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श्रीस्थानाङ्ग सूत्र
दीपिका वृत्तिः ।
।। ५४ ।।
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तदभ्यन्तरं तत्स्वरूपमित्यर्थः तच्च गणधर कृतं 'उपपन्ने इ वे'त्यादिमातृकापदत्रयप्रभवं वा ध्रुवश्रुतं वा आचारादि, यत् पुनः स्थविरकृतं मातृकापदत्रयव्यतिरिक्तव्याकरण निबद्धमध्रुवश्रुतं वोत्तराध्ययनादि तदङ्गबाह्यमिति, 'अंगबाही'त्यादि, अवश्यं कर्त्तव्यमित्यावश्यकं - सामायिकादि पड्विधम् आह च - "समणेण सावरण य, अवस्सका यव्वयं हवइ जहा । अंतो अहोणिसस्स य, तम्हा आवस्सयं नाम ||१||" आवश्यकाद् व्यतिरिक्तं ततो यदन्यदिति । 'आवस्वतिरित्त' इत्यादि, यदिह दिवस निशाप्रथमपश्चिमपौरुषीद्वय एव पठ्यते तत् कालेन निर्वृत्तं कालिकम्उत्तराध्ययनादि, यत्पुनः कालवेलावर्ज पठ्यते तदूर्ध्वं कालिकादित्युत्कालिकं - दशवैकालिकादीति । उक्तं ज्ञानं चारित्रं प्रस्तावयति —
दुविहे धम्मे पं० त० - सुयधम्मे चेव चरित्तधम्मे चेव, सुयधम्मे दुविहे पं० त०- सुत्तसुयधम्मे चैव अत्थसुय धम्मे चैव चरितम् दुविहे पं० त० - अगारचरित्तधम्मे चेव अणगारचरितधम्मे चेव, दुविहे सजमे पं० त०- सरागसंजमे चैव वीतरागसं जमे चेव, सरागस जमे दुविहे पं० त० - सुहमसं परायसरागस जमे चेव बादरसं परायसरागसंजमे चेव, हुम परायसरागस जमें दुविहे पन्नत्ते, त०- पढमसमय सुहुमस परायसरागस जमे चेत्र, अपढमसमय सु० अथवा चरमसमयसु अचरिमसमयसु०, अहवा सुहुमस पराय सरागस जमे दुविहे पं० त०-संकिलेसमाणए चेव विसु ज्झमाण चेव, बादरसं परायसरागस जमे दुविहे पं० तं ० पढमसमय बादर• अपढमसमयबादरसं०, अहवा चरिमसमय ० अचरिसमय०, अहवा वायरस परायसरागस जमे दुबिहे पं० त०-पडिवाति चेव अपडिवाति चेव, वोयरागस जमे दुवि पं० तं ०-उवस तकसायवीयरागलं जमे चेत्र खीणक सायवीयरागस जमे चेव, उवस तकसायवीयरागसंजमे दुविहे, पं०त०
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सू०७२
॥५४॥
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