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________________ सू० १३५॥ श्रीस्थानाङ्ग सूत्रदीपिका वृत्तिः । 000000000000000000000000000000000000000000000000000000 सियाए परिवहेज्जा तेणावि तस्स अम्मापिउस्स दुप्पडियार भवइ, अहे ण से त' अम्मापियरं केवलिपन्नत्ते धम्मे आघवइत्ता पण्णवइत्ता परूवइत्ता ठावइत्ता भवइ, तेणामेव तस्स अम्मापिउस्स सुप्पडियारं भवइ समणाउसो! १, केइ महच्चे दरिई समुक्कसेज्जा, तए ण से दरिद्दे समुक्किठे समाणे पच्छा पुरं च ण विपुलभोगसमितिसमण्णागए यावि विहरेज्जा, तए ण से महच्चे अण्णया कयाइ दरिद्दीहए समाणे तस्स दरिद्दस्स अंतिए हव्वमागच्छेज्जा, तए ण से दरिद्दे तस्स भट्टिस्स सव्वस्समविदलयमाणे तेणावि तस्स भट्टिस्स दुप्पडियारं भवइ, अहे ण से त' भट्टि केवलिपण्णत्ते धम्मे आघवइत्ता पण्णवइत्ता परूवइत्ता ठावइत्ता भवइ, तेणामेव तस्स भट्टिस्स सुप्पडियार भवइ २, केइ तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए पगमवि आयरिय धम्मिय सुवयण सोच्चा णिसम्म कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोपसु देवत्ताए उववण्णे, तप ण से देवे त धम्मायरिय दुभिक्खाओ वा देसाओ सुभिक्ख देस साहरिज्जा, कंताराओ वा णिकतार करेज्जा, दीहकालिएण वा रोगातकेण अभिभूय समाण विमोएज्जा, तेणावि तस्स धम्मायरियस्स दुप्पडियार भवद, अहे ण से तधम्मायरिय केवलिपण्णत्ताओ धम्माओ भट्ठ समाण भुज्जोवि केवलिपण्णत्ते धम्मे आघवइत्ता जाव ठावइत्ता भवइ, तेणामेव तस्स धम्मायरियस्स सुप्पडियारं भवइ ३ (सू० १३५) । ____ 'तिण्ह ति त्रयाणां दुःखेन-कृच्छ्रेण प्रतिक्रियते-कृतोपकारेण पुंसा प्रत्युपक्रियत इति 'खल् 'प्रत्यये सति दुष्प्रतिकर प्रत्युपक मशक्यमितियावत् , हे श्रमण ! आयुष्मन् ! समस्तनिर्देशो वा हे श्रमणायुष्मन्निति भगवता शिष्यः सम्बोधितः, अम्बया-मात्रा सह पिता-जनकः अम्बापिता तस्येत्येक स्थानं, जनकत्वेनैकत्वविवक्षणात् , तथा 'भट्टिस्स'त्ति भर्तुः-पोषकस्य स्वामिन इत्यर्थ इति द्वितीय, धर्मदाता आचार्यों धम्माचार्यः तस्येति तृतीयम् , ॥१५॥ Jain Education Item For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.600142
Book TitleSthanang Sutra Dipika Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalharsh Gani, Mitranandvijay
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1974
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_sthanang
File Size23 MB
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