० त०-इहलोगपडिणीप परलोगपडिणीए दुहओ लोगपडिणीए २, समूह पडुच्च तओ पडिणीया पं० त०-कुलपडिणीए गणपडिणीप संघपडिणीए ३, अणुकंपं पडुच्च तओ पडिणीया पंत-तवस्सिपडिणीप गिलाणपडिणीए सेहपडिणीए ४, भाव पडुच्च तओ पडिणीया पं० त०-णाणपडिणीप दसणपडिणीए चरित्तपडिणीए ५. सुय' पदुच्च तओ पडिणीया ५० त०-सुत्तपडिणीए अत्थपडिणीए तदुभयपडिणीए ६, (सू० २०८) ।
00000000000000000000000000000000000000०००००००००००००००००
॥२३०॥
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सू०२०७-२०८1
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२३॥
܂
'नेरइयाण'मित्यादि, दण्डकः कण्ठ्यः , किन्तु एवं सव्वदेवाण"ति यथा असुराणां त्रीणि शरीराणि, एवं नागकुमारादिभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानाम् , एवं 'वाउकाइयवज्जाण"ति, वायुनां हि आहारकवर्जानि चत्वारि शरीराणीति तद्वर्जनमेवं पञ्चेन्द्रियतिरश्चामपि चत्वारि, मनुष्याणां तु पश्चापीति त इह न दर्शिताः। कल्पस्थितिव्यतिक्रामिणश्च प्रत्यनीका अपि भवन्तीति तानाह-'गुरु'मित्यादि सूत्राणि पड़ व्यक्तानि, किन्तु गृणात्यभिधत्ते तत्त्वमिति गुरुस्तं प्रतीत्याश्रित्य प्रत्यनीकाः-प्रतिकूलाः, स्थविरो जात्यादिभिः, एतत्प्रत्यनीकता चैवं-"जच्चाईहि अवघ्नं, विभासइ वट्टइ नयावि उववाए । अहिओ छिद्दप्पेही, पगासवादी अणणुलोमो ॥१॥ अहवावि वए एवं, उवएस परस्स दिति एवं तु । दसविहवेयावच्चे, कायव्वं सय न कुवंति ॥२॥"त्ति, गतिर्मानुषादिका, तत्रेहलोकस्य-प्रत्यक्षमानुषत्वलक्षणपर्यायस्य प्रत्यनीक इन्द्रियार्थप्रतिकूलकारित्वात् पश्चाग्नितपस्विवदिहलोकप्रत्यनीकः, परलोको-जन्मान्तरं तत्प्रत्यनीक इन्द्रियार्थतत्परो, द्विधालोकप्रत्यनीकश्चौर्यादिभिरिन्द्रियार्थसाधनतत्परः, यद्वा इहलोकप्रत्यनीक इहलोकोपकारिणां भोगसाधनादीनामुपद्रवकारीहलोकप्रत्यनीकः, एवं ज्ञानादीनामुपद्रवकारी परलोकप्रत्यनीकः, उभयेषां तु द्विधालोकप्रत्यनीक इति, अथवेहलोको-मनुष्यलोकः, परलोको नारकादिरुभयमेतदेव द्वितयं, प्रत्यनीकता तु तद्वितथप्ररूपणेति, कुल चान्द्रादिक, तत्समूहो गणः कोटिकादिस्तत्समूहः सङ्घ इति, प्रत्यनीकता चैतेषामवर्णवादादिभिरिति, कुलादिलक्षण चैव-"एत्य कुलं विन्नेय, एगायरियस्स संतई जा उ । तिण्ह कुलाण मिहो पुण, साविकखाण गणो होइ ॥१॥ सव्वो वि नाणदंसण-चरणगुणविभूसियाण समणाण । समुदाओ पुण संघो, गुणसमुदाओत्ति काऊण ॥२॥" अनुकम्पामुपष्टम्भं प्रतीत्याश्रित्य तपस्वी-क्षपकः, ग्लानो-रोगादिभिरसमर्थः,
.000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥२३२॥
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सू०२०८-२०९
२१०॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२३२॥
शैक्ष:-अभिनवप्रवजितः, एते ह्यनुकम्पनीया भवन्ति, तदकरणाकारणाभ्यां च प्रत्यनीकतेति, भावः-पर्यायः, सच जीवाजीवगतः, तत्र जीवस्य प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च, तत्र प्रशस्तः क्षायिकादिः, अप्रशस्तो विवक्षयौदयिकः, क्षायिकादिश्च ज्ञानादिरूपः, ततो भावं-ज्ञानादि प्रतीत्य प्रत्यनीकस्तेषां वितथप्ररूपणतो दृपणतो वा, यथा-"पागयमुत्तनिबद्धं,
को वा जाणइ पणीय केणेय । किं वा चरणेण तू , दाणेण विणा उ कि हवइ ॥१॥"त्ति, सूत्र-व्याख्ये|| यमर्थस्तव्याख्यान निर्युक्त्यादिस्तदुभय-द्वितयमिति, तत्प्रत्यनीकता-"काया वया य ते चिय, ते चेव पमाय
अप्पमाया य । मोक्खाहिगारियाण', जोतिसजोणीहिं कि कज? ॥१॥"इत्यादिदोषोद्भावनमिति । उक्ता कल्पस्थितिः, गर्भजमनुजानामेव तच्छरीरं च मातापितृहेतुकमिति तयोस्तदङ्गेषु हेतुत्वे विभागमाह
तओ पियंगा पं० त०-अट्ठी अद्धिमिजा केसमंसुरोमनहे । तओ मायंगा पं० त०-मंसे सोणिए मथुलिंगे (सू० २०९)।
सूत्रद्वयं कण्ठय, केवल पितुर्जनकस्याङ्गान्यवयवाः पित्रङ्गानि प्रायः शुक्रपरिणतिरूपाणीत्यर्थः, अस्थिप्रतीत १, अस्थिमिञ्जा-अस्थिमध्यरसः २, केशाच-शिरोजाः श्मश्रु च-कूर्चः रोमाणि च कक्षादिजातानि नखाश्च-प्रतीताः केशश्मश्रुरोमनखमित्येकमेव ३ प्रायः समानत्वादिति । मात्रङ्गानि आर्त्तवपरिणतिप्रायाणीत्यर्थः, मांस-प्रतीत, शोणित-रक्त, मरतुलिङ्ग शेष मेदः फिप्फिसादि, कपालमध्यवर्ति भेजकमित्येके । पूर्वोक्तस्थविरकल्पस्थितिपतिपन्नस्य विशिष्टनिर्जराकारणान्यभिधातुमाह
तिहिं ठाणेहि समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ, तं-कया ण अह अप्प वा बहुय
॥२३२॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका
वृत्तिः । ॥२३३॥
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वा सुत्त अहिज्जिस्सामि, कया णं अद्द एकलविहार पडिम उवसंपज्जित्ताण विहरिस्सामि, कया ण अ अपच्छिममारणंतियसंलेहणाझूसणाझूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिर पाओवगए काल अणवक खमाणे विहरि - सामि एवं स मणसा स वयसा स कायसा पहारेमाणे (पागडेमाणे ) णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ । तिहि ठाणेहिं समणोवासप महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ, त०-कया णं अह अप्पं वा बहुअवा परिग्गह परिच्चइस्लामि १, कया णं अहं मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वद्द - स्सामि २, कया णं अह अपच्छिममारणंतियसं लेहणानूसणाझू सिप भत्तपाणपडियाइक्खि पाओगए काल अणवकखमाणे विहरिस्सामि ३ एवं स मणसा स वयसा स कायसा पागडेमाणे [पहारेमाणे ] समणोवासप महाणिजरे महापज्जवसाणे भवर (सू० २१०) ।
'तिही' त्यादि सुगम, नवरं महती निर्जरा - कर्मक्षपणा यस्य स तथा । महत्-प्रशस्तमात्यन्तिकं वा पर्यवसान - पर्यन्तं समाधिमरणतोऽपुनर्मरणतो वा जीवितस्य यस्य स तथा अत्यन्त शुभाशयत्वादिति, 'एवं स मणस' ति एवमुक्तलक्षणं त्रयमिति, स इति साधुः 'मणस'त्ति मनसा ह्रस्वत्वं प्राकृतत्वात् एवं 'स वयस' त्ति वचसा 'स कायस 'त्ति कायेनेत्यर्थः, सकारागमः प्राकृतत्वादेव, त्रिभिरपि करणैरित्यर्थः, अथवा स्वमनसेत्यादि, प्रधारयन्-पर्यालोचयन क्वचित्, 'पागडेमाणे 'ति पाठस्तत्र प्रकटयन् व्यकीकुर्वन्नित्यर्थः । यथा श्रमणस्य तथा श्रमणोपासकस्यापि त्रीणि निर्जरादिकारणानीति दर्शयन्नाह - 'तिही 'त्यादि, कण्ठ्य अनन्तरं कर्मनिर्जरोका, सा च पुद्गलपरिणामविशेषरूपेति पुद्गलपरिणामविशेषमभिधातुमाह -
सू० २१०।
॥२३३॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥२३४॥
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तिविहे पग्गलपडिघाप पण्णत्ते, त०- परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गल पप्प पडिहणेजा लुक्खत्ताप वा पsिहणेज्ञा लोगंते वा पsिहणेज्जा (सू० २११) । तिविहे चक्खू पं० त०- एगचक्खू बिचक्खू तिचक्खू, छमत्थे ण मस्से एगचक्खू देवे विचक्खू तहारूवे समणे वा माहणे वा उप्पण्णणाणदंसणधरे से तिचक्खू ति वतव्वं सिया ( सू० २१२) । तिविहे अभिसमागमे पं० त० उड़ढ अह तिरिय, जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पज्जर से णं तप्पढमयाप उड़ढ अभिसमेइ तओ तिरियं तओ पच्छा अहे, अहोलोगे ण दुरभिगमे पन्नत्ते समणाउसो ! (सू० २१३) |
'तिविहे' इत्यादि, पुद्गलानामण्वादीनां प्रतिघातो - गतिस्खलन पुद्गलप्रतिघातः, परमाणुश्वासौ पुद्गलच परमाणुपुद्गलः, स तदन्तरं प्राप्य प्रतिहन्येत - गतेः प्रतिघातमापद्येत, रूक्षतया वा तथाविधपरिणामान्तराद् गतितः प्रतिहन्येत, लोकान्ते वा, परतो धर्मास्तिकायाभावादिति । पुद्गलप्रतिघातं च सचक्षुरेव जानातीति तन्निरूप णायाह- 'तिविहे' इत्यादि, प्रायः कण्ठ्य, चक्षुर्लोचनं तद् द्रव्यतोऽक्षि भावतो ज्ञानं तद्यस्यास्तीति स तद्योगाच्चक्षुरेव चक्षुष्मानित्यर्थः । स च त्रिविधः - चक्षुः सख्याभेदात् तत्रैकं चक्षुरस्येत्येकचक्षुः एवमितरावपि, छादयतीति छद्म-ज्ञानावरणीयादि, तत्र तिष्ठतीति छद्मस्थः, स च यद्यप्यनुत्पन्न केवलज्ञानः सर्व एवोच्यते, तथापीहातिशयवत् श्रुतज्ञानादिवर्जितो विवक्षित इत्येकचक्षुः चक्षुरिन्द्रियापेक्षया देवो द्विचक्षुरिन्द्रियावधिभ्यां उत्पन्नमावरणक्षयोपशमेन ज्ञानं श्रुतावधिरूपं दर्शनं चावधिदर्शनरूपं यो धारयति -चहति स तथा य एवम्भूतः स त्रिचक्षुः, चक्षुरिन्द्रियपरमश्रुतावधिभिरिति वक्तव्यं स्यात् स हि साक्षादिवावलोकयति हेयोपादेयानि समस्तवस्तूनि, केवली त्विह न
| सू०२११-२१२२१३ ।
॥२३४॥
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00000000
श्रीस्थानाङ्ग
सु० २१३-२१४।
दीपिका वृत्तिः ।
॥२३५॥
&0000000000000000000000000000000
व्याख्यातः, केवलज्ञानदर्शनलक्षणचक्षुर्द्वयकल्पनासम्भवेऽपि चक्षुरिन्द्रियलक्षणचक्षुष उपयोगाभावेनासत्कल्पनया तस्य चक्षुस्त्रयं न विद्यत इतिकृत्वेति, द्रव्येन्द्रियापेक्षया तु सोऽपि न विरुध्यत इति । चक्षुष्माननन्तरमुक्तः, तस्य चाभिसमागमो भवतीति त दिग्भेदेन विभजन्नाह-'तिविहे'त्ति, अभीत्यर्थाभिमुख्येन न तु विपर्यासरूपतया समितिसम्यग न संशयतया तथा भा-मर्यादया गमनमभिसमागमो-वस्तुपरिच्छेदः । इहैव ज्ञानभेदमाह-'जया ण'मित्यादि, 'अइसेस'त्ति शेषाणि छद्मस्थज्ञानान्यतिक्रान्तमतिशेष-ज्ञानदर्शनं तच्च परमावधिरूपमिति सम्भाव्यते, केवलस्य न क्रमेणोपयोगी येन तत्प्रथमतयेत्यादिसूत्रमनवा स्यादिति, तस्य-ज्ञानादेरुत्पादस्य प्रथमता तत्प्रथमता, तस्यां 'उड्द'ति, ऊर्ध्वलोकमभिसमेति-समवगच्छति जानाति, ततस्तिर्यगिति-तिर्यग्लोक, ततस्तृतीये स्थानेऽध इत्यधीलोकमभिसमेति, एवं च सामर्थ्यात् , प्राप्तमधोलोको दुरभिगमः, क्रमेण पर्यन्ताभिगमत्वादिति, हे श्रमणायुष्मन्निति शिष्यामन्त्रणमिति । अनन्तरमभिसमागम उक्तः, स च ज्ञान, तच्च ऋद्धिरिदेव वक्ष्यमाणत्वादिति ऋद्धिसाधर्म्यात् | तदभेदानाह
-तिविहा इइढी ५० त०-देविडूढी रायइढी गणिइढी १, देविड्ढी तिविहा प० त०-विमाणिइढी विउव्वणिढी परियारणिढी २, अहवा देविड्ढी तिविहा पं० त०-सचित्ता अचित्ता मीसिया ३, रायइढी तिविहा पंत-रण्णो अतियाणिइढी, रणो णिज्जाणिडूढी, रण्णो बलवाहणकोसकोट्ठागारिइढी ४, अहवा रायइढी तिविहा पं० त०-सचित्ता अचित्ता मीसिया ५, गणिड्ढी तिविहा प० त०-णाणिइढी दंसणिइढी चरित्तिडूढी ६. अहवा गणिड्ढी तिविदा पं० त०-सचित्ता अचित्ता मीसिया ७ (सू० २१४) ।
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०२१४।
दीपिका वृत्तिः ।
॥२३६॥
'तिविहा इइिढ' इत्यादि, सूत्राणि सप्त सुगमानि, नवरं देवस्येन्द्रादेदिरैश्वर्य देवद्धिरेवं राज्ञश्चक्रवादेगणिनो-गणाधिपतेराचार्यस्येति १ । विमानानां विमानलक्षणा वा ऋद्धिः-समृद्धिः, द्वात्रिंशल्लक्षादिकं बाहुल्य महत्त्वं रत्नादिरमणीयत्वं चेति विमानदिः, भवति च द्वात्रिंशल्लक्षादिक सौधर्मादिषु विमानवाहुल्य, यथोक्तं-" बत्तीसट्ठावीसा बारस, अट्ट य चउरो सयसहस्सा । आरेण वंभलोगा विमाणसंखा भवे एसा ॥१॥ पंचास सत्त छच्चेव, सहस्सा लंतसुक्कसहस्सारे । सयचउरो आणयपाणएमु, तिन्नारणच्चुयए ॥२॥ इक्कारमुत्तर हेटिमेसु, सत्तुत्तरं च मज्झिमए । सयमेगं उबरिमए, पंचेव अणुत्तर विमाणा ॥ ३॥ "त्ति, उपलक्षण चैतद् भवननगराणामिति, चैक्रियकरणलक्षणा ऋद्धिः वैक्रियदिः, वैक्रियशरीरैर्दि जम्बूद्वीपद्वयमसंख्यातान् वा द्वीपसमुद्रान् पूरयन्तीति, उक्तं च भगवत्याम्-'चमरे ण भंते ! केमहिड्ढिए जाव केवतिय चण पभू विउवित्तए ?, गोयमा ! चमरे ण जाव पभू ण केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहहिं असुरकुमारेहिं देवेहि य देवीहि य आइन्नं जाव करेत्तए' इत्यादि । परिचारणा-कामासेवा तदृद्धिः, अन्यान् देवानन्यसत्का देवीः स्वकीया देवीर- | भियुज्यात्मानं च विकृत्य परिचारयतीत्येवमुक्तलक्षणेति । सचित्ता-स्वशरीराग्रमहिष्यादिविषया सचेतनवस्तुसम्पत् , अचेतना-वस्त्राभरणादिविषया, मिश्रा-अलङ्कृतदेव्यादिरूपा३। अतियानं-नगरप्रवेशः, तत्र ऋद्धिस्तोरणहट्टशोभाजनसम्मर्दादिलक्षणा, निर्याण-नगरान्निर्गमः, तत्र ऋद्धिः-हस्तिकल्पनसामन्तपरिवारादिका, बल-चतुरङ्ग, वाहनानि-वेसरादीनि, कोशो-भाण्डागार, कोष्ठा-धान्यभाजनानि, तेषामगारं-गेह कोष्ठागारं-धान्यगृहमित्यर्थः, तेषां तान्येव वा ऋद्धिर्या सा तथा ४ । सचित्तादिका पूर्ववद् भावनीयेति ५ । ज्ञानर्द्धिविशिष्टश्रुतसम्पत् ,
00000000048488646880038888888860048088003808688864-650000
॥२३६||
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श्रीस्थानाङ्ग
२१६-२१७॥
दीपिका वृत्तिः ।
॥२३७॥
&000000000000000000000000000000000000000000000000000
| दर्शनद्धिः प्रवचने निःशङ्कितादित्वं प्रवचनप्रभावकशास्त्रसम्पद्वा, चारित्रद्धिः चारित्रे निरतिचारता ६ । सचित्ता | शिष्यादिका, अचित्ता वस्त्रादिका, मिश्रा तथैवेति । इह च विकुर्वणादिऋद्धयोऽन्येषामपि भवन्ति, केवलं देवादीनां विशेषवत्यस्ता इति तेषामेवोक्ता इति । ऋद्धिसद्भावे च गौरवं भवतीति तद्भेदानाह
तओ गारवा ५० त०-इढिगारवे रसगारवे सायागारवे (सू० २१५)। तिविहे करणे ५० त०धम्मिए करणे अधम्मिए करणे धम्मियाधम्मिए करणे (सू० २१६) । तिविहे भगवया धम्मे प० त०सुअधिज्जिए सुज्झाइए सुतवस्सिए, जया सुअधिज्जित भवइ तया सुज्झाइय भवइ, जया सुज्झाइय भवइ तया सुतवस्सिय भवइ, से सुअधिज्जिते सुज्झाइते सुतवस्सिते सुतक्खाते ण भगवता धम्मे पण्णत्ते [सू० २१७] ।
'तओ गारवे'त्यादि व्यक्त, परं गुरोर्भावः कर्म वेति गौरख, तच्च द्विधा-द्रव्यतो वज्रादेर्भावतोऽभिमानलोभलक्षणाशुभभाववत आत्मनः, तत्र भावगौरवं त्रिधा, तत्र ऋद्धया-नरेन्द्रादिपूजालक्षणया आचार्यत्वादिलक्षणया वा अभिमानादिद्वारेण गौरवं ऋद्धिगौरवं, ऋद्धिप्राप्यभिमानाप्राप्तप्रार्थनाद्वारेणात्मनोऽशुभभावो भावगौरवमित्यर्थः, एवमन्यत्रापि, नवरं रसो-सनेन्द्रियार्थों मधुरादिः, सात-मुखमिति, अथवा ऋद्धयादिषु गौरवमादर इति । अनन्तरं चारित्रर्द्धिरुका, चारित्रं च करणमिति त दानाह-'तिविहे' इत्यादि, कृतिः करणमनुष्ठान, तच्च धार्मिकादिस्वामिभेदेन त्रिविध तत्र धार्मिकस्य-संयतस्येद धार्मिकमेवमितरे, नवरमधार्मिकोऽसंय तस्तृतीयो देशसंयतः, अथवा धर्मे भवं धर्मों वा प्रयोजनमस्येति धार्मिक, विपर्यरतमितरद् , एवं तृतीयमीति । धार्मिककरणमनन्त
000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥२३७॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
||२३८||
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मुक्तं तच्च धर्म एवेति तद्भेदानाह - 'तिविहे ' इत्यादि स्पष्ट केवल भगवता महावीरेणेत्येवं जगाद सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रतीति, सुष्ठु - कालविनयाद्याराधनेनाधीतं - गुरुसकाशात् सूत्रतः पठितं स्वधीत तथा सुष्ठु - विधिना तत एव व्याख्यानेनार्थतः श्रुत्वा ध्यातमनुप्रेक्षितं श्रुतमितिगम्य, मुध्यातम्, अनुप्रेक्षाऽभावे तत्त्वानवगमेनाध्ययनश्रवणयोः प्रायोऽकृतार्थत्वादिति, अनेन भेदद्वयेन श्रतधर्म उक्तः, तथा सुष्ठु - इहलोकाद्याशंसारहितत्वेन तपस्थित - तपस्यानुष्ठानं, सुतपस्थितमिति च चारित्रधर्म उक्त इति, त्रयाणामप्येषामुत्तरोत्तरतोऽविनाभावं दर्शयति- 'जया' इत्यादि व्यक्तं, परं निर्दोपाध्ययनं विना श्रुतार्थाप्रतीतेः सुध्यात न भवति, तदभावे ज्ञानविकलतया सुतपस्थित न भवतीति भावः, यदेतत् स्वीतादित्रयं भगवता वर्द्धमानस्वामिना धर्मः प्रज्ञप्तः 'से'त्ति स स्वाख्यातः - सुष्ठुक्तः सम्यग्ज्ञानक्रियारूपत्वात् · तयोश्चैकान्तिकात्यन्तिकमुखाबन्ध्योपायत्वेन निरुपचरितधर्मत्वात् सुगतिधारणाद्धि धर्म इति उक्त च - " नाणं पगासगं सोहओ तवी संजमो य गुत्तिकरो । तिन्हं पि समाओगे, मुक्खो जिणसासणे भणिओ ||१|| "त्ति, णमिति वाक्यालङ्कारे । सुतपस्थितमिति चारित्रमुक्तं तच्च प्राणातिपातादिनिवृत्तिस्वरूपमिति तस्य भेदानाह—
"
तिविहा वावती पं० त० - जाणू अजाणू वितिगिच्छा, एवमज्झोववज्जणा परियावज्जणा (सू० २१८) । तिविहे अंते पं० त० - लोगंते वेदंते समयंते [सू० २१९ ] । तओ जिणा पं० त० - ओहिणाणजिणे मणपजवणाणजिणे केवलणाणजिणे १, तओ केवली पं० त०-ओहिणाणकेवली मणपज्जवणाणकेवली केवलणाणकेवली २, तओ अरहंता (अरहा) पं० त० - ओहिणाणअरहा मणपजवणाणअरहा केवलनाणअरडा ३.
[सू० २२०] ।
सू० २१७-२१८२१९-२२० ॥
||||२३८॥
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सू०२१८-२२०॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२३९॥
'तिविहे 'त्यादि व्यावर्तन व्यावृत्तिः, कुतोऽपि हिंसाद्यवधेनिवृत्तिरित्यर्थः, सा च या ज्ञस्य-हिंसादे हेतुस्वरूपफलविदुषो ज्ञानपूर्विका व्यावृत्तिः, सा तदभेदात् 'जाणु'त्ति गदिता, या त्वज्ञस्याज्ञानात् सा 'अजाणू' इत्यभिहिता, या तु विचिकित्सातः-संशयात् सा निमित्तनिमित्तिनोरभेदा द्विचिकित्से'त्यभिहिता । व्यावृत्तिरित्यनेनानन्तरं चारित्रमुक्तं तद्विपक्षश्चाशुभाध्यवसायानुष्ठाने इति तयोरधुना भेदानतिदेशत आह-'एव'मित्यादिसूत्रे, 'एव'मिति व्यावृत्तिरिय त्रिधा 'अज्झोबवजण'त्ति अध्युपपादनं क्वचिदिन्द्रियार्थे अध्युपपत्तिरभिष्वङ्ग इत्यर्थः, तत्र जानतो विषयजन्यमनर्थ या तत्राध्युपपत्तिः सा जाण, या त्वजानतः सा अजाणू, या तु संशयवतः सा विचिकित्सेति, 'परियावज्जण'त्ति पर्यापदन पर्यापत्तिरासेवेति यावत् , साऽप्येवमेवेति । 'जाणु'त्ति ज्ञः, स च ज्ञानात्स्यादित्युक्त, ज्ञान चातीन्द्रियार्थेषु प्रायः शास्त्रादिति शास्त्रभेदेन तद्भेदानाह-'तिविहे अते' इत्यादि, अमनमधिगमनमन्तः-परिच्छेदः, तत्र लोको-लोकशास्त्र तत्कृतत्वात् तदध्येयत्वाच्चार्थशास्त्रादिः, तस्मादन्तो-निर्णयस्तस्य वा परमरहस्य पर्यन्तो वेति लोकान्तः, एवमितरावपि, नवरं वेदा ऋगादयः, समया जैनादिसिद्धान्ता इति । अनन्तरं समयान्त उक्तः, समयश्च जिनकेवल्यईच्छब्दवाच्यैरुक्तः सम्यग्भवतीति जिनादिशब्दवाच्यभेदानभिधातु त्रिसूत्रीमाह-'तओ जिणे'त्यादि. सुगमा, नवरं रागद्वेषमोहान् जयन्तीति जिनाः-सर्वज्ञाः, उवतं च-"रागो द्वेषस्तथा मोहो, जितो येन जिनो ह्यसौ । अस्त्रीशस्त्राक्षमालत्वा-दईन्नेवानुमीयते ॥१॥" इति, तथा जिना इब ये वर्त्तन्ते निश्चयप्रत्यक्षज्ञानतया तेऽपि जिनास्तत्रावधिज्ञानप्रधानो जिनोऽवधिज्ञानजिनः, एवमितरावपि, नवरमाद्यावुपचरितावितरो निरुपचारः, उपचारकारण तु प्रत्यक्षज्ञानित्वमिति, केवलमेकमनन्त पूर्ण वा ज्ञानादि येषामस्ति ते
॥२३९॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥२४०॥
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केवलिनः उक्तं च- "कसिण केवलकप्प, लोग जाणंति तह य पासंति । केवलचरितनाणी, तम्हा ते केवली होंति ||१||" इति इहापि जिनवद् व्याख्या, अर्हन्ति देवादिकृतां पूजामित्यर्हन्तः, अथवा नास्ति रह:प्रच्छन्न किञ्चिदपि येषां प्रत्यक्षज्ञानित्वात्ते अरहसः शेषं प्राग्वत् । एते च सलेश्या अपि भवन्तीति लेश्या प्रकरणमाह-
तओ लेसाओ दुब्भिगंधाओ पं० त०- कण्हलेसा णीललेसा काउलेसा १, तओ लेसाओ सुभि. गंधाओ पं० त ० तेऊ० पम्ह० सुक्कलेसा २, एवं दोग्गतिगामिणीओ ३, सोग्गतिगामिणीओ ४, संकिलिट्ठाओ ५, असंकिलिट्ठाओ ६. अमणुण्णाओ ७ मणुण्णाओ ८ अविसुद्धाओ ९, विसुद्धाओ १०, अपसत्थाओ ११, पसत्थाओ १२, सीतलुक्खाओ १३, णिडुण्हाओ १४, [सू० २२१] । तिविहे मरणे पं० त०बालमरणे पंडियमरणे वालपंडियमरणे, बालमरणे तिविहे पं० त०-ठितलेसे संकिलिट्ठलेस्से पज्जवजायलेस्से, पंडियमरणे तिविहे पं० त० - ठितलेस्से अर्सकिलिट्टलेसे अपज्जवजायलेसे, बालपंडियमरणे तिवि पं० त०-ठितलेस्से असंकिलिहलेस्से अपज्जवजायलेस्से [सू० २२२] ।
'ओ' इत्यादि सुगम, नवरं, 'दुब्भिगंथाओ'त्ति दुरभिगन्धाः दुर्गन्धाः, दुरभिगन्धत्वं च तासां पुद्गलात्मकत्वात्, पुद्गलानां च गन्धादीनामवश्यंभावादिति, आह च- "जह गोमडस्स गंधो, सुणगमडस्स व जहा अहिमस्स । इतोवि अनंतगुणो, लेसाण अप्पसत्थाणं ||१||" इति नामानुसारी चासां वर्णः कपोतवर्णा लेश्या कापोतलेश्या, धूम्रवर्णेत्यर्थः, 'सुभिगंधाओ'त्ति सुरभिगन्धाः, आह च - "जह सुरभिकुसुमगन्धो" इत्यादि, तेजो
सू० २२०-२२१२२२ ।
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सू० २२१-२२२।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
वद्भिस्तद्वर्णा लेश्या लोहितवर्णेत्यर्थः, तेजोलेश्येति, पद्मगर्भवर्णा लेश्या पीतवर्णेत्यर्थः, पद्मलेश्या, शुक्ला प्रतीता, एवंकरणात् प्रथमसूत्रवत् । 'तओ'इत्याद्यभिलापेन शेषसूत्राण्यध्येतव्यानीति, तत्र दुर्गति-नरकतिर्यग्रूपां गमयन्ति || प्राणिनमिति दुर्गतिगामिन्यः, सुगति देवमानुष्यरूपा, सक्लिष्टाः सङ्क्लेशहेतुत्वादिति, विपर्ययः सर्वत्र सुज्ञानः,
अमनोज्ञा अमनोज्ञरसोपेतपुद्गलमयत्वात् , अविशुद्धा वर्णतः, अप्रशस्ता अश्रेयस्योऽनादेया इत्यर्थः, शीतरूक्षाः स्पर्शत आद्याः, द्वितीयास्तु स्निग्धोष्णाः स्पर्शत एवेति । अनन्तरं लेश्या उक्ताः, अधुना तद्विशेषितमरणनिरूपणायाह-तिविहे' इत्यादि सूत्रचतुष्टय, बालोऽज्ञस्तद्वयो वर्त्तते विरतिसाधकविवेकविकलत्वात् स बालोऽसंयतस्तस्य मरण बालमरणम् , एवमितरे, केवल 'पडि'धातोर्गत्यर्थत्वेन ज्ञानार्थत्वाद्विरतिफलेन फलवद्विज्ञानयुक्तत्वात् , पण्डितोबुद्धतत्त्वः संयत इत्यर्थः, तथा अविरतत्वेन बालत्वाद्विरतत्वेन च पण्डितत्वाद बालपण्डितः-संयतासंयत इति, स्थिता-अवस्थिता अविशुद्धत्वात् संक्लिश्यमाना च लेश्या कृष्णादियस्मिन् तत्स्थितलेश्यः, संक्लिष्टा-संक्लिश्यमाना संक्लेशमागच्छन्तीत्यर्थः, सा लेश्या यस्मिंस्तत्तथा, तथा पर्यवाः-पारिशेष्याद्विशुद्धिविशेषाः प्रतिसमयं जाता यस्यां सा तथा, विशुद्ध या वर्द्धमानेत्यर्थः, सा लेश्या यस्मिंस्तत्तथेति, तत्र प्रथम कृष्णादिलेश्यः सन् यदा कृष्णादिलेश्येष्वेव नारकादिषत्पद्यते तदा प्रथम भवति, यदा तु नीलादिलेश्यः सन् कृष्णादिलेश्येषूत्पद्यते तदा द्वितीय, यदा पुनः कृष्णलेश्यादिः सन् नीलकापोतलेश्येत्पद्येत तदा तृतीयम् , उक्त चान्त्यद्वयसंवादि 'भगवत्यां', यदुत-"से णूण भंते ! कण्हलेसे णीललेसे जाव मुक्कलेसे भवित्ता काउलेसेसु नेरइएमु उवव जड ? हता, गोयमा !. से केणद्वेण भंते ! एवं वुच्चइ ?. गोयमा ! लेसाठाणेमु संकिलिस्समाणेसु वा विमुज्झमाणेसु
॥२४॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥२४२॥
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काउलेस परिणमइ २ काउलेसेसु नेरइएस उववज्जइ "त्ति, एतदनुसारेणोत्तरसूत्रयोरपि स्थितलेश्यादिविभागो नेय इति । पण्डितमरणे संक्लिश्यमानता लेश्याया नास्ति संयतत्वादेवेत्यय बालमरणाद्विशेषः, बालपण्डितमरणे तु संक्लिश्यमानता विशुद्धयमानता च लेश्याया नास्ति, मिश्रत्वादेवेत्यय विशेष इति । एवं च पण्डितमरण वस्तुतो द्विविधमेव, संक्लिश्यमानलेश्यानिषेधोऽवस्थितवर्द्धमान लेश्यत्वात्तस्य, त्रिविधत्वं तु व्यपदेशमात्रत्वादेव, बालपण्डितमरण ं त्वेकविधमेव, संक्लिश्यमानपर्यवजातलेश्यानिषेधोऽवस्थित लेश्यत्वात्तस्येति त्रैविध्यं त्वस्येतरव्यावृत्तितो व्यपदेशत्रयप्रवृत्तेरिति । मरणमनन्तरमुक्त, मृतस्य जन्मान्तरे यथाविधस्य यद्वस्तुत्रयं यस्मै सम्पद्यते तत्तस्मै दर्शयितुमाह
तओ ठाणा अव्यवसियस्स अहिताप असुभाए अखमाप अणिस्सेसार अणाणुगामियत्ता भवति, जहा से ण मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वइप णिग्गंथे पावयणे संकिए कखिए वितिगिच्छिए भेदसमावन्ने कलुससमावन्ने णिग्गंथ पावयणं णो सहहह णो पत्तियह णो रोपड़ तं परिस्सहा अभिजुजिय अभिजु जिय अभिभवति, णो से परीसहे अभिजुजिय अभिजु जिय अभिभवइ १, से ण मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वइए पंचहि महत्वपहिं सौंकिए जाव कलुससमावणे पंच महव्वयाई णो सहहह जाव णो से परिस्सहे अभिजुजिय अभिजुजिय अभिभवर २, से ण मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पarr छहिं जीवनिकापहि जाव अभिभवइ ३ । तओ ठाणा ववसियस्स हियाए जाव आणुगामियत्ताप भवति, तं० से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वइप णिग्गंथे पावयणे
सू० २२२-२२३ |
॥२४२॥
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सू०२२३॥
श्रीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२४३॥
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णिस्संकिए णिक्क खिप जाव णो कलुससमावण्णे णिग्गंथ पावयण सद्दहइ पत्तियइ रोएइ से परिस्सहे अभिजु जिय अभिजुजिय अभिभवइ, णो त परिस्सहा अभिजुंजिय अभिजु जिय अभिभवति १, से ण मुण्डे भवित्ता अगाराओ अणगारिय' पव्वाइए समाणे पंचहि महव्वपहि निस्सकिए निखिए जाव परिस्सहे अभिजुजिय अभिजु जिय अभिभवइ, नो त परिस्सहा अभिमुंजिय अभिजुजिय अभिभवति २, से ण मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय' पब्वइए छहिं जीवनिकापहिं निस्संकिए जाव परिस्सहे अभिजु जिय अभिज जिय अभिभवर, णो त परिस्सहा अभिजुजिय अभिजु जिय अभिभवति ३ [सू० २२३] ।
'तओ ठाणा' इत्यादि, त्रीणि स्थानानि-प्रवचनमहाव्रतजीवनिकायलक्षणान्यव्यवस्थितस्यानिश्चयवतोऽपराक्रमवतो वाऽहितायाऽपथ्यायाऽसुखाय-दुःखायाऽक्षमायाऽसङ्गतत्वायाऽनिःश्रेयसायाऽमोक्षायाननुगामिकत्वाय - अशुभानुबन्धाय भवन्ति, ‘से ण'ति यस्य त्रीणि स्थानान्यहितादित्वाय भवन्ति स शङ्कितो-देशतः सर्वतोवा संशयवान् , कानिक्षतस्तथैव, मतान्तरस्यापि साधुत्वेन मन्ता, विचिकित्सितः-फल प्रति शङ्कोपेतोऽत एव भेदसमापन्नो-द्वैधीभावमापन्नःएवमिदं न चैवमितिमतिकः, कलुषसमापन्नो-नैतदेवमितिप्रतिपत्तिकः, ततश्च निग्रन्थानामिदं नैर्ग्रन्थ प्रशस्त प्रगतं प्रथम वा वचनमिति प्रवचनमागमो, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् , न श्रद्धत्ते सामान्यतो न प्रत्येति-न प्रीतिविषयीकरोति, न रोचयति-न चिकीर्षाविषयीकरोति, 'त'मिति य एवंभूतस्तं प्रबजिताभास परिषद्यन्त इति परीषहाः-शुदादयोऽभियुज्याभियुज्य-सम्बन्धमुपगत्य प्रतिस्पर्ध्य वाऽभिभवन्ति-न्युक्कुर्वन्तीति, शेपं सुगमम् । उक्तविपर्ययसूत्रं प्राग्वत् , | किन्तु हितमदोषकरमिह परत्र चात्मनः परेषां च पथ्यान्नभोजनवत , सुखमानन्दस्तृषितस्य शीतलजलपान इव,
....००००००००००००000000000000000000000000000000000000000
॥२४३॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥२४४॥
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क्षममुचितं तथाविधव्याधिव्याघातकौषधपानमिव निःश्रेयस - निश्चितं श्रेयः - प्रशस्य भावतः पञ्चनमस्कार करणमिवआनुगामिकमनुगमनशील ं भास्वरद्रव्यजनितच्छायेवेति । अयं चैवंविधः साधुरिव पृथिव्यां भवतीत्यर्थेन[त्यनेन ] सम्बन्धेन पृथिवीस्वरूपमाह -
गमेगाणं पुढवी तिहिं बलपहिं सव्वओसमंता संपरिक्खित्ता, तंजहा - घणोदद्दिवलपण घणवातवलपण' तणुवातवरण (सू० २२४ ) । णेरइया ण उक्कोसेण तिसमइएण विग्गहेण उववज्र्ज्जति, एगिंदियवज्ज' जाव वेमाणियाण (सू० २२५) ।
' एगमेगा ण' मित्यादि, एकैका पृथिवी रत्नप्रभादिका सर्व्वतः किमुक्त भवति ? समन्तादथवा दिक्षु विदिक्षु चेत्यर्थः, 'सम्परिक्षिता' वेष्टिता, आभ्यन्तरं घनोदधिवलयं ततः क्रमेणेतरे, तत्र घनः - स्त्यानो हिमशिलावद् उदधिर्जलनिचयः स चासौ स चेति घनोदधिः, स एव वलयमिव वलय-कटक घनोदधिवलयं तेन, एवमितरे अपि, नवर घनश्वासौ वा तथाविधपरिणामोपेतो घनवातः, एवं तनुवातोऽपि तथाविधपरिणाम एवेति । एतासु च पृथिवीषु नारका उत्पद्यन्त इति तदुत्पत्तिविधिमभिधातुमाह - 'नेरइयाण' मित्यादि, त्रयः समयास्त्रिसमयं तद्यत्रास्ति स त्रिसमfreeda विग्रेहण-चक्रगमनेन 'उक्कोसेण 'ति त्रसानां हि त्रसनाड्यन्तरुत्पादाद वक्रद्वयं भवति, तत्र च त्रय एव समयास्तथाहि - आग्नेयदिशो नैर्ऋतदिशमेकेन समयेन गच्छति, ततो द्वितीयेन समश्रेण्याऽधस्ततस्तृतीयेन वायव्यदिशि समश्रेण्यैवेति त्रसानामेव त्रसोत्पत्तावेवंविध उत्कर्षेण विग्रह इत्याह- 'एदिए' इत्यादि, एकेन्द्रियास्त्वेकेन्द्रियेषु पञ्चसामयिकेनाप्युत्पद्यन्ते यतस्ते बहिस्तात् सनाडीतो वहिरप्युत्पद्यन्ते, तथाहि - "विदिसाउ दिस पढमे,
सू०२२४-२२५ ।
॥२४४॥
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सू०२२६-२३१।
श्रोस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२४५॥
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| वीए पइसरइ लोयनाडीए । तइए उप्पिं धावइ, चउत्थए नीइ बाहिं तु ॥१॥ पंचमए विदिसाए, गंतु उप्पज्जए उ एगिदि"त्ति, सम्भव एवाय, भवति तु चतुःसामयिक एव, भगवत्यां तथोक्तत्वादिति, तथाहि-"अपज्जत्तगसुहुमपुढविकाइए ण भंते ! अहे लोगखेत्तनाडीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए समोहणित्ता जे भविए उड्ढलोगखेत्तनाडीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से ण भंते ! कतिसमइएण विग्गहेण उववज्जेज्जा ?, गोयमा ! तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेग उववज्जेजा" इत्यादि । अत उक्तम्एगि दियवज'ति, यावद्वैमानिकानामिति-वैमानिकान्तानां जीवानां त्रिसामयिक उत्कर्षेण विग्रहो भवतीति भावः । मोहवतां त्रिस्थानकमभिधायाधुना क्षीणमोहस्य तदाह
खीणमोहस्स ण अरहओ तओ कम्मंसा जुगव खिज्जति, त-णाणावरणिज्ज दसणावरणिज्ज अंतराइय (सू० २२६)। अभीतीणक्खत्ते तितारे पं. १ एवं सवणे २ अस्सिणी ३ भरणी ४ मिगसिरे ५ पुस्से ६ जेट्ठा ७ [सू० २२७] । धम्माओ ण अरहाओ संती अरहा तिहिं सागरोवमेहि तिचउभागपलिओवमूणपहिं वीतिक तेहि समुप्पण्णे (सू० २२८)। समणस्स ण भगवओ महावीरस्स जाव तच्चाओ पुरिसजुगाओ जुगंतकरभूमी, मल्ली ण अरहा तिहिं पुरिससएहि सद्धि मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए-एवं पासेवि (सू० २२९) । समणस्स ण भगवतो महावीरस्स तिणि सया चउद्दसपुब्बीण अजिणाण जिणसंकासाण सव्वक्खरसण्णिवाईण जिण इव अवितह वागरमाणाण उक्कोसिया चउद्दसपुब्बिसंपया होत्था (सू० २३०) । तो तित्थयरा चक्कवट्टी होत्था, त-संती कुंथू अरो ३ (सू० २३१) ।
२४५॥
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सू०२२६-२३१ ।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२४॥
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खीणे'त्यादि, क्षीणमोहस्य-क्षीणमोहनीयकर्मणोऽर्हतो-जिनस्य त्रयः कर्मा शाः-कर्मप्रकृतय इति, उक्त च-"चरमे नाणावरण, पंचविहं दसण चउविगप्पं । पंचविहमंतराय, खबइत्ता केवली होइ ॥१॥"त्ति, शेष कण्ठयम् । अनन्तरमशाश्वतानां त्रिस्थानकमुक्तम् , अधुना शाश्वतानां तदाह-'अभी'त्यादिसूत्राणि सप्त कण्ठयानि । परम्पर(अनन्तर सूत्रे क्षीणमोहस्य त्रिस्थानकमुक्तमधुना तद्विशेषाणां तीर्थकृतां तदाह-'धम्मे'त्यादिप्रकरण', 'तिचउब्भाग'त्ति त्रिभिश्चतुर्भागैः-पादेः पल्योपमस्य सत्कैरूनानि त्रिचतुर्भागपल्योपमोनानि तैर्व्यतिक्रान्तैरिति । 'समणरसे'त्यादि, युगानि पञ्चवर्षमानानि कालविशेषा लोकप्रसिद्धानि वा कृतयुगादीनि तानि क्रमव्यवस्थितानि ततश्च पुरुषा गुरुशिष्यक्रमिणः पितापुत्रक्रमवन्तो वा युगानीव पुरुषयुगानि, पुरुषसिंहवत् समासः ततश्च पञ्चम्या द्वितीयार्थत्वात् तृतीय पुरुषयुग यावत् , जम्बूस्वामिन यावदित्यर्थः, 'युग'त्ति पुरुपयुगं तदपेक्षयाऽन्तकराणां-भवान्तकारिणां निर्वाणगामिनामित्यर्थः, भूमिः-कालो युगान्तकरभूमिः, इदमुक्तं भवति-भगवतो वर्द्धमानस्वामिनस्तीर्थे तस्मादेवावधेस्तृतीय पुरुष जम्बूस्वामिन यावन्निर्वाणमभूत्तत उत्तरं तद्व्यवच्छेद इति । 'मल्ली'त्यादि सूत्रद्वयं, तत्र संवाद:"एगो भगवं वीरो, पासो मल्ली य तिहिं तिहिं सएहिं"ति मल्लीजिनः स्त्रीशतैरपि त्रिभिः । 'समणे' त्यादि, 'अजिणाणं ति असर्वज्ञत्वेन जिनसंकाशानां सकलसंशयच्छेदकत्वेन सर्वे-सकला अक्षरसन्निपाता:-अकारादिसंयोगा विद्यन्ते येषां ते तथा स्वार्थि केन प्रत्ययोपादानाचेषां, विदितसकलवाङ्मयानामित्यर्थः, 'वागरमाणाण'ति व्यागृणतां व्याकुर्वतामित्यर्थः । 'तओ'त्ति सुगम, "संती कुंथू अ अरो, अरहंता चेव चक्कवट्टी य । अवसेसा तित्थयरा, मंडलिया आसि रायाणो ॥१॥"त्ति । तीर्थंकराश्चैते विमानेभ्योऽवतीर्णा इति विमान त्रिस्थानकमाह
॥२४६॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥२४७॥
तओ गेवेज्जविमाणपत्थडा पं० त० - हेट्ठिमगेवेज्जविमाणपत्थडे मज्झिमगेवेज्जविमाणपत्थडे उवरिमगेवेज्जविमाणपत्थडे, हेट्ठिमगेवेज्ज विमाणपत्थडे तिविहे पं० त०- हेट्ठमहे डिमगे वेज्जविमाणपत्थडे हेड्डिममज्झिमगेवेज्जविमाणपत्थडे हेमउवरिमगे वेज्जविमाणपत्थडे, मज्झिमगेवेज्जविमाणपत्थडे तिविहे पं० त०-मज्झिमहेट्टिमगेवेज्जविमाणपत्थडे मज्झिममज्झिमगेवेज्ज० मज्झिमउवरिमगेवेज्ज०, उवरिमगेवेज्जविमाणपत्थडे तिविहे पं० त०उबरिमहेट्टिमगेवेज्ज० उवरिममज्झिमगेवेज्ज० उवरिमउवरिमगेवेज्जविमाणपत्थडे (सू० २३२) । जीवा णं तिट्टाणणिव्यत्ति पोगले पावकम्मत्ताए चिणिसु वा चिणंति वा चिणिस्सति वा, त० - इत्थीणिव्यत्तिते पुरिसणिव्यत्तिते णपुंसगणिव्वत्तिते, एवं चिणडवचिणबंधउदी र वेद तह णिज्जरा चेव (सू० २३३) । तिपएसिया खंधा अनंता पण्णत्ता, एवं जाव तिगुणलुक्खा पुग्गला अनंता पत्ता ( सू० २३४ ) | तिट्ठाण समत्त
। ततिय
अज्झयणं समत्तं ॥
'ओ' इत्यादि, लोकपुरुषस्य ग्रीवास्थाने भवानि ग्रैवेयकानि तानि च तानि विमानानि च तेषां प्रस्तटारचनाविशेषवन्तः समूहाः । इयं च ग्रैवेयकादिविमानवासिता कर्म्मणः सकाशाद्भवतीति कर्मणस्त्रिस्थानकमाह'जीवा 'मित्यादिसूत्राणि पट्ट, तत्र त्रिभिः स्थानैः - स्त्रीवेदादिभिर्निर्वर्तितान् अर्जितान् पुद्गलान् पापकर्म्मतया - अशुभकर्म्मत्वेनोत्तरोत्तराशुभाध्यवसायतश्चितवन्तः - आसंकलनत एवमुपचितवन्तः - परिपोषणत एवं बद्धवन्तो-निर्मापणत उदीरितवन्तो -अध्यवसायवशेनानुदीर्णोदयप्रवेशनतो वेदितवन्तो अनुभवतो निर्जरितवन्तः प्रदेशपरिशादनतः, सङ्ग्रह - णीगाथार्द्धमत्र- " एवं चिणउवचिणबंधोदीवेय तह निज्जरा चेव"त्ति 'एव' मिति यथैक कालत्रयाभिलापेनोक तथा
सू० २३२-२३४ |
॥२४७॥
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सू०२३४-२३५॥
श्रीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२४८॥
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सर्वाण्यपीति । कर्म च पुद्गलात्मकमिति पुद्गलस्कन्धान प्रति त्रिस्थानकमाह-तिपएसिए'त्यादि, स्पष्टमिति, सर्वसूत्रेषु व्याख्यातशेष कण्ठयमिति ॥ त्रिस्थानकस्य चतुर्थोद्देशकः समाप्तः ॥
इति श्रीमत्तपागच्छाधिराजसूरीश्वरश्रीविजयसेनसूरिराज्ये श्रीमत्तपागच्छशृङ्गारहारसूरीश्वरश्रीविजयदेवसूरियुवराज्ये सकलवाचकशिरोमणिमहोपाध्यायश्रीविमलहर्षगणिभिः संशोधितायां पण्डितश्रीकुशलवर्द्धनगणिशिष्यनगर्षि गणिना स्ववाचनपरोपकारकृते कृतोद्धाररूपायां श्रीस्थानाङ्गदीपिकायां तृतीयमध्ययन समाप्तम् ।
व्याख्यात तृतीयमध्ययनम् , अधुना सङ्ख्याक्रमसंबद्धमेव चतु:स्थानकाख्यं चतुर्थ मारभ्यते अस्य चाय पूर्वेण सह विशेषसम्बन्धः-अनन्तराध्ययने विचित्रा जीवाजीवद्रव्यपर्याया उक्ताः, इहापि त एवोच्यन्ते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य चतुरुदेशकस्य चतुरनुयोगद्वारस्य सूत्रानुगमे प्रथमोद्देशकादिसूत्रमेतत्
चत्तारि अंतकिरियाओ प० त०-तत्थ खलु पढमा इमा अंतकिरिया अप्पकम्मपच्चायाए यावि भवइ, से ण' मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय' पब्वइए संजमबहुले संघरबहुले समाहिबहुले लूहे तीरट्ठी उपहाणव दुक्खक्खवे तवस्सी तस्स ण णो तहप्पगारे तवे भवइ णो तहप्पगारा वेयणा भवद तहप्पगारे पुरिसज्जाए दीहेण परियारण सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाइ सम्बदुक्खाणमंत करेइ, जहा से भरहे राया चाउरंतवकवट्टी, पढमा अंतकिरिया १ । अहावरा दोच्चा अंतकिरिया, महाकम्मपच्चायाए यावि भवइ, से ण मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वइए संजमबहुले संवरबहुले जाव उवहाणव दुक्खक्खवे तवस्सी, तस्स ण तहप्पगारे तवे भवइ तहप्पगारा वेयणा भवइ तहप्पगारे पुरिसजाए निरुद्धण' परियारण सिज्झइ जाव अंत करेइ, जहा से गयसुकुमाले अणगारे, दोच्चा अंतकिरिया २ । अहावरा तच्चा अंतकिरिया, महा
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श्रोस्थानाङ्गसूत्र
सू०२३५॥
दीपिका
वृत्तिः
।
॥२४९॥
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कम्मपच्चायाए यावि भवइ, से ण मुंडे भवित्ता अगाराओ जाव पब्वइए, जहा दोच्चा, नवरं दीहेण परियारण सिज्झइ जाव सम्वदुक्खाणमंत करेइ, जहा से सणंकुमारे राया चाउरंतचक्कवट्टी, तच्चा अंतकिरिया ३ । अहावरा चउत्था अंतकिरिया. अप्पकम्मपच्चायाए यावि भवइ, से ण मुडे भवित्ता जाव पव्वइए सजमबहुले जाव तस्स ण णो तहप्पगारे तवे भवइ णो तहप्पगारा वेयणा भवइ, तहप्पगारे पुरिसजाए निरुद्धण परियारणं सिज्झइ जाव सव्वदुक्खाणमंत करेइ, जहा सा मरुदेवा भगवई, चउत्था अंतकिरिया ४ [सू० २३५] ।
'चत्तारि अंतकिरियाओ'इत्यादि, अस्य चाय सम्बन्धः-अनन्तरोद्देशकस्योपान्त्यसूत्रे कर्मणश्चयायुक्तमिह तु कर्मणस्तत्कार्यस्य वा भवस्यान्तक्रियोच्यत इति, अथवा श्रुतं मयाऽऽयुष्मता भगवतैवमाख्यातमित्यभिधाय यत्तदाख्यात तदभिहित तथेदमपरं तेनैवाख्यात यत्तदुच्यत इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या-अन्तक्रिया-भवस्यान्तकरण, तत्र यस्य न तथाविधं तपो नापि परीषहादिजनिता तथाविधा वेदना दीर्घेण च प्रवज्यापर्यायेण सिद्धिर्भवति तस्यैका १ । यस्य तु तथाविधे तपोवेदने अल्पेनैव च प्रव्रज्यापर्यायेण सिद्धिः स्यात्तस्य द्वितीया २ । यस्य प्रकृष्टतपोवेदने दीर्घेण च पर्यायेण सिद्धिस्तस्य तृतीया ३ । यस्य पुनरविद्यमानतथाविधतपोवेदनस्य हस्वपर्यायेण सिद्धिस्तस्य चतुर्थीति ४ । अन्तक्रियाया एकस्वरूपत्वेऽपि सामग्री भेदाच्चातुर्वियमिति समुदायार्थः । अवयवार्थस्त्वयंचतस्रोऽन्तक्रियाः प्रज्ञप्ता भगवतेति गम्यते, 'तत्रे'ति सप्तमी निर्धारणे तामु चतसृषु मध्ये इत्यर्थः, खलुक्यालङ्कारे, इयमनन्तरवक्ष्यमाणत्वेन प्रत्यक्षाऽऽसन्ना प्रथमा, इतरापेक्षया आधा अन्तक्रिया, इह कश्चित्पुरुषो देवलोकादौ यात्वा ततोऽल्पैः-स्तोकैः कर्मभिः करणभूतैः प्रत्यायातः-प्रत्यागतो मानुषत्वमिति अल्पकर्मप्रत्यायातो य इति
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२५०॥
| गम्यते, अथवा एकत्र जनित्वा ततोऽल्पकर्मा सन् यः प्रत्यायातः स तथा, लघुकर्मतयोत्पन्न इत्यर्थः, चकारो वक्ष्यमाणमहाकापेक्षया समुच्चयार्थः, अपि सम्भावने, सम्भाव्यतेऽयमपि पक्ष इत्यर्थः, भवति-स्यात् , स इति असो, णमिति वाक्यालङ्कारे, मुण्डो भूत्वा-द्रव्यतः शिरोलोचेन भावतो रागाद्यपनयनेन, अगाराद्-द्रव्यतो गेहाद् भावतः संसाराभिनन्दिनां देहिनामावासभूतादविवेकगेहान्निष्क्रम्येति गम्यते, अनगारिता-साधुतां प्रवजितः-प्रगत प्राप्त इत्यर्थः, किंभूत इत्याह-'संजमबहुले'त्ति संयमेन-पृथिव्यादिसंरक्षणलक्षणेन बहुल:-प्रचुरो यः सः तथा, संयमो वा बहुलो यस्य स तथा एवं संवरबहुलोऽपि, नवरमाश्रवनिरोधः संवरः अथवा इन्द्रियकपायनिग्रहादिभेदः, एवं च संयमबहुलग्रहण प्राणातिपातविरतेः प्राधान्यख्यापनार्थ, यतः-"इक्क चिय इत्थ वय, निदिटुं जिणवरेहि सव्वेहिं । पाणाड्यायविरमण-मवसेसा तस्स रक्खट्टा ॥१॥"त्ति, एतच्च द्वितयमपि रागाद्युपशमयुक्तचित्तवृत्तेर्भवति, अत आह-समाधिबहुल:, समाधिस्तु-प्रशमवाहिता ज्ञानादिर्वा, समाधिः पुननिःस्नेहस्यैव भवतीत्याह-'हे' रूक्ष:शरीरं मनसि च द्रव्यभावस्नेहवर्जितत्वेन परुषः, लूपयति वा कर्ममलमपनयतीति लूपः, कथमसावेवं संवृत्त इत्याह-'तीही तीरं-पारं भवार्णवस्यार्थयत इत्येवंशीलस्तीरार्थी तीरस्थायी वा तीरस्थितिरिति वा प्राकृतत्वात् 'तीरट्ठे'त्ति, अत एवाह-'उवहाणव' उपधीयते--उपष्टभ्य ते श्रुतमनेनेति उपधान-श्रुतविषयस्तप उपचार इत्यर्थः, तद्वान् , अत एव 'दुक्खकग्ववे'त्ति दुःखम्-अमुख तत्कारणत्वाद्वा कर्म तत् क्षपयतीति दुःखक्षपः, कर्मक्षपण च तपोहेतुकमित्यत आह-तबस्सी'ति तपोऽभ्यन्तरं कर्मेन्धनदहनज्वलनकल्पमनवरतशुभध्यानलक्षणमस्ति यस्य स तपस्वी 'तम्स 'ति यश्चैवंविधस्तस्य ण वाकयालङ्कारे नो तथाप्रकारमत्यन्तघोरं वर्द्धमानजिनस्येव तपोऽशनादि भवति,
॥२५०||
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सू०२३-1
श्रीस्थानाङ्ग-
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२५॥
तथा नो तथाप्रकारा-अतिघोरवोपसर्गादिसम्पाद्या वेदना-दुःखासिका भवति, अल्पकर्मप्रत्यायातत्वादिति, ततश्च तत्तथाप्रकारमल्पकर्मप्रत्यायातादिविशेषणकलापोपेत पुरुषजात-प्रकारो 'दीर्घण' बहुकालेन 'पर्यायेण' प्रव्रज्यालक्षणेन करणभूतेन सिद्धयति-अणिमादियोगेन निष्ठितार्थो वा विशेषतः सिद्धिगमनयोग्यो वा भवति, सकलकर्मनायकमोहनीयघातात् , ततो घातिचतुष्टयघातेन बुद्धयते केवलज्ञानभावात् समस्तवस्तूनि, ततो मुच्यते भवोपग्राहिकर्मभिः, ततः परिनिर्वाति-सकलकर्मकृतविकारव्यतिकरनिराकरणेन शीतीभवतीति, किमुक्तं भवतीत्याह-सर्वदुःखानामन्त करोति, शारीरमानसानामित्यर्थः, अतथाविधतपोवेदनो दीर्घेणापि पर्यायेण किं कोऽपि सिद्धः ? इति शङ्काऽपनोदार्थ माह-'जहा से'इत्यादि, यथाऽसौ प्रथमजिनप्रथमनन्दनो नन्दनशताग्रजन्मा 'भरतो' राजा चत्वारोऽन्ताः-पर्यन्ताः पूर्वदक्षिणपश्चिमसमुद्रहिमवल्लक्षणा यस्याः पृथिव्याः सा चतुरन्ता तस्या अयं स्वामित्वेनेति चातुरन्तः, स चासो चक्रवर्ती चेति स तथा, स हि प्राग्भवे लघूकृतका सर्वार्थ सिद्धविमानाच्च्युत्वा चक्रवर्तितयोत्पद्य राज्यावस्थ एव केवलमुत्पाद्य कृतपूर्वलक्षप्रव्रज्यः अतथाविधतपोवेदन एव सिद्धिमुपगत इति प्रथमान्तक्रियेति १ । 'अहावरे'त्ति, 'अर्थ' अनन्तरमपरा पूर्वापेक्षया याऽन्या द्वितीयस्थानेऽभिधानाद् द्वितीया महाकर्मभिः-गुरुकर्मभिर्महाका सन् प्रत्यायातः प्रत्याजातो वा यः स तथा, 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य महाकर्मप्रत्याजातत्वेन तत्क्षपणाय तथाप्रकार घोर तपो भवति, एवं वेदनापि, कर्मोदयसम्पाद्यत्वादुपसर्गादीनामिति, 'निरुद्धेनेति अल्पेन यथाऽसौ 'गजसुकुमारो' विष्णोर्लधुभ्राता, स हि भगवतोऽरिष्टनेमिनाथस्यान्तिके प्रव्रज्यां प्रतिपद्य श्मशाने कुतकायोत्सर्गलक्षणमहातपाः शिरोनिहित जाज्वल्यमानाङ्गारजनितात्यन्तवेदनोऽल्पेनैव पर्यायेण सिद्धवानिति, शेष कण्ठयम् २ । 'अहाबो'त्यादि
5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
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सू० २३५-२३६।
श्रोस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२५२॥
1.00000000000000000000otoradoo0000000000000000000000000000
कण्ठयम् , यथाऽसौ 'सनत्कुमार' इति चतुर्थ चक्रवर्ती, स हि महातपा महावेदनश्च सरोगत्वात् दीर्घतरपर्यायेण सिद्धः, तद्भवे सिद्धयभावेन भवान्तरे सेत्स्यमानत्वादिति ३ । 'अहावरे'त्यादि कण्ठयं, यथाऽसौ 'मरुदेवी' प्रथमजिनजननी, | सा हि स्थावरत्वेऽपि क्षीणप्रायकर्म त्वेनाऽल्पका अविद्यमानतपोवेदना च सिद्धा, गजवरारूढाया एवायुःसमाप्तौ सिद्धत्वादिति ४ । एपां च दृष्टान्तदाष्टन्तिकानामर्थानां न सर्वथा साधर्म्यमन्वेषणीय, देशदृष्टान्तत्वादेपा, यतो मरुदेव्या 'मुडे भवित्ते'त्यादिविशेषणानि कानिचिन्न घटन्ते, अथवा फलतः सर्वसाधर्म्यमपि मुण्डनादिकार्यस्य सिद्धत्वस्य सिद्धत्वादिति । पुरुषविशेपागामन्तक्रियोक्ता, अधुना तेषामेव स्वरूपनिरूपणाय दृष्टान्तदान्तिकसूत्राणि पइविंशतिमाह
चत्तारि रुक्खा प० त०-उन्नए णाम पगे उन्नए १ उन्नए नाम एगे पणए २ पणए नाम पगे उन्नए ३ पणए नाम एगे पणए ४, १ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया ५० त०-उण्णए नाममेगे उण्णए तहेव जाव पणए नाममेगे पणए ४,२ । चत्तारि रुक्खा पंत-उपणए णाममेगे उण्णतपरिणए १ उपणए नाममेगे पणतपरिणते २ पणए णाममेगे उन्नतपरिणते ३ पणए णाममेगे पणयपरिणते ४,३ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं०२०-उण्णए णामलेगे उण्णयपरिणए चउभंगो ४,४ । चत्तारि रुक्खा पंत-उण्णए णाममेगे उपणतरूवे चउभंगो ४, ५ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-उण्णए णाममेगे उन्नतरूवे ४, ६। चत्तारि पुरिसजाया पं०२०उगणर णाममेगे उण्णतमणे उण्ण०४, ७ । एवं संकप्पे ८ पन्ने ९ दिट्ठी १० सीलाचारे ११ ववहारे १२ परक्कमे १३ एगे पुरिसजाए पडिवक्खो नत्थि । चत्तारि रुक्खा पं० त०-उज्जू णाममेगे उज्जू, उज्जू णाममेगे वके, चउभंगो ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-उज्जू णाम एगे उज्जू ४ एवं जहा उपणयपणपहि गमो तहा उज्जूव केहिवि भाणियब्वो जाच परक्कमे २६ (सू० २३६) ।
100000000000000000000000000000000000000000000000000000
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सू० २३६।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२५३॥
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कण्ठचं, किन्तु वृश्च्यन्ते-छिद्यन्ते इति वृक्षाः, ते विवक्षया चत्वारः प्रज्ञप्ता भगवता, तत्र उन्नतः-उच्चो द्रव्यतया 'नामे ति सम्भावने वाक्यालङ्कारे वा 'एकः कश्चिद् वृक्षविशेषः, स च पुनरुन्नतो-जात्यादिभावेनाऽशोकादिरित्येको भङ्गः १, उन्नतो नाम द्रव्यत एव एकोऽन्यः प्रणतो-जात्यादिभावहीनो निम्बादिरित्यर्थः इति द्वितीयः२, प्रणतो नामैको द्रव्यतः खर्च इत्यर्थः स एवोन्नतो जात्यादिना भावेनाशोकादिरिति तृतीयः ३. प्रणतो द्रव्यत एव खर्चः स एव प्रणतो जात्यादिहीनो निम्बादिरिति चतुर्थः ४, अथवा पूर्वमुन्नतः- तुङ्गोऽधुनाऽप्युन्नतस्तुङ्ग एवेत्येवं कालापेक्षया चतुर्भङ्गीति १ । 'एव'मित्यादि, एवमेव वृक्षवच्चत्वारि पुरुषजातानि-पुरुषप्रकारा अनगारा अगारिणो वा, उन्नतः पुरुषः कुलैश्वर्यादिभिलौकिकगुणैः शरीरेण वा गृहस्थपर्याये पुनरुन्नतो लोकोत्तरैर्ज्ञानादिभिः प्रव्रज्यापर्यायेण अथवा उन्नतः उन्नतभवत्वेन पुनरुन्नतः शुभगतित्वेन कामदेवादिवदित्येकः, 'तहेव'त्ति वृक्षसूत्रमिवेदं, 'जाव'त्ति यावत् 'पणए नाम एगे पणए'त्ति चतुर्थभङ्गकस्तावद वाच्य, तत्र उन्नतस्तथैव, प्रणतस्तु ज्ञानविहारादिविहीनतया दुर्गतिगमनाद्वा शिथिलत्वे शैलकराजर्षिवद् ब्रह्मदत्तवद् वेति द्वितीयः, तृतीयः पुनरागतसंवेगः शैलकवन्मेतार्यवर वा, चतुर्थ उदायिनृपमारकवत्कालशौकरिकवद् वेति । एवं दृष्टान्तदान्तिकसूत्रो सामान्यतोऽभिधाय तद्विशेषसूत्राण्याह-उन्नतस्तुगतवैको वृक्ष उन्नतपरिणतोऽशुभरसादिरूपमनुन्नतत्वमपहाय शुभरसादिरूपोन्नततया परिणत इत्येकः, द्वितीये भगे प्रणतपरिणत उक्तलक्षणोन्नतत्वत्यागात् ३, एतदनुसारेण तृतीयचतुर्थी वाच्यौ, विशेषसूत्रता | चास्य पूर्वमुन्नतत्वप्रणतत्वे सामान्येनाभिहिते इह तु पूर्वावस्थातोऽवस्थान्तरगमनेन विशेषिते इति, एवं दान्तिकेऽपि परिणतसूत्रमवगन्तव्यमिति ४, परिणामश्चाकारबोधक्रियाभेदात् त्रिधा, तत्राकारमाश्रित्य रूपसूत्र. तत्रोन्नतरूपः
॥२५३॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०२३६।
दीपिका बृत्तिः ।
॥२५४॥
संस्थानावयवादिसौन्दर्यात् ५, गृहस्थपुरुषोऽप्येव, प्रवजितस्तु संविग्नसाधुनेपथ्यधारीति ६, बोधपरिणामापेक्षाणि चत्वारि सूत्राणि, तत्र उन्नतो जात्यादिगुणैरुच्चतया वा, उन्नतमना:-प्रकृत्या औदार्यादियुक्तमनाः, एवमन्येऽपि प्रयः ७, 'एव' मिति सङ्कल्पादिसूत्रेषु चतुर्भङ्गिकातिदेशोऽकारि लाघवार्थ, सङ्कल्पो-विकल्पो मनोविशेष एव विमर्श इत्यर्थः, उन्नतत्व' चास्यौदार्यादियुक्ततया सदर्थविषयतया वा ८, प्रकृष्ट ज्ञान प्रज्ञान, सूक्ष्मार्थविवेचकत्वमित्यर्थः, तस्याश्चोन्नतत्वमविसंवादितया ९, तथा दर्शन दृष्टिः-चक्षुर्ज्ञान नयमत वा, तदुन्नतत्वमप्यविसंवादितयैवेति १०, क्रियापरिणामापेक्षमतः सूत्रत्रयं, तत्र शीलाचारः, शीलं-समाधिः, तत्प्रधानस्तस्य वाऽऽचारोऽनुष्ठानं शीलेन वा स्वभावेनाचार इति, उन्नतत्वं चास्यादृषणतया, वाचनान्तरे तु शीलसूत्रमाचारसूत्रं च भेदेनाधीयत इति११,व्यवहारः-अन्योन्यदानग्रहणादिविवादोवा, उन्नतत्वमस्य श्लाघ्यत्वेनेति १२,पराक्रमः-पुरुषकारविशेषः परेषां वा-शत्रणामाक्रमण, तस्योन्नतत्वमप्रतिहतत्वेन शोभनविषयत्वेन चेति १३, उन्नतविपर्ययत्वेन सत्र प्रणतत्वं भावनीयमिति, 'एगे पुरिसे'त्यादि, एतेषु मनःप्रभृतिषु सप्तसु चतुर्भनिकासूत्रेषु एक एव पुरुषजातालापकोऽध्येतव्यः, प्रतिपक्षो-द्वितीयपक्षो दृष्टान्तभूतो वृक्षसूत्र नास्ति, नाध्येतव्यमितियावत् , इह मनःप्रभृतीनां दान्तिकपुरुषधर्माणां दृष्टान्तभूतवृक्षेष्वसम्भवादिति । 'उज्जू 'त्ति ऋजुरवक्रो नामेति पूर्ववदेकः कश्चिद् वृक्षः तथा ऋजुरविपरीतस्वभाव औचित्येन फलादिसम्पादनादित्येकः, द्वितीये द्वितीय पद 'व'क'इति वक्रः, फलादौ विपरीतः, तृतीये प्रथम पद वक्र:-कुटिलः, चतुर्थः मृज्ञान:, अथवा पूर्व मजुरबक्रः पश्चादपि ऋजु:-अवक्रोऽथवा मृले ऋजुरन्ते च ऋजुरित्येवं चतुर्भङ्गी कार्येत्येष दृष्टान्तः १, पुरुषस्तु ऋजुरबक्रो बहिस्तात् शरीरगतिवाक्चेष्टादिभिस्तथा ऋजुरन्तनिर्मायत्वेन सुसाधुवदित्येकः, तथा ऋजुस्तथैव
॥२५४॥
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श्रीस्थाना
सू०२३६-२३९॥
दीपिका वृत्तिः ।
'वङ्क' इति तु वक्रः, अन्तर्मायित्वेन कारणवशप्रयुक्तार्जव भाव दुःसाधुवदिति द्वितीयः, तृतीयस्तु कारणवशादर्शितबहिरनार्जवोऽन्तर्निर्माय इति प्रवचनगुप्तिरक्षाप्रवृत्तसाधुवदिति, चतुर्थ उभयतो वक्रः, तथाविधशठवदिति, कालभेदेन वा व्याख्येयम् २ । अथ ऋजुः ऋजुपरिणत इत्यादिका एकादश चतुर्भङ्गिका लाघवार्थमतिदेशेनाह-एव'मित्यनेन ऋजुर्नाम ऋजुरित्यादिनोपदर्शितक्रमभङ्गकक्रमेण 'यथे ति येन प्रकारेण परिणतरूपादिविशेषणनवकविशेषिततयेत्यर्थः, उन्नतप्रणताभ्यां परस्परप्रतिपक्षभूताभ्यां गमः-सदृशपाठः कृतः, 'तथा' तेन प्रकारेण परिणतरूपादिविशेषिताभ्यामित्यर्थः, ऋजुवक्राभ्यामपि भणितव्यः, कियत्तमः ? इत्याह-'जाव परकमे'त्ति, ऋजुवक्रवृक्षसूत्रात्त्रयोदशसूत्र यावदित्यर्थः, तत्र च ऋजु २ परिणत ऋजुपरिणत २ ऋजुरूप २ लक्षणानि षट् सूत्राणि वृक्षदृष्टान्तपुरुषदान्तिकस्वरूपाणि, शेषाणि तु मनःप्रभृतीनि सप्त अदृष्टान्तानीति १३ । पुरुषविचार एवेदमाह ---
पडिमापडिवन्नस्स ण अणगारस्स कप्पंति चत्तारि भासाओ भासित्तए, तंजहा-जायणी पुच्छणी अणुण्णवणी पुट्टस्स वागरणी (सू० २३७) । चत्तारि भासजाया पंत-सच्चमेग भासज्जात बितिय मोस ततीय सच्चमोस चउत्थं असच्चमोस ४ (सू० २३८) । चत्तारि वत्था पं० त०-सुद्धे णाम पगे सुद्धे १ सुद्धे णाम एगे असुद्धे २ असुद्धे णाम एगे सुद्धे ३ असुद्धे णाम एगे असुद्धे ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त-सुद्धे णाम पगे सुद्धे च उभंगो ४, एवं परिणतरूवे वत्था सपडिवक्खा, चत्तारि पुरिसजाया पं० त०सुद्धे णाम एगे सुद्धमणे चउभंगो ४, एवं संकप्पे जाव परक्कमे (सू० २३९) ।
___ 'पडिमे'त्यादि स्फुट पर प्रतिमा-भिक्षुप्रतिमा द्वादश समयप्रसिद्धास्ताः प्रतिपन्नोऽभ्युपगतवान यस्तस्य,
100000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥२५॥
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सू०२२४-२२५।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
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याच्यतेऽनयेति याचनी पानकादेः 'दाहिसि मे एत्तो अण्णतरं पाणगजाय'मित्यादिसमयप्रसिद्धक्रमेण, तथा प्रच्छनी मार्गादेः कथञ्चित् सूत्रार्थयोर्वा, तथा अनुज्ञापनी अवग्रहस्य तथा पृष्टस्य केनाप्यर्थादेाकरणी प्रतिपादनीति ॥ भाषाप्रस्तावाद् भाषाभेदानाह-'चत्तारी'त्यादि जातमुत्पत्तिधर्मक तच्च व्यक्तिवस्तु, अतो भाषाया जातानिव्यक्तिवस्तूनि भेदा:-प्रकाराः भाषाजातानि, तत्र सन्तो मुनयो गुणाः पदार्था वा तेभ्यो हितं सत्यमेकप्रथम सूत्रक्रमापेक्षया भाष्यते सा तया वा भाषण वा भाषा-काययोगगृहीतवाग्योगनिसृष्टभाषाद्रव्यसंहतिस्तस्या जातं-प्रकारो भाषाजातं अस्त्यात्मेत्यादिवत् , द्वितीय सूत्रक्रमादेव 'मोस'ति प्राकृतत्वान्मृषा-अनृतं नास्त्यात्मेत्यादिवत् , तृतीयं सत्यमृषा-तदुभयस्वभावं आत्माऽस्त्यकर्तेत्यादिवत् , चतुर्थमसत्यामृषा-अनुभयस्वभावं देहीत्यादिवदिति । पुरुषभेदनिरूपणायैवेयं त्रयोदशसूत्री-चत्तारि वत्थे'त्यादि, स्पष्टा, नवरं शुद्ध व निर्मलतन्त्वादिकरणारब्धत्वात् पुनः शुद्धमागन्तुकमलाभावादिति, अथवा पूर्व शुद्धमासीदिदानीमपि शुद्धमेव, विपक्षौ सुज्ञानावेवेति, अथ दागन्तिकयोजना 'एवमेवे'त्यादि, शुद्धो जात्यादिना पुनः शुद्धो निर्मलज्ञानादिगुणतया कालापेक्षया वेति 'चउभंगो'त्ति चत्वारो भङ्गाः समाहृताः चतुर्भङ्गी चतुर्भङ्ग वेति. पुंलिङ्गता चात्र प्राकृतत्वात् , तदयमों-वस्त्रवच्चत्वारो भङ्गाः पुरुषेऽपि वाच्या इति । 'एव'मिति यथा शुद्धात् शुद्धपदे परे चतुर्भङ्ग सदान्तिक वस्त्रमुक्तमेवं शुद्धपदं प्राक्पदे परिणतपदे रूपपदे च चतुर्भङ्गानि वस्त्राणि 'सपडिवक्ख'त्ति सप्रतिपक्षाणि सदान्तिकानि वाच्यानीति, तथाहि'चत्तारि वत्था पं० तं०-मुद्दे नाम एगे मुद्धपरिणए' चतुर्भगी, 'एव'मित्यादि पुरुषजातसूत्रचतुर्भगी, एवं मुद्धे मणे चउभंगी, एवं संकप्पे जाव परक्कमे एवं पुरुषेणापि, व्याख्या तु पूर्ववत् । 'चत्तारी'त्यादि, शुद्धो बहिः
10000000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥२५६॥
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सू०२४०-२४२।
श्रोस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२५७॥
0 0000000000000000000000000000000000000000000
शुद्धमना अन्तः, एवं शुद्धसङ्कल्पः शुद्धप्रज्ञः शुद्धदृष्टिः शुद्धशीलाचारः शुद्धव्यवहारः शुद्धपराक्रम इति वस्त्रवर्जाः पुरुषा एव चतुर्युङ्गवन्तो वाच्याः , व्याख्या च प्रागिवेति, अत एवाह-'एव'मित्यादि। पुरुषभेदाधिकार एवेदमाह
चत्तारि सुया ५० त०-अतिजाते अणुजाते अवजाते कुलिंगाले (सू० २४०)। चत्तारि पुरिसजाया पं० त० सच्चे णाम एगे सच्चे, सच्चे णाम एगे असच्चे, चउभंगो ४, एवं परिणते जाव परक्कमे, चत्तारि वत्था पं० त०-सुई णाम एगे सुई, सुई णाम पगे असुई, चउभंगो ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया, पंत-सुई णाम एगे सुई, चउमंगो, एवं जहेव सुद्धेण वत्थेण भणित तहेव सुइणावि, जाव परक्कमे (सू० २४१)। चत्तारि कोरवा पंत-अंबपलंबकोरवे, तालपलबकोरवे वल्लिपलबकोरवे मिंदविसाणकोरवे, एवामेव चत्तारि पुरिसज्जाया पं० त०-अंबपलबकोरवसमाणे तालपलबकोरवसमाणे वल्लिपलबकोरवसमाणे मेंढविसाणकोरवसमाणे (सू० २४२) ।
सुताः-पुत्राः 'अइजाए'त्ति पितुः सम्पदमतिलय जातः-संवृत्तोऽतिक्रम्य वा तां यातः-प्राप्तो विशिष्टतरसम्पदं समृद्धतर इत्यर्थः, इत्यतिजातोऽतियातो वा, ऋषभवत् , तथा 'अणुजाए'त्ति अनुरूपः, सम्पदा पितुस्तुल्यो जातोऽनुजातः, पितृसम इत्यर्थः, महायशोवत् , आदित्ययशसा पित्रा तुल्यत्वात्तस्य, तथा 'अवजाए'त्ति अप इत्यपसदो हीनः, पितुः सम्पदो जातोऽपजातः पितुः सकाशादीपद्धीनगुण इत्यर्थः, आदित्ययशोवत् , भरतापेक्षया तस्य हीनत्वात् , तथा 'कुलिंगाले'त्ति कुलस्य-स्वगोत्रस्याङ्गगार इवाङ्गारो दुपकत्वादुपतापकत्वाद्वेति, कण्डरीकवत् , एवं शिष्यचातुर्विध्यमप्यवसेय, सुतशब्दस्य शिष्येष्वपि प्रवृत्तिदर्शनात् , तत्रातिजातः सिंहगिर्यपेक्षया वैरस्वामिवत् , अनुजातः शयंभवापेक्षया यशोभद्रवत् , अपजातो भद्रबाहुस्वाम्यपेक्षया स्थूलभद्रस्वामिवत , कुलागारक कूलवालकवदुदायिनृपमारकवद्वेति ।
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सू०२४०-२४२
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२५८॥
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तथा 'चत्तारी'त्यादि, सत्यो-यथावद्वस्तुभणानाद्यथाप्रतिज्ञातकरणाच्च, पुनः सत्यः संयमित्वेन सद्भ्यो हितत्वादथवा पूर्व सत्य आसीदिदानीमपि सत्य एवेति चतुर्भङ्गी । एवंप्रकारसूत्राण्यतिदिशमाह-एव'मित्यादि, व्यक्त, नवरमेवं ॥ सूत्राणि-'चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-सच्चे नाम एगे सच्चपरिणए ४, एवं सच्चरूवे ४, सच्चमणे ४, सच्चसंकप्पे ४, सच्चपन्ने ४, सच्चदिट्ठी ४, सच्चसीलायारे ४, सच्चववहारे ४, सच्चपरक्कमेत्ति ४, पुरुषाधिकार एवेदमपरमाह-'चत्तारि वत्थे'त्यादि शुचि-पवित्र स्वभावेन, पुनः शुचि संस्कारेण कालभेदेन वेति, पुरुषचतुर्भङ्ग्यां शुचिः पुरुषोऽपूतिशरीरतया पुनः शुचिः स्वभावेनेति, 'सुइपरिणए सुइरूवे' इत्येतत्सूत्रद्वय दृष्टान्तदान्तिकोपेतम् , 'सुइमणे' इत्यादि च पुरुषमात्राश्रितमेव सूत्रसप्तकमतिदिशन्नाह-एव'मित्यादि कण्ठयम् । पुरुषाधिकार एवेदमपरमाह'चत्तारि कोरवे'त्ति, तत्र आम्रचूतस्तस्य प्रलम्बः-फलं तस्य कोरक-तन्निष्पादक मुकुल आम्रप्रलम्बकोरकम् , एवमन्येऽपि, नवरं तालो-वृक्षविशेषः, वल्ली-कालिङ्ग्यादिका, मेण्ढविषाणा-मेषशगसमानफला वनस्पतिजातिः, आउलिविशेष इति, तस्याः कोरकमिति विग्रहः, एतान्येव चत्वारि दृष्टान्ततयोपात्तानीति चत्वारीत्युक्तम् , न तु चत्वार्येव लोके कोरकाणि, बहुतरोपलम्भादिति, 'एव'मित्यादि सुगम, नवरमुपनय एवं-यः पुरुषः सेव्यमान उचितकाले उचितमुपकारफलं जनयत्यसावाम्रप्रलम्बकोरकसमानः, यस्त्वतिचिरेण सेवकस्य कष्टेन महदुपकारफल करोति स तालप्रलम्बकोरकसमानः, यस्तु अक्लेशेनाचिरेण च ददाति स वल्लीप्रलम्बकोरकसमानः, यस्तु सेव्यमानोऽपि शोभनवचनान्येव अते उपकार तु न कञ्चन करोति स मेढविषाणकोरकसमानः, तत्कोरकस्य सुवर्णवर्णत्वादखाद्यफलदायकत्वाच्चेति ॥ पुरुषाधिकार एव घुणसूत्र'
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥२५९॥
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चत्तारि घुणा पं० त० तयक्खाते छल्लिक्खाते कट्ठक्खाते सारक्खाते, एवामेव चत्तारि भिक्खागा पं० त०-तयक्खायसमाणे जाव सारक्खायसमाणे, तयक्खायसमाणस्स णं भिक्खागस्स सारक्खायसमाणे तवे पण्णत्ते, सारक्खायसमाणस्स णं भिक्खागस्स तयक्खायसमाणे तवे पण्णत्ते, छल्लिक्खायसमाणस्स णं भिक्खागस्स कक्खायसमाणे तवे पण्णत्ते, कट्टक्खायसमाणस्स णं भिक्खागस्स छल्लिक्खायसमाणे तवे पण्णत्ते (सू० २४३) ।
एतत्सूत्र त्वेवं, त्वचं - बाह्यवल्कं खादतीति त्वकखादः एवं शेषा अपि नवर' 'छल्लि'त्ति अभ्यन्तर वल्क, काष्ठं-प्रतीतं, सारः - काष्ठमध्यमिति दृष्टान्तः, 'एवामेवे' त्याद्युपनयसूत्र', 'एवामेवे 'ति भिक्षणशीला भिक्षणधर्माणो भिक्षणे साधवो वा भिक्षाकाः, त्वक्रखादेन घुणेन समानोऽत्यन्तं सन्तोषितया आयामाम्लादिप्रान्ताहारभक्षकत्वात् त्वक्रखादसमानः, एवं छल्लीखादसमानोऽलेपाहारकत्वात् काष्ठखादसमानो निर्विकृतिकाहारतया सारखादसमानः सर्वकामगुणाहारत्वादिति, एतेषां चतुर्णामपि भिक्षाकाणां तपोविशेषाभिधानसूत्र' - 'तयखाए' इत्यादि सुगम, नवरमयं भावार्थ:-त्वकल्पासाराहाराभ्यवहर्तुर्निरभिष्वङ्गत्वात् कर्म्मभेदमङ्गीकृत्य वज्रसारं तपो भवतीत्यतोऽपदिश्यते - 'सारक्खायसमाणे तवेत्ति, सारखादघुणस्य सारखादत्वादेव समर्थत्वाद्वज्रतुण्डत्वाच्चेति, सारखादसमानस्योक्तलक्षणस्य साभिष्वङ्गतया त्वक्रखादसमान कर्म्मसारभेदं प्रत्यसमर्थ तपः स्यात् त्वक्खादकघुणस्य हि त्वक्खादकत्वादेव सारभेदनं प्रत्यसमर्थत्वादिति, तथा छल्लीखादघुणसमानस्य भिक्षाकस्य त्वक्रखादघुणसमानापेक्षया किञ्चिद्विशिष्टभोजत्वेन किञ्चित्साभिष्वङ्गत्वात् सारखाद काष्ठखादघुण समानापेक्षया त्वसारभोजित्वेन निरभिष्वङ्गत्वाच्च कर्मभेद प्रति काष्ठखादघुणसमानं तपः प्रज्ञप्तं नातितीव्रं सारखादघुणवत्, नाप्यतिमन्दादि, त्वक्छल्ली
"
सू० २४३ ।
॥२५९॥
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॥
सू०२४५-२४६।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२६॥
खादघुणवदिति भावः, तथा काष्ठखादधुणसमानस्य साधोः सारखादघुणसमानापेक्षया त्वसारभोजित्वेन निरभिष्व
ङ्गत्वात् त्वक्छल्लीखादघुणसमानापेक्षया सारतरभोजित्वेन साभिष्वगत्वाच्च छल्लीखादघुणसमान तपः प्रज्ञप्त, कर्मभेद प्रति न सारखादकाष्ठखादघुणवदतिसमर्थादि नापि त्वक्खादघुणवदतिमन्दमिति भावः, प्रथमविकल्पे प्रधानतरं तपो द्वितीयेऽप्रधानतर, तृतीये प्रधान, चतुर्थेऽप्रधानमिति ॥ अनन्तरं वनस्पत्यवयवखादका घुणाः प्ररूपिता इति वनस्पतिमेव प्ररूपयन्नाह
चउब्बिहा तणवणस्सइकाइया ५० त०-अग्गबीया मूलबीया पोरबीया खंधवीया (सू० २४४)। चउहिं ठाणेहिं अहुणोववण्णे णेरइए णिरयलोगंसि इच्छेज्जा माणुस लोगं हव्यमागच्छित्तए, णो चेव ण संचाएर हव्यमागच्छित्तए, तजहा-अहुणोववणे णेरइए णिरयलोगंसि समुन्भूय' वेयण वेदेमाणे इच्छेज्जा माणुस लोग हब्धमागच्छित्तए णो चेव ण सचापइ हव्वमागच्छित्तए १, अहुणोववण्णे णेरइए णिरयलोगंसि णिरयपालेहिं भुज्जो भुजो अहिहिज्जमाणे इच्छेजा माणुस लोगं हव्वमागच्छित्तए, णो चेव ण संचाएति हव्वमागच्छित्तए २, अहुणोववण्णे णेरइए णिरयवेयणिज्जसि कम्मंसि अक्खीणंसि अवेतितंसि अणिज्जिण्णसि इच्छेज्जा० णो चेव ण संचाएइ ३, एवं णिरयाउयसि कम्मंसि अक्खीणंसि जाव णो चेव ण संचाएइ हव्यमागच्छित्तए ४, इच्चेतेहिं चउहि ठाणेहि अहुणोववन्ने नेरतिए जाव नो चेव ण संचाएति हव्यमागच्छित्तए ४ (सू० २४५)। कप्पंति निग्गंधीण चत्तारि संघाडीओ धारित्तए वा परिहरित्तए वा, त-पग दुहत्थवित्थार', दो तिहत्यवित्थारा, पग चउहत्थवित्थार [सू० २४६] ।
॥२६॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२६॥
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'चउविहे'त्यादि, वनस्पतिः प्रतीतः स एव कायः-शरीरं येषां ते वनस्पतिकायास्त एव वनस्पतिकायिकाः, तृणप्रकारा वनस्पतिकायिकास्तृणवनस्पतिकायिका बादरा इत्यर्थः, अन बीज येषां ते अग्रबीजाः-कोरिण्टकादयः, अग्रे वा बीज येषां तेऽग्रवीजा:-ब्रीद्यादयः, मूलमेव बीज येषां ते मूलबीजाः-उत्पलकन्दादयः, एवं पर्वबीजाइक्ष्वादयः, स्कन्धबीजाः-सल्लुक्यादयः, स्कन्धः थुडमिति, एतानि च सूत्राणि नान्यव्यवच्छेदपराणि, तेन वीजरुहसम्मृर्छनजादीनां नाभावो मन्तव्यः, सूत्रान्तरविरोधादिति । अनन्तरं वनस्पतिजीवानां चतुःस्थानकमुक्तम् , अधुना जीवसाधान्नारकजीवानाश्रित्य तदाह-'चउही'त्यादि सुगम, केवल 'ठाणेहिति कारणैः 'अहुणोदवन्ने ति अधुनोपपन्नोऽचिरोपपन्नः, निर्गतमय-शुभमस्मादिति निरयो-नरकस्तत्र भवो नैरयिकः, तस्य चानन्योत्पत्तिस्थानतां दर्शयितुमाह-निरयलोके, तस्मादिच्छेन्मानुषाणामय मानुपस्त लोक-क्षेत्रविशेष 'हब'शीघ्रमागन्तुं, 'नो चेव'त्ति नैव, ण वाक्यालङ्कारे, 'संचाएइ'त्ति सम्यक शवनोति आगन्तुं, 'समुब्भूय"ति समुद्भूतामतिप्रबलतत्योपन्नां पाठान्तरेण 'सम्मुखभूता'मेकहेलोत्पन्नां पाठान्तरेणामहतो महतो भवन महद्भूतं तेन सह या सा समहद्भूता तां सुमहद्भूतां वा वेदनां-दुःखरूपां वेदयमानो-ऽनुभवन् इच्छेदिति मनुष्यलोकागमनेच्छायाः कारणम् १। एतदेव चाशकनस्य, तीववेदनाभिभूतो हि न शक आगन्नुमिति १, तथा निरयपालैः-अम्बादिभिर्भूयोभूयः पुनः पुनरधिप्ठीयमानः-समाक्रम्यमाणः आगन्तुमिच्छेदित्यागमनेच्छाकारणमेतदेव चागमनाशक्तिकारण, तैरत्यन्ताक्रान्तस्यागन्तुमशक्तत्वादिति २, तथा निरये वेद्यते-अनुभूयते यत् निरययोग्य वा यद्वेदनीय तन्निरयवेदनीय-अत्यन्ताशुभनामकर्मादि असातवेदनीय वा तत्र कर्मणि अक्षीणे-स्थित्या अवेदिते अननुभूतानुभागतया अनिर्जीणे
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॥२६॥
।
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सू०२४६-२४७।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२६२॥
जीवप्रदेशेभ्योऽपरिशटिते इच्छेन्मानुषं लोकमागन्तुं न च शक्नोति, अवश्यवेद्यकर्मनिगडनियन्त्रितत्वादित्यागमनाशकन एव कारणमिति ३, तथा 'एव'मिति 'अहुणोवबन्ने' इत्याद्यभिलापसूचनार्थ निरयायुष्के कर्मणि अक्षीणे यावत्करणाद् 'अवेइए'त्यादि दृश्यमिति ४ । निगमयन्नाह-'इच्चेएहि"ति, इत्येवंप्रकारैरेतेः-प्रत्यक्षरनन्तरोक्तत्वादिति । अनन्तरं नारकस्वरूपमुक्त, ते चासंयमोपष्टम्भकपरिग्रहादुत्पद्यन्त इति तद्विपक्षभूतपरिग्रहविशेष चतुःस्थानकेऽवतारयन्नाह-'कप्पंती'त्ति कल्पन्ते-युज्यन्ते निर्गता ग्रन्थाद-बन्धहेतोर्हिरण्यादेमिथ्यात्वादेश्चेति निग्रन्थ्यः-साध्व्यस्तासां सङ्घाट्यः-उत्तरीयविशेषरूपा धारयितुं वा परिग्रहे परिहर्नु वा परिभोक्तुमिति, द्वौ हस्तौ विस्तार:-पृथुत्वं यस्याः सा तथा, कल्पन्त इति क्रियापेक्षया कर्तृत्वात् सङ्घाटीनां, 'एग दुहत्यवित्थार एगं चउहत्यवित्थारं'ति प्रथमा स्यात्तदर्थे च प्राकृतत्वाद् द्वितीयोक्ता, धारयन्ति परिभुञ्जते चेति, प्रत्ययपरिणामेन वा क्रियानुस्मृतेहितीयेव, तत्र प्रथमोपाश्रये भोग्या त्रिहस्तविस्तारयोरेका भिक्षागमने द्वितीया विचारभूमिगमने चतुर्थी समवसरणे ॥ नारकत्वं ध्यानविशेषाद् , ध्यानविशेषार्थमेव संघाट्यादिपरिग्रह इति ध्यान प्रकरणत आह
चत्तारि झाणा पं० त०-अट्टे झाणे रोद्दे झाणे धम्मे झाणे सुक्के झाणे, अट्टे झाणे चउविहे पं० २०अमणुण्णसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओगसइसमण्णागए यावि भवइ १, मणुण्णसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगसइसमण्णागए यावि भवइ २, आतंकसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओगसतिसमण्णागए यावि भवइ ३, परिजुसितकामभोगसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगसतिसमण्णागते यावि भवइ ४, अट्टस्स ण झाणस्स चत्तारि लक्षणा पं, त-कंदणया सोयणया तिप्पणया परिदेवणया । रुद्दे झाणे चउविहे पं०, त
॥२६२॥
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सू०२४७1
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका
हिंसाणुवंधि मोसाणुबंधि तेणाणुबंधि सारक्खणाणुबंधि, रोहस्स ण झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० त०ओसण्णदोसे बहुदोसे अण्णाणदोसे आमरणंतदोसे । धम्मे झाणे चउविहे चउप्पडोयारे ५०, त-आणाविजये अवायविजये विवागविजये संठाणविजये । धम्मस्स ण झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० त०-आणालई णिसग्गाई सुत्तरुई ओगाढरुई, धम्मस्स ण झाणस्स चत्तारि आलबणा पं०, त-वायणा पडिपुच्छणा परियट्टणा अणुप्पेहा, धम्मस्स ण झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पं० त०-एगाणुप्पेहा अणिञ्चाणुप्पेहा असरणाणुप्पेहा संसाराणुप्पेहा, सुक्के झाणे चउबिहे चउप्पडोयारे ५० त०--पुहुत्तवितक्के सवियारी १, पगत्तवितक्के अवियारी २, सुहुमकिरिए अणियट्टी ३. समुच्छिण्णकिरिए अप्पडिवाई ४, सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० त०अब्बहे असंमोहे विवेगे विउस्सग्गे, सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि आल'बणा ५० त०-खंती मुत्ती महवे अज्जवे, सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुपेहाओ पं० त-अणंतवत्तियाणुप्पेहा विप्परिणामाणुप्पेहा असुभाणुप्पेहा अवायाणुप्पेहा (सू० २४७)।
'चत्तारित्ति सुगम चैतन्मवर, ध्यातयो-ध्यानानि, अन्तर्मुहर्तमात्र काल चित्तस्थिरतालक्षणानि, उक्तं च"अंतोमुहत्तमेतं, चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि । छउमत्थाण झाण, जोगनिरोहो जिणाणतु ॥१॥"त्ति, तत्र ऋतंदुःखं तस्य निमित्तं तत्र वा भवं ऋते वा पीडिते भवमा ध्यान-दृढोऽध्यवसायः, हिंसाद्यतिक्रौर्यानुग्रत रौद्र, श्रुतचरणधर्मादनपेतं धर्म्य, शोधयत्यष्टप्रकारं कर्ममलं शुच वा क्लमयतीति शुक्र, 'चउविहे 'त्ति चतस्रो विधाभेदा यस्य तत्तथा, अमनोज्ञस्य-अनिष्टस्य, 'असमणुन्नस्स'त्ति पाठान्तरे अस्वमनोज्ञस्य-अनात्मप्रियस्य शब्दादिविषयस्य तत्साधनवस्तुनो वा सम्प्रयोगः-सम्बन्धस्तेन सम्प्रयुकः-सम्बद्धः अमनोज्ञसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तः अस्वमनोज्ञसम्प्रयोग
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका
वृत्तिः ।
॥२६४॥
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सम्प्रयुक्तो वा य इति गम्यते ' तस्ये 'ति अमनोज्ञशब्दादेर्विप्रयोगाय - वियोगार्थं स्मृतिश्चिन्ता तां समन्वागतः - समनुप्राप्तो भवति यः प्राणी सोऽभेदोपचारादार्त्तमिति, चापीतिशब्द उत्तरविकल्पापेक्षया समुच्चयार्थः, अथवा अमनोज्ञसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तो यः प्राणी तस्य प्राणिनो विप्रयोगे - प्रक्रमादमनोज्ञशब्दादिवस्तूनां वियोजने स्मृतिश्चिन्तन तस्याः समन्वागतं - समागमनं समन्वाहारो विप्रयोगस्मृतिसमन्वागतं, चापीति तथैव भवति आर्त्तध्यानमिति प्रक्रमः, | प्रथममेवमुत्तरत्रापि, नवरं मनोज्ञं-वल्लभं धनधान्यादि, अविप्रयोगोऽवियोग इति द्वितीयमार्त्तं, तथा आतङ्को -रोग इति तृतीय, तथा 'परिजुसिय'त्ति निषेविता ये कामाः कमनीया भोगाः शब्दादयोऽथवा काम-शब्दरूपे भोगाः - गन्धरसस्पर्शाः कामभोगा: कामानां वा शब्दादीनां यो भोगस्तैस्तेन वा सम्प्रयुक्तः पाठान्तरे तु तेषां तस्य वा सम्प्रयोगस्तेन सम्प्रयुक्तो यः स तथा, अथवा 'परिझुसिय'त्ति परिक्षीणो जरादिना स चासौ कामभोगसम्प्रयुक्तश्च यरतस्य तेषामेवाविप्रयोगस्मृतेः समन्वागतं - समन्वाहारः, तदपि भवत्यार्त्तं ध्यानमिति चतुर्थ, द्वितीय वल्लभघनादिविषयं चतुर्थ तत्सम्पाद्यशब्दादिभोगविषयमिति भेदोऽनयोर्भावनीयः, शास्त्रान्तरे तु द्वितीयचतुर्थयोरेकत्वेन तृतीयत्वम्, चतुर्थ तत्र निदानमुक्तम् उक्तं च- “अमणु
सदाविसयवत्थूण दोसमाइलस्स । [ वस्तूनि - शब्दादिसाधनानि दोसोत्ति द्वेपः ) धणियं विओगचिंतणसंपओगाणुसरणं च || १|| तह सूलसीसरोगाइवेयणाए विभगपणिहाण । तयसंपओगचिंता, तप्पडियाराउलमणस्स ||२|| द्वाणं विसयाईण, वेयणाए य रागरत्तस्स । अविओगज्झवसाण, तह संजोगाभिलासो य || ३॥ देविंदचकवट्टित्तणाइ-गुण रिद्धिपत्थणामइयं । अहमं नियाण चिंतणमन्नाणाणुगयमच्चतं ॥४॥ 'ति, आर्त्तध्यानलक्षणान्याह - लक्ष्यते-निर्णीयते परोक्षमपि चित्तवृत्तिरूपत्वादार्त्तध्यानमेभिरिति लक्षणानि, तत्र क्रन्दनता - महता शब्देन विखण
सू० २४७ ।
॥२६४॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू० २४७॥
दीपिका वृत्तिः ।
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शोचनता-दीनता तेपनता-तिपः क्षरणार्थत्वादश्रुविमोचन परिदेवनता पुनः पुनः विष्टभाषणमिति, एतानि चेष्टवियोगानिष्टसंयोगरोगवेदनाजनितशोकरूपस्यैवार्तस्य लक्षणानि, यत आह-"तस्सकंदणसोयग-परिदेवणताडणाई लिंगाई। इटाणिविओगा-विओगवियणानिमित्ताई ॥१॥"ति, निदानस्यान्येषां च लक्षणान्तरमस्ति, आह च"निदइ निययकयाई, पसंसइ सविम्हओ विभूईओ । पत्थेइ तासु रजइ, तयज्जणपरायणो होइ ॥१॥"त्ति । अथ रौद्रध्यानभेदा उच्यन्ते, 'हिंसाणु 'त्ति, हिंसां-सत्त्वानां वधबन्धनादिभिः प्रकारैः पीडामनुवध्नाति सततप्रवृत्तां करोतीत्येवंशील यत्प्रणिधान हिंसानुबन्धो वा यत्रास्ति तद्धिंसानुवन्धि रौद्र ध्यानमिति प्रक्रमः, उक्त च-"सत्तवहवेहवंधण-डहणंकणमारणाइपणिहाण । अइकोहग्गहगत्थं, निग्घिणमणसोऽहमविवाग ॥१॥"ति, तथा मृषाऽसत्य तदनुबध्नाति पिशुनाऽसभ्याऽसद्भूतादिभिर्वचनभेदैरतन्मृपानुबन्धि, आह च-"पिमुणासम्भासब्भूय-भूयघायाइवयणपणिहाण । मायाविणोऽतिसंधण-परस्स पच्छन्नपावस्स ॥१॥"त्ति, तथा स्तेनस्य-चौरस्य कर्म स्तेय तीवक्रोधाद्याकुलतया तदनुवन्धवत् स्तेयानुवन्धि, आह च-"तह तिव्यकोहलोहाउलम्स, भूओवघायणमणज्ज । परदव्वहरणचित्तं, परलोगावायनि/वक्ख ॥१॥"ति, संरक्षणे-सर्वोपायैः परित्राणे विषयसाधनस्यानुबन्धो यत्र तत्संरक्षणानुबन्धि, तथाह-"सदाइविसयसाहण-धणसंरक्खणपरायणमणि । सव्याभिसंकणपरोवघाय-कलुसाउल चित्तं ॥१॥"ति । अथैतल्लक्षणान्युच्यन्ते-'ओसण्णदोसे त्ति, हिंसादीनामन्यतरस्मिन ओसन्न-प्रवृत्तेः प्राचुर्य बाहुल्यं यत्स एव दोषः अथवा 'ओसन्न ति बाहुल्येनानुपरतत्वेन दोषो हिंसादीनां चतुर्णामन्यतर ओसन्नदोषः, तथा बहुष्वपि-सर्वेष्वपि हिंसादिषु दोपः-प्रवृत्तिलक्षणो बहुदोषः, बहु-बहुविधो हिंसानृतादिरिति बहुदोपः, तथाऽज्ञानात्-कुशास्त्रसंस्काराद्
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०२४७॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
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हिंसादिष्वधर्मरूपेषु नरकादिकारणेषु धर्मबुद्धयाऽभ्युदयार्थ या प्रवृत्तिस्तल्लक्षणो दोषोऽज्ञानदोषः, अथवा उक्तलक्षणमज्ञानमेव दोषोऽज्ञानदोष इति, अन्यत्र नानाविधदोष इति पाठस्तत्र नानाविधेषु तू कलक्षणादिषु हिंसाद्यपायेषु दोषोऽसत्प्रवृत्तिरिति असकृत्प्रवृत्तिरिति नानाविधदोष इति, तथा मरणमेवान्तो मरणान्तः आमरणान्तादामरणान्तमस जातानुतापस्य कालसौकरिकादेवि या हिंसादिषु प्रवृत्तिः सैव दोष आमरणान्तदोषः । अथ धर्मध्यान धर्म्य चतुर्विधमिति स्वरूपेण चतुषु पदेषु-स्वरूपलक्षणाऽऽलम्बनाऽनुक्षालप्रेक्षणेष्ववतारो विचारणीयत्वेन यस्य तच्चतुष्पदावतारं चतुर्विधस्यैव पर्यायो वाऽयमिति, कचित् 'चउप्पडोयार मिति पाठः, तत्र चतुर्यु पदेषु प्रत्यवतारो यस्येति विग्रह इति, 'आणा विजये'त्ति आ-अभिविधिना ज्ञायन्ते अर्था यया साऽऽज्ञा-प्रवचन सा विचीयते-निर्णीयते पर्यालोच्यते वा यस्मिंस्तदाज्ञाविचयं धर्मध्यानमिति, प्राकृतत्वेन विजयमिति, आज्ञा वा विजीयते अभिगमद्वारेण परिचिता क्रियते यस्मिन्नित्याज्ञाविजय, एवं शेषाणामपि, नवरमपायाः-रागादिजनिताः प्राणिनामैहिकामुष्मिका अनर्थाः, विपाकः-फलं कर्मणां ज्ञानाद्यावारकत्वादि, संस्थानानि लोकद्वीपसमुद्रजीवादीनामिति, आह च-आप्तवचन प्रवचनमाज्ञा विचयस्तदर्थनिर्णयनम् । आश्रवविकथागौरव-परीपहाद्यैरपायस्तु ॥१॥ अशुभशुभकर्मपाकानुचिन्तनार्थों विपाकविचयः स्यात् । द्रव्यक्षेत्राकृत्यनु-गमन संस्थानविचयस्तु ॥२॥"इति, एतल्लक्षणान्याह-आणारुइ'त्ति आज्ञा-मूत्रव्याख्यान नियुक्त्यादि, तत्र तया वा रुचिः-श्रद्धानमाज्ञारुचिः, एवमन्यत्रापि, नवरं निसर्गःस्वभावोऽनुपदेशस्तेन, तथा सूत्रम्-आगमः तत्र तस्माद्वा, तथा अवगाहनमवगाढ-द्वादशाङ्गावगाहो विस्तराधिगम इति सम्भाव्यते तेन रुचिरथवा 'ओगाढे'त्ति साधुप्रत्यासन्नीभूतम्तस्य साधृपदेशानुचिः, उक्तं च-"आगमउवए सेण,
॥२६६॥
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ational
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सू०२४७।
श्रीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२६७॥
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निसग्गओं जिणप्पणीयाण । भावाण सदहण, धम्मज्झाणस त लिंग ॥१॥"ति, तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं सम्यकत्वं धर्मस्य [धर्मध्यानस्य लिङ्गमिति हृदय, अथ धर्मस्यालम्बनान्युच्यन्ते-धर्म यानसौधारोहणार्थमालम्ब्यन्त इत्यालम्बनानि, वाचन-वाचना-विनेयाय निर्जराये सूत्रदानादि, तथा शङ्किते सूत्रादौ शङ्कापनोदाय गुरोः प्रच्छनं प्रतिप्रच्छना, प्रतिशब्दस्य धात्वर्थमात्रार्थत्वादिति, तथा पूर्वाधीतस्यैव सूत्रादेरविस्मरणनिर्जरार्थमभ्यासः परिवर्त्तनेति, अनुप्रेक्षणमनुप्रेक्षा-सूत्रार्थानुस्मरणमिति । अथानुप्रेक्षा उच्यन्ते अन्विति-ध्यानस्य पश्चात् प्रेक्षणानि-पर्यालोचनानान्यनुप्रेक्षाः, तत्र-"एकोऽहं नास्ति मे कश्चिन्नाहमन्यस्य कस्यचित् । न त पश्यामि यस्याहं, नासौ भावीति यो मम ॥१॥" इत्येवमात्मन एकस्य-एकाकिनोऽसहायस्यानुप्रेक्षा-भावना एकानुप्रेक्षा, तथा-"कायः सन्निहितापायः, सम्पदः पदमापदाम् । समागमाः सापगमाः, सर्वमुत्पादि भगुरम् ॥१॥” इत्येवं जीवितादेरनित्यत्वस्यानुप्रेक्षा अनित्यानुप्रेक्षेति, तथा-जन्मजरामरणभयै-रभिद्रते व्याधि वेदनाग्रस्ते । जिनवरवचनादन्यत्र, नास्ति शरण क्वचिल्लोके ॥१॥" इत्येवमशरणस्यात्राणस्यात्मनोऽनुप्रेक्षा अशरणानुप्रेक्षेति, तथा-"माता भूत्वा दुहिता, भगिनी भार्या च भवति संसारे । व्रजति सुतः पितृतां, भ्रातृतां पुनः शत्रुताञ्चैव ॥१॥"इत्येवं संसारस्यचतसृषु गतिषु सर्वावस्थामु संसरणलक्षणस्यानुप्रेक्षा संसारानुप्रेक्षेति । अथ शुक्लध्यानमाह-'सुक्के'त्यादि हुत्तवियक्के त्ति पृथक्त्वेन-एकद्रव्याश्रितानामुत्पादादिपर्यायाणां भेदेन पृथुत्वेन वा विस्तीर्णभावेनेत्यन्ये वितर्को-विकल्पः पूर्वगतश्रुतालम्बनो नानानयानुसरणलक्षणो यस्मिंस्तत्तथा, पूज्यैस्तु वितर्कः श्रुतालम्बनतया श्रुतमित्युपचारादधीत इति, तथा विचरणम्-अर्थाद् व्यजने व्यञ्जनादर्थे तथा मनः प्रभृतीनां योगानामन्यतरस्मादन्यतरस्मिन्निति विचारो
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श्रीस्थानान
सू०२४७।
दीपिका वृत्तिः ।
॥२६॥
|| 'विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसङ्क्रान्ति'रिति वचनात् , सह विचारेण सविचारि, सर्वधनादित्वादिन् समासान्तः, उक्त
च-"उप्पायठिइभंगाइ-पज्जयाण जमेगदम्बंमि । नाणानयाणुसरण, पुव्यगयमुयाणुसारेण ॥१॥" सावियारमत्थवंजण-जोगंतरओ तयं पढमसुक्कं । होइ पुहुत्तवियक, सवियारमरागभावस्प ॥२॥"त्ति, एको भेदस्तथा 'एगत्तवियक्के'त्ति एकत्वेन-अभेदेनोत्पादादिपर्यायाणामन्यतमैकर्षायालम्बनतयेत्यर्थों वितर्क:-पूर्बगतश्रुताश्रयो व्यञ्जनरूपोर्थरूपो वा यस्य तदेकत्ववितर्कम् , तथा न विद्यते विचारोऽर्थव्यजनयोरितरस्मादितरत्र तथा मनःप्रभृतीनामन्यतरस्मादन्यत्र सञ्चरणलक्षणो निर्वातगृहगतप्रदीपस्येव यस्य तदविचारीति पूर्ववदिति, उक्त च-'ज पुण सुनिप्पकंप, निवायसरणप्पईवमिव चित्तं । उप्पायटिइभंगा-इयाणमेगंमि पज्जाए ॥११॥ अवियारमत्थर्वजण-जोगंतरओ तय विइयसुकं । पुचगयमुयालंबण-मेगत्तवियकमवियार ॥२॥"ति द्वितीयः, तथा 'सुहुमकिरिए'त्ति निर्वाणगमनकाले केवलिनो निरुद्धमनोवाग्योगस्यार्द्धनिरुद्धकाययोगस्यैतद् , अतः सूक्ष्मा क्रिया कायिकी-उच्छ्वासादिका यस्मिंस्तत्तथा, न निवर्तते-न व्यावर्त्तते इत्येवंशीलमनिवत्ति प्रवर्द्धमानतरपरिणामादिति तृतीयः, तथा 'समुच्छिन्नकिरिए त्ति समुच्छिन्ना-क्षीणा क्रिया-कायिक्यादिका शैलेशीकरणे निरुद्धयोगत्वेन यस्मिंस्तत्तथा, 'अप्पडिवाइ'त्ति अनुपरतिस्वभावमिति चतुर्थः, आह हि-"तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलोव्ब निप्पकंपस्प । वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइ झाणं परमसुक्कं ॥११॥"ति, इह वाऽन्त्ये शुक्लद्वये अयं क्रमः-केवली किलान्तर्मुहर्त भाविनि परमपदे भवोपग्राहिकर्मसु च वेदनीयादिषु समुद्घाततो निसर्गेण वा समस्थितिषु सत्सु योगनिरोध करोति, तत्र च-"पज्जत्तमेत्तसन्निस्स, जत्तियाई जहन्नजोगिम्स । होति मणोदव्वाई. तव्यावारो य जमेत्तो॥११॥ तुदसंखगुणविहीणे, समए समए निरु
॥२६८॥
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स्० २५७।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः । ॥२६॥
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भमाणो सो । मणसो सम्बनिरोह, कुणइ असंखेजसमएहि ॥२॥ पजत्तमेत्तबिंदिय-जहन्नवइजोगपज्जया जे उ। तदसंखगुणविहीणे, समए समए निरंभंतो ॥३॥ सब्बवयजोगरोहं, संखाईएहिं कुणइ समएहि । तत्तो य सुहुमपणगस्स, पढमसमयोववण्णस्स ॥४॥ जो किर जहन्नजोगो, तदसंखज्जगुणहीणभक्केके । समए निरंभमाणो, देवतिभागं च मुंचतो ॥५।। रुंभइ स कायजोग, संखाईएहि चेव समएहिं । तो कयजोगनिरोहो, सेलेसीभावणामेड ॥६॥" शैलेशस्येव-मेरोरिब या स्थिरता सा शैलेशीति, "हस्सक्खगई मज्जैण, जेण कालेण पंच भण्णंति । अच्छइ सेलेसिगओ, तत्तियमेत्तं तओ काल ॥१॥ तणुरोहारंभाओ, झायइ मुहुमकिरियानियदि सो । वोच्छिन्नकिरियमप्पडि-बाई सेलेसिकालंमि ॥२॥"त्ति । अथ शुक्लथ्यानलक्षणान्युच्यन्ते-'अवहे 'त्ति देवादिकृतोपसर्मादिजनित भय चलन वा व्यथा, तस्या अभावो अव्यथम , तथा देवादिकृतमायाजनितस्य सूक्ष्मपदार्थ - विषयस्य च स मोहस्य-मूढताया निषेधादसम्मोहः, तथा देहादात्मन आत्मनो वा सर्वसंयोगानां विवेचन-बुद्धया पृथकरण विवेकः, तथा निःसङ्गतया देहोपधित्यागो व्युत्सर्ग इति । अत्र विवरणगाथे-"चालिज्जइ बीहेइ व, धीरो न परीसहोबसग्गेहि । सहुयेसु न संमुज्झइ, भावेमु न देवमायाम् ॥१॥ देहविवित्तं पेच्छा, अप्पाण तह य सब्यसंजोगे । देहोवहिवुस्सन्ग, निस्संगो सव्वहा कुणइ ।।२।।"त्ति, आलम्बनसूत्र व्यक्त, अत्र गाथा-"अह खंतिमवज्व-मुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ । आलं णाई जेहि उ, मुक्कज्झाण समारुहइ ॥१॥ अथ तदनुप्रेक्षा उच्चन्ने-'अणंतवत्तियाणुप्पेह'त्ति अनन्ता-अत्यन्त प्रभूता वृत्तिर्वर्त्तनं यस्यासावनन्तवृत्तिरनन्ततया वा वर्तत इत्यनगन्तवर्ती लहावस्तत्ता, भवसन्तानस्येति गम्यते, तस्या अनुप्रेक्षा अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा अनन्वर्तितानुप्रेक्षा वेति,
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०२४८-२४०।
दीपिका वृत्तिः ।
यथा-"एसो अणाइ जीवो, संसारो सागरोच दुत्तारो । नारयतिरियनरामर-भवेसु परिहिंडए जीवो ॥१॥"त्ति, एवमुत्तरत्रापि समासो, नवर विपरिणामे'त्ति विविधेन प्रकारेण परिणमनं विपरिणामो, वस्तूनामिति गम्यते, यथा"सब्वट्ठाणाई असासयाई, इह चेव (दव्य) देवलोए य । मुरअसुरनराईण, रिद्धिविसेसा सुहाई च ॥१॥" 'असुभे'त्ति अशुभत्वं संसारस्येति गम्यते, यथा-"धी संसारी जम्मि, जुयाणी परमरूवगचियओ। मरिऊण जायइ किमी, तत्व कडेवरे नियए ॥१॥" तथा 'अवाए'त्ति अपाया आश्रवाणामिति गम्यते, यथा-"कोहो य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोभो य पवढमाणा । चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचति मृलाई पुणब्भवम्स ॥१॥"। ध्यानाद् देवत्वमपि स्यादतो देवस्थितिसूत्रम्
चउब्यिहा देवट्टिई ५० त०-देवे णाममेगे । देवसिणाते णाममेगे २ देवपुरोहिते णाममेगे ३ देवपज्जलणे णाममेगे ४ । चउविहे संवासे पं० त०-देवे नाममेगे देवीए सद्धि संवास गच्छेउजा, देवे नाममेगे छवीए सद्धि संवास गच्छेज्जा, छवी णाममेगे देवीए सद्धि संवास गच्छेज्जा. छवी णाममेगे छवीए सद्धि संवास गच्छेजा (सू० २४८)। चत्तारि कसाया पंत-कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लोहकसाए. एवणेरइयाण जाव वेमाणियाणं २४, चउपइट्ठिए कोहे पंत-आयपइट्टिए परपइट्टिए तदुभयपइट्टिए अपइट्ठिए, एवं नेरइयाण जाव वेमाणियाण २४, एवं जाव लोभे, जाव वेमाणियाण २४, चउहि ठाणेहिं कोहुप्पत्ती सिया, त-खेत्त पडुच्च वत्थु पडुच्च सरीर पडुच्च उवहि पडुच्च, एवं णेरइयाण जाव वेमाणियाण २४, एवं जाय लोभ० वेमाणियाण २४ चउब्धिहे कोहे पं० त०-अणंताणुबंधी कोहे अपञ्चक्खाणे कोहे पच्चक्वाणावरणे कोहे संजलणे कोहे. एवं नेरइयाण
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सू०२४०-२४२।
श्रीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२१॥
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जाव वेमाणियाण २४, पवं जाव लोभे वेमाणियाण २४, चउबिहे कोहे पं० त०-आभोगणियत्तिण अणाभोगणिवत्तिय उवसते अणुवसंते, एवं नेरइयाण जाव वेमाणियाण २४, एवं जाव लोमे जाव बेमाणियाण (सू० २४९)।
स्थिति:-क्रमो मर्यादा राजामात्यादिमनुष्यस्थितिवदेव, देवः सामान्यो नामेति वाक्यालङ्कारे एकः कश्चित स्नातकःप्रधानः, देव एव देवानां वा स्नातक इति विग्रहः, एवमुत्तरत्रापि, नवरं पुरोहितः-शान्तिकर्मकारी 'पज्जलणे'त्ति प्रज्वलयति-दीपयति वर्णवादकरणेन मागधदिति प्रज्वलन इति । देवस्थितिप्रस्तावातद्विशेषभूतसंवाससूत्रम् , एतच्च व्यक्त, किन्तु संवासो-मैथुनार्थ संवसन, 'ठवित्ति त्वक उद्योगादीदारिकशरीरं तद्वी नारी तिची वा तहान नरस्तिर्यग वा छविरित्युच्यते । अनन्तरं संवास उतः, स च वेदलक्षणमोहोदयादिति मोहविशेषभूतकषायप्रकरणमाह-चत्तारि कसापत्ति, तुत्र कृपन्ति-विलिखन्ति कर्मक्षेत्र मुखदुःखफलयोग्य कुर्वन्ति कलुपयन्ति बा जीवगिनि निरुक्तिविधिना कषायाः, अथवा कपति-हिनस्ति देहिन इति कप-कर्म भवो वा तस्याऽऽया लाभहेतुत्वात् कर्ष वा आययन्ति-गमयन्ति देहिन इति कपायाः, उच-"कम्म कसं भवो वा, कसमाओ सिं जओ कसाया ते । कसमाययंति व जी, गमयंति कसं कसायत्ति ॥१॥ तत्र क्रोधन क्रुध्यति वा येन स क्रोध:-क्रोधमोहनीयसम्पाद्यो जीवस्य परिणलिविशेषः क्रोधमोहनीयकम वेति, एवमन्यत्रापि, नवरं जात्यादिगुणवानहमेवेत्येवं मननमवगमनं मन्यते वाऽनेनेति मानः, तथा मानं हिंसनं वश्चनमित्यर्थो मीयते वाऽनयेति माया, तथा लोभनमभिकाङ्क्षण लभ्यते वाऽनेनेति लोभः । एव'मिति यथा सामान्यतश्चत्वारः कपायास्तथा विशेषतो नारकाणा
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सू०२४८-२४९।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
||२७२॥
मसुराणां यावच्चतुर्विंशतितमे पदे वैमानिकानामिति । 'चउप्पइदिए'त्ति चतुर्पु-आत्मपरोभयतदभावेषु प्रतिष्ठितश्चतु:| प्रतिष्ठितः, तत्र 'आयपइदिठए'त्ति आत्मापराधेनैहिकामुष्मिकापायदर्शनादात्मविषय आत्मप्रतिष्ठितः परेणाक्रोशादिनेरितः परविषयो वा परप्रतिष्ठितः आत्मपरविषय उभयप्रतिष्ठित आक्रोशादिकारणनिरपेक्षः केवल क्रोधवेदनीयोदयाद यो भवति सोऽप्रतिष्ठितः, उक्त च-"सापेक्षाणि च निरपेक्षाणि च कर्माणि फलविपाकेषु । सोपक्रमञ्च निरुपक्रमश्च दृष्ट यथाऽऽयुष्कम् ॥१॥"इति, अयं च चतुर्थभेदो जीवे प्रतिष्ठितोऽपि आत्मादिविषयेऽनुत्पन्नत्वादप्रतिष्ठित उक्तो, न तु सर्वथाऽप्रतिष्ठितः, चतुःप्रतिष्ठितत्वस्याभावप्रस ादिति । एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणां कोपस्यात्मादिप्रतिप्ठितत्वं पूर्वभवे तत्परिणामपरिणतिमरणेनोत्पन्नानामिति, एवं मानमायालोभैर्दण्डकत्रयमपरमध्येतव्यमिति, क्षेत्र नारकादीनां ४ स्वं स्वमुत्पत्तिस्थानं प्रतीत्याश्रित्य, एवं वस्तु सचेतनादि ३ वास्तु वा गृहं, शरीरं दुःस स्थित विरूप वा, उपधिर्यद्यस्योपकरणम् , एकेन्द्रियादीनां भवान्तरापेक्षयेति, एवं मानादिभिरपि दण्डकत्रयम् , अनन्त भवमनुबध्नाति-अविच्छिन्न करोतीत्येवंशीलोऽनन्तानुबन्धी अनन्तो वाऽनुवन्धो यस्येत्यनन्तानुवन्धी, न विद्यते प्रत्याख्यानमणुव्रतादिरूपं यस्मिन् सोऽप्रत्याख्यानो-देशविरत्यावारकः, प्रत्याख्यानम् आ-मर्यादया सर्चविरतिरूपमेवेत्यथों वृणोतीति प्रत्याख्यानावरणः, सज्वलयति-दीपयति सर्वसावद्यविरतिमपीन्द्रियार्थसम्पाते वा सज्वलतिदीप्यत इति सब्ज्वलनो यथारख्यातचारित्रावारकः, एवं मानमायालोभेष्वनन्तानुबन्ध्यादिभेदचतुष्टयमध्येतव्यमिति, तेषां निरुक्तिः पूज्यैरियमुक्ता-"अनन्तान्यनुवम्नन्ति, यतो जन्मानि भूतये । अतोऽनन्तानुबन्ध्याख्या क्रोधाद्यायेषु दर्शिता ||१|| नाल्पमप्युत्सहेोपां, प्रत्याख्या गमिहोदयात् । अप्रत्याख्यानसंज्ञाऽतो, द्वितीये निवेशिता ॥२॥
||२७२॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥२७३॥
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सर्वसावद्यविरतिः, प्रत्याख्यानमुदाहृतम् । तदावरणसं ज्ञातस्तृतीयेषु निवेशिता ||३|| शब्दादीन् विषयान् प्राप्य, सज्ज्वलन्ति यतो मुहुः । अतः सञ्ज्वलनाद्दानं चतुर्थानामिहोच्यते ||४|| इति, एवं मानादिभिरपि दण्डकत्रयम् । 'आभोगणिव्वत्तिए'त्ति आभोगो-ज्ञानं तेन निर्वर्त्तितो यज्जानन् कोपविकारादि (विपाकादि) रुष्यति, इतरस्तु यदजानन्निति, उपशान्तः-अनुदयावस्थः, तत्प्रतिपक्षोऽनुपशान्तः, एकेन्द्रियादी नामा भोग निर्वर्त्तितस्तु तद्भवापेक्षयाऽपि, उपशान्तो नारकादीनां विशिष्टोदयाभावात्, अनुपशान्तो निर्विचार एवेति, एवं मानादिभिरपि दण्डकत्रयम् । इदानी कपायाणामेव कालत्रयवर्त्तिनः फलविशेषा उच्यन्ते
जीवा चउहि ठाणेद्दि अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिसु त ० - कोहेण माणेण मायाए लोभेण एवं जाव मणियाण २४, एवं चिणंति एस दंडओ, एवं चिणिस्संति पस दंडओ एवमेतेण तिण्णि दंडगा, एवं उवचिणि उवचिणंति उवचिणिस्संति, बंधिसु ३ उदीरेंसु ३, वेदेसु ३ णिज्जरेंसु ३ जाव वेमाणियाणं, एवं Raha पर तिणि तिष्णि दंडगा भाणियव्वा, जाव णिज्जरिस्संति [सू० २५०] । चत्तारि पडिमाओ पं० त०समाहिपडिमा उवाणपडिमा विवेगपडिमा विउस्सग्गपडिमा चत्तारि पडिमाओ पं० त०- भद्दा सुभद्दा महाभद्दा सव्वओभद्दा, चत्तारि पडिमाओ पं० त० - खुड्डिया मोयपडिमा महल्लिया मोयपडिमा जवमज्झा पडिमा वरमज्झा पडिमा ( सू० २५१) । 'जीवा ण'मित्यादि गतार्थ, नवरं चयनं कषायपरिणतस्य कर्म्मपुद्गलोपादानमात्रम्, उपचयनं - चितस्याबाधाकाल' मुक्त्वा ज्ञानावरणीयादितया निषेकः, स चैवं प्रथमस्थितौ बहुतरं कर्म्मदलिक निषिञ्चति ततो द्विती
सू० २४९-२५१ ।
॥२७३॥
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सू०२५०-२५१।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२७४॥
00000000000000000000000000000000000000000000000000000..
यायां विशेषहीनं, एवं यावदुत्कृष्टायां विशेषहीनं निपिञ्चति, उक्त च-"मोत्तूण सगमबाहं, पढमाइ ठिईए बहुतरं | दव्यं । सेसे विसेसहीण, जावुक्कोसंति सव्वेसिं ॥१॥"ति, बन्धनं-तस्यैव ज्ञानावरणीयादितया निषिक्तस्य पुनरपि कपायपरिणतिविशेषानिकाचनमिति, उदीरणमनुदयप्राप्तस्य करणेनाकृष्योदये प्रक्षेपणमिति, वेदन-स्थितिक्षयादुदयप्राप्तस्य कर्मण उदीरणाकरणेन वोदयभावमुपनीतस्यानुभवनमिति, निर्जरा-कर्मणोऽकर्मत्वभवनमिति, इह च देशनिजेरैव ग्राद्या, सर्वनिर्जरायाश्चतुर्विशतिदण्डकेऽसम्भवात् , क्रोधादीनां च तदकारणत्वात् , क्रोधादिक्षयस्यैव तत्कारणस्वादिति । अनन्तरं निर्जरोवता, सा च विशिष्टा प्रतिमाद्यनुष्ठानाद् भवतीति प्रतिमासूत्रत्रय, तद् द्विस्थानकाधीतमपीहाधीयते, चतुःस्थानकानुरोधादिति, व्याख्याऽप्यस्य पूर्ववदनुसतव्या, किन्तु स्मरणाय किञ्चिदुच्यतेसमाधिः-श्रुत चारित्रं च तद्विषया प्रतिमा-प्रतिज्ञाऽभिग्रहः समाधिप्रतिमा द्रव्यसमाधि, प्रसिद्धस्तद्विषया प्रतिमाअभिग्रहः समाधिप्रतिमा एवमन्या अपि, नवरमुपधानं तपः विवेकोऽशुद्धातिरिक्तभक्तपानवस्वशरीरतन्मलादित्यागः, 'विउस्सग्गे'त्ति कायोत्सर्गः । तथा पूर्वादिदिक्चतुष्टयाभिमुखस्य प्रत्येक प्रहरचतुष्टयमानः कायोत्सर्गो भद्रेति, अहोरात्रद्वयेन चास्याः समाप्तिरिति, मुभद्राऽप्येवंभूतैव सम्भाव्यते, न च दृष्टेति न लिखितेति, एवमेवाहोरात्रप्रमाणः कायोत्सर्गो महाभद्रा, चतुर्मिश्चाहोरात्रैः समाप्यते, यस्तु दिग्दशकाभिमुखस्याहोरात्रप्रमाणः कायोत्सर्गः सा सर्वतोभद्रा, सा च दशभिरहोरात्रैः समाप्यत इति । मोयप्रतिमा-प्रश्रवणप्रतिज्ञा, सा च क्षुल्लिका या पोडशभक्तेन समाप्यते महती तु याऽष्टादशभक्तेनेदि, यवमध्या या यववदत्तिकवलादिभिराद्यन्तयोहीना मध्ये च वृद्धेति, वज्रमध्या तु याऽऽद्यन्तवृद्धा मध्ये हीनेति ॥ प्रतिमाश्च जीवास्तिकाये एवेति तद्विपर्ययस्वरूपाजीवास्तिकायसूत्रम्
....००००००००००००००००००००००००००००००००००००000000000००
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सू०२५२-२५४।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२७५॥
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चत्तारि अत्थिकाया अजीवकाया ५० त०-धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए पोग्गलस्थिकाए, चत्तारि अत्थिकाया अरूविकाया पं० त०-धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए जीवत्थिकाए [सू० २५२] । चत्तारि फला पत-आमे णाममेगे आममधुरे १ आमे णाममेगे पक्कमधुरे २ पक्के णाममेगे आममहुरे ३ पक्के णाममेगेपक्कमधुरेट,पवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-आमे णाममेगे आममहुरफलसमाणे, ४ (सू० २५३)। चउबिहे सच्चे ५० तं०-कायुज्जुयया भासुजुयया भावुज्जुयया अविसंवादणाजोगे,चउबिहे मोसे पं०२०-कायअणुज्जुयया भासअणुज्जुयया भावअणुज्जुयया विसंवादणाजोगे, चउबिहे पणिहाणे पंत-मणपणिहाणे वइपणिहाणे कायपणिहाणे उवगरणपणिहाणे, एवं णेरइयाण पंचिंदियाण जाय वेमाणियाण २४, चउब्धिहे सुप्पणिहाणे ५० त०-मणसुप्पणिहाणे जाव उवगरणसुप्पणिहाणे, एवं जाव संजयमणुस्सस्सवि [मणुस्साणवि], चउबिहे दुप्पणिहाणे ५० त०मणदुप्पणिहाणे जाव उवगरणदुप्पणिहाणे, एवं पंचिदियाण जाव वेमाणियाण २४ (सू० २५५) । _ 'अस्थिकाय'त्ति अस्तीत्ययं त्रिकालवचनो निपातः, अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भावना, अतोऽस्ति च ते प्रदेशानां कायाश्च राशय इति, अस्तिशब्देन प्रदेशाः क्वचिदुच्यन्ते, ततश्च तेषां वा कायाः अस्तिकायाः, ते चाजीवकाया अचेतनत्वादिति । अस्तिकाया मूर्तामूर्ता भवन्तीत्यमूर्तप्रतिपादनायारूप्यस्तिकायसूत्र, रूपंमूर्तिर्वर्णादिमत्वं तदस्ति येषां ते रूपिणस्तत्पर्युदासादरूपिणोऽमृत इति । अनन्तरं जीवास्तिकाय उक्तः, तद्विशेषभूतपुरुषनिरूपणाय फलसूत्रम् , आममपक्वं सद् आममिव मधुरम् आममधुरमीपन्मधुरमित्यर्थः, तथा आम सत् पक्वमिव मधुरमत्यन्तमधुरमित्यर्थः, तथा पक्वं सद् आममधुरं प्राग्वत् , तथा पक्वं सत् पक्वमधुरं प्राग्वदेवेति,
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सु०२५२-२५४।
श्रीस्थानाङ्गसूत्र
दीपिका
वृत्तिः ।
॥२७६॥
000000000000000000000000000000000000000000000000000000
पुरुषस्तु आमो-वयःश्रुताभ्यामव्यतः आममधुरफलसमानः, उपशमादिलक्षणस्य माधुर्यस्याल्पस्यैव भावात् , तथा आम एव पकवमधुरफलसमान:-पक्वफलवन्मधुरस्वभावः, प्रधानोपशमादिगुणयुक्तत्वादिति, तथा पक्योऽन्यो वयःश्रुताभ्यां परिणतः आममधुरफलसमानः, उपशमादिमाधुर्यस्याल्पत्वात् , तथा पक्वस्तथैव, पक्वमधुरफलसमानोऽपि तथैवेति । अनन्तरं पक्वमधुर उक्तः, स च सत्यगुणयोगाद् भवतीति सत्य तद्विपर्ययं च मृषा तथा सत्यासत्यनिमित्त प्रणिधानं प्रतिपिपादयिषुः सूत्राण्याह-'चउब्विहे सच्चे इत्यादीनि गतार्थानि, नवरमृजुकस्यामायिनो भावः कर्म वा ऋजुकता, कायस्य ऋजुकता कायर्जुकता, एवमितरे अपि, नवरं भावो-मन इति, कायर्जुकतादयश्च शरीरवाङ्मनसां यथावस्थितार्थप्रत्यायनार्थाः प्रवृत्तयः, तथा अनाभोगादिना गवादिकमश्वादिकं यद् वदति कस्मैचित् किश्चिदभ्युपगम्य वा यन्न करोति सा विसंवादना तद्विपक्षण योगः सम्बन्धोऽविसंवादनायोग इति, 'मोसे'त्ति मृपाऽसत्य कायस्यानृजुकतेत्यादि वाक्यम् । प्रणिधिः-प्रणिधानं प्रयोगः, तत्र मनसः प्रणिधानमारौद्रधर्मादिरूपतया प्रयोगो मनःप्रणिधानम् , एवं वाकाययोरपि, उपकरणस्य लौकिकलोकोत्तररूपस्य वस्त्रपात्रादेः संयमासंयमोपकाराय प्रणिधान-प्रयोग उपकरणप्रणिधानम् । 'एव मिति यथा सामान्यतस्तथा नैरयिकाणामिति, तथा चतुर्विंशतिदण्डकपठितानां मध्ये पञ्चेन्द्रियास्तेषामपि वैमानिकान्तामेवमेवेति, एकेन्द्रियादीनां मनःप्रभृतीनामसम्भवेन प्रणिधानासम्भवादिति । प्रणिधानविशेषः सुप्रणिधानं दुष्प्रणिधानञ्चेति तत्सूत्राणि, शोभनं संयमार्थत्वात् प्रणिधानं मनःप्रभृतीनां प्रयोजनं-सुप्रणिधान मिति । इदं च सुप्रणिधानं चतुर्विंशतिदण्डकनिरूपणायां मनुष्याणामेव तत्रापि संयतानामेव भवति, चारित्रपरिणतिरूपत्वात् सुप्रणिधानस्येत्याह-‘एवं संजए' इत्यादि, दुष्प्रणिधानसूत्र सामान्यसूत्रबन्नवरं दुष्प्रणिधानमसंयमार्थ मनःप्रभृतीनां प्रयोग इति ॥ पुरुषाधिकारादेवापरथा पुरुषसूत्राणि चतुर्दश
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श्रीस्थानाङ्गसूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२७७॥
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चत्तारि पुरिसजाया पं० त ० - आवायभद्दप णाममेगे णो संवासभद्द १, संवासभद्दण् णाममेगे णो आवायभद्द २, पगे आवायभर विसंवासभद्दए वि ३, एगे णो आवायभद्दए णो संवासभद्दए ४, १, चत्तारि पुरिसजाया पं० त० - अपणो णाममेगे बज पासइ णो परस्स, परस्स णाममेगे वज्ज' पासर ४, २ चत्तारि पुरिसज्जाया पं० त० - अप्पणो णाममेगे वज्ज उदीरेह णो परस्स ४, ३, चत्तारि पुरिसज्जाया पं० त० - अप्पणो णाममेगे वज्ज' उवसामेइ णो परस्स ४, ४ चत्तारि पुरिसज्जाया पं० त० - अब्भुट्ठे णाममेगे णो अभुट्टा ४, ५, एवं वंदर णाममेगे णो वदावे ४, ६, एवं सकारेर ४, ७, सम्माणे ४, ८, पूण्ड ४ ९ वाह ४ १०, पडिच्छ ४, ११, पुच्छर ४, १२ वागरे ४ १३, सुत्तधरे णाममेगे णो, अत्यधरे अत्थधरे णाममेगे णो सुत्तधरे ४. १४ (सू० २५५) |
सुगम, नवरमापतनमापातः - प्रथममीलकस्तत्र भद्रको भद्रकारी दर्शनालापादिना सुखकरत्वात्, संवासश्चिरं सहवासः तस्मिन् न भद्रको हिंसकत्वात् संसारकारणनियोजकत्वाद्वेति, संवासभद्रकः सह संवसतामत्यन्तोपकारितया नो आपात भद्रकः अनालापकठोरालापादिना एवं द्वावन्यौ । ' वज्ज' 'ति वर्ज्यत इति वर्ज्यम् अवद्य वा अकारलोपात् वज्रवद् वज्रं वा गुरुत्वाद्धिसाऽनृतादि पापं कर्म तदात्मनः सम्बन्धि कलहादौ पश्यति पश्चात्तापावितत्वात् न परस्य तं प्रत्युदासीनत्वात् अन्यस्तु परस्य नात्मनः साभिमानत्वात् इतर उभयोः, निरनुशयत्वेन यथावद्वस्तुवोधात् अपरस्तु नोभयोर्विमूढत्वादिति । दृष्ट्वा चैकः आत्मनः सम्बन्धि अवद्यमुदीरयति-भणति यदुत मया कृतमेतदिति, उपशान्तं वा पुनः प्रवर्त्तयत्यथवा वज्रं कर्म्म तदुदीरयति - पीडोत्पादनेन उदये प्रवेश
सू० २५५ ।
॥२७७॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका
वृत्तिः ।
॥२७८॥
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यतीति, एवमुपशमयति-निवर्त्तयति पापं कर्म्म वा । 'अम्मुठेइ 'त्ति अभ्युत्थानं करोति न कारयति परेण, संविनपाक्षिको लघुपर्यायो वा कारयत्येव गुरुः, उभयवृत्तिर्वृषभादिः, अनुभयवृत्तिर्जिनकल्पिको विनीतो वेति । एवं वन्दनादिसूत्रेष्वपि, नवरं वन्दते द्वादशावर्त्तादिना, सत्करोति वस्त्रादिदानेन, सन्मानयति स्तुत्यादिगुणोन्नतिकरणेन, पूजयति उचितपूजाद्रव्यैरिति वाचयति- पाठयति, 'नो वायावेद' आत्मानमन्येनोपाध्यायादिः, द्वितीये शैक्षकः, तृतीये वचिद् ग्रन्थाऽन्तरेऽनधीती, चतुर्थे जिनकल्पिकः । एवं सर्वत्रोदाहरणं स्वबुद्धया योजनीयम् प्रतीच्छतीति सूत्रार्थी गृह्णाति, पृच्छतीति-प्रश्नयति सूत्रादि, व्याकरोति वृते तदेवेति सूत्रार्थवर : (सूत्रवरः) - पाठकः, अर्थ बोद्धा, अन्यस्तु भयधरः, चतुर्थस्तु जड इति ॥ पुरुषः धिकारादेव देवविशेषपुरुषनिरूपणपराणि लोकपालादिसूत्राणि -
चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो चत्तारि लोगपाला पं० त० - सोमे जमे वरुणे वेलमणे, एवं बलिस्सवि सोमे जमे वेसमणे वरुणे धरणस्स कालवाले कोलवाले सेलवाले संखवाले, एवं भूतानंदस्स कालवाले कोलवाले संखवाले सेलवाले, वेणुदेवस्स चित्ते विचित्ते चित्तपक्खे विचित्तपक्खे, वेणुदाि चित्ते विचिते विचित्तपत्रखे चित्तपक्खे, हरिकंतस्स पसे सुप्पमे पभकते सुप्पभकंते, हरिस्सहस्त पभे सुपभे सुप्पभक ते पभकते, अग्गिसिहस्स तेऊ तेउसिहे तेउकंते तेउप्पभे, अग्गिमाणवस्स तेऊ तेउसिहे तेडपभे तेक ते पुण्णस्स रुपे रूपसे रूपकते रूपप्पभे, विसिस्स रूये रूयंसे रूयप्पभे रूयकते, जलकतस्स जले जलइए जलक ते जलप्पमे जलप्पहस्स जले जलरए जलप्पमे जलकते, अमियगतिस्स तुरियगई सिग्धगई
सू०२५५-२५६ ।
॥२७८॥
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सू०२५६-२५८1
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२७॥
(खिप्पगती) सीहगई सीहविक्कमगई, अमियवाहणस्स तुरियगई सिग्धगई [खिप्पगती] सीहविक्कमगई सीहगई, वेलंबस्स काले महाकाले अंजणे रिटूठे, पभंजणस्स काले महाकाले रिटूठे अंजणे, घोसस्स आवत्ते वियावत्ते णंदियावत्ते महाणंदियावत्ते, महाघोसस्स आवत्ते सि(वि)यावत्ते महाणंदियावत्ते णंदियावत्ते २०, सक्कस्स ण सोमे जमे वरुणे वेसमणे, ईसाणस्स सोमे जमे वेसमणे वरुणे, एवं एगंतरिया जावच्चुतस्स, चउब्बिहा वायकुमारा पं० त०-काले महाकाले वेलवे पभंजणे [सू० २५६] । चउव्विहा देवा पं० त-भवणवासी वाणमंतरा जोइसिया वेमाणिया (सू० २५७) । चउबिहे विमाणे ५० त०-दव्वप्पमाणे खेत्तप्पमाणे कालप्पमाणे भावप्पमाणे (सू० २५८) । ___ सर्वाणि मुगमानि, नवरमिन्द्रः परमैश्वर्ययोगात् , प्रभुमहान् वा महत्त्वाद् गजेन्द्रवत , राजा तु राजनाद् दीपनात शोभाववादित्यर्थः आराध्यत्वाद्वा, एकार्थों वैताविति, दाक्षिणात्येषु यो नामतः तृतीयो लोकपालः स औदीच्येषु चतुर्थश्चतुर्थस्त्वितर इति । एवं 'एगंतरिय'त्ति, यन्नामानः शक्रस्य तन्नामान सनत्कुमारब्रह्मलोकशुक्रपाणतेन्द्राणां तथा यन्नामान ईशानस्य तन्नामान एव माहेन्द्रलान्तकसहस्राराच्युतेन्द्राणामिति । कालादयः पातालकलशस्वामिन इति । चतुर्विधा देवा इत्युक्तम्, एतच्च सङ्ग्याप्रमाणमिति प्रमाणप्ररूपणसूत्र, तत्र प्रमितिः प्रमीयते वा-परिच्छिद्यते येनार्थस्तत्प्रमाण, तत्र द्रव्यमेव प्रमाणं दण्डादिद्रव्येण वा धनुरादिना शरीरादेव्यैर्वा दण्ड हस्ताङ्गुलादिभिर्द्रव्याणां वा जीवधर्माधर्मादीनां द्रव्ये वा परमाण्यादी पर्यायाणां द्रव्येषु वा तेष्वेव तेषामेव प्रमाण द्रव्यप्रमाणम् , एवं यथायोगं सर्वत्र विग्रहः कार्यः, तत्र द्रव्यप्रमाण द्विधा-प्रदेशनिष्पन्न विभागनिष्पन्नं च, तत्राद्य परमाण्वाद्यनन्तप्रदेशिकान्तं, विभागनिष्पन्नं पञ्चधा-मानादि,
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॥२७॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०२५८-२६१ ।
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥२८०॥
ఉంచరించవలపరిచిన
तत्र मानं धान्यमानं सेतिकादि रसमानं कर्षादि १ उन्मानं तुलाकर्षादि २ अवमानं हस्तादि ३ गणितमेकादि ४ प्रतिमानं गुञ्जावल्लादीति ५, क्षेत्रमाकाशं तस्य प्रमाण द्विधा-प्रदेशनिष्पन्नादि, तत्र प्रदेशनिष्पन्नमेकप्रदेशावगाढादि असङ्ख्येयप्रदेशावगाढान्तं, विभागनिष्पन्नमगुल्यादि, काल:-समयस्तन्मानं द्विधा-प्रदेशनिष्पन्नमेकसमयस्थित्यादि असङ्ख्येयसमयस्थित्यन्तं, विभागनिष्पन्नं समयावलिकेत्यादि, क्षेत्रकालयो व्यत्वे सत्यपि भेदनिर्देशो जीवादिद्रव्यविशेषकत्वेनानयोस्तत्पर्यायताऽपीति द्रव्याद्विशिष्टताख्यापनार्थः, भाव एव भावानां वा प्रमाण भावप्रमाण गुणनयसङ्ख्यादिभेदभिन्न, तत्र गुणा-जीवस्य ज्ञानदर्शनचारित्राणि, तत्र ज्ञानं प्रत्युक्षानुमानोपमानागमरूपं प्रमाणमिति, नया-नैगमादयः, सङ्ग्या-एकादिकेति ॥ देवाधिकारे एवेदं सूत्रचतुष्टयम्---
चत्तारि दिसाकुमारिमहत्तरियाओ पत-रूवा रूयंसा सुरुवा रूयावती, चत्तारि विज्जुकुमारिमहत्तरियाओ पं० त०-चित्ता चित्तकणगा सतेरा सोयामणी [सू० २५९] । सक्कस्स ण देविदास देवरण्णो मज्झिम. परिसाए देवाण चत्तारि पलिओवमाई ठिई ५०, ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो भज्झिमपरिसाए देवीण चत्तारि पलिओवमाई ठिई ५० (सू० २६०) चउविहे संसारे पं० २०-दब्वसंसारे खेत्तस सारे कालस'सारे भावससारे [सू० २६१] ।
___ 'चत्तारि दिसा.' इत्यादि सुगम, नवरं दिक्कुमार्यश्च ता महत्तरिकाश्च-प्रधानतमाः तासां वा महत्तरिका दिक्कुमारीमहत्तरिकाः, एता मध्यरुचकवास्तव्या अहतो जातमात्रस्य नालकल्पनादि कुर्वन्तीति, विद्युत्कुमारीमहत्तरिकास्तु विदिग्रुचकवास्तव्याः, एताश्च भगवतो जातमात्रस्य चतसृष्वपि दिक्षु स्थिता दीपिकाहस्ता गायन्तीति ।
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सू०२६१-२६३।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२८॥
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एते च देवाः संसारिण इति संसारसूत्र, तत्र संसरणमितश्चेतश्च परिभ्रमण संसारः, तत्र संसारशब्दार्थज्ञस्तत्रानुपयुक्तो द्रव्याणां वा-जीवपुद्गललक्षणानां यथायोग भ्रमण द्रव्यसंसारः, तेषामेव क्षेत्रे-चतुर्दशरज्ज्वात्मके यत् संसरण स क्षेत्रसंसारः, यत्र वा क्षेत्रे संसारो व्याख्यायते तदेव क्षेत्रमभेदोपचारात् संसारो यथा रसवती गुणनिकेत्यादि, कालस्य-दिवसपक्षमासर्वयनसंवत्सरादिलक्षणस्य संसरण चक्रन्यायेन भ्रमण पल्योपमादिकालविशेषविशेषित वा यत्कस्यापि जीवस्य नरकादिषु स कालसंसारः, यस्मिन् वा काले-पौरुष्यादिके संसारो व्याख्यायते स कालोऽपि संसार उच्यते अभेदाद् , यथा प्रत्युपेक्षणाकरणात् कालोऽपि प्रत्युपेक्षणेति, तथा संसारशब्दार्थज्ञः तत्रोपयुक्तो जीवपुद्गलयोर्वा संसरणमात्रमुपसर्जनीकृतसम्बन्धिद्रव्य भावानां वौदयिकादीनां वा वर्णादिनां संसरणपरिणामो भावसंसार इति ॥ अयं च द्रव्यादिसंसारोऽनेकनयैदृष्टिवादे विचार्यते इति दृष्टिवादसूत्रम्
चउब्बिहे दिडिवाण ५० त०-परिकम्म सुत्ताइ पुब्वगए अणुजोगे (सू० २६२) । चउब्बिहे पायच्छित्ते प० त०-णाणपायच्छित्ते दसणपायच्छित्ते चरित्तपायच्छित्ते वियत्तकिञ्चपायच्छित्ते १ । चउबिहे पायच्छित्ते ५० त०-पडिसेवणापायच्छित्ते संजोयणापायच्छित्ते आरोवणापायच्छिते पलिउंचणापायच्छिते २ (सू० २६३)।
'बउविहे दिहिवाए'इत्यादि, तत्र दृष्टयो दर्शनानि-नया उद्यन्ते-अभिधीयन्ते पतन्ति वा-अवतरन्ति यस्मिन्नसौ दृष्टिवादो दृष्टिपातो वा-द्वादशमङ्गम् , तत्र सूत्रादिग्रहणयोग्यतासम्पादनसमर्थ परिकर्म, गणितपरिकर्मवत् , तच्च सिद्धसेनिकादि, सूत्राणीति ऋजुसूत्रादीनि द्वाविंशतिर्भवन्ति, इह सर्वद्रव्यपर्यायनयाद्यर्थसूचनात् सूत्राणीति, समस्तश्रुतात पूर्व करणात् पूर्वाणि, तानि चोत्पादपूर्वादीनि चतुर्दशेति, एतेषां चैव नामप्रमाणानि तद्यथा
॥२८॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
||२८२||
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“ उपाय १ अग्गेणीय २, वीरिय ३ अस्थिनत्थि उ पवायं ४ | नाणप्पवायं ५ सच्च ६, आयप्पवायां च ७ कम्मं च ८ ||१|| पुब्वं पच्चक्खाणं ९, विज्जणुवाय १० अवंझ ११ पाणाउ १२ । किरियाविसालपुव्वं १३, चोदसम बिंदुसारं तु १४ || २ || उप्पा पयकोडी १, अग्गेणीयमि छन्नवइलक्खा २ । विरियम्मि सयरिलक्खा ३, लक्खा उ अणित्थिम्मि ४ || ३ || एगपऊणा कोडी, नाणपवार्यमि होइ पुव्वंमि ५ । एगा पयाण कोडी, उच्च पया सच्चामि ६ || ४ || हव्वीस कोडीओ, आयपवार्यमि होड़ पयसंखा ७ । कम्मपवाए कोडी, असीइलक्खेहिं अभ ि८ ||५|| चुलसीइसयसहस्सा, पच्चकखामि वन्निया पुव्वे ९ । एका पयाण कोडी, दससहसहिया य अणुवाए १० ||६|| छब्बीस कोडीओ, पयस्स पुग्वे अवंझनाममि ११ । पाणाउम्मि य कोडी छपन्नलक्खेहिं अमहिया १२ ||७|| नवकांडीओ संखा, किरियाविसामि वन्निया गुरुणा १३ | अद्धत्तेरस लक्खा, पयसंखा बिंदुसारम्मि १४ ||८|| तेषु गतं प्रविष्ट ं यत् श्रुतं तत्पूर्वगत- पूर्वाण्येव, अङ्गप्रविष्टमङ्गानि यथेति, योजन योगः अनुरूपोऽनुकूलो वा सूत्रस्य निजेनाभिधेयेन सह योग इत्यनुयोगः, स चैकस्तीर्थकराणां प्रथमसम्यक्त्वावाप्तिपूर्व भवादिगोचरो यः स मूलप्रथमानुयोगोऽभिधीयते यस्तु कुलकरादिवतव्यतागोचरः स गण्डिकानुयोग इति । पूर्वगतमनन्तरमुकं तत्र च प्रायश्चित्तप्ररूपणाऽऽसीदिति प्रायश्चित्तसूत्रद्वय', 'पायच्छित्ते 'त्ति तत्र ज्ञानमेव प्रायश्चित्तं, यतस्तदेव पापं नित्ति प्रायः चित्तं वा शोधयतीति निरुक्तिवशात् ज्ञानप्रायश्चित्तमिति, एवमन्यत्रापि, 'वियत्तकिच्चे 'त्ति व्यक्तस्य भावतो गीतार्थस्य कृत्यं करणीयं व्यक्तकृत्यं प्रायश्चित्तमिति, गीतार्थो हि गुरुलाघवपर्यालोचनेन यत् किञ्च करोति तत्सर्व पापविशोधकमेव भवतीति, अथवा ज्ञानाद्यतिचारविशुद्धये यानि प्रायश्चित्तान्यालोचनादीनि
| सू० २६२-२६३ ।
॥२८२॥
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सू०२६३-२६५॥
श्रीस्थानाग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२८३॥
विशेषतोऽभिहितानि तानि तथोपदिश्यन्ते, (यहा) 'वियत्ते'त्ति विशेषेण-अवस्थाद्यौचित्येन विशेषानभिहितमपि दत्त-वितीर्णमभ्यनुज्ञातमित्यर्थः, यत्किश्चिन्मभ्यस्थगीतार्थेन कृत्यमनुष्ठान तद् विदत्तकृत्य प्रायश्चित्तमेव, 'चियत्तकिच्चे'त्ति पाठान्तरतस्तु प्रीतिकृत्य वैयावृत्त्यादीति, प्रतिषेवणमासेवनमकृत्यस्येति प्रतिषेवणा, सा च द्विधा-परिणामभेदान प्रतिवेवणीयभेदाद्वा, तत्र परिणामभेदात्-“पडिसेवणा उ भावो, सो पुण कुसलोव्य होजऽकुसलो वा। कुसलेण होइ कप्पो, अकुसलपरिणामओ दप्पो ॥१॥"इत्यादि प्रतिषेवणा, तस्यां प्रायश्चित्तमालोचनादि, तथा संयोजनम्-एकजातीयातिचारमीलन संयोजना, यथा शय्यातरपिण्डो गृहीतः सोऽप्युद काहस्तादिना सोऽप्यभ्याहृतः सोऽप्याधार्मिकस्तत्र यत् प्रायश्चित्तं तत् संयोजनाप्रायश्चित्तं, तथा आरोपणमेकापराधप्रायश्चित्ते पुनः पुनरासेवनेन विजातीयप्रायश्चित्ताभ्यारोपणमारोपणा, यथा पञ्चरात्रिन्दिवप्रायश्चित्तमापन्नः पुनस्तत्सेवने दशरात्रिन्दिवमित्यादि । आरोपणया प्रायश्चित्तमारोपणाप्रायश्चित्तमिति, तथा परिकुचनमपराधस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावानां गोपायनमन्यथा सतामन्यथा भणन परिकुञ्चना परिवञ्चना वा, तस्याः प्रायश्चित्तं परिकुञ्चनाप्रायश्चित्तम् , प्रायश्चित्त च कालापेक्षया दीयत इति कालनिरूपणासूत्रम्
चउबिहे काले पंत-पमाणकाले अहाउयणिवत्तिकाले मरणकाले अद्धाकाले (सू० २६४) । चउबिहे पुग्गलपरिणामे पं० त०-दाणपरिणामे गंधपरिणामे रसपरिणामे फासपरिणामे (सू० २६५)। भरहेरवरसु ण वासेसु पुरिमपच्छिमवजा मज्झिमगा वावीस अरहंता भगवंतो चाउज्जाम धम्म पण्णवयंति, तंजहा-सब्याओ पाणाइवायाओ वेरमण, एवं सवाओ मुसाबायाओ, सव्वाओ अदिण्णादाणाओ, सव्वाओ वहिद्धादाणा[परिग्गहा]ओ
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॥२८३॥
Jain Education inte
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०२६६।
दीपिका वृत्तिः ।
||२८४॥
वेरमण १, सव्वेसु वि ण महाविदेहेसु अरहंता भगवंतो चाउज्जाम धम्म पण्णवयंति, त-सव्वाओ पाणाइचायाओ बेरमण, जाव सब्वाओ बहिद्धादाणाओ वेरमण (सू० २६६) ।
तत्र प्रमीयते-परिच्छिद्यते येन वर्षशतपल्योपमादि तत् प्रमाण, तदेव कालः प्रमाणकालः, स च अद्धा| कालविशेष एव दिवसादिलक्षणो मनुष्यक्षेत्रान्तर्वतीति, उक्त च-"दुविहो पमाणकालो, दिवसपमाण च होइ राई य । चउपोरिसिओ दिवसो, राई चउपोरिसी चेव ॥१॥"त्ति, यथा-यत्प्रकार नारकादिभेदेनायु:-कर्म विशेषो यथायुस्तस्य रौद्रादिध्यानादिना निर्वृत्तिः-बन्धन तस्याः सकाशाद्यः कालो-नारकादित्वेन स्थिति वानां स यथायुनिवृत्तिकालः, अयमप्यद्धाकाल एवायुष्ककर्मानुभवविशिष्टः, सर्वसंसारिजीवानां वर्त्तनादिरूप इति । मरणस्यमृत्योः काल:-समयो मरणकालः, अयमप्यद्धासमयविशेष एव, मरणविशिष्टो मरणमेव वा कालो, मरणपर्यायत्वादुक्तं च-"कालोति मय मरण, जडेह मरण गोत्ति कालगओ । तम्हा स कालकालो, जो जस्स मओ मरणकालो ॥१॥"त्ति, तथा अद्धैव कालोऽद्धाकालः, कालशब्दो वर्णप्रमाणकालादिष्वपि प्रवर्त्तते, ततोऽद्धाशब्देन विशेष्यत इति, अयं च सूर्यक्रियाविशिष्टो मनुष्यक्षेत्रान्तर्वी समयादिरूपोऽवसेयः । द्रव्यपर्यायभूतस्य कालस्य चतुःस्थानमुकमिदानी पर्यायाधिकारात पुद्गलानां पर्यायभूतस्य परिणामस्य तदाह-'चउब्विहे' इत्यादि, परिणामोऽवस्थातोऽवस्थान्तरगमन, तत्र वर्णस्य-कालादेः परिणामोऽन्यथाभवन वर्णेन वा कालादिनेतरत्यागेन पुद्गलस्य परिणामो वर्णपरिणामः, एवमन्येऽपि। अजीवद्रव्यपरिणाम उक्तोऽधुना तु जीवद्रव्यस्य परिणामाः सूत्रपञ्चके(अपञ्चे)नाभिधीयन्ते-तत्र च 'भरते त्यादि सूत्रद्वयं व्यक, किन्नु पूर्वपश्चिमवर्जाः, किमुक्तं भवति ?-मध्यमका इति,
-0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000.
। ॥२८॥
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सू०२६७-२६८।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
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॥२८॥
ते चाष्टादयोऽपि भवन्तीत्युच्यते-द्वाविंशति रति, चत्वारों यमा एव यामा निवृत्तयों यस्मिन् स तथा 'बदिद्धादाणाओ'त्ति बहिर्दा-मैथुन परिग्रहविशेष आदान च-परिग्रहस्तयोद्वन्द्वकत्वमथवा आदीयत इत्यादान-परिग्राद्य वस्तु तच धर्मोपकरणमपि भवत्यत आह-बहिस्ताद्-धर्मोपकरणाद् बहिर्यदिति, इह च मैथुन परिग्रहेऽन्तर्भवति, न ह्यपरिगृहीता योपिद भुज्यत इति प्रत्याख्येयस्य प्राणातिपातादेश्चतुर्विधत्वाच्चतुर्यामता धर्मास्येति, इयं चेह भावना-मध्यमतीर्थकराणां विदेहकानां च चतुर्यामधर्मस्य पूर्वपश्चिमतीर्थकरयोश्च पञ्चयामधर्मस्य प्ररूपणा शिष्यापेक्षया, परमार्थतस्तु पञ्चयामस्येवोभयेपामप्यसौ, प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थसाधव ऋजुजडा वक्रजडाश्चेति तत्वादेव परिग्रहो बर्जनीय इत्युपदिष्टे मैथुनवर्जनमवोद्धं पालयितु च न क्षमाः, मध्यमविदेह जतीर्थकरतीर्थसाधवस्तु ऋजुप्रज्ञत्वात् तद्रोढुं बर्जयितुं च क्षमा इति । अनन्तरोकतेभ्यः प्राणातिपातादिभ्योऽनुपरतोपरतानां दुर्गतिमुगती भवतः, तद्वन्तश्च ते दुर्गतेतरा भवन्तीति दुर्गतिसुगत्यात्मकपरिणामयोर्दुर्गतमुगतानां च भेदान् सूत्रचतुष्टयेनाह
चत्तारि दुग्गईओ पं० त०-णेरइयदुग्गती तिरिक्खजोणियदुग्गती मणुस्सदुग्गती देवदुरगती १, चत्तारि सोग्गईओ ६० त०-सिद्धिसोग्गई देवसोग्गई मणुस्ससोग्गई सुकुलपच्चायाती २, चत्तारि दुग्गया ५० त०-नेरयदुग्गया तिरिक्खजोणियदुग्गया मणुस्सदुग्गया देवदुग्गया ३, चत्तारि सुग्गया पं० २०-सिद्धसोग्गया जाव सुकुलपञ्चायाया ४ (सू० २६७) । पढमसमयजिणस्स ण चत्तारि कम्मंला खीणा भवति, त-णाणावरणिज दसणावरणिज मोहणिज्ज अंतराश्य, उप्पन्नणाणदसणधरे अरहा जिणे केवली चत्तारि कम्मंसे घेदेइ. - वेदणिज्ज आज्यणाय गोय २, पढमसमयसिद्धस्स ण चत्तारि कम्मंसा जुगव खिज्जति २०-वेगणिज्ज आउय णाम गोय ३ (सू० २६८)।
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॥२८॥
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सू०२६८-२७२।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२८॥
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'चत्तारी'त्यादि गतार्थम् , नवरं मनुष्यदुर्गतिर्दुषित(निन्दित मनुष्यापेक्षया, देवदुर्गतिः किल्विपिकाद्यपेक्षयेति, 'सुकुलपच्चायाति'त्ति देवलोकादौ गत्वा सुकुले-इक्ष्वाकादी प्रत्यायातिः-प्रत्यागमन प्रत्याजाति-प्रतिजन्मेति, इयञ्च तीर्थकरादीनामिवेति मनुष्यमुगते गभूमिजादिमनुजत्वरूपाया भिद्यते, दुर्गतिरेपामस्तीत्यचि प्रत्यये दुर्गता दुःस्था वा दुर्गताः एवं सुगताः । अनन्तरं सिद्धमुगता उक्ताः, ते चाष्टकर्मक्षयाद्भवन्त्यतः क्षयपरिणामस्य क्रममाह-'पढमे'त्यादि सूत्रत्रय व्यक, पर प्रथमः समयो यस्य स, तथा स चासी जिनश्च-सयोगिकेवली प्रथमसमयजिनस्तस्य कर्मणः-सामान्यस्यांशाः-ज्ञानावरणीयादयो भेदा इति, उत्पन्ने-आवरणक्षयाजाते ज्ञानदर्शनेविशेषसामान्यबोधरूपे धारयतीत्युत्पन्नज्ञानदर्शनधरोऽनेनानादिसिद्धकेवलज्ञानवतः सदाशिवस्यासद्भाव दर्शयति, न विद्यते रहः-एकान्तो गोप्यमस्य सकलसन्निहितव्यवहितस्थूलसूक्ष्मपदार्थसार्थसाक्षात्कारित्वादित्यरहा देवादिपूजाऽर्हत्वेनाईन्या रागादिजेतृत्वाजिनः केवलानि-परिपूर्णानि ज्ञानादीनि यस्य सन्ति स केवलीति, सिद्धत्वस्य कर्मक्षपणस्य च एकसमये सम्भवात् प्रथमसमयसिद्धस्येत्यादि व्यपदिश्यते । असिद्धानां तु हास्यादयो विकास भवन्तीति हास्य तावच्चतुःस्थानकावतारित्वादाह
चउहि ठाणेहि हासुप्पत्ती सिया त-पासित्ता भासित्ता सुणेत्ता संभरेत्ता (सू० २६९) । चउन्धिहे अंतरे पं० त०-कट्ठतरे पम्हंतरे लोहंतरे पत्थरंतरे, एवामेव इत्थीए वा पुरिसस्स वा चउब्बिहे अंतरे प त-कट्टतरसमाणे पम्हंतरसमाणे लोहंतरसमाणे पत्थरंतरसमाणे (सू० २७०) । चत्तारि भयगा ५० त०-दिवसभयए जत्ताभयए उच्चत्तभयए कप्पड[कब्बाल]भयए (सू० २७१) । चत्तारि पुरिसज्जाया पंत-संपागडपडिसेवी णाम
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||२८६॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥२८७॥
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मेगे णो पच्छन्नपडिसेवी, पच्छन्नपडिसेवी नाममेगे नी संपागडपडिसेवी, एगे संपागडपडिसेवी वि एच्छन्नपडि सेवी वि. पगे नो संपागडपडिसेवी णो पच्छन्नपडिसेवी (सृ० २७२) ।
'उही 'त्यादि, हसन हास:-हासमोहनीयजनितो विकारस्तस्योत्पत्तिरुत्पादो हासोत्पत्तिः, 'पासित्त'त्ति दृष्ट्वा विदूषकादिचेष्टां चक्षुषा तथा भाषित्वा किश्चिच्चसूरिवचन तथा श्रुत्वा श्रोत्रेण परोकं तथाविधवावाक्य तथा तथाविधमेव वेष्टवाक्यादिकां स्मृत्वा हसतीति शेषः एवं दर्शनादीनि हासकारणानि भवन्तीति । असिद्धानामेव धर्मान्तरनिरूपणा दृष्टान्तदाष्टन्तिकार्थवत् सूत्रयम्, 'कट्ठे'त्यादि, काष्ठस्य च काष्ठस्य वेति काष्ठयोरन्तर-विशेषो रूपनिर्माणादिभिरिति काष्ठान्तरमेवं पक्ष्म-कर्णासरूतादि पक्ष्मणोरन्तरं विशिष्टसौकुमार्यादिभिः, लोहान्तरं अत्यन्तच्छेदकत्वादिभिः, प्रस्तरान्तरं चिन्तितार्थप्रापणादिभिरिति 'एवमेव' काष्ठाद्यन्तरवत् स्त्रिया वा स्त्र्यन्तरापेक्षया पुरुषस्य वा पुरुषान्तरापेक्षया, वाशब्दों स्त्रीपुंसयोश्रातुर्विध्यं प्रति निर्विशेषताख्यापनार्थी, काष्ठान्तरसमानंतुल्यमन्तरं - विशेषो विशिष्टपदवीयोग्यत्वादिना पक्ष्मान्तरसमान वचनसुकुमारतयैव लोहान्त समान स्नेहच्छेदेन परीपादौ निर्भङ्गत्वादिभित्र प्रस्तरान्तरसमान चिन्तातिक्रान्तमनोरथपूरकत्वेन विशिष्टगुणवद्वयपदवीयोग्यत्वादिना चेति । अनन्तरमन्तरमुकमिति पुरुषविशेषान्तरनिरूपणाय भृतकसूत्र तत्र भ्रियते-पोप्यते स्मेति भृतः स एवानुकम्पि भृतकः कर्म्मर इत्यर्थः, प्रतिदिवस नियतमूल्येन कर्म्म हरणार्थ यो गृह्यते स दिवसभृतकः १, यात्रा - देशान्तरगमनं तस्यां सहाय इति भ्रियते यः स यात्राभृतकः २ मूल्यकालनियमं कृत्वा यो नियत यथावसरं कर्म कार्यते स उच्चताभृतकः ३. कव्वाडभृतकः - क्षितिखानकः ओडादिः यस्य स्वं कम्यते द्विस्ता त्रिस्ता वा त्वया भूमिः
सू० २६९-२७२ ।
॥२८७॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सु०२७२-२७३।
दीपिका वृत्तिः ।
॥२८८॥
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खानितव्यैतावत्ते धन दास्यामीत्येवं नियम्येति । उक्त लौकिकपुरुषविशेषस्यान्तरमधुना लोकोत्तरस्य तस्यान्तरप्रतिपादनाय प्रतिषेविसूत्र, तत्र सम्प्रकटम-अगीतार्थसमक्षमकल्प्यभक्तादि प्रतिषेवितुं शीलं यस्य स सम्प्रकटप्रतिसेवीत्येवं सर्वत्र, नवरं प्रच्छन्नमगीतार्थासमक्ष, अत्र चाद्य भङ्गनये पुष्टालम्बनतो वकुशादिनिरालम्बनतो वा पार्श्वस्थादिष्टव्यः, चतुर्थे तु निर्ग्रन्थः स्नातको वेति ॥ अन्तराधिकागदेव देवपुरुषाणां स्वीकृतमन्तरं प्रतिपादयन 'चमरस्से'त्यादिकमग्रमहिपीसूत्रप्रपञ्चमाह
चमरस्स ण' असुरिंदस्स असुरकुमाररणो सोमस्स महारणो चत्तारि अग्गमहिसीओ प० त०-कणना कणगलता चित्तगुत्ता वसुंधरा, एवं जमस्स वरुणस्स वेसमणस्स, बलिस्स ण वइरोयणिदस्स बइरोयणरण्णो सोमस्स महारण्णो चत्तारि अग्गमहिसीओ पं० त-मित्तगा सुभद्दा विज्जया असणी, एवं जमस्स वेसमणस्स वरुणस्स, धरणस्स ण णागकुमारिंदस्स णागकुमाररपणो कालवालस्स महारण्णो चत्तारि अग्गमहिसीओ पं. त-असोगा विमला सुप्पभा सुदंसणा, एवं जाव संखवालस्स, भूयार्णदस्स ण णागकुमारिंदस्स णागकुमाररगणो कालवालस्स महारण्णो चत्तारि अग्ग० ५० त०-सुदंसणा (सुणंदा) सुभद्दा सुजाता सुमणा, एवं जाव सेलवालस्स जहा धरणस्स, पवं सब्वेसिं दाहिणिदलोगपालाण जाव घोसस्स जहा भूयाणंइस्स एवं जाव महाघोसस्स लोगपालाण', कालस्स ण पिसाईदस्स पिसायरन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पंत-कमला कमलप्पमा उप्पला सुदसणा, एवं महाकालस्सावि, सुरुवस्स ण भूईदस्स भूयरपणो चत्तारि अग्गमहिसीओ पं० त०रूय(व)वती बहुरूवा सुरुवा सुभगा एवं पडिरूवस्सवि, पुण्णभहस्सण जकिंवदस्प जक्खरपणोचत्तारि अग्गमहिसीओ
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॥२८८॥
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सू० २७३-२७४।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२८॥
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पं० त०-पुत्ता बहुपुत्तिया उत्तमा तारगा, एवं माणिभद्दस्सवि, भीमस्स ण रक्खसिंदस्स रक्खसरण्णो चत्तारि अग्गमहिसीओ पं० त-पउमा वसुमई कणगा रयणप्पभा, एवं महाभीमस्सवि, किंनरस्सण किनरिंदस्स चत्तारि अग्ग० पंत-वडेंसा केतुमई रइसेणा रइप्पिया [०८पभा], एवं किंपुरिसस्सवि, सप्पुरिसस्सण किंपुरिसिंदस्स० चत्तारि अग्ग० ५० त०-रोहिणी णवमिया हिरी पुप्फवती, एवं महापुरिसस्सवि, अतिकायस्स ण महोरगिंदस्स चत्तारि अग्ग० ५० त०-भुयगा भुयगवई महाकच्छा फुडा, एवं महाकायस्सवि, गीतरतिस्स ण गंधविदस्स चत्तारि अग्ग० ५० त०-सुघोसा विमला सुस्सरा सरस्सती, एवं गीयजसस्सवि, चंदस्स ण जोतिसिंदस्स जोइसरण्णो चत्तारि अग्ग० ६० त०-चंदप्पभा दोसिणाभा अच्चिमालिणी पभंकरा, एवं सूरस्सवि, णवर सूरप्पभा दोसिणाभा अच्चिमाली पभंकरा, इंगालस्स ण महागहस्स चत्तारि अग्ग० ५० त-विजया वेजयंती जय ती अपराजिया, एवं सब्वेसिपि महागहाण जाव भावकेउस्स, सक्कस्स ण देविंदस्स देवरणो सोमस्स महारणो चत्तारि अग्ग० ५० त०-रोहिणी दमणा (मयणा)चित्ता सोमा, एव जाव बेसमणस्स, ईसाणस्स ण देविंदस्स देवरपणो सोमस्स महारण्णो चत्तारि अग्ग० ५० त०-पुढवी राई रयणी विज्जू , एवं जाव वरुणस्स [सू०२७३] । चत्तारि गोरसविगईओ पं० त०-खीर दहिं सप्पिणवणीय, चत्तारि सिणेहविगईओ पं० त०-तेल्ल घय वसा णवणीय, चत्तारि महाविगईओ पंत-महु मंस मज्ज णवणीय' (सू० २७४) । चत्तारि कूडागारा पंत-गुत्ते णाम एगे गुत्ते, गुत्ते णाम एगे अगुत्ते, अगुत्ते णाम एगे गुत्ते, अगुत्ते णाम एगे अगुत्ते, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-गुत्ते णाम एगे गुत्ते ४, चत्तारि कूडागारसालाओ पं० त० गुत्ता णाम एगा गुत्तदुवारा, गुत्ता णाम
॥२८॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥२९०॥
Jain Education Intern
पगा अगुत्तदुवारा अगुत्ता नाम एगा गुत्तदुवारा अगुत्ता नाम एगा अगुत्तदुवारा एवामेव चत्तारि इत्थीओ पं० तं गुत्ता नाम एगा गुत्तिदिया ४ ( सू० २७५) । चउव्विा ओगाहणा पं० त०-दब्योगाहणा खेत्तोगाहणा कालोगाणा भावोगाहणा (सू० २७६ ) । चत्तारि पण्णत्तीओ अंगबाहिरियाओ पं० त० - चंदपण्णत्ती सूरपन्नत्ती जंबूदीवपन्नत्ती दीवसागरपन्नत्ती (सू० २७७) || चउट्टाणस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥
कण्ठ्यश्चाय, नवरं 'महारण्णो' त्ति लोकपालस्याग्रभूताः - प्रधाना महिष्यों - राजभार्या अग्रमहिष्य इति, 'वइरोयण'त्ति - विविधैः प्रकारै रोच्यन्ते - दीप्यन्त इति विरोचनास्त एवं वैरोचना:- उत्तरदिग्वासिनोऽसुरास्तेषामिन्द्रः, धरणसूत्रे 'एव' मिति कालवालस्यैव कोलपालशैलपालशङ्खपालानामेतन्नामिका एव चतस्रश्चतस्रो भार्याः, एतदेवाह'जाव संखवालरस 'त्ति, भूतानन्दसूत्रे 'एवमिति' यथा कालवालस्य तथान्येषामपि, नवरं तृतीयस्थाने चतुर्थो वाच्यः, धरणस्य दक्षिण नागकुमारनिकायेन्द्रस्य लोकपालानामग्रमहिष्यो यथा यन्नामिकाः तथा तन्नामिका एव सर्वेषां दाक्षि णात्यानां शेषाणामष्टानां वेणुदेव- हरिकान्त-अग्निशिख - पूर्ण - जलकान्त-अमितगति-वेलम्ब - घोपाख्यानामिन्द्राणां ये लोकपालाः सूत्रे दर्शितास्तेषां सर्वेषामिति । यथा च भूतानन्दस्यांदीच्यनागराजस्य तथा शेषाणामष्टानामौदीच्येन्द्राणां वेणुदालि-हरिस्सहा-ऽग्निमानव - विशिष्ट जलप्रभा ऽमितवाहनप्रभञ्जन - महाघोपाख्यानां ये लोकपालास्तेषामपीति, एतदेवाह - 'जहा घरणस्से' त्यादि । उक्तं सचेतनानामन्तरमथान्तराधिकारादेवाचेतनविशेषाणां विकृतीनां गोरसस्नेहमत्त्व - लक्षणमन्तरं सूत्रत्रयेणाह - ' चत्तारी 'त्यादि, गवां रसो गोरसो, व्युत्पत्तिरेवेयं गोरसशब्दस्य प्रवृत्तिस्तु महिष्यादीनामपि दुग्धादिरूपे रसे, विकृतयः शरीरमनसोः प्रायो विकारहेतुत्वादिति शेष प्रकटम् नवरं सर्पिः घृतं नवनीत -
२०२७३-२७७ ।
॥२९०॥
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सू०२७३-२७७।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२९
॥
म्रक्षणमिति, स्नेहरूपा विकृतयः स्नेहविकृतयो. वसा-अस्थिमध्यग्मः, महाविकृतयो-महारसत्वेन महाविकारकारित्वात् , महतः सत्त्वोपघातस्य कारणत्वाच्चेति. इह विकृतिप्रस्तावाद विकृतयो वृद्धगाथाभिः प्ररूप्यन्ते-"खीरं ५ दहि ४ नवनीय ४, घयं ४ तहा तेल्लमेव ४ गुड २ मज २ । महु ३ मं ३ चेव तहा, ओगाहिमय च दिसमी उ ॥११॥ गोमहिसुटिपसूण, एलगखीराणि पंच चत्तारि । दहिमाइयाई जम्हा, उट्टीण ताणि णो हुंति ॥२॥
चत्तारि हुँति तेल्ला, तिलअयसिकुसुंभसरिसवाण च । विगईओ सेसाई, डोलाईण न विगईओ ॥३॥"इत्यादि ।। | अचेतनान्तराधिकारादेव गृहविशेपान्तरं दृष्टान्ततयाऽभिधित्मुः पुरुपस्त्रियांश्चान्तरं दान्तिकतया अभिधातुकामः सूत्र
चतुष्टयमाह-'चत्तारि कूडे'त्यादि कूटानि शिखराणि स्तूपिकास्तद्वन्त्यगाराणि-गेहानि, अथवा कूट-सत्वबन्धनस्थान तद्वदगाराणि कूटागाराणि, तत्र गुप्त-प्राकारादिवृतं भूमिगृहादि का पुनर्गुप्त स्थगितद्वारतया पूर्वकालापरकालापेक्षया वैति, एवमन्येऽपि त्रयो भङ्गा बोद्धव्याः, पुरुषस्तु गुप्तो नेपथ्यादिनाऽन्तर्हितत्वेन पुनगुना गुप्तेन्द्रियत्वेन, अथवा गुप्तः पूर्व पुनर्गुप्तोऽधुनापीति, विपर्यय ऊह्यः, तथा कूटस्येवाऽऽकारी यस्याः शालायाः-गृहविशेषस्य सा तथा, अयं च स्त्रीलिङ्गदृष्टान्तः, स्वीत्वलक्षणदार्टान्तिकार्थसाधम्र्यवशात्, तत्र गुप्ता-परिवारावृता गृहान्तर्गता वस्त्राच्छादिताङ्गा गूढस्वभावा वा, गुप्तेन्द्रियास्तु निगृहीतानौचित्यप्रवृत्तेन्द्रियाः, एवं शेषभङ्गा ऊह्याः । अनन्तरं गुप्तेन्द्रियत्वमुकमिन्द्रियाणि चावगाहनाश्रयाणीत्यवगाहनानिरूपणसूत्रा, अगाहन्ते-आसते यम्यामाश्रयन्ति वा यां जीवाः साऽवगाहना-शरीरं, द्रव्यतोऽवगाहना द्रव्यावगाहना, एवं सर्वत्र, तत्र द्रव्यतोऽनन्तद्रव्या, क्षेत्रतोऽसङ्ख्येयप्रदेशावगाहा, कालतोऽसख्येयसमयस्थितिका, भावतो वर्णाद्यनन्तगुणेति, अथवाऽवगाहना विवक्षितद्रव्यस्याधारभूला आकाशप्रदेशाः,
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सू०२७७-२७८।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२९
॥
36060034-28-3000000000000000000000000000000000000
तत्र द्रव्याणामवगाहना द्रव्यावगाहना, क्षेत्रमेवावगाहना क्षेत्रावगाहना, कालस्यावगाहना समयक्षेत्रलक्षणा कालावगाहना, भाववतां द्रव्याणामवगाहना, भावावगाहना भावप्राधान्यादिति, आश्रयणमात्रा वा अवगाहना, तत्र द्रव्यस्य पर्यायैरवगाहना-आश्रयण द्रव्यावगाहना, एवं क्षेत्रस्य कालरूप, भावानां द्रव्येणेति, अन्यथा वोपयुज्य व्याख्येयमिति । अवगाहनायाश्च प्ररूपणा प्रज्ञप्तिष्विति तच्चतु:स्थानसूत्रम् , तत्र प्रज्ञाप्यन्ते-प्रकर्षण बोध्यन्ते अर्था यासु ताः प्रज्ञप्तयः, अङ्गानि-आचारादीनि तेभ्यो बाह्याः अङ्गबाह्याः, यथार्थाभिधानाश्चैताः कालिकश्रुतरूपाः, तत्र सूरप्रज्ञप्तिजम्बूद्वीपप्रज्ञप्ती पञ्चमषष्ठाङ्गयोरुपाङ्गभूते, इतरे तु प्रकीर्णकरूपे इति, व्याख्याप्रज्ञप्तिरस्ति पञ्चमी केवलं साऽङ्गप्रविष्टेत्येताश्चतस्र उता इति ॥ चतु:स्थानकस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः ।।
अथ चतुःस्थानके द्वितीय उद्देशकः ।। व्याख्यातश्चतुःस्थानकस्य प्रथमोद्देशकोऽधुना द्वितीय आरभ्यते । अस्य चाय पूर्वेण सहाभिसम्बन्धःअनन्तरोद्देशके जीवादिद्रव्यपर्यायाणां चतुःस्थानकमुक्तमिहापि तेषामेव तदुच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्योद्देशकस्येदमादिसूत्रचतुष्टयम्___चत्तारि पडिसलीणा पं०सं०-कोहपडिसलीणे माणपडिसंलीणे मायापडिसलीणे लोहपडिसलीणे, चत्तारि अपडिसलीणा पं०तं०-कोहअपडिसलीणे माणअपडि० जाव लोहअपडिसलीणे, चत्तारि पडिसंलीणे पं००-मणपडिस लीणे वइपडिसलीणे कायपडिसलीणे इदियपडिसलीणे, चत्तारि अपडिसलीणा पं० त०-मणअपडिसंलीणे जाव दियअपडिसलीणे (सू० २७८) । चत्तारि पुरिसज्जाया पं००-दीणे णाम एगे दीणे, दीणे णाम पगे अदीणे, अदीणे णाम एगे दीणे, अदीणे
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2-0000000000000000000000000000000000000000000000000000०००००
॥२९२॥
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सू०२७९।
श्रीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२५३॥
णाम एगे अदीणे १, चत्तारि पुरिसजाया ५० त०-दीणे णाम पगे दीणपरिणए, दीणे णाम एगे अदीणपरिणए, अदीणे णाम एगे दीणपरिणए, अदीणे णाम एगे अदीणपरिणए २ चत्तारि पुरिसजाया प००-दीणे णाम एगे दीणरूवे ४-३, एवं दीणमणे ४-४, दीणस कप्पे ४-५, दीणपण्णे ४-६, दीणदिट्ठी ४-७, दीणसीलायारे ४-८, दीणववहारे ४-९, चत्तारि पुरिसजाया ५० त०-दीणे णाम एगे दीणपरक्कमे ४-१०, एवं सम्वेसिं चउभंगो भाणियव्यो, चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-दीणे णाम एगे दीणवित्ती, ४-११ एवं दीणज्जायी ४-१२, दीणभासी ४-१३, दीणोभासी ४-१४, चत्तारि पुरिसज्जाया प० त०-दीणे णाम एगे दीणसेवी ४-२५, एवं दीणपरियाए ४-१६, एवं दीणे णाम एगे दीणपरियाले ४-१७, सब्वत्थ चउभंगो [सू० २७९] । ___ चत्तारी'त्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धोऽनन्तरसूत्रे प्रज्ञप्तय उक्ताः, ताश्च प्रतिसंलीनेरेय बुद्ध यन्ते इति प्रतिसंलीनाः सेतराः अनेनाभिधीयन्त इत्येवंसम्बद्धमिद सुगम, नवरं क्रोधादिक वस्तु वस्तु प्रति सम्यग्लीना-निरोधवन्तः प्रतिसलीनाः, तत्र क्रोधं प्रति उदयनिरोधेनोदयप्राप्तविफलीकरणेन च प्रतिसंलीनः क्रोधप्रतिसंलीनः, युशलम नउदीरणेनाकुशलमनोनिरोधेन च मनः प्रतिसंलीन यस्य स मनसा वा प्रतिसंलीनो मनःप्रतिसंलीनः, एवं वाकायेन्द्रियप्वपि, नवर शब्दादिषु मनोज्ञामनोज्ञेषु रागद्वेषपरिहारी इन्द्रियप्रतिसंलीन इति, अत्र गाथा-"अपसत्थाण निरोहो, जोगाणमुद्दीरणच कुसलाण । कज्जंमि य विहिगमण, जोगे सलीणया भणिया ॥१॥" सद्दे मु य भयपावएमु, सोयविसयमुवगएसु । तुटुंण व रुटेण व, समणेण सया न होयव्वं ॥१॥" एवं शेषेन्द्रियेष्वपि वकव्या, इत्येवं मनःप्रभृतिभिरसं लीनता भवति पिययादिति । असंलीनमेव प्रकारान्तरेण सप्तदशभिश्चतुर्भङ्गीरूपीनसूत्रेराह-दीनी
॥ ॥२९३॥
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सू०२७९-२८०।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
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दैन्यवान् क्षीणोर्जितवृत्तिः पूर्व पश्चादपि दीन एव अथवा दीनो-बहिवृत्त्या पुनर्दीनोन्तऽवृत्त्या इत्यादिश्चतुर्भङ्गी १, तथा दीनो बहिर्वृत्त्या म्लानवदनत्वादिगुणयुक्तशरीरेणेत्यर्थः, एवं प्रज्ञासूत्रं यावदादिपद व्याख्येय, दानपरिणतः अदीनः सन् दीनतया परिणतोऽन्तच्या इत्यादि चतुर्भङ्गी २, तथा दीनरूपो मलिनजीर्णवस्त्रादिनेपथ्यापेक्षया ३, तथा दीनमनाः स्वभावत एवानुम्नतचित्तः ४, दीनसङ्कल्पः उन्नतचित्तस्वभावोऽपि कथञ्चिद्दीनविमर्शः ५, तथा दीनप्रज्ञः हीनसूक्ष्मालोचनः ६, तथा दीनश्चित्तादिभिरेवमुत्तरत्राप्यादिपद, तथा दीनदृष्टिविच्छायचक्षुः ७, तथा दीनशीलसमाचारः हीनधर्मानुष्ठानः ८, तथा दीनव्यवहारो दीनान्योन्यदानप्रतिदानादिक्रियः हीनविवादो वा ९, तथा दीनपराक्रमो दी(ही नपुरुषकार इति १०, तथा दीनस्येव वृत्तिः-वर्तनं जीविका यस्य स दीनवृत्तिः ११, तथा दीन-दैन्यवन्तं पुरुष दैन्यवद्वा यथा भवति तथा याचत इत्येवंशीलो दीनयाची दीन वा यातीति दीनयायी, दीना वा-हीना जातिरस्येति दीनजाति: १२, तथा दीनवदीनं वा भाषते दीनभाषी १३, दीनवदवभासनेप्रतिभाति अवभाषते वा-याचत इत्येवंशीलो दीनावभासी दीनावभाषी वा १४. तथा दीन नायक सेवत इति दीनसेवी १५, तथा दीनस्येव पर्यायोऽवस्था-प्रव्रज्यादिलक्षणा यस्य स दीनपर्यायः १६, 'दीनपान्याले'त्ति दीनः परिवारो यस्य स तथा १७, 'सम्बत्थ चउभंगो'त्ति सर्वसूत्रेषु चत्वारो भङ्गा द्राच्या इति । पुरुषजाताधिकारवत्येवेयमष्टादशसूत्री--
चत्तारि पुरिसज्जाया पंत-अज्जे णाम एगे अज्जे, अज्जे णाम एगे अणज्जे, अणज्जे नाम एगे अज्जे, अणज्जे नाम पगे अणजे ४-१ । चत्तारि पुरिसजाया प० त०-अज्जे णाम' पगे अज्जपरिणए. ४-२ । एवं
܂
॥२९४॥
Jan Education Instamal
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सू०२८०-२८१ ।
स्थिानाङ्गसूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२९
॥
अज्जरूचे ४-३ । अज्जमणे ४-४। अज्जसंकप्पे ४-५ | अजपन्ने ४-६। अज्जदिट्ठी ४-७ । अज्जसीलायारे ४-८ । अज्जववद्वारे ४-५ । अज्जपरक्कमे ४-१० । अज्जवित्ती ४-११ । अज्जजायी-४-१२। अज्जभासी ४-१३ । अजओभासी ४-१४ । अज्जसेवी ४-१५ । अज्जपरियाप ४-१६ । एवं अज्जपरियाले ४-२७ । एवं सतरम आलावगा जहा दीण भाणिया तहा अज्जेणवि भाणियव्वा, चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-अज्जे णाम एगे अन्नभावे, अज्जे णाम एगे अणज्जभावे, अणज्जे णाम एगे अज्जभावे, अणजे णाम एगे अणजभावे [सू०२८०] । चत्तारि उसभा ५० त०-जाइसंपन्ने कुलसंपन्ने बलसंपन्ने, रूवसंपन्ने, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया प० त०-जाइसंपन्ने जाच स्वसंपन्ने १, चत्तारि उसभा प० त०-जाइस पण्णे णाम एगे णो कुलसंपण्णे कुलसंपण्णे णाम एगे णो जाइस पण्णे, एगे जाइस पण्णेवि कुलसंपण्णेवि, एगे णो जाइसपणे णो कुलसपण्णे, एवामेव चत्तारि पुरिसज्जाया पंत-जाइस पण्णे० ४-२ । चत्तारि उसभा ६० त-जाइसंपण्णे णाम एगे णो बलसपणे ४, पवामेव चत्तारि पुरिसजाया ५० त-जाइस पण्णे णाम एगे णो बलसपणे ४-३, चत्तारि उसभा प० ।-जाइ. संपण्णे णाम पगे णो रूवस पण्णे ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-जाइसंपण्णे णाम पगे णो स्वस पण्णे, स्वस पण्णे णाम एगे ४-४, चत्तारि उसभा प० त०-कुलसंपण्णे णाम एगे णो बलसंपण्णे, बलसंपण्णे णाम पगे णो कुलसंपण्णे, ४, एवामेव चत्तारि पुरिसज्जाया पं० त-कुलसपणे णाम एगे णो बलसपण्णे ४-५, चत्तारि उसभा पतं०-कुलसंपण्णे णाग पगे णो रूवलपणे ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया ५० त०-कुलस'० ४-६, चत्तारि उसभा पं० त०-वलस पन्ने णाम एगे णो रूवस पन्ने ४. एवामेव चत्तारि पुरिसजाया ५० त०-बलसपण्णे णो रूवसंपण्णे ४-७ । चत्तारि हत्थी ५० त०-भद्दे मंदे मिए
॥२९५॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
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संकिण्णे, पवामेव चत्तारि पुरिसज्जाया प० त०-भद्दे मंदे मिए संकिण्णे, चत्तारि हत्थी ५० त०-भद्दे णाम एगे भद्दमणे, भद्दे णाम एगे मंदमणे, भद्दे णाम एगे मियमणे, भद्दे णाम एगे संकिण्णमणे, पवामेव चत्तारि पुरिसजाया ५० त०-भद्दे णाम एगे भद्दमणे, भद्दे णाम एगे मंदमणे, भद्दे नाम पगे मियमणे, भद्दे णाम एगे संकिण्णमणे, चत्तारि हत्थी ५० त०-मंदे णाम एगे भद्दमणे, मंदे णाम एगे मदमणे, मदे णाम एगे मियमणे, मंदे णाम एगे संकिण्णमणे, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-मंदे णाम एगे भद्दमणे त चेव, चत्तारि हत्थी पं० २०-मिए णाम पगे भद्दमणे, मिए णाम एगे मदमणे, मिए णाम एगे मियमणे, मिए णाम पगे सकिण्णमणे, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त-मिए णाम एगे भद्दमणे, तचेव, चत्तारि हत्थी पं० त०-सकिण्णे णाम एगे भद्दमणे, संकिण्णे णाम पगे मदमणे, संकिण्णे णाम एगे मियमणे, संकिण्णे णाम एगे सकिण्णमणे, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया प० त०-संकिण्णे णाम एगे भद्दमणे त चेव, जाव संकिण्णे णाम एगे संकिण्णमणे,-महुगुलियपिंगलक्खो, अणुपुव्वसुजायदीहलंगूलो । पुरओ उदग्गधीरो, सबगसमाहिओ भद्दो ॥१॥ चलबहलविसमचम्मो, थूलसिरो थूलपण पेएणं । थूलनहदंतवालो, हरिपिंगललोयणो मंदो ॥२॥ तणुओ तणुयग्गीवो, तणुयतओ तणुयदंतणहवालो । भीरू तत्थुविग्गो, तासी य भवे मिए णाम ॥३॥ एएसि हत्थीणं, थोव थोवं तु जो हरइ हत्थी । वेण व सीलेण व, सो संकिण्णोत्ति णायब्वो ॥४॥ भद्दो मजइ सरप, मदो पुण मजए वसतमि । मिउ मज्जइ हेमते, संकिण्णो सव्वकाल(मि)तु ॥५॥ (सू० २८१)।
गतार्था, नवरं, आर्यो नवधा, यदाह-'खेत्ते जाई कुल कम्म, सिप्प भासाए नाणचरणे य । दसणारिय णवहा, मेच्छा सगजवणखसमाइ ॥१॥ति" तत्र आर्यः क्षेत्रतः पुनगर्यः पापकर्मवहिर्भूतत्वेनापाप इत्यर्थः, एवं
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। सू० २८१।
श्रीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
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सप्तदश सूत्राणि नेयानि, तथा आर्यभावः क्षायिकादिज्ञानादियुक्तः अनार्यभावः क्रोधादिमानिति । पुरुषजातप्रकरणमेव दृष्टान्तदान्तिकार्थोपेतमाविकथासूत्रादभिधीयते, पाठसिद्ध चैतत , नवरं ऋषभा-बलीवाः जातिगुणवन्मातृकत्वं कुलं-गुणवत्पितृकत्वं बल-भारवहनादिसामर्थ्य रूप-शरीरसौन्दर्यमिति, पुरुषास्तु स्वयं भावयितव्याः, २, अनन्तरदृष्टान्तसूत्राणि तु सपुरुषदान्तिकानि जात्यादीनि चत्वारि पदानि भुवि विन्यस्य षण्णां द्विकसंयोगानां 'जाइसंपन्ने नो कुलसंपन्ने'इत्यादिना स्थानभङ्गकक्रमेण षडेव चतुर्भङ्गिकाः कृत्वा समवसेयानि । हस्तिसूत्रे भद्रादयो हस्तिविशेषा वक्ष्यमाणलक्षणा वनादिविशेषिताश्च, यदाह-"भद्रो मन्दो मृगश्चेति, विज्ञेयास्त्रिविधा गजाः । वनप्रचार-सारूप्यसत्त्वभेदोपलक्षिताः ॥१॥"इति, तत्र भद्रो हस्ती भद्र एव धीरत्वादिगुणयुक्तत्वात् , मन्दो मन्द एव धैर्यवेगादिगुणेषु मन्दत्वात् , मृगो मृग इव तनुत्व भीरुत्वादिना, सङ्कीर्णः किश्चिदभद्रादिगुणयुक्तत्वात् सङ्कीर्ण एवेति, पुरुषोऽप्येवं भावनीयः, उत्तरसूत्राणि तु चत्वारि सदान्तिकानि, भद्रादिपदानि चत्वारि तदधः क्रमेण चत्वार्येव भद्रमन:प्रभृतीनि च विन्यस्य 'भद्दे नाम एगे भदमणे' इत्यादिना क्रमेण समवसेयानि, तत्र भद्रो जात्याकाराभ्यां प्रशस्तस्तथा भद्रं मनो यस्याथवा भद्रस्येव मनो यस्य स तथा धीर इत्यर्थः, मन्दं मन्दस्येव वा मनो यस्य स तथा, नात्यन्तधीरः,
भ | म । म | स एवं मृगमना भीरुरित्यर्थः, सङ्कीर्णमना भद्रादिविचित्रलक्षणोपेतमना विचित्रचित्त इत्यर्थः|भाम। म स पुरुषास्तु वक्ष्यमाणभद्रादिलक्षणानुसारेण प्रशस्ताप्रशस्तस्वरूपा मन्तव्या इति, भद्रादिलक्षणमिदम्-'महु'इत्यादिगाथा, मधुवटिकेव(गुटिकेव)-क्षौद्रवटिकेव पिङ्गले अक्षिणी-लोचने यस्य सः तथा, अनुपूर्वेण
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सू०२८१ ।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२९८॥
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परिपाट्या सुष्टु जातः-उत्पन्नो यः सोऽनुपूर्वसुजातः, स्वजात्युचितकालक्रमजातो हि बलरूपादिगुणयुक्तो भवति | स चासौ दीर्घलाङ्गेलो दीर्घपुच्छश्चेति सः तथा, अनुपूर्वेण वा स्थूलसूक्ष्ममूक्ष्मतरलक्षणेन सुजात दीर्घ लाङ्ग्लं यस्य स तथेति, पुरतोऽग्रभागे उदग्रः-उन्नतः तथा धीरोऽक्षोभः तथा सर्वाण्यङ्गानि सम्यक्-प्रमाणलक्षणोपेतत्वेन आहितानि-व्यवस्थितानि यस्य स सर्वाङ्गसमाहितो भद्रो नाम गजविशेषो भवतीति, 'चल' इत्यादिगाथा, चलं-श्लथं । बहलं-स्थूलं विषम-वलियुक्त चर्म यस्य स तथा, स्थूलशिराः, स्थूलकेन 'पेएण'त्ति पेचकेन-पुच्छमृलेन युक्तः स्थूलनखदन्तवालो, हरिपिङ्गललोचन:-सिंहवत् पिङ्गाक्षो मन्दो गजविशेषो भवतीति, 'तणु'इत्यादिगाथा, तनुक:कुशः तनुग्रीवः तनुत्वक्-तनुचा तनुकनखदन्तवालः, भीरु:-भयशीलः स्वभावतस्त्रस्तो भयकारणवशात् , स्तब्धकर्णकरणादिलक्षणोपेतो भीत इव उद्विग्नः कष्टविहारादावुद्वेगवान् स्वयं त्रस्तः परानपि त्रासयतीति त्रासी च भवेन्मृगो नाम गजभेद इति, एएसिमित्यादि गाथा, 'भद्दो' इत्यादिगाथा,(इमे)गाथे कण्ठये, तथा "दंतेहिं हणइ भद्दो, मंदो हत्थेण आहणइ हत्थी । गत्ता वहेइ य मिओ (गत्ताधरेहि य मिओ), संकिण्णो सव्वहा(ओ) हणइ॥१॥" अनन्तर संकीर्णः सङ्कीर्णमना इत्यत्र मनःस्वरूपमुक्तमथ वाचःस्वरूपभणनाय विकथा-कथाप्रकरणमाह__चत्तारि विकहाओ पंत-इत्थिकहा भत्तकहा देसकहा रायकहा, इथिकहा चउबिहा प० त०-इत्थीण जाइकहा इत्थीण कुलकहा इत्थीण रूवकहा इत्थीण णेवत्थकहा, भत्तकहा चउविहा पं० त०-भत्तस्स आवावकहा भत्तर निव्वाव कहा भत्तस्स आरंभकहा भत्तस्स णिट्ठाणकहा, देसकहा चउब्विहा पंत-देसविहिकहा देसविकप्पकहा देसच्छंदकहा देसनेवत्थकहा, रायकहा चउबिहा ५० त०-रण्णो अइजाणकहा रण्णो णिजाणकहा रण्णो
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सू०२८२
श्रीस्थानान
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥२९९॥
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बलवाहणकहा रण्णो कोसकोट्ठागारकहा, चउबिहा धम्मकहा ५० त०-अक्खेवणी विक्खेवणी संवेयणी निब्वेयणी, अक्खेवणी कहा चउबिहा पं० त०-आयारअक्खेवणी ववहारअक्खेवणी पन्नत्तिअक्खेवणी दिट्ठिवायअक्खेवणी, विक्खेवणी कहा चउब्विहा पं० त०-ससमय कहेइ, ससमय कहेत्ता परसमय कहेइ १, परसमय कहित्ता ससमय ठावइत्ता भवइ २, सम्मावाय' कहेइ सम्मावायकहित्ता मिच्छावाय' कहेइ ३, मिच्छाचाय कहित्ता सम्मावाय' ठावइत्ता भवइ ४, संवेयणी कहा चउब्विहा पं० त०-इहलोगसंवेयणी परलोयसवेयणी आयसरीरसंत्रेयणी परसरीरसंवेयणी, णिव्वेयणी कहा चउबिद्दा ५० त०-इहलोगदुच्चिण्णा कम्मा इहलोगदुहफलविवागसंजुत्ता भवंति १, इहलोगदुञ्चिन्ना कम्मा परलोगदुहफलविवागस जुत्ता भवंति २, परलोगदुच्चिन्ना कम्मा इहलोगदुहफलविवागस जुत्ता भवति ३, परलोगदुच्चिण्णा कम्मा परलोगदुहफलविवागस जुत्ता भवति ४, इहलोगे सुचिपणा कम्मा इहलोगे सुहफलविवागस जुत्ता भवति १, इहलोगे सुचिण्णा कम्मा परलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवति २, पब चउभंगो ४ (सू० २८२) ।
मुगम, नवरं विरुद्धा संयमवाधकत्वेन कथा-वचनपद्धतिर्विकथा, तत्र स्त्रीणां स्त्रीषु वा कथा स्वीकथा, इयं च कथेत्युक्तापि स्त्रीविषयत्वेन संयमविरुद्धत्वाद्विकथेति भावनीयेति, एवं भक्तस्य-भोजनस्य, देशस्य-जनपदस्य, राज्ञो-नृपस्येति, ब्राह्मणीप्रभृतीनामन्यतमाया या प्रशंसा निन्दा वा सा जात्या जातेर्वा कथेति जातिकथा, यथा"धिग ब्राह्मणीवाभावे, या जीवन्ति मृता इव । धन्या मन्ये जने शुद्रीः, पतिलक्षेऽप्यनिन्दिताः ॥१॥" एवं उग्रादिकुलोत्पन्नानामन्यतमाया यत्प्रशंसादि सा कुलकथा, यथा-"अहो ! चौलुक्यपुत्रीणां, साहसं जगतोऽधिकम् ।
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सू०२८२।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३०॥
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पत्युर्मुत्यौ विशन्त्यग्नौ, याः प्रेमरहिता अपि ॥१॥"इति, तथा अन्ध्रीप्रभृतीनामन्यतमाया रूपस्य यत्प्रशंसादि सा रूपकथा, यथा-"चन्द्रवत्रा सरोजाक्षी, सद्गीः पीनघनस्तनी । किं लाटी नो मता साऽस्य, देवानामपि दुर्लभा ॥१॥"इति, तासामेव अन्यतमायाः कच्छाबन्धादिनेपथ्यस्य यत्प्रशंसादि नेपथ्यकथेति, यथा-"धिग्नारीरौदीच्या, बहुवसनाच्छदिताङ्गलतिकत्वात् । यद्यौवनं न यूनां, चक्षुर्मोदाय भवति सदा ॥१॥"इति, स्वीकथायां चैते दोषाः"आयपरमोहुदीरण, उड्डाहो सुत्तमाइपरिहाणी । बंभवयस्स अगुत्ती, पसंगदोसा य गमणाई ॥१॥” उन्निष्क्रमणादय इत्यर्थः, तथा शाकघृतादीन्येतावन्ति तस्यां रसवत्यामुपयुज्यन्त इत्येवंरूपा कथा आवापकथा, एतावन्तस्तत्र पक्कापक्कान्नभेदा व्यञ्जनभेदा वेति निर्वापकथेति, तित्तिरादीनामियतां तत्रोपयोग इत्यारम्भकथा, एतावद् द्रविण तत्रोपयुज्यत इति निष्ठानकथेति, उक्त च-"सागघयादावादो, पक्कापक्को य होइ निव्वावो । आरंभ तित्तिराई, निट्ठाण जा सयसहस्सं ॥१॥"इति, इह चामी दोषा:-"आहारमंतरेणवि, गेहीओ जायए सइंगाल । अजिइंदिय
ओदरिया-चाओ उ अणुन्नदोसा य ॥१॥"त्ति, तथा देशे मगधादौ विधिः-विरचना भोजनमणिभूमिकादीनां भुज्यते वा यद्यत्र प्रथमतयेति देशविधिस्तत्कथा देशविधिकथा, एवमन्यत्रापि, नवरं विकल्पः-सस्यनिष्पत्तिः, वप्रकूपादिदेवकुलभवनादिविशेषश्चेति, छन्दो-गम्यागम्यविभागो यथा लाटदेशे मातुल भगिनी गम्या अन्यत्रागम्येति, नेपथ्य-स्त्रीपुरुषाणां वेषः स्वाभाविको विभूषाप्रयत्यश्चेति, इह दोषा:-"रागद्दोसुप्पत्ती, सपक्खपरपक्खो य अहिगरण । बहुगुण इमोत्ति देसो, सोउं गमण च अन्नेसि ॥१॥"ति, तथा 'रायकहे'त्ति, अतियानं-नगरादौ प्रवेशः तत्कथा अतियानकथा, यथा-"सियसिंधुरखंधगओ, सियचमरो सेयछत्तछन्ननहो। जणनयणकिरणसेओ,
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सू० २८१॥
भीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३०॥
एसो पविसइ पुरे राया ॥१॥"त्ति, एवं सर्वत्र, नवरं निर्याण-निर्गमः, तत्कथा यथा-"वज्जंताउज्जममंद-बंदिस मिलंतसामंत । संखुद्धसेन्नमुद्धय-चिंध नयरा निवो नियइ ॥१॥" बल-हस्त्यादि, बाहनं-वेसरादि, तत्कथा यथा"हेसंतहयं गज्जंत-मयगलं घणघणंतरहलक्ख । कस्सऽनस्सवि सिन, निन्नासियसत्तुसिन भो ! ॥१॥" कोशो -भाण्डागार कोष्ठागार-धान्यागारमिति, तत्कथा यथा-"पुरिसपरंपरपत्तेण, भरियविस्संभरेण कोसेण। निज्जियवेसमणेण, तेण समो को निवो अन्नो ? ॥१॥"त्ति, इह चैते दोषाः-"चारिय चोराभिमरे२,-हिय मारिय संक काउकामो वा । भुत्ताभुत्तोहाणे, करेज वा आससपओगं ॥१॥" भुक्तभोगो अभुक्तभोगो वा अवधावनं कुर्यादित्यर्थः । 'अक्खे 'त्ति आक्षिप्यते-मोहात तत्त्वं प्रत्याकृष्यते श्रोताऽनयेत्याक्षेपणी, तथा विक्षिप्यते-सन्मार्गात कुमार्गे कुमार्गाद्वा सन्मार्ग श्रोताऽनयेति विक्षेपणी, संवेगयति-संवेगं करोति इति संवेगनी, संवेद्यते वा-संबोध्यते, संवेज्यते वा-संवेगं ग्राह्य ते श्रोताऽनयेति संवेदनी संवेजनी वेति, निर्विद्यते-संसारादेर्निविण्णः क्रियते अनयेति निर्वेदनी, आचारो-लोचास्नानादिस्तत्प्रकाशनेन आक्षेपणी आचाराक्षेपणी, एवमन्यत्रापि. नवरं व्यवहारः-कथश्चिदापनदोषव्यपोहाय प्रायश्चित्तलक्षणः, प्रज्ञप्तिः-संशयापन्नस्य श्रोतुर्मधुरबचनैः प्रज्ञापनं, दृष्टिवादः-श्रोत्रपेक्षया नया
नुसारेण सूक्ष्मजीवादिभावकथनम् , अन्ये त्वभिदति-आचारादयो ग्रन्था एवं परिगृह्यन्ते. आचाराद्यभिधानादिति. । अस्याश्चाय रस:-"विज्जा चरण च तवो, पुरिसक्कारो य समिइ गुत्तीओ । उवइस्सइ खलुज सो, कहाए अखेवणीइ रसो ॥१॥"त्ति, स्वसमय-स्वसिद्धान्तं कथयति, तद्गुणान् दीपयति पूर्व, ततस्तं कथयित्वा परसमय कथयति. तहोपान दर्शयतीत्येका १, एवं परसमयकथनपूर्व स्वसमय स्थापयिता-म्बममयगणानां स्थापको भवतीति
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सू०२८२-२८३।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३०२॥
द्वितीया २, 'सम्मावाय'मित्यादि, अस्यायमर्थः-परसमयेष्वपि घुणाक्षरन्यायेन यो यावान् जिनागमतत्ववादसदृशतया | सम्यग-अविपरीतस्तत्त्वानां वादः सम्यग्वादः तं कथयति, तं कथयित्वा तेष्वेव यो जिनप्रणीततत्त्वविरुद्धत्वान्मि
थ्यावादस्त दोषदर्शनतः कथयतीति तृतीया ३, परसमयेष्वेव मिथ्यावादं कथयित्वा सम्यग्वादं स्थापयिता भवतीति चतुर्थी ४, इहलोको-मनुष्यजन्म तत्स्वरूपकथनेन संवेगनी इहलोकसवेगनी, सर्वमिदं मानुपत्वमसारमधुवं कदलीस्तम्भसमानमित्यादिरूपा १, एवं परलोकसवेगनी देवादिभवस्वभावकथनरूपा-देवा अपीpविपाद भयवियोगादिदुःखैरभिभूताः, किं पुनस्तिर्यगादय इति २, आत्मशरीरसवेगनी यदेतदस्मदीयं शरीरमेतदशुचि अशुचिकारणजातमशुचिद्वारविनिर्गतमिति न प्रतिबन्धस्थानमित्यादिकथनरूपा, ३, एवं परशरीरसंवेगनी, अथवा परशरीर-मृतकशरीरमिति ४, इहलोके दुश्चीर्णानि-चौर्यादीनि कर्माणि-क्रिया इहलोके दुःखमेव कर्ममजन्यत्वात पलं दुःखफलं तस्य विपाकः-अनुभवो दुःखफलविपाकस्तेन संयुक्तानि दुःखफलविपाकसंयुकानि भवन्ति चौरादीनामिवे. त्येका १, एवं नारकाणामिवेति द्वितीया २ आ गर्भाद् व्याधिदारिद्रयाभिभूतानामिवेति तृतीया ३, प्राककृताशुभकर्मोत्पन्नानां नरकप्रायोग्य बनतां काकगृध्रादीनामिव चतुर्थी ४ इति. 'इहलोप सुचिन्ने त्यादि चतुर्भङ्गी तीर्थकरदानदातृ १सुसाधुरतीर्थकर३देवभवस्थतीर्थकरादीनामिव भावनीयेति ॥ उक्तो वाग्विशेषोऽधुना पुरुषजातप्रधानतया कायविशेषमाह
चत्तारि पुरिसज्जाया प० त-किसे नाम पगे किसे, किसे नाम एगे दढे, दढे नाम एगे किसे, दढे नाम पगे दढे, चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-किसे नाम एगे किससरीरे, किसे नाम पगे दढसरीरे, दढे नाम
॥३०२॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०२८३-२८४।
दीपिका वृत्तिः ।
एगे किससरीरे, दढे नाम एगे दढसरीरे, चत्तारि पुरिसजाया पं० न०-किससरीरस्स नाम पगस्स णाणसणे समुप्पज्जइ णो दढसरीरस्स, दढसरीरस्स नाममेगस्स णाणदसणे समुप्पजइ णो किससरीरस्स, एगस्स किससरीरस्सवि णाणदसणे समुष्पज्जइ दढसरीरस्सवि, एगस्स नो किससरीरम्स वि णाणदसणे समुपज्जइ नो दढसरीरस्स (सू० २८३) । चउहि ठाणेहिं निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा अस्सि समयसि अइसेसे णाणदसणे समुप्पज्जिउकामे वि न समुप्पज्जेज्जा, त-अभिक्षण अभिक्खणमित्थिकहं भत्तकह देसकहं रायकह कहेत्ता भवइ १, विवेगेणं विउस्सग्गेण णो सम्म अप्पाण भावेत्ता भवइ २, पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि णो धम्मजागरिय जागरित्ता भवइ ३, फासुयस्स पसणिज्जस्स उंछस्स सामुदाणियस्स णो सम्म गवेसित्ता भवइ ४, इच्चेपहिं चउहि ठाणेहि निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा जाव णो समुप्पज्जेज्जा । चउहि ठाणेहि निग्गथाण वा निग्गंधीण वा अतिसेसे णाणदसणे समुप्पज्जिउकामे समुप्पज्जेज्जा त-इत्थिकह भत्तकह देसकह रायकहं णो कहेत्ता भवइ १. विवेगेणं विउस्सग्गेण सम्म अप्पाण भावेत्ता भवइ २, पुब्बरत्तावरत्तकालसमयसि धम्मजागरिय जागरइत्ता भवइ ३, फासुयस्स एसणिज्जस्स उछस्स सामुदाणियस्स सम्म गवेसित्ता भवइ ४ इच्चेपहिचउहि ठाणेहि निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा जाव समुप्पज्जेज्जा (सू० २८४)।
'कत्तारि पुरिसे'त्यादि कण्ठय, नवरं कृशः-तनुशरीरः पूर्व पश्चादपि कृश एव अथवा कृशो भावेन हीनसत्त्वादित्वात् पुनः कृशः शरीरादिभिरेवं दृढोऽपि विपर्ययादिति, पूर्वसूत्रार्थविशेपाश्रितमेव द्वितीय सूत्र, तत्र कृशो भावतः, शेष सुगमम् । कृशस्यैव चतुर्भङ्गया ज्ञानोत्पादमाह-चत्तारित्ति व्यक. किन्तु कृशशरीरस्य विचित्रतपसा
॥३०॥
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सू०२८३-२८४॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
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॥३०४॥
भावितस्य शुभपरिणामसम्भवेन तदावरणक्षयोपशमादिभावात् , ज्ञानश्च दर्शनच ज्ञानदर्शनं ज्ञानेन वा सह दर्शनं ज्ञानदर्शनं छाअस्थिक कैवलिक वा तत् समुत्पद्यते, न दृढशरीरस्य, तस्य हि उपचितत्वेन बहुमोहतया तथाविधशुभपरिणामाभावेन क्षयोपशमाद्यभावादित्येकः, तथाऽमन्दसंहननस्याल्पमोहस्य दृढशरीरस्यैव ज्ञानदर्शनमुत्पद्यते, स्वस्थशरीरतया मनःस्वास्थ्येन शुभपरिणामभावतः क्षयोपशमादिभावान् न कृशशरीरस्यास्वास्थ्यादिति द्वितीयः, तथा कृशस्य दृढस्य वा तदुत्पद्यते विशिष्टसंहननस्याल्पमोहस्योभयथापि शुभपरिणामभावात् कृशत्वदृढत्वे नापेक्षत इति तृतीयः, चतुर्थः मुज्ञानः । ज्ञानदर्शनयोरुत्पादः उक्तोऽधुना तव्याघात उच्यते, तत्र-'चउहि'मित्यादिसूत्र स्फुटं, पर निर्ग्रन्थीग्रहणात् स्त्रिया अपि केवलमुत्पद्यत इत्याह, 'अस्सि"ति अस्मिन् प्रत्यक्ष इवानन्तरप्रत्यासन्ने समये 'अइसेसे'त्ति शेषाणि-मत्यादिचक्षुर्दर्शनादीनि अतिक्रान्तं सर्वावबोधादिगुणैर्यत्तदतिशेषमतिशयवत्केवलमित्यर्थः, समुत्पत्तकाममपीतीहैवाओं द्रष्टव्यः, ज्ञानादेरभिलाषाभावात् , कथयितेति शीलार्थिकस्तृन् तेन द्वितीया न विरुद्धेति, 'विवेगेण"ति अशुद्धादित्यागेन 'विउस्सग्गेण ति कायव्युत्सर्गेण, पूर्वरात्रश्च-रात्रेः पूर्वो भागोऽपररात्रश्च-रारपरो भागस्तावेव कालः स एव समयः-अवसरो जागरिकायाः एवं पूर्वरात्रापग्गत्रकालसमयम्तम्मिन कुटुम्बजागरिकाव्यवच्छेदेन धर्मप्रधाना जागरिका-निद्राक्षयेण बोधो धर्मजागरिका, भावप्रन्युपेक्षेत्यर्थः, यथा-"किं कय किं । वा सेस, किं करणिज्ज तवं च न करेमि । पुव्वावरत्तकाले, जागरओ भावपडिलेहा ॥१॥"त्ति इत्यादिरूपा विभक्तिपरिणामात् तया जागरिता-जागरको (जागरितो) भवति, तथा प्रगता असवः-उच्छ्वासादयः प्राणा यस्मात् स प्रासुको निर्जीवस्तस्य एष्यते-गवेष्यते उद्गमादिदोषपरिहारतयेत्येषणीयः-कल्प्यस्तस्य उच्यते
1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000001
s܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥३०४॥
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सू० २८७-२८८
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
अल्पाल्पतया गृह्यत इत्युञ्छो-भत पानादिस्तस्य समुदाने-भिक्षणे याश्चायां भवः सामुदानिकस्तस्य नो सम्यग्ग| वेपयिता-अन्वेष्टा भवतीति, एवंप्रकारेतैरनन्तगेदितैरित्यादि निगमनम् , एतद्विपर्ययसूत्रं कण्ठयम् । निर्ग्रन्थप्रस्तावात तदकृत्यनिषेधाय सूत्रे--
णो कप्पा णिग्गंथाण वा णिग्गंधीण वा चउहि महापाडिवाहि सज्झाय करेत्तए, त-आसाढपाडिवण इंदमहपाडिवण कत्तियपाडिवए सुगिम्हपाडिवए १, णो कप्पर णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा चरहिं संझाहि सज्झाय करेत्तण, त-पढमाए पच्छिमाए मज्झण्हे अइडरत्त २, कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण या चाउकाले सज्झाय करेत्तण, त-पुब्बण्हे अधरण्हे पओसे पच्चसे (सू० २८५) । चउबिहा लोगट्टिई पं० तआगासपइदिए बाए वायपइट्टिए उदही उदहिपइट्ठिया पुढवी पुढविषइट्टिया तसा थावरा पाणा [म० २८६] । चत्तारि पुरिसज्जाया पं -तहे णाममेगे णोतहे णाममेगे सोवत्थी णाममेगे पहाणे णाममेगे ४, चत्तारि पुरिसजाया पंत-आतंतकरे णाममेगे णो परंतकरे १ परंतकरे णाममेगे णो आतंतकरे २ गगे आतंतकरेवि परंतकरेवि ३ पगे णो आतंतकरे जो परंतकरे ४, २, चत्तारि पुरिसजाया प० त-आतंतमे णाममेगे णो परंतो, परंतमे णाममेगे णो आलंतमे. ४. ३, चत्तारि पुरिसज्जाया पंत-आतंदमे नाममेगे णो परंदसे ४,४, (सू० २८७) । चउविवहा गरहा पंन-उपसंपज्जामिनेगा गरहा, वितिगिच्छामित्तगा गरहा, जकिचिमिच्छामीतेगा गरहा. पवपि पण्णत्तेगा गरहा. (स० २८८) ।
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
दीपिका वृप्तिः ।
॥३०६॥
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'नो कप 'त्यादिके [सूत्रे ] कण्ठ्ये, केवलं महोत्सवानन्तर वृत्तित्वेनोत्सवानुवृत्त्या शेषप्रतिपद्विलक्षणतया महाप्रतिपदस्तासु इह च देशविशेषरूडचा 'पाडव एहि 'ति निर्देशः, स्वाध्यायो नन्द्यादिसूत्रविषयो वाचनादिः, अनुप्रेक्षा तु न निषिध्यते, आषाढस्य पौर्णमास्या अनन्तरा प्रतिपदा आपाढप्रतिपदेवमन्यत्रापि, नवरमिन्द्रमहोऽश्वयुपौर्णमासी, सुग्रीष्मश्चैत्रपौर्णमासीति, इह च यत्र विषये यतो दिवसान्महामहाः प्रवर्त्तन्ते तत्र तदिवसात् स्वाध्यायो न विधीयते महसमाप्तिदिवस यातच पौर्णमास्येव प्रतिपदस्तु क्षणानुवृत्तिसम्भवेन वर्ज्यन्त इति उक्तं च- "आसाठी इंदमहो, कत्तिय सुगम् य बोद्धव्वो । एए महामहा खलु सव्वेसि जाव पाडिवया ||१|| "त्ति, अकालस्वाध्याये चामी दोषाः“सुयनामि अभत्ती, लोगविरुद्ध पमत्तछलणा य। विज्जासाहणवेगुण्ण - धम्मया एव मा कुणसु ||२|| "त्ति, विद्यासाधनवैगुण्यसाधर्म्येणैवेत्यर्थः, प्रथमा सन्ध्या अनुदिते सूर्ये पश्चिमा अस्तमयसमये । उक्तविपर्ययसूत्र कण्ठ्य, किन्तु 'your अवर'ति दिनस्याद्यचरमप्रहरयोः 'पओसे पच्चूसे 'त्ति रात्रेरिति । स्वाध्यायप्रवृत्तस्य च लोकस्य स्थितिपरिज्ञानं भवति इति तामेव प्रतिपादयन्नाह - 'चउब्विहे 'त्यादि, लोकस्य क्षेत्रलक्षणस्य स्थितिर्व्यवस्था लोकस्थितिः, आकाशप्रतिष्ठितो वातो- घनवाततनुवातलक्षणः, उदधिः - घनोदधिः, पृथिवी - रत्नप्रभादिका, सा-द्वीन्द्रि यादयः, ते पुनर्ये रत्नप्रभादि पृथ्वीष्वप्रतिष्ठितास्तेऽपि विमानपर्वतादिपृथिवीप्रतिष्ठितत्वात् पृथिवीप्रतिष्ठिता एव विमान पृथिवीनां चाकाशादिप्रतिष्ठितत्वं यथासम्भवमवसेयम्, अविवक्षा वेह विमानादिगतदेवादित्रसानामिति, स्थावराfree वारवनस्पत्यादयो ग्राह्याः, सूक्ष्माणां सकललोकप्रतिष्ठितत्वात् शेषं सुगममिति । अनन्तरं त्रसाः प्राणा उक्ताः, अधुना प्राणविशेषस्य 'चत्तारी'त्यादिभिश्चतुर्भिचतुर्भङ्गीसूत्रैः स्वरूपं प्रदर्शयति कण्ठ्चानि चैतानि, केवलं
सू० २८७-२८८ ।
॥३०६॥
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सू०२८७-२८८1
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३०७॥
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'तहत्ति सेवकः सन् यथैवादिश्यते तथैव यः प्रवर्तते स तथा, अन्यस्तु नी तथैवान्यथापीत्यर्थः इति नोतथः, तथा स्वस्तीत्याह चरति वा सौवस्तिकः प्राकृतत्वात् ककारलोपे दीर्घत्वे च सोवत्थी-माङ्गलिकाभिधायी मागधादिन्यः, एतेषामेवाराध्यतया प्रधानः-प्रभुरन्य इति । 'आततकर ति आत्मनोऽन्तमवसानं भवस्य करोतीत्यात्मान्तकरः, नो परस्य भवान्तकरी, धर्मदेशनाऽनासेवकः प्रत्येकबुद्धादिः १, तथा परस्य भवान्तं करोति मार्गप्रवर्तनेन परान्तको नात्मान्तकरोऽचरमशरीर आचार्यादिः २, तृतीयस्तु तीर्थकरोऽन्यो वा ३, चतुर्थो दुप्पमाचार्यादिः ४, अथवाऽऽत्मनोऽन्त'-मरण करोतीति आत्मान्तकरः, एवं परान्तकरोऽपि, इह प्रथम आत्मवधको द्वितीयः परवधकः तृतीय उभयहन्ता चतुर्थस्त्ववधक इति, अथवाऽऽत्मतन्त्रः सन् कार्याणि करोतीत्यात्मतन्त्रकरः, एवं परतन्त्रकरोऽपि इह तु प्रथमो जिनो, द्वितीयो भिक्षुः, तृतीय आचार्यादिः, चतुर्थः कार्यविशेषापेक्षया शठ इति, अथवा आत्मतन्त्रम्-आत्मायत्तं धनगच्छादि करोतीत्यात्मतन्त्रकर एवमितरापि भङ्गयोजना स्वयमभ्योति । तथा आत्मानं तमयति-खेदयतीत्यात्मतमः-आचार्यादिः, परं-शिष्यादिक तमयतीति परतमः, सर्वत्र प्राकृतत्वादनुस्वारः, अथवा आत्मनि तमः-अज्ञानं क्रोधो वा यस्य स आत्मतमाः, एवमितरोऽपि, तथा आत्मानं दमयति-शमवन्तं करोति शिक्षयति वेत्यात्मदम आचार्योऽश्वदमकादिर्वा, एवमितरोऽपि, नवरं परः शिष्योऽश्वादि । दमश्च गर्दागर्हातः स्यादिति गर्हासूत्र, तत्र गुरुसाक्षिकाऽऽत्मनो निन्दा गर्दा, तत्र उपसम्पद्य-आश्रयामि गुरुं स्वदोषनिवेदनार्थमभ्युपगच्छामि वोचित प्रायश्चित्तमितीत्येवंप्रकारः परिणाम एका गति, गर्हात्वं चास्योक्तपरिणामस्य गर्दायाः कारणत्वेन कारणे कार्योपचाराद् गर्दासमानफलत्वाच्च द्रष्टव्यमिति, तथा वितिगच्छामि'त्ति वीति-विशेषेण विविधैः प्रकारैर्वा
॥३०७॥
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सू०२८८-२८९।
श्रीस्थानाइ
सूत्रदीपिका बृत्तिः ।
॥३०८॥
चिकित्सामि-प्रतिकगमि गर्हणीयान् दोषान इतीत्येवंविकल्पामिका एकाऽन्या गर्दा, तत एवेति, तथा 'जाकिंचिमिच्छामी'त्ति यकिश्चनानुदितं तन्मिथ्या-विपरीत दुप्ठु मे-मम इत्येवं वासनागर्भवचनरूपाऽन्या गऱ्या, एवंस्वरूपत्वादेव गायाः, तथा 'एवमपी ति अनेनाऽपि-स्वदोषगईणप्रकारेणापि प्रज्ञप्ता-अभिहिता जिनपिशुद्धिरिति प्रतिपत्तिरेका गर्दा, एवंविधप्रतिपत्तेर्गर्दाकारणत्वादिति । गर्दा च दोपवजकम्यैव सम्यग भवति नेतरस्येति दोपवर्जकजीवस्वरूपनिरूपणाय सप्तदश चतुर्भगीसूत्राणि---
चत्तारि पुरिसज्जाया पं० त०-अपणो णाम एगे अलमंथू भवइ णो परस्स, परस्स णाम पगे अलमंथू भवद णो अपणो, पगे अप्पणोवि अलमंधू भवइ परस्सवि, एगे णो अपणो अलमंधू भवइ णो घरस्स १ । चत्तारि मग्गा पं० नं०-उज्जू णाम एगे उज्जू , उज्जू णाम एगे वके, व'के णाम पगे उज्जू , बके णाम एगेव के २ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-उज्जू णाम पगे उज्जू ४,३ । चत्तारि मग्गा पं० त०-खेमे नाम एगे खेमे, खेमे नाम एगे अखेमे ४,४ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पंत-खेमे नाम एगे खेमे ४, ५ । घत्तारि मग्गा पं०तखेमे नाम एगे खेमरूवे, खेमे नाम एगे अखेमरूवे ४, ६ । पवामेव चत्तारि पुरिसजाया पंत-खेमे नाम एगे खेमरूवे ४, ७ । चत्तारि संबुक्का पन-वामे नाम पगे वामावत्ते, वामे नाम एगे दाहिणावत्ते, दाहिणे नाम एगे वामावत्ते, दाहिणे णाम एगे दाहिणावत्ते ४.८ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-चामे णाम एगे वामावत्ते ४, ५ । चत्तारि धूमसिहाओ प० त०-वामा नाममेगा वामावत्ता ४, १० । पचामेव चत्तारित्थीओ पं० त०बामा णाममेगा वामावत्ता ४,११ । चत्तारि अग्गिसिहाओ पं० त०-चामा णाम पगा वामावत्ता ४, १२ । पयामेव चत्तारित्थीओ पंत-वामा णाम पगा वामावत्ता ४, १३ । चत्तारि बायमंडलिया 40 तं-चामा
00000000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥३०८॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥ ३०९ ॥
मग वामावता ४, १४, एवामेव चत्तारि इत्थीओ पं० त०-वामा णाम एगा वामावत्ता ४ १५ । चत्तारि वणसंडा पं० त०-वामे णाम एगे वामावते ४ १६ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं वामे णाम' एगे वामावते ४ १७ (सू० २८९ ) ।
युगमानि, केवलं अलमस्तु - निषेधो भवतु य एवमाह सोऽलमस्त्वित्युच्यते निषेधक इत्यर्थः स चात्मनो दुर्नयेषु प्रवर्त्तमानस्यैको निषेधकः, अथवा 'अलमधु'त्ति समयभाषया समर्थोऽभिधीयते, ततः आत्मनो निग्रहे समर्थः चिदिति १, एको मार्ग ऋजुरादावन्तेऽपि ऋजुः अथवा ऋजुः प्रतिभाति तत्त्वतोऽपि ऋजुरेवेति २. पुरुषस्तु ऋजुः पूर्वापरकालापेक्षया, अन्तस्तत्त्ववहिस्तत्त्वापेक्षया वेति क्वचित्तु 'उज्जू नाम एगे उज्जृमणेति पाठः सोऽपि बहिस्तत्वान्तस्तवापेक्षया व्याख्येयः ३, क्षमो नामैको मार्ग आदी निरुपद्रवतया पुनः क्षेमोऽन्ते तथैव प्रसिद्धिताभ्यां वा ४, एवं पुरुषोऽपि क्रोधाद्युपद्रवरहिततया क्षेम इति ५ क्षेमी भावतोऽनुपद्रवत्वेन, क्षेमरूपः आकारण मार्गः ६, पुरुषस्तु प्रथमो भावद्रव्यलिङ्गयुक्तः साधुः, द्वितीयः कारणिको द्रव्यलिङ्गवर्जितः साधुरेव तृतीयो निह्नवः, agesrafर्थको गृहस्थो वेति ७, 'संबुक्के 'ति शम्बूकाः शङ्खाः वामो वामपार्श्वव्यवस्थितत्वात् प्रतिकूलगुणत्वाद्वा, वामावर्त्तः प्रतीतः, एवं दक्षिणावर्त्तोऽपि दक्षिणो दक्षिणपार्श्व नियुक्तत्वादनुकूलगुणत्वाद्वेति ८, पुरुषस्तु वामः प्रतिकूलस्वभावतया वाम एवावर्त्तते - प्रवर्त्तते इति वामावर्त्तो विपरीतप्रवृत्तेरेकोऽन्यो वाम एव स्वरूपेण कारणवशाद दक्षि णावर्त्तोऽनुकूलवृत्तिः, अन्यस्तु दक्षिणोऽनुकूलस्वभावतया कारणवशाद्वामावर्त्ताऽननुकूलप्रवृत्तिरित्येवं चतुर्थोऽपीति ९, धूमशिखा वामा वामपार्श्ववृत्तितयाऽननुकूलस्वभावतया वा वामत एवावर्त्तते या सा तथा चलनात् वामावर्त्ता १०.
सू० २८९ ।
11302.11
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है सू०२८९-२९०
श्रीस्थानाङ्गसूत्र
२९१।
म
दीपिका
वृत्तिः ।
॥३१॥
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स्त्री पुरुषवद् व्याख्येया, कम्बूदृष्टान्ते सत्यपि धमशिखादिदृष्टान्तानां स्त्रीदान्तिके शब्दसाधर्म्यणोपपन्नतरत्वाद भेदेनोपादानमिति ११, एवमग्निशिखापि १२-१३. वातमण्डलिका-मण्डलेनोर्ध्वप्रवृत्तो वायुरिति, इह च स्त्रियो मालिन्योपतापचापल्यस्वभावा भवन्तीत्यभिप्रायेण तासु धूमशिखादिदृष्टान्तत्रयोपन्यास इति. उक्त च-"चवला मइलणसीला, सिणेहपरिपूरिया वि तावेइ । दीवयसिह व्य महिला, लद्धप्पसरा भय देइ ॥१॥"त्ति १४-१५, वन खण्डस्तु शिखावत् , नवरं वामावर्तों वामवलनेन जातत्वाद् वायुना वा तथा धृयमानत्वादिति १६, पुरुषस्तु पूर्ववदिति १७ ॥ अनुकूलस्वभावोऽनुकूलप्रवृत्तिश्चानन्तरं पुरुष उक्तः, एवंभूतश्च निर्ग्रन्थः सामान्येनानुचितप्रवृत्तावपि न स्वाचारमतिक्रामतीति दर्शयन्नाह
चउहि ठाणेहि णिगंथे णिग्गंथि आलवमाणे वा संलवमाणे वा णातिकमइ, त-पंथ पुच्छमाणे वा १ देसमाणे वा २ असणवा पाण वा खाइम वा साइम वा दलेमाणे वा ३ दलावेमाणे वा ४ (सू० २९०) । तमुकायस्स ण चत्तारि नामधेजा पंत-तमेइ वा तमुक्काएइ वा अंधकारेइ वा महंधकारेइ वा । तमुक्कायस्स ण चत्तारि नामधेज्जा ५० त०-लोगंधगारेइ वा लोगतमसेइ वा देवंधगारेइ वा देवतमसेइ वा। तमुक्कायस्स ण चत्तारि नामधेज्जा पं० त०-चातफलिहेइ वा वातफलिहखोभेइ वा देवरण्णेइ वा देववूहेइ था। तमुक्काए ण चत्तारि कप्पे आवरित्ता चिट्ठइ त-सोहम्म ईसाण सणंकुमार' माहिद (सू० २९.१) ।
'चउहि ति स्फुट, किन्त्वालपन्-ईपत् प्रथमतया वा जल्पन् , संलपन्-मिथा भाषणेन नातिकामतिन लषयति निर्ग्रन्थाचारं. "एगो एगिथिए सद्धि नेव चिट्टे न संलवे" विशेषतः साध्व्या इत्येवंरूपं.
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥३११ ॥
मार्गप्रश्नादीनां पुष्टालम्बनत्वादिति, तत्र मार्ग पृच्छन, प्रश्नीयसाधम्मिक गृहस्थ पुरुषादीनामभावे- 'हे आयें ! कोऽस्माकमितो गच्छतां मार्ग' इत्यादिना क्रमेण, मार्ग वा तस्या देशयन् - 'धर्मशीले ! अयं मार्गस्ते' इत्यादिना क्रमेण, अशनादि वा ददद् ' धर्मशीले !' गृहाणेदमशनादी' त्येवं तथा अशनादि दापयन् . 'आये ! दापयाम्येतत्तुभ्य आगच्छेह गृहादावित्यादिविधिनेति । तथा तमस्काय तम इत्यादिभिः शब्दः व्याहरनातिक्रामति भाषाचार यथार्थत्वादिति तानाह - 'तमुक्काये 'त्यादिसूत्रत्रयं सुगम, नवरं तमसोऽकाय परिणामस्वरूपस्यान्धकारस्य काय:- प्रचयस्तमस्कायो, यो सङ्ख्याततमस्यारुणवराभिधानद्वीपस्य बाह्यवेदिकान्तादरुणोदारूयं समुद्र द्विचत्वारिंशद्योजन सहस्राण्यवगाह्योपरितनाज्जलान्तादेकप्रदेशिकया श्रेण्या समुत्थितः सप्तदशैकविंशत्यधिकानि योजन - शतानि ऊर्ध्वमुत्पत्य ततस्तिर्यक प्रविस्तृणन् सौधर्मादींश्चतुरो देवलोकानावृत्योर्ध्वमपि च ब्रह्मलोकस्य रिष्ठ विमानग्रस्त सम्प्राप्तः, तस्य नामान्येव नामधेयानि, 'तम' इति तमोरूपत्वादितिरुपप्रदर्शने वा विकल्पे तमोमात्ररूपता - frareकान्याद्यानि चत्वारि नामानि तथाऽपराणि चत्वार्येवात्यन्तिकतमोरूपताभिधायकानीति, लोके अयमेवान्धare arrearer इति लोकान्धकारः, देवानामप्यन्धकारोऽसौ, तच्छरीरप्रभाया अपि तत्राप्रभवनादिति देवान्धकारः, अत एव ते बलवतो भयेन तत्र नश्यन्तीति श्रुतिरिति, तथाऽन्यानि चत्वारि कार्याश्रयाणि वातस्य परिहननात् परिघोsर्गला, परिघ इव परिघः वातस्य परिघो वातपरिघः, तथा वातं परिववत् क्षोभयति हतमार्ग करोतीति वातपरिषक्षोभः, वात एव वा परिघस्तं क्षोभयति यः स तथा पाठान्तरेण वातपरिक्षोभः क्वचिtarai देवपरिक्षोभ इति च आद्यपदद्वयस्थाने पठ्यते देवानामरण्यमिव बलवद्भयेन नाशनस्थानत्वाद् यः स
सू० २९० २९१ ।
॥३१२॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३१२॥
देवारण्यमिति, देवानां व्यूहः सागरादिसानामिकव्यूह इब यो दुरधिगम्यत्वात् स देवव्यूह इति, तमस्कायस्वरूपप्रतिपादनायैवाह-'तमुक्काये णमित्यादि सूत्र गतार्थ, किन्तु सौधर्मादीनावृणोत्यसौ कुक्कुटपञ्जरसंस्थानसंस्थितस्य तस्य प्रतिपादनाद् , उक्तं च-“तमुकाए ण भंते ! किंसंठिए पन्नत्ते ?, गोयमा ! अहे मल्लगमूलसंठिए उप्पि कुक्कुडपंजरसठिए पन्नत्तेत्ति" ॥ पूर्व तमस्कायो बचनपर्यायैरुकोऽधुनार्थपर्यायः पुरुष निरूपयता पश्चसूत्रीमाह
चत्तारि पुरिसज्जाया प० त०-संपागडपडिसेवी णाममेगे, पच्छन्नपडिसेवी नाममेगे, पडप्पन्नणंदी नाममेगे, णिस्सरणणंदी णाममेगे १ । चत्तारि सेणाओ 40 त-जइत्ता णाम एगे णो पराजइत्ता, पराजइत्ता णाम एगे णो जतित्ता, एगा जनित्ताधि पराजिणित्तावि, एगा नो जतित्ता नो पराजिणित्ता २ । एवामेव चत्तारि पुरिसज्जाया पं० २०-जइत्ता णाम एगे णो पराजिणित्ता ३ । चत्तारि सेणाओ पंत-जतित्ता णाम एगा जयइ, जइत्ता णाममेगा पराजिणति, पराजिणित्ता णाममेगा जर्यात, परिजिणित्ता नाममेगा पराजिणति ४ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० त०-जइत्ता नाममेगे जयति ५ (सू० २९२)।
सुगमा पञ्चसूत्री, नवर कश्चित्साधुर्गच्छवासी सम्प्रकटमेवागीतार्थप्रत्यक्षमेव प्रतिसेवते मूलगुणानुत्तरगुणान् वा दर्पतः कल्पेन इति सम्प्रकटसेवीत्येकः, एवमन्यः प्रच्छन्न प्रतिसेवत इति प्रच्छन्नप्रतिसेवी, अन्यस्तु प्रत्यु
त्पन्नेन-लब्धेन वस्त्रशिष्यादिना प्रत्युत्पन्नो वा जातः सन् शिष्याचार्यादिरूपेण नन्दति यः स प्रत्युत्पन्ननन्दी, । तथा प्राघूर्णकशिष्यादीनामात्मनो वा निस्सरणेन-गच्छादेनिर्गमेन नन्दति यो नन्दियं यस्य स तथा १ । 'जइत्त'त्ति
जेत्री-जयति रिपुबलमेका न पराजेत्री न पराजयते-रिपुबलान भज्यते, द्वितीया तु पराजेत्री-परेभ्यो भङ्गभाग,
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॥३१॥
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श्रीस्थानान
सूत्र
दीपिका
वृत्तिः ।
॥३१३॥
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अत एव नो जेत्रीति, तृतीया कारणवशादुभयस्वभावेति चतुर्थी त्वजिगीपुत्वादनुभयरूपेति, पुरुषः-साधुः स जेता परीषाणां न तेभ्यः पराजेता- उद्विजते भज्यते इत्यर्थो महावीरवदित्येको, द्वितीयः कण्डरीकवत् तृतीयस्तु कदाचिज्जेता कदाचित्कर्मवशात् पराजेता दौलकराजर्थिवत् चतुर्थस्त्वनुत्पन्नपरीपहः । जित्वा एकदा रिपुबल पुनरपि जयतीत्येका, अन्या जित्वा पराजयते - भज्यते, अन्या पराजित्य - परिभज्य पुनर्जयति, चतुर्थी तु पराजित्य - परिभज्यैकदा पुनः पराजयते, पुरुषस्तु परोपादिष्वेवं चिन्तनीय इति ।। जेतव्यास्त्विः तत्त्वतः पाया एवेति तत्स्वरूप दर्शयितुकामः क्रोधस्योत्तरत्रोपदर्शयिष्यमाणत्वान्मायादिकपायत्रयप्रकरणमाह-
चत्तारि केयणा पं० त० व सीमूलकेयणए मिढविसाणकेयणप गोमुत्तियाकेयण अवलेहणियकेयणप, एवामेव चव्विा माया पं० त० व सीमूलकेयणासमाणा जाव अवलेहणियासमाणा, वसीमूलकेयणासमाण माय अणुपविले जीवे काल करे णेरइपसु उववज्जइ, मिंढविसाणकेयणासमाण माय अणुपविट्टे जीवे काल करेइ तिरिकखजोणिपसु उववज्जइ, गोमुतिया० जाव काल करेइ मणुस्सेसु उववज्जर, अवलेहणियाकेयणा० जाव देवेसु उववज्जइ । चत्तारि थंभा पं० त० - सेलथंमे अहिथंमे दारुथंभे तिणिसलयाथ मे पवामेव चउच्चिहे माणे पं० त० - सेलथ भसमाणे जाव तिणिसल्यार्थभसमाणे, सेलर्थभसमाण माण अणुपविट्ठे जीवे काल करेइ रइप उववज्जर, एवं जाव तिणिसलयार्थभसमाण माण अणुपविटे जीवे काल करेइ देवलोगेसु उचवज्जइ । चत्तारि वत्था पं० त० किमिरागरत्ते कदमरागरते खंजणरागरत्ते छलिद्दारागरत्ते, एवामेव चविहे लोभे पं० त० - किमिरागरत्तवत्थसमाणे कद्दमरागरत्तवत्थसमाणे खंजणरागरत्तवत्थसमाणे हलिइरागरत्तवत्समाणे, किमिरागरत्तवत्थसमाण लोभ अणुपविटे जीवे काल करे रश्मसु उववज्जर, तहेब जाव हलि
सु० २९२-२९३ ।
॥३१३॥
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सू०२९३॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३१४॥
रागरत्तवत्थसमाण लोभ अणुपविठे जीवे काल करेइ देवेसु उववज्जइ (सू० २९३)। _ 'चत्तारी'त्यादि प्रकटं, किन्तु केतनं-सामान्येन वक्र वस्तु पुष्पकरण्डस्य वा सम्बन्धि मुष्टिग्रहणस्थानं वंशादिदलक, तच्च वक्र भवति, केवलमिह सामान्येन वक्र वस्तु केतनं गृह्यते, तत्र वंशीमूलं च तत्केतनं च वंशीमूलकेतनमेवं सर्वत्र, नवरं मेण्ढविषाण-मेपशृङ्ग, गोमुत्रिका-प्रतीता, 'अवलेहणिय'त्ति अवलिख्यमानस्य वंशदलकार्या प्रतन्वी त्वक साऽवलेखनिकेति, वंशीमूलकेतनादिसमता तु मायायास्तद्वतामनार्जवभेदात् , तथाहि-यथा वंशीमूलमतिगुपिलवक्रमेव कस्यचिन्मायाऽपीत्येवमल्पाल्पतराल्पतमानार्जवत्वेनान्याऽपि भावनीयेति, इय' चानन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसज्वलनरूपा क्रमेण ज्ञेया, प्रत्येकमित्यन्ये, तेनैवानन्तानुवन्धिन्या उदयेऽपि देवत्वादि न विरुध्यते, एवं मानादयोऽपि, वाचनान्तरे तु पूर्व क्रोधमानसूत्राणि ततो मायासूत्राणि, तत्र क्रोधसूत्राणि'चत्तारि राईओ पन्नताओ, तं--पन्वयराई पुढविराई रेणुराई जलराई, एवामेव चउबिहे कोहे' इत्यादि मायासूत्राणीवाधीतानीति, फलसूत्रेऽनुप्रविष्टः-तदुदयवर्तीति, शिलाविकारः शैलः, स चासौ स्तम्भश्च-स्थाणुः शैलस्तम्भः, एवमन्येऽपि, नवरम् , अस्थि दारु च प्रतीत, तिनिशो-वृक्षविशेषस्तस्य लता-कम्बा तिनिशलता, सा चात्यन्त मृद्वीति, मानस्यापि शैलस्तम्भादिसमानता तद्वतो नमनाभावात् ज्ञेयेति, मानोऽप्यनन्तानुबन्थ्यादिरूपः क्रमेण दृश्यः, तत्फलसूत्र व्यक, कृमिरागे वृद्धसम्प्रदायोऽय-मनुष्यादीनां रुधिरं गृहीत्वा केनापि योगेन युक्तं भाजने स्थाप्यते, ततस्तत्र कृमय उत्पद्यन्ते, ते च वाताभिलाषिणः छिद्रनिर्गता आसन्ना भ्रमन्तो निर्झरलाला मुश्चन्ति ताः कृमिसूत्र' भण्यते, तच्च स्वपरिणामरागरञ्जितमेव भवति. अन्ये भणन्ति-ये रुधिरे कृमय उत्पद्यन्ते तान तत्रैव
2000000000000000000000000000000000000000००००००००००००००४
॥३१४॥
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सू०२९४-२९५।
श्रीस्थानात
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३१५॥
000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
मृदित्वा कचवरमुत्तार्य तत्र कश्चिद योग प्रक्षिप्य पट्टसूत्र रञ्जयन्ति, स च रसः कृमिरागो भण्यते अनुत्तारीति, तत्र कृमीणां रागो-ञ्जकरसः कृमिरागस्तेन रक्त कृमिरागरक्तम् , एवं सर्वत्र, नवरं कईमो-गोमयादीनां(गोवाटादीनां), खजन-दीपादीनां, हरिद्रा प्रतीतैवेति, कृमिरागादिरक्तवस्त्रसमानता च लोभस्य अनन्तानुबन्ध्यादितभेदवतां जीवानां क्रमेण दृढहीनहीनतरहीनतमानुवन्धत्वात् (बन्धित्वात् ), तथाहि-कृमिरागरक्त वस्त्र दग्धमपि न रागानुवन्धं मुश्चति, तद्भस्मनोऽपि रक्तत्वाद् , एवं मृतोऽपि (यो) लोभानुबन्ध न मुञ्चति तस्याभिधीयते लोभः कृमिरागरक्तवस्त्रसमानोऽनन्तानुबन्धी चेति, एवं सर्वत्र भावना कार्येति, फलसूत्र स्पष्टम् , अनन्तरं कषायाः प्रज्ञप्ताः, कषायैश्च संसारो भवतीति संसारस्वरूपमाह
चउब्धिहे संसारे ५० त०-नेरझ्यसंसारे जाव देवस सारे । चउबिहे आउए प० त०-णेरतियाउप जाव देवाउए । चउबिहे भवे ५० त०-नेरइयभवे जाव देवभवे [मू० २९४] । बउब्धिहे आहारे पं० २०-असणे पाणे खाइमे साइने । बउबिहे आहारे ५० त०-उवक्खरसंपण्णे उवक्खडसपणे सभावस पण्णे परिजूसियसपण्णे (२० २९५)।
'चउबिहे' इत्यादि व्यक्त, किन्तु संसरण संसार:-मनुष्यादिपर्यायान्नारकादिपर्यायगमनमिति, नैरयिकप्रायोग्येष्वायुर्नामगोत्रादिपु कर्मसूदयगतेषु जीवो नैरयिक इति व्यपदिश्यते, उक्त च-"नेरइए ण भंते ! नेरइएसु उववज्जइ अनेरइए नेरइएमु उवज्जइ ?, गोयमा !, नेरइए नेरइएमु उववज इत्ति" ततो नरयिकस्य संसरणम्-उत्पत्तिदेशगमनमपरावस्थागमन वा नैरयिकसंसारः, अथवा संसरन्ति जीवा यस्मिन्नसौ संसारो-गतिचतुष्टय.
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सू०२२५-२९६।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३१६॥
܂
॥ तत्र नैरयिकस्यानुभूयमानगतिलक्षणः परम्परया चतुर्गतिको वा संसारो नरयिकसंसारः, एवमन्येऽपि ॥ उक्तस्वरूपश्च संसार आयुषि सति भवतीति आयुःसूत्र, तत्र एति च याति चेत्यायुः-कर्मविशेष इति, तत्र येन निरयभवे प्राणी ध्रियते तन्निरयायुरेवमन्यान्यपि, उक्तस्वरूपं चायुभवे स्थिति कारयतीति भवसूत्र. कण्ठयं, केवल भवन भवः-उत्पत्तिः, निरये भवो निरयभवः, मनुष्येषु मनुष्याणां वा भवो मनुष्यभवः, एवमन्यावपि । भवेषु च सर्वेप्वाहारका जीवा इत्याहारसूत्रे-तत्राहियत इत्याहारः, अश्यत इत्यशनम्-ओदनादि, पीयत इति पान-सौवीरादि, खादः प्रयोजनमस्येति खादिम-फलवर्गादि, स्वादः प्रयोजनमस्येति स्वादिम-ताम्बूलादि, उपस्क्रियतेऽनेनेत्युपस्करोहिङ्ग्यादिस्तेन सम्पन्नो-युक्त उपस्करसम्पन्नः, तथा उपस्करणमुपस्कृत-पाक इत्यर्थस्तन सम्पन्न ओदनमण्डकादिः उपस्कृतसम्पन्नः, पाठान्तरेण नो उपस्करसम्पनो-हिङ्ग्यादिभिरसंस्कृत ओदनादिः, स्वभावेन-पाक विना सम्पन्नः-सिद्धः द्राक्षादिः स्वभावसम्पन्नः, 'परिजुसिय'त्ति पर्युपित-रात्रिपरिवसन तेन सम्पन्नः पयुपितसम्पन्नः, इडरिकादिः, यतस्ताः पर्युपितकलनीकृता आम्लरसा भवन्ति, आरनालस्थिताम्रफलादिति । अनन्तरोदिताः संसारादयो भावाः कर्मवतां भवन्तीति 'चउबिहे बंधे' इत्यादि कर्मप्रकरणमारादेकसूत्रात्
चउम्विहे बंधे प० त०-पगइबंधे ठिइबंधे अणुभावबंधे पपसब धे। चउब्चिहे उवक्कमे ५० न०-वंधणोबकमे उदीरणोवक्कमे उवसमणोवक्कमे विप्परिणामोवक्कमे । बंधणोवक्कमे चउबिहे पं० २०-पगतिबधणोवक्कमे ठितिबंधणोवक्कमे अणुभागबधणोवक्कमे पदेसब'धणोवक्कमे । उदीरणोवक्कमे चउबिहे पं० त०-पगइउदीरणोवक्कमे ठितिउदीरणोवक्कमे अणुभावउदीरणोवक्कमे पपसउदीरणोवक्कमे । उबसमणोवक्कमे चउबिहे पं० २०-पगतिउ
१००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००.44
॥३१६॥
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। सू० २९६
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३१७॥
वसामणोवक्कमे ठितिउवसामणोवक्कमे अणुभावउवसामणोवक्कमे पतेसुवसामणोवक्कमे । विप्परिणामणोवक्कमे चउन्विहे पं० त०-पयइ० ठिइ० अणुभाव० पदेसविप्परिणामणोवक्कमे । चउब्विहे अप्पाबहुए ५० त०-पगइअप्पाबहुए ठिइ० अणु० पएसअप्पाबहुए । चउब्बिहे संकमे पं० त०-पगइसकमे ठिइ० अणु० पदेससकमे । चउबिहे निधत्ते पं० त-पगइनिधत्ते ठिइ० अणु० पपसनिधत्ते । चउविहे निकाइए पं० २०-पगइनिकाइए ठिइ० अणु० पएसनिकाइए (सू० २९६)।
__ प्रकटं चैतत् , नवरं सकपायत्वाज्जीवस्य कर्मणो योग्यानां पुद्गलानां बन्धनमादान बन्धः, तत्र कर्मणः प्रकृतयः-अंशा भेदा ज्ञानावरणीयादयोऽष्टौ तासां प्रकृतेर्वा-अविशेषितस्य कर्मणो बन्धः प्रकृतिबन्धः, तथा स्थितिः-तासामेवावस्थान जघन्यादिभेदभिन्न तस्या बन्धो-निर्वर्तन स्थितिबन्धः, तथा अनुभावो-विपाकः तीत्रादिभेदो रस इत्यर्थस्तस्य बन्धोऽनुभावबन्धः, तथा जीवप्रदेशेषु कर्मप्रदेशानामनन्तानन्तानां प्रतिप्रकृति प्रतिनियतपरिमाणानां बन्धः-सम्बन्धन प्रदेशबन्धः, परिमितप्रमाणगुडादिमोदकबन्धवदिति, एवञ्च मोदकदृष्टान्त वर्णयन्ति वृद्धाः-यथा किल मोदकः कणिकागुडघृतकटुभाण्डादिद्रव्यबद्धः सन् कोऽपि वातहरः कोऽपि पित्तहरः कोऽपि कफहरः कोऽपि मारकः कोऽपि बुद्धिकरः कोऽपि व्यामोहकरः, एवं कर्मप्रकृतिः काचिज्ज्ञानमावृणोति काचिदर्शन काचित् सुखदुःखादिवेदनमुत्पादयति, तथा तस्यैव मोदकस्य यथाऽविनाशभावेन कालनियमरूपा स्थितिभवति. एवं कर्मणोऽपि तद्भावेन नियतकालावस्थान स्थितिबन्धः, तथा तस्यैव मोदकस्य यथा स्निग्धमधुरादिरेकगुणद्विगुणादिभावेन रसो भवति, एवं कर्मणोऽपि देशसर्वघातिशुभाशुभतीव्रमन्दादिरनुभावबन्धः, तथा
.000000000000000000000000000000000000000000000000000004
॥३१७॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०२९६
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥३१॥
30000000000000000000000000000000000000000000
तस्यैव मोदकस्य यथा कणिक्कादिद्रव्याणां परिमाणवत्त्व, एवं कर्मणोऽपि पुद्गलानां प्रतिनियतप्रमाणता प्रदेश
बन्ध इति । उपक्रम्यते-क्रियतेऽनेनेत्युपक्रमः-कर्मणो बद्धत्वोदीरितत्वादिना परिणमनहेतुर्जीवस्य शक्तिविशेषो । योऽन्यत्र करणमिति रूढः, उपक्रमण वोपक्रमो-बन्धनादीनामारम्भः, 'स्यादारम्भ उपक्रम' इति वचनादिति, तत्र
बन्धनं कर्मपुद्गलानां जीवप्रदेशानां च परस्परं सम्बन्धनम् , इद च सूत्रमात्रबद्धलोहशलाकासम्बन्धोपममवगन्तव्य, तस्योपक्रमः-उक्तार्थों बन्धनोपक्रमः, एवमन्यत्रापि, नवरमप्राप्तकालफलानां कर्मणामुदये प्रवेशनमुदीरणा, उक्त च-"ज करणेणोकढिय, उदये दिज्जइ उदीरणा एसा । पगइठिइअणुभाग-प्पएसमूलुत्तरविभागा ॥१॥" तथा उदयोदीरणनिधत्तनिकाचनाकरणानामयोग्यत्वेन कर्मणोऽवस्थापनमुपशमनेति, उक्त च-"ओवट्टणउववट्टणसंकमणाईच तिन्नि करणाई" उपशमनायां सन्तीति प्रक्रमः, तथा विविधैः प्रकारैः कर्मणां सत्तोदयक्षयक्षयोपशमोद्वर्तनापवर्तनादिभिरेत द्रपतयेत्यर्थः, गिरिसरिदुपलन्यायेन द्रव्यक्षेत्रादिभिर्वा करणविशेषेण वाऽवस्थान्तरापादन विपरिणामना, इह च विपरिणामना वन्धनादिषु तदन्येष्वप्युदयादिष्वस्तीति सामान्यरूपत्वाद् भेदेनोक्तेति । बन्धनोपक्रमो-बन्धनकरण चतुर्दा, तत्र प्रकृतिवन्धनस्योपक्रमो जीवपरिणामो योगरूपः, तस्य प्रकृतिवन्धहेतुत्वादिति, स्थितिबन्धनस्यापि स एव, नवरं कपायरूपः, स्थितेः कषायहेतुकत्वादिति, अनुभागबन्धनोपक्रमोऽपि परिणाम एव, नवरं कपायरूपः, प्रदेशबन्धनोपक्रमस्तु स एव योगरूप इति, यत उक्तं-"जोगा पयडिपएस, ठिइअणुभागं कसायओ कुणइ"त्ति, प्रकृत्यादिवन्धनानामारम्भा वा उपक्रमा इति, एवमन्यत्रापि । यन्मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां वा दलिक वीर्यविशेषेणाकृष्योदये दीयते सा प्रकृत्युदीरणेति, वीर्यादेव या प्राप्तोदयया स्थित्या सहाप्राप्तोदया
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सू०२९६।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३१९॥
स्थितिरनुभूयते सा स्थित्युदीरणेति, तथैव प्राप्तोदयेन रसेन सहाप्राप्तोदयो रसो यो वेद्यते साऽनुभागोदीरणेति, तथा प्राप्तोदयनियतपरिमाणकर्मप्रदेशैः सहाप्राप्तोदयानां नियतपरिमाणानां कर्मप्रदेशानां यद्वेदन सा प्रदेशोदीरणेति, इहापि कषाययोगरूपः परिणाम आरम्भो वोपक्रमार्थः, प्रकृत्युपशमनोपक्रमादयश्चत्वारोऽपि सामान्योपशमनोपक्रमानुसारेणावगन्तव्याः, प्रकृतिविपरिणामनोपक्रमादयोऽपि सामान्यविपरिणामनोपक्रमलक्षणानुसारेणावबोद्धव्याः, उपक्रमस्तु प्रकृत्यादित्वेन पुद्गलानां परिणामनसमर्थ जीववीर्यमिति । 'अप्पाबहुए'त्ति अल्प च स्तोकं बहु च-प्रभूतमल्पबहु तद्भावोऽल्पबहुत्व, दीर्घत्वासंयुक्तत्वे च प्राकृतत्वादिति, प्रकृतिविषयमल्पबहुत्वं वन्धाद्यपेक्षया, यथा सर्वस्तोकप्रकृतिबन्धक उपशान्तमोहादिः, एकविधवन्धकत्वाद् , बहुतरबन्धक उपशमकादिसूक्ष्मसम्परायः, पविधबन्धकत्वाद् , बहुतरवन्धकः सप्तविधबन्धकस्ततोऽष्टविधबन्धक इति, स्थितिविषयमल्पबहुत्वं यथा-"सव्वस्थोवो संजयस्स जहन्नओ ठिइबंधो, एगिदियबायरपज्जत्तगस्स जहन्नओ ठिइबंधो असंखेज्जगुणो" इत्यादि, अनुभाग प्रत्यल्पवहुत्वं यथा-"सव्वत्थोवाई अणंतगुणवुद्रिढठाणाणि, असंखिज्जगुणवुढिठाणाणि असंखेज्जगुणाणि, संखिज्जगुणवुड्रिढठाणाणि संखिज्जगुणाणि, जाव अणंतभागवुढिठाणाणि असंखिज्जगुणाणि' प्रदेशाल्पबहुत्वं यथा"अट्टविहबंधगम्स आउयभागो थोवो, नामगोयाण तुला विसेसाहिओ, नाणदंसणावरणंतरायाण तुल्लो विसेसाहिओ मोहस्स विसेसाहिओ, वेयणिज्जस्स विसेसाहिओ"त्ति, यां प्रकृति वध्नाति जीवः तदनुभावेन प्रकृत्यन्तरस्थ दलिकं वीर्य विशेषेण यत्परिणमयति स सङ्क्रमः, उक्त च-"सो संकमोनि भन्नइ, जं बंधणपरिणओ पओगेण । पययंतरत्थदलियं, परिणमइ तदनुभावे ज ॥१॥"ति. तत्र प्रकृतिसङ्क्रमः सामान्यलक्षणावगम्य एवेति. मूलप्रकृती
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सू०२९६-२९७
२९८-२९९।
श्रोस्थानाङ्गसूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३२॥
नामुत्तरप्रकृतीनां वा स्थितेर्यदुत्कर्षण अपकर्षण वा प्रकृत्यन्तरस्थितौ वा नयन स स्थितिसङ्क्रम इति, अनुभागसङ्क्रमोऽप्येवमेव, यदाह-"तत्थट्ठपय उव्वट्टिया व, ओवट्टिया व अणुभागा । अणुभागसंकमो एस, अन्न॥ पगई निया वा वि ॥१॥"त्ति, 'अट्ठपय'ति-अनुभागसङ्क्रमस्वरूपनिर्धारण', 'अविभाग'त्ति अनुभागाः, 'निय'त्ति नीता इति । यत्कर्मद्रव्यमन्यप्रकृतिस्वभावेन परिणाम्यते स प्रदेशसक्रमः, उक्तञ्च-"ज दलियमन्नपगई, निज्जइ सो संकमो पएसस्स'त्ति, निधान निहित वा निधत्त, भावे कर्मणि वा क्तप्रत्यये निपातनात् , उद्वर्तनापवर्त्तनावर्जितानां शेषकरणानामयोग्यत्वेन कर्मणोऽवस्थापनमुच्यते, नितरां काचन-बन्धन निकाचित-कर्मणः सर्वकरणानामयोग्यत्वेनावस्थापनम् , उक्त चोभयसंवादि-"सकमणंपि निहत्तीए नत्थि सेसाणि वत्ति इयरस्स"त्ति, निकाचनाकरणस्येति, अथवा पूर्ववद्धस्य कर्मणस्तप्तसं मीलितलोहशलाकासम्बन्धसमान निधत्त, तप्तमीलितसंकुट्टितलोहशलाकासम्बन्धसमान निकाचितमिति, प्रकृत्यादिविशेषस्तूभयत्रापि सामान्यलक्षणानुसारेण नेय इति, विशेषतो बन्धादिस्वरूपजिज्ञासुना कर्म प्रकृतिसंग्रहणिरनुसरणीयेति ॥ इहानन्तरमल्पबहुत्वमुक्त, तत्रात्यन्तमल्पमेक शेष त्वपेक्षया बहु इत्यल्पबहुत्वाभिधायिन एक-कति-सर्वशब्दान् चतुःस्थानकेऽवतारयन् 'चत्तारीत्यादिसूत्रत्रयमाह
चत्तारि पक्का प० त०-दविए एक्कए, माउवएक्कए, पज्जए एक्कए, संगहे एक्कए (सू. २९७) । चत्तारि कई पत-दवियकई माउयकई पज्जवकई संगहकई (सू० २९८) । चत्तारि सव्या पं० त०-णामसव्वए ठवणसधए आदेससम्बए निरवसेससब्बए (सू० २९९) ।
'चत्तारीत्यादि, एकसङ्ख्योपेतानि द्रव्यादीनि स्वार्थिककप्रत्ययोपादानादेकानि, तत्र द्रव्यमेवैकक सचि
॥३२॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥३२१॥
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तादि त्रिविधमिति, माउवएकए 'त्ति मातृकापदैककम् - एक मातृकापदं तद्यथा - ' उप्पन्नेइ' वेत्यादि, इह प्रवचने दृष्टिवादे समस्तनयवादबीजभूतानि मातृकापदानि भवन्ति, तद्यथा - 'उप्पन्ने वा विगमेड़ वा धुवेइ वत्ति, अमूनि च मातृकापदानीव अ आ इत्येवमादीनि सकलशब्दशास्त्रार्थव्यापारव्यापकत्वान्मात् कापदानीति, पर्यायैककः एकः पर्यायः, पर्यायो विशेषो धर्म इत्यनर्थान्तरं स चानादिष्टो वर्णादिरादिष्टः कृष्णादिरिति, सङ्ग्रहैककः शालिरिति, अयमर्थः - सङ्ग्रहः – समुदायस्तमाश्रित्यैकवच नगर्भशब्दप्रवृत्तिः, तथा चैकोऽपि शालि: शालिरित्युच्यते, वहaise शालयः शालिरिति, लोके तथादर्शनादिति, क्रवचित् पाठः 'दविए एक्कए' इत्यादि, तत्र द्रव्ये विषयभूते एकक इत्यादि व्याख्येयमिति । कतीति प्रश्नगर्भापरिच्छेद वत्स इख्यावचनो बहुवचनान्तः, तत्र द्रव्याणि च तानि कतिद्रव्याणीत्यर्थः, द्रव्यविषयो वा कतिशब्दो द्रव्यकतिः, एवं मातृकापदादिष्वपि, नवरं सङ्ग्रहाः शालियवगोधूमा इत्यादि । नाम च तत् सर्वं च नामसर्व, सचेतनादेर्वा वस्तुनो यस्य सर्व्वमिति नाम तन्नामसर्व नाम्ना सर्व सर्व इति वा नाम यस्येति विग्रहान्नामशब्दस्य च पूर्वनिपातः, तथा स्थापनया-सर्वमेतदितिकल्पनया अक्षादिद्रव्यं सर्वं स्थापनासर्व स्थापनैव वा अक्षादिद्रव्यरूपा सर्व स्थापनासर्वम्, आदेशनमा देश :- उपचारो व्यवहारः स च बहुतरे प्रधाने वा, आदिश्यते देशेऽपि यथा विवक्षितं घृतमभिसमीक्ष्य बहुतरे भुक्ते स्तोके च शेषे उपचारः क्रियते सर्व घृत, प्रधानेऽप्युपचारः यथा - ग्रामप्रधानेषु पुरुषेषु गतेषु सर्वो ग्रामो गत इति व्यपदिश्यत इति, अत आदेशतः सर्वमादेशसर्वमुपचारसर्व्वमित्यर्थः, तथा निरवशेषतया - अपरिशेषव्यक्ति समाश्रयेण सर्व, निरवशेषसर्व यथा - अनिमिषाः सर्व्वे देवाः, न हि देवव्यक्तिरनिमिषत्वं काचिद् व्यभिचरतीत्यर्थः, सर्वत्र ककारः
सू० २९९ ।
॥३२१॥
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सू०३००-३०१
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३२२॥
00000000000000000000000000000000000000001
स्वार्थिको द्रष्टव्यः । अनन्तरं सर्वप्ररूपित तत्प्रस्तावात सर्वमनुष्यक्षेत्रपर्यन्तवर्तिनि पर्वते सर्वासु तिर्यगदिक्षु कूटादि प्ररूपयन्नाह -
माणुसुत्तरस्स ण पब्वयस्स चउद्दिसिं चत्तारि कूडा प० त०-रयणे रयणुच्चए सव्वरयणे रयणसंचए (सू० ३००) । जम्बूद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु तीयाए उस्सप्पिणीप सुसमसुसमाए समाप चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो होत्था, जम्बूद्दीवे दीवे भरहेरवपसु वासेसु इमीसे ओसप्पिणीप सुसमसुसमाए समाए चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो होत्था, जंबूहीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु आगमिस्साए उस्सप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो भविस्सइ (सू० ३०९) । जवूद्दीवे दीवे देवकुरुउत्तरकुरुवज्जाओ चत्तारि अकम्मभूमीओ पं० त-हेमवए हेरन्नवए हरिवासे रम्मगवासे, तत्थ ण चत्तारि वट्टवेयडूढा पव्यया प० त०-सहावती वियडावती गंधावई मालव'तपरियाए, पत्थ ण चत्तारि देवा महड्ढिया जाव पलिओवहिनीया परियसंति, त-साती पभासे अरुणे पउमे, जवूद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे चउब्बिहे पन्नत्ते, त-पुब्वविदेहे अवरविदेह देवकुरा उत्तरकुरा, सब्वेवि ण णिसढणीलवतवासहरपब्बया धत्तारि जोयणसयाइ उइट उच्चत्तेण चजारि गाज्यसयाइ उबेहेण पन्नत्ता, जबूद्दीवे दीवे मंदरस्स ण पव्वयस्स पुरथिमेण सीयाए महानदीए उत्तरे कूले चत्तारि वक्खारपव्वया पंत-चित्तकूडे पम्हकूडे णलिणकूडे एगसेले, जबू० मंदर० पुर० सीताए महाणईएदाहिणेण (दाहिणकूले) चत्तारि वक्खारपब्वया ५० त०-तिकूडे वेसमणकूडे अंजणे मातंजणे, जंवू० मंदर० पञ्चत्थिमेण' सीतोदाप महानईए दाहिणे कूले चत्तारि वक्खारपब्वया ५० त०-अकावती पम्हावती आसीविसे सुहावहे, जबू० मंदर० पच्च० सीतोदाए महानईए उत्तरे कृले चत्तारि वक्खारपब्वया पं० त-चंदपव्वए सूरपब्वए
॥३२२॥
20600000
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सू०३०१-३०२।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३२३॥
3000.00000sara.0000000000000000000000000000000000000000
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देवपब्बए नागपब्बए, जम्बूद्दीवे दीवे मंदरस्स चउसु विदिसासु चत्तारि वक्खारपव्वया पं० त०-सोमणसे विज्जुप्पभे गंधमादणे मालवते, जंबूद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे जहण्णपदे चत्तारि अरहता चत्तारि चक्कवट्टी चत्तारि बलदेवा चत्तारि वासुदेवा उप्पजिसु वा उप्पजति वा उप्पज्जिस्संति वा, जवूद्दीवे दीवे मंदरे पव्वए चत्तारि वणा पं० त०- भद्दसालवणे णंदणवणे सोमणसवणे पंडगवणे, जवू० मंदरे पब्बए पंडगवणे चत्तारि अभिसेयसिलाओ पंत-पंडुकंबलासिला अतिपंडुकंबलासिला रत्तकंबलसिला अतिरत्तकंबलसिला, मंदरचूलिया ण उचरिं चत्तारि जोयणाई विक्खंभेण पन्नत्ता. एवं धायईसंडदीवपुरस्थिमद्धेवि काल आदि करेत्ता जाव मदरचूलियत्ति, एवं जाव पुक्खरवरदीवइढपच्चत्थिमद्धे जाव मंदरचूलियत्ति । जंबृद्दीवगावस्सग तु, कालाओ चूलिया जाव । धायइस डे पुक्खर-बरे य पुवावरे पासे ॥१॥ (सू० ३०२) ।
___'माणुसुत्तरस्स'त्यादि सुगम, किन्तु 'चउद्दिसि"ति चतसृणां दिशां समाहारः चतुर्दिक् तस्मिंश्चतुर्दिशि, अनुस्वारः प्राकृतत्वादिति, कूटानि-शिखराणि, इह च दिग्ग्रहणेऽपि विदिक्ष्विति द्रष्टव्य, तत्र दक्षिणपूर्वस्यां दिशि रत्नकूट, गरुडस्य वेणुदेवस्य निवासभूतं, तथा दक्षिणापरस्यां दिशि रत्नोच्चयकूटं वेलम्बसुखदमित्यपरनामक वेलम्बस्य वायुकुमारेन्द्रस्य सम्बन्धि, तथा पूर्वोत्तरस्यां दिशि सर्वरत्नकूट वेणुदालिमुपर्णकुमारेन्द्रस्य, तथा अपरोतरस्यां दिशि रत्नसञ्चयकूट प्रभजनापरनामक प्रभजनवायुकुमारेन्द्रस्येति, एवं चैतद्वचाख्यायते 'द्वीपसागरप्रशनिसमा यनुलारण, यतस्तत्रोक्त-दक्षिणपूवेणे'त्यादि, सर्व वृत्तौ ज्ञेयम् । अनन्तरं मानुषोत्तरे कूटद्रव्याणि प्ररूपितानि. अधुना तेनावृत क्षेत्रद्रव्याणां चतुःस्थानकावतार 'जबृदी'त्यादिना 'चत्तारि मदरचूलियाओ'एतदन्तेन
00000000000000000000000000000000000000000000. ...
.......
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सु०३०२।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३२४॥
ग्रन्थेनाह-कण्ठचश्चाय ग्रन्थः, नवरं चित्रकूटादीनां वक्षारपर्वतानां पोडशानामिदं स्वरूप-"पंचसए बाणउए, सोलस य सहस्स दो कलाओ य । विजयाश्वकखार २तरनईण३तह वणमुहायामोठ॥१॥"त्ति, तथा-"जत्तो वासहरगिरी, तत्तो जोयणसयं समवगाढा । चत्तारि जोयणसए, उबिद्धा सव्वरयणमया ॥१॥ जत्तो पुण सलिलाओ, तत्तो पंचसयगाउउब्बेहो । पंचेव जोयणसए, उविद्धा आसखंधनिभा ॥२॥"त्ति, विष्कम्भश्चैषामेव -"विजयाण विक्खंभो, बावीस| सयाई तेरसहियाई । पंचसए वक्खारा, पणुवीससयं च सलिलाओ ॥१॥"त्ति पद्यते-गम्यते इति पदसङ्ख्यास्थानं तच्चानेकधेति जघन्य-सर्वहीन पद जघन्यपदं, तत्र विचार्य सत्यवश्यंभावेन चत्वारोऽर्हदादय इति ॥ भूम्यां भद्रशालवन मेखलायुगले च नन्दनसौमनसे शिखरे पण्डकवनमिति, अत्र गाथा:-"बावीससहस्साई पुव्वावरमेरुभहसालवण । अइढाइज्जसयाओ, दाहिणपासे य उत्तरओ ॥१॥ पंचेव जोयणसए, उड्ढ गंतूण पंचसयपिहुल । नंदणवण सुमेरु, परिकिखवित्ता ठिय रम्म ॥२॥ बासद्विसहस्साई, पंचेव सयाई नंदणवणाओ। उड्ढ गंतूण वण, सोमणस नंदणसरिच्छ ॥३॥ सोमणसाओ तीस, छच्च सहस्से बिलग्गिऊण गिरिं। विमलजलकुंडगहण, हवइ वण पंडग सिहरे ॥४॥ चत्तारि जोयणसया, चउणउया चक्कवाली रुंद । इगतीस जोयणसया, बावट्ठी परिरओ तस्स ॥५॥"त्ति, तीर्थकराणामभिषेकार्थ शिला अभिषेकशिलाः चूलिकायाः पूर्वदक्षिणापरोत्तरासु क्रमेणावगम्या इति, 'उवरिति अग्रे, 'विक्ख भेण"ति विस्तरेणेति यथा-'जबूद्दीवे दीवे भरहेरखएसु वासेसु'इत्यादिभिः सूत्रः कालादयश्चूलिकान्ता अभिहिताः, एवं धातकीखण्डस्य पूर्वाः पुष्करार्द्धस्यापि पूर्वार्दै पश्चिमाः च वाच्याः,
१ सया पुण पाठा० ।
०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००
॥३२४॥
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सू० ३०३-३०४
३०५।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
एकमेरुसम्बद्धवक्तव्यतायाश्चतुर्वप्यन्येषु समानत्वाद्, एतदेवाह-'एव'मित्यादि, अमुमेवातिदेश सङ्ग्रहगाथयाऽऽह'जबूद्दीव'त्यादि, व्याख्या-जम्बूद्वीपस्येद जम्बूद्वीपक तं वा गच्छतीति जम्बूद्वीपग', 'जम्बूद्वीपे यदि ति क्यचित्पाठः, अवश्यंभावित्वाद् वाच्यत्वाद् वाऽऽवश्यक जम्बूद्वीपकावश्यक जम्बूद्वीपगावश्यक वा वस्तुजातं, तुः पूरणे, किमादि किमन्त चेत्याह-कालात् सुषमसुषमालक्षणादारभ्य चूलिका-मन्दरचूलिकां यावद् यत्तदिति गम्यते, धातकीखण्डे पुष्करवरद्वीपे च यो पूर्वापरी पाश्चौं प्रत्येक पूर्वार्द्धमपरार्द्ध च तयोः पूर्वापरेषु वर्षेषु वा-क्षेत्रेष्वन्यूनाधिक द्रष्टव्यमिति शेष इति ।।
जवूद्दीवस्स ण दीवस्स चत्तारि दारा पंत-विजये वेजयंते जयंते अपराजिए, ते ण दारा चत्तारि जोयणाई विक्खंभेण तावइय' चेव पवेसेण' पन्नत्ता, तत्थ ण चत्तारि देवा महिड्ढिया जाव पलिओवमद्वितिया परिवसंति, तं०-विजये वेजयंते जयंते अपराजिए (सू० ३०३) । जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेण चुल्लहिमचंतस्स वासहरपब्वयस्स चउसु विदिसासु लवणसमुद्दतिण्णि तिण्णि जोयणसयाई ओगाहेत्ता पत्थ ण चत्तारि अंतरदीवा पं० त-पगूरूयदीवे आभासियदीवे वेसाणियदीवे नंगोलियदीवे, तेसु ण दीवेसु चउविहा मणुस्सा परिवसति, त-पगूरूया आभासिया बेसाणिया णंगोलिया, तेसि ण दीवाण चउसु विदिसासु लवणसमुद्द चत्तारि चत्तारि जोयणसयाई ओगाहेत्ता पत्थ ण चत्तारि अतरदीवा ६० त-हयकण्णदीवे गयकण्णदीवे गोकण्णदीवे संकुलिकण्णदीवे, तेसु ण दीवेसु चउब्विहा मणुया ५० त-हयकण्णा गयकण्णा गोकण्णा संकुलिकण्णा, तेसि ण दीवाण' चउसु विदिसासु लवणसमुद्द पंच पंच जोयणसयाई ओगाहित्ता पत्थ ण चत्तारि अंतरदीवा प० त०आयसमुहदीवे मिंढमुहदीवे अओमुहदीवे गोमुहदीवे, तेसु ण दीवेसु चउब्विहा मणुया
0000000000000000000000000000000000000000000000000000
॥३२५॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०३०४-३०५।
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥३२६॥
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भाणियव्वा, तेसि ण दीवाण' चउसु विदिसासु लवणसमुह छ छ जोयणसयाई ओगाहित्ता पत्थ ण चत्तारि अंतरदीवा ५० त०-आसमुहे दीवे, हत्थिमुहे दीवे सीहमुहे दीवे वग्धमुहे दीवे, तेसु ण दीवेसु मणुस्सा भाणियब्वा, तेसि ण दीवाण चउसु विदिसासु लवणसमुह सत्त सत्त जोयणसयाई ओगाहित्ता पत्थ ण चत्तारि अंतरदीवा पंत-आसकण्णदीवे हथिकण्णदीवे अकण्णदीवे कण्णपाउरणदीवे, तेसु ण दीवेसु मणुया भाणियव्या, तेसि ण दीवाण चउसु विदिसासु लवणसमुद्द अट्टह जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थ ण चत्तारि अंतरदीवा ५० त०-उक्कामुहदीवे मेहमुहृदीवे विज्जुमुहदीवे, विज्जुदंतदीवे, तेसु ण दीवेसु मणुस्सा भाणियब्वा, तेसि ण दीवाण चउसु विदिसासु लवणसमुद्द नव नव जोयणसयाई ओगाहित्ता पत्थ ण चत्तारि अंतरदीवा ५० त०घणदंतदीवे लट्ठदंतदीवे गूढदंतदीवे सुद्धदंतदीवे, तेसु ण दीवेसु चउन्विहा मणुस्सा परिवसंति, त-घणदंता लट्ठदंता गूढदंता सुद्धदंता, जंवूद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरेण सिहरिस्स यासहरपब्बयस्स चउसु विदिसासु लवणसमुद्दतिण्णि तिण्णि जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थ ण चत्तारि अंतरदीवा पं० २०-पगूरूयदीवे सेस तहेव णिरवसेस भाणियब जाव सुद्धदंता (सू० ३०४) जंबूद्दीवस्स ण दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेइयताओ चउद्दिसि लवणसमुद्द पंचाणउई जोयणसहस्साई ओगाहेत्ता एत्थ ण महइमहालया महालंजरसंठाणसंठिया चत्तारि महापायाला ५० त०-वलयामुहे केउप जूवए ईसरे, तत्थ ण चत्तारि देवा महड्ढिया जाव पलिओवमट्टिइया परिवसति, त-काले महाकाले वेलंबे पभंजणे, जवूद्दीवस्स ण दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेइयंताओ चउदिसि लवणसमुई बायालीस बायालीसौं जोयणसहस्सा ओगाहेत्ता एत्थ ण चउण्ह वेलंधरनागरायाण चत्तारि आवासपब्बया ५० त०-गोथूमे उदयभासे संखे दगसीमे, तत्थ ण चत्तारि देवा महड्ढिया जाव पलिओवमट्टिइया
5000000000000000000000000000000000000000000000000...++++4
॥३२६॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
०००80600-600000
सू०३०५-३०६
॥३२
॥
परिवसंति, त०-गोथूमे सिवप संखे मणोसिलए, जैबूद्दीवस्स ण दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेइयताओ चउसु विदि. सासु लवणसमुई वायालीस बायालीस जोयणसहस्साई ओगाहेत्ता एत्थ ण चउण्ह अणुवेलंधरणागराईण चत्तारि आवासपब्वया पं० त०-ककोडप विज्जुप्पभे केलासे अरुणप्पमे, तत्थ ण चत्तारि देवा महडूिढया जाव पलिओवमट्टिइया परिवस ति, तं०-कक्कोडए कद्दमए केलासे अरुणप्पमे, लवणे ण समुदे चत्तारि चंदा पभासिंसु वा पभासंति वा पभासिरसंति वा, चत्तारि सूरिया तवइंसु वा तवयंति वा तवइस्स तिवा, चत्तारि कत्तियाओ जाव चत्तारि भरणीओ, चत्तारि अग्गी जाव चत्तारि जमा, चत्तारि अंगारा जाव चत्तारि भावकेऊ, लवणस्स ण समुहस्स चत्तारि दारा पंत-बिजये वेजय ते जयते अपराजिप, ते ण दारा चत्तारि जोयणाई विक्खंमेण तावड्य चेव पवेसेण पन्नत्ता, तत्थ ण चत्तारि देवा महिड्ढिया जाव पलिओवमट्टिइया परिवसति, त-विजये वेजयते जयते अपराजिप (सू० ३०५) । धायइस डे ण दीवे चत्तारि जोयणसयसहस्साई चकवालविखंभेण पण्णत्ते, जंबूद्दीवस्स ण दीवस्स वहिया चत्तारि भरहाइ चत्तारि परवयाइ, एवं जहा सदुद्देसए तहेव निरवसेस भाणियब्व जाव चत्तारि मंदरा चत्तारि मन्दरचूलियाओ (सू० ३०६)।
जबूद्दीवत्ति' विजयादीनि क्रमेण पूर्वादिषु दिक्षु विष्कम्भो-द्वारशाखयोरन्तरं प्रवेशः-कुडयस्थूलत्वमष्टयोजनान्युच्चत्वमिति, उक्त च-"चउजोयणविच्छिण्णा, अटेव य जोयणाणि उचिद्धा । उभओवि कोसकोस, कुड्डा बाहल्लओ तेसिं ॥१॥"ति, क्रोश शाखाबाहल्यमित्यर्थः, 'चुल्लहिमवंतस्स'त्ति महाहिमवदपेक्षया लघोहिमवतः, तस्य हि प्राग्भागापरभागयोः प्रत्येक शाखाद्वयमस्तीत्युच्यते, 'चउसु विदिसासु' विदिक्षु पूर्वोत्तराद्यासु लवणसमुद्र त्रीणि त्रीणि योजनशतान्यवगायेत्येतस्य द्विकर्मकत्वात्कर्मणि सप्तम्यर्थे द्वितीयेति त्रीणि त्रीणि योजनशतान्य
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सू०३०४-३०६।
श्रोस्थानात
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
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वगाह्य-उल्लङ्घ्य ये शाखाविभागा वर्तन्ते 'एत्थति एतेषु शाखाविभागेषु अन्तरे-मध्ये समुद्रस्य द्वीपा अन्तरद्वीपाः, तत्र पूर्वोत्तरायामेकोरुकाभिधानो योजनशतत्रयायामविष्कम्भो द्वीपः, एवमाभाषिक-वैषाणिक-लाङ्गलिकद्वीपा अपि क्रमेणाग्नेयीनैऋतीवायव्यास्विति, चतुर्विधा इति समुदायापेक्षया नत्वेकैकस्मिन्निति, अतः क्रमेणते योज्याः, द्वीपनामतः पुरुषाणां नामान्येव, ते तु सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दरा दर्शने मनोरमाः स्वरूपतो, नैकोरुकादय एवेति । तथा एतेभ्य एव चत्वारि योजनशतान्यवगाह्य प्रतिविदिक चतुर्योजनशतायामविष्कम्भा द्वितीयाश्चत्वार एव, एवं येषां यावदन्तर तेषां तावदेवायामविष्कम्भप्रमाण यावत्सप्तमानां नवशतान्यन्तर तावदेव च तत्प्रमाणमिति, सर्वेऽप्यष्टाविंशतिरेते, एतन्मनुष्यास्तु युग्मप्रसवाः पल्योपमासङ्ख्येयभागायुषोऽष्टधनुःशतोच्चाः, तथैरावतक्षेत्र विभागकारिणः शिखरिणोऽप्येवमेव पूर्वोत्तरादिविदिक्षु क्रमेणैतन्नामिकेवान्तरद्वीपानामष्टाविंशतिरिति । 'जबूद्दीवत्ति, 'एत्थ ण"ति मध्यमेषु दशयोजनसहस्रेषु महामहान्त इति वक्तव्ये समयभाषया 'महइमहालया' इत्युक्तम् , महच्च तदरञ्जरंच, अरञ्जरम्उदककुम्भ इत्यर्थः, महारजरं तस्य संस्थानेन संस्थिता ये ते तथा, तदाकारा इत्यर्थः, महान्तस्तदन्यक्षुल्लकव्यवच्छेदेन पातालमिवागायत्वाद् गम्भीरत्वात् पातालाः पातालव्यवस्थितत्वाद्वा पातालाः, महान्तश्च ते पातालाश्चेति महापातालाः, बडबामुखः केतुको यूपक ईश्वरश्चेति, क्रमेण पूर्वादिदिक्ष्विति, एते च मुखे च मूले च दश सहस्राणि योजनानां, मध्ये उच्चस्त्वेन च लक्षमिति, एपामुपरितनभागे जलमेव, मध्ये वायुजले, मुले वायुरेवेति, एतन्निवासिनो वायुकुमारा देवाः कालादय इति ॥ वेलां-लवणसमुद्रशिखामन्तर्विशन्ती बहिर्वाऽऽयान्तीमग्रशिखां च धारयन्तीति संज्ञात्वाद्वेलन्धरास्ते च ते नागराजाश्च-नागकुमारवरा वेलन्धरनागराजास्तेपामावासपर्वताः पूर्वादिदिक्षु क्रमेण गोस्तू
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॥३२८॥
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सू० ३०६-३०७।
श्रीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
100०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००
पादयः, विदिक्षु-पूर्वोत्तरादिषु वेलन्धराणां पश्चादृवृत्तयोऽनुनायकत्वेन नागराजा अनुवेलन्धरनागराजाः। 'पभासिंसुत्ति चन्द्राणां सौम्यदीप्तिकत्वाद् वस्तुप्रभासनमुक्तमादित्यानां तु खररश्मित्वात् 'तवई सु'त्ति तापनमुक्तमिति । चतुःसङ्ख्यत्वाचन्द्राणां तत्परिवारस्यापि नक्षत्रादेश्चतुःसङ्ख्यत्वमेवेत्याह-चतस्रः कृत्तिका नक्षत्रापेक्षया न तु तारकापेक्षयेति, एवमष्टाविंशतिरपि, अग्निरिति कृत्तिकानक्षत्रस्य देवता यावद्यम इति भरण्या देवता, अङ्गारक आयो ग्रहो भावकेतुरित्यष्टाशीतितम इति, शेष यथा द्विस्थानके, समुद्रद्वारादि जम्बूद्वीपद्वारादिवदिति, चक्रवालस्य-वलयस्य विष्कम्भो विस्तारः जम्बूद्वीपादहिर्धातकीखण्डपुष्करवरार्द्धयोरित्यर्थः, शब्दोपलक्षित उद्देशको शब्दोदेशको द्विस्थानकस्य तृतीय इत्यर्थः, केवल तत्र द्विस्थानकानुरोधेन 'दो भरहाई' इत्यायुक्तमिह तु ' चत्तारि' इत्यादि, उक्त मनुष्यक्षेत्रवस्तूनां चतुःस्थानकमधुना क्षेत्रसाधान्नन्दीश्वरद्वीपवस्तूनामासत्यसूत्राच्चतु:स्थानकं 'नंदीसरवरस्से'त्यादिना ग्रन्थेनाऽऽह
नंदीसरवरस्स ण दीवस्स चक्कवालविक्खभस्स बहुमज्झदेसभाए चउद्दिसि चत्तारि अंजणगपव्वया ५० त-पुरथिमिल्ले अंजणगपब्वए दाहिणिल्ले अंजणगपवर पञ्चस्थिमिल्ले अंजणगपब्वए उत्तरिल्ले अंजणगपवए ४, ते ण अंजणगपव्वया चउरासीई जोयणसयसहस्साई उड्ढ उच्चत्तेण एग जोयणसहस्स उव्वेहेण मूले दस जोयणसहस्साई विखंभेण तयाणंतरं च ण मायाए मायाए परिहायमाणा परिहायमाणा उवरि एग जोयणसहस्सं विक्खंभेण पण्णत्ता, मूले एगतीस जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसए परिक्खेवेण', उरि तिण्णि तिपिण जोयणसहस्साई एग च छावट्ठ जोयणसय परिक्खेवेण, मूले विच्छिन्ना मज्झे संखित्ता उप्पि
000000०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००000000
॥३२९॥
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श्रीस्थानाङ्क
सू०३०७।
दीपिका वृत्तिः ।
॥३३०॥
तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिया सव्वे अंजणमया अच्छा 'जाव पडिरूवा, तेसि ण अंजणगपव्ययाण उवरि' बहुसमरमणिजभूमिभागा पन्नत्ता. तेसि ण बहुसमरमणिजाण भूमिभागाण बहुमज्झदेसभागे चत्तारि सिद्धाययणा पण्णत्ता, ते ण सिद्धाययणा एग जोयणसय आयामेण पण्णास जोयणाई विक्खंभेण यावत्तरि जोयणाई उड्ढ उच्चत्तेण पण्णत्ता, तेसि ण सिद्धाययणाण चउद्दिसि चत्तारि दारा पं० त०-देवदारे असुरदारे नागदारे सुवण्णदारे, तेसु ण दारेसु चउबिहा देवा परिवसंति, त०-देवा असुरा णागा सुवण्णा, तेसि ण दाराण पुरओ चत्तारि मुहमंडवा । तेसि ण मुहमंडवाण पुरओ चत्तारि पेच्छाघरमंडवा पं०, तेसि ण पेच्छाघरमंडवाण बहुमज्झदेसभागे चत्तारि वइरामया अक्खाडगा 4, तेसि ण वइरामयाण' अक्खाडगाण' बहुमज्झदेसभाप चत्तारि मणिपेढियाओ प०, तासि ण मणिपेढियाण उवरिचत्तारि सीहासणा प०, तेसि | सीहासणाण उघरि चत्तारि विजयदूसा प०, तेसि ण' विजयदूसाण बहुमज्झदेसभागे चत्तारि बइरामया अंकुसा प०, तेसु ण पहरामासु अंकुसेसु चत्तारि कुंभिका मुत्तादामा ५०, ते ण' कुंभिका मुत्तादामा पत्तेय पत्तेय अण्णेहि तदद्धउच्चत्तपमाणमेत्तेहि चउहि अद्धकुंभिकेहि मुत्तादामेहि सवओ समंता संपरिक्खित्ता, तेसि ण पेच्छाधरमंडवाण पुरओ चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ, तासि ण मणिपेढियाण उवरि' चत्तारि चत्तारि चेइयथूभा पण्णत्ता, तेसिं ण चेश्यथूभाण पत्तेयं पत्तेयं चउहिसि चत्तारि मणिपेढियाओ पन्नत्ताओ, तासि ण मणिपेढियाण उवरि चत्तारि जिणपडिमाओ सव्वरयणा१ सहा लण्हा घट्ठा मीठा नीरया निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणीया अभिरूवा पडिरूवा ।
मुद्रितप्रतावित्यधिक: पाठो वर्तते ।
॥३३०॥
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सू०३०७॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३३॥
मईओ संपलियंकणिसण्णाओ थूभाभिमुहीओ चिट्ठति, त-रिसभा वद्धमाणा चंदाणणा वारिसेणा, तेसि ण चेइयथूभाण पुरओ चत्तारि मणिपेढियाओ पन्नत्ताओ, तासि ण मणिपेढियाण उवरि चत्तारि चेइयरुक्खा ५०, तेसि ण चेइयरुक्खाण पुरओ चत्तारि मणिपेढियाओ पं०, तासि ण मणिपेढियाण उवरि चत्तारि महिंदज्झया ५०, तेसि ण महिंदज्झयाण पुरओ चत्तारि णंदापुक्खरणीओ प०, तासि ण पुक्खरणीण पत्तेयं पत्तेयं चउद्दिसि चत्तारि वणसंडा पं० त०-पुरत्थिमेण दाहिणेण पच्चत्थिमेण उत्तरेण, पुब्वेण असो. गवण, दाहिणओ होइ सत्तवण्णवण । अवरेण चंपगवणं, चूयवण उत्तरे पासे ॥१॥ तत्थ ण जे से पुरच्छिमिल्ले अंजणपव्वए तत्थ [तस्स]ण चउद्दिसि चत्तारि णंदापुक्खरिणीओ पं० त०-णंदुत्तरा गंदा आणंदा णंदिवद्धणा, ताओ ण णंदापुक्खरिणीओ 'एग जोयणसयसहस्स आयामविक्खंभेण दस जोयणाइ उव्वेहेण, तासि ण पुक्खरणीण पत्तेय पत्तेयं चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पन्नत्ता, तेसिण तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ चत्तारि तोरणा पं० त०-पुरथिमेण दाहिणेण पञ्चत्थिमेण उत्तरेण, तासि णं पुक्खरणीणं पत्तेय पत्तेयं चउद्दिसिं चत्तारि वणसंडा पं० त०-पुरो दाहिण० पच्च० उत्तरेणं, पूवेणं असोगवणं जाव चूतवणं उत्तरे पासे, तासि णं पुक्खरणीणं बहुमज्झदेसभाए चत्तारि दहिमुहगपव्वया पण्णत्ता, ते णं दहिमुहगपब्वया चउसद्धिं जोयणसहस्साई उढ़ उच्चत्तण एग जोयणसहस्स उब्बेहेण सव्वत्थ समा पल्लगसंठाणसठिया दसजोयणसहस्साई विक्खंभेण एकतीस जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसए परिक्खेवेणं, सव्वरयणामया १ मुद्रितठाणांगप्रती-'एगं जोयणमहस्सं आयामेण पन्नासं जोयणसहस्साई विक्खंभेणं दस जोयणमयाई उब्बेहेणं' इति पाठो दृश्यते ।
.000000000000000000000000000000000000000000000000001
॥३३२॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
||३३२॥
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अच्छा जाव पडिवा, तेसि णं दहिमुहगपव्वयाण उवरिं बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पन्नत्ता, सेस' जहेव अंजणगपव्वयाण तहेव णिरवसेस भाणियव्वं जाव चूयवणं उत्तरे पासे, तत्थ ण जे से दाहिणिल्ले अंजणगपव्वण तस्स ण चउद्दिसिं चत्तारि णंदापुक्खरणीओ पं० त० भद्दा विसाला कुमुदा पुंडरिगिणी, ताओ viryaरणीओ एग जोयणसयसहस्स' सेस तं चैव जाव दहिमुहगपव्वया जाव वणसंडा, तत्थ ण जे से पञ्चत्थिभिल्ले अंजणगपव्वण तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि णंदापुक्खरणीओ पं० तं०-णंदिसेणा अमोहा गोथूभा सुदंसणा, सेस तं चेव, तहेव दहिमुहगपव्वया तहेव सिद्धाययणा जाव वणसंडा, तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले अंजणगपव्वये तस्स ण चउद्दिसिं चत्तारि णंदापुक्खरणीओ पं० त०- विजया वैजयंती जयंती अपराजिया, ताओ णं पुक्खरणीओ एग जोयणसयसहस्स० तं चैव पमाण तहेव दहिमुहगपब्वया तहेव सिद्धाययणा जाव वणसं'डा, नंदीसरवरस्स णं दीवस्स चक्कवालविक्ख भस्स बहुमज्झदेसभाप चउसु विदिसासु चत्तारि रहकर - पव्वया पं० त० - उत्तरपुरत्थिमिल्ले रतिकरपव्वण दाहिणपुरत्थिमिल्ले रइकरपव्वण दाहिणपच्चत्थिमिल्ले रइकरपव्वप उत्तरपच्चत्थिमिल्ले रइकरपव्वण, ते णं रहकरपव्वया दस जोयणसया उडूढं उच्चत्तेण दस गाउयसयाइ उव्वेहेण सव्वत्थ समा झल्लरिस ठाणस ठिया दस जोयणसहस्साइ विक्ख भेण एकतीस जोयणसहस्साइं छच्च तेवीसे जोयणसप परिक्खेवेण सव्वरयणामया, अच्छा जाव पडिरुवा, तत्थ णं जे से उत्तरपुरित्थिमिल्ले रद्दकरपब्व तस्स ण' चउद्दिसिं ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णा चउण्ह अग्गमहिसीण जंबूद्दीवप्पमाणमेत्ताओ चत्तारि रायहाणीओ पं० त०-णंदुत्तरा णंदा उत्तरकुरा देवकुरा, कण्हाप कण्हराईए रामाय रामरक्खियाप, तत्थ णं' जे से दाहिणपुरथिमिल्ले रइकरपव्वर, तस्स णं चउद्दिसि सक्क्स्स देविंदस्स देवरण्णा चउण्ड अग्गमहिसीण
सू० ३०७ ।
॥३३२॥
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श्रीस्थानाक
सू० ३०७।
दीपिका वृत्तिः ।
॥३३३॥
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जंबूढीवप्पमाणमेत्ताओ चत्तारि रायहाणीओ पं० २०-सुमणा सोमणसा अच्चिमाली मणोरमा, पउमाए सिवाए सईए अंजूए, तत्थ ण जे से दाहिणपच्चथिमिल्ले रइकरपव्वए तस्स(त्थ) ण चउद्दिसि सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णा चउण्डं अग्गमहिसीण जंबूदीवप्पमाणमेत्ताओ चत्तारि रायहाणीओ पं० तं०-भूया भूयवढे सगा गोथूभा सुदसणा, अमलाए अच्छराए णवमियाए रोहिणीर, तत्थ ण जे से उत्तरपञ्चस्थिमिल्ले रइकरपव्वए तस्स ण चउद्दिसि ईसाणस्स देविंदस्स देवरको चउण्डं अग्गमहिसीण जबूहीवप्पमाणमेत्ताओ चत्तारि रायहाणीभो पं० त०-रयणा रयणुच्चया सव्वरयणा रयणसंचया, वसूप वसुगुत्ताए वसुमित्ताए वसुंधराए (सू० ३०७) ।
सूत्रसिद्धश्चाय', केवलं-"जम्बू १ लवणे धायइ २, कालोए पुखराइ ३ जुयलाई। वारुणी ४ खीर ५ घय ६ इकूखु ७, नंदीसर ८ अरुण ९ दीवुदही ॥१॥"ति गणनयाऽष्टमो नन्दीश्वरः स एव वरः २, अमनुष्यद्वीपापेक्षया बहुतरजिनभवनादिसद्भावेन तस्य वरत्वादिति, तस्य चक्रवालविष्कम्भस्य प्रमाण-१६३८४०००००, उक्त च-"तेवढे कोडिसय, चउरासीईच सयसहस्साई। नंदीसरवरदीवे, विक्खंभो चक्कवालेण ॥१॥"इति, मध्यचासौ देशभागश्च-देशावयवो मध्यदेशभागः, स च नात्यन्तिक इति बहुमध्यदेशभागो न प्रदेशादिपरिगणनया निष्टङ्कितोऽपितु प्राय इति, तत्र इहाजनका मृले दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेणेत्युक्तम् , द्वीपसागरप्रज्ञप्तिसङ्ग्रहण्यां तूत-"चउरासीइं सहस्साई, उव्विद्धा ओगया सहस्समहे । धरणियले विच्छिण्णा य, ऊणगा ते दससहस्सा ॥१॥ नव चेव सहस्साई, पंचेव य होति जोयणसयाई । अंजणगपञ्चयाणं मूलंमि उ होइ विकखंभो ॥२॥" | कन्दस्येत्यर्थः, “नव चेव सहस्साई, पंचेव य (चत्तारि य) होति जोयणसयाई । अंजणगपव्ययाण, धरणियले होइ
+00000000000000000000०००००००००००००००००००००००००००000000000.
॥३३३॥
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सू०३०७
श्रीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३३४॥
विक्रखंभो ॥१॥"त्ति, तदिद' मतान्तरमित्यवसेयमेवमन्यत्रापि, मतान्तरबीजानि तु केवलिगम्यानीति, 'गोपुच्छसंठाणसंठिए'त्ति गोपुच्छो ह्यादौ स्थूलोऽन्ते सूक्ष्मस्तद्वत्तेऽपीति, 'सर्वजणमय'त्ति, अञ्जन-कृष्णरत्नविशेषस्तन्मयाः सर्व एवानन्यमयत्वेन सर्वथैवाजनमयाः सर्वाजनमयाः, परमकृष्णा इति भावः, उक्त च-"भिंगंगरुइलक जलअंजणधाउसरिसा विरायति । गगणतलमणुलिहंता, अंजणगा पन्चया रम्मा ॥१॥"त्ति, अच्छाः आकाशस्फटिकवत् , सहा-सूक्ष्म(श्लक्ष्ण)परमाणुस्कन्धनिष्पन्नाः, श्लक्ष्णदलनिष्पन्नपटवत् , लण्हा-लक्ष्णा मसृणा इत्यर्थः, घुण्टितपटवत् , तथा घृष्टा इव घृष्टाः, खरशानया पाषाणप्रतिमावत् , मुष्टा इव मुष्टाः, सकुमारशानया पाषाणप्रतिमेव, शोधिता वा प्रमार्जनिकयेव अत एव नीरजसो रजोरहितत्वात , निर्मलाः कठिनमलाभावात् , अकलङ्कत्वाद्वा, निकंकडच्छाया' निष्कङ्कटा निष्कवचा निरावरणेत्यर्थः, छाया-शोभा येषां ते तथा अकलशोभा वा सप्रभावा देवानन्दकत्वादिप्रभावयुक्ताः, अथवा स्वेन-आत्मना प्रभान्ति न परत इति स्वप्रभाः, यतः 'समिरीया' सह मरीचिभिः-किरणेये ते तथाविधा, अत एव 'सउज्जोया' सहोद्योतेन-वस्तुप्रभासनेन वर्तन्ते ये ते तथा 'पासाईय'त्ति प्रासादीयाः-मन:प्रसादकराः दर्शनीयास्तांश्चक्षुषा पश्यन्नपि न श्रम गच्छतीत्यर्थः, अभिरूपाः-कमनीयाः, प्रतिरुपाः-द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रमणीया इति यावच्छब्दसङ्ग्रहः, बहुसमाः-अत्यन्तसमा रमणीयाश्च ये ते, तथा सिद्धानि-शाश्वतानि सिद्धानां वाशाश्वतीनामहत्प्रतिमानामायतनानि-स्थानानि सिद्धायतनानि, उक्त च-"अंजणगपव्ययाण, सिहरतलेसु हवंति पत्तेयं । अरिहंताययणाई', सीहनिसायाई तुंगाई ॥१॥" मुखे-अग्रद्वारे आयतनस्य मण्डपा मुखमण्डपाः पट्टशालारूपाः, प्रेक्षा-प्रेक्षणक तदर्थ गृहरूपा मण्डपाः प्रेक्षागृहमण्डपाः प्रसिद्धस्वरूपाः, वैरं-वन रत्नविशेषस्तन्मयाः आखा
॥३३४॥
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सू०३०७॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३३५॥
१०००००००००००००००००00000000000000000000000000000000000
टका:-प्रेक्षाकारिजनासनभूताः प्रतीता एव, विजयदृष्याणि-वितानकरूपाणि वस्त्राणि तन्मध्यभाग एवाङ्कुशा अबलम्बननिमित्त, कुम्भो मुक्ताफलानां परिमाणतया विद्यते येषु तानि कुम्भिकानि मुक्तादामानि-मुक्ताफलमालाः, कुम्भप्रमाण च-"दो असतीओ पसई, दो पसतीओ सेतिया, चत्तारि सेतियाओ कुलओ (कुडवो), चत्तारि कुडवा पत्थो, चत्तारि पत्था आढय, चत्तारि आढया दोणो, सट्ठी आढयाई जहण्णो कुंभो, असीइ मज्झिमो, सयमुक्कोसो"त्ति, 'तदद्धे'त्ति तेषामेव मुक्तादाम्नामर्दमुच्चत्वस्य प्रमाण येषां तानि तदर्दोच्चत्वप्रमाणानि, तान्येव तन्मात्राणि तैः 'अद्धकुंभिक्केहि'ति मुक्ताफलार्द्धकुम्भवद्भिः, सर्वतः-सर्वासु दिक्षु, किमुक्तं भवति ?-समन्तादिति, चैत्यस्य-सिद्धायतनस्य प्रत्यासन्नाः स्तूपाः-प्रतीताश्चैत्यस्तूपाः चित्ताहादकत्वाद् वा चैत्याः स्तूपाः चैत्यस्तूपाः, संपर्यङ्कनिषण्णाः-पद्मासननिषण्णाः, एवं चैत्यवृक्षा अपि, महेन्द्रा इति-अतिमहान्तः समयभाषया, ते च ते ध्वजाश्चेति, अथवा महेन्द्रस्येव-शक्रादेर्ध्वजा महेन्द्रध्वजाः । शाश्वतपुष्करिण्यः सर्वा अपि सामान्येन नन्दा इत्युच्यन्ते, 'सत्तवण्णवणं'ति सप्तच्छदवनमिति, 'तिसोवाणपडिरूवग'त्ति एक द्वार प्रति निर्गमनप्रवेशार्थ त्रिदिगभिमुखास्तिस्रः सोपानपङ्क्तयः, दधिवत् श्वेत मुख-शिखरं रजतमयत्वाद्येषां ते तथा, उक्तं च-"संखदलविमलनिम्मल-दहियणगोखीरहारसंकासा । गगणतलमणुलिहंता, सोहंते दहिमुहा रम्मा ॥१॥"त्ति । अथ रतिकरविचारमाह-सुगम, नबर बहुमध्यदेशभागेउक्तलक्षणे, विदिक्षु-पूर्वोत्तराद्यामु रतिकरणाद्रतिकराः ४, राजधान्यः क्रमेण कृष्णादीनामिन्द्राणीनामिति, तत्र दक्षिणलोकार्द्धनायकत्वाच्छक्रस्य पूर्वदक्षिणदक्षिणापरविदिग्द्वयरतिकरयोस्तस्येन्द्राणीनां राजधान्यः, इतरयोरीशानस्योतरलोकार्दाधिपतित्वात्तस्येति, एवं नन्दीश्वरद्वीपे अजनकदधिमुखेषु ४-१६ विंशतिजिनायतनानि भवन्ति, अत्र
॥३३५॥
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सू०३०७-३१०॥
श्रीस्थानाक
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३३६॥
-०००००००00000000000000000000000000000००००००000000000
च देवाः चातुर्मासिकप्रतिपत्सु सांवत्सरिकेषु चान्येषु च बहुषु जिनजन्मादिषु देवकार्येषु समुदिता अष्टाझिकामहिमाः कुर्वन्तः सुखसुखेन विहरन्तीत्युक्त जीवाभिगमे, ततो यद्यन्यान्यपि तथाविधानि सन्ति सिद्धायतनानि तदा न विरोधः, सम्भवन्ति च तानि उक्तनगरीषु विजयनगर्यामिवेति, तथा दृश्यते च पश्चदशस्थानोदारलेशः-“सोलस दहिमुहसेला, कुंदामलसंखचंदसंकासा । कणयनिभा बत्तीस, रइकरगिरि बाहिरा तेसिं ॥१॥" द्वयोर्द्वयोर्वाप्योररन्तराले बहिःकोणयोः प्रत्यासत्तौ द्वौ द्वावित्यर्थः, "अंजणगाइगिरीण, नाणामणिपज्जलंतसिहरेसु । बावन्न जिण निलया, मणिरयणा सहस्सकूडवरा ॥शा त्ति, तत्त्वं तु बहुश्रुता विदन्तीति । एतच्च पूर्वोक्त सर्व सत्यं जिनोकृतत्वाद् इति सत्यसम्बन्धेन सत्यसूत्रम्
चउविहे सच्चे ५० त०-णामसच्चे ठवणसच्चे दब्बसच्चे भावसच्चे (सू० ३०८)। आजीवियाण चउविहे तवे पं० त०-उग्गतवे घोरतवे रसनिज्जूहणया जिभिदियपडिसंलीणया (सू० ३०९) । चउब्धिहे संजमे पंत-मणसंजमे वइसंजमे कायसंजमे उवगरणसंजमे । चउचिहाप(हे) चियाए ५० त०-मणचियाए वह चियाए कायचियाए उवगरणचियाए । चउव्विहा आकिंचणया पं० त०-मणअकिंचणया बइअकिंचणया कायअकिंचणया उघगरणअकिंचणया (सू० ३१०) ॥ चउत्थस्स वोओ उद्देसओ सम्मत्तो ॥
नामस्थापनासत्ये मुज्ञाने, द्रव्यसत्यमनुपयुक्तस्य सत्यमपि, भावसत्य तु यत् स्वपरानुरोधेनोपयुक्तस्येति ॥ सत्यं चारित्रविशेष इति चारित्रविशेषानुद्देशकान्त यावदाह-'आजीविए'त्यादि, आजीविकानां' गोशालकशिष्याणाम् उग्र तपोऽष्टमादि, 'उदार मिति पाठः, तत्र उदार-शोभन, इहलोकाधाशंसारहितत्वेनेति. घोरम-आत्मनिरपेक्ष ।
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥३३७ ॥
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'रसनिज्जूहणया' घृतादिरसपरित्यागः, जिहेन्द्रियप्रतिसंलीनता - मनोज्ञामनोज्ञेष्वाहारेषु रागद्वेषपरिहार इति, आर्हतानां तु द्वादशधेति || मनोवाक्कायानामकुशलत्वेन निरोधाः कुशलत्वेन तूदीरणानि संयमाः, उपकरणसंयमो-महामूल्यवस्त्रादिपरिहारः, पुस्तकवस्त्रष्णचर्मपचकपरिहारो वा, तत्र - "गंडी कच्छवि मुट्ठी, संपुडफलए तहा छिवाडी य । एए (य) पोत्थयपणगं, पण्णत्तं वीयरागेहिं ॥ | १ || बाहल्लपुहुत्तेहि, गंडीपोत्थो य तुल्लओ दीहो । कच्छवि अं तणुओ, मज्झे पिलो मुणेयन्वो || १ || चउरंगुलदीहो वा, वागि मुद्विपोत्थओ अहवा । चउरंगुलदीहोच्चिय, चरंसो सो उ ( होइ) विष्णेओ || ३ || संपुडगो दुगमाई, फलगा पोत्थं (बोच्छ) छिवाडिमेताहे । तपसि - यरुवा, होइ छिवाडी बुड़ा विति ॥४॥ दीहो वा हस्सो वा, जो पिहुलो होइ अप्पबाहल्लो । तं मुणिय समयसारा, छिवाडिपोत्थं भणती ||५||" वस्त्रपञ्च द्विधा, अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षितभेदात्, तत्र - "अप्पडिलेहियदूस, तूली उवहाणगं च नायव्वं । गंडुवहाणालिंगिनि, मसूरए चेव पोत्तमए || ६ || पल्हवि कोयव पावार, नव
तह य दाढिगालीओ । दुप्पडिलेहियद् से, एवं (य) बीयं भवे पणगं ||७|| पल्लवि हत्थूत्थरणं तु, कोयवो रूपूरिओ पडओ । दढिगाली धोयपोत्ती, सेस पसिद्धा भवे भेया ||८|| तणपणगं पुण भणिय, जिणेहिं कम्मट्ठगंठिमहणेहिं । साली बीही कोदव, रालग रन्ने तणाईं च ||९|| ” चर्म्मपञ्चकमिदम् - " अयएलगाविमहिसीमिगाण अजिण तु पंचम होइ । तलिया खल्लगवज्झो, कोसग कत्ती यबीयं तु || १ || "त्ति । 'चियाए 'ति त्यागो मनःप्रभृतीनां प्रतीत एव, अथवा मनःप्रभृतिभिरशनादेः साधुभ्यो दानं त्यागः, एवमुपकरणेन पात्रादिना भक्तादेस्तस्य वा त्यागः उपकरणत्यागः । न विद्यते किञ्चन द्रव्यजातमस्येत्यकिञ्चनस्तद्भावोऽकिञ्चनता
सू० ३१० ।
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܀܀
सू०३१०-३१२॥
श्रीस्थानाक
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३३८॥
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निष्परिग्रहतेत्यर्थः, सा च मनःप्रभृतिभिरुपकरणापेक्षया च भवतीति तथोक्तेति ॥ चतु:स्थानके द्वितीयोद्देशकः समाप्तः ॥
व्याख्यातो द्वितीयोद्देशकोऽथ तृतीय आरभ्यते, अस्य चाय पूर्वेण सहाभिसम्बन्धः, पूर्वत्र जीवक्षेत्रपर्याया उक्ताः, इह तु जीवपर्याया उच्यन्ते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रद्वयम्
चत्तारि राईओ प० त०-पव्ययराई पुढविराई वालुयराई उदगराई, पवामेव चउब्बिहे कोहे ५० त०पन्वयराईसमाणे पुढविराईसमाणे वालुयराईसमाणे उदगराईसमाणे, पच्चयराईसमाण कोहं अणुपचिट्ठे जीवे काल करेइ नेरईएसु उववजइ, पुढविराईसमाण कोहं अणुपविटे जीवे तिरिक्खजोणिणसु उवयज्जइ, वालुयराई. समाण' कोह अणुपविढे जीवे मणुस्सेसु उववज्जइ, उदगराईसमाण कोई अणुपचिट्ठे देवेसु उववज्जइ १ । चत्तारि उदगा पं० त०-कद्दमोदए खंजणोदए वालुओदप सेलोदए, पवामेव चउब्धिहे भावे प० त०-कद्दमोदगसमाणे खंजणोदगसमाणे चालुओदगसमाणे सेलोदगसमाणे, कद्दमोदगसमाण भाव अणुपविट्ठे जीवे काल करेइ णेरदपसु उववज्जइ, एवं जाव सेलोदगसमाण भाव अणुपविठ्ठठे जीवे काल करेइ देवेसु उववज्जइ (मू०३११) । चत्तारि पक्खी पं० त०-रूयसंपन्ने णाम पगे णो रूवसंपन्ने, रूवसंपन्ने णाम एगे णो रूयसंपन्ने, एगे रूयसंपन्नेवि स्वसंपण्णेवि, एगे णो रूयसंपण्णे, णो रूवसंपण्णे, पवामेव चत्तारि पुरिसजाया ५० त०-रूयसंपण्णे णाम एगे णो रूवसंपण्णे ४, चत्तारि पुरिसजाया पंत-पत्तिय करेमीतेगे पत्तिय करेइ, पत्तिय करेमीतेगे अपत्तिय करेइ, अपत्तिय करेमीतेगे पत्तिय करेइ, अपत्तिय करेमीतेगे अपत्तिय करेइ, चत्तारि पुरिसजाया प० त०
॥३३८॥
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श्रीस्थाना
सू०३११-३१२।
दीपिका वृत्तिः ।
अप्पणो णाम एगे पत्तिय करेइ पो परस्स, परस्स णाम पगे पत्तिय करे णो अपणो ४, चत्तारि पुरिसजाया पंत-पत्तिय पवेसामीतेगे पत्तिय पवेसेइ, पत्तिय पवेसेमीतेगे अपत्तिय पवेसेइ ४ । चत्तारि पुरिसजाया ५० त०-अप्पणो णाममेगे पत्तिय पवेसेइ णो परस्स, ४ (सू० ३१२) ।
'चत्तारीत्यादि, अस्य चायमभिसम्बन्धः-पूर्व चारित्रमुक्त, तत्प्रतिबन्धकश्च क्रोधादिभाव इति क्रोधस्वरूपनिरूपणायेदमुच्यते, तदेवंसम्बन्धस्यास्य दृष्टान्तभूतादिसूत्रव्याख्या-'राजी' रेखा, शेष क्रोधव्याख्यान मायादिवन , मायादिप्रकरणाच्चान्यत्र क्रोधविचारो विचित्रत्वात् सूत्रगतेरिति, द्वितीय मुगममेव । अयं च क्रोधो भावविशेष एवेति भावप्ररूपणाय दृष्टान्तादिसूत्रद्वयमाह-'चत्तारी'त्यादि प्रसिद्ध, किन्तु कईमो यत्र प्रविष्टः पादादिर्नाक्रष्टुं शक्यते कष्टेन वा शक्यते, खजन दीपादिखजनतुल्यः पादादिलेपकारी कर्दमविशेष एव, वालुका प्रतीता, सा तु लग्नापि जलशोषे पादादेरल्पनैव प्रयत्नेनापतीत्यल्पलेपकारिणी, शेलास्तु पाषाणाः श्लक्ष्णरूपास्ते पादादेः स्पर्शनेनेव किञ्चिदुःखमुत्पादयन्ति, न तु तथाविधं लेपमुपजनयन्ति, कर्दमादिप्रधानान्युदकानि कईमोद
कादीन्युच्यन्ते, भावो-जीवस्य रागादिपरिणामः, तस्य कईमोदकादिसाम्य तत्स्वरूपानुसारेण कर्मलेपमङ्गीकृत्य | मन्तव्यमिति । अनन्तरं भाव उ..ऽधुना तद्वतः पुरुषान् सदृष्टान्तान् 'चत्तारि पकवी'त्यादिना 'अथमियाथमिये'त्येतदन्तेन ग्रन्थेनाह-व्यक्तचाय, नवरं रुत रूप च सर्वेषामेव पक्षिणामस्त्यतस्ते विशिष्ट एवेह ग्राह्ये, ततो रुतं-मनोज्ञः शब्दस्तेन सम्पन्नः एकः पक्षी न च रूपेण-मनोज्ञेनैव कोकिलवदिति, रूपसपनो न रूट्सम्पन्नः, प्राकृतशुकवत् , उभयसम्पन्नो मयूरवत् , अनुभयस्वभावः काकवदिति । पुरुषोऽत्र यथायोग मनोज्ञशब्दः प्रशस्तरूपश्च प्रियवादित्वस
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सू०३१२-३१४।
श्रीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः । ॥३४०॥
द्वेषत्वाभ्यां साधुर्वा सिद्धसिद्धान्तप्रसिद्धशुद्धधर्मदेशनादिस्वाध्यायप्रबन्धवान् लोचविरलबालोत्तमाङ्गतातपस्तनुतनुत्वमलमलिनदेहताऽल्पोपकरणतादिलक्षणसुविहितसाधुरूपधारी वा योज्य इति । 'चत्तारित्ति, पत्तिय'ति प्रीतिरेव प्रीतिक स्वार्थे कः, तत् करोमि प्रत्यय वा करोमीति परिणतःप्रीतिकमेव प्रत्ययमेव वा करोति, स्थिरपरिणामत्वात् उचितप्रतिपत्तिनिपुणत्वात् सौभाग्यवचाद्वेति, अन्यस्तु प्रीतिकरणे परिणतोऽप्रीतिं करोति उक्तवैपरीत्यादिति, परोऽप्रीतौ परिणतः प्रीतिमेव करोति, सजातपूर्वभावनिवृत्तत्वात् , परस्य वा अप्रीतिहेतुतोऽपि प्रीत्युत्पत्तिस्वभावत्वादिति, चतुर्थः सुज्ञानः, आत्मन एकः कश्चित् प्रीतिकमानन्द भोजनाच्छादनादिभिः करोति-उत्पादयति आत्मार्थप्रधानत्वान्न पर य, अन्यः परस्य परार्थप्रधानत्वान्नात्मनः, अपर उभयस्याप्युभयार्थप्रधानत्वात् , इतरो नोभयस्याप्युभयार्थशून्यत्वादिति, आत्मनः प्रत्यय-प्रतीति करोति न परस्येत्याद्यपि व्याख्येयमिति, 'पत्तिय पेवेसेमि'त्ति, प्रीतिक प्रत्यय वाऽयं करोतीत्येवं परस्य चित्ते विनिवेशयामीति परिणतस्तथैवैकः प्रवेशयतीत्येक इति, सूत्रशेषोऽनन्तरसूत्रं च पूर्ववत् ।
चत्तारि रुक्खा पं० त०-पत्तोवर पुप्फोवर फलोवर छायोवए, पवामेव चत्तारि पुरिसजाया ५० त०पत्तोवारुक्खसमाणे पुप्फोवारुक्खसमाणे फलोवारुक्खसमाणे छायोवारूक्खसमाणे (सू० ३१३) । भारण्ण वहमाणस्स चत्तारि आसासा पं० त०-जत्थ ण अंसाओ अंस साहरइ तत्थविय से एगे आसासे पन्नत्ते १, जत्थवि य ण उच्चार वा पासवण वा परिद्ववेइ तत्थविय ण से एगे आसासे पण्णत्ते २, जत्थविय ण नागकुमारावासंसि वा सुवण्णकुमारावास सि वा वास उवेइ तत्थविय से पगे आसासे पन्नत्ते ३, जत्थविय ण आवकहाए चिट्ठइ तत्थविय
10.......०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००.....
॥३४०॥
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श्रीस्थाना
सू० ३१४॥
दीपिका वृत्तिः । ॥३४॥
से पगे आसासे पन्नत्ते ४, एवामेव समणोवासगस्स चत्तारि आसासा पं० त०-जत्थ ण सीलव्वयगुणव्वयवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासाइ पडिवज्जइ तत्थविय से पगे आसासे पण्णत्ते १, जत्थविय ण सामाइय देसावगासिय सम्ममणुपालेइ तत्थविय से पगे आसासे पण्णत्ते २, जत्थविय ण चाउद्दसहमुद्दिद्वपुण्णिमासिणीसु पडिपुन्नपोसहं सम्म अणुपालेइ तत्थविय से एगे आसासे पण्णत्ते ३, जत्थविय ण अपच्छिममारणंतियसलेहणाजूसणाजूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालमणवकंखमाणे विहरइ तत्थविय से एगे आसासे पण्णत्ते ४ (सू० ३१४) ।
पत्राणि-पर्णान्युपगच्छतीति पत्रोपगो बहलपत्र इत्यर्थः, एवं शेषा अपि, पत्रोपगादिवृक्षसमानता तु पुरुपाणां लोकोत्तराणां लौकिकानां चार्थिषु तथाविधोपकारकरणेनेष्टस्वस्वभावलाभपर्यवसितत्वात् १, सूत्रदानादिना उपकारकत्वात् २, अर्थदानादिना महोपकारकत्वात् ३, अनुवर्तनापायसंरक्षणादिना सततोपसेव्यत्वाच्च क्रमेण द्रष्टव्येति । भार-धान्यमुक्ताफलादिक (धान्यमुक्कोल्यादिक) वहमानस्य-देशाद्देशान्तरं नयतः पुरुषस्य आश्वासाविश्रामभेदास्तेषामवसरभेदेनेति, यत्रावसरे अंसादेकस्मात् स्कन्धादंसमिति स्कन्धान्तर संहरति-नयति भारमिति प्रकमः, तत्रावसरे अपिचेति उत्तराश्वासापेक्षया समुच्चये 'स' तस्य वोरिति १, परिष्ठापयति-व्युत्सृजति २. नागकुमारावासादिकमुपलक्षणमतोऽन्यत्र वाऽऽयतने वासमुपैतीति-रात्री वसति ३, यावती-यत्परिमाणा कथा-मनुष्योऽयं देवदत्तादिर्वाऽयमिति व्यपदेशलक्षणा यावत्कथा तया यावज्जीवमित्यर्थः, तिष्ठति-वसतीत्यय दृष्टान्तः ४, 'एवामेवेत्ति दान्तिकः, श्रमणान-साधनुपास्ते इति श्रमणोपासकः-श्रावकस्तस्य सायद्यव्यापारभाराक्रान्तस्य आश्वासाःतद्विमोचनेन विश्रामाः चित्तस्याश्वासनानि-स्वास्थ्यानि, इदं मे परलोकभीतस्य शरणमिन्येवरूपाणीति, स हि
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स०३१४॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः । ॥३४२॥
जिनागमसङ्गमावदातबुद्धितया आरम्भपरिग्रहौ दुःखपरम्पराकारिसंसारकान्तारकारणभूततया त्याज्यावित्याकलयन् करणभटवशतया तयोः प्रवर्त्तमानयोः (नः) महान्त खेदं सन्तापं भयं चोद्वहतीति, यत्रावसरे शीलानि-समाधानविशेषा ब्रह्मचर्यविशेषा वा, व्रतानि-स्थूलप्राणातिपातविरमणादीनि, अन्यत्र तु शीलानि-अणुव्रतानि व्रतानि-सप्त शिक्षाव्रतानि तदिह न व्याख्यात, गुणव्रतादीनां साक्षादेवोपादानादिति, गुणव्रते-दिग्वतोपभोगपरिभोगबतलक्षणे विरमणानि-अनर्थदण्डविरतिप्रकारा रागादिविरतयो वा, प्रत्याख्यानानि-नमस्कारसहितादीनि, पौषधः-पर्वदिनमष्टम्यादि तत्रोपवसनम्-अभक्तार्थः पौषधोपवासः, एतेषां द्वन्द्वस्तान् प्रतिपद्यते-अभ्युपगच्छति, तत्रापि च 'से' तस्यैक आश्वासः प्रज्ञप्तः १, यत्रापि च सामायिक-सावद्ययोगपरिवर्जननिरवद्ययोगप्रतिसेवनलक्षण तद्वयवस्थितः श्राद्धः श्रमणभूतो भवति, तथा देशे-दिग्वतगृहीतस्य दिकपरिमाणस्य विभागोऽवकाशोऽवस्थानमवतारो यस्य तद्देशावकाशं तदेव देशावकाशिक-दिखतगृहीतस्य दिपरिमाणस्य प्रतिदिन संक्षेपकरणलक्षण सर्वव्रतसंक्षेपकरणलक्षण वाऽनुपालयति, तत्रापि च तस्यैक आश्वासः प्रज्ञप्त इति २, उद्दिष्टेत्यमावास्या परिपूर्णमित्यहोरात्र यावदाहारशरीरसत्कारत्यागब्रह्मचर्याव्यापारलक्षणभेदोपेतमिति ३, यत्रापि च पश्चिमैवाऽमङ्गलपरिहारार्थमपश्चिमा सा चासौ मरणमेवा न्तस्तत्र भवा मारणान्तिकी सा चेत्यपश्चिममारणान्तिकी सा चासौ संलिख्यतेऽनया शरीरकषायादीति संलेखनातपोविशेषः, सा चेति अपश्चिममारणान्तिकीसंलेखना तस्याः 'जूसण 'त्ति जोपणा सेवनालक्षणो यो धर्मस्तया 'जूसिए'त्ति जुष्टः सेवितोऽथवा क्षिप्तः [क्षपितः]-पितदेहो यः स तथा, भक्तपाने प्रत्याख्याते येन स तथा, पादपबदुपगतो-निश्चेष्टतया स्थितः पादपोपगतः, अनशनविशेष प्रतिपन्न इत्यर्थः, काल-मरणकालमनवकाशन तानुत्सुक इत्यर्थः, विहरति-तिष्ठति ।
..+0000000000000000000000000000000000000000000000000006
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सू०३१५-३१९।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३४३॥
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चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-उदितोदिते णाममेगे उदितत्थमिए णाममेगे अस्थमिओदिते णाममेगे अत्थमियत्थमिए णाममेगे, भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी ण उदितोदिते, धभदत्ते ण राया चाउरंतचक्कवट्टी उदितत्थमिए, हरिपसबले णामणगारे अत्थमिओदिए, काले ण सोयरिए अत्थमिअथमिए [सू० ३१५] चत्तारि जुम्मा ५० त०कडजुम्मे तेयोए दावरजुम्मे कलिओए, नेरइयाण चत्तारि जुम्मा ५० त०-कडजुम्मे तेयोए दावरजुम्मे कलिजोगे. पव असुरकुमाराण (जाव थणियकुमाराण), एवं पुढविकाइयाण आउ० तेउ० वाउ० वणस्सइ० बेंदियाण तेदियाण चउरिदियाण पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण मणुस्साणं वाणमंतरजोइसियाण वेमाणियाण सव्वेसि जहा णेरइयाण (सू० ३१६) । चत्तारि सूरा पं० त०-खंतिसूरे तवसूरे दाणसूरे जुद्धसूरे, खंतिसूरा अरिहंता, तवसूरा अणगारा दाणसूरा, वेसमणा, जुद्धसूरा वासुदेवा (सू० ३१७) । चत्तारि पुरिसजाया ५० त०-उच्चे णाम एगे उच्चच्छंदे, उच्चे णाम एगे णीअच्छंदे, णीए णाम एगे उच्चच्छंदे, जीए णाम एगे णीयच्छंदे (स० ३१८) । असुरकुमाराण चत्तारि लेसाओ पं० त०-कण्हलेसा णीललेसा काउलेसा तेउलेसा, एवं जाव थणियकुमाराण, एवं पुढविकाइयाण आउवणस्सइकाइयाण वाणमंतराण सव्वेसि' जहा असुरकुमाराणं (सू० ३१९) ।
उदितश्चासावुनतकुलबलसमृद्धिनिरवद्यकर्मभिरभ्युदयवान् उदितश्च परमसुखसंदोहोदयेनेत्युदितोदितो यथा भरतः, उदितोदितत्वं चास्य प्रसिद्धम् १ । तथा उदितश्चासौ तथैवास्तमितश्च भास्कर इव सर्वसमृद्धिभ्रष्टत्वाद् दुर्गतिगतत्वाच्चेति उदितास्तमितो ब्रह्मदत्तचक्रीव, स हि पूर्वमुदित उन्नतकुलोत्पन्नत्वादिना स्वभुजोपार्जितसाम्राज्यत्वेन च पश्चादस्तमितोऽतथाविधकारणकुपितब्राह्मणप्रयुक्तपशुपालधनुर्गोलिकाप्रक्षेपणोपायप्रस्फोटिताक्षिगोलकतया
0000000000000000000000000000000000000000000000000000...4
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सू०३१५-३१९।
श्रीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
.0000000000000000000000000000000000000000000000000000०८
मरणानन्तराप्रतिष्ठानमहानरकवेदनाप्राप्ततया चेति तथा अस्तमितश्चासौ हीनकुलोत्पत्तिदुर्भगत्वदुर्गतत्वादिना उदितश्च समृद्धिर्कीर्त्तिनुगतिलाभादिनेति अस्तमितोदितो यथा हरिकेशबलाभिधानोऽनगारः, स हि जन्मान्तरोपातनी चंगोत्रकर्मवशाजात( ०शावाप्त )हरिकेशाभिधानचाण्डालकुलतया दुर्गततया (दुर्भगतया) दरिद्रतया च पूर्वमस्तमितादित्य इवानभ्युदयवत्त्वादस्तमित इति, पश्चात्प्रतिपन्नप्रव्रज्यो निष्पकम्पचरणगुणावर्जितदेवकृतसान्निध्यतया प्राप्तप्रसिद्धितया मुगतिगततया च उदित इति ३ । तथा अस्तमितश्चासौ सूर्य इव दुष्कुलतया दुष्कर्मकारितया च कीर्तिसमृद्धिलक्षणविवर्जितत्वादस्तमितश्च दुर्गतिगमनादित्यस्तमितास्तमितः, यथा कालाभिधानः सौकारकः, स हि सूकरैश्चरति मृगयां करोतीति यथार्थः सौकरिक एव, दुष्कुलोत्पन्नः प्रतिदिन महिषपञ्चशतीव्यापादक इति पूर्वमस्तमितः पश्चादपि मृत्वा सप्तमनरकपृथिवी गत इति अस्तमित एवेति ४ । 'भरहे' इत्यादि तूदाहरणसूत्रं भावितार्थमेवेति । ये एवं विचित्रभावैश्विन्त्यन्ते ते जीवाः सर्व एव चतुर्पु राशिष्ववतरन्तीति तान् दर्शयन्नाह-'चत्तारि जुम्मे'त्यादि, 'जुम्म'त्ति-राशिविशेषः, यो हि राशिश्चतुष्कापहारेणापह्रियमाणः चतुःपर्यवसितो भवति इति स कृतयुग्म इत्युच्यते, यस्तु त्रिपर्यवसितः स योजः, द्विपर्यवसितो द्वापरयुग्मः, एकपर्यवसितः कल्योज इति । इह गणितपरिभाषायां समराशियुग्म इत्युच्यते विषमस्तु ओज इति, इयञ्च समयस्थितिः, लोके तु कृतयुगादीनि एवमुच्यन्ते-"सद्वात्रिशत्सहस्राणि, कलौ लक्षचतुष्टयम् । वर्षाणां द्वापरादौ स्या-देतद् द्वित्रिचतुर्गुणम ॥१॥" इति, उक्तराशीन्नारकादिषु निरूपयन्नाह-'नेरइए'त्यादि सुगम, नवरं नारकादयश्चतुर्दाऽपि स्युः, जन्ममरणाभ्यां हीनाधिकत्वसम्भवादिति, पुनर्जीवानेव भावनिरूपयन्नाह-'चत्तारि सूरे'त्यादिसूत्रद्वयं कण्ठयों, किन्तु शरा-वीराः, क्षान्तिशृरा अर्हन्तो महा
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सू० ३१९-३२०।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३४॥
वीरवत् , तपःशूरा अनगारा दृढप्रहारिवत् , दानशूरो वैश्रमण उत्तराशालोकपालस्तीर्थकरादिजन्मपारणकादिरत्नवृष्टिपातनादिनेति, उक्त च-"वेसमणवयणसंचोइया उ, ते तिरियजंभगा देवा । कोडिग्गसो हिरण, रयणाणि य तत्थ उवणेति ॥१॥" युद्धशूरो वासुदेवः कृष्णवत् , तस्य षष्टयधिकेषु त्रिषु सङ्ग्रामशतेषु लब्धजयत्वादिति । उच्चः पुरुषः शरीरकुलविभवादिभिः तथा उच्चच्छन्दः-उन्नताभिप्रायः औदार्यादियुक्तत्वात् , नीचच्छन्दस्तु-विपरीतो नीचोऽप्युक्त (च्च विपर्ययादिति । अनन्तरस्तू (मुच्चेतराभिप्राय उक्तः, स च लेश्याविशेषाद् भवतीति लेश्यासूत्राणि, सुगमानि, नवरममुरादीनां चतस्रो लेश्या द्रव्याश्रयेण भावतस्तु पडपि सर्वदेवानां, मनुष्यपञ्चेन्द्रियतिरश्चां तु द्रव्यतो भावतश्च पडपीति, पृथिव्यब्वनस्पतीनां हि तेजोलेश्या भवति देवोत्पत्तेरिति तेषां चतस्त्र इति । उक्तलेश्याविशेषेण च विचित्रपरिणामा मानवाः स्युरिति यानादिदृष्टान्तचतुर्भङ्गिकाभिरन्यथा च पुरुषचतुर्भङ्गिका यानसूत्रादिना श्रावकसूत्रावसानेन ग्रन्थेन दर्शयन्नाह
चत्तारि जाणा पंत-जुत्ते णाम एगे जुत्ते, जुत्ते णाममेगे अजुत्ते, अजुत्ते णाममेगे जुत्ते, अजुत्ते णाममेगे अजुत्ते, पवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-जुत्ते णाम पगे जुत्ते, जुत्ते णाम एगे अजुत्ते ४, चत्तारि जाणा ५० त०-जुत्ते णाम एगे जुत्तपरिणए० ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया त०-जुत्ते णाम एगे जुत्तपरिणए ४, चत्तारि जाणा पं० त०- जुत्ते णाम एगे जुत्तरूवे ४, पवामेव चत्तारि पुरिसजाया पंत-जुत्ते णाम पगे जुत्तरूवे ४, चत्तारि जाणा प० त०-जुत्ते णाम एगे जुत्तसोभे ४, पयामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०जुत्ते णाम एगे जुत्तसोमे ४ । चत्तारि जग्गा ५० त-जुत्ते णाम एगे जुत्ते ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया
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सू०३२०॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३४६॥
पंत-जुत्ते णाम पगे जुत्ते ४, पवं जहा जाणेण चत्तारि आलावगा तहा जुग्गेणवि, पडिवक्खो तहेव, पुरिसजाया जाव सोभेत्ति । चत्तारि सारही प० त०-जोयावइत्ता णाम एगे ण विजोयावइत्ता, विजोयावइत्ता णाममेगे नो जोयावदत्ता, एगे जोयावइत्तावि विजोयावइत्तावि, एगे णो जोयावइत्ता णो विजोयावइत्ता, पवामेव चत्तारि हया ५० त०-जुत्ते णाम एगे जुत्ते, जुत्ते णाम एगे अजुत्ते ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया प० त०-जुत्ते णाम एगे जुत्ते ४, एवं जुत्तपरिणए ४ जुत्तरूबे ४, जुत्तसोभे ४, मवेसि पडिवक्खो पुरिसजाया । चत्तारि गया पंतजुत्ते णाम एगे जुत्ते ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया ५० त-जुत्ते णाम एगे जुत्ते, ४ एवं जहा हयाण तहा गयाणवि भाणियव्वं, पडिचक्खो तहेव पुरिसजाया । चत्तारि जग्गारिया पंत-पंथजाई णाम एगे णो उप्पहजाई, उप्पहजाई णाममेगे जो पंथजाई, एगे पंथजाई वि उप्पहजाई वि, एगे णो पंथजाई णो उप्पहजाई, पवामेव चत्तारि पुरिसजाया । चत्तारि पुप्फा ६० त०-रूवसंपण्णे णाम एगे णो गंधसंपण्णे, गंधसंपण्णे णाम एगे णो रूवस पण्णे, एगे रूवस पण्णेवि गंधसंपण्णेवि, पगे णो रूवसंपण्णे णो गंधसंपण्णे, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त० रूबसपण्णे णाम एगे णो सीलसपण्णे ४, चत्तारि पुरिसजाया ५० त०-जाइस पण्णे णाममेगे णो कुलसंपण्णे, ४, १, चत्तारि पुरिसज्जाया ५० त०-जाइसंपण्णे णाममेगे णो बलसपण्णे, बलसपणे णाममेगे णो जाइस'पण्णे ४, २, एवं जातीए य रुवेण य चत्तारि आलावगा ४, ३, एवं जातीए य सुपण य ४, ४, एव जातीए य सीलेण य ४, ५, एवं जाईए य चरित्तेण य ४, ६. चत्तारि पुरिसज्जाया पं० त०-कुलसपण्णे णाम एगे णो बलसंपण्णे, एवं कुलेण बलेण ४, ७, एवं कुलेण रूवेण य४, ८, एवं कुलेण सुतेण ४, ९, एवं कुलेण सीलेण ४, १०, एवं कुलेण चरित्तेण ४, ११, चत्तारि पुरिसज्जाया पं० त०-बलसंपण्णे णाम एगे णो रुयस पण्णे ४. १२,
॥३४६॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०३२० ।
दीपिका वृत्तिः ।
॥३४७॥
-000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
एवं बलेण सुपण य ४,१३, एवं बलेण सीलेण य ४,१४, एवं वलेण चरित्तण य ४, १५, चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-रूवस पण्णे णाम पगे को सुयस पण्णे ४, १६, एवं रूवेण य सीलेण य४, १७, एवं रूवेण चरित्तेण य ४१८, चत्तारि पुरिसज्जाया ५००-सुयसंपण्णे णाममेगे जो सीलसंपण्णे ४, १९, एवं सुरण चरित्तेण य ४, २०, चत्तारि पुरिसजाया ५० त०-सीलसपण्णे णाममेगे णो चरित्तसंपण्णे ४, २१, पते एकवीस भंगा भाणियव्वा । चत्तारि फला पं० त०-आमलगमधुरे मुद्दियामधुरे खीरमहुरे खंडमहुरे, एवामेव चत्तारि आयरिया पं० त०-आमलगमधुरफलसमाणे जाव खंडमहुरफलसमाणे, चत्तारि पुरिसजाया प० त०आयवेयावञ्चकरे णाम एगे णो परवेयावच्चकरे ४, चत्तारि पुरिसजाया पंत-करेइ णाम एगे वेयावच्चो पडिच्छेइ, पडिच्छइ णाम एगे वेयावच्चो करेइ ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-अट्टकरे णाम एगे जो माणकरे, माणकरे णाम एगे णो अट्ठकरे, एगे अट्टकरेविमाणकरेवि, एगे णो अट्ठकरे जो माणकरे, चत्तारि पुरिसज्जाया पं० त०-गणट्टकरे णाम पगे णो माणकरे ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-गणसंगहकरे णाममेगे णो माणकरे ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-गणसोभकरे णाम पगे जो माणकरे ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-गणसोधिकरे णाम एगे जो माणकरे ४, चत्तारि पुरिसजाया पंत-रूवणाममेगे जहाति को धम्म, धम्म णाम एगे जहाति णो रूव, एगे रूपंपिजहाति धम्मपि जहाति, एगेको रूव जहाति णो धम्म जहाति चत्तारि पुरिसजाया पंत-धम्म नाममेगे जहइ णो गणठिति ४.चत्तारि पुरिसजाया पं०-पियधम्मे णाममेगे को दढधम्मे, दढदधम्मे नाममेगे जो पियधम्मे, पियधम्मे नाममेगे दढधम्मे नाममेगे [एगे पियधम्मेवि दढधम्मेवि), पगे णो पियधम्मे णो दढधम्मे, चत्तारि आयरिया ५० त-पब्वायणायरिए णाममेगे को उबट्ठावणायरिए, उवट्ठावणायरिए णाममेगे जो पब्वायणायरिए,
॥३४७॥
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सू०३२०।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३४८॥
पगे पव्वायणायरिपवि उवट्ठावणायरिएवि, एगे णा पव्वायणायरिए जो उवट्ठावणायरिए (धम्मायरिण), चत्तारि आयरिया पंत-उद्देसणायरिए नाम एगे जो वायणायरिए धम्मायरिए ४, चत्तारि अंतेवासी पंत-पव्यायणंतेवासी णाममेगे जो उवट्ठावणंतेवासी धम्मंतेवासी ४, चत्तारि अंतेवासी ५० त०-उद्देसणंतेवासी नाम पगे नो वायणंतेवासी१ (वायणंतेवासी) धम्मंतेवासी ४, चत्तारि निग्गंथा पं० त०-रायणिए समणे णिग्गंथे महाकम्मे महाकिरिए अणायावी असमिते धम्मस्स अणाराहए भवइ १. राइणिए समणे णिग्गंथे अप्पकम्मे अप्पकिरिए आयावी समिप धम्मस्स आराहए भवइ २, ओमरायणिए समणे णिग्गंथे महाकम्मे महाकिरिए अणायावी असमिए धम्मस्स अणाराहए भवइ ३, ओमरायणिए समणे णिग्गंथे अप्पकम्मे अप्पकिरिए आयावी समिए धम्मस्स आराहए भवइ ४, चत्तारिणिग्गंथीओ पं० त०-रायणिया समणी णिग्गंधी, एवं चेव ४, चत्तारि समावासगा पं० २०रायणिए समणोक्सए महाकम्मे तहेव ४, चत्तारि समणावासियाओ ५० त०-रायणिया समोवासिया महाकम्मा तहेव चत्तारि गमा [सू० ३२०] ।
'चत्तारी त्यादि कण्ठय, नवरं यान-शकटादि, तद्युक्त बलीवादिभिः, पुनयुक्त-सङ्गत समग्रसामग्रीक वा पूर्वापरकालापेक्षया वा इत्येकमन्यात तथैवायुक्त तूक्तविपरीतत्वादिति, एमितरी, पुरुषस्तु युक्तो धनादिभिः पुनर्युक्त उचितानुष्ठानैः सद्भिर्वा, पूर्वकाले वा युक्तो धनधर्मानुष्ठानादिभिः पश्चादपि तथैवेति चतुर्भङ्गी, अथवा युक्तो द्रव्यलिङ्गेन भावलिगेन चेति प्रथमः साधुः, द्रव्यलिङ्गेन नेतरेणेति द्वितीयो निद्वादिः, न द्रव्यलिगेन भावलिङ्गेन तु युक्त इति तृतीयः प्रत्येकबुद्धादिः, उभयवियुक्तश्चतुर्थी गृहस्थादिरिति, एवं सूत्रान्त
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥३४८॥
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सू०३२01
श्रीस्थानाक
सूत्रदीपिका वृत्तिः । ॥३४९॥
3000०००००000000000००००००००००००००००००००००००००००00000000..
राण्यपि, नवरं युक्तं गोभियुक्तपरिणत त्वयुक्तं सत् सामग्र्या युक्ततया परिणतमिति, पुरुषः पूर्ववत्, युक्तरूपसङ्गतस्वभाव प्रशस्तं वा युक्तं युक्तरूपमिति, पुरुषपक्षे यु युक्तो धनादिना ज्ञानादिगुणैर्वा युक्तरूपः-उचितवेपः सुविहितनेपथ्यो वेति, तथा युक्त तथैव युक्त शोभते युक्तस्य वा शोभा यस्य तद्युक्तशोभमिति, पुरुषस्तु युक्तो गुणस्तथा युक्ता-उचिता शोभा यस्येति तत्तथेति (स तथेति), युग्य-वाहनमश्चादि, अथवा गोल्लविषये जम्पानं द्विहस्तप्रमाण चतुरस्र सवेदिकमुपशोभित युग्यकमुच्यते तद्युक्तमारोहणसामग्र्या पर्याणादिकया पुनयुक्त वेगादिभिरित्येवं यानवद् व्याख्येयम् , एतदेवाह-एवं जहे'त्यादि प्रतिपक्षो दान्तिकस्तथैव, कोऽसावित्याह-'पुरिसजाय'त्ति पुरुषजातानि, एवं परिणत-रूप-शोभसूत्रचतुर्भङ्गिकाः सप्रतिपक्षा वाच्याः, यावच्छोभसूत्रचतुर्भङ्गी, यथा-अजुत्ते नाम एग अजुत्तसाभे, एतदेवाह-'जाव सोभे'त्ति सारथिसूत्र, यथा सारथिः-शाकटिकः, योजयिता शकटे गवादीनां न वियोजयिता-मोक्ता, अन्यस्तु वियोजयिता न तु न प्रयोजयिता, एवं शेषावपि, नवर चतुर्थः खेटयत्येवेति, अथवा योकत्रयन्त प्रयुङ्क्ते यः स योक्त्रापयिता, वियोकत्रयतः प्रयोक्ता तु वियोक्त्रापयितेति, लोकोत्तरपुरुषविवक्षायां | तु सारथिरिव सारथिर्योजयिता-संयमयोगेषु साधनां प्रवर्तयिता, वियोजयिता तु तेपामेवानुचितानां निवर्तयितेति, यानसूनवत् हयगजसूत्राणि प्रागिव, 'जुग्गारिय'त्ति युग्यस्य चर्या-बहन गमनमित्यर्थः, कचित् 'जुग्गायरिय'त्ति पाठस्तत्रापि युग्याचर्येति, पथयायि एक युग्यं भवति नोत्पथयायीत्यादिश्चतुर्भङ्गी, इह च युग्यस्य चर्याद्वारेणैव निर्देशे | चतुर्विधत्वेनोकत्वात् तच्चर्याया एवोद्देशेनोक्तं चातुर्विध्यमवसेयमिति, भावयुग्यपक्षे तु युग्यमिव युग्य-संयमयोग
भरवोढा साधुरेव पथयाय्यप्रमत्तः, उत्पथयायी लिङ्गावशेषः, उभययायी प्रमत्तः, चतुर्थः सिद्धः, क्रमेण सदसदु
+0000000000०००००००००००००००००000000000000000000000000000000
॥३४९॥
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सू०३२०।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः । ॥३५०॥
100000000000०००००००००000000000000000000000000000000...
भयानुष्ठानरूपत्वात , अथवा पथ्युत्पथयोः स्वपरसमयरूपत्वाद यायित्वस्य च गत्यर्थत्वेन बोधपर्यायत्वात स्वपरसमयबोधापेक्षयेय चतुर्भङ्गी नेयेति, 'चत्तारि पुप्फे त्यादि, एक पुष्पं रूपसम्पन्न न गन्धसम्पन्नमाकुलीपुष्पवद् , द्वितीय बकुलस्येव, तृतीय जातेरिव, चतुर्थ बदर्यादेरिवेति, पुरुषो रूपसम्पन्नो-रूपवान् सुविहितरूपयुक्तो वेति, ७ जाति ६ कुल ५ बल ४ रूप ३ श्रुत २ शील १ चारित्रलक्षणेषु सप्तमु पदेषु एकविंशती द्विकसंयोगेषु एकविंशतिरेव चतुर्भङ्गिकाः कार्याः मुगमाश्चेति । आमलकमिव मधुरं यदन्यद् आमलकमेव वा मधुरमामलकमधुर 'मुदिय'त्ति मृद्वीका-द्राक्षा तद्वत्सैव वा मधुरं मृद्वीकामधुर, क्षीरवत् खण्डवच्च मधुरमिति विग्रहः, यथैतानि क्रमेणेपद्वहुवहुतरबहुतममाधुर्यवन्ति तथा ये आचार्या ईषद्वहुवहुतरबहुतमोपशमादिगुणलक्षणमाधुर्यवन्तस्ते तत्समानतया व्यपदिश्यन्त इति । आत्मवैयावृत्यकरोऽलसो विसम्भोगिको वा, परवैयावृत्यकरः स्वार्थनिरपेक्षः, स्वपरवैयावृत्त्यकरः स्थविरकल्पिकः, कोऽप्युभयविनिवृत्तोऽनशनविशेषप्रतिपनकादिरिति, करोत्येचैको वैयावृत्त्य निःस्पृहत्वात् १, प्रतीच्छत्येवान्य आचार्यत्वग्लानत्वादिना २, अन्यः करोति प्रतीच्छति च स्थविरकल्पिकविशेषः ३, उभयनिवृत्तस्तु | जिनकल्पिकादिरिति ४, 'अहकर'त्ति अर्थान-हिताहितप्राप्तिपरिहारादीन् राजादीनां दिग्यात्रादौ तथोपदेशतः करोतीत्यर्थकरो-मन्त्री नैमित्तिको वा, स चार्थकरो नामैको न मानकरः, कथमहमनभ्यर्थितः कथयिष्यामीत्यवलेपवर्जितः, एवमितरे त्रयः, अत्र च व्यवहारभाष्यगाथा-"पुढापुट्ठो पढमो"इत्यादि, 'गण'त्ति गणस्य-साधुसमुदायस्यार्थान्प्रयोजनादीनि करोतीति गणार्थकरः-आहारादिभिरुपष्टम्भकः, न च मानकरोऽभ्यर्थनानपेक्षत्वात् , एवं त्रयोऽन्ये, उक्तं च-"आहारउवहिसयणाइएहि, गच्छम्सुवग्गह कुणइ । वीओ न जाइ माण, दोण्णिवि तदओ न उ चउत्थो
॥३५॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
स०३२० ।
दीपिका
वृत्तिः ।
॥३५१॥
100000000000000000000000000000000000000000000000000०००००
"त्ति, अथवा 'नो माणकरो'त्ति गच्छार्थकरोऽहमिति न माद्यतीति । अनन्तरं गणस्यार्थ उक्तः स च सङ्ग्रहोऽत आह-'गणसंगहकरे'त्ति गणस्याहारादिना ज्ञानादिना च सङ्ग्रह करोतीति गणसङ्ग्रहकरः, शेष तथैव । गणस्य यथायोग प्रायश्चित्तदानादिना शोधि-शुद्धिं करोतीति गणशोधिकरः, अथवा शङ्किते भक्तादौ सति गृहिकुले गत्वाऽनभ्यर्थितो भक्तशुद्धिं करोति यः स प्रथमः, यस्तु मानान गच्छति स द्वितीयः, यस्त्वभ्यर्थि तो गच्छति स तृतीयः, यस्तु नाभ्यर्थितोऽपि तत्र गन्ता स चतुर्थ इति, रूप-साधुनेपथ्य जहाति-त्यजति कारणवशान्न धर्म-चारित्रलक्षण बोटिकमध्यस्थितमुनिवत् , अन्यस्तु धर्म न रूपं निववत् , उभयमपि उत्प्रबजितवत् , नोभयौं सुसाधुवत् , धर्म त्यजत्येको जिनाज्ञारूपं नो गणसंस्थिति-स्वगच्छकृतां मर्यादाम , इह कैश्चिदाचार्यैः तीर्थकरानुपदेशेन संस्थितिः कृता यथा-नास्माभिम हाकल्पाद्यतिशयश्रुतमन्यगणसत्काय देयमिति, एवं च योऽन्यगणसत्काय न तद् ददाति स धर्म त्यजति न गणस्थिति, जिनाज्ञाननुपालनात् , तीर्थकरोपदेशो ह्येव-सर्वेभ्यो योग्येभ्यः श्रुतं दातव्यमिति प्रथमो, यस्तु ददाति स द्वितीयः, यस्त्वयोग्येभ्यः तद्ददाति स तृतीयः, यस्तु श्रुताव्यवच्छेदार्थ तदव्यवच्छेदसमर्थस्य परशिष्यस्य स्वकीयदिग्बन्धं कृत्वा श्रुत ददाति तेन न धर्मो नापि गणसंस्थितिस्त्यक्तेति स चतुर्थ इति । प्रियो धर्मो यस्य तत्र प्रीतिभावेन सुखेन च प्रतिपत्तेः स प्रियधा न च दृढो धर्मों यस्य, आपद्यपि तत्परिणामाविचलनात् , अक्षोभत्वादित्यर्थः स दृढधर्मेदि, अन्यस्तु दृढधर्मा अङ्गीकृतापरित्यागात् न तु प्रियधर्मा कप्टेन धर्मप्रतिपत्तेः, इतरौ तु मुज्ञानौ, आचार्यसूत्रचतुर्थभने यो न प्रवाजनया न चोपस्थापनयाचार्यः स क इत्याह-धर्माचार्य इति, प्रतिबोधक इत्यर्थः, आह च-"धम्मो जेणुवइट्ठो, सो धम्म
....००००००००००0000000000000000000000000000000000000000000
॥३५२॥
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-
-
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सू०३२०-३२१
३२२॥
श्रीस्थानात
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३५२॥
०००००0000000000000000000००००००००००००००००००0000000.....44
। गुरू गिही व समणो वा । कोवि तिहिं संपउत्तो, दोहिं व एकेकगेणेव ॥१॥"त्ति, त्रिभिरिति-प्रव्राजनोपस्थापनाधर्माचार्यत्वैरिति, उद्देशनम्-अङ्गादेः पटनेऽधिकारित्वकरण तत्र तेन वाऽऽचार्यों-गुरुः उद्देशनाचार्य:, उभयशून्यः को भवतीत्याह-धर्माचार्य इति. अन्ते-गुरोः समीपे वस्तुं शीलमस्यान्तेवासी-शिष्यः प्रवाजनया-दीक्षया अन्तेवासी प्रव्राजनान्तेवासी दिक्षित इत्यर्थः, उपस्थापनान्तेवासी महावतारोपणतः शिष्य इति, चतुर्थभगकस्थः क इत्याह-धान्तेवासी धर्मप्रतिबोधनतः शिष्यः, धर्माथितयोपसम्पन्नो वेत्यर्थः, यो नोद्देशनान्तेवासी न वाचनान्तेवासीति चतुर्थः, स क इत्याहधर्मान्तेवासीति, निर्गता बाह्याभ्यन्तरग्रन्थानिग्रन्थाः-साधवः, रत्नानि भावतो ज्ञानादीनि तैर्व्यवहरतीति रात्निकः पर्यायज्येष्ठ इत्यर्थः, श्रमणो-निर्ग्रन्थो महान्ति-गुरूणि स्थित्यादिभिस्तथाविधप्रमादाद्यभिव्यङ्गयानि कर्माणि यस्य स महाकर्मा, महती क्रिया-कायिकयादिका कर्मबन्धहेतुर्यस्य स महाक्रियः, न आतापयति-आतापनां शीतादिसहनरूपां करोतीत्यनातापी मन्दश्रद्धत्वादिति, अत एवासमितः समितिभिः, स चैवंभूतो धर्मस्यानाराधको भवतीत्येकः, अन्यस्तु पर्यायज्येष्ठ एवाल्पका-लघुकर्माऽल्पक्रिय इति द्वितीयः, अन्यस्तु अवमो-लघुः पर्यायेण रात्निकोऽवमरात्निकः, एवं चैव निर्ग्रन्थिका-श्रमणोपासक-श्रमणोपासिकासूत्राणि श्रमणसूत्रवत् ज्ञेयानि । 'चत्तारि गम'त्ति त्रिष्वपि सूत्रेषु चत्वार आलापका भवनि ॥
चत्तारि समणोवासगा प० त०-अम्मापिइसमाणे भातिसमाणे मित्तसमाणे सवत्तिसमाणे, चत्तारि समणोवासया ५० त०-अद्दागसमाणे पडागसमाणे खाणुसमाणे खरंटसमाणे ४ (सू० ३२१) । समणस्स ण भगवओ महावीरस्स समणोवासगाण सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे चत्तारि पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता (सू० ३२२) । चउहिं
॥३५२॥
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सू० ३२३॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३५३॥
0000000000000000000000000000000000000000 .00000000
ठाणेहि अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु इच्छेज्जा माणुस लोग हव्वमागच्छित्तए णो चेव ण संचाएति हव्यमागच्छित्तए, त-अहुणोववन्ने देवे देवलोपसु दिब्बेसु कामभोगेसु मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववण्णे से ण माणुस्सए कामभोगे णो आढाइ ण परियाणाइ णो अट्ठ बंधइ णो णियाण पकरेइ णो ठिइपकप्पं करेइ १, अहुणोववण्णे देवे देवलोपसु दिब्बेसु कामभोगेसु मुच्छिए ४ तस्स ण माणुस्सए पेमे वोच्छिण्णे दिव्बे संकंते भवइ २, अहुणोववण्णे देवे देवलोपसु दिब्बेसु कामभोगेसु मुच्छिए ४ तस्स ण पर्व भवइ-इण्डिं गच्छ मुहुत्तेण गच्छ', तेण कालेण अप्पाउया मणुस्सा कालधम्मुणा संजुत्ता भवंति ३, अहुणोववन्ने देवे देवलोपसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिए ४ तस्स ण माणुस्सए गंधे पडिकूले पडिलोमे यावि भवइ, उदपिय ण माणुस्सए गंधे जाव चत्तारि पंच जोयणसयाइ हब्बमागच्छइ ४, इच्चेतेहि चउहि ठाणेहि अहुणोववण्णे देवे देवलोपसु इच्छेजा माणुस लोग हब्बमागच्छित्तए णो चेव ण संचाएइ हब्वमागच्छित्तए । चउहि ठाणेहि अहुणोववन्ने देवे देवलोएसु इच्छेज्जा माणुस लोग हब्बमागच्छित्तय संचाएइ हब्बमागच्छित्तए, तंजहा-अहुणोववण्णे देवे देवलोपसु दिब्बेसु कामभोगेसु अमुच्छिए जाव अणज्झोचवण्णे, तस्स ण एवं भवइ-अस्थि खलु मम माणुस्सए भवे आयरिणइ वा उवज्झाएइ वा पवत्तीइ वा थेरेइ वा गणीइ वा गणधरेइ वा गणावच्छेण्इ वा जेसि पभावेण मप इमा ण्यारूवा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवजुती लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया, त गच्छामि ण ते भगवंते वंदामि जाव पज्जुवासामि १, अहुणोववण्णे देवे देवलोएसु जाव अणज्झोनवणे तस्स ण एवं भवइ-एस ण माणुस्सए भवे णाणीति वा तवस्सीति वा अइदुक्कर दुक्करकारए, त गच्छामि ण ते भगवंते वदामि जाव पज्जुवासामि २, अहुणोववण्णे देवे देवलोएसु जाव अणझोचवण्णे तस्स ण एवं भवह-अस्थि ण मम माणुस्सए भवे मायाइ वा जाव सुण्हाइवा, त गच्छामि
॥३५३॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥३५४॥
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एतारूवं दिव्वं देविढि दिव्वं अणज्झोववण्णे तस्स णं एवं
ण तेसि अंतिय पाउन्भवामि पासंतु ता मे इमं देवज्जुति लद्ध पत्त अभिसमण्णा ३, अहुणोचवण्णे देवे देवलोपसु जाव भवइ अस्थि णं मम माणुस्सर भवे मित्तेति वा सहीति वा सुहीति वा सहापति संगपति वा, तेसि च णं अम्हे अण्णमण्णस्स संगारे डिस्सु भवइ, जो मे पुब्वि चयइ सो सबोहेयव्वो, इच्चेपहिं जाव संचापड हव्वमागच्छित्तर ४ ( सू० ३२३) । 'अम्मा० 'त्ति मातापितृसमानः, उपचार विनापि साधुषु एकान्तेनैव वत्सलत्वात् भ्रातृसमानः अल्पतरप्रेमत्वात् तत्त्वविचारादौ निष्ठुरवचनादप्रीतेः तथाविधप्रयोजनेष्वत्यन्तवत्सलत्वाच्चेति, मित्रसमानः सोपचारवचनादिना प्रीतिक्षतेः, तत्क्षतौ चापयुपेक्षकत्वादिति । समानः - साधारणः पतिरस्याः सपत्नी, यथा सा सपत्न्या इर्ष्यावशादपराधान्वीक्षते एवं यः साधुषु दूषणदर्शनतत्परोऽनुपकारी च स सपत्नीसमानोऽभिधीयत इति । 'अदाग'त्ति आदर्शसमानो यः साधुभिः प्रज्ञाप्यमानानुत्सर्गापवादादीनागमिकान् भावान् यथावत् प्रतिपद्यते संनिहितार्थानादर्शकवत् स आदर्शसमानः, यस्यानवस्थितो बोधो विचित्र देशनावायुना सर्वतोऽपहियमाणत्वात् पताकेव स पताका समान इति, यस्तु कुतोऽपि कदाग्रहान्न गीतार्थदेशनया चाल्यते सोऽनमन (ऽनवगत) स्वभावबोधत्वेनाप्रज्ञापनीयः स्थाणुसमान इति, यस्तु प्रज्ञाप्यमानो न केवल स्वाग्रहान्न चलति अपि तु प्रज्ञापक दुर्वचनकण्टकैविध्यति स खरकण्टसमानः, खरा - निरन्तरा नितरां निष्ठुरा वा कण्टाः - कण्टका यस्मिंस्तत् खरकटं बब्बूलादिडाल खरणमिति लोके यदुच्यते, तच्च विलग्नं चीवर न केवलमविनाशितं न मुञ्चति अपि तु तद्विमोचक पुरुषादिक हस्तादिषु कण्टकैर्विध्यतीति । श्रमणोपासकाधिकारादिदमाह - 'समणस्स 'त्ति कण्ठ्य, नवरं श्रमणोपासकानामानन्दादीनामुपासकदशाभिहितानामिति ।
सू० ३२३ ।
॥३५४॥
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सू०३२३।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
0000000000000000000000000०००००0000000001
देवाधिकारादेवेदमाह-'चउही'त्यादि, त्रिस्थानके तृतीयोद्देशके प्रायो व्याख्यातमेवेद, तथापि किञ्चिदुच्यते, चउहिं ठाणेहि नो संचाएइ'त्ति सम्बन्धः, तथा देवलोकेषु देवमध्ये इत्यर्थः, हव्य-शीघ्र', 'संचाएइ'त्ति-शक्नोति, कामभोगेषु-मनोज्ञशब्दादिषु मच्छित इव मूर्छितो-मूढः तत्स्वरूपस्यानित्यत्वादेविबोधाक्षमत्वात् , गृद्धः-तदाकाङ्क्षावान् अतृप्त इत्यर्थः, ग्रथित इव ग्रथितस्तद्विषयस्नेहरज्जुभिः संदर्भित इत्यर्थः, अध्युपपन्न:-अत्यन्त तन्मना इत्यर्थः, नाद्रियते न तेष्वादरवान् भवति, न परिजानाति-एतेऽपि वस्तुभूता इत्येवं न मन्यते, तथा तेष्विति गम्यते नो अर्थ बध्नाति-एतैरिद प्रयोजनमिति निश्चय न करोति, तथा नो तेषु निदान प्रकरोति-एते मे भूयासुरित्येवमिति, तथा नो तेषु स्थितिप्रकल्पम्-अवस्थानविकल्पनमे तेप्वहं तिष्ठामि एते वा मम तिष्ठन्तु स्थिता (रा) भवन्त्वित्येव, स्थित्या वा-मर्यादया प्रकृष्टः कल्पः प्रकल्पः आचार:-स्थितिप्रकल्पस्त प्रकरोति-कर्त्तमारभते, प्रशब्दस्यादिकर्मार्थत्वादिति, एवं दिव्यविषयप्रसतिरेक कारण. तथा यतोऽसावधुनोपपन्नो देवः कामेषु मूर्छितादिविशेषणोऽतस्तस्य मानुष्यकमित्यादि इति दिव्यप्रेमसक्रान्तिः द्वितीय, तथाऽसौ देवो यतो भोगेषु मृर्छितादिविशेषणो भवति ततस्तत्प्रतिबन्धात् 'तस्स णमित्यादि इति देवकार्यायत्ततया मनुष्यकार्यानायत्तत्वं तृतीय, तथा दिव्यभोगमूर्छितादिविशेषणात्तस्य मनुष्याणामय मानुष्यः स एव मानुष्यको गन्धः प्रतिकूलो-दिव्यगन्धविपरीतवृत्तिः प्रतिलोमश्चापि इन्द्रियमनसोरनाल्हादकत्वाद् , एकाौंवैतावत्यन्तामनोज्ञताप्रतिपादनायोत्ताविति, यावदिति परिमाणार्थः, 'चत्तारि पंचेति विकल्पदर्शनार्थ कदाचिद् भरतादिष्वेकान्तसुषमादौ चत्वार्यवान्यदा तु पञ्चापि, मनुष्यपब्वेन्द्रियतिरश्चां बहुत्वेनौदारिकशरीराणां तदवयवतन्मलानां च बहुलत्वेन दुरभिगन्धप्राचु
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श्रीस्थानाङ्ग
सू. ३२३॥
दीपिका वृत्तिः ।
र्यादिति, आगच्छति मनुष्यक्षेत्रादाजिगमिषु देवं प्रतीति, इदं च मनुष्यक्षेत्रस्याशुभस्वरूपत्वमेवोक्त, न च देवोऽन्यो वा नवभ्यो योजनेभ्यः परत आगत गन्ध जानातीति, अथवा अत एव वचनाद् यदिन्द्रियविषयप्रमाणमुक्त तदौदारिकशरीरेन्द्रियापेक्षयैव संभाव्यते, कथमन्यथा विमानेषु योजनलक्षादिप्रमाणेषु दूरस्थिता देवा घण्टा शब्द शणुयुर्यदि पर प्रतिशब्दद्वारेणान्यथा वेति नरभवाशुभत्वं चतुर्थमनागमनकारणमिति, शेष निगमनम् , आगमनकारणानि प्रायः प्राग्वत् , तत्सूत्र चेद सुगम, तथापि किश्चिदुच्यते-कामभोगेष्वमूर्छितादिविशेषणो यो देवस्तस्य 'एव'मिति एवंभूत मनो भवति यदुत अस्ति मे, किन्तदित्याह-आचार्य इति वा, इतिः-उपप्रदर्शने वा विकल्पे एवमुत्तरत्रापि कचिदितिशब्दो न दृश्यते तत्र तु सूत्र सुगममेवेति, इह च आचार्यः-प्रतिबोधकप्रव्राजकादिरनुयोगाचार्यो वा, उपाध्यायः-मूत्रदाता, प्रवर्त्तयति साधनाचार्योपदिष्टेषु वैयावृत्त्यादिष्विति प्रवर्तीत्यादि पूर्ववत् , 'इम'त्ति इय प्रत्यक्षासन्ना, एतदेव रूपं यस्या न कालान्तरादावपि रूपान्तरभाक सा तथा, दिव्या-स्वर्गसम्भवा प्रधाना वा देवर्द्धिः-विमानरत्नादिका द्युतिः-शरीरादिसम्भवा युतिरिष्ट्रपरिवारादिसंयोगलक्षणा लब्धा-उपाजिता जन्मान्तरे प्राप्ता-इदानीमुपगता अभिसमन्वागता-भोग्यावस्थां गता, 'त'ति तस्मात्तान् भगवतः पूज्यान वन्दे स्तुतिभिः, नमस्यामि प्रणामेन, सत्करोमि आदरकरणेन वस्त्रादिना वा, सन्मानयाम्युचितप्रतिपत्त्या कल्याण | मङ्गल दैवत चैयमिति बुद्धया पर्युपासे-सेवे इत्येकम् , तथा ज्ञानी श्रुतज्ञानादिनेत्यादि द्वितीय, तथा 'मायाइ वा भज्जाइ वा भइणीइ वा पुत्ताइ वा धृयाइ वा' इति यावच्छब्दाक्षेपः, स्नुपा-पुत्र भार्या 'त' तस्मात्तेषामन्तिकंसमीप प्रादुर्भवामि-प्रकटीभवामि 'ता' तावत् 'मे' मम 'इमे'इति पाठान्तरमिति तृतीय, तथा मित्र-पश्चात्स्नेहवत्
1000०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००00000000
॥३५६॥
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सू०३२३-३२४
श्रीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३५७॥
.04.००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००
सखा-बालवयस्यः सुहृत्-सज्जनो हितैषी सहायः-सहचरस्तदेककार्यप्रवृत्तो वा सङ्गत विद्यते यस्यासौ साङ्गतिकः परिचितस्तेषाम् , 'अम्हे 'त्ति अस्माभिः 'अन्नमन्नस्स'त्ति अन्योऽन्य 'संगारे'त्ति सङ्केतः प्रतिश्रुतोऽभ्युपगतो भवति स्मेति, 'जे मो(मे)'त्ति योऽस्माकं पूर्व च्यवते देवलोकात् स सम्बोधयितव्य इति चतुर्थम् , इदश्च मनुष्यभवे कृतसङ्केतयोरेकस्य पूर्वलक्षादिजीविषु भवनपत्यादिवृत्पद्य च्युत्वा च नरतयोत्पन्नस्यान्यः पूर्वलक्षादि जीवित्वा सौधमादिपृत्पद्य सम्बोधनार्थ यदेहागच्छति तदाऽवसेयमिति, इत्येतैरिति निगमनमिति । अनन्तरं देवागम उक्तस्तत्र तत्कृतोद्योतो भवतीति तद्विपक्षमन्धकार लोके आह
चउहि ठाणेहि लोगंधगारे सिया, त-अरहंतेहि वोच्छिन्जमाणेहि अरहंतपन्नत्ते धम्मे वोच्छिज्जमाणे पुब्बगए वोच्छिज्जमाणे जायतेजे वोच्छिज्जमाणे ४, चउहि ठाणेहि लोगुज्जोए सिया. त-अरिहंतेहि जायमाणेहि अरिहंतेहि पव्ययंतेहि अरहताण णाणुप्पायमहिमासु अरिहंताण परिणिव्याणमहिमासु४, एवं देवंधगारे देवुज्जो(ज्जु)ए देवसण्णिवाए देवुक्कलियाए देवकहकहए ४, चउहि ठाणेहि देविंदा माणुस्स लोग हव्यमागच्छंति, एवं जहा तिट्ठाणे जाव लोगंतिया देवा माणुस्स लोग हब्वमागच्छेज्जा, त-अरहंतेहिं जायमाणेहि जाव अरिहंताण परिणिव्वाणमहिमासु (सू० ३२४) ।
___ 'चउही'त्यादि व्यक्त, नवरं लोकेऽन्धकार-तमिस्रं द्रव्यतो भावतश्च यत्र यत् स्यात् , सम्भाव्यते ह्यहदादिव्यवच्छेदे द्रव्यतोऽन्धकारम् , उत्पातरूपत्वात्तस्य, छत्रभङ्गादौ रजउद्घातादिवदिति, वहिव्यवच्छेदेऽन्धकारं द्रव्यत एव, तथास्वभावाद् दीपादेरभावाद्वा, भावतोऽपि वा, एकान्तदुष्पमादावागमादेरभावादिति । पूर्व देवागम उक्तो
॥३५७॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥३५८ ॥
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sat देवाधिकारवन्तमादुःखशय्यासूत्रात् सूत्रप्रपञ्चमाह - 'चही त्यादि, सुगमश्राय, नवरं लोकोद्योतश्चतुर्ष्वपि स्थानेषु देवागमात् जन्मादित्रये तु स्वरूपेणापि, एवमिति यथा लोकान्धकारं तथा देवान्धकारमपि चतुर्भिः स्थानैः, देवस्थानेष्वपि ह्यर्हदादिव्यवच्छेदकाले वस्तुमाहात्म्यात् क्षणमन्धकारं भवति, एवं देवोद्योतोऽर्हतां जन्मादिष्विति, देवसन्निपातो - देवसमवाय एवमेव देवोत्कलिका - देवलहरिः, एवमेव 'देवकहकह' त्ति - देवप्रमोद कलकलः, एवमेव देवे - न्द्रा मनुष्यलोकमागच्छेयुः अर्हतां जन्मादिष्विति यथा त्रिस्थानके प्रथमोद्देशके तथा देवेन्द्रागमनादीनि लोकान्तिकसूत्रावसानानि वाच्यानि, केवलमिह परिनिर्वाणमहिमास्विति चतुर्थमिति । पूर्वमर्हतां जन्मादिव्यतिकरेण देवागम उक्तोऽधुनाऽर्हतामेव प्रवचनार्थे दुःस्थितस्य साधोः दुःखशय्या इतरस्येतरा भवन्तीति सूत्रद्वयेनाह—
चत्तारि दुहसिज्जाओ पं० त० तत्थ खलु इमा पढमा दुहसेज्जा त०-से ण मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियां पब्वइए णिग्गंथे पावयणे संकिए कंखिए वितिगिच्छिए भेदसमावण्णे कलुससमावण्णे णिग्गंथ पावण णो सद्दह णो पत्तियइ णो रोपइ, णिग्गंथ पावयण' असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोपमाणे मण उच्चावयं णियच्छ विणिग्धायमाचज्जइ पढमा दुहसेज्जा १, अहावरा दोचा दुहसेज्जा से ण मुंडे भवित्ता अगाराओ जाव पव्वइसपण लाभेण णो तुस्सइ परलाभ आसति पीछेइ पत्थेइ अभिलसइ परस्स लाभ आसापमाणे जाव अभिलसमाणे मण उच्चावयं नियच्छइ विणिग्धायमावज्जइ दोच्चा दुहसेज्जा २, अहावरा तच्चा दुहसेज्जा से ण मुंडे भविता जाव पव्व दिव्वे माणुस्सर कामभोगे आसाएइ जाव अभिलसह दिव्वमाणुस्सर कामभोगे आसमा जाव अभिलसमाणे मण उच्चावय नियच्छर विणिग्धायमावज्जइ तच्चा दुहसेज्जा ३, अहावरा चउत्था दुहसेज्जा
सू० ३२४-३२५ ।
॥३५८॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥३५९॥
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से ण मुंडे भवित्ता जाव पव्वइप, तस्स ण एवं भवइ, जया णं अह अगारवास' आवसामि तया णं अहं संवाहण - परिमद्दण - गातभंग-गातच्छोलणाई' लभामि, जप्पभि चणं अहं मुंडे जाव पव्वइप तप्पभिइ चणं अहं संवाहण जाव गातच्छोलणार णो लभामि, से णं संवाहण जाव गातच्छोलणाई आसाएमाणे जाव मण उच्चावच नियच्छर विणिग्धायमावज्जइ चउत्था दुहसेज्जा ४ । चत्तारि सुहसेज्जाउ पं० त ० तत्थ खलु इमा पढमा सुहसेज्जा, से ण मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वइप णिग्गंथे पावणे णिस्सकिए णिक्कखिए णिव्वितिगिच्छे णो भेदसमावण्णे णो कलुससमावण्णे णिग्गंथ पावयण' सद्दहर पत्तियह रोएइ, णिग्गंथ पावयण सद्दहमाणे पत्तियमाणे रोपमाणे णो मण उच्चावयं नियच्छर णो विणिग्धायमावज्जइ पढमा सुहसेज्जा १, अहावरा दोच्चा सुहसेज्जा से णं मुंडे जाव पव्वइप सपण लामेण तुस्सइ परस्स लाभ णो आसाएइ णो पीछेइ णो पत्थेइ णो अभिलसर, परस्स लाभ अणासायमाणे जाव अणभिलसमाणे णो मण उच्चावयं नियच्छर णो विणिग्धायमावज्जर दोश्या सुहसेज्जा २, अहावरा तच्चा सुहसेज्जा ( ० पडिमा ) - से ण' मुंडे भविता जाव पव्वद दिव्यमाणुस्सप कामभोगे णो आसापड जाव णो अभिलसर, दिव्वमाणुस्सर कामभोगे अणासायमाणे जाव अणभिलसमाणे णो मण उच्चावयं नियच्छर णो विणिग्धायमावज्जइ तच्चा सुहसेज्जा ३. अहावरा चउत्था सुहसेज्जा से णं मुडे भवित्ता जाव पव्वइप तस्स णं एवं भवइ-जइ ताव अरहंता भगवंतो हट्ठा आरोग्गा बलिया कल्लसरीरा अण्णतराई उरालाई कल्लाणाई विपुलाई पयत्ताई पग्गहियाई महाणुभागाई कम्मक्खयकारणाइ तवोकम्माई पडिवज्जति किमंग पुण अह अभोवगमिउवक्कमिय' ( उ ) वेयण णो सम्म सहामि खमामि तितिक्खेमि अहियासेमि, मम च णं अम्भोवगमिउवक्कमियं (उ)सम्म असहमाणस्स
अक्खममाणस्स अतितिक्खे
सू० ३२५ ।
॥३५९॥
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......
सू०३२५-३२६॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३६०॥
माणस्स अणहियासेमाणस्स कि मण्णे कज्जइ ?, एगंतसो पावे कम्मे कज्जइ, मम च ण अणब्भोवगमिओ जाव सम्म सहमाणस्स जाव अहियासेमाणस्स कि मपणे कज्जइ ?, एगंतसो णिज्जरा कज्जइ, चउत्था सुहसेज्जा ४ (सू० ३२५) । चत्तारि अवायणिज्जा ५० त०-अविणीए विगतीपडिबद्ध अवितोसवियपाहुडे मायी। चत्तारि वाय. णिजा पं० २०-विणीए अविगतीपडिबद्धे विओसवियपाहुडे अमायी (सू० ३२६)।
'चत्तारी'त्यादि, चतस्रः-चतुःसङ्ख्याः दुःखदाः शय्या दुःखशय्याः, ताश्च द्रव्यतोऽतथाविधखवादिरूपाः भावतस्तु दुःस्थचित्ततया दुःश्रमणतास्वभावाः प्रवचनाश्रद्धान १ परलाभप्रार्थन २ कामाशंसन ३ स्नानादिप्रार्थन ४विशेषिताः प्रज्ञप्ताः, 'तत्रे 'ति तासु मध्ये 'से' इति स कश्चिद् गुरुका अथार्थों वाऽयं स च वाक्योपक्षेपे 'प्रवचने' शासने दीर्घत्वं च प्राकृतत्वादिति (प्रकटादित्वादिति) शङ्कितः-एकभावविषयसंशयसंयुक्तः, काङ्कितोमतान्तरमपि साध्वितिबुद्धिः, विचिकित्सितः-फल प्रति शङ्कावान् , भेदसमापन्नो-बुद्धिद्वैधीभावापन्न एवमिदं सर्च जिनशासनोक्तमन्यथा वेति, कलपसमापन्नो-नैतदेवमिति विपर्यस्त इति, न श्रद्धत्ते-सामान्येनैवमिदमिति, नो प्रत्येतिप्रतिपद्यते प्रीतिद्वारेण, नो रोचयति-अभिलाषातिरेकेणासेवनाभिमुखतयेति, मन:-चित्तमुच्चावचम्-असमजस निर्गच्छति-निर्याति करोतीत्यर्थः, ततो विनिर्घात-धर्मभ्रंश संसारं वा आपद्यते, एवमसौ श्रामण्यशय्यायां दुःखमास्त इत्येका, तथा स्वकेन-स्वकीयेन लभ्यते लम्भन वा लाभ:-अन्नादे रत्नादेर्वा तेन आशां कारोतीत्याशयति, स नून मे दास्यतीत्येवमिति, आस्वादयति वा-लभते चेत् तद् भुङ्क्त एव, स्पृहयति प्रार्थयति-याचते अभिलपतिलब्धेऽप्यधिकतर-वाञ्छतीत्यर्थः, शेषमुक्तार्थमेवमप्यसौ दुःखमास्त इति द्वितीया, तृतीया कण्ठया, अगारवासो
॥३६०
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः । ॥३६॥
गृहवासस्तमावसामि-तत्र पर्ने सम्बाधनं-शरीरस्यास्थिसुखत्वादिना नैपुण्येन मर्दनविशेषः, परिमर्दन तु-पिष्टादेर्मलनमात्र परिशब्दस्य धात्वर्थमात्रवृत्तित्वात् , गात्राभ्यङ्गः-तैलादिनाऽङ्गम्रक्षण, गात्रोपक्षालनम्-अङ्गधावनमेतानि लभे न कश्चिन्निषेधयतीति, शेष कण्ठयमिति चतुर्थी ॥ दुःखशय्याविपरीताः सुखशय्याः प्रागिवावगम्याः, नवर-'हह'त्तिशोकाभावेन हृष्टा इव इष्टा अरोगा-ज्वरादिवर्जिताः, बलिका:-प्राणवन्तः, कल्प(ल्य)शरीराः- पटुशरीराः, अन्यतराणि-अनशनादीनां मध्ये एकतराणि, उदाराणि-आशंसादोषपरिहारतयोदारचित्तयुक्तानि, कल्याणानि, मङ्गलरूपत्वात् , विपुलानि बहुदिनत्वात् , प्रयतानि-प्रकृष्टसंयमयुक्तत्वात् , प्रगृहीतानि आदरप्रतिपन्नत्वात् , महानुभागानि अचिन्त्यशक्तियुक्तत्वात् , (समृद्धानि) ऋद्धिविशेषकारणत्वात् , कर्मक्षयकारणानि मोक्षसाधकत्वात् , तपःकर्माणि-तपःक्रियाः प्रतिपद्यन्ते आश्रयन्ते, 'किमग पुण' ति किं प्रश्ने अङ्गत्यामन्त्रणेऽलङ्कारे वा, 'पुन'रिति पूर्वोक्तार्थवेलक्षण्यदर्शने शिरोलोचब्रह्मचर्यादीनामभ्युपगमे भवा आभ्युपगमिकी, उपक्रम्यतेऽनेनायुरित्युपक्रमो-ज्वरातीसारादिस्तत्र भवा या सौपक्रमिकी सा चासौ सा चेति आभ्युपगमिकौपक्रमिकी ताभ्यां (तां) वेदनां-दुःखं सहामि तदुत्पत्ताबभिमुखतया, (अस्ति च सहिरवैमुख्यार्थे यथाऽसौ भटस्तं भटं सहते,) तस्मान्न भज्यत इति भावः, क्षमे-आत्मनि परे वाऽविकोपतया तितिक्षामि अदन्यतया अध्यासयामि सौष्ठवातिरेकेण तत्रैव वेदनायामवस्थानं करोमीत्यर्थः, एकार्था वैते शब्दाः, किं मन्ने' त्ति किं मन्ये इति निपातो वितर्कार्थः क्रियते-भवतीत्यर्थः, 'एगंतसो त्ति एकान्तेन सर्वथेत्यर्थ इति || एते च दुःखसुखशय्यावन्तो निर्गुणाः सगुणाश्च अतस्तद्विशेषाणामेव वाचनीयावाचनीयत्वदर्शनायसूत्रद्वयं, कण्ठय, नवरं 'विगती'त्ति विकृतिः-क्षीरादिका 'अध्यवशमितप्राभृतः' इति प्राभृतम्-अधिकरणकारी कोप
+++000000000000000000000+++222-40+00000000066004808048
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सू० ३२७।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३६२॥
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इति । अनन्तरं वाचनीयावाचनीयाः पुरुषा उक्ता इति पुरुषाधिकारात् तद्विशेषप्रतिपादनपर चतुर्भगिकाप्रतिबद्धं सूत्रप्रवन्धमाह
__चत्तारि पुरिसज्जाया प० त०-आर्यभरे नाममेगे नो परंभरे, परंभरे नाममेगे जो आतंभरे, पगे आतंभरेवि परंभरेवि, पगे णो आतंभरे णो पर भरे, चत्तारि पुरिसजाया ५० त०-दुग्गए नाम पगे दुग्गए, दुग्गए नाम पगे सुग्गए, सुग्गए नाम एगे दुग्गए, सुग्गए नाम एगे सुग्गए । चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-दुग्गए नाम एगे दुब्बए, दुग्गए (नाम) पगे सुब्बए, सुग्गए (नाम) एगे दुचए, सुग्गए नाम एगे सुब्बए । चत्तारि पुरिसजाया पंतदुग्गए णाम एगे दुष्पडियाणंदे, दुग्गए नाम एगे सुप्पडियाणंदे ४ । चत्तारि पुरिसजाया ५० त०-दुग्गए णाम पगे दुग्गइगामी, दुग्गए णाम एगे सुग्गइगामी ४ । चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-दुग्गए णाम एगे दुग्गति गते, दुग्गए णाम एगे सुग्गई गते ४ । चत्तारि पुरिसजाया ५० त०-तमे णाम एगे तमे, तमे णाम एगे जोई, जोई णाम पगे तमे, जोई णाम एगे जोई । चत्तारि पुरिसजाया पं० त-तमे णाम पगे तमबले, तमे णाम पगे जोइबले, जोई णाम एगे तमबले, जोई णाम पगे जोइबले । चत्तारि पुरिसजाया पंत-तमेणाम एगे तमबलपजलणे, तमे णाम पगे जोइबल पज्जलणे ४ । चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-परिण्णायकम्मे नाम एगे नो परिण्णायसण्णे, परिण्णाय. सण्णे णाम एगे णो परिण्णायकम्मे, पगे परिण्णायकम्मेवि०४ । चत्तारि पुरिसजाया पंत-परिण्णायकम्मे नाम पगे णो परिण्णायगिहावासे, परिण्णायगिहावासे णाम पगे णो परिण्णायकम्मे ४ । चत्तारि पुरिसजाया पंतपरिण्णायसण्णे णाम एगे णो परिण्णायकम्मे, एगे परिण्णायकम्मेवि०४। चत्तारिपुरिसजाया ५० त०-परिण्णायकम्मे नाम पगे णो परिणायगिहावासे, परिण्णायगिहावासे णाम एगे णो परिण्णायकम्मे ४ । चत्तारि पुरिसजाया पं०
.000000000000000000000000000000000000000000०..........
॥३६२॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥३६३॥
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त०- परिण्णायकम्मे णाममेगे णो परिण्णायगिहावासे, परिण्णायगिहावासे णाम पगे णो परिण्णायकम्मे ४ । चत्तारि पुरिसजाया पं० त० - परिण्णायसन्ने णाममेगे णो परिण्णायगिहावासे, परिण्णायगिहावासे णाम एगे०४ । चत्तारि पुरिसजाया पं० त० - इहत्थे णाम पगे णो पर थे, परत्थे णाम पगे णा इहत्थे ४ । चत्तारि पुरिसजाया पं० त०- एगेण णाम पगे वड्ढद्द एगेण हायइ, एगेण णाम पगे बढइ दोहिं हायर, दोहिं णाम पगे वढ पण हाय, दोहिं णाम पगे बढइ दोहि हायइ । चत्तारि कंथका पं० त०-आइण्णे णाम पगे आइण्णे, आइण्णे णाम एगे खलुंके, खलुंके णाम पगे आइण्णे, खलुंके णाम पगे खलुंके । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०आइण्णे णाम पगे आइण्णे ४ (चउभंगो) । चत्तारि पपगा (कंथगा) पं० त० - आइण्णे णाम पगे आइण्णत्ताप विरह, आइण्णे णाम एगे खलुंकत्ताप विहरइ ४ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त० - आइण्णे णाम एगे आइण्णत्ताप विहरइ, (चउभंगो) । चत्तारि पकथगा पं० त० - जाइसंपण्णे णाम पगे णो कुलसंपण्णे ४ । पवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-जाइसंपण्णे णाम पगे कुलसंपण्णे, चडभंगो । चत्तारि कंथगा पं० त० - जाइसंपणे णाम पगे णो बलसंपन्ने ४ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त० - जाइसंपण्णे णाम पगे ( णो ) बलसंपन्ने ४ | चत्तारि कंथगा पं० त ० - जाइसंपन्ने नाम पगे णो रुवसंपन्ने ४ । पवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त० - जाइसपण्णे णाम एगे णो रुवसंपण्णे ४ । चत्तारि कंथगा पं० त० - जाइस पन्ने णाम पगे णो जयसंपन्ने, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त० - जाइसंपन्ने णाम पगे णो जयसंपन्ने ४ । एवं कुलसंपण्णेण य बलसंपण्णेण य ४, कुलसंपण्णेण य रूवसंपण्णेण य ४ । कुलसंपण्णेण य जयसंपण्णेण य ४, एवं बलसंपण्णेण य रूवसंपण्णेण य ४, बलसंपणेण य जयस पण्णेण य ४, सव्वत्थ पुरिसजाया पडिवक्खो । चत्तारि कंथगा पं० त० - रूवस पणे णाम पगे णो
सू० ३२७ ।
॥३६३॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका
वृत्तिः ।
॥३६४॥
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जयस पन्ने ४, एवामेव चत्तारि पुरिसनाया पं० त० - रूवस पण्णे णाम पगे णो जयस पण्णे ४ । चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-सीहत्ताप णाम पगे निक्खमेत्ता सीहत्तार विहरह, सीइत्ताप णाम पगे निक्खमेत्ता सीयालत्ताप विहरs, सीयालत्ताप नाम एगे निक्वमेत्ता सीहत्तार विहरद्द, सीयालत्ताए नाम पगे निक्खमेत्ता सीयालत्ताप uिres ( सू० ३२७) |
' चत्तारी'त्यादि, आत्मानं विभर्त्ति - पुष्णातीत्यामम्भरिः, प्राकृतत्वादायंभरे, तथा परं विभर्तीति परम्भरिः इति, प्राकृतत्वात् परं भरे इति, तत्र प्रथमभङ्गे स्वार्थकारक एव, स च जिनकल्पिको, द्वितीयः पराकारक एव, स च भगवानर्हन्, तस्य विवक्षया सकलस्वार्थसमाप्तेः परप्रधानप्रयोजनप्रापणप्रवणप्राणितत्वात् तृतीये स्वपरार्थकारी, सच स्थविरकल्पिको विहितानुष्ठानतः स्वार्थ करत्वाद्विधिवत् सिद्धान्तदेशनातच परार्थसम्पादकत्वात्, चतुर्थे तृभयानुपकारी, स च मुग्धमतिः कश्विद्यथाच्छन्दो वेति, एवं लौकिक पुरुषोऽपि योजनीयः । उभयानुपकारी च दुर्गत एव स्यादिति दुर्गतसूत्रं - दुर्गतो- दरिद्रः, पूर्व धनविहीनत्वात् ज्ञानादिरत्नविहीनत्वाद्वा, पश्चादपि तथैव, अथवा दुर्गतो द्रव्यतः पुनर्दुर्गतो भावत इति प्रथमः एवमन्ये त्रयो, नवरं सुगतो द्रव्यतो धनी भावतो ज्ञानादिगुणवानिति । दुर्गतः कोऽपि व्रती स्यादिति दुर्बतसूत्रं - दुर्गतो - दरिद्रः पूर्व धनविहीनत्वात् दुर्वतः - असम्यस्वतोऽथवा दुर्व्ययः - आयनिरपेक्षव्ययः कुस्थानव्ययो वेत्येकः, अन्यो दुर्गतः सन् सुव्रतो - निरतिचारनियमः सुव्ययो वौचित्यप्रवृत्तेरिति, इतरौ प्रतीती। दुर्गतस्तथैव दुष्प्रत्यानन्द इति - उपकृतेन कृतमुपकारं यो नाभिमन्यते यस्तु मन्यते तं स सुप्रत्यानन्द इति । दुर्गतो दरिद्रः सन दुर्गतिं गमिष्यतीति दुर्गुतिगामीत्येवमन्येऽपि, नवरं सुगतिं
सू० ३२७ ।
॥३६४॥
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सू०३२७
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
गमिष्यतीति सुगतिगामी, मुगतः-ईश्वर इत्यर्थः। दुर्गतस्तथैव दुर्गतिं गतो यात्राजनकुपिततन्मारणप्रवृत्तमकवत् , एवमन्ये त्रयः। तम इव तमः पूर्वमज्ञानरूपत्वादप्रकाशत्वाद्वा पश्चादपि तम एवेत्येकः, अन्यस्तु तमः पूर्व पश्चाज्ज्योतिरिव ज्योतिः उपार्जितज्ञानत्वात् प्रसिद्धिप्राप्तत्वाद्वा, शेपौ मुज्ञातौ। तमः-कुकर्मकारितया मलिनस्वभावस्तमोऽज्ञानं बलं-सामर्थ्य यस्य स तमोऽन्धकारं वा तदेव तत्र वा बलं यस्य स तथा, असदाचारवानज्ञानी रात्रिचरो वा चं.रादिरित्येकः, तथा तमस्तथैव ज्योतिर्ज्ञानं बलं यस्य आदित्यादिप्रकाशो वा ज्योतिस्तदेव तत्र वा बलं यस्य स तथा. अयं चासदाचारो ज्ञानवान् दिनचारी वाऽचौरादिरिति द्वितीयो, ज्योतिः-सत्कर्मकारितयोज्ज्वलनस्वभावः, तमोबलस्तथैव, अयं च सदाचारवान् अज्ञानी कारणान्तराद्वा रात्रिचर इति तृतीयः, चतुर्थः मुज्ञानः, अयं च सदाचारवान् ज्ञानी दिनचरो वेति । तथा तमस्तथैव 'तमबलपज्जलणे'त्ति तमो-मिथ्याज्ञानमन्धकारं वा तदेव वलं तत्राऽथवा तमस्युक्तरूपे बले च सामर्थ्य प्ररज्यते-रति करोतीति तमोबलप्ररञ्जनः, एवं ज्योतिर्बलारजनः, ज्योतिः -सम्यग्ज्ञानमादित्यप्रकाशो वेति, एवमितरावपि, इहापि त एवं पूर्वसूत्रोक्ताः पुरुषविशेषाः प्ररजनविशेषिताः द्रष्टव्याः। 'परिण्णाय'त्ति, परिज्ञातानि-ज्ञपरिज्ञया स्वरूपतोऽवगतानि प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहतानि-कर्माणि-- कृष्यादीनि येन स परिज्ञातकर्मा, नो-न च परिज्ञाताः संज्ञा:-आहारसंज्ञाद्या येन सोऽपरिज्ञातसंज्ञः अभावितावस्थः प्रबजितः श्रावको बेत्येकः, परिज्ञातसंज्ञः सद्भावनाभावितत्वान्न परिज्ञातका कृष्यायनिवृत्तः श्रावक इति द्वितीयः, तृतीयः साधुश्चतुर्थोऽसंयत इति । परिज्ञातका -सावधकरणकारणानुमतिनिवृत्तः कृष्यादिनिवृत्तो वा न परिज्ञातगृहावासोऽप्रबजित इत्येकः, अन्यस्तु परिज्ञातगृहवासो न त्यक्तारम्भो दुष्प्रवजित इति द्वितीयः, तृतीयः साधुश्च
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सू० ३२७
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३६६॥
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तुर्थोऽसंयतः, त्यक्तसंज्ञो विशिष्टगुणस्थानकत्वादत्यक्तगृहवासो गृहस्थत्वादेकः, अन्यस्तु परिहतगृहवासो यतिवादभावितत्वान्न परिहृतसंज्ञः, अन्य उभयथा अन्यो नोभयथेति । इहैव जन्मन्यर्थः-प्रयोजनं भोगसुखादि आस्था वाइदमेव साध्विति बुद्धिर्यस्य स इहार्थः इहास्थो वा भोगपुरुष इहलोकप्रतिबद्धो वा, परत्रैव जन्मान्तरे अर्थ आस्था वा यस्य स परार्थः परास्थो वा साधुर्बालतपस्वी वा, इह परत्र च यस्यार्थ आस्था वा स सुश्रावकः, उभयप्रतिबद्धो वा उभयप्रतिषेधवान् कालशौकरिकादिमुढो वेति, अथवा इहैव विवक्षिते ग्रामादौ तिष्ठतीति इहस्थस्तत्प्रतिबन्धान्न परस्थोऽन्यस्तु परत्र प्रतिबन्धात् परस्थोऽन्यस्तू भयस्थोऽन्यः सर्वाऽप्रतिवद्धत्वादनुभयस्थोभावसाधुरिति । एकेनेति श्रुतेन एकः कश्चिद्वर्द्धते एकेनेति सम्यग्दर्शनेन हीयते, तथोक्तं-"जह जह वहुस्सुओ संमओ य, सीसगणसंपरिबुडो य । अविणिच्छिओ य समये, तह तह सिद्धंतपडिणीओ ॥१॥" इत्येकस्तथा एकेन श्रुतेनैवान्यो वर्द्धते द्वाभ्यां सम्बग्दर्शनविनयाभ्यां हीयते इति द्वितीयः, द्वाभ्यां श्रुतानुष्ठानाभ्यामन्यो वर्द्धते एकेन सम्यग्दर्शनेन हीयते इति तृतीयः, द्वाभ्यां श्रुतानुष्ठानाभ्यामन्यो वर्द्धते द्वाभ्यां सम्यग्दर्शनविनयाभ्यां हीयत इति चतुर्थः, अथवा ज्ञानेन वर्द्धते रागेण हीयते इत्येकः, अन्यो ज्ञानेन वर्द्धते रागद्वेषाभ्यां हीयते इति द्वितीयः, अन्यो ज्ञानसंयमाभ्यां वर्द्धते रागेण हीयते इति तृतीयः, अन्यो ज्ञानसंयमाभ्यां वर्द्धते रागद्वेषाभ्यां हीयत इति चतुर्थः । प्रकन्थकाः पाठान्तरेण कन्थका वा-अश्वविशेषाः, आकीर्णो-व्याप्तो जवादिगुणैः पूर्व पश्चादपि तथैव, अन्यस्त्वाकीर्णः पूर्व पश्चात्खलुको-गलिरविनीत इति. अन्य पूर्व खलङ्कः पश्चादाकीर्णो गुणवान् , चतुर्थः पूर्व पश्चादपि खलुङ्क एवेति । आकी गुणवान आकीर्णतया-गुणवत्तया विनयवेगादिभिरित्यर्थः, वहति-प्रवर्तते विह
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सू० ३२७-३२९।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३६७॥
रतीति पाठान्तरम् , आकीर्णोऽन्य आरोहकदोषेण खलङ्कतया-गलितया वहति, अन्यस्तु खलुकः आरोहकगुणादाकीर्णतया वहति, चतुर्थः प्रतीतः, सूत्रद्वयेऽपि पुरुषा दाान्तिका योज्याः, सूत्रे तु क्वचिन्नोक्ताः विचित्रत्वासूत्रगतेः । 'चत्तारित्ति मुगमानि, ५ जाति ४ कुल ३ बल २ रूप १ जयपदेषु दशभिकिसंयोगैर्दशैव प्रकन्थकदृष्टान्तचतुर्भङ्गीसूत्राणि, प्रत्येकं तान्येवानुसरन्ति सन्ति दश दार्शन्तिकपुरुषसूत्राणि भवन्तीति, नवरं जयः-पराभिभव इति, सिंहतया-ऊर्जवृत्त्या निष्क्रान्तो गृहवासात् तथैव च विहरति उद्यतविहारेणेति, शृगालतया-दीनवृत्त्येति । पूर्व पुरुषाणामश्वादिभिर्जात्यादिगुणेन समतोकाऽधुनाऽप्रतिष्ठानादीनां तामेव प्रमाणत आह
__ चत्तारि लोगे समा पं० तं०-अपतिट्ठाणे णरए १ जंवूद्दीवे दीवे २ पालए जाणविमाणे ३ सयट्टसिद्ध महाविमाणे ४ चत्तारि लोए समा सपक्खिं सपडिदिसि पं० २०-सीमंतए नरप १ समयखेत्ते २ उडू विमाणे ३ ईसीपभारा पुढवी ४ (सू० ३२८)। उइढलोए णं चत्तारि विसरीरा पं० त०-पुढविकाइया आउ० वणस्सइ० ओराला तसा पाणा, अहो लोगे णं चत्तारि बिसरीरा पं० त०-एवं चेव, एवं तिरियलोगेवि ४ (सू० ३२९)।
'चत्तारी'त्यादि सूत्रद्वयं मुगमं, किन्तु अप्रतिष्ठानो नरकावासः सप्तम्यां नरकपृथिव्यां, स च योजनलक्ष, पालक पालकदेवनिर्मितं सौधर्मेन्द्रराबन्धि यानं च तद्विमानं च यानाय वा-गमनाय विमानं यानविमान, न तु शाश्वतमिति, सर्वार्थसिद्धं विमान । चत्वारो लोके समा भवन्ति, कथमित्याह- 'सपक्खिं सपडिदिसिं'ति समानाः पक्षाः-पार्धा दिशो यस्मिन् तत्सपक्षमिहेकारः प्राकृतत्वेन, तथा समानाः प्रतिदिशो-विदिशो यस्मिन् तत् सप्रतिदिक तद् यथा भवत्येवं समा भवन्तीति, सदृशाः पक्षैरिति सपक्षमित्यव्ययीभावो वेति, पृथुसङ्कीर्णयाहि द्रव्य
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सू०३२९-३३४ ।
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३६८॥
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योरधउपरिविभागेन स्थितयोस्तुल्यमानयोर्वा विषमताव्यवस्थितयोन समा दिशो विदिशश्च भवतीति अत्यन्तसमताख्यापनार्थमिदं विशेषणद्वयमिति, सीमन्तकः प्रथमपृथिव्यां प्रथमप्रस्तटे पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाण इति, समय: कालस्त दुपलक्षित क्षेत्र समयक्षेत्र मनुष्यक्षेत्रमित्यर्थः, उडुविमान सौधर्मे प्रथमप्रस्तट एवेति, ईपद्-अल्पो रत्नप्रभावपेक्षया प्राग्भारः- उच्छ्यादिलक्षणो यस्याः सेपत्याग्भारा । ईपत्प्राग्भारा ऊर्ध्व-ऊलोके भवतीति ऊर्चलोकप्रस्तावादिदमाह-'उड्ढे'त्ति, द्वे शरीरे येषां ते द्विशरीराः एक पृथिवीकायिकादिशरीरमेव द्वितीयं जन्मान्तरभावि मनुष्यशरीरं ततस्तृतीय केषाञ्चिन्न भवत्यनन्तरमेव सिद्धिगम नान् , 'ओराला तस'ति उदाराः-स्थूलाः द्वीन्द्रियादयो न तु सूक्ष्मास्तेजोवायुलक्षणाः, तेषामनन्तरभवे मनुष्यत्वाप्राप्त्या सिद्विर्न भवतीति शरीरान्तरसम्भवात् , तथोदारत्रसग्रहणेन द्वीन्द्रियादिप्रतिपादनेऽपीह द्विशरीरतया पञ्चेन्द्रिया एव ग्राद्याः, विकलेन्द्रियाणामनन्तरभवे सिद्धेरभावात् , उक्तञ्च-“विगला लभेज विरई, ण हु किंचि लभेज्ज मुहुमतसा ति" । लोकसम्बन्धायाते अधोलोकतिर्यग्लोकयोरतिदेशसूत्रे, गतार्थ इति । तिर्यग्लोकाधिकारात् तत्सम्भवं संयतादिपुरुषं भेदेराह___चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-हिरिसत्ते हिरिमणसत्ते चलसत्ते थिरसते (सू० ३३०) । चत्तारि स(सि)जपडिमाओ पं०, चत्तारि वत्थपडिमाओ पं०, च सारि पायपडिमाओ पं०, चत्तारि ठाणपडिमाओ पं० (सू०३३१) । चत्तारि सरीरगा जोवफुडा पं० २०-बेउविए आहारए तेयए कम्मए, चत्तारि सरीरगा कम्मम्मीसगा पं० तं०-ओरालिए, वेउचिए आहारए तेयए (सू० ३३२)। चउहि अस्थिकापहि लोगे फुडे पं० २०-धम्मत्थिकापणं अधम्मस्थिकारणं जीवत्थिकारणं पुग्गलत्थिकारण, चउहि बायरकापहि उववजमाणेहिं लोगे फुडे पं०२०-पुढविकाइपहि आउ० बाउ० वणस्सइकाइपहि (सू० ३३३) । चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला पं० तं०-धम्मस्थिकाए अधम्मत्थिकाए लोगागासे एगजीवे (मू० ३३४) ।
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श्रीस्थानान
सू० ३३०-३३४।
दीपिका वृत्तिः । ॥३६९॥
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'चत्तारी'त्यादि, हिया-लज्जया सत्त्वं-परीपहादिसहने रणाङ्गणे वा अवष्टम्भो यस्य स हीसत्त्वः, तथा ह्रिया-हसिष्यन्ति मामुत्तमकुलजात जना इति लज्जया मनस्येव न काये रोमहर्षकम्पादिभयलिङ्गगोपदर्शनात् सत्त्व यस्य स हीमनःसत्त्वः, चलमस्थिर परीषहादिसम्पाते ध्वंसात् सत्त्वं यस्य स चलसत्त्वः, एतद्विपर्ययात् स्थिरसत्वः । स्थिरसत्त्वोऽनन्तरमुक्तः, स चाभिग्रहान् प्रतिपद्य पालयतीति तद्दर्शनाय सूत्रचतुष्टयमिदं-'चत्तारि सेज'त्ति, सुगम, नवरं शय्यते यस्यां सा शय्या-संस्तारकः तस्याः प्रतिमा-अभिग्रहाः शय्याप्रतिमाः, तत्रोदिष्ट फलकादीनामन्यतमत् ग्रहीष्यामि नेतरदित्येका, यदेव प्रागुद्दिष्ट तदेव यदि द्रक्ष्यामि तदा तदेव ग्रहीष्यामि नान्यदिति द्वितीया, तदपि यदि तस्यैव शय्यातरस्य गृहे भवति ततो ग्रहीष्यामि नान्यत् (त) आनीय तत्र शयिष्ये इति तृतीया, तदपि फलकादिक यदि यथासंस्तृतमेवास्ते ततो ग्रहीष्यामि नान्नथेति चतुर्थी, आसु च प्रतिमास्वाद्ययोः प्रतिमयोर्गच्छनिर्गतानामग्रहः उत्तरयोरन्यतरस्यामभिग्रहः, गच्छान्तर्गतानां तु चतस्रोऽपि कल्पन्त इति. वनप्रतिमा -वस्त्रग्रहणविपये प्रतिज्ञाः, कार्पासिकादीत्येवमुद्दिष्टं वस्त्र याचिष्ये इति प्रथमा, तथा प्रेक्षित वस्त्रं याचिष्ये नापरमिति द्वितीया, तथाऽऽन्तरपरिभोगेनोत्तरीयपरिभोगेन वा शय्यातरेण परिभुक्तप्राय वस्त्र ग्रहीष्यामीति तृतीया, तथा तदेवोत्सृष्टधर्मकं ग्रहीष्यामीति चतुर्थी, पात्रप्रतिमा उद्दिष्टं दारुपात्रादि याचिष्ये १, तथा प्रेक्षित २ तथा दातुः स्वाङ्गिक परिभुक्तप्राय द्वित्रेषु वा पात्रेषु पर्यायेण परिभुज्यमान पात्रं याचिष्ये इति तृतीया, उज्झितध
मकमिति चतुर्थी, स्थान-कायोत्सर्गाद्यर्थ आश्रयः तत्र प्रतिमाः स्थानप्रतिमाः, तत्र कस्यचिद् भिक्षोरेवंभूतोऽभिग्रहो भवति यथा--अहमचित्त स्थानमुपाश्रयिष्यामि तत्र चाकुञ्चनप्रसारणादिकां क्रियां करिष्ये, किञ्चिदचित्त
D
25- .4.०००००००००००००००००००0000000000000000000000000000000000
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सू० ३३०-३३४।
श्रीस्थानात
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३७०॥
6.००००००००००000000000000000000000000०००००००००००००००००
कुड्यादिकमवलम्बयिष्ये, तथा तत्रैव स्तोकपादविहरण समाश्रयिष्यामीति प्रथमा प्रतिज्ञा, द्वितीया त्वाकुञ्चनप्रसारणादिक्रियामवलम्बन च करिष्ये न पादविहरणमिति, तृतीया त्वाकुञ्चनप्रसारणमेव नावलम्बनपादविहरणे इति, चतुर्थी पुनर्यत्र त्रयमपि न विधत्ते । अनन्तरं शरीरचेष्टानिरोध उक्त इति शरीरप्रस्तावादिदं सूत्रद्वयं-'चत्तारित्ति व्यक्त, किन्तु जीवेन स्पृष्टानि-व्याप्तानि जीवस्पृष्टानि, जीवेन हि स्पृष्टान्येव वैक्रियादीनि भवन्ति, न तु यथा औदारिक जीवमुक्तमपि भवति मृतावस्थायां तथैतानीति, 'कम्मम्मीसग'त्ति कार्मणेन शरीरेणोन्मिश्रकाणि न केवलानि यथौदारिकादीनि त्रीणि वैक्रियादिभिरमिश्रकाण्यपि भवन्ति नैवं कार्मणेनेति भावः । शरीराणि कार्मणेनोन्मिश्रकाणीत्युक्तमुन्मिश्राणि च स्पृष्टान्येवेति स्पृष्टप्रस्तावात् सूत्रद्वयं-'चउहि"ति गतार्थ, केवल 'कुडे'त्ति स्पृष्टः - प्रतिप्रदेश व्याप्तः, सूक्ष्माणां पञ्चानामपि सर्वलोके उत्पादात् बादरतैजसानां तु सर्वलोकादुद्धृत्य मनुष्यक्षेत्रो ऋजुगत्या वक्रगत्या वोत्पद्यमानानां द्वयोरूर्ध्वकपाटयोरेव वादरतेजस्त्वव्यपदेशस्येष्ठत्वाच्च 'चडहिं बायरकाएहि' इत्युक्त, बादरा हि पृथिव्यम्युवायुनस्पतयः सर्वलोकादुवृत्य पृथिव्यादि-घनोदध्यादि-धनवातवलयादि-घनोदध्यादिषु यथास्वमुत्पादस्थानेष्वन्यतरगत्योत्पद्यमाना अपर्याप्तकावस्थायामतिबहुत्वात् सर्वलोक प्रत्येक प्रत्येक स्पृशन्ति, पर्याप्तास्त्वेते बादरतेजस्कायिकास्त्रसाश्च लोकासङ्ख्येयभागमेव स्पृशन्तीति, उक्तञ्च प्रज्ञापनासूत्रे-"एत्थ ण वायरपुढ विकाइयाण पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता" इत्यादि, चतुर्भिर्लोकः स्पृष्ट इत्युक्तमिति लोकप्रस्तावात्तस्य धर्मास्तिकायादीनां चान्योन्यं प्रदेशतः समतामाह-'चत्तारी'त्यादि कण्ठय, नवरं प्रदेशाग्रेण प्रदेशप्रमाणेनेति तुल्याः-समाः सर्वेषामेपामसङ्ख्यातप्रदेशत्वात् , 'लोयागासे'त्ति आकाशस्यानन्तप्रदेशत्वेन धर्मास्तिकायादिभिः सहातुल्यताप्रसक्तेर्लोकग्रहणमिति ।
00000000000000000000000000000000000000000000000000
mmmmmmmmmm mmmmm
॥३७॥
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सू० ३३५-३३७
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
0000000000000००००
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'एगजीवेत्ति सर्वजीवानामनन्तप्रदेशत्वाद्विवक्षिततुल्यताऽभावप्रसङ्गादेकग्रहणमिति । पूर्व पृथिव्यादिभिः स्पृष्टो लोक इत्युक्तमिति पृथिव्यादिप्रस्तावादिदमाह
चउण्हमेग सरीर णो पस्स भवइ, तं-पुढविकाइयाण आउ० तेउ० वणस्सइकाइयाण (सू० ३३५) । चत्तारि इंदियत्था पुट्ठा वेदें ति, त-सोइ दियत्थे घाणिदियत्थे जिभिदियत्थे फासिदियत्थे (सू० ३३६) । चउहि ठाणेहि जीवा य पुग्गला य णो संचाएंति रहिया लोगता गमणताए, त०-गतिअभावेण निरुवग्गहताए लुक्ख. ताए लोगाणुभावेण (सू० ३३७) ।।
'चउण्ह'मित्यादि कण्ठ्य, किन्तु 'णो पस्सं'ति चक्षुषा नो दृश्यमतिसूक्ष्मत्वात , कचित 'नो सुपस्स"ति पाठः, तत्र न सुखदृश्य-न चक्षुषः प्रत्यक्षदृश्यमनुमानादिभिस्तु दृश्यमेवेत्यर्थः, बादरवायूनां तथा सूक्ष्माणां पश्चानामपि तदेकमनेक वा अदृश्यमिति चतुर्णामित्युक्त, वनस्पतय इह साधारणा एव ग्राह्याः, प्रत्येकशरीरस्यैकस्यापि दृश्यत्वादिति । पृथिव्यादीनां शरीरस्य चक्षुरिन्द्रियाविषयत्वमुक्तमितीन्द्रियविषयप्रस्तावादिदमाह-'चत्तारि इंदिये'त्यादि, स्पष्ट', किन्तु इन्द्रियैरयन्ते-अधिगम्यन्त इतीन्द्रियार्थाः-शब्दादयः, 'पुठ्ठ'त्ति स्पृष्टाः-इन्द्रियसम्बद्धा 'वेए तित्ति वेद्यन्ते आत्मना ज्ञायन्ते, नयनमनोवर्जानां श्रोत्रादीनां प्राप्तार्थपरिच्छेदस्वभावत्वादिति, 'पुढे सुणेइ सद्दे'त्ति वचनात् , अनन्तर जीवपुद्गलयोरिन्द्रियद्वारेण ग्राहकग्राह्यभाव उक्तोऽधुना तयोर्गतिधर्म चिन्तयन्नाह-'चउही'त्यादि, व्यक्त, परमन्येषां गतिरेव नास्तीति 'जीवा य पुग्गला य' इत्युक्त, 'नो संचाएति' न शक्नुवन्ति नाल 'बहिय'त्ति बहिस्ताल्लोकान्तात् अलोके इत्यर्थः, गमनतायै-गमनाय गन्तुमित्यर्थः, गत्यभावेन-लोकान्तात् परतस्तेषां गतिल
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सू०३३८
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३७२॥
००००००००००000000000000000000०००००००००००००००००००००००००..
क्षणस्वभागभावाद् अधो दीपशिखावत् , तथा निरुपग्रहतया-धर्मास्ति जायाभावेन तज्जनितगत्युपष्टम्भाभावात् गन्न्यादिरहितपगुवत् , तथा रूक्षतया सिकतामुष्टिवत् , लोकान्तेषु हि पुद्गला रूक्षतया तथा परिणमन्ति यथा| परतो गमनाय नालं, कर्मपुद्गलानां तथाभावे जीवा अपि, सिद्धास्तु निरुपग्रहतयैवेति, लोकानुभावेन-लोकमदिया विषयक्षेत्रादन्यत्र मार्तण्डमण्डलवदिति । अनन्तरोक्ता अर्था उक्तवन्निदर्शनतः प्रायः प्राणिनां प्रतीतिपथपातिनो भवन्तीति निदर्शनभेदप्रतिपादनाय पञ्चसूत्री
चडबिहे गाए पं० २०-आहरणे आहरणतद्देसे आहरणतद्दोसे उवण्णासोवणए १, आहरणे वउविहे पं. त-अवाए उवाए ठवणाकम्मे पडुप्पण्णविणासी २, आहरणतद्देसे चउब्धिहे पं० २०-अणुसिठ्ठी उयालंभे पुच्छा णिस्सावयणे ३, आहरणतद्दोसे चउविहे पं० त० अधम्मज्जुए पडिलोमे अंतोवणीए दुरोवणीए ४, उवण्णासोवणए चब्बिहे पं० त०-तब्वत्थुए तदण्णवत्थुए पडिनिभे हेऊ ५, हेऊ चउबिहे ५० त०-जावए थावर सए लूसए, अहवा हेऊ चउविहे पतं-पच्चक्खे अणुमाणे ओवम्मे (उवमे), आगमे, अहवा हेऊ चउब्धिहे पं०२०-अस्थित्त अस्थि सो हेऊ १, अत्थि तणत्थि सो हेऊ२, णत्थि त अस्थि सो हेऊ ३, णस्थि तणस्थि सो हेऊ ४ (सू० ३३८)।
तत्र ज्ञायते अस्मिन् सति दान्तिकोऽर्थ इति अधिकरणे क्तप्रत्ययोपादानात् ज्ञात-दृष्टान्तः, साधनसद्भावे साध्यस्यावश्यंभावः साध्याभावे वा साधनस्यावश्यमभाव इत्युपदर्शनलक्षणो यत्र दृष्टान्तः, स साधतिरो द्विधेति, अथवा आख्यानकरूपं ज्ञातं, तच्च चरितकल्पितभेदाद् द्विधा तत्र चरितं यथा निदान दुःखाय ब्रह्मदत्तस्येव, कल्पितं यथा प्रमादवतामनित्यं यौवनादीति निदर्शनीय, यथा पाण्डुपत्रेण किशलयानां देशितं, तथाहेि
.0000000000000000000000000000000000000000000000000०.....
॥३७२॥
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सू०३३८
श्रीस्थानाङ्ग सूत्र
दीपिका
वृत्तिः
।
॥३७॥
"जह तुम्भे तह अम्हे, तुम्भे विय होहिहा जहा अम्हे । अप्पाहेइ पडतं, पंडुयपत्तं किसलयाणं ॥॥" ज्ञातमुपाधिभेदात् चतुर्विधं दर्शयति-तत्र-आ-अभिविधिना हियते-प्रतीतौ नीयतेऽप्रतीतोऽर्थोऽनेनेत्याहरणं, यत्र समुदित एव दान्तिकोऽर्थ उपनीयते यथा पापं दुःखाय ब्रह्मदत्तस्येवेति, तथा तस्य-आहरणार्थस्य देशस्तद्देशः स चासावुपचारादाहरणं चेति प्राकृतत्वादाहरणशब्दस्य पूर्वनिपाते आहरणतद्देश इति, भावार्थश्चात्र-यत्र दृष्टान्तार्थदेशेनैव दान्तिकार्थस्योपनयनं क्रियते तत्तद्देशोदाहरणमिति, यथा चन्द्र इव मुखमस्या इति, इह हि चन्द्र सौम्यत्वलक्षणेनैव देशेन मुखस्योपनयनं नानिष्टेन नयननासावर्जितत्वकलङ्कादिनेति, तथा-तस्यैवोदाहरणस्य सम्बन्धी साक्षात् प्रसङ्गसम्पन्नो वा दोषः तद्दोषः स चासौ धर्मेण धम्मिण उपचारादाहरणं चेति प्राकृतत्वेन पूर्वनिपातादाहरणतद्दोष इति । तथा वादिना अभिमतार्थसाधनाय कृते वस्तूपन्यासे तद्विघटनाय यः प्रतिवादिना विरुद्धार्थोपनयः क्रियते पर्यनुयोगोपन्यासे वा य उत्तरोपनयः स उपन्यासोपनयः, उत्तररूपमुपपत्तिमात्रमपि ज्ञातभेदो ज्ञातहेतुत्वादिति, यथा अकर्ता-ऽऽत्मा अमर्त्तत्वादाकाशवदित्युक्ते अन्य आह-आकाशवदभोक्तेत्यपि प्राप्तमित्यादि वृत्तौ । 'अवाए' ति अपायोऽनर्थः स यत्र द्रव्यादिष्वभिधीयते यथैतेषु द्रव्यादिविशेषेष्वस्त्यपायो विवक्षित द्रव्यादिविशेषेविव, हेयता वाऽस्य यत्राभिधीयते तदाहरणमपाय इति, तथा 'उवाए' त्ति उपाय:-उपेयं प्रति पुरुषव्यापारादिका साधनसानग्री स यत्र द्रव्यादावुपेयेऽस्तीत्यभिधीयते यथैतेषु द्रव्यादिविशेषेषु साधनीयेष्वस्त्युपायो विवक्षितद्रव्यादिविशेषवत् , उपादेयता वाऽस्य यत्राभिधीयते तदाहरणमुपाय इति, सोऽपि द्रव्यादिभिश्चतुर्वेति, तत्र द्रव्यस्य सुवर्णादेः प्रासुकोदकादेर्वा द्रव्यमेव वा उपायो द्रव्योपायः, एतत्साधनमेतदुपादेयतासाधनं वाऽऽहरणमपि तथोच्यते
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॥३७३३॥
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सू०३
३८।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
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तत्प्रयोगश्चैवम्-अस्ति सुवर्णादिष्पायः उपायेनैव वा सुवर्णादौ प्रवर्तितव्यं, तथाविधधातुवादसिद्धादिवदिति, एवं क्षेत्रोपाय:-क्षेत्रपरिकर्मणोपायो यथा अस्त्यस्य क्षेत्रस्य क्षेत्रीकरणोपायो लाङ्गलादिस्तथाविधसाधुव्यापारो वा, एवं कालोपायः-कालज्ञानोपायो, यथाऽस्ति कालस्य ज्ञाने उपायो धान्यादेवि, जानीहि वा कालं घटिकाच्छायादिनोपायेन तथाभूतगणितज्ञवदिति, एवं भावोपायो यथा भावज्ञाने उपायोऽस्ति भावं वा उपायतो जानीहि, बृहत्कुमारिकाकथाकथनेन विज्ञातचौरादिभावाऽभयकुमारवदिति, तथाहि-किल राजगृहनगरस्वामिनः श्रेणिकराजस्य पुत्रोऽभयकुमाराभिधानो देवताप्रसादोपलब्धसर्व कफलादिसमृद्धारामस्याम्रफलानामकालाम्रफलदोहदबद्भार्यादोहदपूरणार्थ चाण्डालचौरेणापहरणे कृते चौरपरिज्ञानार्थ नाट्यदर्शननिमित्तमिलितबहुजनमध्ये बृहत्कुमारिकाकथामचीकथत् । तथाहि-काचित् बृहत्कुमारिका वाञ्छितवरलाभाय कामदेवपूजार्थमारामे पुष्पाणि चोरयन्ती आरामपतिना गृहीता सद्भावकथने विवाहितया पत्या अपरिभुक्तया मत्पार्श्वे समागन्तव्यमित्यभ्युपगम कारयित्वा मुक्ता, ततः कदाचिद्विवाहिता सती पतिमापृच्छय रात्रावारामपतिपार्श्व गच्छन्ती चौरराक्षसाभ्यां गृहीता सद्भावकथने प्रतिनिवृत्तया भवत्पाचे आगन्तव्यमितिकृताभ्युपगमा मुक्ताऽऽरामे गता आरामिकेण सत्यप्रतिज्ञेत्यखाण्डितशीला विसर्जिता, इतराभ्यामपि तथैव विसर्जिता पतिसमीपमागतेति । ततो भो लोकाः ! पत्यादीनां मध्ये को दुष्करकारक इति चासौ पप्रच्छ, तत ईर्ष्यालुप्रभृतयः पत्यादीन् दुष्करकारकत्वेनाभिदधुः, चौरचाण्डालस्तु चौरानिति, ततोऽसावनेनोपायेन भावमुपलक्ष्य चौर इति कृत्वा तं बन्धयामासेति । अत्रापि गाथे-"एमेव चउविगप्पो, होइ उवाओऽवि तत्थ दव्वम्मि । धाउन्याओ पढमो, नंगलकुलिएहिं खेतं तु ॥१॥ कालोऽवि नालियाई हिं, होइ भावंमि पंडिओ
....+0000००००००००००००००००००००000000000000000000000000
॥३७४॥
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000000004
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श्रीस्थानाङ्ग
मूत्रदीपिका वृत्तिः ।
सू०३३८
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अभओ। चोरस्स कए णट्टि य, वुढकुमारि परिकहिंसु ॥२॥"त्ति । 'ठवणाकम्मे' ति स्थापन प्रतिष्ठापनं स्थापना, तस्याः कर्म-करणं स्थापनाकर्म, येन ज्ञातेन परमतं षयित्वा स्वमतस्थापना क्रियते तत्स्थापनाकम्र्मेति भावः, तच्च द्वितीयाङ्गे द्वितीये श्रुतस्कन्धे प्रथमाध्ययनं पुण्डरीकाख्य, तत्र ह्युक्तमस्ति-काचित् पुष्करिणी कर्दमप्रचुरजला तन्मध्ये महत्पुण्डरीकं तदुद्धरणार्थ चतसृभ्यो दिग्भ्यश्चत्वारः पुरुषाः सकईममार्गः प्रवेष्टुमारब्धाः, ते चाकृततदुद्धरणा एव पके निमग्नाः, अन्यस्तु तटस्थोऽसंस्पृष्टकर्दम एवामोधवचनतया तदुद्धृतवानिति ज्ञातम् , उपनयश्चायमत्र-कईमस्थानीया विषयाः, पुण्डरीकं राजादिभव्यपुरुषः, चत्वारः पुरुषाः परतीर्थिकाः, पञ्चमः पुरुषः साधुः, अमोघवचनं धर्मदेशना, पुष्करिणी संसारः, तदुद्धारो निर्वाणमिति । 'पडपन्नविणासि'त्ति प्रत्युत्पन्नस्य-तत्कालोत्पन्नवस्तुनो विनाशोऽभिधेयतया यत्रास्ति तत्प्रत्युत्पन्नविनाशीति, यथा केनापि वणिजा दुहित्रादिस्त्रीपरिवारशीलविनाशरक्षार्थ तदासक्तिनिमित्तं स्वगृहासन्नराजगान्धर्विकगुणनिकायाः स्वगृहे कुलदेवतानिवेशनाद् गुणनिकाकाले तस्या देवताया अग्रतः आतोद्यनादव्याजेन राजापराधपरिहारेण विनाशः कृतः, एवं गुरुणा शिष्यान् कचिद् वस्तुन्यध्युपपद्यमानानुपलभ्य तस्य तदासक्तिनिमित्तत्वमुपहन्तव्यमित्येवं प्रत्युत्पन्नविनाशनीयताज्ञापकत्वात् प्रत्युत्पन्नविनाशिज्ञातता गान्धर्विकाख्यानकस्यावगन्तव्येति । अथाहरणतद्देशो व्याख्यायते स च चतुर्दा, 'अणुसट्ठी'त्ति, अनुशासनमनुशास्तिः-सद्गुणोत्कीर्तनेनोपबृहणं सा विधेयेति यत्रोपदिश्यते साऽनुशास्तिः, यथा गुणवन्तोऽनुशासनीया भवन्ति, यथा साधुलोचनपतितरजःकणापनयनेन लोकसम्भावितशीलकलङ्का तत्क्षालनायाराधित देवताकृतप्रातिहार्या चालनीव्यवस्थापितोदकाच्छोटनोदघाटितचम्पा
...०००००००००००००००००००००००००००००००000000000000000000000000
॥३७५॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
दीपिकावृत्तिः
॥ ३७६ ॥
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स
गोपुरत्रया सुभद्रा अहो शीलवतीति महाजनेनानुशासितेति, उक्तं च- " आहरणं तदेसे, चउड़ा अणुसट्ठि तह उबालंभो । पुच्छा निस्सावयणं, होइ सुभद्दाऽणुसट्ठीए ॥ २ ॥ साहुकारपुरोगं, जह सा अणुसासिया पुरजणेणं । याचा वि, एव जयंतेववृज्जा ||२||" त्ति, इह च तथाविधवैयावृत्त्यकरणादिनाप्युपनयः सम्भवति तत्त्यागेन च महाजनानुशास्तिमात्रेणोपनयः कृत इत्याहरणतदशतेति, तथोपालम्भनमुपालम्भो - भङ्गयन्तरेणानुशासनमेव यत्राभिधीयते स उपालम्भो यथा क्वचिदपराधवृत्तयो विनेया उपालम्भनीयाः, यथा महावीरसमवसरणे | सविमानागतचन्द्रादित्योद्योतेन कालविभागमजानती मृगावती साध्वी स्थिता, तद्गमनेऽतिसम्भ्रान्ता चन्दनासमीपे गता तया चोपालब्धा - अयुक्तमिदं भवादृशीनामुत्तमकुलजातानामित्यादि, तथा पृच्छा-प्रश्नः किं कथं केन कृतमित्यादि, सा यत्र विधेयतयोपदिश्यते सा पृच्छा, यथा प्रच्छनीया ज्ञानिनो निर्णयार्थिभिर्यथा भगवान् कणिकेन पृष्टः तथाहि -किल कोणिकः श्रेणिकराजपुत्रः श्ररुणं भगवन्तं महावीरं पप्रच्छ, यथा - भदन्त ! चक्रवर्तिनोऽपरित्यक्तकामा मृताः क्वोत्पद्यन्ते ? भगवताऽभिहितं - सप्तमनरकपृथिव्यां ततोऽसौ वभाण - अहं
?, स्वामिनोक्तं षष्ठयां, स उवाच - अहं किं न सप्तम्यां ?, स्वामिना जगदे - सफ़यां चक्रवर्त्तिनो यान्ति, ततोऽसावभिदधौ - किमहं न चक्रवर्त्ती ?, यतो ममापि हस्त्यादिकं तत्समानमस्ति स्वामिना प्रत्यूचे-तव रत्ननिधयो न सन्ति ततोऽसौ कृत्रिमाणि रत्नानि कृत्वा भरतक्षेत्रसाधनप्रवृत्तः किरिमाल (कृतमालिक) या गुहाद्वारे व्यापादितः षष्ठीं गत इति । तथा 'निस्सावयणे' ति निश्रया वचनं निश्रावचनम्, अयमर्थ:-कमपि सुशिष्यमालम्ब्य यदन्यप्रबोधार्थं वचनं तनिश्रावचनं, तद्यत्र विधेयतयोच्यते तदाहरणं निश्रावचनं, यथा- असहनान् विनेयान्
सू० ३३८
॥३७६॥
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श्रीस्थानात
सू०३३८ ।
दीपिका वृत्तिः ।
॥३७७॥
मार्दवसम्पन्नमन्यमालम्ब्य किश्चिद यात् , गौतममाश्रित्य भगवानिवेति, तथाहि-किल गौतमं तापसादिप्रव्रजितानां केवलोत्पत्तावनुत्पन्न केवलत्वेनाधृतिमन्तं चिरसंसृष्टोऽसि गौतम ! चिरपरिचितोऽसि गौतम ! मा त्वमधृति कार्पोरित्यादिना वचनसन्दोहेनानुशासयता अन्येऽप्यनुशासिताः, तदनुशासनार्थ द्रुमपत्रकाध्ययनं च प्रणिन्ये इति, उक्तं च-"पुच्छाए कोणिए खलु, निस्सावयणमि गोयमस्सामि"त्ति ॥ व्याख्यातं तद्देशोदाहरणं, तदोषोदाहरणमथ व्याख्यायते, तच्चतुर्धा, तत्र 'अहम्मजुए' ति यदाहरणं कस्यचिदर्थस्य साधनायोपादीयते केवलं पापाभिधानस्वरूपं येन चोक्तेन प्रतिपाद्यस्याधर्मबुद्धिरुपजन्यते तदधर्मयुक्तं, तद्यथा-उपायेन कार्याणि कुर्यात् कोलिकनलदामवत् , तथाहि-पुत्रखादकमकोटकमार्गेणोपलब्धविलवासिनामशेषमकोटकानां तप्तजलस्य बिले प्रक्षेपणतो मारणदर्शनेन रञ्जितचित्तचाणक्यावस्थापितेन चौरग्राहनलदामाभिधानकुविन्देन चौर्यसहकारितालक्षणोपायेन विश्वामिता मिलिताश्चौरा विषमिश्रभोजनदानतः सर्वे व्यापादिता इति, आहरणतद्दोषता चास्याधर्म मुक्तत्वात्तथाविधश्रोतुरधर्मबुद्धिजनकत्वाच्च, अत एव नैवंविधमुदाहर्त्तव्यं यतिनेति, 'पडिलोमे' त्ति प्रतिकूलं यत्र प्रातिकूल्यमुपदिश्यते यथा-शठं प्रति शठत्वं कुर्यात् , यथा चण्डोप्रद्योते तदपहरणार्थ तदपहृताभयकुमारश्चकारेति, तद्दोषता चास्य श्रोतुः परापकारकरणनिपुणबुद्धिजनकत्वात् , अथवा धृष्टप्रतिवादिना द्वावेव राशी जीवश्चाजीवश्चेत्युक्ते तत्प्रतिघातार्थ कश्चिदाह-तृतीयोऽप्यस्ति नोजीवाख्यो गृहकोकिलादिछिनपुच्छवदिति, अस्यापि तद्दोषताऽपसिद्धान्ताभिधानादिति, 'अत्तोवणीए' ति आत्मैवोपनीतः-तथा निवेदितो नियोजितो यस्मिंस्तत्तथा, येन ज्ञातेन परमतषणायोपात्तेनात्ममतमेव दुष्टतयोपनीयते यथा पिङ्गलेनात्मा तदात्मोपनीत, तथाहि-कथमिद तडागमभेद भविष्यतीति राज्ञा पृष्टः पिछालाभि
॥३७७॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिकावृत्तिः ।
॥ ३७८ ॥
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धानः स्थपतिरवोचत्-भेदस्थाने कपिलादिगुणे पुरुषे निखाते सतीति, अमात्येन तु स एव तत्र तद्गुणत्वान्निखात इति तेनात्मैव नियुक्तः स्ववचनदोषात्, तदेवंविधमात्मोपनीतमिति, अत्रोदाहरण - यथा सर्वे सत्त्वा न हन्तव्या इत्यस्य पक्षस्य दूषणाय कश्चिदाह- अन्यधर्म्मस्थिता हन्तव्या विष्णुनेव दानवा इत्यादि, तदोषता तु प्रतीतैवास्येति, 'दुरोवणीए' ति दुष्टमुपनीतं - निगमित योजितमस्मिन्निति दुरुपनीतं परित्राजकवाक्यवद्, यथा हि किल कश्वित्परिव्राजको जालव्यग्रकरो मत्स्यबन्धाय चलितः, केनचिद् धूर्तेन किञ्चिदुक्तस्तेन च तस्योत्तरमसङ्गतं दत्तम् अत्र च वृत्तं - " कन्थाऽऽचार्याऽघना ते ननु शफरवधे जालमश्नासि मत्स्यांस्तेमे मद्योपदंशान् पित्रसि ननु ? युतो वेश्यया यासि वेश्याम् ? | दत्त्वारीणां गलेऽहूिं क्व नु तव रिपवो ? येषु सन्धि छिनद्मि चौरस्त्वं ! धुतहेतोः कितव इंति कथं येन दासीसुतोऽस्मि ||१||" इत्येवं प्रकृतसाध्यानुपयोगि स्वमतदूषणावह वा यत्तद्दाष्टन्तिकेन सह साधर्म्याभावाद् दुरुपनीतमिति, अत्र गाथा: - “पढमं अहम्मजुत्त, पडिलोमं अत्तणो उवण्णासो । दुरुवणियं च चउत्थ अहम्मजुत्तंमि नलदामो || १ || पडिलोमे जड अभओ, पज्जोय हरइ अवडिओ संतो" त्ति । “अत्तउवन्नामि य तलाभेमि पिंगलो थवई । अणिमिसगिण्दणभिच्छुग- दुखणीए उदाहरणं ॥ १|| "ति उक्त आहरणतदोषोऽधुनोपन्यासोपनय उच्यते, स च चतुर्द्धा तत्र 'तव्वत्थुए' त्ति तदेव - परोपन्यस्तसाधनं वस्त्विति - उत्तरभूतं वस्तु यस्मिन्नुपन्यासोनये स तद्वस्तुकोऽथवा तदेव - परोपन्यस्तं वस्तु तदेव तद्वस्तुकं तद्युक्त उपन्यासोपनयोऽपि तद्वस्तुक इत्युच्यते, एवमुत्तरत्रापि यथा कश्विदाह - समुद्रतटे महान् वृक्षोऽस्ति तच्छाया ( तच्छाखा) जलस्थलयोरुपरि स्थिताः, तत्पत्राणि च यानि जले निपतन्ति तानि जलचरा जीवा भवन्ति यानि च स्थले निपतन्ति तानि स्थलचरा इति, अन्यस्तदुप
सू० ३३८ ।
॥३७८॥
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भीस्थानान
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
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सू०३३८1
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॥३७९||
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न्यस्तमेव तरुपत्रपतनवस्तु गृहीत्वा तदुक्तं विघटयति, यदुत-यानि पुनर्मध्ये तेषां का वाचा ? इत्येतदुपपत्तिमात्रमुत्तरभूतं तद्वस्तुक उपन्यासोपनयो, ज्ञातत्वं चास्य ज्ञातनिमित्तत्वात् , विस्तरो वृत्तौ । । तथा 'तयन्नवत्थुए' ति, तस्मात् परोपन्यस्ताद्वस्तुनोऽन्यदुत्तरभूत यस्मिन्नुपन्यासोपनये स तदन्यवस्तुको, यथा जले पतितानि जलचरा इत्युक्ते एतद्विघटनाय पतनादन्यदुत्तरमाह-यानि पुनः पातयित्वा खादति नयति वा तानि किं भवन्ति ?, न किञ्चिदित्यर्थोऽयमपि ज्ञापकतया ज्ञातमुक्तः, अथवा यथारूढमेव ज्ञातमेषः, तथाहि--न जलस्थलपतितानि पत्राणि जलचरादिसत्त्वाः सम्भवन्ति, मनुष्याद्याश्रितानीव, अयमभिप्रायो, यथा जलाद्याश्रितत्वाज्जलचरादितया तानि सम्पद्यन्ते तथा मनुष्याद्याश्रिततया मनुष्यादिभवयुकादितयाऽपि सम्पद्यन्ताम् , आश्रितत्वस्याविशेषात् , न च तानि तथाऽभ्युपगम्यन्त इति जलादिगतानामपि जलचरत्वाद्यसम्भव इति, तथा 'पडिनिभे ति यत्रोपन्यासोपनये वादिनोपन्यस्तवस्तुनः सदृशं वस्तूत्तरदानायोपनीयते स प्रतिनिभो, यथा-कोऽपि प्रतिजानीते यदुत-यो मामपूर्व श्रावयति तस्मै लक्षमूल्यमिदं कटोरकं ददामीति, स च श्रावितोऽपि तन्नाऽपूर्वमिति प्रतिपद्यते, तत एकेन सिद्धपुत्रेणोक्तम्-"तुज्झ पिया मह पिउणो, धारेइ अणूणय सयसहस्सं । जइ सुयपुव्वं दिजउ, अह न सुर्य खोरयं देहि ॥१॥" ति, प्रतिनिभता चास्य पू(सर्वस्मिन्नप्युक्ते श्रुतपूर्वमेवेदं ममेत्येवमसत्यं वचो ब्रुवाणस्य परस्य निग्रहाय तव पिता मम पितुरियति लक्षमित्येवंविधस्य द्विपाशरज्जुकल्पस्यासत्यस्यैव वचस उपन्यस्तत्वादिति, अस्य चोपपत्तिमात्ररूपस्याप्यर्थज्ञापकतया ज्ञातत्वमुक्तमिति । तथा 'हेउ'त्ति यत्रोपन्यासोपनये पर्यनुयोगस्य हेतुरुत्तरतयाऽभिधीयते स हेतुरिति, यथा केनापि कश्चित् पर्यनुयुक्तः--अहो ! कि यवाः क्रीयन्ते त्वया ?, स त्वाह-येन मुधैव न लभ्यन्ते इति, तथा
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सू०३३८।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३८॥
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कस्माद् ब्रह्मचर्या दिकष्टमनुष्ठीयते ?, यस्मादकृतत्तपसां नरकादौ गुरुतरा वेदना भवतीति, इदमपि उपपत्तिमात्रमेव ज्ञातत्वेनोक्तमर्थज्ञापकत्वादिति, इह च किञ्चिद्विशेषेणैवंविधा ज्ञातभेदाः सम्भवन्त्यन्येऽपि किन्तु ते न विवक्षिताः अन्तर्भावो वा कथञ्चिद् गुरुभिर्विवक्षितो न च तवयं सम्यग् जानीम इति । अथ ज्ञातानन्तरं ज्ञातवद्धतोः साध्यसिद्धयङ्गत्वात् तदुभेदानाह-'हेऊ' इत्यादिना सूत्रत्रयेण-व्यक्तं चैतनवर, हिनोति-गमयति ज्ञेयमिति हेतुः-- अन्यथाऽनुपपत्तिलक्षणः, उक्त च-"अन्यथाऽनुपपन्नत्व, हेतोर्लक्षणमीरितम् । तदप्रसिद्धिसन्देह-विपर्यासैस्तदाभता॥१॥" इति, प्रागुक्तश्च हेतुः पर्यनुयुक्तस्योत्तररूपमुपपत्तिमात्रमयं तु साध्यं प्रत्यन्वयव्यतिरेकवान् तथाविधदृष्टान्तस्मृततद्भाव इति, स चैकलक्षणोऽपि किञ्चिद्विशेषाचतुर्दा, तत्र 'जावए'ति यापयति-वादिनः कालयापनां करोति, यथा काचिदसती एकैकरूपकेण एकैकमुष्टलिण्ड दातव्यमिति दत्तशिक्षस्य पत्युस्तद्विक्रयार्थमुज्जयिनीप्रेषणोपायेन विटसेवायां कालयापनां कृतवतीति यापकः, इह वृद्घाख्यातम्-प्रतिवादिन ज्ञात्वा तथा तथा विशेषणबहुलो हेतुः कर्त्तव्यो यथा कालयापना भवति, ततोऽसौ नावगच्छति प्रकृतमिति विस्तरो वृत्तौ। तथा 'थावए'त्ति स्थापयति पक्षमक्षेपेण प्रसिद्धव्याप्तिकत्वात् समर्थयति, यथा परिव्राजकधः लोकमध्यभागे दत्तं बहुफलं भवति तदहमेव जानामीति मायया प्रतिग्राममन्यान्य लोकमध्य प्ररूपयति सति तन्निग्रहाय कश्चिच्छावको लोकमध्यस्यैकत्वात् कथं बहुषु ग्रामादिषु तत्सम्भव इत्येवं विधोपपत्त्या त्वदर्शितो भो ! लोकमध्यभागो न भवतीति पक्ष स्थापितवानिति स्थापको हेतुः। तथा 'वंसए'त्ति व्यंसयति-पर व्यामोहयतिशकटतित्तिरीग्राहकधुतवद स व्यंसक इति, तथाहि-कश्चिदन्तराललब्धमृततित्तिरीयुक्तेन शकटेन नगरं प्रविष्टः उक्तो धूर्तेन यथा---शकटतित्तिरी कथं लभ्यते ?, स च किलायं शकटस्य सत्कां तित्तिरी याचत इत्यभिप्राया
..०००००००००००००...+000०.००००००००००००००००००6000.....
॥३८०॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृतिः ।
॥३८१ ॥
दवोचत् -- तर्पणालोडिकयेति, सक्त्वालोडनेन जलाद्यालोडितसक्तुभिरित्यर्थः, ततो धूर्त्तः साक्षिण आहृत्य सतित्तिरीक शकट जग्राह उक्तवांश्च मदीयमेतद्, अनेनैव शकटतित्तिरीति दत्त्वात् मया तु शकटसहिता तित्तिरीति गृहीतत्वादिति, ततो विषण्णः शाकटिक इति । तथा 'सए'ति लूषयति--मुष्णाति व्यंसकापादितमनिष्टमिति लूपको हेतु:, स एव शाकटिको, यथा-धूर्त्तान्तरशिक्षितेन हि शाकटिकेन तेन याचितोऽसौ धृत्तः, तर्हि देहि मे तर्पणालोडिकामिति, ततो धूर्तेनोका स्वभार्या - देद्यस्मै सक्तूनालोडयेति, ताञ्च तथा कुर्वन्तीं तद्भार्यां गृहीत्वाsit प्रस्थितोsवादीच धूर्तमभि - मदीयेयं तर्पणमिति सक्तूनालोडयतीति भवतैव दत्तत्वादिति । अथवेति हेतोः प्रकारान्तरताrtant forल्पार्थो हिनोति - गमयति प्रमेयमर्थ स वा हीयते-अधिगम्यते अनेनेति हेतु: - प्रमेयस्य प्रमितौ कारण प्रमाणमित्यर्थः स चतुर्विधः स्वरूपादिभेदात् तत्र पच्चक्खे'त्ति अश्नाति अश्नुते - व्याप्नोत्यर्थानि - त्यक्षः - आत्मा, तं प्रति यद् वर्त्तते ज्ञानं तत् प्रत्यक्ष निश्चयतोऽवधिमनःपर्यायकेवलानि, अक्षाणि वेन्द्रियाणि प्रति यत्तत्प्रत्यक्ष व्यवहारतस्तच्चक्षुरादिप्रभवमिति, लक्षणमिदमस्य - 'अपरोक्षतयाऽर्थस्य, ग्राहकं ज्ञानमीदृशम् । प्रत्यक्षमितरत् ज्ञेय, परोक्ष ग्रहणेक्षया || १ ||” ग्रहणापेक्षयेति भावः, 'अगुमाणे 'त्ति अन्विति-लिङ्गदर्शनसम्बन्धानुस्मरणयोः पश्चान्मान - ज्ञानमनुमानम् एतल्लक्षणमिद - " साध्याविनाभुवो लिङ्गात् साध्यनिश्चायक स्मृतम् । अनुमान तदभ्रान्त प्रमाणत्वात् समक्षवद् ||१||" इति तथा 'उवमेत्ति उपमानमुपमा सैवोपम्यमनेन गवयेन सदृशोऽसौ गौरिति सादृश्यप्रतिपत्तिरूपम् उक्तञ्च -- " गां दृष्ट्वाऽयमरण्येऽन्यं गवयं वीक्षते यदा । भूयोऽवयवसामान्य - भाज कण्ठम् ||१|| तस्यामेव त्ववस्थायां यद्विज्ञान प्रवर्त्तते । पशुना तेन तुल्योऽसौ गोपिण्ड इति सोपमा ||२||”
सू० ३३८-३४१
||३८१॥
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श्रीस्थाना
सू०३३८ ।
दीपिका वृत्तिः ।
जगभूत माविलाय कारणोपचासचनसम्पाद्यो विप्रक
॥३८२॥
इति । 'आगमे'त्ति आगम्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनेत्यागम:-आप्तवचनसम्पाद्यो विप्रकृष्टार्थप्रत्ययः, अथवेतीहाऽन्यथाऽनुपपन्नत्वलक्षणहेतुजन्यत्वादनुमानमेव कार्ये कारणोपचाराद्धेतुः, स च चतुर्विधः, चतुर्भङ्गीरूपत्वात्, तत्र अस्ति-विद्यते तदिति-लिङ्गभूतं धूमादिवस्तु इतिकृत्वा अस्ति सः-अग्न्यादिकः साध्योऽर्थ इत्येवं हेतुरिति अनुमान, तथा अस्ति तदग्न्यादिक वस्त्वतो नास्त्यसौ तद्विरुद्धः शीतादिरर्थ इत्येवमपि हेतुरनुमानमिति, तथा नास्ति वृक्षत्वादिकमिति नास्ति शिंशपादिकोऽर्थ इत्यपि हेतुरनुमानमिति, इह चशब्दे कृतकत्वस्यास्तित्वादस्त्यनित्यत्व घटवत्तथा धूमस्यास्तित्वादिहास्त्यग्निमहानस इवेत्यादिक, शेष वृत्तौ । अनन्तरं हेतुशब्देन ज्ञानविशेष उक्तस्तदधिकाराद् ज्ञानविशेषनिरूपणायाह--
चउब्बिहे सखाणे ५० त--परि(डि)कम्म १ ववहारे २ रज्जू ३ रासी ४ । अहोलोगे ण चत्तारि अंधगार करें ति, त०–णरगा णेरइया पावाई कम्माई असुहा पोग्गला ४,१, तिरियलोए ण चत्तारि उज्जोय करें ति, तंचंदा सूरा मणी जोई ४,२, उहलोप ण चत्तारि उज्जोय करें ति, त-देवा १ देवीओ २ विमाणा ३ आभरणा ४, ३ ( सू० ३३८ )॥ चउढाणस्स तइओ उद्देसओ सम्मत्तो ।।
'चउबिहे' इत्यादि, सङ्ख्यायते-गण्यते अनेनेति सङ्ख्यानं गणितमित्यर्थः, तत्र परिकम सङ्कलनादिक * पाटीप्रसिद्धम् , एवं व्यवहारोऽपि मिश्रकव्यवहारादिरनेकधा, रज्जुरिति रज्जुगणित क्षेत्रगणितमित्यर्थः, राशिरिति त्रैराशि
कपश्चराशिकादीनि । रज्जुरिति क्षेत्रगणितमुक्तमिति क्षेत्रसम्बन्धाल्लोकलक्षणक्षेत्रस्य त्रिधा विभक्तस्यान्धकारोद्योतावाश्रित्य सूत्रत्रयेण प्ररूपणामाह 'अहे' इत्यादि सुगमानि, किन्तु अधोलोके-उक्तलक्षणे चत्वारि वस्तूनीति गम्यते, नरका-नरकावासा
॥३८२॥
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सू० ३३८-३४०।
श्रीस्थानासूत्र. दीपिका वृत्तिः ।
नैयिका-नारका एव, एते कृष्णस्वरूपत्वादन्धकार कुर्वन्ति, पापानि कर्माणि ज्ञानावरणादीनि मिथ्यात्वाज्ञानलक्षणभावान्धकारकारित्वादन्धकार कुर्वन्तीत्युच्यते, अथवाऽन्धकारस्वरूपेऽधोलोके प्राणिनामुत्पादकत्वेन पापानां कर्मणामन्धकारक त्वमिति, तथा अशुभाः पुद्गलाः-तमिनभावेन परिणता इति । 'मणि'त्ति मणयः-चन्द्रकान्ताद्याः, 'जोईत्ति ज्योतिरग्निरिति ॥ चतुःस्थानकस्य तृतीयोद्देशकः समाप्तः ।।
॥३८३॥
००००००००००००००००००००००००००००००००००..+00000000000०००.००
व्याख्यातस्तृतीयोदेशकः, तदनन्तरं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके विविधा भावाश्चतुःस्थानकतयोक्ता, इहापि त एव तथैवोच्यन्त इत्येवंसम्बन्धस्यास्योद्दशकस्येदमादिसूत्रम्--
चत्तारि पसप्पगा पं० त०-अणुप्पन्नाण भोगाण उप्पाएत्ता एगे पसप्पए, पुब्बुष्पन्नाणं भोगाण अविप्पओगेणं पगे पसप्पए. अणुप्पन्नाणसोक्खाण उप्पाइत्ता पगे पसप्पप, पुन्वुप्पन्नाण सोकखाण अविप्पओगेण पगे पसप्पए । (सू. ३३९) णेरइयाण चउबिहे आहारे ५० त०-इंगालोवमे मुम्मुरोवमे सीअले हिमसीअले, तिरिक्खजोणियाण चउबिहे आहारे 4. त-कंकोवमे बिलोवमे पाणमंसोवमे पुत्तमंसोवमे, मणुस्साण चउबिहे आहारे प००-असणे जाव साइमे, देवाण चउन्विहे भाहारे पंत-वण्णम ते गंधमंते रसमंते फासमंते (सू० ३४०)। चत्तारि जाइआसीवीसा पंत-विच्छुयजा. इआसीविसे मंडुक्कजाइआसीविसे उरगजाइआसीविसे मणुस्सजाइआसीविसे । विच्छुयजाइआसीविसस्स ण भंते ! केवाए विसए पं०-पभू ण विच्छुयजाइआसीविसे अद्धभरहप्पमाणमेत बोंदि विसेण विपरिणामित (विसपरिणय)
14............000000.....0000000000000000000000000000
॥३८३॥
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2000.00.
सू०३४०-३४१॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः । ॥३८४॥
विसट्टमाणि करेत्तए, विसए से विसद्वत्ताए णो चेव ण संपत्तीए करिसु वा करंति वा करिस्सति वा १, मंडुक्कजाइआसीविसस्स ण पुच्छा, पभू ण मंदुक्कजाइआसीविसे भरहप्पमाणमेत बोंदि विसेण' ( विसप.) विसट्टमाणि, सेसंत चेव जाव करिस्सइ ( संति ) वा, उरगजाइआसीविसे पुच्छा, पभू ण उरगजाइआसीविसे जंबूहीवप्पमाणमेत्त बोंदि विसेण सेस त चेव जाव करेइ० स्सति वा, मणुस्सस्सजाइ० पुच्छा, पभू ण मणुस्सजाइआसीविसे समयखेत्तप्पमाणमेत बोंदि विसेण विसपरिणत विसहमाणि करेत्तए, विसप से विसद्वत्ताप णो चेव ण जाव करेस्सइ (०स्सें ति) वा (सू. ३४१)।
'चत्तारि पसप्पए' इत्यादि, अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायममिसम्बन्धः--अनन्तरसूत्रे देवा देव्यश्च निर्दिष्टाः, ते च भोगवन्त मुखिताश्च भवन्तीति भोगान् सुखानि चाश्रित्य प्रसर्पकभेदाभिधानायेदमुच्यते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या-प्रकर्षेण सर्पन्ति-गच्छन्ति भोगार्थ देशानुदेश सञ्चरन्ति आरम्भपरिग्रहतो वा विस्तारं यान्तीति प्रसर्पकाः, 'अणुप्पप्णाण"ति द्वितीयार्थे पष्ठीति अनुत्पन्नानसम्पन्नान् भोगान्–शब्दादीन् तत्कारणद्रविणाङ्गनादीन् वा 'उप्पाएत्त'त्ति उत्पादयितुं सम्पादनाय अथवाऽनुत्पन्नानां भोगानामुत्पादयिता-उत्पादकः सन् एकः कोऽपि प्रसर्पति-प्रगच्छति, प्रसर्पको वा प्रगन्ता भवतीति गम्यते, प्रसप्र्पन्ति च भोगाद्यर्थिनो देहिनः, उक्तं च--"धावेइ रोडणं तरइ, सागर भमइ गिरिनिगुंजेसु । मारेइ बंधवंपि हु, पुरिसो जो होइ घणलुद्धो ॥१|| अडइ बहु वहइ भरं, सहइ छुई पावमायरइ धिट्टो । कुलसीलजाइपच्चय-ट्टिई च लोभइओ चयइ ॥२॥" तथा पूर्वोत्पन्नानां पाठान्तरेण प्रत्युत्पन्नानां वा 'अविप्पओगेण ति अविप्रयोगाय रक्षणार्थमिति 'सौख्याना'मिति भोगस
.....0000000000000000000000000000000004.0000०.......
॥३८४॥
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सू० ३३९.३४१।
भीस्थाना
दीपिका वृत्तिः ।
......"
॥३८५॥
म्पाद्यानन्दविशेषाणां, शेषं सुगमम् । भोगसौख्याथं च प्रसर्पन्तः कर्म बद्ध्वा नारकत्वेनोत्पधन्त इति नारकानाहारतो निरूपयन्नाइ-'नेरइयाण मित्यादि व्यक्तं, केवलमकारोपमः अल्पकालदाइत्वात, मुर्मुरोपमः स्थिरतरदाहत्वात् , शीतलः शीतवेदनोत्पादकत्वात्, हिमशीतलोऽत्यन्तशीतवेदनाजनकत्वात्, अधोऽध इति क्रम इति । आहाराधिकारात् तिर्यग्मनुष्यदेवानामाहारनिरूपणाय सूत्रत्रय--'तिरिक्खजोणियाण'ति सुगम, नवरं कङ्कः पक्षिविशेषस्तस्याहारेणोपमा यत्र स मध्यमपदलोपात् कङ्कोपमः, अयमों-यथा हि कङ्कस्य दुर्जरोऽपि स्वरूपेणाहारः सुखभक्ष्यः मुखपरिणामश्च भवति एवं यस्तिरश्चां सुखभक्ष्यः सुखपरिणामश्च स कङ्कोपम इति । तथा बिले प्रविशद् द्रव्य बिलमेव तेनोपमा यत्र स तथा, विले हि अलब्धरसास्वादक झगिति यथा किल किञ्चित्प्रविशति एवं यस्तेषां गलबिले प्रविशति स तथोच्यते । पाणो-मातस्तन्मांसमस्पृश्यत्वेन जुगुप्सया दुःखाद्य स्यादेवं यस्तेषां दुःखाद्यः स पाणमांसोपमः। पुत्रमांसं तु स्नेहपरतया दुःखाधतरं स्यादेवं यो दुःखाद्यतरः स पुत्रमांसोपमः, क्रमेण चैते शुभसमाशुभाशुभतरा वेदितव्याः । 'देवाण"ति, वर्णवानित्यादौ प्रशंसायामतिशायने वा मतुबिति । आहारो हि भक्षणीय इति भक्षणाधिकारादाशीविषसूत्र, मुगमञ्चेद, नवरं, 'आसीविसत्ति आश्यो-दंष्ट्रास्तामु विषं येषां ते आशीविषाः, ते च कर्मतो जातितश्च, तत्र कर्मतस्तियक्मनुष्याः कुतोऽपि गुणादाशीविषाः स्युः, देवाश्चासहस्राराच्छापादिना परव्यापादनादिति, उक्तं च-"आसी दादा तग्गय-महाविसाऽऽसीविसा दुविहभेया ते कम्मजाइभेएण, णेगहा चउव्विहविगप्पा ।।१॥"त्ति, जातित आशीविषा जात्याशीविषाः-वृश्चिकादयः, 'केवइय'त्ति कियान् विषयो-गोचरो विषस्येति गम्यते, प्रभुः-समर्थः, अर्द्धभरतस्य यत्प्रमाणं-सातिरेकत्रिषष्टयधिकयोजनशतद्वयलक्षणं तदेव मात्रा-प्रमाणं यस्याः सार्द्धभरतप्रमाणमात्रा तां बोन्दि-शरीर
.04....................6000+++00000000000000
...........................
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सु०३४२-३४४।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
॥३८६॥
000000000000000000000000000000000000000000000000....."
विषेण-स्वकीयाशीप्रभवण करणभूतेन विषपरिणतां-विषरूपापन्नां विषपरिगतामिति कचित्पाठे तव्याप्तामित्यर्थः, 'विसट्टमाणि' विकसन्तीं विदलन्ती 'कर्त' विधातुं विषयः स-गोचरोऽसौ, अथवा 'से' तस्य वृश्चिकस्य, विषमेवार्थों विषार्थस्तद्भावः तत्ता तस्या विषार्थतायाः-विषत्वस्य तस्यां वा 'नो चेव'त्ति नैवेत्यर्थः, सम्पत्या' एवंविधबोन्दिसम्प्राप्तिद्वारेण 'करेंसुत्ति अकार्षवृश्चिका इति गम्यते, इह चैकवचनप्रक्रमेऽपि बहुवचन निर्देशो वृश्चिकाशीविषाणां बहुत्वज्ञापनार्थ, एवं कुर्वन्ति करिष्यन्ति, त्रिकालनिर्देशश्चामीषां त्रैमालिकत्वज्ञापनार्थः, समयक्षेत्र-मनुष्यक्षेत्रम् । विषपरिणामो हि व्याधिरिति तदधिकाराद् व्याधिभेदानाह--
चउब्धिहे वाही प० त०--वातिए पित्तिए सि भए सण्णिवाइए । चउब्विहा तिगिन्छा पं० त० -विजो ओसहाई आउरे परियारिए १ ( सू० ३४२ ) । चत्तारि तिगिच्छगा ५० त०-आततिगिच्छए नाम एगे णो परतिगिच्छए १, परतिगिच्छए णाम एगे णो आततिगिच्छए ४. १, चत्तारि पुरिसजाया ५० त-वणकरे णाम पगे णो वणपरिमासी, वणपरिमासी णाम एगे णो वणकरे, एगे वणकरे वि बणपरिमासी वि, एगे णो वणकरे णो वणपरिमासी १, चत्तारि पुरिसजाया प० त०-वणकरे णाम एगे वणसारक्खी ४, २, चत्तारि पुरिसजाया ५० त०-वणकरे णाम एगे वणसारोही ४, ३, चत्तारि वणा प० त०-अंतोसल्ले णाम पगे णो वदिसल्ले ४, १, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया प० त०-अतोसल्ले णाम एगे णो बहिंसल्ले ४, २, चत्तारि वणा पं० त०अंतोदुढे नाम पगे णो बाहि दुद्वे. बाहिं दुढे नाम पगे नो अंतो४,३ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पंत-अतो दुट्टे णाम एगे णो बाहि दु४, ४ (सू ३४३) । चत्तारि पुरिसजाया पंत-सेयंसे णाम पगे सेयंसे, सेय से णाम
॥३८६॥
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सू०३४२३४४।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
॥३८७॥
पगे पावसे, पावंसे णाम एगे सेयंसे, पावसे णाम एगे पावसे ४, १. चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-सेयंसे णाम पगे सेयंसेत्ति सालिसप, सेयंसे णाम एगे पावंसेत्ति सालिसप ४, २, चत्तारि पुरिसजाया पं० २०सेयंसे णाम पगे सेयंसेत्ति सालिसए मण्णइ, सेयंसेत्ति णाम पावंसेत्ति सालिसप मण्णइ ४. ३, चत्तारि पुरिसजाया पंत सेयंसेत्ति णाममेगे सेयंसे. ४, ४, चत्तारि पुरिसजाया पंत-आघवेत्ता णाममेगे णो परिभावइत्ता, परिभावइत्ता णाममेगे णो आघवइत्ता ४, ५, चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-आघवइत्ता णाममेगे णो उछजीवी संपण्णे, उछजीवी संपण्णे णाममेगेणो आघवइत्ता ४, ६, चउन्विहा रुखविगुब्बणा पंत पचालत्ताप पत्तत्ताप पुप्फत्ताए फलत्ताए (सू० ३४३ )।
___'चउविहे' इत्यादि मुगमं, किन्तु वातो निदानमस्येति वातिकः, एवं सर्वत्र, नवरं सन्निपातः-संयोगो द्वयोस्त्रयाणां वेति, वातादिस्वरूपं चैतम्--"तत्र रूक्षो १ लघुः २ शीतः३, खरः ४ सूक्ष्म५श्वलोऽ६निल: पित्तं सस्नेह १ तीक्ष्णो २ ष्णं ३, लघु ४ वि (मि श्रं५सरं६ द्रवम् ।।१।। कफो गुरु १ हिमः २ स्निग्धः३, प्रक्लेदी ४ स्थिर ५ पिच्छलः ६ । सन्निपातस्तु सङ्कीर्ण-लक्षणो द्वयादिमीलकः ॥२॥" वातादीनां कार्याणि पुनरिमानि-पारुष्यसकोचनतोदशृल-श्यामत्वमगव्यथचेष्टभङ्गाः । सुप्तत्वशीतत्वखरत्वशोपाः, कर्माणि वायोः प्रवदन्ति तज्झाः ॥१॥ परिस्रवस्वेदविदाहरोगा, बैगन्ध्यसङ्कले दविपाककोपाः । प्रलापम भ्रमिपीतभावाः, पित्तस्य कर्माणि वदन्ति तज्झाः ॥२॥ श्वेतत्वशीतत्वगुरुत्वकण्डूस्नेहोपदेहस्तिमितत्वलेपाः । उत्सेधसम्पातचिरक्रियाश्च, कफस्य कर्माणि वदन्ति तज्झाः ॥३॥" इति । अनन्तरं व्याधिवतोऽधुना तस्यैव विचिकित्सां चिकित्सकांश्च सूत्रद्वयेनाह-'चउबिहे
॥३८७॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥३८८॥
त्यादि कण्ठ्य, चिकित्सा - रोगप्रतीकारस्वस्याभ्रातुर्विध्यं कारणभेदादिति, एतत्सूत्रसंवादकमुक्तमपरैरपि “भिषय १ द्रव्याण्यु २ पस्थाता ३, रोगी ४ पादचतुष्टयम् । चिकित्सितस्य निर्दिष्टं, प्रत्येकं तच्चतुर्विधम् ||१|| दक्षो १ विज्ञातशास्त्रार्थी २, दृष्टकर्म्मा ३ शुचिर्भिषक् । बहुकल्प १ बहुगुणं २, सम्पन्न ३, योग्यमौषधम् ४ || २ || अनुरक्तः शुचिर्दक्षो३, बुद्धिमान् ४ परिचारकः । आढ्यो १ रोगी भिषग्वश्योर, ज्ञापकः ३ सत्त्ववानपि ||३||" इति इयं द्रव्यरोगविचिकित्सा, मोह भावरोगविचिकित्सा त्वेवं- “निव्विगइ निब्बलोगे, तब उद्धद्वाणमेव उच्भामे । वैयावच्चाहिंडण, मंडल कप्पट्ठियाहरणं ॥ १॥ 'ति, निर्बलं-वल्लादि, अवममूनं, उद्भ्रमो - भिक्षाभ्रमणम्, आहिण्डणं देशेषु, मण्डली - सूत्रार्थयोः, 'कपट्टिया' श्रेष्ठिवधूरिति । चिकित्सका द्रव्यतो ज्वरादिरोगान् प्रति भावतो रागादीन् प्रतीति, तत्रात्मनो ज्वरादेः कामादेर्वा चिकित्सक: - प्रतिकर्त्तेत्यात्मचिकित्सक इति । अथात्मचिकित्सकान् भेदतः सूत्रत्रयेणाह – 'चत्तारी' त्यादि, कण्ठयं, नवरं वर्ण- देहे क्षतं स्वयं करोति रुधिरादिनिगलनार्थमिति व्रणकरो नो-नैव वणं परिमृशतीत्येवंशीलो arviraiत्येकः, अन्यस्त्वन्यकृतं वणं परिमृशति न च तत् करोतीति, एवं भावत्रणमतिचारलक्षणं करोति कायेन न च तदेव परिमृशति - पुनः पुनः संस्मरणेन स्पृशति, अन्यस्तु तत्परिमृशत्यभिलापान्न च तत् करोति संसार - यादिभिरिति, व्रणं करोति न च तत् पट्टबन्धादिना संरक्षति अन्यस्तु कृतं संरक्षति न च करोति, भावत्रणं त्वाश्रित्यातिचार करोति न च तं सानुबन्धं भवन्तं कुशीलादिसंसर्गतन्निदानपरिहारतो रक्षत्येकोऽन्यस्तु पूर्वकृतातिचारं निदानपरिहारतो रक्षति च न करोति, 'नो' नैव वणं संरोहयत्यौषधदानादिनेति ऋणसंरोही, भावत्रणापेक्षया तु नो व्रणसंरोही प्रायश्चित्ताप्रतिपत्तेः व्रण संरोही पूर्वकृताविचारप्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या, नो व्रणकरोऽपूर्वातिचाराकारित्वादिति । उक्ता आत्मविचिकित्सकाः,
सू० ३४२-३४४ ।
॥३८८॥
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सू० ३.२-३४४॥
श्रीस्थानात सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३८९॥
16.000000000.00000006..+++++000000000००००००००००००००
अथ चिकित्स्य व्रण दृष्टान्तीकृत्य पुरुषभेदानाह-'चत्तारी'त्यादि, चतुःसूत्री सुगमा, नवरं, अन्तमध्ये शल्य यस्य अदृश्यमानमित्यर्थः तत्तथा, 'बाहिंसल्ले' त्ति यच्छल्यं व्रणस्यान्तरल्प बहिस्तु बहु तद्वहिरिव बहिरित्युच्यते, अन्तो वहिः शल्यं यस्य तत्तथा १, यदि पुनः सर्वथैव तत्ततो बहिः स्याद् तदा शल्यतेव न स्यात् उद्धृतत्वे वा भूतभावितया स्यादपीति २, यत्र पुनरन्तबहु बहिरप्युपलभ्यते तदुभयशल्य ३, चतुर्थः शून्य इति ४, गुरुसमक्षमनालोचितत्वेनान्तः शल्यम्-अतिचाररूपं यस्य स तथा, बहिः शल्यमालोचिततया यस्य तत्तथा, अन्तर्बहिश्च शल्यमालोचितानालोचितत्वेन यस्य स तथा, चतुर्थः शून्यः । अतर्दुष्ट व्रण लूतादिदोषतः, न बही रागाद्यभावेन सौम्यत्वात् ४, पुरुषस्तु अन्तदुष्टः शठतया संवृताकारत्वान्न बहिरित्येकः, अन्यस्तु कारणेनोपदर्शितवाक्पारुष्याबहिरेवेति । पुरुषाधिकारात् तद्भेदप्रतिपादनाय षट्स्त्री व्यक्ता च, किन्तु अतिशयेन प्रशस्यः श्रेयानेकः प्रशस्यभावः सबोधत्वात् पुनः श्रेयान् प्रशस्तानुष्ठानत्वात् साधुवदित्येकः १, अन्यस्तु श्रेयांस्तथैव अतिशयेन पापः पापीयान् , स चाविरतत्वन दुग्नुष्ठायित्वादिति २, अन्यस्तु पापीयान् भावतो मिथ्यात्वादिभिरुपहतत्वात् कारणवशात् सदनुष्ठायित्वाच श्रेयानुदायिनूपमारकवत् ३ चतुर्थः स एव कृतपाप इति ४, अथवा श्रेयान् गृहस्थत्वे निष्क्रमणकाले वा पुनः श्रेयान् प्रव्रज्यायां विहारकाले वेत्येवमन्येऽपि । श्रेयानेको भावतो द्रव्यतस्तु श्रेयान् प्रशस्यतर इत्येवंबुद्धिजनकत्वेन सदृशकः-अन्येन श्रेयसा तुल्यो न तु सर्वथा श्रेयानेवेत्येकः १, अन्यस्तु भावतः श्रेयानपि द्रव्यतः पापीयान् एवं बुद्धिजनकत्वेन सदृशकोऽन्येन पापीयसा समानो न तु पापीयाने वेति द्वितीयः २, भावतः पापीयानप्यन्यः संवृताकारतया श्रेयानित्येवंबुद्धिजनकतया सदृशकोऽन्येन श्रेयसेति तृतीयः ३, चतुर्थः मुज्ञानः । श्रेयानेकः स तत्वात् श्रेयानित्येवमात्मानं
॥३८॥
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सू०३४२३४५।
श्रीस्थाना
सूत्रदीपिका
वृत्तिः
।
॥३९०॥
+6000000000000000000000000000000000000000
मन्यते यथावबोधात् लोकेन वा मन्यते विशदशुभानुष्ठानाद , इह च 'मन्निज्जत्ति वक्तव्ये प्राकृतत्वेन 'मन्नई' इत्युक्तम् , श्रेयानन्यन्य आत्मन्यरुचिपरायणत्वात् पापीयानित्यात्मानं मन्यते स एव वा पूर्वोपलब्धतद्दोषेण जनेन मन्यते दृढप्रहारिवत् १, पापीयानप्यपरो मिथ्यात्वाधुपहततया श्रेयानित्यात्मानं मन्यते कुतीथिकवत् , तद्भक्तेन वेति २, पापीयानन्योऽविरतिकत्वात् पापीयानित्यात्मानं मन्यते, सद्धोधत्वात् , असंयतो वा मन्यते, संयतलोकेनेति ३, श्रेयानेको भावतो द्रव्यतस्तु किञ्चित्सदनुष्ठायित्वात् श्रेयानित्येवंविकल्पजनकत्वेन सदृशकोऽन्येन श्रेयसा मन्यते-ज्ञायते जनेनेति विभक्तिपरिणामाद्वा सदृशकमात्मानं मन्यत इति एवं शेषाः ४, 'आघवइत्ते-' ति आख्यायक:-ज्ञापकः प्रवचनस्य एकः-कश्चिन्न च प्रविभावयिता-प्रभावयिता प्रभावकः शासनस्य, उदारक्रियाप्रतिभादिरहितत्वात् प्रविभाजयिता वा-प्रवचनार्थस्य नयोत्सर्गादिभिर्विवेचयितेति ४। आख्यायकः एकः सूत्रार्थस्य न चोच्छजीविकासम्पन्नो नैषणादिनिरत इत्यर्थः, स चापद्गतः संविग्नः संविग्नपाक्षिको वा इत्येकः, द्वितीयो यथाच्छन्दः, तृतीयः साधुः, चतुर्थी गृहस्थादिरिति । पूर्वसूत्रे साधुलक्षणपुरुपस्याख्यायकत्वोच्छजीविकासम्पन्नत्वलक्षणा गुणविभूपोक्ता, अधुना तत्साम्याद वृक्षविभूषामाह-'चउबिहे'त्यादि, अथवा पूर्वमुञ्छनीविकासम्पन्नः साधुपुरुष उक्तः, तस्य च वैक्रियलब्धिमतस्तथाविधप्रयोजने वृक्ष विकुर्वतो यद्विधा तक्रिया स्यात्तामाह-'चउविहे'त्यादि पातनयैवोक्तार्थ, नवरं 'प्रवालतये'ति नवाङ्कुरतयेत्यर्थः। एते हि पूर्वोक्ता आख्यायकादयः पुरुषास्तीथिका इति तेषां स्वरूपाभिधानायाह
चत्वारि वादिसमवसरणा प० त०--किरियावाई अकिरियावाई अण्णाणियवाई वेणइयावाई । णेरयाण
॥३९०
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श्रीस्थानाङ्गसूत्रदीपिकावृतिः ।
॥३९.१॥
चत्तारि वारसमोसरणा पं० त०--किरियावाइ, जाव वेणइयावाई, एवं असुरकुमाराणवि जाव थणियकुमाराण, एवं विगलिदियवज' जाव वेमाणियाण ( सू० ३४५) ।
समवसर
वादिनः - तीर्थिकाः समव सरन्ति - अवतरन्त्येष्विति समवसरणानि - विविधमतमीलकास्तेषां णानि वादिसमवसरणानि, क्रियां- जीवाजीवादिरर्थोऽस्तीत्येवंरूपां वदन्तीति क्रियावादिन आस्तिका इत्यर्थः तेषां यत्समवसरणं तत्त एवोच्यन्ते अभेदादिति, तन्निषेधादक्रियावादिनो-नास्तिका इत्यर्थः, अज्ञानमभ्युपगमद्वारेण येषामस्ति ते अज्ञानिकाः, त एव वादिनोऽज्ञानिकवादिनः, अज्ञानमेव श्रेय इत्येवंप्रतिज्ञा इत्यर्थः, विनय एव
किं तदेव निःश्रेयसायेत्येवंवादिनो वैनयिकवादिन इति एतद्भेदसंख्या चेयं -- “ असीयसय किरियाण, अकिरियवाईण होइ चुलसीई । अन्नाणिय सत्तट्टी, वेणइयाणं च बत्तीसा ॥ १ ॥ "त्ति, विस्तरो वृत्तौ । एतान्येव समवसरणानि चतुर्विंशतिदण्डके निरूपयन्नाह – 'रइयाण' मित्यादि सुगम, नवरं नारकादिपञ्चेन्द्रियाणां समनस्वत्वाच्चत्वार्यप्येतानि सम्भवन्ति, 'विगलिदियवज्ज' ति एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणाममनस्कत्वान्न सम्भवन्ति तानीति । पुरुषाधिकारात् पुरुषविशेषप्रतिपादनाय प्रायः सदृष्टान्तसूत्राणि पुरुषसूत्राणि त्रिचत्वारिंशत' 'चत्तारि मेहे 'त्यादीन्याह
चत्तारि मेहा पं० तं०- गजित्ता णाममेगे णो वासित्ता, वासित्ता णाममेगे णो गजित्ता, एगे गजित्तावि वासित्तावि, पगे णो गज्जित्ता णो वासित्तार, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-गज्जित्ता णाममेगे णो वासित्ता ४, २, चत्तारि मेहा पं० त०-गज्जित्ता णाममेगे णो विज्जुयाइत्ता, विज्जुयाइत्ता णाममेगे० ४, ३, पवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०- गज्जित्ता णामभेगे णो विज्जुयाइत्ता ४, ४, बत्तारि मेहा प० तं वासित्ता णाममेगे
सू० ३४५३४६ ।
॥३९१ ॥
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......
श्रीस्थानाङ्ग
...
सू०-३४६।
.
दीपिका वृत्तिः ।
॥३९२॥
+०००+00000000000000००-२२00000०००००००००००००
णो विज्जयाइत्ता ४, ५, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया ५० त०-वासित्ता णाममेगे णो विज्जुयाइत्ता ४, ६, चत्तारि मेहा पं० तं--कालवासी णाम पगे णो अकालवासी ४, ७, पवामेव चत्तारि पुरिसा ( सजाया ) पं० तं-- कालवासी णाममेगे णो अकालवासी ४, ८, चत्तारि मेहा पं० तं०-खेत्तवासी णामं एगे णो अखेत्तवासी ४, ९, पवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०--खेत्तवासी णामं एगे णो अखेत्तवासी ४, १०, चत्तारि मेहा पं० तं०--जणइत्ता णाम एगे णो णिम्मवइत्ता,णिम्मवइत्ता णाम पगे णो जणइत्ता ४, ११, एवामेव चत्तारि अम्मापियरो पं० त०जणइत्ता णाम पगे णो णिम्मवत्ता ४, १२ चत्तारि मेहा पं० त०-देसवासी णाम' पगे णो सब्बवासी ४, १३, एवामेव सत्तारि रायाणो पं० त०--देसाधिवती णाम पगे णो सव्वाधिवती ४, १४, ( सू० ३४६ ) ।
सुगमानि, नवर मेघाः-पयोदाः गजिता-गर्जिकृत नो वर्पिता-न प्रवर्षणकारीति १, एवं कश्चित्पुरखो गणितेव गर्जिता-दानज्ञानव्याख्यानानुष्ठानशत्रुनिग्रहादिविषये उच्चैः प्रतिज्ञावान् , नो-नैव वर्षितेव-वर्पितावर्षकोऽभ्युपगतसम्पादक इत्यर्थः, अन्यस्तु कार्यकर्ता न चोच्चैः प्रतिज्ञावानिति, एवमितरावपि २ । 'विजुयाइत्त'त्ति विद्युत्कर्ता ३, एवं पुरुषोऽपि कश्चिदुच्चैः प्रतिज्ञाता न च विद्युत्कारतुल्यस्य दानादिप्रतिज्ञातार्थारम्भाडम्बरस्य कर्त्ता-अन्यस्तु आरम्भाडम्भरस्य कर्त्ता न प्रतिज्ञातेति, एवमन्यावपीति ४। वर्पिता कश्चिद् दानादिभिन तु तदा रम्भाडम्बरकर्ता, अन्यस्तु विपरीतोऽन्य उभयथाऽन्यो न किञ्चिदिति ५-६, कालवर्षी-अबसरवर्षीति, एवमन्गेऽपि, | पुरुषस्तु कालवीव कालवर्षी-अबसरे दानव्याख्यानादिपरोपकारार्थ प्रवृत्तिक (प्रवर्तक) एकः अन्यस्त्वन्यथेति, एवं शेषौ ८, क्षेत्र धान्योत्पत्तिस्थानम् ९, पुरुषस्तु क्षेत्रवर्षी-पात्रे दानश्रुतादीनां निक्षेपकः, अन्यो विपरीतोऽन्य
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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥३९३॥
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स्तथाविधविवेकविकलता महौदार्यात् प्रवचनप्रभावनादिकरणतो वा उभयरूपोऽन्यस्तु दानादावप्रवृत्तिक इति १० जनयिता मेघो, यो वृष्ट्या धान्यमुद्गमयति, निर्मापयिता तु यो वृष्टयैव सफलतां नयतीति ११, एवं मातापितरावपीति प्रसिद्धम्, एवमाचार्योऽपि शिष्यं प्रत्युपनेतव्य इति १२, विवक्षित भरतादिक्षेत्रस्य प्रावृडादिकालस्य वा देशे आत्मनो वा देशेन वर्षतीति देशवर्षी १, यस्तु तयोः सर्वयोः सर्वात्मना वा वर्षति स सर्ववर्षी अन्यस्तु क्षेत्रतो देशे कालतः सर्वत्रात्मनो वा सर्व्वतः २, अथवा कालतो देशे क्षेत्रतः सर्वत्र ३, आत्मनो वा सर्वतः ४, अथवा आत्मनो देशेन क्षेत्रतः ५, कालतो वा सर्वत्र ६, अथवा क्षेत्रकालतो देशेनात्मना सर्वत्र ७, अथवा क्षेत्रतो देशेन आत्मनो देशेन च कालतः सर्वत्र ८, अथवा कालो देशे आत्मनो क्षेत्रतः सर्वत्र ९ इत्येवं नवभि
पैतिस देशवर्षी सर्ववर्षी चेति चतुर्थः सुज्ञान इति १३, राजा तु यो विवक्षित क्षेत्रस्य मेघवदेश एव योगक्षेमकारितया प्रभवति स देशाधिपतिर्न सर्वाधिपतिः स च पल्लीपत्यादिः यस्तु न पल्ल्यादौ देशे अन्यत्र तु सर्वत्र प्रभवति स सर्वाधिपतिर्न' देशाधिपतिः यस्तूभयत्र स उभयाधिपतिरथवा देशाधिपतिर्भूत्वा सर्वाधिपतिर्यो भवति वासुदेवादिवत् स देशाधिपतिः सर्वाधिपतिश्च चतुर्थी राज्यभ्रष्ट इति १४॥
बसारि मेहा पं० त० पुषखलसंवट्टर पज्जुण्णे जीमूने जिम्दे, पुक्खल संवट्टप णं महामेहे एगेणं वासेण दसवाससहस्लाई भावेर, पज्जुण्णे णं महामेद्दे पगेणं वासेणं दस वासलयाई भावेर, जीमूते णं महामेद्दे पगेणं वासे दसवासाई भनेर जिम्हे णं महामेघे बहिं वासेहिं पगं वास भाषेर ण वा भावे १५० सू० ३४७ / बसारि करंडगा पं० त०-सोवागकरंडप वेलियाकरंडप गाहावरकरंडप रायकरंडप १६. पवामेव चत्तारि आयरिया पं०
सूत्र ३४६-३४७
॥३९३॥
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श्रीस्थानात
स०३४८-३४२।
दीपिकावृत्तिः ।
0000.+0000000....0000000000000000000000000000000000.0044
त० सोवागकरंडगसमाणे गाहावदकर डसमाणे वेसियाकरंडसमाणे रायकरंडसमाणे १७ (सू०३४८) चत्तारि रुक्षा पं० तं० साले णामं पगे सालपरियाते साले णाम पगे परंडपरियाते परंडे नाम पगे० ४, १८ एवामेव चत्तारि आयरिया पं० ते साले णाम पगे सालपरियाते, साले नाम एगे परंडपरियाते, परंडे नाम एगे सालपरियाते, परंडे नाम पगे परंडपरियाते ४ १९ चत्तारि रुक्खा पत० साले जामपगे साल परिवारे, साले णाम एगे परंडपरिवारे, परंडे नाम पगे०४,२०, पयामेव चत्तारि आरिया पंतसाले नाम पगेसालपरिवारे, साले णाम एगे परंउपरिवारे० ४, २१, सालदुनमज्झयारे, जह साले नाम होइ दुमराया। इय सुंदर भायरिए, सुंदरसीसे मुणेयव्वे ॥१॥ परंडमझयारे, जह साले णाम होइ दुमराया । इय सुंदरआयरिए, मंगुलसीसे मुणेयव्ये ॥२॥ सालदुममज्झयारे, एरंडे नाम होइ दुमराया । इय मंगुलआयरिए, सुंदरसीसे मुणेयवे ॥३॥ एरंडमज्झयारे, परंडे नाम होइ दुमराया । इय मंगुलमायरिर, मंगुलसीसे मुणेयब्वे ॥४॥ चत्तारि मच्छा पं० त०--अणुमोतचारी पडिसोतचारी अंतचारी मज्झचारी २२, पवामेव चत्तारि भिक्खागा पं० -- अणुसोतचारी पडिसोतचारी अंतचारी मज्झचारी २३, चत्तारि गोला पं० त०--महुसित्थगोले जउगोले दारुगोले पुढवि( मट्टिया )गोले २४, पवामेव चत्तारि पुरिसजाया पंत-महुसित्थगोलसमाणे ०४,२५, चत्तारि गोला पं० त०-अयगोले तउयगोले तंबगोले सीसगगोले २६, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया प० त०-अयगोलसमाणे जाव सीसगगोलसमाणे २७, चत्तारि गोला पं० त०-हिरण्णगोले सुवण्णगोले रयणगोले वहरगोले २८, पवामेव चत्तारि पुरिसजाया पंत--हिरण्णगोलसमाणे जाव वइरगोलसमाणे २९, चत्तारि पत्ता पं०6०-असित्ते करपत्ते खुरपले कलंबचीरियापत्ते ३०, पवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-असिपत्तसमाणे जाव कलंबचीरियाप
॥३९४॥
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१०.४.०...
सू० ३४२.३५२।
भीस्थाना
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
॥३९५॥
ससमाणे ३१ अत्तारि कडा पतसुखकडे विदलकडे चम्मकढे कंबलकडे ३२ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पंतसुंबकडसमाणे जाव कंवलकडसमाणे ३३. (सू०३४९) चउन्विहा च उप्पदा पं० त० पगखुरा दुखुरा गंडीपया सण फया ३४; चउब्विहा पक्खी ५० त० चम्मपक्खी रोमपक्खी समुग्गपक्खी विततपक्खी ३५ चउबिहा खुणा त०बांदिया तेइंदिया चरिदिया संमुच्छिमपचिदियतिरिक्खजोणिया ३६ (सू० ३५०) चत्तारि पानी पंत णिवत्ता णाम एगे णो परिवत्ता, परिवहत्ता णाम एगे णो णिवइत्ता, पगे णिवइत्ता वि परिवत्ता वि, एगे णो निवरत्ता णो परिवइत्सा ३७, पबामेव चत्तारि भिक्खागा प० ते-णिवत्ता णाम पगे णो परिवत्ता ४, ३८, (सू० ३५१) चत्तारि पुरिसजाया पं०-णिकडे णाम पगे णिक्कट्ठ, णिक? णाम पगे अनिक ४,३९, चत्तारि पुरिसजाया पं० २०निको नाममेगे निकट्टप्पा, निको नाममेगे अनिकट्टप्पा ४, ४०, चत्तारि पुरिसजाया पं० २० बुहे णाम एगे बुधे ४,४१, चत्तारि पुरिसजाया ५० त०-चुघे णाम एगे बुधहियए ४, ४२, चत्तारि पुरिसजाया ५० त-मायाणुकपते णाममेणे जो पराणुकाते ४, ५३ (२० ३५२) ।
__ 'पुक्खले त्यादि. 'एगेण वासेण"ति एकया दृष्टया भावयतीति-उदकस्नेहवतीं करोति धान्यादिसन्निभादनसमर्थामिति यावद् भुत्रमिति गम्यते, जिह्मस्तु बहुभिर्वषणैरेकमेव वर्षमब्दं यावद् भुवं मादयति नैव वा भावयति रूक्षत्वात्तज्जलस्वेति । अत्रान्तरे मेघानुसारेण पुरुषाः पुष्कला.तसमानादयः पुरुषाधिकारवाद अभगृह्या ति, तत्र सकृदुपदेशेन दानेन वा प्रभूतकाल यावच्छुभस्वभावमीश्वर वा देहिनं यः करोत्यसाबाद्यमेघश्यानः, एवं स्तोकतरस्तांकतमकालापेक्षया द्वितीयतृतीयमेघसमानौ, असकृदुपदेशादिना देहिनमल्पकालं यावदुपकुर्वन्ननुपकु
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। सू०३६७-३५२
भीस्थानाङ्ग
सूत्ररीपिका वृत्तिः ।
॥३९६||
+4.04.000000.00+++000000+000000000000++++++000000++++
र्वन् वा चतुर्थमेघसमान इति १५ । करण्डको-वस्त्राभरणादिस्थान जनप्रतीतः, श्वपाककरण्डकः--चाण्डालकरण्डकः, स च प्रायश्चर्मपरिकोपकरणवर्धादिचा शस्थानतयाऽत्यन्तमसारो भवति, वेश्याकरण्डकस्तु जतुपूरितस्वर्णा भरणा| दिस्थानत्वात् किञ्चित्ततः सारोऽपि वक्ष्यमाणकरण्डकापेक्षया त्वसार एवेति, गृहपतिकरण्डकः-श्रीमत्कौदुम्बिककरण्डकः, स च विशिष्टमणिसुवर्णाभरणादियुकत्वात् सारतरः, राजकरण्डकस्तु अमूल्यरत्नादिभाननत्वात् सारतम इति १६, एवामाचार्यों यः षट्प्रज्ञापकगाथादिरूपमूत्रार्थधारी विशिष्ट क्रियाविकलश्च स प्रथमोऽत्यन्तासारत्वात् , यस्तु दुरधीतश्रुतलवोऽपि वागाडम्बरेण मुग्धजनमावर्जयति स द्वितीयः परीक्षाऽक्षमतया असारत्वादेव, यस्तु स्वससमयपरसमयज्ञः क्रियादिगुणयुक्तश्च स तृतीयःसारतरत्वात् , यस्तु समस्ताचार्यगुणयुकतया तीर्थकरकल्पः स चतुर्थःसारतमत्वात् सुधादिवद इति १७, सालो नामकः सालाभिधानवृक्षनातियुकत्वात् सालस्यैव पर्याया--धर्मा बहलच्छायत्वसेव्यत्वादयो यस्य स सालपर्याय इत्येकः, सालो नामैफ इति तथैव एरण्डस्येव पर्याया धर्मा अवहलच्छायादयो यस्य स एरण्डपर्याय इति द्वितीयः, एरण्डो नामैक एरण्डाभिधानवृक्षजातीयत्वात् सालपर्यायो बहलच्छायत्वादिधर्मयुरुत्वादिति तृतीयः, एरण्डो नामैकस्तथैव एण्डपर्यायः अबालच्छायत्वाघेरण्डधर्मयु कत्वादिति चतुर्थः १८, आचार्यस्तु साल इब सालो, यथा हि सालो जातिमानेवमाचार्योऽपि यः सत्कुलः सद्गुरुकुलश्च स साल एवो च्यते, तथा सालपर्यायः-सालवा, यथा हि सालः सच्छायत्वादिधर्मयुक्त एवं यो ज्ञानक्रियाप्रभवयशःप्रभृःतिगुणयुक्तो भवति स तथोच्यते इत्येकः, तथा सालो नामैक इति तथैव एरण्डपर्यायस्तूतविपर्ययादिति द्वितीयः, एवमितरावपीति १९, तथा सालस्तथैव साल एवं परिवारः--परिकरो यस्य स सालपरिवारः, एवं शेषत्रयमिति
॥३२६॥
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सू०३४८-३५२
भीस्थानात
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥३९७॥
२०, आचार्यस्तु साल इव सालो गुरुकुलश्रुतादिभिरुत्तमत्वात् , सालपरिवारः सालकल्पमहानुभाबसाधुपरिवारतात , तथा एरण्डपरिचारः एरण्डकल्पनिर्गुणसाधुपरिकरत्वात् , एवमेरण्डोऽपि श्रुतादिमिहीनत्वादिति, चतुर्थः सुझानः, उक्तचतुर्भङ्गया एव भावनार्थ 'सालदुमे'त्यादिगाथाचतुष्क व्यक्त, नवरं मालम्-असुन्दरम् २१, 'अणुसोपत्ति अनुश्रोतसा चरतीत्यनुश्रोतवारी--नधादिप्रवाहगामी, एवमन्येऽपि त्रयः २२, एवं भिक्षाकः-साधुः, यो बभिग्रहविशेषादपाश्रयसमीपात् कुलेषु क्रमेण भिक्षते सोऽनुश्रोतश्चारिमत्स्यवदनुश्रोतवारी प्रथमः, यस्तूत्क्रमेण गृहेषु भिक्षमाण उपाश्रयमायाति स द्वितीयो, क्षेत्रान्तरेषु ( क्षेत्रान्तेषु) भिक्षते स तृतीयः, क्षेत्रमध्ये चतुर्थः २३, मधुसित्थु-मदन तस्य गोलो-यो वृत्तपिण्डो मधुसित्थुगोलः, एवमन्येऽपि, नबर जतु-लाक्षा, दारुमृत्तिके प्रसिद्ध इति २४, यथेते गोला मृदुकठिनकठिनतरकठिनतमाः क्रमेण भवन्त्येव ये पुरुषाः परिषहादिषु मृदृदृढतरदृहतमसत्वा भवन्ति ते मधुसित्थुगोलसमाना इत्यादिभिर्व्यपदेशैर्व्यपदिश्यन्त इति २५, अयोगोलादयः प्रतीताः २६, पतेचायोगोलकादिभिः क्रमेण गुरुगुरुतरगुरुतमात्यन्त गुरुभिरारम्भादिविचित्रप्रवृत्युपार्जितकर्मभारा ये पुरुषा भवन्ति तेऽयोगोलसमाना इत्यादिव्यपदेशेर्व्यपदेशवन्तो भवन्ति पितृमातृ पुत्रकलत्रगतस्नेहभारतो वेति २७, हिरण्यादिगोलेषु क्रमेणाल्पगुणगुणाधिकगुणाधिकतरगुणाधिकतमेषु पुरुषाः समृद्धितो ज्ञानादिगुणतो वा समानतया योज्याः २८ पत्राणि-पर्णानि तद्वत् प्रतनुतया यानि अस्यादीनि तानि पत्राणीति, असिः--खड़गः स एव पत्रमसिपत्र, करपत्र-क्रकचं येन दारु छिद्यते, क्षुरः--छुरः स एव पत्रं क्षुरपत्र, कदम्बचीरिकेति शखविशेष इति २९, तत्र द्राक् छेदकत्वादसेयः पुरुषो दागेव स्नेहपाशं छिनत्ति सोऽसिपत्रसमानः, अवधारितदेववचनसनत्कुमारचक्रवर्ति वत् ,
+++++++++++++++++00000000000000000000000000000000004
॥३९७॥
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सू०३४८-३५२।
धीस्थानाक
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
॥३९८॥
....+0000...+..००००००००००००००००००००.000000000......
यस्तु पुनः पुनरुच्यमानो भावनाभ्यासात् स्नेहतरुं छिनत्ति स करपत्रसमानः तथाविधश्रावकवत् , करपत्रस्य हि गमनागमनाभ्यां कालक्षेपेण छेदकत्वादिति, यस्तु श्रुतधर्म मार्गोऽपि सर्वथा स्नेहच्छेदासमर्थों देशविरतिमात्रमेव प्रतिपद्यते स क्षुरपत्रसमानः, क्षुरो हि केशादिकमल्पमेव छिनत्तीति, यस्तु स्नेहच्छेदं मनोरथमात्रेणेव करोति स चतुर्थः, अविरतसम्यग्दृष्टिरिति, अथवा यो गुर्वादिषु शीघ्रमन्दमन्दतरमन्दतमतया स्नेह छिनत्ति स एवमुपदिश्यते ३१, कम्बादिभिरातानवितान भावेन निष्पावते यः स कटः, कट इव कट इत्युपचारात् तन्वादिमयोऽपि कट एवेति, तत्र 'सुबकडे'त्ति तृणविशेषनिष्पन्नः 'विदलकडे'त्ति वंशशकलकृतः 'चम्मकडे'त्ति वर्धव्यूतमञ्चकादिः 'कंबलकडे'त्ति कम्बलमेवेति ३२, एतेषु चाल्पबहुबहुतरबहुतमावयवप्रतिबन्धेषु पुरुषा योजनीयाः, तथाहि--यस्य गुर्वादिष्वल्पः प्रतिबन्धः स्वल्पव्यलीकादिनापि विगमात् स मुम्बकटसमान इत्येवं सर्वत्र भावनीयमिति ३३, चतुष्पदाः स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चः, एकः खुरः पादे पादे येषां ते एकखुरा:--अश्वादयः, एवं द्वौ खुरौ येषां ते, ते च गवादयः, गण्डी सुवर्ण कारादीनामधिकरणी गण्डिका तद्वत्पादा येषां ते तथा, इस्त्यादयः, 'सणप्फय'त्ति सनखपदाः नाखराः-सिंहादयः, इहोत्तरसत्रद्वये च जीवानां पुरुषशब्दवाच्यत्वात् पुरुषाधिकार एवेति ३४, चर्ममयपक्षाः पक्षिणश्चर्मपक्षिणो--वल्गुलीप्रभृतयः, एवं लोमपक्षिणो-हंसादयः, समुद्गक इव पक्षी येषां ते समुद्गकपक्षिणः, समासान्त इन्, ते च बहिर्दीपसमुद्रेषु, एवं विततपक्षिणोऽपीति ३५, क्षुद्रा-अधमा अनन्तरभवे सिद्धयभावात् प्राणा-उच्छ्वासादिमन्तः क्षुद्रप्राणाः, संमूर्छनेन निवृत्ताः संमृर्छिमाः, तिरश्चां सत्का योनिर्येषां ते तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारये सति सम्मूर्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका इति भवति ३६,
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॥३९८०
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श्रीस्थाना
सू० ३४९३५२
दीपिकावृत्तिः । ॥३९९॥
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निपतिता-नीडादवतरीता, अवतरीतु शक्तो नामकः पक्षी धृष्टत्वाद् जडत्वाद्वा न तु परिव्रजिता-न परिवजितुं शीलो (शक्तो) बालत्वादित्येकः, एवमन्यः परिव्रजितु शतः पुष्टत्वान्न तु निपतितुं भीरुत्वादन्यस्तूभयथा चतुर्थस्तूभयप्रतिषेधवानतिबालत्वादिति ३७, निपतिता-भिक्षाचर्यायामवतरीता भोजनाधर्थित्वान्न तु परिव्रजितापरिभ्रमको ग्लानत्वादलसत्वाल्लज्जालुत्वाद्वा इत्येकः, अन्यः परिवजिता-परिभ्रमगशील आश्रयान्निर्गतः सन् न तु निपतिता-भिक्षार्थमवतरीतुमशक्तः सूत्रार्थासक्तत्वादिना, शेषौ पष्टो ३८, निष्कृष्टः-निष्कर्षितः तपसा कृशदेह इत्यर्थः, पुनर्निष्कृष्टो भावतः कृशीकृतकषायत्वादेवमन्ये त्रय इति ३९, एतदभावनार्थ मेवानन्तरं सूत्रनिष्कृष्टः कृशशरीरतया तथा निष्कृष्टः आत्मा कपायनिर्मथनेन यस्य स तथेत्येवमन्येऽपि त्रय इति, अथवा निष्कृष्टस्तपसा कृशीकृतः पूर्व पश्चादपि तथैवेत्येवमादि-सूत्र व्याख्येय, द्वितीयं तु यथोक्तमेवेति ४०, बुधो बुधत्वकार्यभूतसत्क्रियायोगात्, उक्तं च--"पठकः पाठकश्चैव, ये चान्ये तत्त्वचिन्तकाः । सर्वे ते व्यसनिनो ज्ञया, यः क्रियावान् स पण्डितः॥१॥" इमर्बुधः सविवेकमनस्त्वादित्येकः, अन्यो चुधस्तथैव, अधस्त्वविवितमनस्त्वात् , अपरस्त्वबुधोऽसक्रियत्वात् , बुधो विवेकविविक्तचित्तत्वाचतुर्व उभयनिषेधादिति ४१, अनन्तरसूत्रेगैतदेव व्यक्तीक्रियते-बुधः सक्रियत्वात् , बुधं हृदय-मनो यस्य स बुधहृदयो विवेचकमनस्त्वात् , अथवा बुधः शास्त्रज्ञत्वात् बुधहृदयस्तु कार्येष्वमूढलक्षत्वादित्येकः, एवमन्ये त्रय ऊह्याः ४२, आत्मानुकम्पक:-आत्महितप्रवृत्तः प्रत्येकबुद्धो जिनकल्पिको वा परानपेक्षो वा निघृणः, परानुकम्पको निष्ठितार्थ तया तीर्थकरः आत्मानपेक्षो वा दयेकरसो मेतार्थवत् , उभयानुकम्पकः स्थविरकल्पिक, उभयाननुकम्पकः पापात्माकालशौकरिकादिरिति ४३ ।
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
१४००॥
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अनन्तरं पुरुषभेदा उक्ताः, अधुना तद्व्यापारविशेषं तद्वेदसम्पाद्यमभिधित्सुः सूत्रसप्तकमाह - 'चरवि संवासे' इत्यादिचउब्विहे संवासे पं० त० दिवे आसुरे रक्खसे माणुसे १, चव्वि संवासे पं० त० देवे णाम पगे देवीए सद्धि संवास गच्छह, देवे णाम एगे असुरीप सद्धि संवास गच्छइ. असुरे णाम एगे देवीए सद्धिसंघास गच्छर, असुरे नाम पगे असुरीए सद्धि संवास गच्छइ २, चउच्चि संवासे पं० त०- देवे णाम पगे देवीप सद्धि संवास गच्छर, देवे णाम पगे रक्खसीप सद्धि संवास गच्छ, रक्खसे णाम एगे देवीए सद्धि संवास गच्छछ. रक्खसे नाम एगे रक्खसीए सद्धि संवास गच्छद्द, ३, चउबिहे संवासे पं० त०- देवे णाम एगे देवीप सद्धि संवास गच्छ, देवे णाम एगे मणुस्सीए सद्धि संवास गच्छइ मणुस्से नाम एगे देवीप सद्धि संवास गच्छ मस्से नाम पगे मणुस्सीप सद्धि संवास गच्छर ४, चउब्विहे संवासे पं० त० - असुरे णाम पगे असुरीप सद्धि संवास गच्छर, असुरे णाम एगे रक्खसीप सद्धि संवास गच्छद्द, ४, ५, चउच्चिद्दे संवासे पं० त०-- असुरे णाम पगे असुरी सद्धि संवास गच्छर, असुरे णाम एगे मणुस्सीप सद्धि संवास गच्छइ ४, ६, चउब्वि संवासे पं० त० रक्खसे णाम पगे रक्खसीए सद्धि संवास गच्छर, रक्खसे णाम पगे मणुस्सीए सद्धि संवास गच्छइ ४, ७, ( सू० ३५३) चउव्विहे अवर्द्धसे पं० त० - आसुरे आभिओगे संमोहे देवकिब्बिसे चि ठाणेहिं जीवा आसुरत्ताए कम्मं पगति, तं०- कोइसीलणयाए पाहुडसीलणयाए संसत्ततवोकम्मेण निमित्ताजीवणयार, चउद्दि ठाणेहिं जीवा अभिओगत्ताए कम्मं पगरेंति, तं०-अत्तुक्कोसेण परपरिवारण भूकम्मेण कोउयकरणेण, चउहिं ठाणे जीवा सम्मोहत्ताए कम्म पगरे ति तं० - उम्मग्गदेसणार मग्गंतरापण कामास सप्पयोगेण भिजाणियाणकर
+
.
सू० ३५३-३५४ ।
॥४८८॥
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श्रीस्थानाङ्गसूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥४०१ ॥
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पेण, चउहि ठाणेहि जीवा देवकिब्बिसियत्ताए कम्म पगरेति, तं०-अरहंताण अवण्ण वदमाणे, अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स अवन्न ं वदमाणे, आयरियउवज्झायाणमवन्न वदमाणे, चाउवण्णस्स संघस्स अवण्ण वदमाणे ( सू० ३५४) । 'चविहे संवासे 'सुगम', नवर खिया सह संवसनं - शयनं संवासः, द्यौः-स्वर्गः, तद्वासी देवोऽप्युपचाराद् द्यौस्तत्र भवो दिव्यो वैमानिकसम्बन्धीत्यर्थः, असुरस्य भवनपतिविशेषस्यायमासुर एवमितरौ, नवर राक्षसो व्यन्तरविशेषः, चतुर्भङ्गिकासूत्राणि देवासुरेत्येवमादिसंयोगतः षड् भवन्ति । पुरुपक्रियाधिकारादेवापञ्च ससूत्र, तत्र देव ३ | असुर २ राक्षस १ मनुष्य अपध्वंसनमपध्वंसश्चारित्रस्य तत्फलस्य वा असुरादिभावनाजनितो विनाशः देवा अमुरी राक्षसी नारी तत्रासुरभावनाजनित आसुरः येषु चानुष्ठानेषु वर्त्तमानोऽमुरत्वमर्जयति तैरात्मनो वासनमासुरभावना, [ एवं भावनान्तरमपि, अभियोगभावनाजनित आभियोगः, सम्मोह भावनाजनितः सम्मोहः, देवकिल्बिषभावनाजनितो दैवकिल्बिष इति इह च कन्दर्प भावनाजनितः कान्दर्पोऽपध्वंसः पञ्चमोऽस्ति स च सन्नपि नोक्तः, चतुःस्थानकानुरोधाद् भावना हि पञ्चागमेऽभिहिताः ।] आह च" कंदष्प १ देवकिल्विस २, अभिगा ३ आमुराय ४ संमोहा ५ । एया उ संकिलिट्ठा, पंचविद्या भावणा भणिया ||१||" आसाञ्च मध्ये यः यस्यां भावना वर्त्तते स तद्विधेषु देवेषु गच्छति चारित्रलेशप्रभावाद्, उक्तं च- "जो संजओवि एयासु, अप्पसत्थासु as च । सो विहे गच्छर, सुरेस भइओ चरणहीणो || १ || "त्ति, आसुरादिरपध्वंस उक्तः, स चासुरत्वादिनिबन्धन इत्यसुरादिभावनास्वरूप भूतान्यसुरादित्वसाधनकर्म्मणां कारणानि सूत्रचतुष्टयेनाह - - ' चउहिं ठाणेही 'त्यादि सूत्रचतुष्टयं सुगम, नवरमसुरेषु भव आसुरः असुरविशेषस्तद्द्भावः आसूरत्वं तस्मै आसुरत्वाय, तदर्थमित्यर्थः, तद्यथा-को
सू०-३५४ ।
॥४०१॥
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सू०३५४-३५५।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
॥४०२॥
1.1.0.00000...++0000000+++0000000000++
धनशीलतया-कोपस्वभावतया, प्राभृतशीलतया-कलहनसम्बन्धतया, संसक्ततपःकर्मणा-आहारोपधिशय्यादिप्रतिबद्धभावतपश्चरणेन, निमित्ताजीवनतया-त्रैकालिकलाभालाभादिविषयनिमित्तोपात्ताहाराापजीवनेनेति, तथा अभियोगंव्यापारणमर्हन्तीत्याभियोग्याः-किङ्करदेवविशेषास्तभावः तत्ता तस्य तया वेति, आत्मोत्कर्षेण-आत्मगुणाभिमानेन परपरिवादेन-परदोषपरिकीर्तनेन भूतिकर्मणां-ज्वरितादीनां भूत्यादिभी रक्षादिकरणेन कौतुककरणेन-सौभाग्यादिनिमित्तं परस्नपनकादिकरणेनेति, इयनप्येवमन्यत्र-“कोउय भूईकम्मे, पसिणा इयरे निमित्तमाजीवी । इढिरससायगरुओ, अभिओग भावण कुगइ ॥१॥" प्रश्नोऽङ्गुष्ठप्रश्नादिरितरः स्वप्नविद्यादिरिति, तथा सम्मुह्यतीति सम्मोहः मृहात्मा देवविशेष एव तदभावस्तत्ता तस्यै सम्मोहतायै सम्मोहत्वाय सम्मोहतया वेति, 'उम्मग्ग'त्ति उन्मार्गदेशनया सम्यग्दर्शनादिरूपमार्गातिक्रान्तधर्मप्रकथनेन मार्गान्तरायेण-मोक्षाध्वप्रवृत्तत्तद्विघ्नकरणेन, कामाशंसाप्रयोगेण-शब्दादावभिलापकरणेन, 'भिज्ज'त्ति,लोभो-गृद्धिस्तेन निदानकरणेन, एतस्मात्तपःप्रभृतेश्चक्रवादित्व में भूयादिति निकाचनाकरणेनेति, इयमप्येवमन्यत्र-"उम्मग्गदेसओ मग्गनासओ" इत्यादि, देवानां मध्ये किल्विषः-पापोऽत एवास्पृश्यादिधर्मको, देवश्चासौ किल्विषश्चेति देवकिल्बिषः, शेष तथैव, अवर्णोऽश्लाघा असदोषोदघाटनमित्यर्थः, इह कन्दर्पभावना नोक्ता चतु:स्थानकवादित्यवसेयम् , अयञ्चावंत: प्रवज्यान्वितस्येति प्रवज्यानिरूपणाय 'चउचिहा' पव्वज्जे'त्यादि सूत्राष्टकम्---
चउम्विद्दा पव्वज्जा पंत-हलोगपडिबद्धा परलोगपडिबद्धा दुहओलोगपडिबद्धा अपडिबशा १, चउठिवहा पव्यज्जा तं०-पुर भोपडिबद्धा मग्गओपडिबद्धा दुहओपडिबद्धा अपडिबद्धा २, चउब्विहा पब्बज्जा प० त०
0000००००००००००००००००००००००००००+0000000000000000......
॥४०२॥
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भीस्थानाङ्गसूत्रदीपिकावृत्तिः ।
॥४०३ ॥
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उवायपव्वज्जा अक्खातपव्वज्जा संगारपव्वज्जा विहगगइपव्वज्जा ३, चउव्विद्या पव्वज्जा पं० त० - तुयावद्दत्ता पुयावइत्ता मोयावत्ता परिपूयावत्ता ४, चउव्विद्या पव्वज्जा पं०-०-- नडखरया भडखया सीखाया सियालखइया ५, चव्विा किसी पं० त० - वाविया परिवाविया निंदिया परिणिदिया ६ एवामेव चउन्विद्दा फज्जा पं० त० वाविया परिवाविया निंदिया परिणिदिया ७, चउव्विद्या पव्वज्जा पं० त० घण्णपुंजियसमाणा घण्णविरलियस माणा धानविक्खित्तसमाणा घण्णस गेज्झियसमाणा ८ ( सू० ३५५ ) ।
कण्ठ्य, नवरमिहलोकप्रतिबद्धा निर्वाहादिमात्रार्थिनां परलोकप्रतिबद्धा जन्मान्तरकामाद्यर्थिनां द्विधालोकबद्धोभयार्थिनां, अप्रतिवद्धा विशिष्टसामायिकवतामिति १| पुरतो ऽग्रतः प्रव्रज्यापर्यायभाविषु शय्या (शिष्या)ssहारादिषु या प्रतिबद्धा सा तथोच्यते, एवं मार्गतः - पृष्ठतः स्वजनादिषु, द्विधाऽपि काचित्, अप्रतिबद्धा पूर्ववत् २। 'उवाय'त्ति, अवपातः - सद्गुरूणां सेवा, ततो या प्रव्रज्या साऽवपातप्रव्रज्या, आख्यातस्य प्रव्रजेत्याक्तस्य या स्यात् सा आख्यातप्रव्रज्या आर्यरक्षितभ्रातुः फल्गुरक्षितस्येवेति, 'संगार'त्ति सङ्घकेतस्तस्माद्या सा तथा मेतार्यादीनामिव, यदिवा यदि त्वं प्रव्रजसि तदाऽहमपीत्येवं सङ्केततो या सा तथेति, 'विहगइ 'त्ति विहगगत्या – पक्षिन्यायेन परिवारादिवियोगेनैकाकिनो देशान्तरगमनेन च यासा विहगगतिप्रत्रज्या ३, 'तुप्रावइत्ता'त्ति, तोद कृत्वा तोदयित्वा व्यथामुत्पाद्य या प्रव्रज्या दीयते, 'मुनिचन्द्रपुत्रस्य सागरचन् द्रेणेव सा तथोच्यते, ओयावइत्त'त्ति क्वचित्पाठस्तत्र ओजो - वल शारीर विद्यादिसत्कं वा तत् कृत्वा - प्रदर्श्य या दीयते सा ओजयित्वेत्यभिधीयते, 'पुयावइत्त'त्ति 'लव गता 'विति वचनात् प्लावयित्वा - अन्यत्र नीत्वाऽऽर्यरक्षितवत् पूतं वा दूषणव्यपो
सू०-३५५ ।
॥४०३॥
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सू०-३५५।
भीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका पृत्तिः ।
॥४०४॥
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हेन कृत्वा या सा पूतयित्वेति, 'बुयावइत्त'त्ति सम्भाष्य गौतमेन कर्ष कंवत् , वचन वा पूर्वपक्षरूपं कारयित्वा निगृह्य च प्रतिज्ञावचन वा कारयित्वा या सा तथोक्ता, कचित् 'मोयावइत्त'त्ति पाठस्तत्र मोचयित्वा साधुना तैलार्थदासत्वप्राप्तभगिनीवदिति, 'परिपूयावइत्त'त्ति घृतादिभिः परिप्लुतभोजनः परिप्लुत एव तं कृत्वा परिप्लुतयित्वा सुहस्तिना रङ्कवत् या सा तथोच्यते । नटस्येव संवेगविकलधर्मकथाकरगोपार्जितभोजनादीनां 'खइय'त्ति खादित भक्षण यस्यां सा नटखादिता, नटस्येव वा 'खइय'ति संवेगशून्यधर्मकथ नलक्षणो हेवाकः-स्वभावो यस्यां सा तथा, एवं भटादिष्वपि, नवरं भटः तथाविधवलोपदर्शनलब्धभोजनादेः खादिता आर भटवृत्तिलक्षण हेवाको वा, सिंहः पुनः शौर्यातिरेकादवज्ञयोपात्तस्य यथारब्धभक्षणेन वा खादिता तथाविधप्रकृति, शगालस्तु न्यग्वृत्त्योपात्तस्यान्यान्यस्थानभक्षणेन वा खादित तत्त्वभावो वेति ५। कृषिः-धान्यार्थ क्षेत्रकर्षणम् , 'वाविय'त्ति, सकृद् धान्यवपनवती, 'परिवाविय'त्ति, द्विस्विळ उत्पादय स्थानान्तरारोपणतः परिवपनवती शालिकृषिवत् , निंदिय'त्ति एकदा विजातीयतृणाद्यपनयनेन शोधिता निदाना(त्ता), परिनिंदिय'त्ति द्विस्सिर्वा तृणादिशोधनेनेति ६। प्रव्रज्या तु 'वाविया' सामायिकारोपणेन, 'परिवाविया' महावतारोपणेन निरतिचारस्य, सातिचारस्य वा मूलप्रायश्चित्तदानतः, 'निंदिया' सकृदति वारालोचनेन, 'परिणिदिया' पुनः पुनरिति ७। 'धन्नपुंजियासमाण'त्ति खले लूनपूनविशुद्धपुठजीकृतधान्यसमाना सकलातिवारकचवरविरहेण लब्धस्वस्वभावत्वात् एका, अन्या तु खलक एवं यद् विरेल्लित-विसारित वायुना पूत (न)म(प्रथम)पुजीकृत धान्यं तत्समाना या हि लघुनाऽपि यत्नेन स्वभावं लप्स्यत इति, अन्या तु यद्विकीर्ण-गोखुरक्षुण्णतया विक्षिप्त धान्य तत्समाना या हि सहजसमुत्पन्नातिचारकचवरयुक्तत्वात् साम
100000000000000000000000000000००००००००००००००००००००००...4
॥४०४॥
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सू०३५६-३५७1
श्रीस्थानात सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥४.५॥
ग्रथन्तरापेक्षया कालक्षेपलभ्यस्वभावा सा धान्यविकीर्णसमानोच्यते, अन्या तु यत्सङ्कीर्णकर्षित-क्षेत्रादाकर्षित खलमानीत धान्यं तत्समाना या हि बहुतरातिचारोपेतत्वाद् बहुतरकालप्राप्तव्यस्वभावा सा धान्यसङ्कर्षितसमानेति ८, इह च पुनितादेान्यविशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वादिति ॥ इयञ्च प्रव्रज्या एवं विचित्रा सञ्ज्ञावशाद् भवतीति संज्ञानिरूपणाय सूत्रपञ्चकम्--
चत्तारि सण्णा पं० त०-अहारसण्णा भयसण्णा मेहुणसण्णा परिग्गहसण्णा १, चउहि ठाणेहिं आहारसण्णा समुप्पजइ, त०-ओमकोट्ठयार, छुद्दावेयणिजस्स कम्मस्स उदएण, मईप, तदट्ठोवोगेण २, चउहि ठाणेहिं भयसण्णा समुप्पजर, त-हीणसत्तयाए, भयवेयणीयस्स कम्मस्स उदएण', 'मईप, तदह्रोवओगेण ३, चउहि ठाणेहि मेहुणसण्णा समुप्पज्जा, त-चितमंससोणिययाए, मोहणिजस्स कम्मस्स उदएण', मईप, तदट्ठोवओगेण ४, चउहि ठाणेहि परिग्गहसण्णा समुप्पज्जा, तं-अविमुत्तयाए लोभवेयणिज्जस्स कम्मस्स उदपण, मईप, तदट्ठोवोगेण ५ (सू०३५६ ) । चउन्विहा कामा ५० त-सिंगारा कलुणा बीभत्सा रोद्दा, सिंगारा कामा देवाण, कलुणा कामा मणुयाण', बीभत्सा कामा तिरिक्खजोणियाण, रोहा कामा रपयाण (सू० ३५७)।
'चत्तारीत्यादि मुगम, केवल संज्ञानं संज्ञा-चैतन्य, तच्चासातवेदनीयमोहनीयकम्र्मोदयजन्यविपाक(विकार युक्तमाहारसंज्ञादित्वेन व्यपदिश्यत इति, तत्राहा संज्ञा-आहाराभिलापः, भय संज्ञा-भयमोहनीयसम्पायो जीवपरिणामः, मैथुनसंज्ञा-वेदोदयजनितो मैथुनाभिलाषः, परिग्रहसंज्ञा-चारित्रमोहनीय(मोहोदय)जनितः परिग्रहाभिलाष इति, अवमकोष्ठतया-रिक्तोदरतया, मत्या-आहारकथाश्रवणादिजनितया, तदर्थोपयोगेन-सततमाहारचिन्त
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| सू०३५७ ३.८।
श्रीस्थानात
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥४०६॥
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येति । हीनसत्त्वतया-सवाभावेन, मतिः-भयवार्ताश्रयणभीषणदर्शनादिननिता बुद्धिस्तया, तदर्थोपयोगेन-इहलोका दिभयलक्षणार्थपर्यालोचनेनेति । चिते-उपचिते मांसशोणिते यस्य स तथा तद्भावस्तत्ता तया चितमांसशोणिततया, मत्या-सुरतकथाश्रवणादिजनितबुद्धया, तदर्थोपयोगेन-मैथुनलक्षणार्थानुचिन्तनेनेति । अविमुक्ततया-सपरिग्रहतया, मत्या-सचेतनादिपरिग्रहदर्शनादिजनितबुद्धया, तदर्थोपयोगेन-परिग्रहानुचिन्तनेनेति ५, संज्ञा हि कामगोचरा भवन्तीति कामनिरूपणसूत्र व्यक्तञ्च, किन्तु कामाः-शब्दादयः, शृंगाराः-देवानामैकान्तिकात्यन्तिकमनोज्ञत्वेन प्रकृष्टरतिरसास्पदत्वादिति, रतिरूपो हि शृङ्गारो, मनुष्याणां करुणा मनोज्ञत्वस्यातथाविधत्वात् तुच्छत्वेन क्षणदृष्टनष्टत्वेन शुक्रशोणितादिप्रभवदेहाश्रितत्वेन च शोचनात्मकत्वात् , करुणो हि रसः शोकस्वभावः, 'करुणः शोकप्रकृति'रिति वचनात् इति, तिरश्चां बीभत्सा जुगुप्सास्पदत्वात् , बीभत्सरसो हि जुगुप्सात्मको, नैरयिकाणां रौद्रा-दारुणा आत्यन्तिकमनिष्टत्वेन क्रोधोत्पादकत्वात् रौद्ररसो हि क्रोधरूपो || एते च कामास्तुच्छगम्भीरयोधकेतरा इति तावभिधित्सुः सदृष्टान्तान्यष्टौ सूत्राण्याह
चत्तारि उदगा पं० २०-उत्ताणे णाम एगे उत्ताणोदए, उत्ताणे णाम पगे गंभीरोदए, गंभीरे णाम पगे उत्ताणोदए, गंभीरे णाम पगे गंभीरोदप १, एवामेध चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-उत्ताणे गाम पगे उत्ताण-बियप उत्ताणे नाम एगे गंभीरहियप ४, २, चत्तारि उदगा पं० त०-उत्ताणे णाम पगे उत्ताणोभासी, उत्ताणे णाम पगे गंभीरोभासी०४, ३, पवामेव चत्तारि पुरिसजाया 4 त०-उत्ताणे नाम पगे उत्ताणोभासी, उत्ताणे णाममेगे गभीरोभासी ४, ४, अत्तारि उदही पंत-उत्ताणे णाम एगे उत्ताणादही उत्ताणे णाम एगे गंभीरोदही ४, ५, पवामेव
...०००००.......०००००.................................."
॥४०६॥
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सू०३५८।
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चत्तारि पुरिसजाया पंत-उत्ताणे णाम पगे उत्ताणहियप, उत्ताणे णाम एगे गंभीरहियप ४, ६. चत्तारि श्रीस्थाना- उदही पं० २०-उत्ताणे णाम पगे उत्ताणोभासी, उत्ताणे णाम पगे गभीरोभासी ४, ७, पवामेव चत्तारि पुरिससूत्र
जाया पतं०-उत्ताणे णाम एगे उत्ताणोभासी ४. ८, (सू० ३५८) । दीपिका
_ 'चत्तारी'त्यादीनि व्यक्तानि, किन्तु उदकानि-जलानि प्रज्ञप्तानि, तत्रोत्तान नामक तुच्छत्वात् प्रतलमिवृत्तिः ।
मत्यर्थः, पुनरुत्तान' स्वच्छतयोपलभ्यमानमध्यस्वरूपत्वादक-जलम् 'उत्ताणोदय'त्ति व्यस्तोऽयं निर्देशः प्राकृतशेली॥४०७॥
वशात् समस्त इवावभासते, न च पूर्वोपात्तेनोदकशब्देनाय गतार्थों भविष्यतीति वाच्यम्, तस्य बहुवचनान्तत्वेनेहासम्बद्धयमानत्वात, साक्षादकशब्दे च सति किं तस्य वचनपरिणामादनुकर्षणेनेत्येवमुदधिसूत्रेऽपि भावनीयमिति । तथोत्तानं तथैव गम्भीरमुदक-गडुलत्वादनुपलभ्यमानस्वरूप तथा गम्भीरम्-अगाध अनुरत्वादनानमदक स्वच्छतयोपलभ्यमानमध्यस्वरूपत्वात, तथा गम्भीरमगाधत्वात् पुनर्गम्भी मुदकं गडुलत्वादिति, पुरुषस्तु उत्तानोऽगम्भीरो बहिर्दर्शितमददैन्यादिजन्यविकृतकायवाक्चेष्त्वादुत्तानहृदयस्तु दैन्यादियुक्तगुणधरणासमर्थचित्तत्वादित्येकोऽन्य उत्तानः कारणवशादर्शितविकृतचेष्टत्वात् , गम्भीरहृदयस्तु स्वभावेनोत्तानहृदयविपरीतत्वात्, तृतीयस्तु गम्भीरो दैन्यादिवत्त्वेऽपि कारणवशात् संवृताकारतया उत्तानहृदयस्तथैव चतुर्थः प्रथमविपर्ययादिति । तथा उत्तान प्रतलत्वादुत्तानमवभासते स्थानविशेषात् तथोत्तानं तथैव, गम्भीरम्-अगाधमवभासते सक्की
श्रयत्वादिना तथा गम्भीरमगाधमुत्तानावभासि तु विस्तीर्णस्थानाश्रयत्वादिना । तथा गम्भीरमगावं गम्भीरावभासि तथाविधस्थानाश्रितत्वादिनैवेति । पुरुषस्तु-उत्तानस्तुच्छः उत्तान एवावभासते प्रदर्शिततुच्छत्ववि
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.०० ......++000...................................
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18091
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
||४०८॥
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कारत्वाद्, द्वितीयः संवृतत्वात् तृतीयः कारणतो दर्शितविकारत्वात्, चतुर्थः सुज्ञानः । उदकसूत्रवदुदधिमूत्रद्वयमपि सदान्तिकमवसेयमिति, अथवा उत्तानः समाधत्वादेक उदधिः - उदधिदेशः पूर्वं पश्चादपि उत्तान एव वेलाया बहिःसमुद्रेष्वभावात्, द्वितीयस्तूत्तानः पूर्वं पश्चाद् गम्भीरो वेलाऽऽगमेनागाधत्वात् तृतीयस्तु गम्भीरः वेलापू पश्चाद्वेलाविगमेनोत्तान उदधिः, चतुर्थः मुज्ञानः । समुद्रप्रस्तावात्तत्तरकान् सूत्रद्वयेनाह -
चारि तरगा पं० त०-समुदं तरामीतेगे समुह तरह, समुदं तरामीतेगे गोपय तरह गोपय तरामीतेगे समुह तरह, गोपयं तरामीतेगे गोपयं तरह ४, १, । चत्तारि तरगा पं० त० - समुद्द तरित्ता जाममेगे समुद्दे विसीस (य), समुद्द तरिता णाममेगे गोपर विसीय ४, २, (सू० ३५९ ) । चत्तारि कुंभा पं० त० - पुणे णाममेगे पुणे, पुणे णाममेगे तुच्छे, तुच्छे णाममेगे पुण्णे, तुच्छे, णाममेगे तुच्छे पवामेव बत्तारि पुरिसजाया पं० त०पुणे णाममेगे पुणे ४, बत्तारि कुंभा पं० त०--पुण्णे णाममेगे पुण्णोभासी, पुण्णे णाममेगे तुच्छोभासी ४, एवामेवारि पुरिसजाया पं० त०- पुण्णे णाममेगे पुण्णोभासी ४, बत्तारि कुंभा पं० त०-- पुण्णे णाममेगे पुण्णरूवे, पुणे णाममेगे तुच्छरूवे ४, एवामेव बत्तारि पुरिसजाया पं० त० – पुण्णे णाममेगे पुण्णरूवे ४, बत्तारि कुंभा पं० त० -- पुणे णाममेगे पितट्ठे, पुण्णेवि पगे अवदले, तुच्छे वि पगे पितट्ठे, तुच्छेवि पणे भबदले, एमामेवबारि पुरिसजाया पं० त०- पुण्णेवि पगे पितट्ठे ४, तद्देव चत्तारि कुंभा पं० त०-- पुण्णे वि पगे विस्संदर, पुणेवि एगे नो विस्संदा, तुच्छे वि पगे विस्संदर, तुच्छे वि पगे न विस्संदर, पवामेव बत्तारि पुरिसजाया पं० त०-- पुण्णे वि पगे विस्संदर, पुण्णे वि पगे नो विस्संदर ४, तद्देव चत्तारि कुंभा पं० त० - भिण्णे जजरिए
सू० ३५८ ।
||४०८||
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सू०-३६० ।
श्रीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥४०९॥
+000000000०००००००००००००००००००00000000000000000000000०
परिस्साई भपरिस्साई, एवामेव चउब्धिहे चरित्ते ५० त--भिषणे जाव अपरिस्साई, चत्तारि कुभा पं० त०-. मधुकुंभे णाम एगे महुप्पिहाणे, महुकुमे णाम एगे विसप्पिदाणे, विसकु णाम पगे महुप्पिहाणे, विसकुमे णाम पगे विसप्पिहाणे, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पंत-महुकुमे णाम एगे महुप्पिहाणे ४,-'हिययमपावमकलुस. जीहाऽविय महुरभासिणी निच्च । जम्मि पुरिसम्मि विज्जइ. से महुकु मे महुपिहाणे ॥१॥ हिययमपावमकलुस, जी हाऽवि य कडुयमासिणी निच्च । जंमि पुरिसमि विज्जइ, से महुकुमे विसपिदाणे ॥२॥ जं हियपं कलुसमयं, जीहाऽवि य महुरभासिणी णिञ्च । जमि पुरिसमि विज्जइ से विसकुंभे महुपिहाणे (३॥ ज द्वियय कलुसमय, जोद्दा ऽवि यदुयभासिणी णिच्च । जम्मि पुरिस मि विज्जइ (दीसइ) से विसकुमे विसपिहाणे ॥४॥ (सू० ३६२।। ___'चत्तारि तरंगे'त्यादि व्यक्तं, नवरं तरन्तीति तराः त एव तरकाः, समुद्र-समुद्रवत् दुस्तरं सर्वविरत्यादिक कार्य तरामिकरोमीत्येवमभ्युपगम्य तत्र समर्थत्वादेकः समुद्रं तरति-समर्थयतीत्येकः, अन्यस्तु तदभ्युप गम्यासमर्थत्वात् गोष्पदतत्कल्प देशविरत्यादिकमल्पतमतरति-निर्वाहयतीति, अन्यस्तु गोष्पदप्रायमभ्युपगम्य वीर्यातिरेकात् समुद्रप्रायमपि साधय तीतिचतुर्थःप्रतीतः १। समुद्रप्रायं कार्य दरीत्वा-निर्वाह्य समुद्रप्रायप्रयोजनान्तरे विषीदति-न तम्भिवाहयतीति,विचित्रत्वात् क्षयोपशमस्येति, एवमन्ये त्रय इति २ । पुरुषानेव कुम्भदृष्टान्तेन प्रतिपिपादयिषुः सूत्रप्रपञ्चमाह-सुगमश्चाय, नवर पूर्णः सकलावयवयुक्तः प्रमाणोपेतो वा पुनः पूर्णो मध्वादिभृतः, द्वितीये भगे तुच्छो-रिक्तः, तृतीये तुच्छोऽपूर्णावययो लघुर्वा, चतुर्थः सुज्ञानः, पुरुषस्तु पूर्णों जात्यादिभिर्गुणैः पुनः पूर्णो ज्ञानादिभिगुणैरथवा संपूर्णो धनेन गुणैर्वा पूर्व पश्चादपि ते पूर्ण एवं शेषा अपि २, पूर्णोऽवयवैर्दध्यादिना वा पूर्ण एवावभासते दृष्टणामिति पूर्णा
0.00000000000000000000000000000000000000000000०००००००
॥४०९॥
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..0.00404
सू०३५९-३६०।
भीस्थानात
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
॥४१०
++.00000......000000.......०००००.......००
वभासीत्येकोऽन्यस्तु पूर्णोऽपि कुतश्चिदेतोर्विवक्षितप्रयोजनासाधकत्वादेस्तुच्छोऽवभासते, एवं शेषौ ३ । पुरुषस्तु पूणों धनश्रुतादिभिस्तद्विनियोगाच्च परिपूर्ण एवावभासते, अन्यस्तु तदविनियोगात्तच्छ एवावभासते, अन्यस्तु तुरछोऽपि कथमपि प्रस्तावोचितप्रवृत्तः पूर्णवदवभासते, अपरस्तुच्छो धनश्रुतादिरहितोऽत एव तदविनियोजकत्वात् तुच्छावभासीति ४। तथा पूणों नीरादिना पुनः पूर्णों पुण्यं वा-पवित्रं रूपं यस्य स तथेति प्रथमो द्वितीये तुच्छं-हीन रूपमाकारो यस्य स तुच्छरूपः, एवं शेषौ ५ । पुरुषस्तु पूर्णो ज्ञानादिभिः पूर्णरूपः पुण्यरूपो वा विशिष्टरजोहरणादिद्रव्यलिङ्गसद्भावात मुसाधुरिति, द्वितीय भङ्गे तुच्छरूपः कारणात्यक्तलिङ्गः सुसाधुरेवेति, तृतीये तुच्छो ज्ञानादिविहीनो निह्नवादिः, चतुर्थों ज्ञानादिद्रव्यलिङ्गविहीनो गृहस्थादिरिति ६। तथा पूर्णस्तथैव अपिस्तुच्छापेक्षया चः समुच्चयार्थः एकः-कश्चित् प्रियाय-प्रीतये अयमिति प्रियार्थः कनकादिमयत्वात् सार इत्यर्थः, जया अपदलम्-अपशब्द द्रव्यं झारणभूत मृत्तिकादि यस्यासावपदलः अवदलति वा-दीर्यत इत्यवदलः आमपकतयाऽसार इत्यर्थः, तुच्छोऽप्येवमेवेति ७ । पुरुषो धनश्रुतादिभिः पूर्णः प्रियार्थः कश्चित् प्रियवचनदानादिभिः प्रियकारी सार इति, अन्यस्तु न सत्यपदलः परोपकार प्रत्ययोग्य इति, तुच्छोऽप्येवमिति ८ । 'दत्तारी' त्यादि सुगमानि, पूर्णोऽपि जलादेविष्यन्दते-करन वति, इह तुच्छ:-तुच्छजलादिः स एव विष्यन्दते, अपिः सर्वत्र समुच्चये प्रतियोग्यपेक्षयेति ९ । पुरुषम्न पूनोऽप्येको विष्यन्दते-धनं ददाति श्रुत वा, अन्यो नेति तुच्छोऽप्यल्पवित्तादिरपि धन तादि विष्यन्दतंऽन्यो नैवेति १०। तथा भिन्नः-स्फुटितो जर्जरितो-राजीयुक्तः परिनावी-दुष्पक्वत्वात् क्षरकः अपरिस्रावी कठिनत्वादिति ११॥ चारित्रं तु भिन्न मूलप्रायश्चित्तापत्त्या जर्जरितं
॥४१॥
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सू०.३६०३६१ ।
भीस्थानाग
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
H४१२॥
छेदादिप्राप्त्या परिस्रावि सूक्ष्मातिचारतया अपरिमावि निरतिचारतयेति, इह च पुरुषाधिकारेऽपि यच्चारित्रलक्षणपुरुषधर्मभणन तद्धर्मधम्मिणोः कथञ्चिदभेदादनवद्यमवगन्तव्यमिति १२॥ तथा मधुन:-क्षौद्रस्य कुम्भो मधुकुम्भो मधुभृत मध्वेव वा पिधान-स्थगनं यस्य स मधुपिधानः, एवमन्ये त्रयः १३। पुरुषसूत्रं स्वयमेव 'हियय'मित्यादिगाथाचतुष्टयेन भावितमिति, तत्र हृदय-मनः अपापम्-अहिंस्त्रमकलुषम्-अप्रीतिवर्जितमिति, जिहाऽपि च मधुरभाषिणी नित्यं यस्मिन् पुरुषे विद्यते स पुरुषो मधुकुम्भ इव मधुकुम्भो मधुपिधान इव मधुपिधान इति प्रथमभङ्गयोजना, तृतीयगाथायां यद् हृदयं कलुषमयम्-अप्रीत्यात्मकमुपलक्षणत्वात् पापं च जिहा या मधुरभाषिणी नित्यं तत्सा चेति गम्यते यस्मिन् पुरुषे विद्यते स पुरुषो विषकुम्भो मधुपिधानस्तत्साधर्म्यादिति १४। अत्र च चतुर्थः पुरुष उपसर्गकारी स्यादित्युपसर्गप्ररूपणाय 'चविहा उवसग्गे' त्यादिसूत्रपञ्चकमाह
बउव्यिहा उघसग्गा पत--दिव्या माणुसा तिरिक्खजोणिया आयस वेदणिज्जा १, दिव्वा उपसग्गा सउन्धिहा पं० त०-दासा पदोसा वीसा पुढोवेमाया २, माणुस्सा उवसग्गा बउब्विहा पं० त-हासा पदोसा बीमंसा कुसीलपरिसेवणया ३, तिरिक्सजोणिया उवसग्गा चउब्धिहा पं० त०--भया पओसा माहारहेउ अवश्चदेणसारक्सणया ४, आयस वेयणिज्जा उवसग्गा चउब्बिहा पंत--घट्टणया पवडणया थंभणया देशणया ५ ( सू० ३६१)।
कण्ठय', नवरमुपसर्जनान्युपसृज्यते वा-धर्मात् प्रच्याव्यते जन्तुरेभिरित्युपसर्गा-बाधाविशेषाः, ते च क. भेदाच्चतुर्विधाः, आत्मना संचेत्यन्ते-क्रियन्त इत्यात्मसंचेतनीयाः, तत्र दिव्या 'हास'त्ति-हासाद् भवन्ति हाससम्भूत
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सू०.३६१।
भीस्थानाङ्ग
दीपिका वृत्तिः ।
॥४१२॥
त्वाद्वा हासा उपसर्गा एवमन्यत्रापि, यथा भिक्षार्थ ग्रामान्तरपस्थितक्षल्लकैय॑न्तर्या उपयाचित प्रतिपन्न यदीप्सित लप्स्यामहे तदा तवोण्डेरकादि दास्याम इति, लब्धे च तत्र तवेदमिति भणित्वा तदुण्डेरकादि तैः स्वयमेव भक्षित, देवतया च हासेन तद्र पमावृत्य क्रीडितमनागच्छत्सु च क्षुल्लकेषु व्याकुले च गच्छे निवेदितमाचार्याणां देवतया क्षुल्लकवृत्तं, ततो वृपभरुण्डेरकादि याचित्या तस्यै दत्त, तया तु ते दर्शिता इति । प्रद्वेषाद्यथा-'सङ्गमको महावीरस्योपसर्गान करोत्, विमर्षात यथा क्वचिवकुलिकायां वर्षासू पित्वा साधुषु गतेषु तदीय एवान्यः पश्चादागतस्तत्रोषितः, तं च देवता किंस्वरूपोऽयमिति विमर्षा दुपर्गितवतीति, पृथग भिन्ना विविधा मात्रा विमात्रा तया इत्येतल्लुप्ततृतीयकवचनं पदं दृश्यते, तथाहि-हासेन कृत्वा प्रद्वेषेण करोतीत्येवं संयोगः, यथा सङ्गमक एव विमर्षेण कृत्वा प्रद्वेषेण कृतवा निति, तथा मानुष्या हासात् यथा-गणिकादुहिता क्षुल्लकमुपसर्गितवती सा च तेन दण्डेन ताडिता विवादे च राज्ञः श्रीगृह दृष्टान्तो निवेदितस्तेनेति, प्रद्वेषाद्यथा गजसुकुमारः सोमिलब्राह्मणेन व्यपरोपितः, विमर्षाद्यथा-चाणाक्योक्तचन्द्रगुप्तेन धर्मपरीक्षार्थ लिङ्गिनोऽन्तःपुरे धर्ममाख्यापिताः क्षोभिताश्च, साधवस्तु क्षोभितुं न शकिता इति । कुशीलम्-अब्रह्म तस्य प्रतिषेवणं कुशीलप्रतिषेवणं तद्भावः कुशीलप्रतिषेवणता उपसर्गः कुशीलस्य वा प्रतिषेवणं येषु ते कुशीलप्रतिषेवणका अथवा कुशीलप्रति घेवणयेति व्याख्येयं, यथा सन्ध्यायां दसत्यर्थ प्रोषितस्यालो हे प्रविष्टः साधुश्चतसृभिरीालु जायाभिर्दतावासः प्रत्येकं चतुरोऽपि यामानुपसर्गितो न च क्षुभितः, तथा तेरचा भयात् श्वादयो दशेयुः प्रद्वेषा चण्डकौशिको भगवन्तं दष्टवान्, आहारहेतोः सिंहादयः अपत्यलयनसंरक्षणाय काक्यादय उपसर्गयेयुरिति, तथा आत्मसंचेतनीयाः घटनता बहनया वा यथा-अक्षणि रजः पतितं ततस्तदक्षि हस्तेन मलितं दुःखितुमारब्धमथवा स्वयमेव वाक्षणि
000000000000000000000000000000000000000000000000000०००.....
॥४१॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिकावृत्तिः ।
४१३||
गले वा मांसाकुरादि जातं घट्टयतीति । प्रपतनता प्रपतनया वा यथाऽप्रयत्नेन संचरतः प्रपतनात् दुःखमुत्पद्यते २। स्तम्भनता स्तम्भनया वा यथा तावदुपविष्टः स्थितो यावत् सुप्तः पादादिः स्तब्धो जातः ३। श्लेपणता श्लेषणया वा यथा पादमाकुञ्च्य स्थितो वातेन तथैव पादो लगित इति ४ । उपसर्गसहनात् कर्म्मक्षयो भवतीति कर्मस्वरूप प्रतिपादनायाह
उच्च कम्मे पं० त०--सुभे णाममेगे सुभे, सुभे णाममेगे असुभे, असुमे० ४, १, चउब्विद्दे कम्मे पं० त०-सुमे णाम एगे सुभविवागे, सुभे णाममेगे असुभविवागे, असुमे नाममेगे सुभविवागे, असुमे नाममेगे असुभविवागे ४ २, चउब्विहे कम्मे प० त० - पगडीकम्मे ठितीकम्मे अणुभावकम्मे पदेसकम्मे ४, ३, ( सू० ३६२ ) । चउब्विद्दे संघे पं० त० - समणा समणीओ सावगा सावियाओ (सू० ३६३ ) । चव्विदा बुद्धी पं० ० –उपपत्तिया वेणया कम्मिया पारिणामिया, चउव्विद्दा मई पं० त०-- उग्गद्दमई ईहामई अवायमई धारणामई, अहवा चउव्विद्दा मई प० त ० अरंजरोदगसमाणा वियरोदगसमाणा सरोद्गसमाणा सागरोदगसमाणा (सू० ३६४) चउब्विहा संसारसभावना जीवा पं० त० - शेरश्या तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा, चउव्विदा सव्वजीवा पं० त० - मणजोगी जोगी कायजोगी अजोगी, अहवा चउव्विद्दा सव्वजीवा पं० त० - इत्थवेयगा पुरिसवेयगा णपुंसगवेयगा भवेयगा, अहवा चउव्विद्दा सव्वजीवा पं० त ० चक्खुदंसणी अचक्खु दंसणी ओहिदंसणी केवलदंसणी, अहवा चचिद्दा सव्वजीवा पं० तं०- संजया असं जया संजयास जया णोस जयाणोअसं जया ( सू ३६५ ) |
'विहे 'त्यादि सूत्रत्रय' व्यक्त, नवरं क्रियत इति कर्म्म ज्ञानावरणीयादि तत् शुभं - पुण्यप्रकृतिरूपं पुनः शुभं
सू०-३६२-३६५ ।
॥४२३॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सू०३६३-३६५।
सत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥१४॥
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शुभानुबन्धित्वात् भरतादीनामिव, शुभं तथैवाशुभमशु भानुबन्धित्वात् ब्रह्मदत्तादीनामिव, अशुभं-पापप्रकृतिरूपं शुभं शुभानुबन्धित्वात् दुःखितानामकामनिर्जरावतां गवादीनामिव, अशुभं तथैव पुनरशुभमशुभानुवन्धित्वात् मत्स्यबन्धादीनामिवेति । तथा शुभं सातादि सातादित्वे नैव वद्ध तथैवोदेति यत्तत् शुभविषाकं, यतु बद्धं शुभत्वेन सङ्क्रमकरणवशात्तू देत्यशुभत्वेन तद द्वितीय, भवति च कर्मणि कर्मान्तरानुप्रवेशः, सक्रमाभिधानकरण शाद, उतच"मूलप्रकृत्यभिन्नाः, सक्रषयति गृणत उत्तराः प्रकृतीः । नन्वात्माऽमृर्तत्वा-दथ्यवसानप्रयोगेण ||१||" इति. तथा मतान्तरम्-"मोत्तृण आउयं खलु, दसगमोह चरित्तमोह च। सेसाणं पयडीण, उत्तरविहिसं कमो भणिओ ||१||" त्ति, यद्धमशुभतयोदेति च शुभतया ततृतीय, चतुर्थ प्रतोतमिति, तृतीय कर्मसूत्रमत्रत्यद्वितीयो द्देशकबन्धसूत्रवज्ज्ञेयमिति । चतुर्विधकर्मवन्धस्वरूपं सय एव वेत्तीति, सङ्घसूत्रं व्यक्तं, स च सर्व विद्वचनसंस्कृतबुद्धिमानिति बुद्धिश्चमतिविशेष इति मतिसूत्रे, सुगमानि चैतानि, नवरं सवो गुणरत्नपात्रभूतसत्त्वसमूहः, तत्र श्राम्यन्ति-तपस्यन्तीति श्रमणाः,अथवा सह मनसा शोभनेन निदानपरिणामलक्षणपापरहितेन च चेतसा वर्तन्त इति समनसम्तथा समानं-स्वजनपरजनादिषु तुल्यं मनो येषां ते समनसः-प्राकृततया सर्वत्र 'समण'त्ति, एवं 'समणीओ' तथा शृण्वन्ति जिनवचनमिति श्रावकाः, अथवा श्रान्ति-पचन्ति तत्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्राः, तथा वपन्ति-गुणवत्सप्तक्षेत्रेषु धनवीजानि निक्षिपन्तीति वाः, तथा किरन्ति-क्लिष्टकर्मर जो विक्षिपन्तीति काः, ततः कर्मधारये श्रावका इति भवति. यदाह'श्रद्धालुतां श्राति पदार्थचिन्तनात. धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम् । किरत्यपुण्यानि सुसाधुसेवना-दथापि त श्रावकमाहुरत्तमाः ॥१॥' इति, एवं श्राविका अपीति, तथा उत्पतिरेव प्रयोजनं यस्याः
॥४१४॥
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सू०३६३ ३६ ।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥४१५॥
सा औत्पत्तिकी, ननु क्षयोपशमः कारणमस्याः, सत्य, किन्तु स खल्वन्तरगत्वात् सर्वबुद्विसाधारणः इति न विवक्ष्यते, न चान्यच्छास्त्रकर्माभ्यासादिकमपेक्षत इति, अपि च बुद्धयुत्पादात्पूर्व स्वयमदृष्टोऽन्यतश्चाश्रुतो मनसाऽप्यनालोचितस्तस्मिन्नेव क्षणे यथावस्थितोऽर्थों गृह्यते यया सा लोकद्वयाविरुद्धैकान्तिकफलवती बुद्धिगैत्पत्तिकी नटपुत्ररोहकादीनामिवेति, तथा विनयो-गुरुशुश्रूपा स कारणमस्यास्तत्प्रधाना वा वैनयिकी, अपि च-कार्यभरनिस्तरणसमर्था धर्मार्थकामशास्त्राणां गृहीतसूत्रार्थसारा लोकद्वयफलवती चेयमिति, नैमित्तिकसिद्धपुत्रशिष्यादीनामिवेति, अनाचायकं कर्म साचार्य के शिल्पकादाचित्कं वा कर्म नित्यव्यापारस्तु शिल्पमिति, कर्मणो जाता कर्मजा, अपि चकाभिनिवेशोपलब्धकर्मपरमार्था कर्माभ्यासविचाराभ्यां विस्तीर्णा प्रशंसाफलवती चेति, हैरण्यककर्षकादीनामिवेति, परिणामः-मुदीर्घकालपूर्वापरावलोकनादिजन्य आत्मधर्मः, स प्रयोजनमस्यास्तत्प्रधाना वेति पारिणामिकी, अपि च-अनुमानकारणमात्रदृष्टान्तैः साध्यसाधिका वयोविपाके च पुष्टीभूता अभ्युदयमोक्षफला चेति, यदाह-'अणुमाणहेउदिटुंत-साहिया वयविपक्क(विवाग)परिणामा । हियनिस्सेसफलवई, बुद्धी परिणामिया नाम ॥१॥त्ति, अभयकुमारादीनामिवेति । तथा मननं मतिः, तत्र सामान्यार्थस्याशेषविशेषनिरपेक्षस्यानिर्देश्यस्य रूपादेः अब इतिप्रथमतो ग्रहण-परिच्छेदनमवग्रहः स एव मतिरवग्रहमतिरेव सर्वत्र, नवरं तदर्थविशेषालोचनभीहा, प्रक्रान्तार्थ विशेपनिश्चयोऽवायः, अवगतार्थ विशेषधरणं धारणेति, तथा अरजरम्-उदकुम्भो अलजरमिति यत्प्रसिद्धं तत्र यदुदकं तत्समाना प्रभूतार्थ ग्रहणोत्प्रेक्षणधारणसामार्थ्याभावेनाल्पत्वादस्थिरत्वाच्च, अरञ्जरोदकं हि संक्षिप्त शीघ्र निष्ठित चेति, विदरो-नदीपुलिनादौ जलार्थों गतः, तत्र यदुदकं तत्समाना अल्पत्वादपरापरार्थोहनमात्रसमर्थत्वात् अगि
॥४१५॥
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सू०३६६-३६७।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
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त्यनिष्ठितत्वाच्च, तदुदक ह्यल्प तथाऽपरापरमल्पमल्पं स्यन्दते, अत एव क्षिप्रमनिष्ठित चेति, सरउदकसमाना तु विपुलत्वाद्बहुजनोपकारित्वादनिष्ठितत्वाच्च प्रायः सरोजलस्याप्येवंभूतत्वादिति, सागरोदकसमाना पुनः सकलपदार्थविषयत्वेनात्यन्तविपुलत्वादक्षयत्वादलब्धमध्यत्वाच्च प्रायः सागरजलस्यापि हत्येवंभूतत्वात् । यथोक्तमतिमन्तो जीवा एव भवन्तीति जीवसूत्राणि पञ्च, मुगमानि चैतानि, नवरं मनोयोगिनः-समनस्का योगत्रयसभावेऽपि तस्य प्राधान्यादेवं वाग्योगिनो द्वीन्द्रियादयः काययोगिन एकेन्द्रिया अयोगिनो-निरुद्धयोगाः सिद्धाश्चेति । अवेदका:-सिद्धादयः । चक्षुषः सामान्यार्थ ग्रहणमवग्रहेहारूपं दर्शन चक्षुर्दर्शन तद्वन्तश्चतुरिन्द्रियादयः, अचक्षुः-स्पर्शनादि, तद्दर्शनवन्त एकेन्द्रियादय इति । संयता:-सर्वविरताः, असयता-अविरताः, संयतासयता-देशविरताः, त्रयप्रतिषेधवन्तः सिद्धा इति । जीवाधिकाराज्जीवविशेषान् पुरुषभेदान् चतुःसूत्र्याऽऽह
चत्तारि पुरिसजाया प० त०-मित्ते णाम एगे मित्ते, मित्ते णाम पगे अमित्ते, अमित्ते णाम एगे मित्ते, अमिसे णाम पगे अमित्ते ४, १, चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-मित्त णाम पगे मित्तरूवे, चउभंगो ४ २, चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-मुत्ते णाम एगे मुत्ते, मुत्ते णाम एगे अमुत्ते ४ ३. चत्तारि पुरिसजाया पंत-मुत्ते णाम एगे मुत्तरूवे ४, ४, (सू० ३६६ )। पंचेदियतिरिक्खजोणिया चउगइया चउआगइया पंत-पंचिंदियतिरिक्खजोणिया पंचिदितिरिक्खजोणिपसु उचवजमाणा णेरइएहितो वा तिरिक्खजोणिपहितो वा मणुस्सेहितो वा देवेहितो वा उववज्जेज्जा से चेव ण से पंचिदियतिरिक्खजोणिए पंचिदियतिरिक्खजोणियत्त विपजहमाणे रइयत्ताए वा जाव देवत्ताए वा उवागच्छेज्जा, मणुस्सा चउगइया चउआगइया, एवं चेव मणुस्साधि (स्० ३६७) । बेईदिया ण
% 240000000000000000000000000000000000000000000000000....
॥४१.६॥
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सू०-३६८-३७१।
भीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
॥४९॥
10.04.000+++000000000000000000000000000000000000000001
जीवा असमारभमाणस्स बउबिहे संजमे कजद त-जिम्भामयाओ सोक्खाओ अबवरोवेत्ता भयद, जिभामएण दुक्खेण असंजोगेत्ता भवइ, फासमयातो सोक्खाओ अवयरोवेत्ता भवइ, एवं चेय ४, बेइंदिया ण जीवा समारंभमाणस्त चउब्धिहे असंजमे कजइ, त-जिभामयाओ सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवइ, जिभामरण दुक्खेण संजोएत्ता भवइ, फासामयाओ सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवइ (सू० ३६८) । सम्मदिट्ठियाण रइयाण' चत्तारि किरियाओ पं० त०-आरंभिया परिग्गहिया मायावत्तिया आच्वक्वाणकिरिया। सम्मदिहियाण असुरकुमाराण चत्तारि किरियाओ प० त-पर्व चेब, पब विगलिंदियवज जाच वेमाणियाण (सू. ३६९) । च उद्दि ठाणेहि संते गुणे नासेजा, त-कोहेण पडिनिवेलेण भकयण्णुयाए मिच्छत्ताभिणिवेसेण । चउहि ठाणे हि संते गुगे दीवेज्जा, तअब्भासवत्तिय परच्छदाणुवत्तिय कज्जहेउ कयपडिकइति वा (सू० ३७०) । रइयाण चाउदि ठाणेहि सरीरुप्पत्ती सिया, त-कोहेण माणेणं मायाए लोमेण', एवं जाव वेमाणियाण', रइयाण चउठाणणियत्तिर सरीरे पंतकोहणिव्यत्तिए जाव लोमणिम्वत्तिए, एवं जाव बेमाणियाण (सू०३७१)।
'चत्तारी'त्यादि, स्पष्टा चेय', नवरं मित्रमिहलोकोपकारित्वात्पुन मित्र-परलोकोपकारित्वात् सद्गुरुवत्, अन्यस्तु मित्रं स्नेहवत्त्वादमित्र परलोकसाधनविध्वंसात् कलत्रादिवत्, अन्यस्त्वमित्र प्रतिकूलत्वान्मित्र निर्वेदोत्पादनेन परलोकसाधनोपकारित्वादविनीतकलत्रादिवत्, चतुर्थोऽमित्र प्रतिकूलत्वात् पुनरमित्रः(त्र) संस्लेशहेतुत्वेन दुर्गतिनिमितत्वात, पूर्वापरकालापेक्षया वेद भावनीयमिति । तथा मित्रमन्तःस्नेडवृत्त्या मित्रस्येव रूपमाकारो बायोपचारकरणात् यस्य स मित्ररूप इति एको, द्वितीयोऽमित्ररूपो बायोपचाराभावात्, तृतीयोऽमित्रः स्नेहवर्जितत्वादिति,
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॥४९॥
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सू० ३९८-३७१।
भीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥४१८॥
= ००००००००600110000000000000000000000000000000000000000000..
चतुर्थः प्रवीतः । तथा मुक्तस्त्यक्तसङ्गो द्रव्यतः पुनर्मुक्तो भावतोऽभिष्वङ्गाभावात् सुसाधुवत, द्वितीयोऽमुक्तः साभिष्वगत्वादकवत्, तृतीयोऽमुक्तो द्रव्यतः भावतस्तु गुक्तो राज्यावस्थोत्पन्नकेवलज्ञानभरतचक्रवत्तिवत् , चतुर्थों गृहस्थः, कालापेक्षया वेद दृश्यमिति । मुक्तो निरभिष्वङ्गतया मुक्तरूपो वैराग्यपिशूनाकारतया यतिरेवेत्येको, द्वितीयोऽमुक्तरूप उक्तविपरीतत्वाद् गृहस्थावस्थायां महावीर इव, तृतीयोऽमुक्तः साभिष्वङ्गत्वाच्छठयतिवत्, चतुर्थों गृहस्थ इति । जीवाधिकारिक पञ्चेन्द्रियतिर्यन्मनुष्यसूत्रद्वयं सुगम, एवंद्वीन्द्रियमूत्रद्वयमपि, नवरं द्वीन्द्रियान् जीवान् असमारभमाणस्य-अन्यापादयतः, निहाया विकारो जिज्ञामय तस्मात् सौख्यात्-रसोपलम्भानन्दरूपादव्यपरोपयिता अभ्रंशयिता, तथा जिह्वामय-जिहवेन्द्रियहानिरूपं यद दुःख तेनासंयोजयितेति । जीवाधिकारादेव सम्यग्दृष्टिजीवक्रियासूत्राणि सुगमानि, नवरं सम्यग्दृष्टीनां चतस्रः क्रियाः, मिथ्यात्यक्रियाया अभावात, एवं 'विगलिंदियवज' ति, एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां पश्चापि, तेषां मिथ्यादृष्टित्वात्, द्वीन्द्रियादीनां च सासादनसम्यक्त्वस्याल्पत्वेनाविवक्षितत्वादिति, एवं चेह विकलेन्द्रियवर्जनेन षोडश क्रिया सूत्राणि वैमानिकान्तानि भवन्तीति । अनन्तरं क्रिया उक्तास्तद्वांश्च सद्भूतान् परगुणान् नाशयति प्रकाशयति चेत्येवमर्थ सूबद्वयं कण्ठ, नवरं सतो-विद्यमानान् गुणान् नाशयेदिव नाशयेद्-अपलपति न मन्यते, क्रोधेन-रोषेण, तथा प्रतिनिवेशेन-एष पूज्यते अहं तु नेत्येव परपूजाया असहनलक्षणेन, कृतमुपकार परसम्बन्धिन न जानातीत्यकृतज्ञस्तद्भावस्तत्ता तया, मिथ्यात्वाभिनिवेशेन-बोधविपर्यासेन, तथा सतो-विद्यमानान् गुणान् दीपयेत् वदेदित्यर्थः, अभ्यासो-हेवाको वर्णनीयासमता वा प्रत्ययो-निमित्तं यत्र दीपने तदभ्यासप्रत्यय', दृश्यते ह्यभ्यासानिर्विषयापि निष्फलापि च प्रवृत्तिः, सन्निहितस्य च प्रायेण गुणानामेव
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॥४१८॥
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सू० ३७१-३७३।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
ग्रहणमिति, तथा परच्छन्दस्य-पराभिप्रायस्यानुवृत्तिरनुप्रवर्त्तना यत्र तत् परच्छन्दानुवृत्तिक दीपनमेव, तथा कार्यहेतोः -प्रयोजननिमित्त चिकीर्षितकार्य प्रत्यानुकूल्यकरणायेत्यर्थः, तथा कृते-उपकृते प्रतिकृत-प्रत्युपकारः तद्यस्यास्ति स कृतप्रतिकृतिकः इति, या कृतप्रत्युपकातहेतोरित्यर्थः, अथवा कृतप्रतिकृतये इति वा-एकेनैकस्योपकृतं गुणा वोत्कीर्तिताः, स तस्यासतोऽपि गुणान् प्रत्युपकारार्थ मुत्कीत्तयतीत्यर्थः, इतिरुपप्रदर्शने वा विकल्पे । इदं च गुणनाशनादि शरीरेण क्रियत इति शरीरस्योत्पत्तिनिर्वृत्तिसूत्राणां दण्डकद्वय, कण्ठ्यं चेतत्, नवरं क्रोधादयः कर्मवन्धहेतवः, कर्म च शरीरोत्पत्तिकारणमिति कारणकारणे कारणोपचारात् क्रोधादयः शरीरोत्पत्तिनिमित्ततया व्यपदिश्यन्त इति । 'चउहि ठाणेहि सरीर'त्यायुक्त, क्रोधादिजन्यका निर्वतितत्वात् क्रोधादिनिर्वर्तित शरीरमित्यपदिष्टम् , इह चोत्पत्तिरारम्भमात्र निर्वृत्तिस्तु निष्पत्तिरिति । क्रोधादयः शरीरनिवृत्तेः कारणानीत्युक्त, तन्निग्रहास्तु धर्मस्येत्याह
॥४१९||
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चत्तारि धम्मदारा पंत-खंती मुत्ती अज्जवे मद्दवे (सू० ३७२) । च उहि ठाणेहिं जीवा नेरइयत्ताए कम्म परिति, त-महारंभयाए महापरिग्गयाए पचिदियवहेण कुणिमाहारेण १, चउहि ठाणेहि जीवा तिरिक्खजोणियत्ताप कम्म पगरिति, त-माईल्लयाए णियडिल्लयाए अलियवयण कूडतुलकूडमाणेण२, चउदि ठाणेहिं जीवा मणुयत्ताए कम्म पगरिति, त-पगतिभद्दयार पगई विणीययाए साणुक्कोसयाए अमच्छरियाप ३, चउहि ठाणेहि जीवा देवाउयत्तार कम्म पगरे ति, त० सरागसंजमेण संजमासंजमेण बालतवोकम्मेण अकामनिज्जराए ४, (सू० ३७३) । चउविहे वज्जे पतं-तते वितते घणे झुसिरे १, चउबिहे नट्टे पंत-अंचिए रिभिए आरभडे भिसोले२,
॥४१९॥
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सू०३७४-३७५।
भीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
॥४२०॥
चउबिहे गेज्जे पंत-उक्खित्तए पत्तपमदएरोविंदए ३, चउब्बिहे मल्ले ५० त०-गंथिमे वेढिमे पूरिमे संघा. इमे ४, चउब्धिहे अलंकारे ५० त०-केसालंकारे वत्थालंकारे मल्लालंकारे आभरणालंकारे ५, चउबिहे अभिणप पंत-दिट्ठतिए पडियुए सामंतोबायणिए लोगमज्झावसिप ६ (सू० ३७४) । सर्णकुमारमार्हिदेसुण कप्पेसु विमाणा चउवण्णा पं० त०-णीला लोहिया हालिद्दा सुकिला, महासुक्कसहस्सारेसु ण कप्पेसु देवाण भवधारणिज्जा सरीरगा उकोलेण चत्तारि रपणीओ उद' उच्चत्तेण पण्णत्ता (सू० ३७५) ।
'चत्तारि धम्मे'त्यादि, धर्मस्य--चारित्रलक्षणस्य द्वाराणीव द्वाराणि-उपायाः । क्षान्त्यादीनि धर्मद्वाराणीत्युक्तमथारम्भादीनि नारकत्वादिसाधनकर्मणो द्वाराणीति विभागतः 'चउहि' इत्यादि सूत्रचतुष्टयमाह-कण्ठचं चैतत्, नवरं 'नेरइयत्ताए' नैरयिकत्वाय-नैरयिकतायै नैरयिकतया वा कर्म-आयुष्कादि, महान्-इच्छापरिमाणेनाकृतमर्यादतया बृहदारम्भः-पृथिव्याधुपमईलक्षणो यस्य स महारम्भः-चक्रवादिस्तभावस्तत्ता तया महारम्भतया, एवं महापरिग्रहतयाऽपि, नवरं परिमृद्यत इति परिग्रहो-हिरण्यसुवर्गद्विपदचतुष्पदादिरिति, 'कुणिम मिति, मांस तदेवाहारोभोजनं तेन १। 'माइल्याए'त्ति मायितया माया च मनःकुटिलता, 'नियडिल्लयाए'त्ति निकृतिमत्तया निकृतिश्च बच्चनार्थ कायचेष्टाद्यन्यथाकरणलक्षणा अभ्युपचारलक्षणा वा तद्वत्तया, कूटतुलाकूटमानेन को व्यवहारः स कूटतुलाकूटमान एवोच्यते अतस्तेनेति २। प्रकृत्या-स्वभावेन भद्रकता-परानुपतापिता या सा प्रकृतिभद्रकता तया, सानुक्रोशतया-सदयतया, मत्सरिकता-परगुणासहिष्णुता तत्प्रतिषेधोऽमत्सरिकता तया । सरागसंयमेन-सकषायचारित्रेण, वीतरागसंयपिनामायुषो बन्धाभावात्, संयमासंयमो-द्विस्वभावत्वा शसंयमः, बाला इव बाला मिथ्यादृशस्तेषां तपःकर्म
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॥४२०॥
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सू०.३८५।
धीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
॥४२॥
|| तपःक्रिया बालतपःकर्म तेन, अकामेन-निर्जरां प्रत्यनभिलापण निर्जरा-कर्मनिर्जरण हेतुर्बुभुक्षादिसहनं यत् सा अकामनिर्जरा तया ४। अनन्तरे देवोत्पत्तिकारणान्युत्तानि, देवाश्च वायनाड्यादिश्तयो भनन्तीति वाद्यादिभेदाभिधानाय पटसूत्री, तत्र 'दज्जे'त्ति, वाघ तत्र-"तत वीणादिकं ज्ञेयं, वितत पटवादिकम् । घनतु कांस्यतालादि, वंशादि शुषिरं मतम् ॥2॥” इति, नाट्यगेयाभिनयसूत्राणि सम्प्रदायाभावान्न विवृतानि. मालायां साधु माल्य-पुष्पं तद्रचनापि माल्य, ग्रन्थ:-सन्दर्भः सूत्रण ग्रन्थन तेन नित ग्रन्थिमं मालादि, वेष्टन वेष्टस्तेन नितं वेष्टिम-मुकुटादि, पूरेणपूरणेन निवृत्त पूरिमभृण्मयमने कच्छिद्र बंशशलाकादिपकनर वा यत् पुष्पैः पूर्यत इति, सङ्घातेन निर्वृत्त सङ्घातिम यत्परस्परतः पुष्पमा ना लादिसंघात नेनोपजन्यत इति, अलक्रियते-भूष्य तेऽनेनेत्यलङ्कारः, केशा एवालङ्कारः केशालङ्कारः, एवं सर्वत्र देवाधिकारवत्येव 'सणकुमार'त्यादिका विसूत्री मुगमा बेयम्, नबर सनत्कुमारमाहेन्द्रयोश्चतुर्वर्णानि, कल्पान्तरेवन्यथा, यदुक्तम्-"सोहम्मे पंचवण्णा, एकगहाणीओ जा सहस्सारो । दो दो तुल्ला कप्पा, तेण परं पुंडरीयाओ ||१॥" द्वयोर्द्वयोः कल्पयोर्वर्णस्य हानिः कार्येति, न भवे धार्यते तदिति त या भवं धारयतीति भवधारणीय-यजन्मतो मरणावधि 'कृतयुष्टिकस्तु रत्निः स एव वितताञ्जलिररत्नि'रिति वचने सत्यपि रत्निशब्देनेह सामान्येन हस्तोऽभिधीयत इति, शुक्रसहस्त्रारयोः (चतुर्हस्तदेहा) देवा अन्यत्र त्वन्यथा, 'भवणवणे' त्यादि, भवधारणीयान्येवमुत्तरवैक्रियाणि तु लक्षमपि सम्भवन्ति, उत्कृप्टेनेतत्, जघन्यतस्त्वगुलासङ्ख्येयभागप्रमाणान्युत्पत्तिकाले भवधारणीयानि भवन्त्युत्तरवैक्रियाणि त्वगुलसङ्ख्येयभागप्रमाणानीति । अनन्तरं देववक्तव्यतोक्ता, देवाश्चाप्कायतयाऽप्युत्पद्यन्ते इत्युदकगर्भप्रतिपादनाय 'चत्तारी'त्यादिसूत्रद्वयमाह--
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Bedeo8000000000000०७७८०६000000000000
॥४२॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
॥४२२॥
चत्तारि दगगभा पं० त० - उस्सा महिया सीता उसिणा, चचारि उद्गगभा पं० त०- हेमगा अम्भसंथा सीतोरणा पंचरूविया, माहे उ हेमगा गन्भा, फग्गुणे अभतंथडा । सीतोसिणा उ चित्ते, वतिसाहे पंचरूविता ॥ १ ॥ (सू० ३७६) । चत्तारि मणुस्सीगम्भा पं० त० - इत्थित्ताप पुरिसत्ताप णपुंसगत्ताप विवत्ताप, अप्प सुकं बहु ओर्य, इन्धी तत्थ जाय । अप ओय बहु सुकं, पुरिलो तत्थ पजाय || १ || दुह पि रत्तसुक्काण, तुलभावे णपुंसओ । इत्थियसमाओगे, चियं तत्थ पजाय || २ || (सू० ३७७) |
'दगगम्भ'त्ति दकस्य - उदकस्य गर्भा इव गर्भाः दकगर्भाः - कालान्तरे जलवर्षस्य हेतवस्तत्संसूचका इति तच्चमिति, अवश्यायः क्षपाजलं महिका - धूमिका शीतान्यात्यन्तिकानि एवमुष्णा-धर्माः, एते हि यत्र दिन उत्पन्नास्तस्मादुत्कर्षेणाव्यादृताः सन्तः पड़भिर्मासैरुदकं प्रमुखते, अन्यैः पुनरेवमुक्तम्- “पवनाभ्रवृष्टिविद्युद्-गर्जितशीतोष्णरश्मिपरिवेषाः । जलमत्स्येन सहोता, दशधा धातुः प्रजनहेतुः || १||" तथा "शीता वाताच विन्दुव, गर्जितं परिवेषणम् । सर्व गर्भेषु शंसन्ति, निर्ग्रन्थाः साधुदर्शनाः || १||” तथा “ सप्तमे सप्तमे मासे, सप्तमे सप्तमेऽहनि । गर्भाः पार्क नियच्छन्ति, यादृशास्ताद फलम् ॥ १ ॥ " हिमं तुहिनं तदेव हिमकं तस्यैते हैमका - हिमपातरूपा इत्यर्थः, 'अम्भसंघड'त्ति अभ्रसंस्तृतानि मेवैराकाशाच्छादनानीत्यर्थः, आत्यन्तिके शीतोष्णे, पञ्चानां रूपाणां गर्जितविद्यज्जळवाताभ्रलक्षणानां समाहारः पञ्चरूपं तदस्ति येषां ते रूपका उदगर्भा, इह मतान्तरमेवम्, - "पौधे समार्गशीर्ष, सन्ध्यारागोऽम्बुदाः सपरिवेषाः । नात्यर्थं मार्गशिरे, शीतं पौषेऽतिहिमपातः ||१|| मावे प्रलो वायु- स्तुषारकलुषधुती रविशशाङ्कौ । अतिशीतं सघनस्य च, भानोरस्तोदयौ धन्यो || २ || फाल्गुनमासे रूक्ष - श्रण्डः
सू० ३७६-३७७ ।
॥४२२॥
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0 00000५
सू०३७८-३८१॥
श्रीस्थानान
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
४२३॥
100000000000000000000000000000000000000000000
(न्दः) पवनोऽभ्रसमलवाः स्निग्धाः । परिवेपाश्चासकलाः, कपिलस्ताम्रो रविश्व शुभः ॥३॥ पवनघनवृष्टियुक्ताः, चैत्रे गर्भाः शुभाः सपरिवेतः । पवनयनसलिल विद्यत-स्तनितेश्च हिताय वैशाखे ॥४॥" इति, तानेव मासभेदेन दर्शयति-'माहे उत्ति श्लोकः । गर्भाधिकाराबारीगर्भसूत्र व्यक्तं, केवलं "इस्थित्तापत्ति स्त्रीतया विधगिति-गर्भप्रतिविम्बं गर्भाकृतिरानवपरिणामो न तु गर्भ एवेति, उक्तं च 'अवस्थितं लोहितमङ्गनाया, वातेन गर्भ यतेऽनभिज्ञाः । गर्भाकृतित्वाकटुकोणतीक्ष्णैः, श्रुते पुनः केवल एव रक्तं ॥१॥ गर्भ जडा भूतहन बदन्ती"त्यादि वैचित्र्य गर्भस्य कारणभेदादिति श्लोकाभ्यां ददाह-'अप्पमित्यादि, शुक्र-रेतः पुरुषसम्बन्धि, ओजः-आर्तव रक्तं स्त्रीसम्बन्धि यत्र गर्भाशय इति गम्यते, तथा स्त्रिया ओजसा समायोगी-वातवशेन तत्स्थिरीभवन रक्षणः स्त्र्योजःसमायोगस्तस्मिन् सति बिम्बं 'तत्र' गर्भाशये प्रजायते, अन्येरप्युक्तम्-'अत एव च शुक्रस्य, बाहुल्याज्जायते पुमान् । रक्तस्य स्त्री तयोः साम्ये, क्लीवः शुक्रावे पुनः ॥१॥ वायुना बहुशो भिन्ने, यथास्वं बसपत्यता। वियोनिविकृताकारा, जायन्ते विकतमलैः ॥२॥" इति ॥ गर्भः प्राणिनां जन्मविशेषः, स चोत्पादोऽभिधीयते उत्पादश्चोत्पादाभिधानपूर्वे प्रपच्यत इति हत्स्वरूपविशेषप्रतिपादनायाह--
उपायपुब्धस्स ण चत्तारि चूलवत्थू पत्ता (जू० ३७८) । चउचिहे कब्बे पं० २०-गज्जे पज्जे कत्थे गेप (सू० ३७९) । णेरइयाण चत्तारि लमुग्धाया पं० त०-वेयणासमुग्घाए कसायलमुग्घाए मारणतियसमुग्घाए वेउब्वियसमुग्याए, एवं बाउकाइयाणवि (सू० ३८०) । अरहो ण अरिहनेमिस्ल चत्तारि सया चोहसपुब्बीण अजि. णाण' जिणसंकासाण (लब्धखरसन्निवाईण) जिणो इव अवितहवागरमाणाण' उन्कोसिया चोइसपुचिसंपया
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धीस्थाना
है सू०३८१-३८५।
दीपिका
वृत्तिः । ॥३२॥
हुत्था (सू० ३८१ )। समणस्स ण भगवओ महावीरस्त उत्तारि सया वादीण सदेवमणुपासुराए परिसाए अपरा. जियाण उक्कोसिया वादिर्तण्या होत्था (सू० ३८२) । हेछिला चत्तारि कप्पा अद्धचंदसंठिया ५० त०-सोहम्मे ईसाणे सणकुमारे माहिंदे, मज्झिल्ला चत्तारि कप्पा पडिपुण्णचंदसठाणसंठिया १० त०-बभलोप लंतप महासुक्के सहस्सारे, उवरिल्ला चत्तारि कप्पा अद्धचदसंठाणसंठिया ५० -आणते पाणते आरणे अच्चुते (लू० ३८३) । चत्तारि समुदा पत्तथरसा पं० २०-लवणोदे वरुणोदे खीरोदे घतोदे (सू० ३८४) । चत्तारि
आवत्ता पत-खरावत्त उन्नतायत्ते गूढायत्ते आमिसावत्ते. एवामेव चत्तारि कसाया पं० त०-खरायत्तसमाणे कोहे उन्नतीवत्तसमाणे माणे गूढावत्तसमाणा माया आभिसाधत्तसमाणे लोमे, खराबत्तसमाण कोह अणुपविट्ठ जीवे काल करेइ णेरहपतु उववजइ, उपणयावत्तसमाण माण एवं चेव, गूढावत्तसमाण माय एवं चेव, आमिसावत्तसमाण' लोभ अणुपवितु जीवे काल करेइ णेरइपसु उवथज्जर (सू० ३८५) 'उप्पा ये'त्यादि कण्ठय, नवर' उत्पादपूर्व प्रथम पूर्वाणां तस्य चूला-आचारस्याग्रणीव तद्रपाणि वस्तूनि-परिच्छे. दविशेषा अध्ययनबच्चूलावस्तूनि । उत्पादपूर्व हि काव्यमिति काव्यसूत्र, कण्ठयं चैतन्नवरं काव्य ग्रन्थः गद्यमच्छन्दोनिवद्ध शस्त्रपरिज्ञाध्ययनवद, पद्य-छन्दोनिवर्द्ध विमुक्त्यध्ययनबत्, कथायां साधु कथ्यं ज्ञाताध्ययनवत्, गेय -गानयोग्य, इह गद्यपद्यान्तर्भावेऽपीतरयोः कथागानधर्मविशिष्टतया विशेषो विवक्षित इति । अनन्तरं गेयगुतं, तच्च भाषास्वनावत्वात् दण्इमन्थादिक्रमेण लोकैकदेशादि पूरयति, समुद्घातोऽप्येवमेवेति साधात् समु घातसूत्रे, सुगमे च, नवरं समुद्धननं समुद्घातः-शरीरान हिर्जीवप्रदेशप्रक्षेपः, वेदनया समुयातः कपायैः समुद्घातो,
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॥२४॥
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सू०३८५॥
श्रीस्थानान
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥४२५॥
मरणमेवान्तो मरणान्तः, तत्र भवो मारणान्तिकः स एव समुदधातो, वैक्रियाय समुद्घात इति विग्रहा इति । वैक्रियसमुद्घातो हि लब्धिरूप उक्त इति लब्धिप्रस्तावात विशिष्टश्रुतलब्धिमतामभिधानायाह-बैंक्रियसमुद्घात 'अरहओ'इत्यादिसूत्रद्वयी मुगमा, नवरमजिनानामसर्वज्ञत्वात् जिनसंकाशानामविसंवादिवचनत्वाद् यथापृष्टनिर्वक्तृत्वाच्च सर्वे (पाम्) अक्षराणामकारादीनां सन्निपाता-द्वयादिसंयोगा अभिधेयानन्तत्वादनन्ता अपि विद्यन्ते येषां ते सर्वाक्षरसन्निपातिनः,तेषां जिनसंकाशत्वे कारणमाह-जिणो विवे'त्यादि, उक्कोसियत्ति' नातोऽधिकाश्चतुर्दशपूर्विणो बभूवुः कदाचिदपीति । ते च प्रायः कल्पेषु गता इति कल्पसूत्राणि सुगमानि, नवरं 'अद्धचंदस ठाणसंठिए'त्ति पूर्वापरतो मध्यभागे सीमासद्भावादिति । देवलोका हि क्षेत्रमिति क्षेत्रप्रस्तावात् समुद्रसूत्र सुगम, नवरमेकमेकं प्रति भिन्नो रसो येषां ते प्रत्येकरसा, अतुल्यरसा इत्यर्थः, लवणरमोदकत्वाल्लवणः पाठान्तरे तु लवण मिवोदकं यत्र स लवणोदो निपातनादिति प्रथमः, वारुणी-मुरा तया समानं वारुणं, वारुणमुदकं यत्र स वारुणोदः चतुर्थः, क्षीरवत्तथा घृतवदुदकं यत्र स क्षीरोदः पञ्चमः, घृतोदः षष्ठः, कालोद पुष्करोदस्वयम्भूरमणा उदकरसाः, शेषास्तु इक्षुरसा इति । अनन्तरं समुद्रा उकास्तेषु चाव" भवन्ती त्यावर्तान् दृष्टान्तान् कपायांश्च तदान्तिकानभिधित्सुः सूत्रद्वयमाह-मुगम चैतन्, नवरं खरो-निष्ठुरोऽतिवेगितया पातकश्छेदको वा आवर्तनमावर्तः, स च समुद्रादेश्चक्रविशेषाणां वेति खरावर्तः, उन्नतः-उच्छ्रितः स चासावावर्त्तश्चेति उन्मतावर्तः, स च पर्वतशिखरारोहणमार्गस्य वातोत्कलिकाया वा, गूढश्चासावावर्त्तश्चेति गूढावर्त्तः, स च गेन्दुकदवरकस्य दारुग्रन्थ्यादेर्वा, आमिष-मांसादि, तदर्थमावतः शकुनिकादीनामामिपावर्त इति, एतत्समानता च क्रोधादीनां क्रमेण परापकारकरणदारुणत्वात् पत्रतृणादिवस्तुन इव मनस उन्नतत्वारोपणात्अत्यन्त दुर्लक्ष्यस्वरूपत्वात् अन
000000000000000000000000000000000000000000000000000000०..
॥४६५॥
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________________
% Dec
सू०३८६-३८८।
मीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
र्थशतसम्पातसकुलेऽप्यवपातनकारणत्वाच्चेति. इयं चोपमा प्रकर्षवता कोपादीनामिति तत्फलमाह-'खरावत्ते'त्यादि, अशुभपरिणामस्याशुभकर्मवन्धनिमित्तत्तया दर्गतिनिमित्तत्वादुच्यते 'नेरइएसु उववज्जइति ।।
अणुराहानक्खत्ते च उतारे पन्नत्ते, पुवासाढे एवं चेव, उत्तरासाढे एव चेच (सू० ३८६) । जीवा ण च उठाणणिव्यत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिसु वा चिर्णति चिणिस्संति वा, णेरइयणिवत्तिए तिरिक्खजोणियणिव्यत्तिण मणुस्सणिव्यत्तिर देवणिवत्तिए, पर्व उवचिणिसु वा उपचिणति वा उवचिणिस्तति वा, एवं चिय उवचिय बंध उदीर वेद धंत निज्जरा चेव (सू० ३८७) । चउप्पपलिया खंधा अर्णता पं. त-चउप्पएसोगाढा पोग्गला अणंता पं०, चउसमयठितिया पोग्गला अणंता पं०, चउगुणकालगा पोग्गला अणंता पं० जाव च उगुणलुक्खा पोग्गला अर्णता पपणना (सू० ३८८) । च उठाणं सम्मत्तम् ॥ (चउत्थो उद्देसो समतो, चउठाणं चउत्थमज्झयणं समत्तं )।
॥४२६॥
नारका अनन्तरमुक्तास्तैश्च वैक्रियादिना समानधर्माणो देवा इति तद्विशेषभूतनक्षत्रदेवानां चतुःस्थानकं विवक्षुः 'अणुराहे 'त्यादिसूत्रत्रयमाह-कण्ठ्यं चेतदिति । देवत्वादिभेदश्च जीवानां वर्म मुद्गल चयादिकृत इति तत्प्रतिपादयनाह-जीवा ण' इत्यादि सूत्रषटकं व्याख्यातं प्राक 'तथापि किठिचल्लिख्यते, 'जीवा 'ति, गंशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, चतुर्भिः स्थानकैः-नारकत्वादिभिः पर्यायनिर्वतिता:-कर्मपरिणाम नीतास्तथा विधाशुभपरिणामवशाद् बद्धास्ते चतुःस्थाननिर्वन्तिास्तान पुद्रलान् , कथं निर्वतितानित्याह-पापकर्मतया-अशुभस्वरूपज्ञानावरणादिरूपत्वेन, 'चिणिसु' त्ति तथाविधापरकर्म मुद्गलेः चितवन्तः-पाप प्रकृतीरल्पप्रदेशा बहुप्रदेशीकृतवन्तः, 'नेइयनिवत्तिए'त्ति नैरयिकेण सता
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॥४२६॥
Jain Education
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________________
2000०००००००
सू०३८६-३८८।
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
४२७॥
..५०००००००००००००००000000000000000000000000000
निवर्तिता इति विग्रहः, एवं सर्वत्र । तथा एवं उचिणिंसु'त्ति चयसूत्राभिलापेनोपचयसूत्र वाच्यम् , 'उचिणित्ति उपचितवन्तः-पौनःपुन्येन, 'एव' मिति चयादिन्यायेन बन्धादिसूत्राणि वाच्यानीति, इह च एवं बन्ध उरेित्यादिवक्तव्ये यच्चयोपचयग्रहणं तत् स्थानान्तरप्रसिद्धगाथोत्तरार्द्वानवृचिवशादिति, तत्र 'बंध'त्ति बंधिसु३ श्लथबन्धनबद्धान् गाढवन्धनबद्धान् कृतवन्तः, 'उदीर'त्ति उदी रिंमु३ उदयप्राप्ते दलिके अनुदितांस्तानाकृष्य करणेन वेदित| वन्तः३, 'वेय'त्ति वेदिसु३ प्रतिसमय स्वेन रसविपाकनानुभूतवन्तः३, 'तह निजरा चेव'त्ति निज्जरिंसु३ कात्स्न्येनानुसमयमशेषतद्विपाकहान्या परिशाटितवन्तः ३ इति । पुद्गलाधिकारात् पुद्गलानेव द्रव्यादिभिर्निरूपयन्नाह-'चउप्पएसे'त्यादि सुगममिति ॥ इति चतुःस्थानकस्य चतुर्थो देशकः समाप्तः ॥
श्रीमत्तपागच्छाधिराज-भट्टारकपुरन्दर-सूरीश्वरश्रीविजयसेनमूरिराज्ये श्रीमच्छी विजयदेवसूरियौवराज्ये पं० श्रीकुशलबर्द्धनगणिशिष्य-नगर्पिगणिकृतोद्धाररूपायां सकलवाचकशिरोमणिमहोपाध्यायश्रीविमलहर्षगणिभिः संशोधितायां मुखावबोधायां श्रीस्थानाङ्गदीपिकायां चतु:स्थानकाख्यं चतुर्थमध्ययन समाप्तम् ।।
॥ श्रीस्थानाङ्गसूत्रस्य दीपिकावृत्तियुतः चतु:स्थानपर्यन्तः प्रथमो भागः समाप्तः ।।
॥४२७॥
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nal Use Only
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श्रीस्थानाङ्ग
शुद्धिपत्रकम्।
पत्रम्
दीपिका वृत्तिः ।
पंक्तिः ६
पंक्तिः अशुद्धम्
शुद्धम् ५ ०मित्याद्यकादश० ०मित्यायेकादश० । १३ 'वुज्झेज्जे'. 'वुझेज्जे' ।
अण भि' अणभि'।
॥४२८॥
000000000000000000000000000000000000000000000000000000०...
२३ १० २४ १ २४ १
अशुद्धम् ओउ । सतेण ० सुसमे'ति घग्ग्णा पंचिदिय० अर्गतिक बग्गणा गुणलकवाण सवेप कम्म
शुद्धि-पत्रकम् । शुद्धम्
पत्रम् आउस तेण।
४७ सुसमे'त्ति ।
४७ वग्गणा। पचि दिय। अर्णतः। घग्गणा।
गुणलुक्खाण । सर्वेषां । कर्म।
५९
भवपच्चइप भवपच्चदए । वीयरायः बीयराय० । केवलिखोण केवलिखीण।
खीणकसय० खीणकसाय० । १ वावसर्पिण्युत्सप्पिणी०
चावसर्पिण्युत्सपिणी । भाणियब्वे भाणियब्धं ।
अभत्रसिद्धिए अभयसिद्धिए । ५ कत.
कर्तव्यः ।
܂
२४ १० २६ ५-६
पव
एवं।
॥४२८॥
अजन्योत्कर्ष अजघन्योत्कर्ष। अणवकखत्तिया अणवकंखवत्तिया। पारिग्रहे परिग्रहे ।
९
६२
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________________
शुद्धिपत्रकम्
श्रीस्थानात
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
पत्रम् पंक्तिः अशुद्धम् ६१ १२ उद्देसो १५
प्रसङ्गन
नरयिका १ मथन'
विशेष ७२ . मह
शुद्धम उद्देसो सम्मत्तो। प्रसङ्गेन। नरयिका। मैथुन । विशेष० ।
पत्रम् पंक्तिः अशुद्धम्
शुद्धम् नरव
नवर । पसूमाणगा पूसमाणगा। १०१ ३ पौरस्त्याध पौरस्त्याई ।
गंधबिदा गैधविदा । धर्माधिकारादेव धर्माधिकारादेव ।
मोयपहिमा पंचहि सव्यादि जबू त०ৰঙ্কিয় शेष पेरण्यबद्वर्ष
तं०-1 मोयपडिमा । पंचदि। सवाहि। जंबू। तं०-1 गहिय। शेष । ऐरण्यवर्ष।
'दुविहे'नि दुविहे'त्ति । अभणुपणयाई अभYण्णायाइ । (तत्तण) नऽण्णेण नऽण्णेण (तत्तण)। मेद
भेदं । माहदे
माहिदे। १२५ करपे
कप्पे । पानं ।
मुक्त। २४५६ पुंसगा ०णपुंसगा।
८४
७
॥४२॥
४
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शुद्धिपत्रकम्
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
॥४३॥
पत्रम् पंक्तिः अशुद्धम्
शुद्धम् १४७ ३ सक्लिष्टा संक्लिष्टा। १६०२ उम्साप्पिपीए उम्सप्पिणीप । १६० ८-९ तो तओ तओ। १६७ ६ तब
तओ।
ते। शुद्धिरुत्का शुद्धिरुकता। इन्छेज्जा इच्छेजा। अहुणोवण्ण अहुणोषवण्णे। मानपरित्यागतो पानपरित्यागतो। 'व्यवसाया' 'व्यवसाया।
वा। कालसामान्य कालसामान्य। ग्रहण
ग्रहणं । शाकितादयो शकितादयो । जवुद्दावे
दीवे ।
पत्रम् पंक्ति अशुद्धम्
शुद्धम् २१८ १५ ऐवए
परवए । पच्चस्थिमइढे पच्चस्थिमझे। २२३८ निपांतन निपातन।
कभवगरे कअगवरे । सुत्त
सुत्त। च उमंगो चउभंगो। णो. अत्थधरे णो अत्थधरे । जलइए जलरए ।
पायच्छिते पायच्छित्ते । २९६ ३ णाम
जाम। पपसि
एपसि । २९८ १४ भत्तर
भत्तस्स । ३०४६ नाक्षत नापेक्षिते । ३०६२ 'पाडवपहि' 'पाधिपति'।
वा।
॥४३०॥
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________________
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका
वृतिः।
॥४३९॥
Jain Education Internation
पत्रम् पंक्ति: अशुद्धम्
माउब०
'माउव०'
तानि कतिद्र०
कति
३२०
३२१
३३१
"
१
३३८
७
३३२
३३४ ६
3:
७
११
३३५ १२
३३६
""
m
१३
अंजणपव्वण
प्रवेश
बहुमज्झ०
मुष्टा इव मुष्टाः
प्रतिरूपाः
नवर
जिण
स्वपरानु० रूयम'०
शुद्धम्
माउद ।
'माउप०' ।
तानि कति च द्रव्य
कति द्रव्याणीत्यर्थः ।
अंजणगपव्त्र ।
पुत्रेण ।
बहुमज्झ० ।
मृष्टा इव मृष्टाः ।
प्रतिरूपाः।
नवर |
जिण । स्वपरापरी
रुयसं०
"
01
पत्रम् पंक्तिः अशुद्धम
३३८ १३ रूयनं०
३४३ 24
०नोऽत०
३४४
२
कीर्त्ति
स्या दे०
सुतेण
समणोवस
"
३४६
३४८
"
३४९
35
"
३५०
३५४
१३
१५
१२
१
१३
एवम०
गोभि
पुरुषपक्षे यु
तु न प्रयो० ७ जाति ६ कुल ५ बल ४ रूप ३ श्रुत २ शील १
वारि
ब
शुद्ध प्
रायस ० ।
०तः न०
कीर्ति ।
स्यादे० |
सुपण । समणोवासप वभि० । गोभिः, यु० ।
पुरुषपक्षे तु । तु य० ।
जाति १ कुल २ बल ३रूप ४ श्रुतशील ६ चारित्र ७ लक्षणे ।
ब? बु
शुकि
॥४३१॥
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________________
शुद्धिपत्रकम्
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
॥४३२॥
4000000000000000000000000000000000000000+
पत्रम् पंक्तिः अशुद्धम्
शुद्धम् ३६० ९ बुद्धिबैधी० बुद्धिद्वैधी। ३६४ ५ यामम्भरि. त्यात्मम्भरित। १५ दुगुनि० दुर्गति०।
तू भयस्थी तृभयस्थो। म्थोभाव स्थो भाव।
जाति ४ कुल जाति १ कुल २ बल ३बल २रूप१ ३रुप४ जय ५पदेषु जयपदेपु नानथेति नान्यथेति। वायुनस्प० वायुवनस्पः। तद्दश
तद्देश। स त्तत्वात् सत्वात्। ०डम्मरस्य डम्बरस्य। सर्वतः सर्वतः। देशाधिपतिः देशाधिपतिः।
पत्रम् पंक्तिः अशुद्धम्
शुद्धम् अवतरीतु अवतरितुं। ४०० . इत्यादि- इत्यादि। कण्ठय,
कण्ठय। ४०४ १३ विरहेण । विरहितेन। ४०९ ४ महुक भे महुकुंमे। ४१० १० श्रामपक आमएक। ४१३ ७ पगडी पगडि।
बोध विषयांसेन बोधिविपर्यासेन ।
१ ४२१५
५
निग्रहास्तु निग्रहस्तु । भिसाले २ भसोले २,। पत्तपमंद एरोबिदए पत्तए मंदप रोबिदए। ग्रन्थन
ग्रथन। ग्रन्थिम ग्रथिमा
122000gappa
Jan Education
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li
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________________
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका
वृत्तिः ।
॥४३३॥
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पत्रम् पङ्किः
४४
१०
५३
६३
६४
८६
""
८७
९६
१०६
१०७
१०९
ठाणांगसूत्र-वृहट्टीकापाठ
९
१
१
१
२
३
४
परिशिष्ट - १
८
१
दीर्घत्वं प्रकटत्वादिति ।
• शमश्रेण
बादरपरिणामाना० विचटिता
वा पच्चति
जीवाति या अजीवाति या सख्यातावलिकाप्रमाणाः
नऽण्णेण उ
तृतीय
वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितो
भक्तौदि
( पाठभेद सूचिपत्र )
पत्रम् पङ्क्तिः
४४
१५
५६
४
७३
७४
१०५
""
१०६
११९
१३२
१३३
१३६
ठाणांगसूत्र- दीपिका टीकापाठ
११
१
३
३
१०
१५
९
दीर्घत्वं प्राकृतत्वादिति ।
•मुपशमश्रेणी क्षपकश्रेणीं वा बादरपरिणामानां विघटिता
वा पउच्चड़
जीवाइ वा अजीवाड़ वा सख्यातावलिकाप्रमाणः
तण उ
तृतीयः
वीर्यान्तरायक्षय-क्षयोपशमजनितो भक्तपादि (भौपधादि)
परिशिष्ट-१
॥४३३॥
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________________
पत्रम् पतिः
श्रीस्थानाङ्ग
परिशिष्ट-१
पत्रम् पङ्क्तिः ठागांगसूत्र-बृट्टीकापाठ ॥ ११० ९ दानमुद्दिश्योकम् १११ ४ श्रमणमशनादिना
ठाणांगसूत्र-दीपिकाटीकापाठ दातारमुदिश्योक्तम् श्रमणमाहनादीनां
दीपिकावृत्तिः ।
॥४३॥
१४३
१५२
.
१११-२ १ पावमती
फलोवते पुप्फोवते ११८-१ १२ संवृतं
ओषधिक्काथानां १२१-१ १३ विगलिंदियाण तेउकाइयवज्माणं १२९-१ ८ अग्रत्तः १३१-२ १० पराजितान्-प्रतिवादिनः १३२-२ १२ एतान्यपि जीवाभिगमान्तानि
सामान्यजीवसूत्राणि १३३-२ ११ तं० उडाए ३,
Free
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....Gcwws
पावरुन पुप्फोरने फलोवते सम्प्रवृत्त अंपधिवाथानां तेउकाइयवज्जाण विगलिंदियाण अग्रतः पराजितात-प्रतिवादिनः एतान्यजीवाभिगमान्तानि सामान्येन जीवसूत्राणि तं० उड़ाते ३, एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण एवं मणुस्साण वि
॥४३४॥
-१
१
गत्यादीना०
गत्यादीनां
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________________
परिशिष्ट
थ्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
१५
100000000000000000000000000000000000000000000000000004
पत्रम् पछिकः ठाणांगसूत्र-वृहीकापाठ
पदाना
भवप्रत्ययावधिपक्षे -२ ९ प्राप्नुयात् १५१-१ ११ तद्गा ननधर्म
दीवे पुरच्छिमद्धे १५२-२ ८ तस्याने केन ज्ञानेन १५४- १८ गच्छकुटुम्बादेरिति
•वि यादविनय इति १५४-२ ५ उवालंभ
स्त्रय आलापका १५६-२ ११ किंफले ? पच्चकखाणकले
अनुसरणीया १५७-
११ अनाश्रवणालघुमित्न १६०-२ ५ यदतिचारजातं
पत्रम् पछिक्तः टागांगसूत्र-दीपिकाटीकापाठ १७७ १२ पदानां
१ भवप्रत्ययाधिक्षेत्रे
प्रादुर्भूयात् दीवे पच्चस्थिमद्धे पुरच्छिमद्धे तद्गतजिनधर्म
तस्य नैकेन ज्ञानेन २०९ १२ गच्छकुलादेरिति
विपयत्वादविनय इति उवालंभे स्त्रयस्त्रय आलापका किंफले? गोयमा! पच्चकखाणफले
स्मरणीया __, १३ अनावाल्लघुकर्मत्वेन २१८६ यातिचारजाल
००००००० ००GM
22.
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥४३५॥
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श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका
वृत्तिः ।
|||४३६ ।।
Jain Education Interna
पत्रम् पतिः
४
१६१-१
१६१-२
२
१२
11
१६२-१
८
१७०-२ ५
१७१-१ C
१७२-१ २ १७७-१ ४
१८२-२
१८३-१
६
인
३२
१८३-१ १०
१८९-२ २
१९०-१
८
""
܀
**
ठाणांगसूत्र- बृहट्टीकापाठ परियद देवतात महेस खे
स च चलेदिति
तत्र वर्तमाने
पितियंगा... माउयंगा
पर्यन्त'
उपयोगाभावेनासत्कल्पतया भवतीत्यर्थेन
ज्या पर्याये
त्रयः
संवादित ति
१३. १२
कियान
सततप्रवृत्त
अभिविधिना
पत्रम् पद्मिकः ठाणांगसूत्र- दीपिकाटीकापाठ पोंsरियद तभ देवताओ
२१९
३
२२०
महासोक खे
२२१
२३२
२३३
२३४
२४४
२५३
२५४
**
२५५
२६५
२६६
१५
१०
८
१०
२
२
८
3
८-९
6 6 m 1
संचलेदिति
तत्प्रवर्तमाने
पियंगा.. मायंगा
पर्यन्तः
उपयोगाभावेनासत् कल्पनया भवतीत्यनेन
ज्या पर्यायेण
त्रयः ७,
• विसंवादित •
१२, १३
कियत्तमः
सततप्रवृत्तां
अवधिना
परिशिष्ट १
॥४३६||
1
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________________
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्र
दीपिका
वृत्तिः ।
॥४३७॥
Jain Education Interi
पत्रम् पतिः
१९० - १ १०
१९१-१
१
"
"
१९२-१
५
७
८
१०
"
१९२-२ ७
१९७-१ ९ १९८-१
२
६
"
१९९ ७-९
२०२-१ ६
२०२-२ ४
२०३-२ १
२११-१
६
ठाणांगसूत्र-वृहट्टीकापाठ अधिगमद्वारेण
एक्र
भंगाई
पर्यायलम्बन० विवरणगाथा
तत्र
तथा
पडि पुच्छति
खिष्पगति
विमाणवासी
६-९-१४ आंकडा नथी (पूर्वना पदोनी संख्यामां ) शिष्यापेक्षा
भवंति
काष्ठान्तरेण समान वेगसरादि
पत्रम् पङ्किः ठाणांगसूत्र- दीपिकाटीकापाठ अभिगमद्वारेण
२६६
२६७
२६८
२६९
17
२७०
२७७
२७८
२७९
२८२
२८५
"
२८७
३०१
८
१३
२
४
१०
१२
५
६
I m 3.
१५
एक
भंगाड़
५
१३
८
१२
पर्यायालम्बन० विवरणगाथे
अत्र
तथा 'अवाए'ति पडिच्छड़ सिग्ers
मणिया
५-७ ६-९-१४ (पूर्व ना पदोनी संख्यामां पूर्वनी संख्यासूचक
आंकडा छे. ) शिष्यापेक्षया
भवंति तं ०
काष्ठा तरसमान
वेरादि
परिशिष्ट-१
॥४३७॥
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________________
tries
।
परिशिष्ट-१
भीस्थानाक
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
॥४३८॥
पत्रम् पङ्क्तिः ठाणांगसूत्र-बृहट्टीकापाठ २११-२ ५ सूक्ष्मजीवादिभावकथं,
, १० जिनप्रणीततत्वात् विरुद्ध वात् | २१२-२ ५ भावेता २१३-
११ नापेक्षत २१३-२ , याच्नायां २१४-१ ११ वेह २१४-२ २ तथा
एवमितरेऽपि २१७- २३ नान्योऽस्तीदृशः
पंचसूत्री गदिता २२१-१ १ परिमितपरिमाण. २२१-२ ९ चाप्राप्तोदयया २२३-१ १ माउ उकते
विगए इवा २२३-२ ९
दूसमसुसमाए हरिवस्से
पत्रम् पछिकः ठाणांगसूत्र-दीपिकाटीकापाठ ३०१ १२ सूक्ष्मजीवादिभाव-कथनम् ३०२ २ जिनप्रगीततत्वविरुद्धत्वान्मि.
भावेत्ता नापेक्षिते
याञ्चायां ३०६
चेह ३०७
नोतथ: एवमितरोऽपि नान्यस्तादृशः पञ्चसूत्रीमाह परिमितप्रमाणः या प्राप्तोदयया माउ पएक्कते विगमेइ वा मुसमसुसमाए हरिवासे
mmmmmmmmm
३१८
॥४३८॥
३२२
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पत्रम् पङ्किः ३२२८
परिशिष्ट-१
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिकावृत्तिः ।
पत्रम् पङ्क्तिः २२३-२ १२
१४ २२४-१ ३
ठाणांगसूत्र-दीपिकाटीकापाठ तत्थ णं चत्तारि निसहणीलवंता. दाहिणेणं जहन्नपदे पुवरवरदीवड. परिवसंत त
३२३
॥४३९॥
३२५
ठाणांगसूत्र-बृहट्टीकापाठ चत्तारि. णिसढणीलवंत. दाहिणकूले जहम्नपते पुकखरवरदीब. परिवसंति तदेव धायासंडे • पुष्करार्धयोरित्यर्थः 'नंदीसरस्से सव्वअंजणमया समणा भूतवडेंसा सप्रभा
३२६
२२५-१ २२६-१ १३ २२६-२ १२ २२९-२ २
तहेव
19ur our vra
mr mr mmmm nom m
0000000000000000000000000000०००००००००००००००००००००००००००
३२७
३२९
न
धायइसंडेण पुष्करवरार्धयोरित्यर्थः 'नंदीसरवरस्से' सव्वे अंजणमया सुमणा भूतवडे सगा सप्रभावा
२३१-१
३३३
, १२ १
॥४३९॥
२३३-१
३३४
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श्रीस्थानाङ्ग
परिशिष्ट-१
दीपिका
वृत्तिः ।
॥४४०||
पत्रम् पतिः ठाणांगसूत्र-बृहट्टीकापाठ २३४-१ १ " -
१२ वोच्छ , -१ ७ अयएलगावि २३४-२ ९ अणुपबिटे समाणे
रुतसंपन्नेवि २३७-१ १२ णमत्यमिभोदिते २३८-२ १ उन्नतच्छन्दः-उच्चताभिप्रायः २४०-२ ९ वियोजिता २४३-१ ५ २४४-१ ८ ग्रथित एव
,, -१ १२ स्थिरा २४७-१ ४ प्रकटादित्वात् २४७-२ १ कल्पशरीराः २४८-२ ८ निकखंते
पत्रम् पछिका ठागांगसूत्र-दीपिकाटीकापाठ ३३७६ सोउ
६ पोत्थं
अयएलगाय ३३८
अणुपविटे
रूपसंपन्नेवि, एगे ३४३
अत्यमिओदिए ३४५
उच्चच्छन्द:-उन्नताभिप्रायः ३४९
वियोजयिता ३५३
ग्रथित इव स्थिता प्राकृतत्वादिति
कल्प(ल्य)शरीराः ३६४
निकखमेत्ता
200000000000000000000000000000000000000000000000000000०....
०
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॥४४०॥
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श्रीस्थानान
सूत्र
दीपिका
वृत्तिः ।
॥४४१॥
Jain Education Interna
पत्रम्
२४९-१
२४९- १.
""
२५०
२५१
पक्तिः ठाणांगसूत्र - बृहट्टीकापाठ
१२
अज्ञात
८
परिज्ञातानि
९
२
६
१३
२५२-१ १
२५४-१ १
""
स परिज्ञातसंज्ञः
आरोहदोषेण
यस्यां
तदुद्भव
गच्छान्तरगतानां
हेऊ ५,
२५९-१
१३ दत्वाऽरीणां गलेऽहिं
२६०-१ ५ ज्ञातनिमित्तत्वात्
२६२-१ ५-६ सत्कृना ० २६२-२ ९ इत्येव
२६३-१
९ पडिकम्म
पत्रम्
. ३६५
३६५
"
३६७
३६८
"
३६९
३७२
३७८
३७९
३८१
३८२
"
पति: ठाणांगसूत्र - दीपिकाटीकापाठ
अज्ञान'
'परिण्णाय'त्ति परिज्ञातानि
सोऽपरिज्ञातसंज्ञः
३
११
१२
१ आरोहक दोषेण
४
१०
९
९
७
२
६
३
८
यस्याः
तत्सम्भवं
गच्छान्तर्गतानां
५, हेऊ
दचारीणां गलेऽहिं
ज्ञाननिमित्तत्वात्
सक्तूना ०
इत्येव
परिक्रम्म
परिशिष्ट - १
॥४४१॥
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________________
श्रीस्थानात
म
परिशिष्ट १
our
दीपिका वृत्तिः ।
२६५ २६६-१ २७० -
२
पत्रम् ३८५ ३८७ ३८८ ३९२
॥४४२॥
२७०-२
३९३
00000000000000000000000000000000000000000000000000000000..
पक्तिः ठाणांगसूत्र-बृहट्टीकापाठ
८ तिरश्चा ८ चत्तारि पुरिसा ९ तच्चतुर्गुणम् १ कालवासा ४, ७, णाममेगे णो
अकालवासी २ सफलता ५ सव्वः २ रंडमसमाणे १२ तउगोले तंबगोले मीसगोले १३ वयरगोले १० बहलछायत्वासेव्य वादयो १२ पदानि २ संमूर्छन ९ तथेत्येवमन्ये ११ राजन्
पतिः ठाणांगसूत्र-दीपिकाटीकापाठ
६ तिरश्चा २ चत्तारि पुरिसजाया २ तच्चतुर्विधम्
कालवामी णाम मेगे णो अकाल
वासी ४, ७ २ सफलतां ५ सव्वतः १ सोबागकरंडगसमाणे १२ तउअकोले तंबगोले सीसगगोले १४ बहरगोले
८ बहलछायत्व-सेव्यत्वादयो १० पादा १४ संमृर्छ नेन
७ तथेत्येवमन्येऽपि १० ज्ञया
२७१-२
1640000000000000000000000000000000000000000000000000000006.
२७२-१
२७३
३
९८
२७३-२
॥४४॥
"
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परिशिष्ट-२
भीस्थाना
सूत्रदीपिका वृत्तिः ।
०
॥४४॥
पत्रम् पतिः ठाणांगसूत्र-वृहट्टीकापाठ
पत्रम् पक्क्तिः ठाणांगमूत्र-दीपिकाटीकापाठ २७३-२ १३ विवेकवञ्चित्तत्वात
विवेकविविक्तचित्त यात् २७४-१ १० मणुस्सीहि
७ मणुस्सीए देवीहि
देवीए २७४- २१ कोयसीलताते पाहुडसीलयाते
१३ कोहसीलणयाए पाहुडसीलणयाए २७७-१ २ विरहेण
४०४
विरहितेन २७८-१ ९ पलभ्यमध्यस्वरूपत्वात
५ . उपलभ्यमानमध्यस्वरूपत्वात् " १. मृलोपाते.
६ पूर्वोपातेः ०पलभ्यमध्य०
९ पलभ्यमानमध्यं० २८०-१ ३ विष्पन्दते
विष्यन्दते २८०- २१ पाओसा
१० पदोसा २८१-१ १ संयोगा:
४१२
संयोगः २८२-२ ११ ००जसा
४१४ १५ ०रुत्तमाः २८३-१ १३ विवाग
४१५ १० विपक्क २८३-२ ५ तत्रोदक
१५ तत्र यदुदक २८४-१ ५ से चेव णसे
४१६ १४ से चेव० १३ पडिनिसेवेणं
४१७ ७ पडिनिवेसेण For Private & Personal use only
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॥४४३॥
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________________ // श्रीस्थानाङ्ग परिशिष्ट / दीपिकावृत्तिः / पत्रम् पवितः ठाणागसूत्र-बृहट्टीकापाठ 294-2 5 अन्यस्त्वमित्रः 295-1 7 बोधविपर्यासेन ..2 5. तन्निग्रहास्तु भिसाले // 444 // rena100000000000000000000000000000000000000000000000000000000. पत्रम् पतिः ठाणांगसूत्र-दीपिकाटीकापाठ 417 12 अन्यस्त्वमित्रं 418 13 बोधिविपर्यासेन तन्निग्रहस्तु भसोले 42. 1 गेज्जे 3 पडिसुए .श्चतुहम्तदेहा दकगभा अभ्रसंस्तृतानि प्रपन्च्य त चूलवत्यु 425 12 पताकाच्छेदको 427 2 बंध उदीर० ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ܪܰ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पांडुमुते चतुईस्ता देवा 286-2 10 उदकगम्भा 287-1 3 अभ्रसंस्थितानि 13 प्रपञ्चत -2 13 मूलवत्यु 297-1 2 पातकश्छेदको , 10 एवंचिघ उवचिय बंध उदीर० // 444 // ////// Jan Education For Private & Personal use only ////////// liwww.iainelibrary.org