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अजोध्यानगरी कु वरतकारामन मोताराम
विमारष्ट्रि। संमोहश्मन्त्रर्द्धिपायारदिाचतादियदेदिवामरकं तरविकिरणदिसिहि लाभदो गयन तंभ वणिसिससिरसिज़ ससिमणिजलधारा हम मरगय कथधरैपरकवि। हसन जहिचंचु एल रिकनघूमन इंदणील घरेणहविष्फुरणे विमलेमा त्रियदामाहर जाणि श्सामा हस्ता नामकुंडजलदंत] कणथरइयमं दिरेविस रती | अवरुवसंत्रा राजवर्दता करके कणु करफ। सिंजा उरुसर्वेणजित्रहिणाई द दिकुटिम यलिदचाणि कलरावेण दंसुपरियाणि नं तदिनिपडि] वनजहिंसिम निवस दिनप लउज फलिहसिलाय लमझे निनिडर पिहिमक बाडुविव saरुदिर पोमराज मंडचासाणा जिल का विहरिपि
दाणी घुसिणपिंडुननियंतिविवरण जर्हिसो हायणासनुविवरण चंदण चिकिलपडविह
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लाल रंगोंवाले सात परकोटों से शोभित है।
घत्ता - जो नगर दिन में सूर्यकान्त मणि की किरणों से अग्निभाव को प्राप्त होता है (जल उठता है) वही रात में चन्द्रकान्त मणियों की धाराओं से आहत होकर शान्त हो जाता ॥ १९ ॥
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जहाँ पन्नों के बने परों में, पंखों से विभूषित, शुक अपनी चोंच से पहचाना जाता है, इन्द्रनील मणि के घरों में, नवकुन्द पुष्प के समान उज्ज्वल दाँतोंवाली हँसती हुई श्यामा, आकाश को आलोकित करते हुए
स्वच्छ मुक्तामाला के आभरण से (प्रिय के द्वारा) पहचानी जाती है। स्वर्णनिर्मित मन्दिर में विचरण करती हुई, सन्ध्याराग को धारण करनेवाली वह हाथ के स्पर्श से कंगन को जानती है, और शब्द करने से नूपुर को पहचानती हैं। प्रिय के द्वारा धवलशिला पर लाये गये हंस को वह कलरव से जान पाती है, धवल वस्त्र जहाँ गिर जाता है वह वहाँ ही पड़ा रहता है, आदमी वहाँ इतना भोला है कि रखे हुए वस्त्र को नहीं पहचान पाता। स्फटिक मणि के घर में स्थित वर-वधू को किवाड़ लगे रहने पर भी देख लिया जाता है। पद्मराग मणियों के मण्डप में बैठी हुई एक रमणी केशरपिण्ड नहीं देख पड़ने के कारण दुःखी हो उठती है। सौन्दर्य में स्वर्ग भी जिसकी पूर्ति नहीं कर सकता। जहाँ रास्ते चन्दन के कीचड़ से आर्द्र हैं,
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