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________________ श्रीस्थानाङ्गसूत्र दीपिका वृत्तिः । ॥२४२॥ Jain Education Interna काउलेस परिणमइ २ काउलेसेसु नेरइएस उववज्जइ "त्ति, एतदनुसारेणोत्तरसूत्रयोरपि स्थितलेश्यादिविभागो नेय इति । पण्डितमरणे संक्लिश्यमानता लेश्याया नास्ति संयतत्वादेवेत्यय बालमरणाद्विशेषः, बालपण्डितमरणे तु संक्लिश्यमानता विशुद्धयमानता च लेश्याया नास्ति, मिश्रत्वादेवेत्यय विशेष इति । एवं च पण्डितमरण वस्तुतो द्विविधमेव, संक्लिश्यमानलेश्यानिषेधोऽवस्थितवर्द्धमान लेश्यत्वात्तस्य, त्रिविधत्वं तु व्यपदेशमात्रत्वादेव, बालपण्डितमरण ं त्वेकविधमेव, संक्लिश्यमानपर्यवजातलेश्यानिषेधोऽवस्थित लेश्यत्वात्तस्येति त्रैविध्यं त्वस्येतरव्यावृत्तितो व्यपदेशत्रयप्रवृत्तेरिति । मरणमनन्तरमुक्त, मृतस्य जन्मान्तरे यथाविधस्य यद्वस्तुत्रयं यस्मै सम्पद्यते तत्तस्मै दर्शयितुमाह तओ ठाणा अव्यवसियस्स अहिताप असुभाए अखमाप अणिस्सेसार अणाणुगामियत्ता भवति, जहा से ण मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वइप णिग्गंथे पावयणे संकिए कखिए वितिगिच्छिए भेदसमावन्ने कलुससमावन्ने णिग्गंथ पावयणं णो सहहह णो पत्तियह णो रोपड़ तं परिस्सहा अभिजुजिय अभिजु जिय अभिभवति, णो से परीसहे अभिजुजिय अभिजु जिय अभिभवइ १, से ण मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वइए पंचहि महत्वपहिं सौंकिए जाव कलुससमावणे पंच महव्वयाई णो सहहह जाव णो से परिस्सहे अभिजुजिय अभिजुजिय अभिभवर २, से ण मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पarr छहिं जीवनिकापहि जाव अभिभवइ ३ । तओ ठाणा ववसियस्स हियाए जाव आणुगामियत्ताप भवति, तं० से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वइप णिग्गंथे पावयणे For Private & Personal Use Only सू० २२२-२२३ | ॥२४२॥ www.jainelibrary.org
SR No.600142
Book TitleSthanang Sutra Dipika Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalharsh Gani, Mitranandvijay
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1974
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_sthanang
File Size23 MB
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