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________________ सू०२२६-२३१। श्रोस्थानाङ्ग सूत्रदीपिका वृत्तिः । ॥२४५॥ 000000000000000000000000000000०००००००००००0000000000000000 | वीए पइसरइ लोयनाडीए । तइए उप्पिं धावइ, चउत्थए नीइ बाहिं तु ॥१॥ पंचमए विदिसाए, गंतु उप्पज्जए उ एगिदि"त्ति, सम्भव एवाय, भवति तु चतुःसामयिक एव, भगवत्यां तथोक्तत्वादिति, तथाहि-"अपज्जत्तगसुहुमपुढविकाइए ण भंते ! अहे लोगखेत्तनाडीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए समोहणित्ता जे भविए उड्ढलोगखेत्तनाडीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से ण भंते ! कतिसमइएण विग्गहेण उववज्जेज्जा ?, गोयमा ! तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेग उववज्जेजा" इत्यादि । अत उक्तम्एगि दियवज'ति, यावद्वैमानिकानामिति-वैमानिकान्तानां जीवानां त्रिसामयिक उत्कर्षेण विग्रहो भवतीति भावः । मोहवतां त्रिस्थानकमभिधायाधुना क्षीणमोहस्य तदाह खीणमोहस्स ण अरहओ तओ कम्मंसा जुगव खिज्जति, त-णाणावरणिज्ज दसणावरणिज्ज अंतराइय (सू० २२६)। अभीतीणक्खत्ते तितारे पं. १ एवं सवणे २ अस्सिणी ३ भरणी ४ मिगसिरे ५ पुस्से ६ जेट्ठा ७ [सू० २२७] । धम्माओ ण अरहाओ संती अरहा तिहिं सागरोवमेहि तिचउभागपलिओवमूणपहिं वीतिक तेहि समुप्पण्णे (सू० २२८)। समणस्स ण भगवओ महावीरस्स जाव तच्चाओ पुरिसजुगाओ जुगंतकरभूमी, मल्ली ण अरहा तिहिं पुरिससएहि सद्धि मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए-एवं पासेवि (सू० २२९) । समणस्स ण भगवतो महावीरस्स तिणि सया चउद्दसपुब्बीण अजिणाण जिणसंकासाण सव्वक्खरसण्णिवाईण जिण इव अवितह वागरमाणाण उक्कोसिया चउद्दसपुब्बिसंपया होत्था (सू० २३०) । तो तित्थयरा चक्कवट्टी होत्था, त-संती कुंथू अरो ३ (सू० २३१) । २४५॥ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.ory
SR No.600142
Book TitleSthanang Sutra Dipika Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalharsh Gani, Mitranandvijay
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1974
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_sthanang
File Size23 MB
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