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________________ श्रीस्थानाङ्ग सूत्र दीपिका वृतिः । ॥२१९॥ Jain Education International मन्दर० दाहिणेण तओ रुष्पी सिहरी, जंबू० मद्दद्दहा पं० त०- पउमद्दहे महापउमद्दहे तिगिछिदहे, तत्थ णं तओ देवताओ महिदियाओ जाव पलिओमवडितियाओ परिवसंति, त० - सिरी हिरी धिती, एवं उत्तरेणवि, णवरं केसरिदहे महापोंडरीयदहे पोंडरीयदहे, तओ देवताओ कित्ती बुद्धी लच्छी । जम्बूद्दीवमंदर० दाहिणेण चुल्लहिमवंताओ वासहरपव्वयाओ पउमद्दद्दाओ महादहाओ तओ महानदीओ पवति, त०-गंगा सिंधू रोहियंसा, जंबूद्दीवमंदर० उत्तरेण सिहरीओ वासहरपव्वयाओ पोंडरीयद्दहाओ महादहाओ तओ महानदीओ पवहंति, त०- सुवण्णकूला रत्ता रत्तवती, जंबू० मंदर० पुरत्थिमेण सीताप महानदीप उत्तरेण तओ अंतरणदीओ पं० त०- गाहावती दहवती पंकवती, जंबू० मंदर० पुर० सीयाप महादीप दाहिणेण तथ अंतरणदीओ पं० त०-तत्तजला मत्तजला उम्मत्तजला, जंबू० मन्दर० पच्चत्थिमेण सीओयाए महानदीप दाहिणेण तओ अन्तरणदीओ पं० तं० खीरोदा सीयसोया अन्तोवाहिणी, जम्बू० मन्दर० पच्चत्थिमेण सीतोदाए महानदीप उत्तरेण तओ अन्तरनदीओ पं० त० उम्मिमालिणी फेणमालिणी गंभीरमाणि । एवं धायइसंडे दीवे पुरच्छिमद्धेवि अकम्मभूमीओ आढवेत्ता जाव अन्तरणदीओत्ति निरवसेसं भाणियव्य', जाव पुक्खरवर दीवइढपच्चत्थिमड्ढे तहेव णिरवसेस भाणियत्र्व (सू० १९७) | 'जम्बूदवे' इत्यादि, सर्व सुगमम् इदं प्रकरण द्विस्थानकानुसारेण जम्बूद्वीपपटानुसारेण चावसेयमिति । नवरमन्तरनदीनां विष्कम्भः पञ्चविंशत्यधिकं योजनशतमिति । अनन्तरं मनुष्य क्षेत्रलक्षण क्षितिखण्डवक्तव्यतोकूतेत्यधुना भङ्ग्यन्तरेण सामान्यपृथ्वीदेशवक्तव्यतामाह For Private & Personal Use Only सू० १९७ । ॥२६॥ www.jainelibrary.org
SR No.600142
Book TitleSthanang Sutra Dipika Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalharsh Gani, Mitranandvijay
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1974
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_sthanang
File Size23 MB
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