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राणायद
और कपूर की धूल आकाश में नहीं उड़ती।
घत्ता–जहाँ पर न कलागम है और न अक्षर, न गुरु है और न दासता बनायी गयी है। कुबेर के द्वारा एक-एक जोड़ा (युगल) लाकर और मानकर रख दिया गया है ॥२०॥
और जो पोंछे गये दर्पणतल की तरह है ऐसी भूमि में प्रतिबिम्बित आकाशरूपी आँगन (जो चन्द्रमा, तारावलि और दिनकर का आँगन है। ऐसा शोभित होता है मानो अत्यन्त लम्बे समय तक स्थित रहने के डर से प्रवंचित होकर जैसे पाताललोक में पड़ा हुआ है। जहाँ प्रासादों के शिखरों पर चढ़े हुए मोर ने यह मानकर कि यह हमारा नेत्र-प्यारा इष्ट दिखाई दिया है, नवजलधर (नवमेघ) को चूम लिया। वहाँ न चोरकुल था, न विरोधी राजकुल था। और न त्रिशूलभिन्न देवकुल दिखाई देता था। जहाँ न ब्राह्मण था और न वणिकवर। न हल था और न किसान। न सम्प्रदाय था और न कापालिक। जहाँ क्षत्रिय धर्म नहीं था और न जिनेश्वर के द्वारा भाषित धर्म, न व्याधा के द्वारा किया गया और वेदों के द्वारा घोषित पशुवध था। न वेश्या थी और न वेश्या की यक्ति थी। समस्त नारियाँ और कलपुत्रियाँ सीधी थीं।
घर-घर में शीघ्र ही रत्नों से विस्फुरित तोरणों को, गाये गये मंगलगीत समूहों और देवों के द्वारा आहत पटहनिनादों के साथ बाँध दिया गया। घर में संचरित होनेवाले कलश भी दिखाई दिए जो शरद् के मेघों के समान ऐसे लगते थे कि चन्द्रमा प्रविष्ट हुए हों। जिसमें नित्य देवताओं के लिए हर्ष उत्पन्न किया जाता है,
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