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THE FREE INDOLOGICAL
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- The TFIC Team.
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. वीर सेवा मन्दिर
.दिल्ली
2001
क्रम मण्या
काल न.
न. - सोठया
x ग्वाद
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला पुष्प नं०६४
'श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
मथम माग (प्रथम बोल से पांचवें बोल तक)
संग्रहकर्ता भैरोंदान सेठिया
मंस्थापक सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था, बीकानेर
प्रकाशक
सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था
बीकानेर
प्रथ
विक्रम संवत् १६६७ ] वीराब्द २४६७
न्योछावर १) रू०
प्रति १००
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प्राप्ति स्थान:१-अगरचन्द भैरोंदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था
बीकानेर। २-नवयुग ग्रन्थ कुटीर
पुस्तक-विक्रेता,
बीकानेर।
अगस्त १९४०
मुद्रक:-- श्री हरिकृष्ण 'प्रेमी' भारती प्रिंटिंग प्रेस, हास्पिटल रोड, लाहौर ।
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विषय-सूची
पृष्ठ १ से
३ तक
" ४, ६,
(१) संग्रह-कर्ता का चित्र (२) संग्रह-कर्ता का संवित
जीवन परिचय (३) श्री सेठिया जैन पारमार्थिक
संस्थाओं का परिचय (४) दो शब्द (५) आभार प्रदर्शन (६) भूमिका (७) अकागदि सूची (८) पहिला बोल (6) दूसग बोल (१०) तीसग बोल (११) चौथा बोल (१२) पांचवां बोल (१३) सम्मतियां
, ४, ४३ , " ४४ , ६३, " ६४ , २५१ , "२५२,, ४४६,
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श्री भैरोंदान सेठिया, बीकानेर [ ७२ वर्ष की आयु में लिया गया चित्र ]
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श्रीमान् दानवीर सेठ भैरोंदानजी सेठिया का संक्षिप्त जीवन परिचय
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इस समय श्रीमान् सेठिया जी को अवस्था -४ वर्ष की है। आपका जन्म विक्रम संवत् १६२३ आश्विन शुक्ला अष्टमी को हुआ । बीकानेर राज्यान्तर्गत कस्तूरिया नामक एक छोटे से ग्राम में जन्म लेकर आपने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आश्चर्य जनक उन्नति की । आपके पिता श्रीमान् सेठ धर्मचन्दजी के चार पुत्र थे । प्रतापमलजी सेठिया, अगरचन्दजी सेठिया, भैरोंदानजी सेठिया और हजारीमलजी सेठिया । उपरोक्त चारों भाइयों में से इस समय श्रीमान भैरोंदान जी सेठिया ही मौजूद हैं।
श्री सेठिया जी ने तत्सामयिक स्थिति और साधनों के अनुसार ही शिक्षा प्राप्त की। आप की शिक्षा का क्रम बीकानेर में प्रारम्भ हुआ था और वह कलकत्ता तथा बम्बई में भी, जब आप वहाँ गये, तो बराबर जारी रहा । आप को हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती और मारवाड़ी आदि भाषाओं अच्छा ज्ञान है। तथा बहीखाता, जमाखर्च और व्यापार शास्त्र में तो आप बड़े ही निपुण हैं। जीवन में विविध अवस्थाओं और पदों पर रहने के कारण आप को सभा विज्ञान, कानून, चिकित्सा शास्त्र, और विशेषत: होमियोपैथी का विशेष परिचय है । प्रारम्भ से हो आप की प्रवृत्ति में धार्मिकता को महत्व पूर्ण स्थान रहा है । आपने श्रावक के १२ व्रत धारण किये हुए हैं। तथा समय समय पर त्याग
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[ २ ] {प्रत्याख्यान आदि लेकर आप अपनी धार्मिक भावना को बनाये रखते हैं। व्यापार और धनोपार्जन में सनत प्रयत्न शील रहते हुए भी आप मदेव धर्मप्राण रहे हैं । इमी निए आप अनेक कठिन परीक्षाओं में धैर्य और साहस के साथ उत्तीर्ण हुए हैं।
__आपको विवाह के बाद ही १८ वर्ष की अवस्था में स्वावलम्बी जीवन का सहारा लेना पड़ा। बम्बई की एक प्रसिद्ध फर्म में, जिस के हिम्सदारों में आप के ज्येष्ठ भ्राता, श्री अगरचन्दजी संठिया भी थे,
आपने काम प्रारम्भ किया । इम फर्म से पृथक होते ही आप अपने स्वतन्त्र कारोबार मे प्रविष्ट हुए और आपने कलकत्ते में "दी सठिया कतार एण्ड कमीकल वक्स लिमिटेड' की स्थापना को एवं उसको बड़ी योग्यता से चलाया।
इम कारग्बाने की सफलता-म्वरूप आपने अपने कार्यालय की शाम्बार भारत के ग्रामद्ध-प्रसिद्ध नगगे जैसे कानपुर, दिल्ली,अमृतसर,अहमदाबाद बम्बई,मद्राम,कराची आदि स्थानों में खाली । आपने अपने कार्यालय की एक शाग्या जापान के प्रसिद्ध आमाका नगर में भी खोली। पीछ कतिपय सी घटनायं घटी जिनके कारग मसार के प्रति विराग हो जाने से आपने अपने व्यापार को बहुत मंनिन कर दिया और व्यापार-व्यवसाय के सघर्प से दर रहने लगे। परन्तु स्वभावतः आप एक परम कर्मनिष्ठ व्यक्ति है। इस कारगा आपने अपने जीवन के इन वर्षों को उन सठिया जैन पारमाथिक संस्थाओ' की उन्नति में लगाया, जिनकी स्थापना आपने मंचन १६७० में वाकानर में की । और जिसे आपके ज्येष्ठ भ्राता श्री अगरचन्द जी ने मिल कर मवन १६७८ में वर्तमान वृहत् रूप प्रदान किया। ___अपने कर्म-निष्ठ स्वभाव के कारण ही इसके पश्चात आप समाज. जानि और राज्य सेवा की ओर प्रवृत्त हुए । फलतः आप म्युनिसिपल कमिश्नर, म्युनिमिपैलिटी के वायम-प्रसीडेंट, आनरेरी मजिस्ट्रेट आदि कई मरकारी और अर्द्ध-मरकारपदों पर काम करते रहे। अभी प्राय
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बीकानेर लेजिस्लेटिव असेम्बली के निर्वाचित सदस्य हैं। दूमरी और
आप अखिल भारतवपीय श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कान्फ्रेन्स के बम्बई अधिवेशन के सन् १९२६ में सभापनि रह चुके हैं ।
इधर वृद्धावस्था में आपने जीवन में एक और बड़े कार्य का भार ही अपने ऊपर नहीं लिया, परन्तु उसे बड़ी सफलता के माथ चत्ताया। आपका यह कार्य “दी वीकानेर वूलन प्रेस' है।
इस प्रेस की स्थापना और संचालन की कथा बड़ी रोचक और विशद है । स्थल-संकोच से हम यहाँ केवल इतना ही बनाना चाहते हैं कि उक्त प्रेस ने बीकानेर राज्य में ऊन के व्यवसाय और व्यापार को एक नवीन इतिहास प्रदान किया है । बहुत थोड़े वर्गों में उन की पैदावार और उसका निर्यात आशातीत रूप से बढ़ गया है और एक उज्ज्वल भविष्य के माथ अग्रसर हो रहा है । ऊन प्रेस को उन्नति के पथ पर लाकर एक बार फिर श्री सेठिया जो धार्मिक साहित्य चर्चा में लगे हैं । जिसके फलस्वरूप प्रस्तुत ग्रन्थ प्रकाश में आ रहा है।
श्री सेठिया जी का मृदुल, मंजुल स्वभाव, उनकी शान्त गम्भीर मुद्रा, उनका उदार व्यवहार आकर्पण को ऐसी वस्तुएँ हैं जो सहज ही सामने वाले को प्रभावित करती हैं। अपने विस्तृत और सुग्वमय पारिवारिक वातावरण में आप अपनी वृद्धावस्था का समय आत्मोन्नति के कार्य जैसे धार्मिक साहित्य-निर्माण और मनन आदि में लगा रहे है । इस कार्य से आपको प्रात्मशान्ति का जो अनुभव होता है वह एक अपूर्व तेज के रूप में प्रतिबिम्बित हाता है और आपके साहचर्या में आने वाले व्यक्ति के ऊपर अपना प्रभाव डालता है।
बीकानेर रोशन लाल चपलोत वी० ए० आषाढ़ कृष्णा १० संवत् १६६७ न्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ, सिद्धान्ततीर्थ : ता० ३० जून १९४० ई० ) साहित्य विनोद, विशारद आदि ,
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श्री अगरचन्द भैरोंदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्थाओं का परिचय
★★★ श्रीमान सठिया जी को सदा से ज्ञान की प्यास है । ज्ञान की यह प्यास आपके जीवन में सदा जागृत रही है । इसी के फल स्वरूप
आपने १६७० में बीकानेर नगर में एक शिक्षण मन्था की स्थापना की। इस संस्था को स्थापित कर आपने अपने विचारों को मूर्त रूप दिया। इस आरम्भिक संस्था का रूप यद्यपि व्यापक नहीं था परन्तु वह बड़ी उपयोगी और उस समय की आवश्यकता की पूर्ति करने वाली सिद्ध हुई।
श्री सेठिया जी ने ज्ञान का जो दीपक जगा कर रखा था उसने अपना प्रकाश चारों ओर फैलाना आरम्भ किया । आलोक को इन किरणों को आपके ज्येष्ठ भ्राता श्रीमान अगरचन्द जी सेठिया ने देखा । उन्हें अपने भाई का यह प्रयास अत्यन्त सुन्दर प्रतीत हुआ और उन्होंने इस कार्य में योग देने का अपने मन में निश्चय किया। फलतः संवत् १९७८ में आपने अपने विचारों से सेठियाजी को अवगत कराया और तभी से उक्त संस्थाएँ दोनों भाइयों के सम्मिलित योग से वृहत रूप में चल रही हैं। इस समय संस्थाओं के निम्न विभाग कार्य कर रहे हैं ।
(१) श्री सेठिया बाल पाठशाला । (२) श्री सठिया विद्यालय । (३) श्री सेठिया नाइट कालेज । (४) श्री सेठिया कन्या पाठशाला । (५) श्री सेठिया प्रन्थालय । ६) श्री सेठिया मुद्रणालय ।
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श्री सेठिया बाल पाठशाला में हिन्दी, अंग्रेज़ी, वाणिज्य, धर्म, गणित, इतिहास, भूगोल आदि विषयों को प्रारम्भिक शिक्षा दी जाती है। विद्यालय के अन्तर्गत हिन्दी, संस्कृत और प्राकृत की उच्च कक्षाओं की पढ़ाई होती है । हिन्दी में पञ्जाब विश्व विद्यालय को हिन्दी रत्न, हिन्दी भूपण, हिन्दी प्रभाकर आदि परीक्षाओं तथा हिन्दी विश्व विद्यालय प्रयाग की विशारद एवं साहित्य रत्न परीक्षाओं की तैयारी कराई जाती है । संस्कृत में काशी और कलकत्ता की प्रथमा और मध्यमा एवं तीर्थ आदि परीक्षाओं का अध्यापन होता है । प्राकृत में जैन शास्त्र
और आगम पढ़ाये जाते हैं तथा धार्मिक परीक्षा बोर्ड रतलाम को तैयारी कराई जाती है । श्री सेठिया नाइट कालेज के अन्तर्गत मैट्रिक, एफ० ए०, (राजपूताना और पञ्जाब) तथा बी० ए० (पञ्जाब और आगरा विश्व विद्यालय ) की कराते हैं । कालेज में अंग्रेजी, हिन्दी, गणित, इतिहास, तर्क शास्त्र तथा संस्कृत आदि विषयों का शिक्षण होता है । कन्या पाठशाला में हिन्दी, धर्म, गणित, सिलाई, बुनाई और कशीदा की शिक्षा दी जाती है।
उपरोक्त विभागों के अतिरिक्त ग्रन्थालय तथा मुद्रणालय विभाग भी हैं । इन विभागों में पुस्तक प्रकाशन, ग्रन्थ संग्रह, संशोधन तथा साहित्य निर्माण आदि कार्य होते हैं । ग्रन्थालय में छपी पुस्तकों के अलावा हस्त लिखित ग्रन्थों का भी अमूल्य संग्रह है। अब तक ६३ छोटी बड़ी पुस्तकों का प्रकाशन इस विभाग द्वारा हो चुका है। प्रकाशन अधिकांश धार्मिक है । कुछ पुस्तकें नीति, व्याकरण, साहित्य और कानून पर भी निकली हैं।
उपरोक्त समस्त संस्थाओं के सुचारू एवं निर्विघ्न संचालन के लिये श्री सेठिया जी ने लगभग पांच लाख रुपये की स्थावर संपत्ति सस्थाओं के नाम करा दी है। इस जायदाद का अधिकांश कलकत्ता में मकानों और दूकानों के रूप में है । उसी के किराये से संस्थाओं
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[ ६ ] का संचालन होता है। संस्थाओं के पास यह स्थाई संपत्ति होने से उनका कार्य निर्विघ्न रूप से चलता जा रहा है।
___ मरुभूमि में इस ज्ञान गंगा को प्रवाहित करके श्री सेठिया जी ने जीवन में सब से बड़ा और पुनीत कार्य किया है । कितने ही जिज्ञासुओं ने समय समय पर संसार के ताप से संतप्त होकर इस पुण्य क्षेत्र को शरण ली है और अपनी चिर अतृप्त ज्ञान पिपासा को शान्त किया है और करते हैं । श्री सेठिया जी ने अनेक महान कार्यों का श्रीगणेश किया है ।
और उन्हें उन्नति के सोपान पर चढ़ाया है। उन सब में आपका यह कार्य सब से अधिक निस्वार्थ विशुद्ध भावना सम्पन्न और लोक सेवा का परिचायक है । आपके यश का यह अमर स्मारक अपनी अनोखी गति से बड़ा अपने विकास के पथ पर अग्रसर हो रहा है।
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दो शब्द
*** "श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह" नामक ग्रन्थ का प्रथम भाग पाठकों के सामने रखते हुए मुझे विशेप हर्ष हो रहा है । इसे तय्यार करने में मेरा मुख्य उद्देश्य था आत्म-मंशोधन । वृद्धावस्था में यह कार्य मुझे चित्त शुद्धि, आत्म-सन्नोप और धर्मध्यान की ओर प्रवृत्त करने के लिए विशेष सहायक हो रहा है । इसी के श्रवण, मनन और परिशीलन में लगे रहना जीवन की विशेष अभिलाषा है । इसकी यह आंशिक पूर्ति मुझे असीम आनन्द दे रही है । ज्ञान प्रसार और पारमार्थिक उपयोग इसके आनुपंगिक फल हैं। यदि पाठकों को इससे कुछ भी लाभ हुआ तो मैं अपने प्रयास को विशेष सफल सम. गा । प्रस्तुत पुस्तक मेरे उद्दिष्ट प्रयास का केवल प्रारम्भिक अंश है । इस प्रथम भाग में भी एक साल का समय लग गया है। दूसरा भाग भी शीघ्र ही प्रकाशित करने की अभिलापा है। पाठकों की शुभ कामना का बहुत बड़ा बल अपने साथ लेकर ही मैं इस कार्यभार को वहन कर रहा हूँ । बीकानेर वूलन प्रेस के सामायिक भवन में इस सद्विचार का श्रीगणेश हुआ था और वहीं इसे यह रूप प्राप्त हुआ है । उद्देश्य, विपय और वातावरण की पवित्र छाप पाठकों पर पड़े विना न रहेगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
___ संवत् १६७२ तथ १६७E में 'छत्तीस बोल संग्रह' नामक ग्रन्थ के प्रथम भाग और द्वितीय भाग क्रमशः प्रकाशित हुए थे । पाठकों ने उन संग्रहों का यथोचित आदर किया । अब भी उनके प्रति लोगों की रुचि बनी हुई है । वे संग्रह ग्रन्थ भी वर्षों के परिश्रम का फल थे, और अनेक
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[ 7 ] सन्त-मुनिराजों से सुन कर एवं धार्मिक ग्रन्थों के अनुशीलन के पश्चात् संग्रहीत हुए थे और विशेषतः उनका अाधार प्रसिद्ध स्थानाङ्ग सूत्र और ममवायाङ्ग सूत्र थे। उक्त सूत्र एवं अन्य ग्रन्थों की शैली पर रचित होने पर भी हम उस संग्रह को सर्वाङ्ग पूर्ण नहीं कह सकते । वे हमारे प्रथम प्रयास थे और उनमें अनुभव की इतनी गहराई न थी । परन्तु उस समय के समाज को देखते हुए वे समय से पूर्व ही कहे जायँ तो कोई अत्युक्ति न होगी। आज समाज के ज्ञान का स्तर उस समय की अपेक्षा ऊँचा हो गया है। इसी लिए प्रस्तुत ग्रन्थ शैली आदि की दृष्टि से 'छत्तीस बोल मंग्रह' का अनुगामी होते हुए भी कुछ विशेषताओं से सम्बद्ध है । यह अन्तर कुछ तो बढ़े हुए अनुभव के आधार पर है, कुछ वर्तमान समाज की बढ़ती हुई ज्ञान पिपासा को तदनुरूप तृप्त करने के लिए और कुछ साधनों की सुविधा पर है जो इस बार मौभाग्यवश पहले से अधिक प्राप्त हो सकी है।
____ इस बार जितने भी बोल मंग्रहोत हुए हैं । प्रायः सभी आगम एवं सिद्धान्त ग्रन्थों के आधार पर लिखे गए हैं।
बोलों के आधारभूत ग्रन्थों का नामोल्लेख भी यथास्थान कर दिया गया है । ताकि, अन्वेपणप्रिय पाठकों को संदर्भ के लिए इधर उधर खोजने में विशेष परिश्रम न करना पड़े। बोलों के साथ ही आवश्यक व्याख्या और विवेचन भी जोड़ दिया गया है। इस विस्तार को हमने इस लिए उपयोगी और महत्वपूर्ण समझा है कि पुस्तक सार्वजनिक
और विशेष उपयोगी हो मके । बोलों के संग्रह, व्याख्यान और विवेचन में मध्यस्थ दृष्टि से काम लिया गया है। माम्प्रदायिकता को छोड़ कर शास्त्रीय प्रमाणों पर ही निर्भर रहने की भरसक कोशिश की गई है। इसी लिए ऐसे बोलों और विवेचनों को स्थान नहीं दिया है जो साम्प्रदायिक और एक देशीय हैं । आशा है प्रस्तुत ग्रन्थ का दृष्टिकोण और विवेचन शैली उदार पाठकों को समयोपयोगी और उचित प्रतीत होंगे।
प्रत्येक विषय पर दिए गप प्राचीन शास्त्रों के प्रमाण जैनदर्शन का अनुसन्धान करने वाले तथा दूसरे उच्च कक्षा के विद्यार्थियों के लिए
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[ ६ ] भी विशेष उपयोगी सिद्ध होंगे । बोलों का यह वृहत् संग्रह उनके लिए 'जैन विश्वकोप' का काम देगा। साधारण स्कूल तथा पाठशालाओं के अध्यापक भी विद्यार्थियों के लिए उपयोगी तथा प्रामाणिक विषय चुनने में पर्याप्त लाभ उठा सकेंगे। उनके लिए यह प्रन्य एक मार्ग दर्शक और रत्नों के भण्डार का काम देगा। साधारण जिज्ञासुओं के लिए तो इसकी उपयोगिता स्पष्ट ही है ।
ग्रन्थ में आए हुए विपयों की सूची बालों के नम्बर देकर अकाराद्यनुक्रमणिका के अनुसार प्रारम्भ में दे दी गई है। इस से पाठकों को इच्छिन विपय हुँढने में सुविधा होगी।
__ चूँ कि इम पुस्तक की शैली में मंख्यानुक्रम का अनुसरण किया गया है । इस लिए पाठकों को एक ही स्थान पर सरल एवं सूक्ष्म भाव तथा विचार के बोलों का संकलन मिलेगा, परन्तु इस दशा में यह होना स्वाभाविक ही था । इस कठिनाई को हल करने के लिए कठिन बोलों पर विशेष रुप से मरल एवं विस्तृत व्याख्या दी गई हैं। कठिन और दुर्वाध विषयों को सरल एवं सुबोध करने के प्रयत्न में सम्भव है भावों में कहीं पुनरुक्ति प्रतीत हो, परन्तु यह तो जान बूझ कर पाठकों की सुविधा के लिए ही किया गया है।
___ ये शब्द इम लिए लिखे जा रहे हैं कि प्रेमी पाठकों को मेरे प्रयास के मूल में रही हुई भावना का पता लग जाये और वे जान लें कि जहां इसमें आत्मोन्नति की प्रेरणा है वहीं लोकोपकारी प्रवृत्ति भी है । ग्रन्थ के सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया है वह पाठकों को अपने परिश्रम का आभास करा कर प्रभावित करने के लिए नहीं अपितु इस धार्मिक अनुष्ठान का समुचित आदर करने के लिए है । यदि वे मेरे इस कार्य से किचिन्मात्र भी आध्यात्मिक स्फूर्ति का अनुभव करेंगे तो लोक कल्याण की भावना को इससे भी सुन्दर और आध्यात्मिक साहित्य मिल सकेगा।
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[१०] "श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह" में 'बोल' शब्द साधारण पाठकों को एक देशीय सा प्रतीत होगा, किन्तु शास्त्रों में जहाँ स्थान शब्द है, खड़ी बोली और संस्कृत में जहां अङ्क या संख्या शब्द दिए जाते हैं. वहीं जैन परम्परा में "बोल' शब्द प्रचलित है । प्राकृत और संस्कृत न जानने वाले पाठक भी इससे हमारा उद्दिष्ट अभिप्राय सरलता से समझ सकेंगे। इसी लिए और शब्दों की अपेक्षा इसको विशेषता दी गई है। और इस ग्रन्थ में "बोल" शब्द का ही प्रयोग किया गया है।
इस ग्रन्थ को शुद्ध और प्रामाणिक बनाने के लिए भरसक कोशिश की गई है । फिर भी मानव सुलभ त्रुटियों का रह जाना सम्भव है । यदि सहृदय पाठक उन्हें मूचित करने की कृपा करेंगे तो आगामी संस्करण में सुधार ली जाएंगी। इसके लिए मैं उनका विशेष अनुगृहीत रहँगा। वूलन प्रेस बीकानेर
निवेदकःआपाढ़ शुक्ला ३, संवन १९६७ ना०८ जुलाई १६४० ई०
भैरोंदान सठिया
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आभार प्रदर्शन
★★★ सर्व प्रथम मैं भारत भूपण, पण्डित रन, शनावधानी मुनि श्री रत्नचन्द्रजी महाराज, जैनधर्म दिवाकर, साहित्य रत्न उपाध्याय श्री आत्मारामजी महाराज तथा परम प्रतापी पूज्य श्री हुक्मीचन्द्रजी महाराज की सम्प्रदाय के आचार्य पूज्य श्री जवाहिरलालजी महाराज के मुशिष्य पं० मुनि श्री पन्नालालजी महाराज ( ऊंटाला वाले) इन धर्म गुरुओं का आभारी हूँ, जिन्होंने कृपा पूर्वक अपना अमूल्य ममय देकर इस ग्रन्थ की हस्त लिग्विन प्रति का अवलोकन करके उचिन
और उपयोगी परामर्श प्रदान किए हैं। इन पूज्य मुनिवरों के इम हम्त लिखित प्रति को पढ़ जाने के बाद मुझे इस ग्रन्थ के विषय में विशेष वल प्रतीत होने लगा है और मैं इतना साहम मंचित कर सका हूँ कि अपने इस प्रयास को निम्मंकोच भाव से पाठकों के सामने रख सकूँ । अत एव यदि पाठकों की ओर से भी उक्त मुनिराजों के प्रति आभार प्रदर्शन करूँ तो सर्वथा उचित ही होगा।
इस ग्रन्थ के प्रणयन में मैं तो उपलक्ष्य मात्र हूँ। इसके लेखन, मंपादन, संकलन, अनुवाद, अवलोकन, विवेचन और व्याख्या आदि का अधिकांश प्रत्यक्ष कार्य तो उदयपुर निवासी श्रावक श्रीयुत् पं० रोशनलालजी चपलोत, बी. ए., न्याय तीर्थ, काव्य नोर्थ, सिद्धान्त तीर्थ, विशारद का किया हुआ है । इनके इस कार्य में मेरा भाग मार्ग प्रदर्शन भर का रहा है। इस अमूल्य और साङ्गोपाङ्ग सहायता के लिए यदि मैं उन्हें धन्यवाद देने की प्रथा का अनुमरण करूँ तो वह उनके सहयोग का उचित पुरस्कार न होगा । इस लिए
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[ १२ ] यहाँ मैं केवल उनके नाम का उल्लेख करके ही अग्रसर होता हूँ । इसी प्रकार इस प्रन्थ के प्रथम और द्वितीय बोल के सम्पादन में कानोड़ ( मेवाड़) निवासी सुश्रावक पं० श्रीयुत् पूर्णचन्द्रजी दक न्याय तीर्थ का सहयोग मुझे मुलभ रहा है। उनके विस्तृत शास्त्रीय ज्ञान और उनकी अनुशीलन-प्रिय विद्वत्ता का लाभ उठाने से प्रन्थ की उपयोगिता बढ़ गई है । अतः श्री पूर्णचन्द्रजी को उन के अमूल्य सहयोग के लिए धन्यवाद देना मेरा कर्तव्य है ।।
पंजाब प्रान्त के कोट-इमा-खां निवासी श्रावक पं० श्यामलाल जी जैन, बी. ए., न्याय तीर्थ, विशारद का भी समुचित सहयोग रहा है । श्रीयुत भीग्बमचन्दजी सुराणा ने भी इस कार्य में सहयोग दिया है । अतः दोनों महाशयों को मेरा धन्यवाद है ।।
श्रीमान पं० इन्द्रचन्द्र जी शास्त्री, शास्त्राचार्य, वेदान्त वारिधि, न्याय तीर्थ, वी. ए., ने इम ग्रंथ को पाण्डुलिपि का परिश्रम पूर्वक मंशोधन किया है । उनका अल्पकालीन सहयोग ग्रन्थ को उपयोगी, विशद और सामयिक बनाने में विशेष सहायक है।
____ उपरोक्त सजन सेठिया विद्यालय के म्नातक हैं। उन से इस नरह का सहयोग पाकर मुझे अपार हर्प हो रहा है । अपने लगाये हुए पौधे के फूलों की सुगन्ध से किस माली को हर्प नहीं होना ? ___ पुस्तक तय्यार होने के कुछ दिन पहले "श्री जैन वीराश्रम व्यावर" के स्नानक श्रीयुत पं० घेवर चन्द्र जी बाँठिया 'वीर पुत्र' जैन न्यायतीर्थ, व्याकरण नीर्थ, जैन सिद्धान्त शास्त्री का महयोग प्राप्त हुआ। उनके प्रयत्न से इम प्रन्थ का शीघ्र प्रकाशन मुलभ होगया । अतः उन्हें मेरा धन्यवाद है।
श्रीमान पं० सच्चिदानन्द जी शर्मा साहित्य शास्त्री, ज्योतिर्विद का भी मैं अनुगृहीत हूँ। जिन्होंने इस प्रन्थ में आए हुए ज्योतिष सम्बन्धी बोलों का अवलोकन और उपयोगी परामर्श प्रदान किया है ।
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[ १३ ] चिरञ्जीव जेठमल सेठिया ने भी इस प्रन्थ की हस्त लिखित प्रति का आद्योपान्त अवलोकन करके जहां तहां आवश्यक मंशोधन किये हैं।
इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ के प्रणयन में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में मुझे जिन जिन विद्वानों की सम्मतियों और ग्रन्थ कर्ताओं की पुस्तकों से लाभ हुआ हैं । उनके प्रति में विनम्र भाव से कृतज्ञ हूँ।
निवेदकःवृलन प्रेम विल्डिंगम)
भैरोंदान सेठिया बीकानेर
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भूमिका इस अनादि संसार चक्र में प्रत्येक आत्मा अपने अपने कर्मों के अनुसार सुग्व और दुःख का अनुभव कर रहा है। किन्तु जो आत्मिक आनन्द है, उससे वञ्चिन ही है । कारण कि आत्मिक आनन्द क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव पर ही निर्भर है । सो जब तक आत्मा उक्त भावों की ओर लक्ष्य नहीं करता अर्थात् सम्यक्तया उक्त भावों में प्रविष्ट नहीं होता तब तक आत्मा की आत्मिक आनन्द की प्राप्ति भी नहीं हो सकती । इस लिये आगमों में विधान किया गया है कि जब तक आत्मा को चार अंगों को प्राप्ति नहीं होती तब तक आत्मा मोक्ष को भी प्राप्ति नहीं कर सकता। जैसे किः
चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जन्तुणो । माणुसत्तं मुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियम ॥ १ ॥
(उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ३ गाथा १) इस गाथा का यह भाव है कि प्रत्येक आत्मा को चार अंगों की प्राप्ति होना दुलभ है। वे चार अङ्ग ये हैं:-मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा, और मंयम में पुरुषार्थ । जब ये सम्यक नया प्राप्त हो जाय तव निस्संदेह उस जीव की मुक्ति हो जाती है । उक्त गाथा में मनुष्यत्व के अनन्तर ही अति शब्द दिया गया है । इम में प्रायः आत्म विकास का कारण श्रुत ज्ञान हो मुख्य कारण प्रति पादन किया है।
श्रुत ज्ञान के विषय, शास्त्रों में पांच ज्ञानों में से परोपकारी सिर्फ श्रुत ज्ञान को ही प्रतिपादन किया है। इस के नन्दी मूत्र में चतुर्दश भेद कथन किए गए
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[ १५ ] हैं । वे भेद जिज्ञासुओं के अवश्य ही द्रष्टव्य हैं । उपयोग पूर्वक कथन करता हुआ श्रुत केवली भगवान् की शक्ति के तुल्य हो जाता है । तथा श्रुन ज्ञान के अध्ययन करने से आत्मा स्व विकाम और परोपकार करने की शक्ति उत्पन्न कर लेता है इतना ही नहीं किन्तु सम्यगश्रुत के अध्ययन से सम्यग दर्शन को भी उत्पन्न कर सकता है । जैसे कि उत्तराध्ययन सूत्र के २८ वें अध्ययन की २१ वी वा २३ वीं गाथा में वर्णन किया है ।
जो सुत्तमहिज्जन्ती, सुपण ओगाहई उ संमत्तं । अंगेण वाहिरेण वा, सो सुत्तम्इ ति नायब्बो ॥ २१ ॥ सो होइ अभिगम गई. सुय नांण जेण अत्थो दि] । इकारस अंगाई, पइएणगं दिट्टिवायो य ॥ २३ ॥
इन गाथाओं का यह भाव है कि अंग सूत्र वा अंगबाह्य सूत्र तथा दृष्टि वाद अथवा प्रकीर्णक ग्रन्थों के अध्ययन से मूत्र रुचि और अभिगम रुचि उत्पन्न हो जाती है। जो सम्यग दर्शन के ही उपभेद है।
प्रस्तुत ग्रन्थ विषय ___ सम्यग दर्शन की प्राप्ति के लिये ही 'श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह" अर्थात् प्रस्तुत ग्रन्थ निर्माण किया गया है।
कारण कि शास्त्रों में चार अनुयोगों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया है जो कि मुमुक्षु आत्माओं के लिये अवश्यमेव पठनीय है । जैसे कि:-चरण करणानुयोग, धर्म कथानुयोग, गणिनानुयोग, द्रव्या नुयोग । इस ग्रन्थ में चार अनुयोगों का यथा स्थान बड़ी ही सुन्दर रीनि से संग्रह किया है तथा प्रत्येक स्थान अपनी अनुपम उपमा रखता है । जैसे एक स्थान में ऐसे बोलों का संग्रह किया गया है जो सामान्य रूप से एक ही संख्या वाले हैं । जैसे सामान्य रूप से आत्मा एक है क्योंकि उपयोग लक्षण आत्मा का निज गुण है । वह सामान्य रूप से प्रत्येक जीव में रहता है। जिस द्रव्य में उपयोग लक्षण नहीं है उसी
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[ १६ ] द्रव्य को अनात्मा वा अजीव द्रव्य कहते हैं। कारण कि प्रत्येक पदार्थ की सिद्धि उसके द्रव्य, गुण, और पर्याय से की जाती है। प्रथम स्थान में बड़ी सुन्दर शैली से आगमों से वा आगमों के अविरुद्ध ग्रन्थों से एक एक बोल का संग्रह किया गया है।
द्वितीय अंक में दो दो बोलों का संग्रह है। उसमें सामान्य और विशेष वा पक्ष, प्रतिपक्ष बोलों का संग्रह है। जैसे जीव और अजीव, पुण्य और पाप, बन्ध और मोक्ष इत्यादि । इसी प्रकार हेय, ज्ञेय और उपादेय से सम्बन्ध रखने वाले अनेक बोल संग्रह किये गये हैं । स्थानाङ्ग सूत्र के द्वितीय स्थान में उपादेय का वर्णन करते हुये कथन किया है कि दो स्थानों से युक्त आत्मा अनादि संसार चक्र से पार हो जाता है जैसे किः
दाहिं ठाणेहिं अणगारे संपन्ने अणादियं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंत संसार कतारं वीनिवतेमा, तं जहा विज्जाए चेव चरणेण वा ।
(द्वितीय स्थान उद्देश प्रथम सूत्र ६३) इस सूत्र का यह भाव है कि दो स्थानों से युक्त अनगार अनादि संसार चक्र से पार हो जाता है। जैसे कि विद्या से और चारित्र से। यह सूत्र प्रत्येक मुमुक्षु के मनन करने योग्य है क्योंकि इस सूत्र से जातिवाद और कुल-वाद का खण्डन स्वयमेव हो जाता है अर्थात जाति और कुल से कोई भी संसार चक्र से पार नहीं हो सकता । जब होगा विद्या और चारित्र से होगा। इस प्रकार प्रस्तुत प्रन्थ में शिक्षाप्रद वा ज्ञातव्य आगमों से उद्धृत कर संग्रह किया गया है जो अवश्य पठनीय है।
तीन तीन के बोल संग्रहों में बड़े ही विचित्र और शिक्षाप्रद बोलों का संग्रह है। इस लिए ज्ञान संपादन के लिए प्रस्तुत ग्रन्थ का अवश्य ही स्वाध्याय करना चाहिए । स्थानाङ्ग सूत्र के तृतीय स्थान के चतुर्थ उद्देशा के २१७ वें सूत्र में लिखा है कि:
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[१७] तिविहे भगवया धम्मे पएणते तंजहाः-सुअधिज्झिते सुज्झा तिते सुतवरिसते । जया सुअधिज्झितं भवति तदा सुज्झातियं भवति जया सुज्झातियं भवति तदा सुतवस्सियं भवति । से सुअधिज्झिते सुज्झातिते सुतवसिते सुतक्खातेणं भगवया धम्मे पएणत्ते ।
(सूत्र २१७) इस सूत्र का यह भाव है कि श्री भगवान ने धर्म तीन प्रकार से वर्णन किया है । जैसे कि भली प्रकार से पठन करना, फिर उसका ध्यान करना, फिर तप करना अर्थात् आचरण करना । क्योंकि जब भली प्रकार से गुरु आदि के समीप पठन किया होता है तव हो सुध्यान हो सकता है । मुध्यान होने पर ही फिर भली प्रकार से आचरण किया जा सकता है । अतः पहले पठन करना फिर मनन करना और फिर आचरण करना। यही तीन प्रकार से श्री भगवान ने धर्म वर्णन किया है। इससे भली भांति सिद्ध हो जाता है कि श्री भगवान का प्रथम धर्म अध्ययन करना ही है । सो सम्यग् सूत्रों का अध्ययन किया हुआ आत्म विकास का मुख्य हेतु होता है।
यह प्रस्तुत ग्रन्थ विद्यार्थियों के लिये उपयोगी होने पर भी विद्वानों के लिये भी परमोपयोगी है और इसमें बहुत से बोल उपादेय रूप में भी संग्रहीत किये गए हैं । जैसे कि श्रावक की तीन अनुप्रेक्षाएं । स्थानाङ्ग सूत्र तृतीय स्थान के चतुर्थ उद्देश के २१० वें सूत्र में वर्णित की गई हैं। जैसे कि:
तिहिं ठाणेहिं समणोवासते महानिजरे महापजवसाणे भवति । तंजहाः-(१) कयाणमहमप्पं वा बहुयं वा परिग्गहं परिचइरसामि (२) कया णं अहं मुंडे भवित्ता आगारातो अणगारितं पव्वइस्सामि (३) कया णं अहं अपच्छिम मारणंतियं संलेहणा भूसणा झूसिते भत्तपाण पडियातिक्खते पाओवगते कालं अणवखमाणे विहरिरसामि ।
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[१८] एव स मणसा स वयसा स कायसा पागड़माणे (जागरमाणे) समणोवासते महाणिजरे महापजवसाणे भवति (सूत्र २१०)
इम पाठ का भावार्थ यह है कि श्रावक तीन अनुपेक्षाओं द्वारा कर्मों की निर्जरा करके संसार चक्र से पार हो जाता है। जैसे किः
__ श्रावक मन, वचन और काया द्वारा निम्नलिखिन तीन अनुप्रेक्षाएं सदैव करता रहे अर्थात् तीन मनोरथों की सदेव काल शुद्ध अन्तःकरण से भावना भाता रहे । जैसे किः--
(१) कब मैं अल्प वा बहुत परिग्रह का परित्याग करूँगा अर्थात् दान दूंगा।
(२) कब मैं मुण्डित होकर घर से निकल अनगार वृति ग्रहण करूँगा।
(३) कब मैं अशनादि का त्याग कर पादोगमन अनशन द्वारा समाधि मृत्यु की प्राप्ति करूँगा ।
ये तीन मनोरथ श्रमणोपासक के लिये सदैव काल उपादेय हैं ।
प्रथम मनोरथ में अल्प वा वहुत परिग्रह का त्याग विषय कथन किया है। किन्तु मूल सूत्र में प्रारम्भ का उल्लेख नहीं है इससे दान ही मिद्ध होता है क्योंकि हेम कोश के द्वितीय देव काण्ड के पचास और इक्कावन श्लोक में दान शब्द के १३ नाम दिये गये हैं। जैसे किः
दानमुत्सर्जनं त्यागः, प्रदेशनविसर्जने। विहायितं वितरणं, स्पर्शनं प्रतिपादनम् ।।५०||
विश्राणनं निर्वपणमपवर्जनमंहतिः । दान धर्म श्री भगवान् ने सर्व धर्मों से मुख्य वर्णन किया है। अतः तृतीय बोल संग्रह में जिज्ञासुओं के लिये अत्यन्त उपयोगी संग्रह किया गया है।
प्रस्तुत प्रन्थ के चतुर्थ बोल संग्रह में विस्तार पूर्वक चतुर्भङ्गियों का संग्रह है जो अनेक दृष्टियों से बड़े ही महत्व का है। जैसे स्थानाङ्ग
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[१६] सूत्र के चतुर्थ स्थान के प्रथम उद्देश में लिखा है कि वस्त्र चार प्रकार के होते हैं। जैसे किः
चत्तारि वत्था पएणते तंजहा, (१) सुद्धे णाम एगे सुद्धे (२) सुद्धे णाम एगे असुद्धे (३) असुद्धे णाम एगे सुद्धे (४) असुद्धे णामं एगे असुद्धे (५) एवामेव चत्तारि पुरिस जाता पएणते तंजहा:-सुद्धे रणामं एगे सुद्धे चउ भङ्गो ४। एवं परिणतरूवे वत्था सपडिवक्खा । चत्तारि पुरिस जाता पण्णते तनहाः--सुद्धे णाम एगे सुद्धमणे चउ भङ्गो ४ । एवं संकप्पे जाव परक्कमे ।
(सूत्र २३६) इस पाठ का यह भाव है कि वस्त्र चार प्रकार के होते हैं । (१) शुद्ध नाम वाले एक शुद्ध वस्त्र हैं । (२) शुद्ध अशुद्ध (३) अशुद्ध शुद्ध (४) अशुद्ध अशुद्ध । इसी प्रकार पुरुषों के विषय में भी जनाना चाहिये। जिसका ताना बाना शुद्ध हो और क्षोममय वस्त्र हो, वह पहले भी शुद्ध है अर्थात् उसकी उत्पत्ति भी शुद्ध और वस्त्र भी शुद्ध है। इसी प्रकार अन्य भङ्गों के विषय में भी जानना चाहिये । इस चतुर्भङ्गी में वस्त्रों द्वारा पुरुपों के विषय में अत्यन्त सुन्दर शैली से वर्णन किया है। अहिंसक पुरुषों के लिए वस्त्र का प्रथम भङ्ग उपादेय है । दान्तिक में प्रथम भङ्ग वाला पुरुप जगत् में परोपकारी हो सकता है अर्थात् जो जाति कुलादि से सुसंस्कृत है और फिर ज्ञानादि से भी अलंकृत हो रहा है, वही पुरुप संसार में परोपकार करता हुआ मोक्षाधिकारी होजाता है।
__प्रस्तुत ग्रन्थ में बड़ी ही योग्यता के साथ महती पठनीय चतुर्भङ्गोयों का संग्रह किया गया है। वे चतुर्भङ्गिये अनेक दृष्टि कोण से महत्ता रखती हैं । जो मुमुक्षु जनों के लिए अत्यन्त उपादेय हैं और आत्म विकास के लिये एक कुञ्जी के समान हैं ।
प्रस्तुत ग्रन्थ के पाँचवें बोल संग्रह में पांच पांच बोलों का संग्रह किया गया है। यदि उनको अनुप्रेक्षा पूर्वक पढ़ा जाय तो जिज्ञासुओं को अत्यन्त लाभ हो सकता है क्योंकि उपयोग पूर्वक अध्ययन किया हुआ
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श्रुत्त आत्म विकास का मुख्य कारण होता है । जैसे कि स्थानाङ्ग सूत्र के पांचवें स्थान के तृतीय उद्देश में लिखा है । जैसे कि:
धम्म चरमाणस्स पंच णिस्सा ठाणा पएणते तंजहा:छक्काए, गणे, राया, गिहवती, सरीरं।
(सूत्र ४४७) पञ्च णिही पएणते तंजहाःपुत्तनिही मित्तनिही सिप्पनिही धणिही धन्नणिही ।
(सूत्र ४४८) सोए पञ्च विहे पण्णते तंजहा:पुढवि सोते, आउ सोते, तेउ सोते मंत सोते बंभ सोते ।
(सूत्र ४४६) इस सूत्र में यह वर्णन किया है कि जिस आत्मा ने धर्म ग्रहण किया है उसके पांच आलम्बन स्थान होते हैं। जैसे-छः काया, गण, राजा, गृहपति, और शरीर | जब ये पांचों ही ठीक होंगे तब ही निर्विव्रता पूर्वक धर्म हो सकेगा।
___पांच निधि (कोप) गृहस्थों की होती हैं। (१) पुत्र निधि (२) मित्र निधि (३) शिल्प निधि (४) धन निधि (५) धान्य निधि ।
पांच प्रकार का शौच होता है । जैसे:-पृथ्वी शौच, जल शौच, तेजः शौच, मन्त्र शौच और ब्रह्म शौच । जिस में प्रथम के चार शौच बाह्य हैं और ब्रह्मशौच अन्तरङ्ग है । इन सूत्रों की व्याख्या वृत्तिकार ने बड़े विस्तार से की है जो जिज्ञासुओं के लिये दृष्टव्य है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ के संग्रह में पांच पाँच बोलों का संग्रह बड़ी ऊहापोह द्वारा किया गया है। प्रत्येक बोल बड़े महत्व का है और अनेक दृष्टि कोण से विचारने योग्य है । अतः यह संग्रह अत्यन्त परिश्रम द्वारा किया गया है । इस से अत्यन्त ही लाभ होने की संभावना की जा सकती है। मेरे विचार में यह ग्रन्थ प्रत्येक व्यक्ति के लिये उपयोगी है। यदि पाठशालाओं में इसको स्थान मिल जाय तो विद्यार्थियों को अत्यन्त लाभ होगा।
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[२१]
श्रीमान् सेठ भैरोंदानजी को अत्यन्त धन्यवाद है कि वे इतनी वृद्धावस्था होने पर भी श्रुत ज्ञान के प्रचार में लगे हुए हैं ।
श्रुत ज्ञान का प्रचार ही आत्म विकास का मुख्य हेतु है । इसी से आत्मा अपना कल्याण कर सकता है। क्योंकि उत्तराध्ययन सूत्र के २६ वं अध्ययन के २४ वें सूत्र में लिखा है कि:
सुरस राहण्याए णं भन्ते जीवे किं जणयइ ? | सुस्स राहण्या अन्नाणं खवेइ ण य संकिलिस्सइ || २४ ||
इस पाठ का यह भाव है कि भगवान् श्री गौतम जी महाराज श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी से पूछते हैं कि हे भगवन् ! विधि पूर्वक भूत की अराधना करने से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री भगवान् फरमाते हैं, कि हे गौतम सम्य
या श्रुत की आराधना करने से अज्ञान और क्लेश का नाश हो जाता है। कारण कि क्लेश अज्ञान पूर्वक ही होता है । जब अज्ञानता का नाश हुआ तब क्लेश साथ ही नष्ट हो जाता है। अतः सिद्ध हुआ श्रुत आराधना के लिए स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए क्योंकि स्वाध्याय करने से ज्ञानावरणीय कर्म क्षय हो जाता है । फिर आत्मा ज्ञान स्वरुप में लीन होजाता है । जैसे कि आगम में कथन है कि:
सझाए भन्ते जीवे किं जणेइ
नाणावर णिज्जं कम्मं खवेइ || १८ ||
अतः स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। स्वाध्याय करने से ही फिर आत्मा को प्राय: चारित्र गुण की प्राप्ति हो जाती है चाहे वह देश चारित्र हो या सर्व चारित्र । सूयगडांग सूत्र प्रथम श्रुत स्कन्ध के द्वितीय अध्याय के तृतीय उद्देश की १३ वीं गाथा में लिखा है:
गर पिअ आवसे नरे, अणुपुत्रं पाणेहिं संजए । समता सव्वत्थ सुव्वते, देवाणं गच्छे स लोगयं ॥ १३ ॥
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[ २२ ]
भावार्थ:- जो पुरुष ग्रह वास में निवास करता हुआ भी क्रमशः श्रावक धर्म को प्राप्त करके प्राणियों की हिंसा से निवृत्त होता है तथा सर्वत्र समभाव रखता है वह सुव्रत पुरुष देवताओं के लोक में जाता है ।
प्रस्तुत प्रन्थ से अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों को इससे अत्यन्त लाभ हो सकता है। क्योंकि यह ग्रन्थ बड़ी उत्तम शैली से निर्माण किया गया है । अत: प्रत्येक मुमुक्षु आत्मा को इसका स्वाध्याय करना चाहिए जिस से वह क्रमशः निर्वाण पद की प्राप्ति कर सके ।
उपाध्याय जैन मुनि आत्माराम (पंजाबी)
लुधियाना
संवत् १६६७ पाढ
शुक्ला ४ चन्द्रवार
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अकाराद्यनुक्रमणिका
५०
विषय अङ्ग बाह्य भूत अङ्ग प्रविष्ट श्रुत अङ्गार दोष अंगुल के तीन भेद अकएडूयक अकर्मभूमिज अकर्माश अकपाय अकस्माइण्ड अकाम मरण अकारण अकृत्स्ना अक्रियावादी अगार धर्म अघाती कर्म अचनु दर्शन अचरम समय निर्ग्रन्थ अचित्त योनि
बोल नम्बर विषय
बोल नम्बर १६ अचित्त वायु पांच ४१३ १६ अचौर्य
२६६ ३३० अचीाणुव्रत (स्थूल अदत्तादान ११८ विरमण व्रत) के पांच ३५६ अतिचार ७१ मच्छवि
३७१ ३७१ अजीवाधिकरण २६९ अज्ञात चरक २६० अज्ञानवादी
५३ अणुव्रत पांच ३३० अतिक्रम ३२६ अतिचार १९१ अतिथि वनीपक २० अतिथि संविभाग व्रत के पांच २७ , अतिचार REE अतिथि संविभाग शिक्षाबत १८६ ३७० अतिभार ६७ अतिन्याप्ति १२०
२४४
३७३
३१२
३०१
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६२
[ २४ ] विषय बोल नम्बर , विषय
बोल नम्बर अदत्तादान विरमण महाव्रत ३१६ ' अनर्थ दण्ड विरमण व्रत (क)१२८ अदत्तादान विरमण रूप तृतीय 'अनवकांक्षा प्रत्यया
२६५ महाव्रत की पांच भावनाएं ३१६ । अनवस्थित सामायिक करण ३०६ अद्धा पल्योपम १०८ अनाचार
२४४ अद्धा सागरोपम १०६ अनात्मभूत लक्षण अधर्मास्तिकाय २७६ अनानुपूर्वी
११६ अधर्मास्तिकाय के पांच प्रकार २७७ अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व २८८ अधिकरण की व्याख्या और अनाभोग प्रत्यया
२६५ उसके भेद
५० 'अनाभोग बकुश २६८ अधो दिशा प्रमाणातिक्रम ३०६ अनाभोग मिथ्यात्व
२८८ अधोलोक
६५ अनाहारक अधोवेदिका
३२२ ' अनिवृत्तिकरण अधः करण ७८ ' अनुकम्पा
२८३ अनङ्ग क्रीड़ा ३०४ अनुकम्पा दान
१६५ अनगार धर्म
२० अनुगम अनध्यवसाय
१२१ , अनुत्पन्न उपकरणोत्पादन अनन्तक पांच
४१७ : विनय के चार प्रकार अनन्तक पांच
४१८ अनुपालना शुद्ध अनन्त जीविक ७० अनुप्रेक्षा
३८१ अनन्त संसारी ८ ' अनुभाग बन्ध
२४७ अनन्तानुबन्धी १५८ अनुभापणा शुद्ध ३२८ अनर्थ दण्ड
३६ अनुमान अनर्थ दण्ड
२६० अनुमान प्रमाण २०२ अनर्थ दण्ड विरमण व्रत के पांच | अनुयोग के चार द्वार २०८ अतिचार
३०८ अनुयोग के चार भेद २११
२३५
३२८
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३११
भेद
३११
[ २५ ] विपय बोल नम्बर विषय
बोल नम्बर अनुयोग द्वार सूत्र का संक्षिप्त अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षित उच्चार परिचय
२०४ प्रस्रवण भूमि अन्तकियाएं चार २५४ अप्रत्युपेक्षिन दुष्प्रत्युपेक्षित अन्तचरक
३५२ | शय्या संस्तारक ३११ अन्तरद्वीपिक
७१ । अप्रथम समय निर्ग्रन्थ । अन्तरात्मा
१२५ । अप्रमाण अन्तगय कर्म के पांच भेद ३८८ अप्रमाद
२६९ अन्नाहार
__ ३५६ अप्रमार्जिन दुष्प्रमार्जित उच्चार अन्न इलाय चरक ३५३ प्रस्रवण भूमि अन्य प्रकार से मेघ के चार । अप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित शय्या
(ख. १७४ । संस्तारक अपक्वौपधि भक्षण ३०७ । अप्रावृतक अपरिगृहीतागमन ३०४ । अभयदान
१६७ अपरिग्रह
२६६ , अभव सिद्धिक अपरिश्रावी
३७१, अभिवर्धित संवत्सर अपर्याप्त ८, अभिषेक सभा
३६७ अपवाद
४० , अमृषा अपश्चिम मारणान्तिक मले- अमैथुन खना के पांच अतिचार ३१३
अयोग
२६६ अपाय विचय
२२० अरसाहार अपायापगम अतिशय (ब) १२६अरिहन्त अपूर्व करण
अरिहन्त भगवान के चार अपौद्गलिक समकित मूलातिशय (ख) १२६ अप्रत्याख्यानिकी क्रिया २६३ | असली . अप्रत्याख्यानावरण १५ अर्थ कथा
३५६
४००
२६६ २६६
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________________
४२१
१२०
३७१
६६
[ २६ ] विषय बोल नम्बर विषय
बोल नम्बर अर्थ दण्ड
३६ ' अवान्तर सामान्य ५६ अर्थ दण्ड २६० अवाय
२०० अर्थधर पुरुप ८४ अविरति दोप
२८९ अर्थ पुरुषार्थ ६४१ अव्यक्त स्वप्न दर्शन अर्थ रूप श्रुत धर्म १६ अव्यवहार राशि अर्थागम
८३ अव्याप्ति अर्थान्तर
२७० अशबल अर्थावग्रह
५८ असंख्यात जीविक अर्ध पर्यङ्का
३५८ असंज्ञी अलङ्कार सभा
३६७ असंभव अल्प आयु के तीन कारण १०५ असंयती अलोकाकाश ३४ अमंयम पांच
२६७ अवग्रह के दो भेद ५८ , अमंवृत बकुश
३६७ अवग्रह २००' असत्य भापा
२६६ अवधि ज्ञान
३७५ अमत्य वचन के अवधिज्ञान की व्याख्या चार प्रकार और भेद
१३ अमत्यामृपा भाषा ( व्यवहार अवधिज्ञान या अवधिज्ञानी भापा ) के चलित होने के पांच बोल ३७७ असद्भावोद्भावन अवधिज्ञानी जिन ७४ । असाता वेदनीय अवधि ज्ञानावरणीय ३७८ असि कर्म अवधि दर्शन १६६ अस्तिकाय धर्म अवन्दनीय साधु पांच ३४७ अस्तिकाय के पांच पांच भेद २७७ अवसन्न
अष्ट स्पर्शी अवसर्पिणी ३३ | अहिंसा
२६६
२७०
५१
३४७
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१०२
आकाश
२६५
| २७ ] विषय बोल नम्बर विषय बोल नम्बर अहिंसाणुव्रत (स्थूल प्राणा- आचार्य उपाध्याय के शेष तिपात विरमण व्रत ) के पांच साधुओं की अपेक्षा पाँच अतिचार ३०१ , अतिशय
३४२ प्राचार्य की ऋद्धि के तीन
भेद
३४ आचार्य के तीन भेद आकाशास्ति काय २७६ श्राचार्य के पाँच प्रकार ३४१ आकाशास्ति काय के पाँच आजीवक
३७२ भेद
२७७ आज्ञापनिका आक्रान्त वायु
४१३ अाजा विचय धर्मध्यान आक्षेपणी कथा की व्याख्या प्राज्ञा व्यवहार
३६३ और भेद १५४ आतापक
३५६ आगम
३७६ आत्मभूत लक्षण आगम की व्याख्या और आत्मवादी भेद
८३ आत्ममंवेदनीय उपसर्ग के आगम प्रमाण
२०२ चार प्रकार आगम व्यवहार ३६३ आत्मांगुल
११८ आचाम्लिक
३५५ आत्मा आचार पाँच
३२४ आत्मा तीन आचार प्रकल्प के पाँच । आदर्श समान आवक प्रकार
३२५ आदानभंडमात्रनिक्षेपणा आचार विनय के चार प्रकार २३० समिति
३२३ आचार्य
२७४ । आदित्य संवत्सर ४०० आचार्य उपाध्याय के गण से आधार निकलने के पाँच कारण ३४३ आधिकरणिकी क्रिया २६२
१६२
२४३
१२५
१८५
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विपय
गिमिक समकिन
आधेय
नयन प्रयोग
आनुगमिक
free मिथ्या
आभिनिबोधिक ज्ञान
आभिनिवोधिक ज्ञान
आभिनिवेशिक मिथ्यात्व
आभियोगोकी भावना अभियोगिकी भावना के
पाँच प्रकार
आभोग कुश आम्नायार्थ वाचकाचार्य
आयु की व्याख्या और भेद
आरम्भ
आरम्भ
आरम्भिक क्रिया
आराधना तीन
आरोपणा
रोपण के पाँच भेद
[ २८ ]
बोल नम्बर: विपय
आरोपणा प्रायश्चित्त
आर्जव
आर्त्तध्यान
१० आविर्भाव
४८
३१०
८५
१५
३७५
२८
१४४
४.४
३६८
Ë×k
३०
४६
श्रवद्वार प्रतिक्रमण
ध्यान के चार प्रकार २१६ श्रार्त्तध्यान के चार लिङ्ग
२१७
३२६
श्रमुरी भावना
१४१
आसुरी भावना के पांच भेद ४०५
आस्तिक्य
२८३
आहारक
आहारक बन्धन नाम कर्म
आहारक शरीर
आहार संज्ञा
आहार संता चार कारणों
से उत्पन्न होती है
18:1
बोल नम्बर
४४
इ
६४
२६३ इन्द्रिय की व्याख्या और
CE
भेद
३२५ इहलोकाशंमा प्रयोग
३२६
२४५
-::
३५० ईर्यापथिक क्रिया २५
इच्छा परिमाण
३००
इत्यरिका परिगृहीता गमन
३०४
इन्द्र स्थान की पांच सभाएं ३६७
८
३६०
३८६
કર્
१४३
२३
३१८
२६६
ईर्या समिति
३२३
ईर्या समिति के चार कारण १८१
ईहा
२००
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________________
३८०
६६
[ २६ ] विषय बोल नम्बर | विषय
बोल नम्बर
उपनय उचार प्रस्रवण श्लेष्म सिंघाण । उपपात जल्ल परिस्थापनिका समिति ३२३ । उपपात सभा
३६७ उत्कटुकासनिक ३५७ / उपभोग परिभोग परिमाण उत्क्षिप्त चरक ३५२ / गुणवत
(क) १२८ उत्तर गुण
५५ , उपभोग परिभोग परिमायण व्रत उत्तराध्ययन सूत्र की व्याख्या के पांच अतिचार ३०७ और छत्तीस अध्ययनों के नाम । उपभोग परिभोगातिरिक्त तथा उनका मंक्षिप्त भाव २०४ | उपभोगान्तराय
३८८ उत्पानिया
२०१। उपमान प्रमाण उत्पाद
६४ उपमा मंग्या की व्याख्या और उत्सग
४० ! भेद उत्सर्पिणी
३३ ' उपयोग उत्सेधांगुल
'उपयोग भावेन्द्रिय उदय
उपशमना उपक्रम
२४६ उदाहरण
___ उपशम श्रेणी उदारणा
२४३ उपशम ममकित रदीरणा उपक्रम
उपसर्ग चार उद्देशाचार्य
उपादान कारण उद्धार पल्योपम
१०८
उपाध्याय उद्धार सागरोपम
उरपरिमर्प
१०६ उन्मार्ग देशना उपकरण द्रव्येन्द्रिय
०४ उपक्रम
२०८ उपक्रम की व्याम्या और भेद ०४६ ऊर्ध्वना मामान्य
।
m
२३६
४०६
४८६ उष्ण योनि
५६
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________________
विषय ऊर्ध्व दिशा प्रमाणातिक्रम
ऊर्ध्व लोक
ऊर्ध्व वैदिका
३२२
।
ऊद की व्याख्या और भेद २११
1
-::---
[ ३० ]
बोल नम्र विषय
ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान
ऋतु संवत्सर
ऋद्धि के तीन भेद
ऋद्धि गारव
-::
एकनवेदिका
एकत: अनन्तक
एकत्व वितर्क शुक्ल ध्यान
एकेन्द्रिय
औदकि श्रदारिक बन्धन नामकर्म
३०६ औपशमिक
५६ औपशमिक
दारिक शरीर
दारिक संघात नामकर्म श्रपनिधिक
१४
४००
६६
३२.२
४१८
२२५
२८१
एपरा की व्याख्या और भेद ६३ एपणास मिति
३२३
कथ्य काव्य
कन्दर्प
कन्दर्प
कटक के समान श्रावक
कथा तीन
कर्म तीन
कर्म भूमिज
कर्मवादी
कल्पातीत
३८७ कल्पोपपन्न
३६० कपाय
३६१
३५४
10:1
क
बोल नम्बर
co
कन्दर्प भावना
१४१
८ कन्दर्प भावना के पांच प्रकार ४०२
कप्पवsसिया
३८४
कम्मिया
२०१
करा की व्याख्या और भेद 5
करण के तीन भेद
६४
२७
२५३
७२
७१
१६१
५७
५७
कर्म की व्याख्या और भेद
कर्म की चार अवस्थाएं
३८६ कपाय
३८७
१८५
३
२१२
३०८
४०२
२८६
२६१
कपाय की ऐहिक हानियाँ
१६६
कपाय की व्याख्या और भेद १५८
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________________
३४७
३६६
[ ३१ ] विपय बोल नम्बर | विषय
बोल नम्बर कपाय जीतने के चार उपाय १६७ | किल्विषिकी भावना १४१ कपाय प्रतिकमण ३२६ - किल्विषिकी भावना के पांच कपाय मोहनीय २६ प्रकार
४०३ कांक्षा
२८५ | किस गति में किस कपाय की काम कथा
१७ अधिकता होती है १६३ काम पुरपार्थ १६४ कुप्य प्रमाणातिक्रम कामभोग तीव्राभिलापा ३०४ कुम्भ की चौभङ्गी १६८ कामभोगाशंसा प्रयोग ३६३ कुम्भ को उपमा से चार पुरुप १६६ कायगुप्ति (ब) १२८ कुशील काय दुष्प्रणिधान ३०६ कुशील
३६६ काय योग
६५ फुशील के पांच भेद काय स्थिति
३१ कूटतूला कूटमान कायिकी २६२ कूट लेखकरण
३०२ कारक समकित
८० कृत्य प्रायश्चित्त कारण ४३ कृत्ला
३२६ कारण के दो भेद ३५ कृपण वनीपक
३१३ कारण्य भावना २४६ कृषि कर्म कार्माण बन्धन नामकर्म ३६० कृष्णपक्षी कार्माण शरीर ३८९ केवल ज्ञान
३७५ कार्य ४३ केवलज्ञानी जिन
७३ काल २१० । केवल ज्ञानावरणीय
३७८ काल के भेद और व्याख्या ३२ केवल दर्शन
१६९ कालचक्र के दो भेद ३३ केवली के परिपह उपमर्ग। कालातिक्रम
३१२ सहने के पांच स्थान ३३२ काव्य के चार भेद २१२ केवली के पांच अनुत्तर ३७६
२४५
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________________
[ ३२ ]
बोल नम्बर विषय
विषय
कौतुक
कौरच्य
कौत्कुच्य
क्रिया की व्याख्या और उसके
भेद
क्रिया पांच
क्रिया के पांच प्रकार
क्रिया के पांच भेद
क्रिया के पांच भेद
क्रियावादी
क्रियावादी
क्रोध
क्रोध के चार प्रकार क्रोध की उत्पत्ति के चार
1
४०४ क्षायोपशमिक समकित
३०८ | क्षायोपशमिक समकित ४०२ क्षेत्र
क्षेत्र पल्योपम
क्षेत्र वास्तु प्रमाणातिक्रम
क्षेत्र वृद्धि
क्षेत्र सागरोपम
तान्ति
क्षायिक
क्षायिक समfea
क्षायिक समकित
क्षायोपशमिक
२९२
२६३
२६४
२६५ ।
२६६
१६०
१६१
१५८
१६
स्थान
कोध के चार भेद और उनकी
उपमाएं
१६५
1
क्षपक श्रेणी
क्षमाशूर
क्षयोपशम प्रत्यय अवधिज्ञान १३
ख
खर कटक के समान
श्रावक
खेचर
१५६
५६ गणना अनन्तक
1
१६३ गणितानुयोग
बोल नम्बर
ΤΟ
। गणिम भाण्ड
1
ग
गच्छ में आचार्य उपाध्याय के
1
पांच कलह स्थान
३५० गति की व्याख्या
३८७ | गति पांच
το
२८२ | गद्यकाव्य
७३८८ | गर्भ
गति प्रतिघात
२८२
२१०
१०८
३०५
३०६
१०६
१८५
४०६
३४४
४१७
२११
२६४
१३१
२७८
४१६
२१२
६६
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________________
विषय
२७० ६३
२७
३६२
[ ३३ ]
बोल नम्बर | विषय बोल नम्बर गहीं गवेपणैषणा
घाती कर्म गारव (गौरव ) की व्याख्या
घ्राणेन्द्रिय और भेद गुण
४६ गुण के दो प्रकार से दो भेद ५५ गुण प्रकाश के चार स्थान २५६ चतुरिन्द्रिय गुण लोप के चार कारण २५८ चक्षु दर्शन
१६६ गुण व्रत की व्याख्या और चतुरिन्द्रिय
२८१ भेद
(क) १२८ चतुष्पद तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय के गुप्ति
२७१
२२ । चार भेद गुप्ति की व्याख्या और । चतुः स्पर्शी
(ख) १२८ चन्द्र संवत्सर
४००
चरण करणानुयोग
२११
६३ चरण करणानयोग
३७०
३३७ । चरम समय निर्ग्रन्थ
भेद गुरु तत्त्व गृहपति अवग्रह गेय काव्य गैरुक गोनिषाधिका
३७२ । अल्प बहुत्व
गौणता
१८०
ग्रहणैपणा प्रासैषणा प्रासैषणा (मांडला) के पांच दोप
चार गति में चार संज्ञाओं का
१४७ चार मंगल रूप हैं (क) १२६ चार प्रकार का संयम १७६ चार महाव्रत चार कारणों से साध्वी से आलाप संलाप करता हुआ साधु निम्रन्थाचार का अतिक्रमण नहीं करता।
१८३ | चार मूल सूत्र
२०४
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________________
३६७
[ ३४ ] विपय
बोल नम्बर विषय वोल नम्बर चारशुभ और चार अशुभ । चारित्र धर्म
१८ गण
२१३ चारित्र धर्म के दो भेद २० चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं २१४ चारित्र की व्याख्या और भेद ३१५ चार विनय प्रतिपत्ति २२६ ' चारित्र पुलाक चार भावना
२४६ चारित्र प्रायश्चित्त चार बन्धों का स्वरूप समझाने चारित्र में राग के लिये मोदक (लड्डू) का चारित्र मोहनीय दृष्टान्त
२४८ चारित्र मोहनीय के दो भेद २६ चार स्थान से हास्य को उत्पत्ति २५७ चारित्र विराधना चार प्रकार का नरक का चारित्राचार आहार
२६० चारित्राराधना चार प्रकार का तिर्यञ्च का चारित्रेन्द्र आहार
२६१ चिन्ता स्वप्न दर्शन ४२१ चार प्रकार का मनुष्य का चौमासी उद्घातिक ३२५ आहार
२६२ चौमासी अनुद्घातिक चार भाण्ड (पण्य वस्तु) २६४ चौमासे के पिछले सत्तर दिनों चार व्याधि
२६५ में विहार करने के पांच चार पुगल परिणाम २६६ । कारण चार प्रकार से लोक की चौमासे के प्रारंभ के पचास व्यवस्था है
२६७ दिनों में विहार करने के पाँच चार कारणों से जीव और कारण पुद्गल लोक के बाहर जाने में असमर्थ हैं चारित्र १६५, छविच्छेद
३०१ चारित्र कुशील ३६६ | छेद सूत्र चार
२०५
३२५
२६८
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________________
6 ०
२७३ /
[ ३५ ] विषय बोल नम्बर | विषय
बोल नम्बर छेदोपस्थापनिक चारित्र ३१५ | जीवास्तिकाय के पांच भेद २७७ छद्मस्थ के परिपह उपसर्ग जीविताशंसा प्रयोग सहने के पाँच स्थान ३३१ ज्ञान
३६६ छद्मस्थ पाँच बोल साक्षात् ज्ञान कुशील
३६६ नही जानता
३८६ ज्ञान के पांच भेद ३७५
ज्ञान के दो भेद
ज्ञान गर्मित वैराग्य जन्म की व्याख्या और भेद ६६ ज्ञान दान
१६७ जम्बू द्वीप
ज्ञान पुलाक जम्बू द्वीप में मेरू पर्वत पर ज्ञान प्रायश्चित्त
२४५ चार वन हैं
ज्ञान विराधना जलचर
ज्ञानातिशय (ख) १२६ जाङ्गमिक ३७४ ज्ञानाचार
३२४ जाति की व्याख्या और भेद २८१ ज्ञानागधना जिन तीन
७४ ज्ञानावरणीय की व्याख्या और जीत व्यवहार ३६३ उसके पांच भेद
३७८ जीव
(ख) ७ ज्ञानेन्द्र जीव की अशुभ दीर्घायु के तीन ज्योतिषी देवों के पांच भेद ३६६ कारण जीव की शुम दीर्घायु के तीन कारण
१०७ | तज्जात संसृष्ट कल्पिक ३५३ जीव के तीन भेद ६६ | तत्त्व की व्याख्या और भेद ६३ जीव के पांच भाव ३८७ । तत्प्रतिरूपक व्यवहार ३०३ जीवाधिकरण
५० | तत्काल उत्पन्न देवता चार जीवास्तिकाय २७६ / कारणों से इच्छा करने पर
४०६
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________________
२४२
३८६
[ ३६ ] विषय बोल नम्वर । विपय बोल नम्बर भी मनुष्य लोक में नहीं आ तिर्यञ्च आयु बन्ध के चार सकता १३८ कारण
१३३ तत्काल उत्पन्न देवता मनुष्य लोक तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय के पांच में आने की इच्छा करता हुआ भेद
४०६ चार बोलों से आने में समर्थ तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्ग के होता है
१३६ | चार प्रकार तम्काल उत्पन्न हुआ नैरयिक तीर्थ की व्याख्या और उसके मनुष्य लोक में आने की इच्छा ! भेद
१७७ करता है किन्तु चार बोलों से । तुच्छौपधि भक्षण
३०७ आने में असमर्थ है १४० तैजस बन्धन नाम कर्म ३६० तदुभयधर पुरुष
८४ । तैजस शगेर तदुभयागम ८३ त्याग
३५१ १६५ त्रस
१६६ , त्रीन्द्रिय तप
३५१ तीन अच्छेद्य तप आचार
३२४ तीन का प्रत्युपकार दुःशक्य है १२४ तप शूर १६३ । तीन अर्थ योनि
१२६ तर्क
३७६ तापस
३७२ तिरीड पट्ट ३७४ , दग्धाक्षर पांच
३८४ तिरोभाव तिर्यक् दिशा प्रमाणातिक्रम ३०६ | दण्ड तिर्यक् लोक
६५ दण्ड के दो भेद निर्यक् मामान्य ५६ दण्ड की व्याख्या और भेद ६६ तिर्यक् वेदिका
३२२ | दण्ड की व्याख्या और भेद ६०
तप
तप
२८१
१२६
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________________
३५४
[ ३७ ] विपय बोल नम्बर विषय
बोल नम्बर दण्डायतिक
३५६ दिशि गुणत्रत (क) १२८ दर्शन
११ दीपक समकित दर्शन
१६५ दुःख गर्भित वैराग्य दर्शन कुशील
३६६ दुःखशय्या चार दर्शन के तीन भेद ७७ दुःशीलता दर्शन पुलाक ३६७ 'दुःसंज्ञाप्य तीन दर्शन प्रायश्चित्त २४५ दुर्लभ बोधि दर्शन मोहनीय २८ दुर्लब बोधि के पाँच कारण २८६ दर्शन विराधना ८७ दुष्पक्वौपधि भतण दर्शन के चार भेद १६ दुष्प्रत्याख्यान दर्शनाचार
३२४ दृष्ट लामिक दर्शनाराधना
८६ दृष्टिजा क्रिया दर्शनेन्द्र
६३ दृष्टि विपर्यास दण्ड दशवकालिक सूत्र की व्याख्या और देवगुरु की वैयावृत्त्य दश अध्ययनों के नाम तथा इनके देव तत्त्व विषय का संक्षिप्त परिचय २०४ देवता की ऋद्धि के तीन दशा श्रुतस्कन्ध का संक्षिप्त भेद
१०० विपय परिचय २०५ देवताओं के चार भेद १३६ दान
१९६ देवता की तीन अभिलाषाएँ १११ दान के चार प्रकार १६७ । देवताओं की पहचान के दान शूर १६३ चार बोल
१३७ दानान्तराय
३८८ | देवता का चार प्रकार का दिगाचार्य ३४१ आहार
२६३ दिशा परिमाण व्रत के पाँच देवता के च्यवन ज्ञान के अतिचार ३०६ तीन बोल
११३
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________________
११६
बान्न
१७
२११
१२
२८१
२६६
। ३८ ] विपथ वील नम्बर ' विषय
बोल नम्बर देवता के दो भद ५७ द्रव्य समकित देवना के पश्चात्ताप के तीन द्रव्यानुपूर्वी के तीन भेद
११२ द्रव्यार्थिक नय दव पांच
४२२ द्रव्यानुयोग देव मम्बन्धी चा। उपमर्ग २४० द्रव्येन्द्रिय देवाधिदेव
४२२ द्रव्येद्रिय के दो भेद देव आयु बन्ध के चार कारण १३५ द्विधा अनन्तक
४१८ देवेन्द्रावग्रह ३३४ द्विधा वैदिका
३२२ दवों की पाच परिचारणा ३६८ द्वीन्द्रिय देश कथा चार १५१ द्विपद चतुष्पद माणानिक्रम ३०५ देश बन्ध
५२ द्वेप प्रत्यगा देश विरति सामायिक १६० द्वेष बन्धन देश विम्नार अनन्तक ५१८ देशावका शक शिक्षात्रत के पांच आतिचार ३१० धन-धान्य-प्रमागानिक्रम ३०५ देशावकाशिक शिक्षा वन १८६ धरिम किरियाणा २६४ दोप चार
२४४ धर्म की व्याख्या और उसके दोप निघानन विनय के चार भेद प्रकार
२३४ धर्म कथा
४६ धर्म
२१० धर्म कथा को व्याख्या और द्रव्य अनन्तक
४१७ भेद द्रव्य ऊनोदरी
२१ धर्म कथानुयोग द्रव्य के दो भेद ६० धर्म के चार प्रकार द्रव्य निक्षेप
२०६ । धर्म के तीन भेद
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________________
३७
२०८
४२२
यूपकार
[ ३६ ] विषय बोल नम्बर ; विषय
बोल नम्बर धर्म तत्त्व धर्मदेव
४२२ नन्दीसूत्र का विषय परिचय २०४ धर्म ध्यान
२१६ नक्षत्र संवत्सर धर्म ध्यान की चार भावनाएं २२३ नपुंसक वेद
६८ धर्म ध्यान रूपी प्रासाद पर नय चढ़ने के चार आलम्बन २२२ नय धर्म ध्यान के चार लिङ्ग २२१ नय के दो भेद धर्मध्यान के चार प्रकार २२० नरक आयु बन्ध के चार धर्मध्यान के चार भेद २२४ । कारण धर्म पुरुपार्थ १६४ नरदेव धर्माचार्य का प्रत्युपकार नव प्रकार से संसारी जीव दुःशक्य है
१२४ के दो दो भेद धर्मास्तिकाय
२७६ नवीन उत्पन्न देवता के मनुष्य । धर्मास्तिकायके पांच भेद २७७ लोक में आने के तीन कारण ११० धर्मोपकरण दान १६७ : नाम अनन्तक धाय (धात्री) पांच ४०८ । नाम निक्षेप
२०६ धारणा
२०० निकाचित की व्याख्या और धारणा व्यवहार ३६३ भेद धार्मिक पुरुप के पांच आलम्बन निक्षिप्त चरक
३५२ स्थान ३३३ निक्षेप
२०८ ३३० निक्षेप चार
२०६ ध्मात वायु
४१३ निगमन ध्यान की व्याख्या और भेद २१५ निगोद ध्रौव्य
६४ निदान शल्य
निद्रा
२५२
धूम
३८०
१०४
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________________
प
२७५
[ ४० ] विषय वोल नम्बर | विषय
बोल नम्बर निद्रा ४१६ निष्कृपता
४०५ निद्रा निद्रा ४१६ नैपधिक
३५७ निद्रासे जगने के पांच कारण ४२० नैसर्गिक ममकित निधत्त की व्याख्या और भेद २५१ नैसृष्टिको (नेसत्थिया) निमित्त
४०४ नोकपाय मोहनीय निमित्त कथन
४०५ निमित्त कारण निरनुकम्पता ४०५ पञ्च परमेष्ठी
२७४ निरयावलिया सूत्र के पांच वर्ग ३८४ पञ्च कल्याणक निरूपक्रम आयु ३० पञ्चेन्द्रिय
२८१ निरूपक्रम कर्म
३७ । पक्षी चार निम्रन्थ
३७२ पताका के ममान श्रावक निम्रन्थ के पाँच भेद ३७० पदस्थ धर्मध्यान
२२४ निम्रन्थ पांच
३६६ पद्य काव्य निविकृतक
६५५ पर पापंडी प्रशंसा निवृत्ति द्रव्येन्द्रिय २४ , पर पापंडी संस्तव
२८३ परमाणु निवेदनो कथा की व्याख्या परमात्मा और भेद
१५७ । परलोकाशंसा प्रयोग निवृत्ति
४५ पर विवाह करण ३०४ निशीथ सूत्र का संक्षिप्त विषय पर विस्मयोत्पादन ४०२ परिचय
२०५ पर व्यपदेश निश्चय
३६ परार्थानुमान के पांच अङ्ग निश्चय समकित १० परिकुचना प्रायश्चित्त निषद्या के पांच भेद ३५८ परिग्रह
२१२
२८५
निर्वेद
३१३
३१२
३८०
२४५
28
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________________
विषय
२८६
[ ४१ ] बोल नम्बर | विपय
बोल नम्बर परिग्रह परिमाण व्रत के पांच पांच निर्याण मार्ग
२८० अतिचार
३०५ । पांच आश्व परिग्रह विरमण महाव्रत ३१६ | पांच प्रत्याख्यान
३२८ परिग्रह विरमण रूप पंचम महा / पांच अस्तिकाय २७६ व्रत की पांच भावनाएँ ३२१ पांच संवर
२६६ परिग्रह संज्ञा
१४२ । पांच समिति की व्याख्या परियह संज्ञा चार कारणों से और उसके भेद ३२३ उत्पन्न होती है १४६ । पांच शौच
३२७ परिच्छेद्य किरियाणा
पांच प्रकार का प्रत्याख्यान ३२८ परिज्ञा पांच १५ । पांच प्रतिक्रमण
३२६ परिणामिया (पारिणामिकी) २०१ ।
पांच अवग्रह
३३४ परित्त संसारी
पांच महानदियों को एक मास परिमित पिण्ड पातिक
में दो अथवा तीन बार पार परिवर्तना परिहार विशुद्धि चारित्र
करने के पांच कारण
३३५
पांच अवन्दनीय साधु परोक्ष
३४७
पांच पग्जिा परोक्ष ज्ञान के दो भेद
३६३
पांच व्यवहार परोक्ष प्रमाण के पांच भेद
पांच प्रकार के मुण्ड ३६४ पर्यङ्का
पांच निर्ग्रन्थ
३६५ पर्याप्त पर्याय
पांच प्रकार के श्रमण पर्यायार्थिक नय
पांच बोल छद्मस्थ साक्षान् पल्योपम की व्याख्या और नहीं जानता ३८६ भेद
१०८ पांच इन्द्रियाँ पश्चानुपूर्वी
११६ । पांच इन्द्रियों के संस्थान ३६३
३७२
३६२
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________________
२७६
४१२
४१४
पुरुप वेद
[ ४२ ] विपय बोल नम्बर | विषय
बोल नम्बर पांच इन्द्रियों का विषय पिण्डस्य धर्म ध्यान २२४ परिमाण
___ ३६४ पिता के तीन अङ्ग १२२ पांच कामगुग्ण ३६५ पीड़ित वायु
४१३ पांच अनुत्तर विमान ३६६ पुद्गल परिणाम चार २६६ पांच संवत्सर
४०० ' पुद्गलास्तिकाय पांच अशुभ भावना ४०१ पद्गलान्तिकाय के पांच भेद २७७ पांच धाय (धात्री) ४०८
पुप्फ चूलिया
३८४ पांच स्थावर काय
पुफिया
३८४ पांच प्रकार की अचित्त वायु ४१३ । पुरुष के तीन प्रकार पांच वर्ण पांच रस
पुरुषार्थ के चार भेद १६४ पांच प्रतिघात ४१६ । पुलाक
३६६ पांच अनन्तक
पुलाक (प्रति सेवा पुलाक) पांच अनन्तक
४१८ के पांच भंद
३६५ पांच निद्रा
४१६ प्रजातिशय (ख) १२६ पांच देव
४२२ । पूर्वानुपूर्वी
११६ पारश्चित प्रायश्चित्त के पांच
पूर्वार्धिक बोल
पृच्छना
३८१ पारिग्रहिकी
पृथकत्व विर्तक शुक्ल ध्यान १२५ पारिणामिक
पृथ्वी के देशतः धूजने के पारितापनिकी
११६ पासस्था पास जाकर वन्दना के पांच पृथ्वी तीन वलयों से वलयित असमय
११५ पास जाकर वन्दना योग्य पृष्ट लाभिक समय के पांच बोल ३६४ पृष्टिजा (पुट्रिया) २६४
४१७
३५५
३। तीन बोल
३५४
२६४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
३११ १८६
४१६
२४६
२६६
[ ४३ ] विषय बोल नम्वर | विषय
बोल नम्बर पोतक ३७४ | प्रमाण
३७ पौद्गलिक समकित
प्रमाण चार
२०२ पौपधोपवास का सम्यक प्रमाण संवत्सर
४०० अपालन
प्रमाणांगुल
११८ पौषधोपवास शिक्षात्रत
प्रमाद
२८९ प्रकृति बन्ध २४७ | प्रमाद पांच
२६१ प्रचला
प्रमोद भावना प्रचला प्रचला
४१६ । प्रायोगिकी क्रिया प्रतान स्वप्न दर्शन ४२११
प्रवचन माता
२२ प्रतिज्ञा
३८०
प्रवृत्ति प्रतिपूर्ण (परिपूर्ण) पौषध व्रत प्रत्रज्या प्राप्त पुरुषों के चार के पांच अतिचार ३११ प्रकार
१७६ प्रतिमा स्थायी
३५७ प्रव्रज्या स्थविर प्रतिसेवना प्रायश्चित्त २४५ | प्रव्राजकाचार्य
३४१ प्रतीति १२७ प्रश्न
४०४ प्रत्यक्ष
प्रश्नाप्रश्न
४०४ प्रत्यक्ष प्रमाण २०२ प्रस्थापिता
३२६ प्रत्यक्ष व्यवसाय ८५ प्राणातिपातिकी क्रिया २६२ प्रत्यभिज्ञान
३७६ प्राणातिपात विरमण रूप प्रत्याख्यान के दो भेद ५४ प्रथम महाव्रत की पांच प्रत्याख्यानावरण
भावनाएं प्रथम समय निर्ग्रन्थ ३७० प्रातीत्यिको
५ प्रात्ययिक व्यवसाय प्रदेश अनन्तक
४१७ प्राद्वेषिकी प्रदेश बन्ध २४७ प्रान्त चरक
३५२
१५८
प्रदेश
२६२
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________________
१२५
३५१
[ ४४ ] विपय बोल नम्बर | विषय
बोल नम्बर प्रान्ताहार ___३५६ बल वीर्य पुरुपाकर पराक्रम प्रायश्चिन चार (क) २४५ प्रतिघान
४१६ प्रायश्चित्त के अन्य प्रकार में वहिः पुद्गल प्रक्षेप चार भेद (ख) २४५ बहिरात्मा प्रेम प्रत्यया
२९६ बादर प्रेष्यप्रयोग
३१० बुद्धि के चार भेद बेइन्द्रिय
२८१ ब्रह्मचर्य
३७३ फल के चार प्रकार १७० ब्राह्मण वनीपक फल की उपमा से पुरुप के चार प्रकार
१७१
भक्त कथा चार भक्तपान व्यवच्छेद
भगवान महावीर से उपदिष्ट वन्ध
३०१ एवं अनुमत पाँच बन्ध के दो भेद ५२ बोल ३५० से ३५७ तक बन्धन की व्याख्या और भेद २६ भगवान महावीर से उपदिष्ठ बकुश
३६६ एवं अनुमत पाँच स्थान ३५६ वकुश के पोच भेद
३६८ , भय संज्ञा चार कारणों से बन्ध
२५३ । उत्पन्न होती है बन्ध की व्याख्या और भेद २४७ । भय संज्ञा
१४२ बन्धन नामकर्म के पाँच
भर्ता ( सेठ) का प्रत्युपकार भेद ३६० दुःशक्य है
१२४ बन्धन प्रतिघात
४१६ भवप्रत्यय अवधि ज्ञान १३ बन्धनोपक्रम
२४६ | भवसिद्धिक
-०
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________________
बोल नम्बर
४०६
[ ४५ ] विषय
बोल नम्बर | विषय भवस्थिति
३१ | भिन्न पिण्ड पातिक भव्य द्रव्य देव ४२२ भुज परिसर्प भाङ्गिक
३७३ भूति कर्म भाण्ड चार
२६४ । भेद भाई के समान श्रावक १८४ | भोग प्रतिघात भार प्रत्यवरोहणता विनय के भोगान्तराय चार भेद
२३८
४०४
१२६
३८८
भाव
३१२
भाव
२१० मन्छ के पांच प्रकार भाव इन्द्र के तीन भेद १२ मच्छ की उपमा से भिक्षा लेने भाव उनोदरी
२१ वाले भिक्षुक के पांच प्रकार ४११ भाव दुःख शय्या के चार मतिज्ञान (आभिनिबोधिक प्रकार २५५ ज्ञान)
१५ भाव देव
मतिज्ञान के चार भेद भावना चार
मति ज्ञानावरणीय ३७८ भाव निक्षेप
मत्सरता (मात्सर्य) भाव प्रतिक्रमण ३२६ मद्य
२६१ भाव प्राण की व्याख्या और मनुष्य के तीन भेद भद
| मनुष्य सम्बन्धी उपसर्ग के भी भाव शुद्ध
चार प्रकार भाव समकित
मनुष्य आयु बन्ध के चार भावेन्द्रिय
कारण भावेन्द्रिय के दो भेद २५ | मनोगुप्ति भाषा के चार भेद २६६ मनोदुष्प्रणिधान भाषा समिति
६२३ | मनोयोग
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________________
[ ४६ ]
बोल नम्बर विषय
विपय मनः पर्यय ज्ञान
मनः पर्यय ज्ञान की व्याख्या
और भेद
मन:पर्ययज्ञानी जिन
}
३७५ माया के चार भेद और उनकी
उपमाएं
१४
७४
३७८
५३
३१३ |
૨
मन:पर्ययज्ञानावरणीय
मरा के दो भेद मरणाशंसाप्रयोग
मपि कर्म
महानिर्जरा और महापर्यवमान
के पांच बोल
६६०
महानिर्जरा और महापर्यत्रमान
के पांच बोल
३६१
मात्र की व्याख्या और भेद ३१६
५६
१२३
महामामान्य
माना के तीन अङ्ग
माता पिता का प्रत्युपकार
दुःशक्य है
१२४
माता पिता के समान श्रावक १८४
माध्यस्य भावना
मान
मान के चार भेद और उनको
उपमाएं
माया
माया प्रत्यया
माया शल्य
मार्ग दपण
मार्ग विप्रतिपत्ति
मार्दव
मासिक उद्घातिक
अनुद्घाति
मित्र के समान श्रावक
मिध्यात्व
मिध्यात्व पांच
मिध्यात्व प्रतिक्रमण
मिथ्या दर्शन
मिथ्यादर्शनप्रत्यया
मिथ्यादर्शन शल्य
मिश्र दर्शन
मिश्रभापा
बोल नम्बर
मुक्ति
मुख्य
२४६ | मूल गुग्ण
१५८ मूल सूत्र चार
१६१
२६३
१०४
४०६
४०६
३५०
३२५
३२५
१८४
२८६
२८८
३२६
७७
२६३
१०४
७७
२६६
३५०
३८
५५
२०४
मृषावाद विरमण महाव्रत ३१६
१६० | मृपावाद विरमरण रूप द्वितीय
१५८ | महाव्रत की पांच भावनाएं ३१८
Page #57
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________________
[ ४७ ] विषय
बोल नम्बर | विषय मषोषदेश
३०२ मौन चरक मेघ की उपमा से चार दानी ।
बोल नम्बर
३५३
पुरुष
३१५
१७२ ।
४२१
७८
३६६
३६१
मेघ को उपमा से पुरुष के
| यथाख्यात चारित्र
। चार प्रकार १७३ । यथाच्छन्द
३४७ मेघ चार
यथातथ्य स्वप्न दर्शन मेघ के अन्य चार प्रकार (क) १७४
यथाप्रवृत्ति करण मेय किरियाणा २६४
यथासूक्ष्म कुशील मैत्री भावना
२४६
| यथासूक्ष्म पुलाक ३६७ मैथुन विरमण महाव्रत ३१६ |
१५ यथा सूक्ष्म बकृश मैथुन विरमण रूप चतुर्थ ।
यथा सूक्ष्म निग्रन्थ ३७० महाव्रत की पांच भावनाएं ३२०
युग संवत्सर
४०० मैथुन संज्ञा १४२
। युद्ध शूर
१९३ मैथुन संज्ञा चार कारणों से ।
योग उत्पन्न होती है
१४५ योग की व्याख्या और भेद ६५ मोक्ष पुरुषर्थ
३२९ | योग प्रतिक्रमण मोक्ष प्राप्ति के पांच कारण २७६ मोक्ष मार्ग के चार भेद
योनि की व्याख्या और भेद ६७ मोक्ष मार्ग के तीन भेद ___७६
४०६ मोह गर्भित वैराग्य ६० रस गारव मोह जनन
४०६ रसनेन्द्रिय मोहनीय कर्म की व्याख्या रस पांच
४१५ और भेद
२८ | रहोऽभ्याख्यान मौर्य
३०८ राग बन्धन
२८९
मोह
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________________
३५२
[ ४८ 1 विपय बोल नम्बर | विषय
बोल नम्बर राजकथा चार १५२ लाघव
३५० राजा को ऋद्धि के तीन भेद १०१ ' लाभान्तराय
३८८ गजा के अन्तःपुर में साधु के लिङ्ग कुशील
३६६ प्रवेश करने के पांच कारण ३३८ लिङ्ग पुलाक
३६७ राजावग्रह
३३४ लक्ष चरक राशि की व्याख्या (क)७ लूनाहार
३५६ सचि
१२७ लोक की व्याख्या और भेद ६५ रूपन्थ धर्म ध्यान २२४ लोकवादी रूपातीत धर्म ध्यान २२४ लोकाकाश रूपानुपात
३१० लोकान्त से बाहर जीव और रूपी
६० पुद्गल के न जग सकने के चार रूपी के दो भेद ६१ कारण
२६८ रोचक ममकित ८० लोभ
१५८ रौद्र ध्यान
२१५ लोभ के चार भेद और उनकी गैद्र ध्यान के चार प्रकार २१८ । उपमाएं रौद्र ध्यान के चार लक्षण २१६
१६१
वचन गुप्ति (म्ब) १२८ लक्षण की व्याख्या और भेद ६२ वचन योग लक्षण संवत्सर ४०० वरिहदसा लक्षणाभास की व्याख्या और वध भेद
१२० , वनस्पति के तीन भेद ७० लगण्डशायी
३५६ वनीपक की व्याख्या और भेद ३७३ लब्धि भावेन्द्रिय २५ वयः स्थविर
६१
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________________
[४]
बोल नम्बर | विपय
विपय
वर्षावास अर्थात् चौमासे के
पिछले ७० दिनों विहार करने
३३७
के पाँच कारण
वर्ण संज्वलनता विनय के चार
प्रकार
के पाँच भेद
वस्तु के स्व-पर चतुष्टय के चार
भेद
वाक् दुष्प्रणिधान
वागतिशय
वाचना
वाचना के चार अपात्र
वाचन के चार पात्र वाचना देने के पांच बोल
वादी के चार भेद
वादी चार
विकथा
विकथा की व्याख्या और
भेद
विक्षेपणा विनय के चार
और भेद
विचिकित्सा
२३७
३७४
२१०
३०६
(ख) १२६
३८१
२०७५
२०६
२८२
प्रकार
विक्षेपणी कथा की व्याख्या
|
विनय प्रतिपत्ति के चार
प्रकार
विनयवादी
विनय शुद्ध
विपरिणामना उपक्रम
विपरीत स्वप्न दर्शन
विपाक विचय
।
विपुनमति मनः पर्यय ज्ञान
विपर्यय
विमानों के तीन आधार
विरति
विरसाहार
विराधना
विरुद्ध राज्यातिक्रम
१६१ विवृत्त योनि
१६२ विशेष
२६१
विश्राम चार
विपय
१.८ वीरासनिक
वीर्याचार
२३२ atर्यान्तराय
बोल नम्बर
१५५ परिचय
२३४
१६१
२८५ वेदक समकित
विणीया (वैनयिकी) वुद्धि २०१ | वेद की व्याख्या और भेद
३२८
२४६
४२१
२२०
१४
६२१
११४
२६६
३५६
८७
३०३
६७
४१
१८७
२६१
वृहत्कल्प सूत्र का संक्षिप्त विषय
३५७
३२४
३८८
२०५
२८२
६८
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________________
३१०
२८३
३८६ ४१३
भेद
४१८
[ ५० ] विषय बोल नम्बर | विषय
बोल नम्बर वेदनीय कर्म के दो भेद ५१ शब्द रूप श्रुत धर्म वेदिका प्रतिलेग्वना के पांच 'शब्दानुपात
३२२ शम वैक्रिय बन्धन नाम कर्म ३६० शरीर की व्याख्या और वैक्रिय शरीर
३८९ उसके भेद वैदारिणी
२९५ शरीरानुगत वायु वैभाविक गुण ५५ शल्य तीन
१०४ वैराग्य की व्याख्या और उसके शाक्य
३७२ ६० शाश्वत अनन्तक व्यञ्जनावग्रह
५८ शिक्षा प्राप्ति में बाधक पांच व्यतिक्रम
२४४ कारण व्यय
६४ शिक्षात्रत चार व्यवसाय की व्याख्या और शीतयोनि
८५ शीतोष्ण (मिश्र) योनि ६७ व्यवसाय सभा
३६७ शील व्यवहार ३६ शुक्ल ध्यान
२१५ व्यवहार सूत्र का मंक्षिप्त विषय
शुक्ल ध्यान की चार भावनाएं २२६ परिचय
शुक्ल ध्यान के चार आलम्बन २२७ व्यवहार पाँच
शुक्ल ध्यान के चार लिङ्ग २२६ व्यवहार भापा
शुक्ल ध्यान के चार भेद २२५ व्यवहार राशि व्यवहार समकित
| शुक्ल पक्षी शुद्धपणिक
शूर पुरुष के चार प्रकार शंका
२८५ / श्रद्धा शनैश्चर संवत्सर ४०० श्रद्धान शुद्ध
३२८
भेद
३५४
१६३
१२७
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________________
विषय
श्रमण ( समरण, समन) की
चार व्याख्याएं
[ ५१ ]
बोल नम्बर विषय
१७८
श्रमणोपासक (श्रावक ) के तीन
मनोरथ
श्रमण वनोपक
श्रावक के चार प्रकार
श्रावक के अन्य चार प्रकार
श्रावक के चार विश्राम
श्रावक के पांच अभिगम
श्रावक के बारह व्रतों के
अतिचार
श्रुतज्ञान
श्रुतज्ञान
श्रुतज्ञान के दो भेद श्रुतज्ञानावरणीय
भूत धर्म
श्रुत धर्म के दो भेद श्रुत में राग
श्रुत विनय के चार प्रकार
श्रुत व्यवहार
श्रुत सामायिक
श्रेणी के दो भेद
श्रोत्रेन्द्रिय
श्वा वनीपक
३०१ से ३१२ तक
३७५
18:1
संक्रम (संक्रमण) की व्याख्या और उसके भेद
संख्यात जीविक वनस्पति
३७३
संख्या दत्तिक
३५४
१८४ | संघात नाम कर्म के पांच भेद ३६१
संज्ञा की व्याख्या और भेद १४२
८
१८५
१८८
३१४
1
I
I
संज्ञी
I
बोल नम्बर
संज्वलन
संभोगी साधुओं को अलग
करने के पांच बोल
सम्मोही भावना के पांच
प्रकार
संयतासंयती
१५
१६
३७८
संयती
१८० संयम
१६
संयम पांच
८१ संयुक्ताधिकरण २३१संयोजना
३६३ संयोजना प्रायश्चित्त
१६०
संरम्भ
६४
५६
संलेखना के पांच प्रतिचार ३१३
३६२
संवत्सर पांच
४००
३७३
संवृत बकुश
संवृत्त यो
२५०
१५८
३४५
४०६
६६
६६
३५१
२६८
३०८
३३०
२४५
३६८
६७
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________________
[ ५२ ] विवय बोल नवम | विषय
बोल नबबर मंवृत्त विवृत्त (मिश्र) योनि ६७ | सत्याणुव्रत (स्थूल मृपावाद संवेग
२८३ : विरमण व्रत) के पाँच अतिचार ३०२ मंगनी कथा की व्याल्या 'सत्यामृया (मिश्र) भापा २६६ और भेद
१५६ सदा विग्रह शीलता मंशय
१२१ सद्दहरणा चार संगुद्व बान दर्शन धागे
सद्भाव प्रतिपेध अरिहन जिन कंवली
३७१ समकिन मंमत
३४७ माकन को तीन शुद्धियाँ ८२ मंमन नप
१५ समकित के दो प्रकार से तीन मंमारी
८० मंमागे के दो भद ८ ममकित के तीन लिङ्ग ८१ मंमारी के चार प्रकार ५३० समकिन के पांच अतिचार २८५ समृष्ट कल्पिक ३५३ माकत के पांच भृपण २८४ नग्धान विचय
२०० समकिन के पांच भेद २८२ सकाम मरण
५३ समकिन के पांच लक्षण २८३ मचित्त निय ३१२ सम्यक्त्व के चार प्रकार से मचित्त पिधान
३१२ दो दो भेद सचित्त प्रतिवद्धाहार सचिन यानि सचित्तासचित्त (मिश्र) योनि ६७ । ममारम्भ सचित्ताहार
३०७ समारोप का लक्षण और भेद १२१ सत्ता
२५३ ममिति सत्ता का स्वरूप
६४ समिति पांच सत्य
२५१ समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती। मत्य भाषा २६६ शुक्ल ध्यान
२२५
३०६ समपादयुता ६७ समय
२२
३२३
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________________
२६९ साध्य ७६ सानक
१२६
[ ५३ । विषय बोल नम्बर | विषय
बोल नम्बर समुदान क्रिया २६६ साधु के द्वारा साध्वी को समुदेशाचार्य ३४१ ग्रहण करने या सहारा देने सम्मुर्छिम ६६ / के पांच बोल
३४० सम्मूर्छिम वायु ४१३ । साधु, साध्वी के एकत्र स्थान सम्यक्त्व
१९० शय्या निषद्या के पांच बोल ३३६ सम्यक्त्व सम्यग्ज्ञान
३७४ सम्यग्दर्शन
७६ | साम सम्यग्यचारित्र
se सामन्तोपनिपातिकी क्रिया २६४ सम्यग्दर्शन
सामान्य सर्वबन्ध
सामान्य के दो प्रकार से दो सर्वविरति
५६ सर्व विरति साधु के तीन
सामायिक चारित्र ३१५ मनोरथ सर्व विस्तार अनन्तक
मामायिक की व्याख्या और उसके भेद
१६० सहमाभ्याख्यान
३०२ सहायता विनय के चार प्रकार २३६
सामायिक व्रत के पांच सांशयिक मिथ्यात्व २८८ ।
अतिचार
३०६ मांसारिक निधि के पांच भेद ४०७, सामायिक शिक्षा व्रत सागरोपम के तीन भेद १०६ | सामायिक स्मृत्यकरण ३०६ सागरोपम
सारी पृथ्वी धूजने के तीन सागारी ‘शय्यादाता)अवग्रह ३३४
बोल साता गारव
सास्वादान समकित २८२ सातावेदनीय साधर्मिक अवग्रह
सिद्ध साधु
२७४ । सुख शय्या चार
भेद
सिद्ध
३३४
२७४
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________________
१६७ / स्थापिता
[ ५४ ] विषय बोल नम्बर | विषय
बोल नम्बर सुधर्मा सभा ३६७ । स्थापना निक्षेप
२०६
३२६ सुपात्र दान मुप्रत्याख्यान
स्थावर काय पांच
४१२
स्थिति की व्याख्या और भेद ३१ सुलभ बोधि
स्थिति प्रतिघात
४१६ मुलभ बोधि के पांच बोल २८७
स्थिति बन्ध सूक्ष्म
स्थूल अदत्ता दान का त्याग ३०० सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती शुक्ल
स्थूल मृपावाद का त्याग ३०० ध्यान
२२५ स्नातक
३६६ सूक्ष्म सम्पराय चारित्र ३१५ स्नातक के पांच भेद ३७१ सूत्र की वाचना देने के पांच स्पशनेन्द्रिय
३६२ बोल ३८२ स्पृष्टिजा क्रिया
२६४ सूत्र श्रृत धर्म १९ स्मृत्यन्तर्धान
३०६ मूत्र सीखने के पांच स्थान 343 स्वदार मंत्र भेद
३०२ सूत्र स्थविर
स्वदार सन्तोष
३००
स्वदार सन्तोष व्रत के पांच सूत्रागम
३०४ सोपक्रम आयु
३० म्वप्न दर्शन के पांच भेद ४२१ मोपक्रम कर्म
२७ स्वहस्तिकी सौत के समान श्रावक १८४ स्वाध्याय की व्याख्या और स्तेनप्रयोग ३०३ भेद
३८१ स्तेनाहृत
३०३ स्वाभाविक गुण स्त्यानगृद्धि
४१६ स्त्री कथा के चार भेद हस्ति शुण्डिका
३५८ स्त्री वेद
हाडाहड़ा स्थण्डिल के चार भांगे १८२
हास्य की उत्पत्ति के चार स्थलचर
स्थान
४०६ स्थानातिग
हास्योत्पादन
४०२
हिंसा दण्ड स्थविर तीन
२६० ६१ स्थाणु के समान श्रावक
हिरण्य सुवर्ण प्रमाणातिक्रम ३०५ १८५
४२ स्थापना अनन्तक ४१७ | हेतु
३२
८३ अतिचार .
२६४
५१
१४६ ।
८
३५७
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________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
प्रथम भाग
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* श्री वर्द्धमान स्वामिने नमः *
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
मंगलाचरण जयइ जग जीव जोणी बियाणो, जग गुरु जगाणंदो। जगणाहो जगवन्ध जयइ जगप्पियामहो भयवं ॥ १ ॥ जयइ सुप्राणं पभवो. तिन्थयगणं अपच्छिमो जयइ । जयइ गुरु लोगाणं जयइ महप्पा महावीगे ॥२॥
(श्री नन्दी मूत्र) भावार्थ:-सम्पूर्ण मंमार और जीवों के उत्पति के स्थान को जानने वाले तीर्थकर सदा विजयवन्त रहें । तीर्थकर भगवान् जगत् के गुरु, जगत् को आध्यात्मिक आनन्द देने वाले, जगत् के नाथ, जगन् के बन्धु तथा जगत् के पितामह हैं ॥१॥
द्वादशांग रूप वाणी के प्रकट करने वाले, तीर्थंकरों में अन्तिम नीर्थकर, त्रिलोक के गुरु तथा महात्मा भगवान् महावीर स्वामी मदा विजयवन्त रहें।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
पहला बोल
(बोल नम्बर १ से ६ तक) १-आन्मा-जो निरन्तर ज्ञानादि पर्यायों को प्राप्त होता है वह
आत्मा है । मब जीवों का उपयोग या चैतन्य रूप लक्षण एक हैं। अनः एक ही आत्मा कहा गया है।
(ठाणांग १, सूत्र २) २-ममकित-मज्ञ द्वाग प्ररूपित पारमार्थिक जीवादि पदार्थों
का श्रद्धान कग्ना ममकिन है । ममकित के कई प्रकार से भंद किये गये हैं । जैसेएगविह दुविह तिविहं. चउहा पंचविह दमविहं सम्म । दवाई काग्गाई. उवमम भएहिं वा मम्मं ॥१॥
(प्रवचन सारोद्धार ६४२ वीं गाथा ) अर्थात् यमकित के द्रव्य. भाव. उपशम आदि के भेद से एक दो तीन चार पांच तथा दम भेद होते हैं । ( इनका विस्तार आगे के बोलों में किया जायगा )
(तत्त्वार्थ सूत्र प्रथम अध्याय)
(पंचाशक अधिकार १) ३-दण्डः-जिमसे जीवों की हिंमा होती है। उसे दण्ड कहने
हैं । ( दण्ड दो प्रकार के हैं-द्रव्य और भाव । लकड़ी, शस्त्र आदि द्रव्य दण्ड हैं । और दुष्प्रयुक्त मन आदि भाव दण्ड हैं।)
(ठाणांग १ सूत्र ३) ४-जम्बूद्वीपः-निर्यक् लोक के अमंग्व्यान द्वीप और समुद्रों
के मध्य में स्थित और सब से छोटा, जम्बृवृक्ष से उप
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह लक्षित और मध्य में मेरु पर्वत से सुशोभित जम्बू द्वीप है। इसमें भगत, ऐरावत और महाविदेह ये नीन कर्म भूमि और हैमवत हैरण्यवत, हरिवर्ष रम्यकवर्ष, देवकुरु उत्तर कुरु, ये
छः अकर्म भूमि क्षेत्र हैं। इसकी परिधि तीन लाख मोलह हजार दो सौ मत्ताईस योजन तीन कोम एक सौ अट्ठाईम धनुष तथा माहे नेरह अंगुल से कुछ अधिक है ।
(ठाणांग १ सूत्र ५२)
(सभाप्य तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ३) ५-प्रदेशः स्कन्ध या देश में मिले हुए द्रव्य के अति सूक्ष्म
( जिसका मग हिस्मा न हो सके ) विभाग को प्रदेश कहते हैं।
(ठाणांग १ सूत्र ४५) ६-परमाणुः स्कन्ध या देश से अलग हुए पुद्गल के अतिसूक्ष्म निश भाग को परमाणु कहते हैं ।
(ठाणांग १ सूत्र ४५)
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
दूसरा बोल
(बोल नम्बर ७ से १२ तक ) ७ ( क ) गशि की व्याग्न्या
गशिः-वस्तु के समूह को गशि कहते हैं । गशि के दो भंढः(१) जीव गशि ( २ ) अजीव राशि ।
(समवायांग १४६ ) ७ ( ख ) जावः-जो चेतनायुक्त हो तथा द्रव्य और भाव प्राण
वाला हो उसे जीव कहते हैं। जीव के दो भेद हैं।
(१) ममार्ग ( २ ) मिद्ध मंमाग-कर्मों के चक्र में फस कर जो जीव चौवाम दण्डक
और चार गनियों में परिभ्रमण करता है उस मंमागे
कहते हैं। सिद्ध-सर्व कर्मों का क्षय करके जो जन्म मरण रूप मंमार स मुक्त हो चुके हैं उन्हें सिद्ध कहते हैं ।
(ठाणांग २ सूत्र १०१)
(तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २ मत्र १०) :-नव प्रकार से मंमागे जाव के दो दो भदः१ त्रम
२ स्थावर १ मूम
२ बादर १ पर्याप्त
२ अपर्याप्त १ मंज्ञा
२ अमझो १ पग्नि ( अल्प ) समाग २ अनन्त संमागे १ मुलभ बोधि २ दुर्लभ बोधि
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श्री जैन सिद्धान्त बोल मंग्रह
१ कृष्णपक्षा
२ शुक्लपक्षो १ भवमिद्धिक
२ अभवमिद्धिक १ आहारक
२ अनाहारक त्रमः-त्रम नामकर्म के उदय से चलने फिरने वाले जीव को त्रम
कहते हैं । अग्नि और वायु, गति की अपेक्षा त्रम माने
गये हैं। स्थावर:-स्थावर नाम कर्म के उदय से जो जीव पृी, पानी आदि एकेन्द्रिय में जन्म लेते हैं । उन्हें स्थावर कहने हैं।
(ठाणांग पत्र १०१) मून्मः-मूक्ष्म नाम कर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर
अत्यन्त मूक्ष्म अर्थात् चर्यचक्षु का अविषय हो उन्हें सूक्ष्म
कहते हैं। बादरः-चादर नाम कर्म के उदय से वादर अर्थान् स्थूल शोर __ वाले जीव बादर कहलाने हैं।
___ (ठाणांग २ सूत्र ७३) पर्याप्तकः-जिम जीव में जिननी पर्याप्तियों मम्भव हैं । वह जब
उतनी पर्याप्तियों पूरी कर लेना है तब उस पर्याप्तक कहते हैं । एकेन्द्रिय जीव स्वयोग्य चारों पर्याप्तियों ( आहार, शरीर, इन्द्रिय, और श्वामोच्छवाम) पूरी करने पर. द्वीन्द्रिय, बोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और अमंज्ञी पंचेन्द्रिय, उपयुक्त चार
और पांचवी भाषा पर्याप्ति पूरी करने पर तथा मंज्ञी पंचेन्द्रिय उपयुक्त पांच और छठी मनः पर्याप्ति पूरी करने पर पर्याप्तक कहे जाते हैं।
लाग९
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला अपर्याप्तक:-जिम जीव की पर्याप्तियों पूरी न हों वह अपर्याप्तक कहा जाता है।
जीव तीन पर्याप्तियों पूर्ण करके ही मरते हैं पहले नहीं क्योंकि आगामी भव की आयु बांध कर ही मृत्यु प्राप्त करने हैं। और आयु का बन्ध उन्हीं जीवों को होता है जिन्होंने आहार, शरीर और इन्द्रिय ये तीन पर्याप्तियों पूर्ण करली हैं।
... (ठाणांग २ मूत्र ७६) मंत्री:-जिन जीवों के मन हो वे मंत्री हैं। अमंजी:-जिन जीवों के मन नहीं हो वे अमंज्ञी हैं।
(ठाणांग २ सूत्र ७६ ) परित मंमारी:-जिन जीवों के भव परिमित हो गये हैं । वे
पग्नि मंमारी हैं । अर्थान् अधिक से अधिक अर्द्ध पुद्गल पगवतन काल के अन्दर जो अवश्य मोक्ष में जावेंगे वे
परित (अल्प) मंमारी हैं। अनन्त मंमार्गः-जो जीव अनन्त काल तक मंमार में परिभ्रमण
करते रहेंगे अर्थात् जिन जीवों के भवों की संख्या मीमित नहीं हुई है वे अनन्न संमागे हैं । यथाःजे पुण गुरुपडिणीया बहुमोहा, समबला कुसीलाय । असमाहिणा मांति उ, ने हुंति अणंत संसारी ॥१॥
(आतुर प्रत्याख्यान पयन्ना) भावथः-गुरु के अवणवाद आदि कह कर प्रतिकूल आचरण करने वाले, बहुत मोह वाले, शवल दोष वाले, कुशीलिये
और असमाधि मरण स मरने वाले जीव अनन्त संसारी होते हैं।
(ठाणांग २ सूत्र ७६)
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह मुलभ बोधिः-परभव में जिन जीवों को जिन धर्म की प्राप्ति
सुलभ हो उन्हें सुलभ बोधि कहते हैं। दुर्लभ बोधिः-जिन जीवों को जिनधर्म दुष्प्राप्य हो उन्हें दुर्लभ बोधि कहते हैं।
(ठाणांग २ सूत्र ) कृष्ण पाक्षिकः-जिन जीवों के अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल से
अधिक काल तक मंमार में परिभ्रमण करना बाकी है । वे
कृष्णपाक्षिक कहे जाते है। शुक्ल पाक्षिक:-जिन जीवों का संसार परिभ्रमण काल अर्द्ध
पुद्गल पगवतन या उमसे कम बाकी रह गया है । वे शुक्ल पाक्षिक कहे जाते हैं।
(भगवती शतक १३ उडेशा १ की टीका) भवसिद्धिक:-जिन जीवों में मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता होती
है वे भवमिद्धिक कहलाते हैं। अभव मिद्धिकः-जिन जीवों में मोक्ष प्राप्ति की योग्यता नहीं है वे अभव मिद्धिक (अभव्य) कहलाते हैं।
(ठाणांग २ सूत्र ७६ )
(श्रावक धर्म प्रज्ञप्ति ६६-६७) आहारकः-जो जीव मचित्त, अचित्त और मिश्र अथवा ओज,
लोम और प्रक्षेप आहार में से किसी भी प्रकार का आहार
करता है । वह अाहारक जीव है। अनाहारकः-जो जीव किसी भी प्रकार का आहार नहीं करता वह अनाहारक है।
विग्रह गति में रहा हुआ, केवली समुद्धात करने वाला, चौदहवे गुणस्थानवर्ती और मिद्ध ये चारों अनाहारक हैं।
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श्री सठिया जैन ग्रन्थमाला केवली समुद्रात के आठ ममयों में से तीसरे, चौथे और पांचवे समय में जीव अनाहारक रहता है ।
(ठाणांग २ सूत्र ७६) ह-निगोदः-माधारण नाम कम के उदय से एक ही शरीर को
आश्रित करके जो अनन्त जीव रहते हैं वे निगोद कहलाने हैं । निगोद के जीव एक ही माथ आहार ग्रहण करने हैं। एक माथ श्यामोच्छवाम लेने हैं और माथ हो आयु बांधने
हैं और एक ही माय शरीर छोड़ने हैं । निगोदके दो भेद हैं--(१) व्यवहार गशि (२) अव्यवहार गशि । व्यवहार गशि:--जिन जोयों ने एक सार भी निगोद अवस्था
छोड़ कर दुमा जगह जन्म निया है ये व्यवहार गशि हैं। ग्रव्यवहार गशिः--जिन जीवों ने कभी भी निगोद अवस्था
नहीं छोड़ी है जो अनन्त काल से निगोद में हा पड़े हुए हैं व अव्यवहार गशि हैं।
(मैन प्रश्न उल्लाम २-४) ५०-मम्यक्य के चार प्रकार से दो दो भेद ।
१ दव्य सम्यक्त्व २ भाव सम्यक्त्व १ निश्चय सम्यक्त्व २ व्यवहार सम्यक्त्व १ नैसर्गिक सम्यवन्ध २ आधिगमिक सम्यक्त्व
१ पाद्गलिक सम्यक्त्व २ अयोद्गलिक मम्यक्त्व द्रव्य सम्यक्त्वः -विशुद्ध किये हुए मिथ्यात्व के पुद्गलों को
द्रव्य सम्यक्त्व कहने हैं। नावमम्यक्त्रः--जैसे उपनेत्र (चश्मे) द्वारा आंखें पदार्थों को
•पट रूप स देख लेना है उसी तरह विशुद्ध किये हुए
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श्री जैन सिद्धान्त बाल संग्रह पुद्गलों के द्वारा आत्मा को केवली प्ररूपित तच्चों में जो रुचि (श्रद्धा) होती है वह भावसम्यक्त्व है।
(प्रवचन सारोद्धार गाथा १४२) निश्रय सम्यक्त्वः-आत्मा का वह परिणाम जिसके होने से ज्ञान
विशुद्ध होता है उसे निश्चय सम्यक्त्व कहते हैं । अथवा अपनी आत्मा को ही देव, गुरु और धर्म समझना निश्चय
सम्यक्त्व है।
व्यवहार सम्यक्त्वःसुदेव, सुगुरु और सुधर्म पर विश्वास करना
व्यवहार सम्यक्त्व है। प्रवचन सारोद्धार गाथा ६४३ की टीका में निश्चयसम्यक्त्व
और व्यवहार सम्यक्त्व की व्याख्या यों दी है। १-देश, काल और संहनन के अनुसार यथाशक्ति शास्त्रोक्त संयम पालन रूप मुनिभाव निश्चय सम्यक्त्व है। २–उपशमादि लिङ्ग से पहिचाना जाने वाला शुभ आत्मपरिणाम व्यवहार सम्यक्त्व है। इसी प्रकार सम्यक्त्व के कारण भी व्यवहार सम्यक्त्व ही है।
(कर्मग्रन्थ पहला गाथा १५ वी) नैसर्गिक सम्यक्त्व:-पूर्व क्षयोपशम के कारण, विना गुरु उपदेश
के स्वभाव से ही जिनदृष्ट ( केवली भगवान् के देखे हुए ) भावों को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और नाम आदि निक्षेपों की अपेक्षा से जान लेना, श्रद्धा करना निसर्ग समकित है। जैसे मरुदेवी माता।
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________________
१०
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला आधिगमिक सम्यक्त्व:-गुरु आदि के उपदेश से अथवा अङ्ग
उपांग आदि के अध्ययन से जीवादि तत्त्वों पर रुचि-श्रद्धा होना आधिगमिक ( अभिगम ) मम्यक्त्व है।
(ठाणांग २ सूत्र ६०) __ (पन्नवणा पहला पद)
(तत्त्वार्थ सूत्र प्रथम अध्याय) पोद्गलिक सम्यक्त्व:-क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को पौद्गलिक
सम्यक्त्व कहते हैं क्योंकि क्षायोपशमिक मम्यक्त्व में सम
कित मोहनीय के पुद्गलों का वेदन होता है। अपौद्गलिक सम्यक्त्व-क्षायिक और औपशमिक समकित को
अपौद्गलिक सम्यक्त्व कहते हैं। क्योंकि इसमें समकित मोहनीय का सर्वथा नाश अथवा उपशम हो जाता है वेदन नहीं होता है।
(प्रवचन सारोद्धार गाथा ६४२ टीका) ११-उपयोगः-मामान्य या विशेष रूप से वस्तु को जानना
उपयोग है। उपयोग के दो भेद हैं। (१) ज्ञान (२) दर्शन । ज्ञान:-जो उपयोग पदार्थों के विशेष धर्मों का जाति, गुण,
क्रिया आदि का ग्राहक हैं वह ज्ञान कहा जाता है। ज्ञान को
साकार उपयोग कहते हैं। दर्शनः --जो उपयोग पदार्थों के मामान्य धर्म का अर्थात् सत्ता
का ग्राहक है। उसे दर्शन कहते हैं। दर्शन को निराकार · उपयोग कहते हैं।
(पन्नवणा पद २८) १२-ज्ञान के दो भेदः-(१) प्रत्यक्ष (२) पगेन ।
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श्री जैन सिद्धान गोल संग्रह प्रत्यनः-इन्द्रिय और मन की महायता के विना माक्षान् आत्मा
से जो ज्ञान हो वह प्रत्यक्ष ज्ञान है । जैस अवविज्ञान मन:पर्यय ज्ञान और केवल ज्ञान।
(श्री नन्दीसूत्र) यह व्याख्या निश्चय दृष्टि से है। व्यवहारिक दृष्टि से तो
इन्द्रिय और मन से होने वाले ज्ञान को भी प्रत्यक्ष कहते हैं। परोक्षज्ञान-इन्द्रिय और मन की महायता से जो ज्ञान हो वह
परोक्ष ज्ञान है । जैसे मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ।
अथवा
जो ज्ञान अस्पष्ट हो (विशद न हो)। उसे परोक्ष ज्ञान कहते हैं । जैसे स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि ।
(ठाणांग २ उद्देशा १ सूत्र ७१) १३-अवधिज्ञान की व्याख्या और भेदः
इन्द्रिय और मन की महायता के विना द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भाव को मर्यादा पूर्वक जो ज्ञान रूपी पदार्थों को जानता है । उस अवविज्ञान कहते हैं। अवधिज्ञान के दो भेदः-(१) भव प्रत्यय (२) क्षयोपशम प्रत्यय । भवप्रत्यय अवधिज्ञान:-जिस अवधिज्ञान के होने में भव हो
कारण हो उस भव प्रत्यय अववि ज्ञान कहते हैं। जैसेनारकी और देवताओं को जन्म से हो अवधिज्ञान
होता है। क्षयोपशम प्रत्यय अवधिज्ञान:-ज्ञान.' तप आदि कारणों से
मनुष्य और तिर्यश्चों को जो अवधिज्ञान होता है उसे
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला क्षयोपशम प्रत्यय अवविज्ञान कहते हैं । यही ज्ञान गुण प्रत्यय या लब्धि प्रत्यय भी कहा जाता है।
(ठाणांग २ उद्देशा १ सूत्र ७१) १४-पनःपर्यय ज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा पूर्वक जो ज्ञान मंज्ञी जीवों के मन में रहे हुए भावों को जानता है उसे मनःपर्यय
ज्ञान कहते हैं। मनःपर्यय ज्ञान के दो भेदः (१) ऋजुमति (२) विपुलमति । अनुमति मनःपर्यय ज्ञानः-दूसरे के मन में मोचे हुए भावों को सामान्य रूप से जानना ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान है । जैसे
अमुक व्यक्ति ने घड़ा लाने का विचार किया है। विपुलमति मनः पर्यय ज्ञान:-दूसरे के मन में सोचे हुए पदार्थ
के विषय में विशेष रूप से जानना विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान है । जैसे अमुक ने जिस घड़े को लाने का विचार किया है वह घड़ा अमुक रङ्ग का, अमुक आकार वाला, और अमुक समय में बना है। इत्यादि विशेप पर्यायों-अवस्थाओं को जानना।
(ठाणांग २ उद्देशा १ सूत्र ५१) १५-परोक्ष ज्ञान के दो भेदः--
(१) आभिनित्रोधिक ज्ञान ( मतिज्ञान ) (२) श्रुतज्ञान । आभिनियोधिक ज्ञानः-पांचों इन्द्रियों और मन के द्वारा योग्य देश में रहे हुए पदार्थ का जो ज्ञान होता है वह आभिनिवोधिका
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श्री जैन सिद्धान्त बोज मंग्रह
ज्ञान या मतिज्ञान कहलाता है ।
(पनवरणा पद २६ ) (ठाणांग २ उद्देशा १ सूत्र ७१)
श्रुतज्ञानः - शास्त्रों को सुनने और पढ़ने से इन्द्रिय और मन के
द्वारा जो ज्ञान हो वह श्रुतज्ञान है ।
१३
( भगवती शतक ८ उद्देशा २ ) अथवा
1
मतिज्ञान के बाद में होने वाले एवं शब्द तथा अर्थ का विचार करने वाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं । जैसे "घट" शब्द सुनने पर उसके बनाने वाले का उसके रङ्ग और आकार आदि का विचार करना । ( ठाणांग २ उद्देशा १ सूत्र ७१ ) ( कर्म ग्रन्थ प्रथम भाग )
( नन्दी सूत्र )
१६- श्रुतज्ञान
के दो भेद:(१) अङ्गप्रविष्ट श्रुतज्ञान । ( २ ) अंग बाह्य श्रुतज्ञान । अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञान -- जिन आगमों में गणधरों ने तीर्थंकर भग वान् के उपदेश को ग्रथित किया है । उन आगमों को प्रविष्ट श्रुतज्ञान कहते हैं। आचाराङ्ग आदि बारह अङ्गों का ज्ञान अङ्ग प्रविष्ट श्रुतज्ञान है ।
अङ्गवाद्य श्रुतज्ञान:-- द्वादशांगी के बाहर का शास्त्रज्ञान अङ्ग बाह्य श्रुतज्ञान कहलाता है । जैसे दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि ।
--
( नन्दी सूत्र ४४ )
( ठाणांग २ उद्देशा १ सूत्र ७१ )
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श्री सेठिया जैन मन्थमाला १७-नय के दो भेद
(१) द्रव्यार्थिक नय (२) पर्यायाथिक नय । द्रव्यार्थिक नयः-जो पर्यायों को गौण मान कर द्रव्य को ही
मुख्यतया ग्रहण कर उसे द्रव्यार्थिक नय कहते हैं । पर्यायार्थिक नयः-जो द्रव्य को गौण मान कर पर्यायों को ही मुख्यतया ग्रहण करे उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं।
(प्रमाणनयतन्वालोकालकार परिच्छेद ७) १८-धर्म की व्याख्या और उसके भेदः(१) जो दुर्गति में गिरने हुए प्राणी को धारण करे और मुगति में पहुंचावे उस धर्म कहते हैं।
(दशकालिक अध्ययन १ गाथा १ की टीका)
__अथवा(२) आगम के अनुमार इस लोक और परलोक के मुख के
लिए हेय को छोड़ने और उपादेय को ग्रहण करने की जीव की प्रवृति को धर्म कहते हैं।
(धर्मसंग्रह)
अथवा
(३) वत्थु महावो धम्मो, म्वन्ती पमुहो दसविहो धम्मो।
जीवाणं रक्खणं धम्मो, रयणतयं च धम्मो ।। (१) वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं । (२) क्षमा, निलोंभता आदि दस लक्षण रूप धर्म है । (३) जीवों की रक्षा करना-बचाना यह भी धर्म है । (४) मम्यग ज्ञान, सम्यक्दर्शन और मम्यगचारित्र रूप रत्नत्रय को भी धर्म कहते हैं।
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श्री जैन सिद्धान बोल मंग्रह मार्गश-जिस अनुष्टान या कार्य से निःश्रेयम-कल्याण की
प्राप्ति हो वही धर्म है।
धर्म के दो भेद हैं । (१) श्रुतधर्म (२) चारित्र धर्म । श्रुतधर्म-अंग और उपांग रूप वाणी को श्रुतधर्म कहने
हैं। वाचना, पृच्छना, आदि स्वाध्याय के भेद भी श्रुत
धर्म कहलाते हैं। चारित्र धर्म:-कर्मों के नाश करने की चेष्टा चारित्र धर्म है।
अथवा:मूल गुण और उत्तर गुणों के समूह को चारित्र धर्म कहते हैं। अर्थात् क्रिया रूप धर्म ही चारित्र धर्म है ।
(ठाणांग २ उद्देशा १ मत्र ७२) १४-श्रुतधर्म के दो भेदः-(१) सूत्रश्रुतधर्म (२) अर्थ श्रत धर्म ।
सूत्र श्रुतधर्म-(शब्द रूप श्रुतधर्म) द्वादशांगी और उपांग
आदि के मूलपाठ को सूत्रश्रुतधर्म कहते हैं। अर्थश्रुत धर्म--द्वादशांगी और उपांग आदि के अर्थ को अर्थश्रुत धर्म कहते हैं।
(ठाणांग २ उद्देशा १ मूत्र ७२ ) २०-चारित्र धर्म के दो भेदः
(१) अगार चारित्र धर्म (२) अनगार चारित्र धर्म । अगार चारित्र धर्मः अगारी (श्रावक) के देश विति धर्म
को अगार चारित्र धर्म कहते हैं। अनगार चारित्र धर्मः-अनगार (साधु) के मर्व विरति धर्म
को अनगार चारित्र धर्म कहते हैं । सर्व विरति रूप धर्म में-तीन करण तीन योग से त्याग होता है।
(ठाणांग २ उद्देशा १ मूत्र ७२ )
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श्री सेटिया जैन ग्रन्थमाला २१-ऊनोदरी की व्याख्या और भेदः---भोजन आदि के परि
माण और क्रोध आदि के आवेग को कम करना ऊनोदरी है।
ऊनोदरी के दो भेद (१) द्रव्य ऊनोदरी (२) भाव ऊनोदरी । द्रव्य ऊनोदरी:-भंड उपकरण और आहार पानी का शास्त्र
में जो परिमाण बतलाया गया है उसमें कमी करना द्रव्य ऊनोदरी है। अतिमग्म और पौष्टिक आहार उनोदगे में वर्जनीय है।
(भगवती शतक ७ उद्देशा १) भाव ऊनोदरी:-क्रोध, मान, माया और लोभ में कमी करना,
अल्प शब्द बोलना, क्रोध के वश होकर भाषण न करना तथा हृदय में रहे हुए क्रोध को शान्त करना आदि भाव ऊनोदरी है।
(भगवती शतक २५ उद्देशा ७) २२-प्रवचन माता:-पांच ममिति, तीन गुप्ति को प्रवचन माता
कहते हैं । द्वादशांग रूप वाणी ( प्रवचन ) शास्त्र की जन्म दात्री होने से माता के समान यह माना है। इन्हीं आठ प्रवचन माता के अन्दर सारे शास्त्र समा जाते हैं ।
प्रवचन माता के दो भेद-(१) समिति ( २ ) गुप्ति समितिः-प्राणातिपात से निवृत्त होने के लिए यतना पूर्वक मन,
वचन, काया की प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। गुमिः-मन, वचन, काया के शुभ और अशुभ व्यापार को रोकना या आते हुए नवीन कर्मों को रोकना गुप्ति है ।
(उत्तराध्ययन अध्ययन २४)
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श्री जैन सिद्धान्त बोल मंग्रह
१७
२३ - इन्द्रिय को व्याख्या और मंद: - इन्द्र अर्थात् आत्मा जिससे पहचाना जाय उसे इन्द्रिय कहते हैं । जैसे एकेन्द्रिय जीव स्पर्शनेन्द्रिय से पहचाना जाता हैं 1
इन्द्रिय के दो भेदः - ( १ ) द्रव्येन्द्रिय ( २ ) भावेन्द्रिय । द्रव्येन्द्रियः - चतु आदि इन्द्रियों के बाह्य और आभ्यन्तर पौद्
गलिक आकार ( रचना ) को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं । भावेन्द्रियः — आत्मा ही भावेन्द्रिय हैं । भावेन्द्रिय लब्धि और उपयोग रूप होती है ।
( पनवरा पद १५ ) ( तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २ )
२४-द्रव्येन्द्रिय के दो भेद:
(१) निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय ( २ ) उपकरण द्रव्येन्द्रिय निवृत्ति द्रव्येन्द्रियः इन्द्रियों के आकार विशेष को निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय कहते हैं।
उपकरण द्रव्येन्द्रिय:- दर्पण के समान अत्यन्त स्वच्छ पुद्गलों की रचना विशेष को उपकरण द्रव्येन्द्रिय कहते हैं । उपकरण द्रव्येन्द्रिय के नष्ट हो जाने पर आत्मा विषय को नहीं जान सकता ।
( तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २ ) २५- भावेन्द्रिय के दो भेद: - ( १ ) लब्धि ( २ ) उपयोग लब्धि भावेन्द्रिय: - ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के क्षयोपशम होने पर पदार्थों के ( विषय के) जानने की शक्ति को लब्धिभावेन्द्रिय कहते है ।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला उपयोग भावेन्द्रियः-ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के क्षपोपशम
होने पर पदार्थों के जानने रूप आत्मा के व्यापार को
उपयोग भावेन्द्रिय कहते हैं। जैसे-कोई साधु मुनिराज द्रव्यानुयोग, चरितानुयोग, गणिता
नुयोग, धर्म कथानुयोग रूप चारों अनुयोगों के ज्ञाता हैं पर वे जिस समय द्रव्यानुयोग का व्याख्यान कर रहे हैं। उस समय उनमें द्रव्यानुयोग उपयोग रूप से विद्यमान है। एवं शेष अनुयोग लब्धि रूप से विद्यमान हैं।
(तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २) २६-बंधन की व्याख्या और भेदः-जिसके द्वारा कर्म और
आत्मा क्षीर नीर की तरह एक रूप हो जाते हैं उसे बंधन कहते हैं।
बंधन के दो भेदः-(१) राग बंधन (२) द्वेष बंधन । राग बंधन:-जिससे जीव अनुरक्त-आसक्त होता है उसे गग
बंधन कहते हैं । राग से होने वाले बंधन को गगबंधन कहते हैं।
(ठाणांग २ उद्देशा ४ सूत्र ६४) २७-कर्म की व्याख्या और भेदः-जीव के द्वारा मिथ्यात्व,
कषाय आदि हेतु से जो कार्मण वर्गणा ग्रहण की जाती है उसे कर्म कहते हैं। यह कार्मण वर्गणा एक प्रकार की अत्यन्त सूक्ष्म रज यानि पुद्गल स्कन्ध होती है। जिसे इन्द्रियों सूक्ष्मदर्शक यंत्र (माइक्रोस कोप) के द्वारा भी नहीं जान सकती हैं । सर्वज्ञ या परम अवधिज्ञानी ही उसे जान सकते हैं।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल मंग्रह कर्म के दो भेदः-(१) घाती कर्म (२) अघाती कर्म
(१) सोपक्रम कर्म (२) निरुपक्रम कर्म घाती कर्म:-जो कर्म आत्मा के स्वाभाविक गुणों का घात करे वह घाती कर्म है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय
और अन्तराय ये चार घाती कर्म हैं। इनके नाश हुए विना केवल ज्ञान नहीं हो सकता।
(हरिभद्रीयाष्टक ३०) अघाती कर्म:-जो कर्म आत्मा के स्वाभाविक गुणों का घात
नहीं करते वे अघाती कर्म हैं । अघाती कर्मों का अमर आत्मा की वैभाविक प्रकृति, शरीर, इन्द्रिय, आयु आदि पर होता है । अघाती कर्म केवलज्ञान में बाधक नहीं होते। जब तक शरीर है तब तक अघाती कर्म भी जीव के साथ ही रहते हैं। वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चारों अघाती कर्म हैं।
(कम्मपयड़ि पृष्ठ ६ टीका) मोपक्रम कम:-जिम कर्म का फल उपदेश आदि से शान्त हो
जाय वह मोपक्रम कर्म है। निरूपक्रम कर्म:-जो कर्म बंध के अनुसार ही फल देता है वह निरुपक्रम कर्म है। जैसे निकाचित कर्म ।
(विपाक सूत्र अध्ययन ३) २८-मोहनीय कर्म की व्याख्या और भेदः-जो कर्म आत्मा की
हित और अहित पहचानने और तदनुसार आचरण करने करने की बुद्धि को मोहित (नष्ट) कर देता है । उसे मोह
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श्री सेटिया जैन प्रथमाला मोहनीय कर्म कहते हैं । जस मदिग मनुष्य के मद् अमद्
विवेक को नष्ट कर देता है। मोहनीय कर्म के दो भेदः___ (१) दर्शन मोहनीय (२) चाग्नि मोहनीय । दर्शन मोहनीय:-जो पदार्थ जैमा है उसे उमी रूप में समझना
यह दर्शन है अर्थात् तत्त्वार्थ श्रद्धान को दर्शन कहते हैं। यह आत्मा का गुण है । इस गुण के मोहित (धात) करने वाले कर्म को दर्शन मोहनीय कहते हैं। मामान्य उपयोग
रूप दर्शन से यह दर्शन भिन्न है। चारित्र मोहनीयः-जिसके द्वारा आत्मा अपने अमली स्वरूप को
पाता है उसे चारित्र कहते हैं । यह भी आत्मा का गुण है। इसको मोहित (घात) करने वाले कर्म को चारित्र मोहनीय कहते हैं।
(टाणांग २ उद्देशा ४ मूत्र १०५ )
(कर्म ग्रन्थ पहला १३. १४ गाथा ) २१-चारित्र मोहनीय के दो भेदः
(१) कपाय मोहनीय (२) नोकपाय मोहनीय कषाय मोहनीय:-कप अर्थान् जन्म मरण रूप मंमार की प्राप्ति जिमके द्वाग हो वह कपाय है।
(कर्मग्रन्थ पहला)
अथवा आत्मा के शुद्ध स्वभाव को जो मलिन करता है उसे कषाय कहते हैं । कषाय ही कषाय मोहनीय है।
(पानवणा पद १४ टीका)
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
नोकषाय मोहनीयः - कषायों के होता है वे नोकपाय हैं । वाले (उत्तेजित करने वाले) मोहनीय कहते हैं।
२१
उदय के साथ जिनका उदय अथवा —— कषायों को उभाड़ने हास्यादि नवक को नोकषाय
( कर्मग्रन्थ पहला गाथा १७ )
३० - आयु की व्याख्या और भेद:- जिसके कारण जीव भव विशेष में नियत शरीर में नियत काल तक रुका रहे उसे कहते हैं ।
आयु के दो भेदः - (१) सोपक्रम आयु (२) निरुपक्रम आयु । सोपक्रम आयु:- जो आयु पूरी भोगे बिना कारण विशेष ( सात
कारण) से अकाल में टूट जाय वह सोपक्रम आयु है । निरुपक्रम :- जो आयु बंध के अनुसार पूरी भोगी जाती है बीच में नहीं टूटती वह निरुपक्रम आयु है। जैसे तीर्थंकर, देव, नारक आदि की आयु ।
( सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम अध्याय २ ) ( भगवती शतक २० उद्देशा १० )
३१- स्थिति की व्याख्या और भेद:काल मर्यादा को स्थिति कहते हैं ।
स्थिति के दो भेदः - (१) कायस्थिति (२) भवस्थति ।
काय स्थिति:- किसी एक ही काय ( निकाय) में मर कर पुनः उसी में जन्म ग्रहण करने की स्थिति को कायस्थिति कहते हैं। जैसे:- पृथ्वी आदि के जीवों का पृथ्वी काय से चव कर पुनः असंख्यात काल तक पृथ्वी ही में उत्पन्न होना ।
-
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला भवस्थिति:-जिस भव में जीव उत्पन्न होता है उसके उमी भव की स्थिति को भवस्थिति कहते हैं।
(ठाणांग २ उद्देशा ३ सूत्र ८५) ३२-काल के भेद और व्याख्या:--पदार्थों के बदलने में जो
निमित्त हो उसे काल कहते हैं । अथवा:--समय के समूह
को काल कहते हैं। काल की दो उपमायें:--(१) पल्योपम (२) मागगेपम । पल्योपमः-पल्य अर्थात् कूप की उपमा से गिना जाने वाला
काल पन्योपम कहलाता है। मागरोपमः--दम कोडाकोड़ी पन्योपम को मागरोपम कहते हैं।
(ठाणांग २ उद्देशा ४ सूत्र ) ३३-काल चक्र के दो भेदः-(१) उत्सर्पिणी (२) अवमर्पिणी। उत्सर्पिणी:--जिम काल में आयु, शरीर, बल आदि की उत्तगे
तर वृद्धि होती जाय वह उत्सर्पिणी हैं । यह दम कोड़ाकोड़ी
सागगेपम का होता है। अवसर्पिणी:-जिम काल में आयु, बल, शरीर आदि भाव उत्त
रोनर घटते जाय वह अवमर्पिणी है। यह भी दम कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है।
(ठाणांग २ उद्देशा १ सूत्र ७४) ३४-आकाश:-जो जीव और पुद्गलों को रहने के लिए स्थान
दे वह आकाश है। आकाश के दो भेदः-(१) लोकाकाश (२) अलोकाकाश ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
२३ लोकाकाशः--जहां धर्मास्तिकाय आदि छः द्रव्य हों वह लोका
काश है। अलोकाकाश:--जहां आकाश के सिवा और कोई द्रव्य न हो वह अलोकाकाश है।
(ठाणांग २ उद्देशा १ सूत्र ७४) ३५-कारणके दो भेदः
(१) उपादान कारण (२) निमित्त कारण । उपादान कारण:-(ममवायी) जो कारण स्वयं कार्य रूप में
परिणत होता है उसे उपादान कारण कहते हैं । जैसे मिट्टी, घड़े का उपादान कारण हैं। अथवा दूध, दही का उपादान
कारण है। निमित्त कारण:--जो कारण कार्य के होने में सहायक हो और
कार्य के हो जाने पर अलग हो जाय उसे निमित्त कारण कहते हैं। जैसे घड़े के निमित्त कारण चक्र (चाक), दण्ड आदि हैं।
(विशेषावश्यक भाष्य गाथा २०६९) ३६-दंड के दो भेद--(१) अर्थदण्ड (२) अनर्थ दण्ड । अर्थदण्ड:-अपने और दूसरे के लिए बस और स्थावर जीवों
की जो हिंसा होती है उसे अर्थदण्ड कहते हैं । अनर्थदण्डः-विना किसी प्रयोजन के जीव हिमा रूप कार्य करना अनर्थ दण्ड है।
(ठाणांग २ उद्देशा १ सूत्र ६६) ३७-प्रमाणः-अपना और दूसरे का निश्चय करनेवाले सच्चे
ज्ञान को प्रमाण कहते हैं । प्रमाण ज्ञान वस्तु को सब
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला दृष्टि-बिन्दुओं से जानता है अर्थात् वस्तु के सत्र अंशों को जानने वाले ज्ञान को प्रमाण ज्ञान कहते हैं ।
(प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार परिच्छेद १) नयः -प्रमाण के द्वारा जानी हुई अनन्त-धर्मात्मक वस्तु के
किमी एक अंश या गुण को मुख्य करके जानने वाले ज्ञान को नय कहते हैं । नयज्ञान में वस्तु के अन्य अंश या गुणों की ओर उपेक्षा या गौणता रहती है।
(प्रमाणनयनत्त्वालोकालङ्कार परिच्छेद ७) ३८-मुख्यः-पदार्थ के अनेक धर्मों में से जिम ममय जिम धर्म
की विवक्षा होती है। उस समय वही धर्म प्रधान माना जाता है। इसी तरह अनेक वस्तुओं में विवक्षित वस्तु प्रधान
होती है । प्रधान को ही मुख्य कहते हैं । गौणः-मुख्य धर्म के सिवाय सभी अविवक्षित धर्म गौण कहलाते
हैं। इसी तरह अनेक वस्तुओं में से अविवक्षित वस्तु भी गौण कहलाती है। जैसे:-आत्मा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि अनन्त धर्म हैं । उनमें से जिम समय ज्ञान की विवक्षा होती है । उम ममय ज्ञान मुख्य है और बाकी धर्म गाण हो जाते हैं।
अथवा "ममयं गोयम ! मा पमायए" अर्थातः हे गौतम ! समय मात्र भी प्रमाद न करो। यह उपदेश भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी को सम्बोधित करते हुए फरमाया है। यह उपदेश मुख्य रूप
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह से गौतम स्वामी को है किन्तु गौण रूप से चतुर्विध श्रीसंघ को है । इसलिए यहां गौतम स्वामी मुख्य हैं और चतुर्विध श्रीसंघ गौण है।
(तत्वार्थ सूत्र ५ वा अध्याय सूत्र ३१ ) ३६-निश्चयः-चस्तु के शुद्ध, मूल और वास्तविक स्वरूप को
निश्चय कहते हैं । अर्थात् वस्तु का निज स्वभाव जो सदा रहता है वह निश्चय है । जैसे निश्चय में कोयल का शरीर पाँचों वर्ण वाला है क्योंकि पांच वर्षों के पुद्गलों से बना
हुआ है । आत्मा सिद्ध स्वरूप है। व्यवहारः-चस्तु का लोकसम्मत स्वरूप व्यवहार है । जैसे कोयल
काली है । आत्मा मनुष्य, निर्यश्च रूप है । निश्चय में ज्ञान प्रधान रहता है । और व्यवहार में क्रियाओं की प्रधानता रहती है । निश्चय और व्यवहार परम्पर एक दूसरे के सहायक (पूरक) हैं।
. (विशेषावश्यक गाथा ३५८६)
(द्रव्यानुयोग तर्कणा अध्याय ८ वां) ४०-उन्मर्गः-मामान्य नियम को उन्मर्ग कहते हैं। जैसे माधु
को तीन करण और तीन योग से प्राणियों की हिंमा नहीं करनी चाहिए।
(बृहत कल्प वृत्ति सभाष्य ) अपवादः-मूल नियम की रक्षा के हेतु आपत्ति आने पर अन्य
मार्ग ग्रहण करना अपवाद है । जैसे साधु का नदी पार करना आदि।
(अभिधान राजेन्द्र कोष दुसरा भाग पृष्ठ ११६६-६७)
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श्री संठिया जैन अन्धमाला ४१-सामान्यः-वस्तु के जिस धर्म के कारण बहुत से पदार्थ
एक सरीखे मालूम पड़ें तथा एक ही शब्द से कहे जाय उसे
सामान्य कहते हैं। विशेषः-मजातीय और विजातीय पदार्थों से भिन्नता का बोध ___ कराने वाला धर्म विशेष कहा जाता है । जैसे:-मनुष्य, नरक, तियश्च आदि सभी जीव रूप से एक से
हैं और एक ही जीव शब्द से कहे जा सकते हैं। इसलिए जीवत्व सामान्य है । यही जीवत्व जीव द्रव्य को दूसरे द्रव्यों से भिन्न करता है। इसलिए विशेष भी है । घटत्व सभी घटों में और गोत्व सभी गौत्रों में एकता का बोध कगना है । इसलिए ये दोनों मामान्य हैं । “यह घट" इममें एतद् घटत्व सजातीय दुसरे घटों से और विजातीय पटादि पदों से भेद कराता है । इसलिए यह विशेष है। इसी तरह "चितकवर्ग" गाय में चितकबरापन मजातीय दुमरी लाल, पीली
आदि गौओं से और विजातीय अश्यादि स भेद कराता है। इमलिए यह विशेष है।
वास्तव में सभी धर्म मामान्य और विशेष दोनों कहे जा सकते हैं । अपने से अधिक पदार्थों में रहने वाले धर्म की अपेक्षा प्रत्येक धर्म विशेष है । न्यून वस्तुओं में रहने वाले की अपेक्षा मामान्य है । घटत्व पुद्गलत्व की अपेक्षा विशेष है और कृष्ण घटत्व की अपेक्षा सामान्य है।
(म्याद्वादमञ्जरी कारिका ४) (प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार परिच्छेद ५)
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
४२ हेतु — जो साध्य के विना न रहे उसे हेतु कहते हैं । जैसे का हेतु धूम | धूम, विना अनि के कभी नहीं रहता । माध्य:- जो सिद्ध किया जाय वह साध्य है। माध्य वादी को इष्ट, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अबाधित और अमिद्ध होना चाहिए । जैसे पर्वत में अग्नि है क्योंकि वहाँ धुआँ हैं । यहां अनि माध्य है । वादी को अभिमत है । प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित है और पर्वत में अभी तक सिद्ध नहीं की गई है । अतः अमिद्ध भी हैं ।
(रत्नाकरावतारिका परिच्छेद ३ )
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४३
- कार्य:- मम्पूर्ण कारणों का संयोग होने पर उनके व्यापार (क्रिया) के अनन्तर जो अवश्य होता है। उसे कार्य कहते हैं ।
कारण- जो नियत रूप से कार्य के पहले रहता हो और कार्य में साधक हो । अथवा: -- जिसके न होने पर कार्य न हो उसे कारण कहते हैं। जैसे कुम्भकार, दण्ड, चक्र, चीवर और मिट्टी आदि घट के कारण हैं I
( न्यायकोष ) ४४ - आविर्भावः - पदार्थ का अभिव्यक्त ( प्रकट ) होना आविर्भाव है ।
तिरोभावः - पदार्थ का अप्रकट रूप में रहना या होना तिरोभाव हैं। जैसे घास में घृत तिरोभाव रूप से विद्यमान हैं । किन्तु मक्खन के अन्दर घृत का आविर्भाव है । अथवा सम्यगदृष्टि
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२८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला में केवल ज्ञान का तिरोभाव है। किन्तु तीर्थकर भगवान् में केवल ज्ञान का आविर्भाव है।
(न्यायकोप) ४५-प्रवृत्तिः-मन, वचन, काया को शुभाशुभ कार्य (व्यापार)
में लगाना प्रवृत्ति है। निवृत्तिः-मन, वचन, काया को कार्य से हटा लेना निवृत्ति है। ४६-द्रव्यः-जिसमें गुण और पर्याय हों वह द्रव्य है । गुणः-जो द्रव्य के आश्रित रहता है वह गुण है । गुण सदैव
द्रव्य के अन्दर ही रहता है । इसका स्वतन्त्र कोई स्थान नहीं है।
(उत्तराध्ययन अध्ययन २८)
(तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ५) ४७-पर्यायः -द्रव्य और गुणों में रहने वाली अवस्थाओं को
पर्याय कहते हैं । जैसे सोने के हार को तुड़वा कर कड़े बनवाये गये । सोना द्रव्य इन दोनों अवस्थाओं में कायम रहा किन्तु उसकी हालत बदल गई । हालत को ही पर्याय कहते हैं । पर्याय, गुण और द्रव्य दोनों में रहती है।
(उत्तराध्ययन अध्ययन २८) ४८-आधारः-जो वस्तु को आश्रय देवे वह आधार है । जैसे __ घड़ा घी का आधार है। प्राधेयः-आधार के आश्रय में जो वस्तु रहती है वह प्राधेय है ।
जैसे घड़े में घृत है। यहां घड़ा आधार है और घृत (घी) आधेय।
(विशेषावश्यक भाष्य गाथा १४०६)
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श्री जैन सिद्धान बोल संग्रह ४६-प्रारम्भ:--हिंसादिक सावध कार्य प्रारम्भ है। परिग्रहः-मूळ ( ममता ) को परिग्रह कहते हैं । धर्म साधन के
लिए रक्खे हुए उपकरण को छोड़ कर सभी धन धान्य आदि ममता के कारण होने से परिग्रह हैं।
___ (ठाणांग २) यही कारण है कि धन धान्यादि बाह्य परिग्रह माने गये हैं। और मूर्छा ( ममत्व-गृद्धि भाव ) आभ्यन्तर परिग्रह माने गये हैं।
(ठाणांग २ उहे शा १ सूत्र ६४) इन आरम्भ परिग्रह को ज्ञपरिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग न करने से जीव केवली प्ररूपित धर्म सुनने एवं बोधि प्राप्त करने में, गृहस्थावाम छोड़ कर साधु होने में, ब्रह्मचर्य पालन करने में, विशुद्ध संयम तथा मंवर प्राप्त करने में, शुद्ध मति, श्रुति, अवधि, मनः पर्यव
और केवल ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ होता है । किन्तु प्रारम्भ परिग्रह को ज्ञ परिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्यागने वाला जीव उपर्युक्त ११ बोल प्राप्त
करने में समर्थ होता है। ५०-अधिकरण की व्याख्या और उसके भेदः
कर्म बन्ध के साधन उपकरण या शस्त्र को अधिकरण कहते हैं। अधिकरण के दो भेदः
(१) जीवाधिकरण (२) अजीवाधिकरण ।
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
जीवाधिकरण: कर्म बन्ध के साधन जीव या जीवगत कषायादि
जीवाधिकरण हैं । जीवाधिकरणः-कर्म बन्ध में निमित्त जड़ पुद्गल अजीवाधिकरण हैं । जैसे शस्त्र आदि ।
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( तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ६ )
३०
५१ - वेदनीय कर्म के दो मेदः -
( १ ) साता वेदनीय ( २ ) असातावेदनीय । सातावेदनीयः - जिस कर्म के उदय से आत्मा को अनुकूल विषयों की प्राप्ति हो तथा शारीरिक और मानसिक सुख का अनुभव हो उसे सातावेदनीय कहते हैं । असातावेदनीयः - जिस कर्म के उदय से आत्मा को अनुकूल विषयों की प्राप्ति से और प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति से दुःख का अनुभव होता है उसे असातावेदनीय कहते हैं ।
( पनवरणा पद २३ )
( कर्मग्रन्थ पहला भाग) बन्ध ( २ ) देश बन्ध ।
-
५२ -बन्ध के दो भेदः - ( १ ) सर्व सर्वबन्ध – जो शरीर नये उत्पन्न होते हैं उनके आरम्भ काल में आत्मा को सर्व बन्ध होता है। अर्थात् नये शरीर का आत्मा के साथ बन्ध होने को सर्व बन्ध कहते हैं । दारिक, वैक्रिक और आहारक शरीर का उत्पत्ति के समय होता है ।
सर्व
देशबन्धः - उत्पत्ति के बाद में जब तक शरीर स्थिर रहते हैं तब तक होने वाला बन्ध देशबन्ध है । तैजस और कार्मण शरीर की नवीन उत्पत्ति नहीं होती । अतः उनमें सदा देशबन्ध
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ही होता है । औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर में दोनों प्रकार का बन्ध होता है।
(कर्मप्रन्थ पहला गाथा ३५) ५३-मरण के दो भेदः
(१) सकाम मरण (२) अकाम मरण । सकाम मरणः-विषय भोगों से निवृत्त होकर चारित्र में अनु
रक्त रहने वाली आत्मा की आकुलता रहित एवं संलेखना करने से, प्राणियों की हिंसा रहित जो मृत्यु होती है। वह सकाम मरण है। उक्त जीवों के लिए मृत्यु भयप्रद न होकर उत्सवरूप होती है। सकाम मरण को पण्डितमरण भी
अकाम मरणः-विषय भोगों में गृद्ध रहने वाले अज्ञानी जीवों
की न चाहते हुए भी अनिच्छापूर्वक जो मृत्यु होती है वह अकाम मरण है । इसी को बालमरण भी कहते हैं।
(उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ५) ५४-प्रत्याख्यान के दो भेदः
(१) दुष्प्रत्याख्यान (२) सुप्रत्याख्यान । दुष्प्रत्याख्यान:-प्रत्याख्यान और उसके विषय का पूरा स्वरूप
जाने विना किया जाने वाला प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है। जैसे कोई कहे कि मैंने प्राण (विकलेन्द्रिय ) भूत (वनस्पति ) जीव (पंचेन्द्रिय ) सत्त्व ( पृथ्वीकायादि चार स्थावर ) की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है । पर उसे जीव, अजीव, त्रस स्थावर आदि का ज्ञान नहीं है तो उसके प्रत्याख्यान की बात कहना असत्य है। एवं वह उक्त
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला जीव हिंसा से निवृत्त नहीं है । अत एव उसका प्रत्याख्यान
दुष्प्रत्याख्यान है। सुप्रत्याख्यानः-प्रत्याख्यान और उसके विषय का पूरा स्वरूप
जानने वाले का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है । जैसे उपरोक्त रीति से प्राण, भृत, जीव, सत्व की हिंसा का प्रत्याख्यान करने वाला पुरुष यदि जीव, त्रस, स्थावर आदि के स्वरूप का पूरा जानकार है तो उसके प्रत्याख्यान की बात कहना सत्य है । और वह प्रत्याख्यान करने वाला जीवों की हिंसा से निवृत्त होता है । अत एव उसका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है।
(भगवती शतक ७ उद्देशा २ के अधार से) ५५-गुण के दो प्रकार से दो भेदः--
(१) मूल गुण (२) उत्तर गुण ।
(१) स्वाभाविक गुण (२) वैभाविक गुण | मूलगुणः-चारित्र रूपी वृक्ष के मूल (जड़) के ममान जो हों वे
मूल गुण हैं । माधु के लिए पांच महाव्रत और श्रावक के
लिए पांच अणुव्रत मूल गुण हैं। उत्तर गुणः-मूल गुण की रक्षा के लिए चारित्र रूपी वृक्ष की
शाखा, प्रशाखावत् जो गुण हैं वे उत्तर गुण हैं। जैसे साधु के लिए पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा, अभिग्रह आदि । और श्रावक के लिए दिशावत आदि ।
(सूयगडांग सूत्र १ अध्ययन १४)
(पंचाशक विवरण ५)
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श्री जैन सिद्धान्न बोल संग्रह स्वाभाविक गुणः-पदार्थों के निज गुणों को स्वाभाविक गुण
कहते हैं । जैसे आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि गुण।। वैभाविक गुणः-अन्य द्रव्यों के सम्बन्ध से जो गुण हों और
स्वाभाविक न हों वे वैभाविक गुण हैं । जैसे आत्मा के
राग, द्वेष आदि। ५६-श्रेणी के दो भेदः-(१) उपशम श्रेणी (२) क्षपक श्रेणी। श्रेणी:--मोहके उपशम और क्षय द्वारा आत्मविकाम की ओर
आगे बढ़ने वाले जीवों के मोह-कर्म के उपशम तथा क्षय करने के क्रम को श्रेणी कहते हैं। श्रेणी के दो भेद हैं ।
(१) उपशम श्रेणी (२) क्षपक श्रेणी । उपशम श्रेणी:--आत्मविकाम की ओर अग्रगामी जीवों के मोह
उपशम करने के क्रम को उपशम श्रेणी कहते हैं । उपशम श्रेणी का आरम्भ इस प्रकार होता है:--उपशम श्रेणी
को अंगीकार करने वाला जीव प्रशस्त अध्यवसायों में रहा हुआ पहले एक माथ अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल में अनन्तानुबन्धी कषायों को उपशान्त करता है । इसके बाद अन्तमुहूर्त में एक साथ दर्शन मोह की तीनों प्रकृतियों का उपशम करता है । इसके बाद छठे और सातवें गुणस्थान में कई बार आने जाने के बाद वह जीव आठवें गुणस्थान में आता है। आठवें गुणस्थान में पहुँच कर श्रेणी का आरम्भक यदि पुरुष हो तो अनुदीर्ण नपुंसक वेद का उपशम करता है
और फिर स्त्री वेद को दबाता है। इसके बाद हास्यादि छ। कषायों का उपशम कर पुरुष वेद का उपशम करता है।
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श्री सेटिया जैन ग्रन्थमाला यदि उपशम श्रेणी करने वाली स्त्री हो तो वह क्रमशः नपुंसक वेद, पुरुषवेद, हास्यादि छः एवं स्त्रीवेद का उपशम करती है । उपशमश्रेणी करने वाला यदि नपुंसक हो तो वह क्रमशः स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्यादि छः और नपुंसक वेद का उपशम करता है । इसके बाद अप्रत्याख्यानावरण
और प्रत्याख्यानावरण क्रोध का एक साथ उपशम कर आत्मा संज्वलन क्रोध का उपशम करता है। फिर एक साथ वह अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण मान का उपशम कर संज्वलन मान का उपशम करता है । इसी प्रकार जीव अप्रत्याख्यानावरण.माया और प्रत्याख्यानावरण माया का उपशम कर संज्वलन माया का उपशम करता है । तथा अप्रत्याख्यानावरण एवं प्रत्याख्यानावरण लोभ का उपशम कर अन्त में संज्वलन लोभ का उपशम शुरू करता है । संज्वलन लोभ के उपशम का क्रम यह है:-पहले आत्मा संज्वलन लोभ के तीन भाग करता है। उनमें दो भागोंका एक साथ उपशम कर जीव तीसरे भाग के पुनः मंग्व्यात खंड करता है । और उनका पृथक पृथक रूप से भिन्न २ काल में उपशम करता है। मंग्व्यात खंडों में से जब अन्तिम खंड रह जाता है तब आत्मा उसे फिर अमंग्व्यात खंडों में विभाजित करता है। और क्रमशः एक एक समय में एक एक खंड का उपशम करता है । इस प्रकार वह आत्मा मोह की सभी प्रकृतियों का उपशम कर देता है।
अनन्तानुबन्धी कषाय और दर्शन मोह की सात प्रकृतियों का उपशम करने पर जीव अपूर्व करण
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (निवृत्ति बादर ) नामक आठवें गुणस्थान वाला होता है।
आठवें गुणस्थान से जीव अनिवृत्ति बादर नामक नववें गुणस्थान में आता है । वहां रहा हुआ जीव संज्वलन लोभ के तीसरे भाग के अन्तिम संख्यातवें खण्ड के सिवा मोह की शेष सभी प्रकृतियों का उपशम करता है । और दसवें सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान में आता है । इस गुणस्थातन में जीव उक्त संज्वलन के लोभ के अन्तिम संख्यातवे खण्ड के असंख्यात खंड कर उनको उपशान्त कर देता है। और मोह की सभी प्रकृतियों का उपशम कर ग्यारहवें उपशान्त मोह गुण स्थान में पहुँच जाता है। उक्त प्रकृतियों का उपशम काल सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त है। एवं सारी श्रेणी का काल परिमाण भी अन्तर्मुहूर्त ही है । ग्यारहवें गुणस्थान की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त परिमाण पूरी कर जीव उपशान्त मोह के उदय में आजाने से वापिस नीचे के गुणस्थानों में आता है।
सिद्धान्तानुसार उपशम श्रेणी की समाप्ति कर वापिस लौटा हुआ जीव अप्रमत या प्रमत्त गुणस्थान में रहता है । पर कर्मग्रन्थ के मतानुसार उक्त जीव लौटता हुआ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान तक भी पहुँच जाता है। यदि जीव श्रेणी में रहा हुआ ही काल करे तो अनुत्तर विमान में अविरत सम्यग्दृष्टि देवता होता है। । उपशम श्रेणी का आरम्भ कौन करता है ? इस विषय में मतभेद है । कई आचार्यों का कथन है कि अप्रमत्त संयत उपशम श्रेणी का आरम्भ करता है । तो कई
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३६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला का यह कहना है कि अविरत, देशविरत, प्रमत्त साधु, और अप्रमत्त साधु, इनमें से कोई भी इस श्रेणी को कर सकता है।
कर्मग्रन्थ के मत से आत्मा एक भव में उत्कृष्ट दो बार उपशम श्रेणी करता है और मत्र भवों में उत्कृष्ट चार बार । कर्मग्रन्थ का यह भी मत है कि एक बार जिस जीव ने उपशम श्रेणी की है । वह जीव उसी जन्म में क्षपकश्रेणी कर मुक्त हो सकता है। किन्तु जिसने एक भव में दो बार उपशम श्रेणी की है वह उसी भव में क्षपकश्रेणी नहीं कर सकता है । सिद्धान्त मत से तो जीव एक जन्म में एक ही श्रेणी करता है । इसलिए जिसने एक बार उपशम श्रेणी की है वह उसी भव में क्षपक श्रेणी नहीं कर सकता ।
(कर्मग्रन्थ दूसरा भाग)
(विशेषावश्यक भाष्य गाथा १२८४) (लोक प्रकाश तीसरा सर्ग ११६९ से १२१५) (आवश्यक मलयगिरि गाथा ११६ से १२३)
(अर्द्ध मागधी कोप दूसरा भाग) तपक श्रेणी:--आत्मविकास की ओर अग्रगामी जीवों के
सर्वथा मोह को निर्मूल करने के क्रमविशेप को क्षपकश्रेणी कहने हैं । आपकश्रेणी में मोहक्षय का क्रम यह है:
सर्व प्रथम आत्मा अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्टय का एक साथ क्षय करता है । इसके बाद अनन्तानुबन्धी कषाय के अवशिष्ट अनन्त भाग को मिथ्यात्व में डाल कर दोनों का एक साथ क्षय करता है। इसी तरह सम्यग मिथ्यात्व
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श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह और बाद में सम्यक्त्व मोहनीय का क्षय करता है। जिम जीव ने आयु बांध रखी है । वह यदि इस श्रेणीको स्वीकार करता है तो अनन्तानुबन्धी का क्षय करके रुक जाता है । इसके बाद कभी मिथ्यात्व का उदय होने पर वह अनन्तानुबन्धी कषायको बांधता है । यदि मिथ्यात्व का भी क्षय कर चुका हो तो वह अनन्तानुबन्धी कषाय को नहीं बांधता । अनन्तानुबन्धी कषाय के क्षीण होने पर शुभ परिणाम से गिरे विना ही वह जीव मर जाय तो देवलोक में जाता है । इसी प्रकार दर्शन सप्तक (अनन्तानुबन्धी कपाय-चतुष्टय और दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियों ) के क्षीण होने पर वह देवलोक में जाता है । यदि परिणाम गिर जाय और उसके बाद वह जीव काल करे तो परिणामानुमार शुभाशुभ गति में जाता है । जिम जीव ने आयु बाँध रखी है वह जीव अनन्तानुबन्धी का क्षय कर दर्शन मोहनीय की प्रकृतियों का भी क्षय कर दे तो इसके बाद वह अवश्य विश्राम लेता है। और जहां की आयु बांध रखी है वहां उत्पन्न होता है। जिस जीव ने आयु नहीं बांध रखी है वह इस श्रेणी को आरम्भ करे तो वह इस ममाप्त किये विना विश्राम नहीं लेता । दर्शन सप्तक को क्षय करने के बाद जीव नरक, तिर्यञ्च और देव आयु का क्षय करता है। इसके बाद अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय की आठों प्रकृतियों का एक साथ क्षय करना शुरु करता है । इन
आठों का पूरी तरह से क्षय करने नहीं पाता कि वह १६ प्रकृतियों का क्षय करता है । सोलह प्रकृतियों ये हैं:
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३८
श्री संठिया जैन मन्थमाला
( १ ) नग्कानुपूर्वी ( २ ) वियचानुपूर्वी ( ३ ) नरक गति ( ४ ) तिर्यञ्च गति ( ५ ) एकेन्द्रिय जाति (६) द्वीन्द्रिय जाति ( ७ ) त्रीन्द्रिय जाति ( ८ ) चतुरिन्द्रिय जाति ( 8 ) तप ( १० ) उद्योत ( ११ ) स्थावर ( १२ ) साधारण (१३) सूक्ष्म ( १४ ) निद्रानिद्रा (१५) प्रचलाप्रचला ( १६ ) स्त्यानगृद्धि निद्रा ।
इन सोलह प्रकृतियों का क्षय कर जीव अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कपाय की आठों प्रकृतियों के अवशिष्ट अंश का क्षय करता है । इसके बाद क्षपक श्रेणी का कर्ता यदि पुरुष हुआ तो वह क्रमशः नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, हाम्यादि पट्क का क्षय करता है। इम के बाद पुरुष वेद के तान खण्ड करता है। इन तीन खण्डों में से प्रथम दो खण्डों का एक साथ क्षय करता है और तीसरे खण्ड को संज्वलन क्रोध में डाल देता है । नपुंमक या स्त्री यदि श्रेणी करने वाले हों तो वे अपने अपने वेद का क्षय तो अन्त में करते हैं और शेष दो वेदों में से
वेद को प्रथम और दूसरे को उसके बाद नय करते हैं। जैसा कि उपशम श्रेणी में बताया जा चुका है । इसके बाद वह आत्मा संज्वलन, क्रोध, मान माया और लोभ में से प्रत्येक का पृथक पृथक् क्षय करता है। पुरुष वेद की तरह इनके भी प्रत्येक के तीन तीन खण्ड किये जाते हैं और तीसरा खण्ड आगे वाली प्रकृतियों के खण्डों में मिलाया जाता है । जैसे क्रोध का तोमरा खण्ड मान में, मान का
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३०
श्री जैन सिद्धान्न बोल संग्रह तीसरा खण्ड माया में, और माया का तीसरा खण्ड लोभ में मिलाया जाता है । लोभ के तीसरे खण्ड के संख्यात खण्ड करके एक एक को श्रेणीवर्ती जीव भिन्न २ काल में क्षय करता है । इन संख्यात खण्डों में से अन्तिम खण्ड के जीव पुनः असंख्यात खण्ड करता है और प्रति समय एक एक का क्षय करता है।
यहां पर सर्वत्र प्रकृतियों का क्षपणकाल अन्तर्मुहूर्त जानना चाहिये । सारी श्रेणी का काल परिमाण भी असंख्यात लघु अन्तर्मुहूर्त परिमाण एक बड़ा अन्तर्मुहर्त जानना चाहिये।
इस श्रेणी का आरंभ करने वाला जीव उत्तम संहनन वाला होता है। तथा उसकी अवस्था आठ वर्ष से अधिक होती है । अविरत, देशविग्त, प्रमत्त, अप्रमत्त, गुणस्थानवर्ती जीवों में से कोई भी विशुद्ध परिणाम वाला जीव इस श्रेणी को कर सकता है। पूर्वधर, अप्रमादी और शुक्ल ध्यान से युक्त होकर इस श्रेणी को शुरु करने हैं ।
दर्शन सप्तक का क्षय कर जीव आठवें गुण स्थान में आता है । इसके बाद संज्वलन लोभ के संख्यातव खंड तक का क्षय जीव नववें गुणस्थान में करता है और इसके बाद असंख्यात खंड का क्षय दसवें गुणस्थान में करता है। दसवें गुणस्थान के अंत में मोह की २८ प्रकृतियों का तय कर ग्यारहवें गुणस्थान का अतिक्रमण (उल्लंघन)
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला करता हुआ जीव बारहवें क्षीण मोह गुणस्थान में पहुंचता है।
(विशेषावश्यक गाथा १३१३) (द्रव्यलोक प्रकाश तीसरा सर्ग
श्लोक १२१८ से १२३४ तक) (कर्म ग्रन्थ दूसरा भाग, भूमिका) (श्रावश्यक मलयगिरि गाथा ११६ से १२३)
(अर्द्ध मागधी कोप भाग दूसरा (खवर्ग) ५७:-देवता के दो भेदः-(१) कल्पोपपन्न (२) कल्पातीत । कल्पातीत:-जिन देवों में छोटे बड़े का भेद हो । वे कल्पोपपन्न
देव कहलाते हैं । भवनपति से लेकर बारहवें देवलोक तक
के देव कल्पोपपन्न हैं। कल्पातीत:-जिन देवों में छोटे बड़े का भेद न हो । जो सभी
'अहमिन्द्र' हैं। वे कल्पातीत हैं। जैसे नव प्रवेयक और अनुत्तर विमानवासी देव ।
(तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ४) ५८:-अवग्रह के दो भेदः (१) अर्थावग्रह (२) व्यञ्जनावग्रह । अर्थावग्रहः-पदार्थ के अव्यक्त ज्ञान को अर्थावग्रह कहते हैं ।
अर्थावग्रह में पदार्थ के वर्ण, गन्ध आदि का ज्ञान होता है।
इसकी स्थिति एक समय की है। व्यञ्जनावग्रहः-अर्थावग्रह से पहले होने वाला अत्यन्त अव्यक्त
ज्ञान व्यञ्जनावग्रह है। तात्पर्य यह है कि इन्द्रियों का पदार्थ के साथ सम्बन्ध होता है तब "किमपीदम्" (यह कुछ है)। ऐसा अस्पष्ट ज्ञान होता है । यही ज्ञान अर्थावग्रह है। इससे पहले होने वाला अत्यन्त अस्पष्टज्ञान व्यञ्जनावग्रह
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
४१
कहलाता है । दर्शन के बाद व्यञ्जनावग्रह होता है । यह चक्षु और मन को छोड़ कर शेष चार इन्द्रियों से ही होता है । इसकी जवन्य स्थिति श्रावलिका के असंख्यातवें भाग की है और उत्कृष्ट दो से नौ श्वासोच्छ्वास तक है । ( नन्दी सूत्र ३७ )
( कर्म ग्रन्थ पहला भाग )
५६ - सामान्य के दो प्रकार से दो भेद:
(१) महा सामामन्य (२) अवान्तर सामान्य | (१) तिर्यक्सामान्य (२) ऊर्ध्वता सामान्य ।
महा सामान्य ( पर सामान्य) : - परम सत्ता जिसमें जीवाजीवादि सम्पूर्ण पदार्थों की एक सरूपता का बोध हो उसे महासामान्य कहते हैं । जैसे “सत्" कहने से सभी पदार्थों का बोध हो जाता है । इसका विषय सब से अधिक है । अतः इसे महासामान्य कहते हैं ।
:---महा
अवान्तर सामान्य (अपर सामान्य या सामान्य विशेष ) :सामान्य की अपेक्षा जिसका विषय कम हो किन्तु साथ ही जो सजातीय पदार्थों में एकता का बोध करावे । वह अवान्तर सामान्य है । जैसे जीवत्व सब जीवों में एकता का सूचक है । किन्तु द्रव्यत्व आदि की अपेक्षा विशेष है। तिर्यक्सामान्यः भिन्न २ व्यक्तियों में रहने वाला साधारण धर्म तिर्यक सामान्य है । जैसे काली, पीली, सफेद आदि गौत्रों में गोत्व । उर्ध्वतासामान्यः - एक ही वस्तु की पूर्वापर पर्यायों में रहने वाला साधारण धर्म उर्ध्वता सामान्य है । जैसे कड़ा, कंकण,
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला माला आदि । एक ही सोने की क्रमिक अवस्थाओं में रहने वाला सुवर्णच।
(प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार परिच्छेद ५ वां) ६०-द्रव्य के दो भेदः (१) रूपी (२) अरूपी । रूपी:-वर्ण, गन्ध, रम और स्पर्श जिसमें पाये जाते हों और जो
मूर्त हो उसे रूपी द्रव्य कहते हैं । पुदल द्रव्य ही रूपी
होता है। अरूपी:-जिममें वर्ण, गन्ध, रम, और स्पर्श न पाये जाने हों
तथा जो अमूर्त हो उसे अरूपी कहते हैं । पुदल के अतिरिक सभी द्रव्य अरूपी हैं।
(तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ५ वां) ६१-रूपी के दो भेदः-(१) अष्टस्पर्शी (२) चतुःस्पर्शी । अष्ट स्पर्शी:-वर्ण, गन्ध, रम, तथा संस्थान के साथ जिसमें
हल्का, भारी आदि आठों स्पर्श पाये जाते हों । उसे अष्ट
स्पशी या अठफरसी कहते हैं। चतुःस्पर्शी:-वर्ण, गन्ध रम तथा शीत, उष्ण, रुक्ष और स्निग्ध
ये चार स्पर्श जिममें पाये जाते हों उसे चतुःस्पर्शी या चौफरसी कहते हैं।
(भगवती शतक १२ उद्देशा ५) ६२-लक्षण की व्याख्या और भेद-बहुत से मिले हुए पदार्थों
में से किसी एक पदार्थ को जुदा करने वाले को लक्षण
कहते हैं। लक्षण के दो भेदः-(१) आत्म-भूत (२) अनान्म भूत ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह आत्म-भूत लक्षण:-जो लक्षण वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ
हो उसे आत्मभूत लक्षण कहते हैं । जैसे अग्नि का लक्षण
उष्णता । जीव का लक्षण चैतन्य । अनात्मभूत लक्षण:-जो लक्षण वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ
न हो उसे अनात्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे दण्डी पुरुष का लक्षण दण्ड । यहाँ दण्ड, पुरुष से अलग है । फिर भी वह दण्डी को अन्य पुरुषों से अलग कर उसकी पहिचान करा ही देता है।
(न्याय दीपिका)
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श्री जैन सेठिया प्रन्थमाला
तीसरा बोल
(बोल नम्बर ६३ से १२८ तक) ६३ त्तत्त्व की व्याख्या और भेदः परमार्थ को तत्व कहते हैं । तत्त्व तीन हैं:-(१) देव, (२) गुरु, (३) धर्म । देवः कर्म शत्रु का नाश करने वाले, अठारह दोष रहित, सर्वज्ञ, वीतराग, हितोपदेशक अरिहन्त भगवान् देव हैं।
(योग शास्त्र प्रकरण २ श्लोक ४) गुरुः-निग्रन्थ (परिग्रह रहित) कनक, कामिनी के त्यागी,पंच महा
व्रत के धारक,पांच समिति, तीन गुप्ति युक्त,षटकाय के जीवों के रक्षक, मत्ताईस गुणों से भूषित और वीतराग की आज्ञानुसार विचरने वाले, धर्मोपदेशक साधु महान्मा गुरु हैं।
(योगशास्त्र प्रकरण २ श्लोक ८) धर्म:-सर्वज्ञ भाषित, दयामय, विनय मूलक, आत्मा और कर्म का
भेदज्ञान कराने वाला, मोक्ष तत्व का प्ररूपक शास्त्र धर्म
तत्त्व है। नोट:-निश्चय में आत्मा ही देव है। ज्ञान ही गुरु है। और उपयोग ही धर्म है। (धर्मसंग्रह अधिकार ३ श्लोक २१, २२, २३, की टीका)
(योग शास्त्र प्रकरण २ श्लोक ४ से ११ तक) ६४: सत्ता का स्वरूपः सत्ता अर्थात् वस्तु का स्वरूप उत्पाद,
व्यय और ध्रौव्य रूप है। आवश्यक मलय गिरि द्वितीय खंड में सत्ता के लक्षण में:
“उप्पएणइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा" कहा है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह उत्पादः-नवीन पर्याय की उत्पति होना उत्पाद है। व्यय (विनाश):-विद्यमान पर्याय का नाश हो जाना व्यय है। धोव्यः द्रव्यत्व रूप शाश्वत अंश का सभी पर्यायों में अनुवृति
रूप से रहना धौव्य है।
___ उत्पाद, व्यय और धौव्य का भिन्न २ स्वरूप होते हुए भी ये परस्पर सापेक्ष हैं । इसीलिए वस्तु द्रव्य रूप से नित्य और पर्याय रूप से अनित्य मानी गई है।
(तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ५ वाँ) ६५-लोक की व्याख्या और भेदः-धर्मास्तिकाय और अधर्मा
स्तिकाय से व्याप्त सम्पूर्ण द्रव्यों के आधार रूप चौदह राजू परिमाण आकाश खण्ड को लोक कहते हैं । लोक का आकार जामा पहन कर कमर पर दोनों हाथ रख कर चारों ओर घूमते हुए पुरुष जैसा है । पैर से कमर तक का भाग अधोलोक है। उसमें सात नरक हैं। नाभि की जगह मध्य लोक है । उसमें द्वीप समुद्र हैं । मनुष्य और तिर्यञ्चों की बस्ती है । नाभि के ऊपर का भाग ऊर्ध्वलोक है । उसमें गरदन से नीचे के भाग में बारह देवलोक हैं । गरदन के भाग में नव वेयक हैं। मुंह के भाग में पांच अनुत्तर विमान हैं । और मस्तक के भाग में सिद्ध शिला है।
लोक का विस्तार मूल में सात राजू है । ऊपर क्रम से घटते हुए सात राजू की ऊँचाई पर चौड़ाई एक राजू है । फिर क्रम से बढ़ कर साढ़े दस राजू की ऊँचाई पर चौड़ाई पांच राजू है । फिर क्रम से घट कर चौदह राजू
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४६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
की ऊंचाई पर एक राजू की चौड़ाई है। ऊर्ध्व और अधोदिशा में ऊंचाई चौदह राजू है ।
लोक के तीन भेद:
( १ ) ऊर्ध्वलोक, ( २ ) अधोलोक, ( ३ ) तिर्यक्लोक | ऊर्ध्वलोक:- मेरु पर्वत के समतल भूमि भाग के नौ सौ योजन
ऊपर ज्योतिष चक्र के ऊपर का सम्पूर्ण लोक ऊर्ध्वलोक है । इसका आकार मृदंग जैसा है । यह कुछ कम सात राजू परिमाण है ।
m.
अधोलोक - मेरु पर्वत के समतल भूमि भाग के नौ सौ योजन नीचे का लोक अधोलोक है । इसका आकार उल्टा किये हुए शराव ( मकोरे ) जैसा है । यह कुछ अधिक मात राजु परिमाण है ।
तियेकलोकः - ऊर्ध्वलोक और अधोलोक के बीच में अठारह सौ योजन परिमाण तिर्छा रहा हुआ लोक तिर्यक्लोक है । इसका आकार झालर या पूर्ण चन्द्रमा जैसा है 1
( लोक प्रकाश भाग २ सर्ग १२ ) ( अभिधान राजेन्द्र कोष भाग ६ पृष्ठ ६५७ ) ६६-जन्म की व्याख्या और भेदः -- पूर्व भव का स्थूल शरीर छोड़ कर जीव तेजस और कार्मण शरीर के साथ विग्रह गति द्वारा अपने नवीन उत्पत्ति स्थान में जाता है। वहां नवीन भव योग्य स्थूल शरीर के लिए पहले पहल आहार ग्रहण करना जन्म कहलाता है ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह जन्म के तीन भेदः
(१) सम्मूर्छिम, (२) गर्भ, (३) उपपात | सम्मृर्छिम जन्म:-माता पिता के संयोग के विना उत्पत्ति स्थान
में रहे हुए औदारिक पुद्गलों को शरीर के लिए ग्रहण
करना सम्मूर्छिम जन्म कहलाता है । गर्भजन्म:-उत्पत्ति स्थान में रहे हुए पुरुष के शुक्र और स्त्री
के शोणित के पुद्गलों को शरीर के लिए ग्रहण करना गर्भजन्म है । अर्थात् माता पिता के संयोग होने पर
जिमका शरीर बने उसके जन्म को गर्भ जन्म कहते हैं। गर्भ से होने वाले जीव तीन प्रकार के होते हैं।
(१) अण्डज (२) पोतज (३) जरायुज । उपपात जन्मः-जो जीव देवों की उपपात शय्या तथा नारकियों
के उत्पत्ति स्थान में पहुंचते ही अन्तमुहृत्त में वैक्रिय पुद्गलों को ग्रहण करके युवावस्था को पहुंच जाय उसके जन्म को उपपात जन्म कहते हैं।
(तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २) ६७-योनि की व्याख्या और भेदः-उत्पत्ति स्थान अर्थात्
जिस स्थान में जीव अपने कार्मण शगेर को औदारिकादि स्थूल शरीर के लिए ग्रहण किये हुए पुद्गलों के साथ एक
मेक कर देता है । उसे योनि कहते हैं। योनि के भेद इस प्रकार हैं:
(१) सचित्त (२) अचित्त (३) सचित्ताचित्त । (१) शीत (२) उष्ण (३) शीतोष्ण। (१) संवृत्त (२) विवृत्त (३) संवृत्तविवृत्त ।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला सचित योनिः-जो योनि जीव प्रदेशों से व्याप्त हो उसे सचित
योनि कहते हैं। अचित्त योनिः-जो योनि जीव प्रदेशों से व्याप्त न हो उसे
अचित योनि कहते हैं। सचित्ताचित योनिः-जो योनि किसी भाग में जीवयुक्त हो और
किसी भाग में जीव रहित हो उसे सचिताचित योनि कहते हैं।
देव और नारकियों की अचित्त योनि होती है। गर्भज जीवों की मिश्र योनि (सचित्ताचित योनि) और शेष जीवों की
तीनों प्रकार की योनियों होती हैं। शीत योनिः-जिस उत्पत्ति स्थान में शीत स्पर्श हो उसे शीत
योनि कहते हैं। उष्ण योनिः-जिस उत्पति स्थान में उष्ण स्पर्श हो वह उष्ण
योनि है। शीतोष्ण योनिः--जिस उत्पत्ति स्थान में कुछ शीत और कुछ उष्ण स्पर्श हो उसे शीतोष्ण योनि कहते हैं।
देवता और गर्भज जीवों के शीतोष्ण योनि, तेजस्काय के उष्ण योनि, नारकीय जीवों के शीत और उष्ण
योनि तथा शेष जीवों के तीनों प्रकार की योनियों होती हैं। मवृत्त योनिः--जो उत्पत्ति स्थान ढूंका हुआ या दबा हुआ हो उसे ___ संवृत्त योनि कहते हैं। विधुत्त योनिः--जो उत्पतिस्थान खुला हुआ हो उसे विवृत्त योनि
कहते हैं। संवृत्तविवृत्त योनिः--जो उत्पत्ति स्थान कुछ ढंका हुआ और
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
कुछ खुला हुआ हो उसे संवृत्त योनि कहते हैं ।
नारक, देव और एकेन्द्रिय जीवों के संवृत्त, गर्भज जीवों के संवृत्तविवृत्त और शेष जीवों के विवृत्त योनि होती है । ( ठाणांग ३ उद्देशा १ सूत्र १४० ) ( तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २ )
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६८ - वेद की व्याख्या और उसके भेदः - मैथुन करने की अभिलाषा को वेद (भाव वेद ) कहते हैं । यह नोकषाय मोहनीय कर्म के उदय से होता है ।
1
स्त्री पुरुष आदि के बाह्य चिन्ह द्रव्यवेद हैं । ये नाम कम के उदय से प्रकट होते हैं ।
वेद के तीन भेदः - (१) स्त्री वेद (२) पुरुषवेद (३) नपुंसक वेद । स्त्री वेद: - जैसे पित्त के वश से मधुर पदार्थ की रुचि होती है । उसी प्रकार जिस कर्म के उदय से स्त्री को पुरुष के माथ रमण करने की इच्छा होती है । उसे स्त्री वेद कहते हैं
1
पुरुष वेद: -- जैसे कफ के वश से खट्टे पदार्थ की रुचि होती हैं वैसे ही जिस कर्म के उदय से पुरुष को स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा होती है उसे पुरुष वेद कहते है ।
नपुंसक वेद: - जैसे पित्त और कफ के वश से मद्य के प्रति रुचि होती है उसी तरह जिस कर्म के उदय से नपुंसक को स्त्री और पुरुष दोनों के साथ रमण करने की अभिलाषा होती है। उसे नपुंसक वेद कहते हैं।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला नोट:-इन तीनों, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, और नपुसकवेद का स्वरूप
समझाने के लिए क्रमशः करीषाग्नि (छाणे की आग) तृणाग्नि और नगरदाह के दृष्टान्त दिये जाते हैं। (अभिधान राजेन्द्र कोप भाग ६ पृष्ठ १४२७)
(वृहत्तकल्प उद्देशा ४)
(कर्मग्रन्थ पहला भाग) ६६-जीव के तीन भेदः
( १ ) मंयत ( २ ) अमंयत ( ३ ) मंयतामयत । संयतः-जो म मावद्य व्यापार से निवृत्त हो गया है । ऐसे ऋठे
से चौदहवे गुणस्थानवी, और सामायिक आदि मंयम वाले
माधु को मंयत कहते हैं। अमयत:-पहले गुणस्थान से लेकर चौथे गुणस्थान वाले अत्रि
गति जीव को असंयत कहते हैं। भंयतामयनः--जो कुछ अंशों में तो विरति का सेवन करता है
और कुछ अंशों में नहीं करता ऐसे देशविरति को अर्थात् पञ्चम गुणस्थानवर्ती श्रावक को संयतामयत कहते हैं।
(भगवती शतक ६ उद्देशा ३) ७०-वनस्पति के तीन भेदः(१) मंग्व्यात जीविक ( २ ) असंख्यात जीविक
(३) अनन्त जीविक। संख्यात जीविक:-जिस वनम्पति में संख्यात जीव हों उसे
संख्यात जीविक वनस्पति कहते हैं । जैसे नालि से लगा हुआ फूल।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह अमंख्यात जीविक:-जिम वनस्पति में असंख्यात जीव हों उसे
अमंख्यात जीविक वनस्पति कहते हैं । जैसे निम्ब, आम
आदि के मूल, कन्द, स्कन्ध, छाल, शाखा, अंकुर वगैरह। अनन्त जीविक:-जिम वनस्पति में अनन्त जीव हों उसे अनन्त जीविक वनस्पति कहते हैं। जैसे जमीकंद आलू आदि ।
(ठाणांग ३ मृत्र १४२ ) ७१-मनुष्य के तीन भेदः____ (१) कर्म भूमिज (२) अकम भूमिज (३) अन्तर द्वीपिक । कमभूमिजः कृषि (वेती), वणिज्य, तप, मंयम अनुष्ठान वगैरह
कर्म प्रधान भूमि को कर्म भूमि कहते हैं । पांच भरत पांच ऐगवत पांच महाविदेह क्षेत्र ये १५ क्षेत्र कर्म भूमि हैं । कर्म भूमि में उत्पन्न मनुष्य कर्म भूमिज कहलाते हैं। ये अमि.
ममि और कृषि इन तीन कर्मों द्वारा निर्वाह करते हैं । अकर्म भूमिजः-कृषि (खेती), वाणिज्य, तप, मंयम, अनुष्ठान
वगैरह कर्म जहां नहीं होने उसे अकर्म भूमि कहते हैं । पाच हैमवत, पांच हैरण्यवत पांच हरिवर्ष पांच रम्यकवर्ष पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु ये तीस क्षेत्र अकर्म भूमि हैं। इन क्षेत्रों में उत्पन्न मनुष्य अकर्म-भूमिज कहलाते हैं। यहां असि, ममि और कृषि का व्यापार नहीं होता । इन क्षेत्रों में दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं । इन्हीं से अकर्म-भूमिज मनुष्य निर्वाह करते हैं। कर्म न करने से एवं कल्पवृक्षों द्वारा भोग प्राप्त होने से इन क्षेत्रों को भोग-भूमि और यहां के मनुष्यों को भोग-भूमिज कहते हैं । यहां स्त्री पुरुष
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
जोड़े से जन्म लेते हैं । इसलिए इन्हें जुगलिया भी कहते हैं ।
अन्तर द्वीपिक:-- लवण समुद्र में चुल्ल हिमवन्त पर्वत के पूर्व और पश्चिम में दो दो दाढ़े हैं । इसी प्रकार शिखरी पर्वत के भी पूर्व और पश्चिम में दो दो दाढ़े हैं। एक एक दादा पर सात सात द्वीप हैं । इस प्रकार दोनों पर्वतों की आठ दाड़ों पर छप्पन द्वीप हैं । लवण समुद्र के बीच में होने से अथवा परस्पर द्वीपों में अन्तर होने से इन्हें अन्तरद्वीप कहते हैं । अकर्म भूमि की तरह इन अन्तरद्वीपों में भी कृषि, वाणिज्य आदि किसी भी तरह के कर्म नहीं होते । यहां पर भी कल्पवृक्ष होते हैं । अन्तरद्वीपों में रहने वाले मनुष्य अन्तरद्वीपिक कहलाते हैं । ये भी जुगलिया हैं । ( ठाणांग ३ उद्देशा १ सूत्र १३० )
1
( पन्नवरणा प्रथम पद )
( जीवाभिगम सूत्र )
७२ - कर्म तीन:
(१) असि (२) ममि (३) कृषि |
असिकर्म:- तलवार आदि शस्त्र धारण कर उनसे आजीविका करना अकर्म है । जैसे सेना की नौकरी ।
मसिकर्म : -- लेखन द्वारा आजीविका करना मसिकर्म है । कृषिकर्म :- खेती द्वारा आजीविका करना कृषिकर्म है ।
( अभिधान राजेन्द्र कोष भाग १ पृष्ठ ८४६ ) ( जीवाभिगम प्रतिपति ३ उद्देशा ३ ) (तन्दुल क्याली पयन्ना )
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ७३-तीन अच्छेधः
(१) समय (२) प्रदेश (३) परमाणु । समयः-काल के अत्यन्त सूक्ष्म अंश को, जिसका विभाग न
हो सके, समय कहते हैं। प्रदेशः-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय,
जीवास्तिकाय, और पुद्गलास्तिकाय के स्कन्ध या देश से
मिले हुए अतिसूक्ष्म निरवयव अंश को प्रदेश कहते हैं । परमाणुः स्कन्ध या देश से अलग हुए निरंश पुद्गल को परमाणु कहते हैं।
इन तीनों का छेदन, भेदन, दहन, ग्रहण नहीं हो सकता । दो विभाग न हो सकने से ये अविभागी हैं। तीन विभाग न हो सकने से ये मध्य रहित हैं। ये निरवयव हैं। इस लिए इनका विभाग भी सम्भव नहीं है।
(ठाणांग ३ उद्देशा २ सूत्र १६६) ७४-जिन तीनः
(१) अवधि ज्ञानी जिन (२) मनापर्यय ज्ञानी जिन (३) केवल ज्ञानी जिन ।
राग द्वेष (मोह ) को जीतने वाले जिन कहलाते हैं। केवल ज्ञानी तो सर्वथा राग द्वेष को जीतने वाले एवं पूर्ण निश्चय-प्रत्यक्ष ज्ञानशाली होने से साक्षात् ( उपचार रहित) जिन हैं । अवधि ज्ञानी और मनःपर्यय ज्ञानी निश्चय-प्रत्यक्ष ज्ञान वाले होते हैं । इस लिए वे भी जिन सरीखे होने से
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला जिन कहलाते हैं । ये दोनों उपचार से जिन हैं और निश्चयप्रत्यक्ष ज्ञान ही उपचार का कारण है।
(ठाणांग ३ उद्देशा ४ मूत्र २२०) ७५-दुःसंज्ञाप्यः तीन-जो दुःख पूर्वक कठिनता से समझाये
जाने हैं । वे दुमंज्ञाप्य कहलाते हैं। दुःमंज्ञाप्य तीन:-(१) द्विष्ट (२) मूढ़ (३) व्युद् ग्राहित । द्विष्टः-तत्त्व या व्याख्याता के प्रति द्वेष होने से जो जीव उपदेश
अङ्गीकार नहीं करता वह द्विष्ट है । इस लिए वह दुःसंज्ञाप्य
होता है। मृहः-गुण दोष का अजान, अविवेकी, मूढ़ पुरुष व्याख्याना
के ठीक उपदेश का अनुमरण यथार्थ रूप से नहीं करता।
इम लिए वह दुःसंज्ञाप्य होता है। व्युद् ग्राहितः-कुव्याख्याता के उपदेश से विपरीत धारणा
जिसमें जड़ पकड़ गई हो उसे समझाना भी कठिन है। इस लिए व्युद् ग्राहित्त भी दुःसंज्ञाप्य होता है।
. (ठाणांग ३ उद्देशा ४ सूत्र २०३) ७६-धर्म के तीन भदः
(१) श्रुत धर्म (२) चारित्र धर्म
(३) अस्तिकाय धर्म। नोट:-बोल नम्बर १८ में श्रुतधर्म और चारित्र धर्म की व्याख्या दी जा चुकी है।
(ठाणंग २ उद्देशा ३ सूत्र १८८) अस्तिकाय धर्म:-धर्मास्तिकाय आदि को अस्तिकाय धर्म कहते हैं ।
(ठाणांग ३ उद्देशा ४ सूत्र २१७)
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह सुअधीत, ध्यान और तप के भेद से भी धर्म तीन प्रकार का है। ७७-दर्शन के तीन भेदः(१) मिथ्या दर्शन (२) सम्यग दर्शन (३) मिश्र दर्शन ।
(ठाणांग ३ सूत्र १८४) मिथ्या दर्शन:-मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से अदेव में
देवबुद्धि और अधर्म में धर्मबुद्धि आदि रूप आत्मा के विपरीत श्रद्धान को मिथ्या दर्शन कहते हैं।
(भगवती शतक ८ उद्देशा २) सम्यग दर्शन:-मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षय उपशम या
क्षयोपशम से आत्मा में जो परिणाम होता है उसे सम्यग दर्शन कहते हैं । सम्यग दर्शन हो जाने पर मति आदि
अज्ञान भी मम्यग ज्ञान रूप में परिणत हो जाते हैं। मिश्र दर्शनः-मिश्र मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा में कुछ अयथार्थ तत्त्व श्रद्धान होने को मिश्र दर्शन कहते हैं ।
(भगवती शतक ८ उद्देशा २) (ठाणांग ३ उद्देशा ३ सूत्र १८४)
(विशेषावश्यक भाष्य गाथा ४११) ७८-करण की व्याख्या और भेदः-आत्मा के परिणाम विशेष
को करण कहते हैं । करण के तीन भेदः(१) यथाप्रवृत्तिकरण (२) अपूर्वकरण
(३) अनिवृत्तिकरण। यथाप्रवृत्तिकरण: आयु कर्म के सिवाय शेष सात कर्मों में
प्रत्येक की स्थिति को अन्तः कोटाकोटि सागरोपम परिमाण
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
रख कर बाकी स्थिति को क्षय कर देने वाले समकित के अनुकूल आत्मा के अध्यवमाय विशेष को यथाप्रवृत्ति करण कहते हैं ।
: कोड़ाकोड़ी (कोटाकोटि) का आशय एक कोड़ाकोड़ी में पल्पोमम के असंख्यातवं भाग न्यून स्थिति से है ।
अनादि कालीन मिथ्यात्वी जीव कर्मों की स्थिति को इस करण में उसी प्रकार घटाता है जिम प्रकार नदी में पड़ा हुआ पत्थर घिसते घिमते गोल हो जाता है । अथवा घुणाक्षर न्याय से यानि घुण कीट से कुतराने कुतराने जिम प्रकार काठ में अक्षर बन जाते हैं 1
यथाप्रवृत्तिकरण करने वाला जीव ग्रन्थिदेश -नाग द्वेष की तीव्रतम गांठ के निकट आ जाता है । पर उस गांठ का भेद नहीं कर सकता । अभव्य जीव भी यथाप्रवृत्ति करण कर सकते हैं।
अपूर्व करणः - भव्य जीव यथाप्रवृत्ति करण से अधिक विशुद्ध परिमाण पा सकता है । और शुद्ध परिणामों से रागद्वेष की तीव्रतम गांठ को छिन्न भिन्न कर सकता है । जिस परिणाम विशेष से भव्य जीव राग द्वेष की दुर्भेद्य ग्रन्थि को लांघ जाता है - नष्ट कर देता है । उस परिणाम को अपूर्व करण कहते हैं । ( विशेषावश्यक भाग्य गाथा १२०२ से १२१८ ) नोट:-प्रन्थिभेद के काल के विषय में मतभेद है। कोई आचार्य तो अपूर्व करण में ग्रन्थिभेद मानते हैं और कोई
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श्रा जैन सिद्धान्त बोल मंग्रह अनिवृतिकरण में । और यह भी मन्तव्य है कि अपूर्वकरण में ग्रन्थि भेद आरम्भ होता है और अनिवृत्तिकरण में पूर्ण होता है । अपूर्वकरण दुबारा होता है या नहीं इस विषय में
भी दो मत है। अनिवृत्तिकरणः-अपूर्वकरण परिणाम से जब राग द्वेष की गांठ
टूट जाती है । तब तो और भी अधिक विशुद्ध परिणाम होता है । इस विशुद्ध परिणाम को अनिवृत्तिकरण कहते हैं। अनिवृत्तिकरण करने वाला जीव समकित को अवश्य प्राप्त कर लेता है।
(आवश्यक मलयगिरि गाथा १०६-१०७ टीका) (विशेषावश्यक भाष्य गाथा १२०२ से १२१८) (प्रवचसारोद्धार गाथा १३०२ टीका)
( कर्मग्रन्थ दूसरा भाग)
(आगमसार) ७६-मोक्ष मार्ग के तीन भेदः
(१) सम्यगदर्शन (२) सम्यगज्ञान (३) सम्यक चारित्र । सम्यगदर्शन:-तत्वार्थ श्रद्धान को सम्यगदर्शन कहते हैं । मोह
नीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से यह उत्पन्न
होता है। सम्यगज्ञान:-प्रमाण और नय से होने वाला जीवादि तत्त्वों का
यथार्थ ज्ञान मम्यगज्ञान है । वीर्यान्तगय कर्म के माथ ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम होने से
यह उत्पन्न होता है। सम्यगचारित्रः-मंसार की कारणभूत हिंमादि क्रियाओं का
त्याग करना और मोक्ष की कारणभूत मामायिक आदि
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श्रा सेठिया जैन प्रन्थमाला क्रियाओं का पालन करना सम्यगचारित्र है । चारित्र मोहनीय के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से यह उत्पन्न होता है।
(उत्तराध्ययन अध्ययन २८ गाथा ३०)
(नत्त्वार्थ सूत्र अध्याय १ सूत्र १) ८०-ममकित के दो प्रकार से तीन भेदः
(१) कारक (२) गेचक (३) दीपक ।
(१) औपशमिक (२) क्षायिक (३) क्षायोपशमिक कारक समकित:-जिस समकित के होने पर जीव सदनुष्ठान में
श्रद्धा करता है । स्वयं सदनुष्ठान का आचरण करता है तथा दमरों से करवाना है । वह कारक समकिन है । यह ममकित विशुद्ध चारित्र वाले के समझनी
चाहिए । रोचक समकित:-जिस समकित के होने पर जीव सदनुष्ठान में
मिर्फ रुचि रखता है। परन्तु मदनुष्ठान का आचरण नहीं कर पाता वह रोचक समकित है। यह समकित चौथे गुणस्थानवर्ती जीव के जाननी चाहिए । जैसे श्रीकृष्णजी, श्रेणिक
महाराज आदि। दीपक समकितः-जो मिथ्या दृष्टि स्वयं तत्वश्रद्धान से शून्य होते
हुए दूसरों में उपदेशादि द्वारा तत्त्व के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करता है उसकी समकित दीपक ममकित कहलाती है। दीपक समकितधारी मिथ्यादृष्टि जीव के उपदेश आदि रूप परिणाम द्वारा दूसरों में समकित उत्पन्न होने से उसके
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श्री सन सिद्धाना बीज संपह परिणाम दूसरों की समकित में कारण रूप हैं । समकिन के कारण में कार्य का उपचार कर प्राचार्यों ने इसे समकित कहा है। इस लिए मिथ्या दृष्टि में उक्त समकित होने के के सम्बन्ध में कोई शंका का स्थान नहीं है।
(विशेषावश्यक भाष्य गाथा २६७५ पृष्ठ १०६४) (द्रव्य लोक प्रकाश तीसरा सर्ग६६८-६७०)
(धर्म संग्रह अधिकार २)
(श्रावक धर्म प्रज्ञप्ति) औपशमिक समकितः-दर्शन मोहनीय की तीनों प्रकृतियों के
उपशम से होने वाला आत्मा का परिणाम औपशमिक समकित है । औपशमिक समकित सर्व प्रथम समकित पाने
वाले तथा उपशम श्रेणी में रहे हुए जीवों के होती है। दायिक समकितः अनन्तानुबन्धी चार कषायों के और दर्शन
मोहनीय की तीनों प्रकृतियों के क्षय होने पर जो परिणाम
विशेष होता है वह क्षायिक समकित है। क्षायोपशमिक समकित:-उदय प्राप्त मिथ्यात्व के क्षय से और
अनुदय प्राप्त मिथ्यात्व के उपशम से तथा समकित मोहनीय के उदय से होने वाला आत्मा का परिणाम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है।
(अभिधान राजेन्द्र कोष भाग ३ पृष्ठ ६६१) (प्रवचन सारोद्धार गाथा ६४३ से ६४५)
(कर्मग्रन्थ पहला भाग गाथा १५) ८१-समकित के तीन लिंग:
(१) श्रुत धर्म में राग (२) चारित्र धर्म में राग (३) देव गुरु की वैयावच्च का नियम ।
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श्री जैन सठिया प्रन्थमाला श्रुत धर्म में राग:-जिस प्रकार तरुण पुरुप रङ्ग राग में अनुरक्त
रहता है उससे भी अधिक शास्त्र-श्रवण में अनुरक्त रहना । चारित्र धर्म में राग:--जिस प्रकार तीन दिन का भूखा मनुष्य
खीर आदि का आहार रुचि पूर्वक करना चाहता है उससे
भी अधिक चारित्र धर्म पालने की इच्छा रखना। देवगुरु की वैयावच्च का नियमः-देव और गुरु में पूज्य भाव
रखना और उनका आदर सत्कार रूप वैयावच्च का नियम करना।
(प्रवचन सारोद्धार गाथा १२६ ) ८२-समकित की तीन शुद्धियों:--जिनेश्वर देव, जिनेश्वर देव
द्वारा प्रतिपादित धर्म और जिनेश्वर देव की आज्ञानुसार विचग्ने वाले साधु । ये तीनों ही विश्व में सारभूत हैं। ऐमा विचार करना समकित की तीन शुद्धियों हैं।
___ (प्रवचन सारोद्धार गाथा ६३२) ८३-आगम की व्याख्या और भेदः-राग-द्वेष रहित, सर्वज्ञ, हितोपदेशक महापुरुष के वचनों से होने वाला अर्थज्ञान आगम कहलाता है । उपचार से प्राप्त वचन भी आगम कहा जाता है।
__ (प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार परिच्छेद ४ ) आगम के तीन भेदः--
(१) सूत्रागम (२) अर्थागम (३) तदुभयागम । सूत्रागमः--मूल रूप आगम को सूत्रागम कहते हैं। अर्थागम:--सूत्र-शास्त्र के अर्थ रूप आगम को अर्थागम
कहते हैं।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
६१
तदुभयागमः --सूत्र और अर्थ दोनों रूप आगम को तदुभयागम
कहते हैं।
(अनुयोगद्वार सूत्र १४३)
आगम के तीन और भी भेद हैं:
(१) आत्मागम (२) अनन्तरागम (३) परम्परागम । आत्मागमः - गुरु के उपदेश विना स्वयमेव आगम ज्ञान होना आत्मागम है । जैसे:- तीर्थकरों के लिए अर्थागम आत्मागम रूप है और गणधरों के लिए सूत्रागम आत्मागम रूप है अनन्तरागमः --- स्वयं आत्मागम धारी पुरुष से प्राप्त होने वाला श्रागमज्ञान अनन्तरागम है । गणधरों के लिए अर्थागम अनन्तरागम रूप है । तथा जम्बूस्वामी आदि गणधरों के शिष्यों के लिए सूत्रागम अनन्तरागम रूप है ।
1
परम्परागमः - साक्षात् आत्मागम धारी पुरुष से प्राप्त न होकरं जो आगम ज्ञान उनके शिष्य प्रशिष्यादि की परम्परा से आता है वह परम्परागम है । जैसे जम्बूस्वामी आदि गणधर - शिष्यों के लिए अर्थागम परम्परागम रूप है । तथा इनके पश्चात् के सभी के लिए सूत्र एवं अर्थ रूप दोनों प्रकार का आगम परम्परागम है ।
(अनुयोगद्वार प्रमाणाधिकार सूत्र १४४ )
८४ - पुरुष के तीन प्रकार :
(१) सूत्रधर (२) अर्थधर (३) तदुभयधर ।
सूत्रधर:- सूत्र को धारण करने वाले शास्त्र पाठक पुरुष को सूत्रधर पुरुष कहते हैं ।
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श्री संठिया जैन मन्धमाला अर्थधरः-शास्त्र के अर्थ को धारण करने वाले अर्थवेना पुरुष को
अर्थधर पुरुष कहते हैं। तदुभयधरः-सूत्र और अर्थ दोनों को धारण करने वाले शास्त्रार्थवेत्ता पुरुष को तदुभयधर पुरुष कहते हैं।
(ठाणांग ३ उद्देशा ३ सूत्र १६६) ८५-व्यवसाय की व्याख्या और भेदः--वस्तु स्वरूप के निश्चय
को व्यवमाय कहते हैं। व्यवसाय के तीन भेदः--
(१) प्रत्यक्ष (२) प्रात्ययिक (३) आनुगमिक (अनुमान) प्रत्यक्ष व्यवसाय: -अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान और केवल ज्ञान
को प्रत्यक्ष व्यवसाय कहते हैं । अथवा वस्तु के स्वरूप को
स्वयं जानना प्रत्यक्ष व्यवसाय है। प्रात्ययिक व्यवसायः--इन्द्रिय एवं मन रूप निमित्त से होने
वाला वस्तुस्वरूप का निर्णय प्रात्ययिक व्यवसाय कहलाता है । अथवा आप्त (वीतराग)के वचन द्वारा होने वाला वस्तु
स्वरूप का निर्णय प्रात्ययिक व्यवसाय है। आनुगमिक व्यवसाय:-साध्य का अनुसरण करने वाला एवं
साध्य के विना न होने वाला हेतु अनुगामी कहलाता है। उस हेतु से होने वाला वस्तु स्वरूप का निर्णय आनुगमिक व्यवसाय है।
(ठाणांग ३ उद्देश। ३ सूत्र १८५) ८६-आराधना तीन:-अतिचार न लगाते हुए शुद्ध आचार का
पालन करना आराधना है। आराधना के तीन भेदः
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श्री सिद्धान्त जैन बोल संग्रह
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(१) ज्ञानाराधना (२) दर्शनाराधना (३) चारित्रागधना | ज्ञानाराधना: - ज्ञान के काल, विनय, बहुमान आदि आठ आचारों का निर्दोष रीति से पालन करना ज्ञानाराधना है । दर्शनाराधना :- शंका, कांक्षा आदि समकित के अतिचारों को न लगाते हुए निःशंकित आदि समकित के आचारों का शुद्धता पूर्वक पालन करना दर्शनाराधना है । चारित्राराधना: -- सामायिक आदि चारित्र में हुए निर्मलता पूर्वक उसका पालन धना है ।
अतिचार न लगाते करना चारित्राग
( ठागांग ३ उद्देशा ३ सूत्र १६५ ) ८७- विराधना: - ज्ञानादि का सम्यक् रीति से आराधन न करना उनका खंडन करना, और उनमें दोष लगाना विराधना है । विराधना के तीन मेदः --
(१) ज्ञान विराधना (२) दर्शन विराधना (३) चारित्र विराधना |
ज्ञान विराधना:- ज्ञान एवं ज्ञानी की अशातना, अपलाप आदि द्वारा ज्ञान की खण्डना करना ज्ञान विराधना है ।
दर्शन विराधना : -- जिन वचनों में शंका करने, आडम्बर देख कर अन्यमत की इच्छा करने, सम्यक्त्व धारी पुरुष की निन्दा करने, मिथ्यात्वी की प्रशंसा करने आदि से समकित की विराधना करना दर्शन विराधना है ।
चारित्र विराधना :- सामायिक आदि चारित्र की विराधना करना चारित्र विराधना है ।
( समवायांग सूत्र ३)
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श्री सेटिया जैन ग्रन्थमाला ८८-श्रमणापासक-श्रावक के तीन मनोरथ:-- १-पहले मनोरथ में श्रावकजी यह भावना भावें कि कर वह शुभ समय प्राप्त होगा। जब मैं अल्प या अधिक
परिग्रह का त्याग करूंगा। २-दूसरे मनोरथ में श्रावकजी यह चिन्तन करें कि कब वह शुभ ममय प्राप्त होगा जब मैं गृहस्थावास को छोड़ कर मुंडित होकर प्रवज्या अंगीकार करूंगा। ३-तीमरे मनोग्थ में श्रावकजी यह विचार करें कि कब वह शुभ अवसर प्राप्त होगा जब मैं अन्त ममय में संलेखना स्वीकार कर, आहार पानी का त्याग कर, पादोपगमन मरण अंगीकार कर जीवन-मरण की इच्छा न करना हुआ रहूंगा।
इन तीन मनोरथों का मन, वचन, काया से चिन्तन करता हुआ श्रमणोपासक (श्रावक) महानिर्जग एवं महापर्यवमान (प्रशस्त अन्त) वाला होता है ।
(ठाणांग ३ उद्देशा ४ सूत्र २१०) ८६-मर्व विगति माधु के तीन मनोरथः--
(१) पहले मनोरथ में माधुजी यह विचार करें कि कब वह शुभ ममय आवेगा जिम ममय मैं थोड़ा या अधिक शास्त्र ज्ञान मीचूंगा। (२) दूमरे मनोग्य में साधुजी यह विचार करें कि कब वह शुभ समय आवेगा जब मैं एकल विहार की भिक्षुप्रतिमा ( भिक्खु पडिमा ) अङ्गीकार कर विचरूँगा।
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. श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (३) तीसरे मनोरथ में साधुजी यह चिन्तवन करें कि कब वह शुभ समय आवेगा जब मैं अन्त समय में संलेखना स्वीकार कर, आहार पानी का त्याग कर, पादोपगमन मरण अङ्गीकार कर, जीवन-मरण की इच्छा न करता हुआ विचरूँगा।
इन तीन मनोरथों की मन, वचन, काया से चिन्तवना आदि करता हुआ साधु महानिर्जरा एवं महापर्यवमान (प्रशस्त अन्त ) वाला होता है।
__(ठाणांग ३ उद्देशा ४ सूत्र २१०) १०-वैराग्य की व्याख्या और उसके भेदः
पांच इन्द्रियों के विषय भोगों से उदासीन-विरक्त होने को वैराग्य कहते हैं । वैराग्य के तीन भेदः(१) दुःखगर्भित वैगग्य ( २ ) मोहगर्भित वैराग्य
(३) ज्ञानगर्भित वैराग्य । दुःखगर्भित वैराग्यः-किसी प्रकार का संकट आने पर रिक्त
होकर जो कुटुम्ब आदि का त्याग किया जाता है । वह
दुःखगर्भित वैराग्य है । यह जघन्य वैराग्य है। मोहगर्भित वैराग्यः इष्ट जन के मर जाने पर मोहवश जो मुनि
व्रत धारण किया जाता है । वह मोहगर्भित वैराग्य है।
यह मध्यम वैराग्य है। ज्ञानगर्भित वैराग्यः-पूर्व संस्कार अथवा गुरु के उपदेश से
आन्म-ज्ञान होने पर इस असार संसार का त्याग करना ज्ञानगर्भित वैराग्य है । यह वैराग्य उत्कृष्ट है।
(कर्त्तव्य कौमुदी दूसरा भाग पृष्ठ ७१ श्लक ११८-११६ वैराग्य प्रकरण द्वितीय परिच्छेद)
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ११-स्थविर तीन:
(१) वयःस्थविर (२) सूत्रस्थविर
(३) प्रव्रज्या स्थविर ।। वयःस्थविर (जाति स्थविर ) साठ वर्ष की अवस्था के साधु
वयःस्थविर कहलाने हैं। सूत्रस्थविरः-श्रीस्थानांग (ठाणांग) और समवायांग सूत्र के ज्ञाता
साधु सूत्रस्थविर कहलाते हैं। प्रवज्यास्थविरः-चीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाले साधु प्रवज्यास्थविर कहलाते हैं।
(ठाग ३ उदं शा ३ सूत्र १५६) ६२-भाव इन्द्र के तीन भेदः__(१) ज्ञानेन्द्र ( २ ) दर्शनेन्द्र (३) चारित्रन्द्र । ज्ञानेन्द्रः-अतिशयशाली, श्रुत आदि ज्ञानों में से किसी ज्ञान
द्वारा वस्तु तत्व का विवेचन करने वाले, अथवा केवल ज्ञानी
को ज्ञानेन्द्र कहते हैं। दर्शनेन्द्र:-क्षायिक सम्यगदर्शन वाले पुरुष को दर्शनेन्द्र
कहते हैं। चारित्रेन्द्रः-यथाख्यात चारित्र वाले मुनि को चारित्रेन्द्र कहते
हैं । वास्तविक-आध्यात्मिक ऐश्वर्य सम्पन्न होने से ये तीनों भावेन्द्र कहलाते हैं।
(ठाणांग ३ उद्देशा १ सूत्र ११६ ) ६३-एषणा की व्याख्या और भेदः-आहार, अधिकरण (वस्त्र,
पात्र आदि साथ में रखने की वस्तुए) शय्या (स्थानक,
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
६७
पाट, पाटला ) इन तीनों वस्तुओं के शोधने में, ग्रहण करने में, अथवा उपभोग करने में संयम धर्म पूर्वक संभाल रखना, इसे एषणासमिति कहते हैं ।
एषणासमिति के तीन भेद:
(१) गवेषणैषणा (२) ग्रहणैषणा (३) ग्रासैषणा | गवेषणैषणाः - सोलह उद्गम दोप, सोलह उत्पादना दोष, इन बत्तीस दोषों को टालकर शुद्ध आहार पानी की खोज करना गवेषणा है।
ग्रहणैषणाः - एषणा के शंकित आदि दस दोषों को टाल कर शुद्ध अनादि ग्रहण करना ग्रहणैषणा है ।
ग्रासैषणा :- गवेषणा और ग्रहणैषणा द्वारा प्राप्त शुद्ध आहारादि को खाते समय मांडले के पांच दोष टालकर उपभोग करना ग्रासैषणा है।
( उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २४ )
६४-करण के तीन भेद:
(१) आरम्भ ( २ ) संरम्भ (३) समारम्भ |
( ठायांग ३ सूत्र १२४ ) आरम्भ:- पृथ्वी काय आदि जीवों की हिंसा करना आरम्भ कहलाता है ।
संरम्भ:- पृथ्वी काय आदि जीवों की हिंसा विषयक मन में संक्लिष्ट परिणामों का लाना संरम्भ कहलाता है ।
समारम्भ: - पृथ्वी काय आदि जीवों को सन्ताप देना समारम्भ कहलाता है ।
( ठाणांग ३ उद्देशा १ सूत्र १२४ )
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला ६५-योग की व्याख्या और भेदः
वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम या क्षय होने पर मन, वचन, काया के निमित्त से आत्मप्रदेशों के चंचल होने को योग कहते हैं।
अथवाःवीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से उत्पन्न शक्ति विशेष से होने वाले साभिप्राय आत्मा के पराक्रम को योग कहते हैं।
(ठाणांग ३ सूत्र १२४ टीका) योग के तीन भेदः--
(१) मनोयोग (२) वचनयोग (३) काययोग । मनोयोगः-नोइन्द्रिय मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम स्वरूप
आन्तरिक मनोलब्धि होने पर मनोवर्गणा के आलम्बन से मन के परिणाम की ओर झुके हुए आत्मप्रदेशों का
जो व्यापार होता है उसे मनोयोग कहते हैं। वचनयोगः–मति ज्ञानावरण, अक्षर श्रुत ज्ञानावरण आदि कर्म
के क्षयोपशम से आन्तरिक वागलब्धि उत्पन्न होने पर वचन वर्गणा के आलम्बन से भाषापरिणाम की ओर अभिमुख
आत्मप्रदेशों का जो व्यापार होता है । उसे वचनयोग
कहते हैं। काययोगः-औदारिक आदि शरीर वर्गणा के पुद्गलों के
आलम्बन से होने वाले आत्मप्रदेशों के व्यापार को काययोग कहते हैं।
(ठाणांग ३ सूत्र १२४) (तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय, ५)
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ६६-दण्ड की व्याख्या और भेदः-जो चारित्र रूपी आध्या
त्मिक ऐश्वर्य का अपहरण कर आत्मा को असार कर देता है । वह दण्ड है।
(समवायांग ३) अथवाःप्राणियों को जिससे दुःख पहुंचता हैं उसे दण्ड कहते हैं।
(आचारांग श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन ४ उद्देशा १)
अथवा:मन, वचन, काया की अशुभ प्रवृत्ति को दण्ड कहते हैं।
(उत्तराध्ययन अध्ययन १६) दण्ड के तीन भेदः(१) मनदण्ड (२) वचनदण्ड (३) कायादण्ड ।
(समवायांग ३)
(ठाणांग ३ उद्देशा १ सूत्र १२६) १७-कथा तीन:-- ___ (१) अर्थकथा (२) धर्मकथा (३) काम कथा । अर्थकथा:--अर्थ का स्वरूप एवं उपार्जन के उपायों को बतलाने
वाली वाक्य पद्धति अर्थ कथा है जैसे कामन्दकादि शास्त्र । धर्मकथा:-धर्म का स्वरूप एवं उपायों को बतलाने वाली वाक्य
पद्धति धर्म कथा है । जैसे उत्तराध्ययन सूत्र आदि । कामकथा:-काम एवं उस के उपायों का वर्णन करने वाली
वाक्यपद्धति काम कथा है। जैसे वात्स्यायन कामसूत्र वगैरह।
(ठाणांग ३ सूत्र १८६)
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
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८- गाव (गौरव) की व्याख्या और भेद:द्रव्य और भाव भेद से गौरव दो प्रकार का है । वज्रादि की गुरुता द्रव्य गौरव है । अभिमान एवं लोभ से होने वाला आत्मा का अशुभ भाव भाव गौरव (भाव गाव ) है । यह संसार चक्र में परिभ्रमण कराने वाले कर्मों का कारण है ।
गाव (गौरव) के तीन भेद:
(१) ऋद्धि गौरव (२) रसगौरव (३) साता गौरव । ऋद्धि गौरव: - राजा महाराजाओं से पूज्य आचार्य्यता आदि की ऋद्धि का अभिमान करना एवं उनकी प्राप्ति की इच्छा करना ऋद्धि गौरव है ।
Co
गौरव - रसना इन्द्रिय के विषय मधुर आदि रसों की प्राप्ति अभिमान करना या उनकी इच्छा करना रसगौरव है । माता गौरव:- साता-स्वस्थता आदि शारीरिक सुखों की प्राप्ति होने से अभिमान करना या उनकी इच्छा करना सातागौरव है । ( ठाणांग ३ सूत्र २१५ )
- ऋद्धि के तीन भेद:
●
(१) देवता की ऋद्धि (२) राजा की ऋद्धि
(३) आचार्य को ऋद्धि |
१०० -देवता की ऋद्धि के तीन
( ठाणांग ३ सूत्र २१५ )
भेद:
(२) विक्रिया करने की ऋद्धि
(१) विमानों की ऋद्धि (३) परिचारणा ( कामसेवन) की ऋद्धि ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
अथवाः(१) सचित्त ऋद्धिः-अग्रमहिषी आदि सचित्त वस्तुओं की
सम्पत्ति । (२) अचित्त ऋद्धिः-वस्त्र आभूषण की ऋद्धि । (३) मिश्र ऋद्धिः-वस्त्राभूषणों से अलंकृत देवी आदि की ऋद्धि।
(ठाणांग ३ सूत्र २१४) १०१-राजा की ऋद्धि के तीन भेदः(१) अति यान ऋद्धिः-नगर प्रवेश में तोरण बाजार आदि
की शोभा, लोगों की भीड़ आदि रूप ऋद्धि अर्थात्
नगर प्रवेश महोत्सव की शोभा । (२) निर्याण ऋद्धिः-नगर से बाहर जाने में हाथियों की
सजावट, सामन्त आदि की ऋद्धि। (३) राजा के सैन्य, वाहन, खजाना और कोठार की ऋद्धि।
अथवा:सचित्त, अचित्त, मिश्र के भेद से भी राजा की ऋद्धि के तीन भेद हैं।
(ठाणांग ३ सूत्र २१४) १०२-आचार्य की ऋद्धि के तीन भेदः
(१) ज्ञानऋद्धि (२) दर्शनऋद्धि (३) चारित्रऋद्धि । (१) ज्ञान ऋद्धिः-विशिष्ट श्रुत की सम्पदा । (२) दर्शन ऋद्धिः-आगम में शंका आदि से रहित
होना तथा प्रवचन की प्रभावना करने वाले शास्त्रों का ज्ञान ।
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला (३) चारित्र ऋद्धिः-अतिचार रहित शुद्ध, उत्कृष्ट चारित्र का पालन करना।
अथवाःसचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से भी प्राचार्य की ऋद्धि तीन प्रकार की है। (१) मचितऋद्धिः-शिप्य वगैरह । (२) अचित्तऋद्धिः -चस्व वगैरह । (३) मिश्रऋद्धिः-चस्त्र पहने हुए शिष्य वगैरह ।
(ठाणांग ३ सूत्र २१४) १०३-आचार्य के तीन भेदः
(१) शिल्पाचार्य (२) कलाचार्य (३) धर्माचार्य । शिल्पाचार्यः-लुहार, सुनार, शिलावट, सुथार, चितेरा इत्यादि
के हुन्नर को शिल्प कहते हैं । इन शिल्पों में प्रवीण शिक्षक
शिल्पाचार्य कहलाते हैं। कलाचार्य:-काव्य, नाट्य, संगीत, चित्रलिपि इत्यादि पुरुष
की ७२ और स्त्रियों की ६४ कला को सीखाने वाले
अध्यापक कलाचार्य कहलाने हैं। धर्माचार्य:-श्रुत चारित्र रूप धर्म का स्वयं पालन करने वाले,
दूसरों को उसका उपदेश देने वाले, गच्छ के नायक, साधु मुनिराज धर्माचार्य कहलाने हैं।
शिल्पाचार्य और कलाचार्य की सेवा इहलौकिक हित के लिए और धर्माचार्य की सेवा पारलौकिक हित-निर्जरा आदि के लिए की जाती है।
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शिल्पाचार्य और कलाचार्य की विनय भक्ति धर्माचार्य की विनय भक्ति से भिन्न प्रकार की है । शिल्पाचार्य और कलाचार्य को स्नान आदि कराना, उनके लिऐ पुष्प लाना, उनका मण्डन करना, उन्हें भोजन कराना, विपुल आजीविका योग्य प्रीतिदान देना, और उनके पुत्र पुत्रियों का पालन पोषण करना, यह उनकी विनय-भक्ति का प्रकार है ।
धर्माचार्य को देखते ही उन्हें वन्दना, नमस्कार करना, उन्हें सत्कार सन्मान देना, यावत् उनकी उपासना करना, प्रामुक, एषणीय आहार पानी का प्रतिलाभ देना, एवं पीढ़, फलग, शय्या, संथारे के लिए निमन्त्रण देना, यह धर्माचार्य की विनय भक्ति का प्रकार है ।
( रायप्रश्नीय सूत्र ७७ पृष्ठ १४२ ) ( अभिधान राजेन्द्र कोप भाग २ पृष्ठ ३०३ )
१०४ - शल्य तीन: - जिससे बाधा ( पीड़ा ) हो उसे शल्य कहते हैं । कांटा भाला वगैरह द्रव्य शल्य हैं ।
भावशल्य के तीन भेद:
--
( १ ) माया शल्य ( २ ) निदान ( नियाण ) शल्य ( ३ ) मिथ्या दर्शन शल्य |
माया शल्यः -- कपट भाव रखना माया शल्य है । अतिचार लगा कर माया से उसकी आलोचना न करना अथवा गुरु के समक्ष अन्य रूप से निवेदन करना, अथवा दूसरे पर भूंठा आरोप लगाना माया शल्य है
1
( धर्मसंग्रह अध्याय ३ पृष्ठ ७६ )
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला निदान शल्यः राजा, देवता आदि की ऋद्धि को देख कर या
मुन कर मन में यह अध्यवसाय करना कि मेरे द्वारा आचरण किये हुए ब्रह्मचर्य, तप आदि अनुष्ठानों के फलस्वरूप मुझे
भी ये ऋद्धियों प्राप्त हों। यह निदान (नियाणा) शल्य है। मिथ्या दर्शन शल्यः-विपरीत श्रद्धा का होना मिथ्या दर्शन शल्य है।
(समवायांग ३)
(ठाणांग ३ सूत्र १८२) १०५-अल्प आयु के तीन कारण:
तीन कारणों से जीव अल्पायु फल वाले कर्म बांधते हैं। (१) प्राणियों की हिंसा करने वाला (२) झूठ बोलने वाला ( ३ ) तथा रूप ( साधु के अनुरूप क्रिया और वेश आदि से युक्त दान के पात्र ) श्रमण, माहण ( श्रावक ) को अप्रामुक, अकल्पनीय, अशन, पान, खादिम, स्वादिम देने वाला जीव अल्पायु फल वाला कर्म बांधता है।
(ठाणांग ३ सूत्र १२५)
(भगवती शतक ५ उद्देशा ६) १०६-जीव की अशुभ दीर्घायु के तीन कारण:-तीन स्थानों से
जीव अशुभ दीर्घायु अर्थात् नरक आयु बांधते हैं । (१) प्राणियों की हिंसा करने वाला (२) झूठ बोलने वाला (३) तथारूप श्रमण माहण की जाति प्रकाश द्वारा अवहेलना करने वाला, मन में निन्दा करने वाला, लोगों
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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के सामने निन्दा और गर्हणा करने वाला, अपमान करने वाला तथा प्रीतिपूर्वक अमनोज्ञ शनादि बहराने वाला जीव अशुभ दीर्घायु फल वाला कर्म बांधता है । (ठाणांग ३ सूत्र १२५ )
तीन स्थानों से
१०७ - जीव की शुभ दीर्घायु के तीन कारण: जीव शुभ दीर्घायु बांधता है ।
( १ ) प्राणियों की हिंसा न करने वाला
( २ ) झूठ न बोलने वाला
( ३ ) तथा रूप श्रमण, माहण को वन्दना नमस्कार यावत् उनकी उपासना करके उन्हें किसी प्रकार के मनोज्ञ एवं प्रीतिकारक अशनादिक का प्रतिलाभ देने वाला अर्थात् बहराने वाला जीव शुभ दीर्घायु बांधता है ।
( भगवती शतक ५ उद्देशा ६ ) १०८ - पल्पोपम की व्याख्या और भेदः - एक योजन लम्बे, एक योजन चौड़े और एक योजन गहरे गोलाकार कूप की उपमा से जो काल गिना जाय उसे पल्योपम कहते हैं ।
पल्योपम के तीन भेद:
( १ ) उद्धार पल्योपम ( २ ) श्रद्धा पल्योपम ( ३ ) क्षेत्र पल्योपम ।
उद्धार पल्योपमः -- उत्सेधांगुल परिमाण एक योजन लम्बा, चौड़ा और गहरा कुआ एक दो तीन यावत् सात दिन वाले देवकुरु उत्तरकुरु जुगलिया के बाल (केश) के अग्र भागों से इंस हंस कर इस प्रकार भरा जाय कि वे बालाग्र
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श्री सठिया जैन ग्रन्थमाला हवा से न उड़ मके और आग से न जल मके उनमें से प्रत्येक को एक एक ममय में निकालते हुए जितने काल म वह कुंआ सर्वथा खाली हो जाय उस काल परिमाण को उद्धार पल्योपम कहते हैं । यह पल्योपम संग्व्यात समय
पग्मिाण होता है। उद्धार पल्योपम सूक्ष्म और व्यवहारिक के भेदसे दो प्रकार का है।
उपरोक्त वर्णन व्यवहारिक उद्वार पल्योपम का है । उक्त वालाग्र के अमंन्यात अदृश्य खंड किये जाय जो कि विशुद्ध लोचन वाले छद्मथ पुम्प के दृष्टिगोचर होने वाले सूक्ष्म पुद्गल द्रव्य के अमंग्व्यातवें भाग एवं मून्म पनक (नीलण-फूलण) शरीर के असंख्यात गुणा हो । उन सूक्ष्म वालाग्र सण्डों से वह कुंया हम हम कर भरा जाय और उनमें से प्रति-ममय एक एक बालाग्र खण्ड निकाला जाय। इस प्रकार निकालने निकालने जितने काल में वह कुंआ सर्वथा खाली हो जाय उसे सूक्ष्म उद्धार पल्योपम कहते हैं । सूक्ष्म उद्धार पल्योपम में मुख्यात वर्ष कोटि
पग्मिाण काल होता है। श्रद्धा पल्योपमः-उपरोक्त रीनि से भरे हुए उपरोक्त परिमाण के
कूप में से एक एक वालाग्र मी मी वर्ष में निकाला जाय । इस प्रकार निकालने निकालने जितने काल में वह कुंआ सर्वथा खाली हो जाय उस काल परिमाण को अद्धा पल्योपम कहते हैं। यह मंख्यात वर्ष कोटि परिमाण होता है। इसके भो सूक्ष्म और व्यवहार दो भेद हैं। उक्त स्वरूप व्यवहार अद्धा पल्यापम का है। यदि यही कूप उपरोक्त
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
सूक्ष्म बालाग्र खण्डों से भरा हो एवं उनमें से प्रत्येक बालाग्र खण्ड सौ सौ वर्ष में निकाला जाय । इस प्रकार निकालते निकालते वह कुंआ जितने काल में खाली हो जाय वह सूक्ष्म श्रद्धा पल्योपम है । सूक्ष्म श्रद्धा पल्योपम में असंख्यात वर्ष कोटि परिमाण काल होता है ।
७७
क्षेत्र पल्योपमः -- उपरोक्त परिमाण का कूप उपरोक्त रीति से बालाग्रों से भरा हो । उन बालाग्रों से जो आकाश प्रदेश हुए हुए हैं। उन छुए हुए आकाश प्रदेशों में से प्रत्येक को प्रति समय निकाला जाय। इस प्रकार सभी आकाश प्रदेशों को निकालने में जितना समय लगे वह क्षेत्र - पल्योपम है । यह काल असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी परिमाण होता है । यह भी सूक्ष्म और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है । उपरोक्त स्वरूप व्यवहार क्षेत्र पल्योपम का हुआ ।
यदि यही कुंद्रा बालाग्र के सूक्ष्म खण्डों से ठूंस ठूंस कर भरा हो । उन बालाग्र खण्डों से जो आकाश प्रदेश छुए हुए हैं और जो नहीं हुए हुए हैं । उन हुए हुए और नहीं हुए हुए सभी आकाश प्रदेशों में से प्रत्येक को एक एक समय में निकालते हुए सभी को निकालने में जितना काल लगे वह सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम है । यह भी असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी परिमाण होता है । व्यवहार क्षेत्र पन्योपम से असंख्यात गुणा यह काल जानना चाहिए ।
( अनुयोगद्वार सूत्र १३८ - १४०
पृष्ठ १७६ श्रागमोदम समिति )
( प्रवचन सारोद्धार गाथा १०१८ से १०२६ तक )
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८
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला १०६--मागरोपम के नीन भेदः
(१) उद्धार मागरोपम (२) अद्धा मागरोपम ।
(३) क्षेत्र मागगेपम । उद्धार मागगेपमः--उद्धार मागरोपम के दो भेदः-सूक्ष्म और
व्यवहार । दस हजार कोड़ा कोड़ी च्यवहार उद्धार पल्योपम का एक व्यवहार उद्धार सागगेपम होता है। दस हजार कोड़ा कोड़ी सूक्ष्म उद्धार पल्योपम का एक सूक्ष्म उद्धार सागरोपम होता है।
ढाई सूक्ष्म उद्धार सागरोपम या पच्चीस हजार कोड़ा कोड़ी सूक्ष्म उद्धार पल्योपम में जितने समय होने हैं। उतने
ही लोक में द्वीप और समुद्र हैं। अद्धा सागरोपमः-अद्धा सागगेपम भी सूक्ष्म और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है।
दस हजार कोड़ा कोड़ी व्यवहार श्रद्धा पल्योपम का एक व्यवहार अद्धा सागरोपम होता है।
दस हजार कोडाकोड़ी सूक्ष्म अद्धा पल्योपम का एक सूक्ष्म अद्धा सागरोपम होता है।
जीवों की कर्मस्थिति, कायस्थिति और भवस्थिति सूक्ष्म श्रद्धा पल्योपम और सूक्ष्म अद्धा सागरोपम से मापी
जाती है। क्षेत्र सागरोपप:-क्षेत्र मागगेपम भी सूक्ष्म और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है।
दस हजार कोड़ाकोड़ी व्यवहार क्षेत्र पल्योपम का एक व्यवहार क्षेत्र सागरोपम होता है।
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जाती है।
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह दम हजार कोड़ा कोड़ी सूक्ष्म क्षेत्र पन्योपम का एक सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम होता है। सूक्ष्म क्षेत्र पन्योपम और सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम से दृष्टिवाद में द्रव्य मापे जाते हैं। सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम से पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस जीवों की गिनती की
(अनुयोगद्वार पृष्ठ १७६ आगमोदय समिति)
(प्रवचन सारोद्धार गाथा १७२७ से १७३०) ११०-नवीन उत्पन्न देवता के मनुष्य लोक में आने के तीन
कारण:-देवलोक में नवीन उत्पन्न हुआ देवता तीन कारणों से दिव्य काम भोगों में मूर्छा, मृद्धि एवं आसक्ति न करता हुआ शीघ्र मनुष्य लोक में आने की इच्छा करता है और आ सकता है।
(१) वह देवता यह सोचता है कि मनुष्य भव में मेरे प्राचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर एवं गणावच्छेदक हैं। जिनके प्रभाव से यह दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देव द्युति और दिव्य देव शक्ति मुझे इस भव में प्राप्त हुई है । इसलिए मैं मनुष्य लोक में जाऊं और उन पूज्य प्राचार्यादि को वन्दना नमस्कार करूं, सत्कार सन्मान दं, एवं कल्याण तथा मंगल रूप यावत् उनकी उपासना करूं। (२) नवीन उत्पन्न देवता यह सोचता है कि सिंह की गुफा में कायोत्सर्ग करना दुष्कर कार्य है । किन्तु पूर्व उपभुक्त, अनुरक्त तथा प्रार्थना करनेवाली वेश्या के मन्दिर में रहकर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना उससे भी अति दुष्कर
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला कार्य है । स्यूलभद्र मुनि को तरह ऐमी कठिन से कठिन क्रिया करने वाले ज्ञानी, तपस्वी, मनुष्य-लोक में दिखाई पड़ने हैं । इमलिये मैं मनुष्य लोक में जाऊं और उन पूज्य मुनीश्वर को वन्दना नमस्कार करूं यावत् उनकी उपासना करूं। (३) वह देवता यह सोचता है कि मनुष्य भव में मेरे माता पिता, भाई, बहिन, स्त्री, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू आदि हैं। मैं वहां जाऊं और उनके मन्मुख प्रकट होऊं। वे मेरी इस दिव्य देव सम्बन्धी ऋद्धि, धुनि और शक्ति को देखें।
(ठाणांग ३ उद्देशा ३ मत्र १७७) १११-देवता की तीन अभिलापायें-- (१) मनुष्य भव (२) आर्य क्षेत्र (३) उत्तम कुल में जन्म
(ठाणांग ३ उद्देशा ३ सूत्र १७८) ११२-देवता के पश्चात्ताप के तीन बोलः
(१) मैं बल, वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम से युक्त था । मुझे पठनोपयोगी सुकाल प्राप्त था। कोई उपद्रव भी न था । शास्त्र ज्ञान के दाता आचार्य, उपाध्याय महाराज विद्यमान थे। मेरा शरीर भी नीरोग था। इस प्रकार सभी सामग्री के प्राप्त होते हुए भी मुझे खेद है कि मैंने बहुत शास्त्र नहीं पढ़े। (२) खेद है कि परलोक से विमुख होकर ऐहिक सुखों में
आसक्त हो, विषय पिपासु बन मैंने चिरकाल तक श्रमण (साधु ) पर्याय का पालन नहीं किया। (३) खेद हे कि मैंने ऋद्धि, रम और साता गारव (गौरव) का
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह अभिमान किया । प्राप्त भोग सामग्री में मूर्छित रहा । एवं अग्रास भोग सामग्रो की इच्छा करता रहा। इस प्रकार मैं शुद्ध चरित्र का पालन न कर सका। उपरोक्त तीन बोलों का विचार करता हुआ देवता पश्चा
ताप करता है। ११३-देवता के च्यवन-ज्ञान के तीन बोल:
(१) विमान के आभूषणों की कान्ति को फोकी देखकर (२) कल्पवृक्ष को मुरझाते हुए देख कर (३) तेज अर्थात् अपने शरीर की कान्ति को घटने हुए देखकर देवता को अपने च्यवन (मरण) के काल का ज्ञान होजाता है
(ठाणांग ३ उद्देशा ३ सूत्र ७६) ११४-विमानों के तीन आधार:
(१) धनोदधि (२) घनवाय (३) आकाश । इन तीन के आधार से विमान रहे हुए हैं । प्रथम दो कल्प-सौधर्म और ईशान देवलोक में विमान घनोदधि पर रहे हुए हैं । सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक में विमान धनवाय पर रहे हुए हैं। लान्तक, शुक्र और सहस्रार देवलोक में विमान घनोदधि और धनवाय दोनों पर रहे हुए हैं । इन के ऊपर के आणत, प्राणत
आरण, अच्युत, नव प्रवेयक और अनुत्तर विमान में विमान आकाश पर स्थित हैं।
(ठाणांग ३ सूत्र १८०) ११५-पृथ्वी तीन वलयों से वलयित है । एक एक पृथ्वी चारों
तरफ दिशा विदिशाओं में तीन वलयों से घिरी हुई है।
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श्री सठिया जैन ग्रन्थमाला (१) घनोदधि वलय (२) धनवान वलय (३) तनुवात वलय
(ठाणांग 3 सूत्र २२४) ११६-पृथ्वी के देशतः धृजन के तीन बोलः-तीन कारणों से
पृथ्वी का एक भाग विचलित हो जाता है। (१) ग्नप्रभा पृथ्वी के नोचे बादर पुगलों का स्वाभाविक जोर से अलग होना या दुमरे पुद्गलों का आकर जोर से टकराना पृथ्वी को देशतः विचलित कर देता है। (२) महाऋद्धिशाली यावत् महेश नाम वाला महोग्ग जाति का व्यन्तर दोन्मत्त होकर उछल कूद मचाता हुआ पृथ्वी को देशतः विचलित कर देता है। (३) नाग कुमार और सुपर्ण कुमार जाति के भवनपनि देवताओं के परस्पर मंग्राम होने पर पृथ्वी का एक देश विचलित हो जाता है।
(ठाणांग 3 उद्देशा ४ सूत्र १६८) ११७-मारी पृी धृजने के तीन बोलः-तीन कारणों से पूगे पृथ्वी विचलित होती है।
(१) रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे जब धनवाय क्षुब्ध हो जाती है तब उससे घनोदधि कम्पित होती है । और उससे सारी पृथ्वी विचलित हो जाती है। (२) महाऋद्धि सम्पन्न यावत् महाशक्तिशाली महेश नाम वाला देव तथारूप के श्रमण माहण को अपनी ऋद्धि, युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम दिखलाता हुआ मारी पृथ्वी को विचलित कर देता है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (३) देवों और असुरों में संग्राम हने पर सारी पृथ्वी चलित होती है।
(ठाणांग ३ उद्देशा ४ सूत्र ११८) ११८-अंगुल के तीन भेदः
(१) आत्मांगुल (२) उत्सेधांगुल (३) प्रमाणांगुल । आत्मांगुल:-जिस काल में जो मनुष्य होते हैं। उनके अपने अंगुल को आत्मांगुल कहते हैं । काल के भेद से मनुष्यों की अवगाहना में न्यूनाधिकता होने से इस अंगुल का परिणाम भी परिवर्तित होता रहता है । जिस ममय जो मनुष्य होते हैं उनके नगर, कानन, उद्यान, वन, तड़ाग. कूप, मकान आदि उन्हीं के अंगुल से अर्थात् आत्मांगुल ले
नापे जाते हैं। उन्सेधांगुलः-पाठ यवमध्य का एक उत्सेधांगुल होता है ।
उत्सेधांगुल से नग्क, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों की अय
गाहना नापी जाती है। प्रमाणांगुलः यह अंगुल सब से बड़ा होता है । इस लिए इस
प्रमाणांगुल कहते हैं । उत्सेधांगुल से हजार गुणा प्रमाणां गुल जानना चाहिये । इस अंगुल से रत्नप्रभादिक नरक, भवनपतियों के भवन, कल्प, वर्षधर पर्वत, द्वीप आदि की लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई, गहराई, और परिधि नापी जाती है । शाश्वत वस्तुओंके नापने के लिए चार हजार कोस का योजन माना जाता है । इसका कारण यही है कि शाश्वत वस्तुओं के नापने का योजन प्रमाणांगुल से लिया जाता
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
है । प्रमाणांगुल उत्सेधांगुल से हजार गुणा अधिक होता है। इस लिए इस अपेक्षा से प्रमाणांगुल का योजन उत्सेधांगुल के योजन से हजार गुणा बड़ा होता है ।
( अनुयोगद्वार पृष्ठ १५७ से १७३ आगमोदय समिति ) ११६ - द्रव्यानुपूर्वी के तीन भेद:
(१) पूर्वानुपूर्वी (२) पश्चानुपूर्वी (३) अनानुपूर्वी । पूर्वानुपूवी :- जिस क्रम में पहले से आरम्भ होकर क्रमशः गणना की जाती है वह पूर्वानुपूर्वी है। जैसे धर्मास्तिकाय, अधर्मा स्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल । पश्चानुपूर्वी :- जिस में पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी के मिवाय अन्य क्रम होता है वह अनानुपूर्वी है। जैसे एक, दो, तीन, चार, पांच और छ: । इन छह अंकों को परस्पर गुणा करने से जो ७२० संख्या आती है। उतने ही छह द्रव्यों के भंग बनते हैं । इन ७२० भंगों में पहला भंग पूर्वानुपूर्वी का, अन्तिम भंग पश्चानुपूर्वी का और शेष ७१८ भंग अनानु पूर्वी के हैं ।
८४
(अनुयोगद्वार, आगमोदय समिते टीका पृष्ठ ७३ से ५७ ) १२०-लक्षणाभास की व्याख्या और भेदः - सदोष लक्षण को
लक्षणाभास कहते हैं ।
लक्षणाभास के तीन भेद:
( १ ) अव्याप्ति ( २ ) अतिव्याप्ति ( ३ ) असम्भव । अव्याप्तिः -- लक्ष्य (जिसका लक्षण किया जाय ) के एक देश
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह में लक्षण के रहने को अव्याप्ति दोष कहते हैं। जैसे पशु का लक्षण सींग।
अथवा
जीव का लक्षण पंचेन्द्रियपन । अतिव्याप्तिः-लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में लक्षण के रहने को
अतिव्याप्ति दोष कहते हैं । जैसे गौ का लक्षण सींग। असम्भवः-लक्ष्य में लक्षण के सम्भव न होने को असम्भव दोष कहते हैं। जैसे अग्नि का लक्षण शीतलता ।
(न्याय दीपिका) २१-समारोप का लक्षण और उसके भेदः-जो पदार्थ जिस स्वरूप वाला नहीं है उसे उस स्वरूप वाला जानना समा
रोप है । इसी को प्रमाणाभास कहते हैं। समारोप के तीन भेदः
(१) संशय ( २ ) विपर्यय (३) अनध्यवसाय । संशयः-विरोधी अनेक पक्षों के अनिश्चयात्मक ज्ञान को संशय
कहते हैं । जैसे रस्सी में “यह रस्सी है या सांप" अथवा सौप में "यह सीप है या चांदी" ऐसा ज्ञान होना । संशय का मूल यही है कि जानने वाले को अनेक पक्षों के सामान्य धर्म का ज्ञान तो रहता है । परन्तु विशेष धर्मों का ज्ञान नहीं रहता।
उपरोक्त दोनों दृष्टान्तों में ज्ञाता को सांप और रस्सी का लम्बापन एवं सीप और चांदी की श्वेतता, चमक आदि सामान्य धर्म का तो ज्ञान है । परन्तु दोनों को पृथक करने
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श्री संठिया जैन ग्रन्थमाला वाले विशेष धर्मों का ज्ञान न होने से उसका ज्ञान दोनों
ओर झुक रहा है । यह तो निश्चित है कि एक वस्तु दोनों रूप तो हो नहीं सकती। वह कोई एक ही चीज होगी। इसी प्रकार जब हम दो या दो से अधिक विरोधी बातें मुनते हैं । तब भी संशय होना है । जैसे किसी ने कहाजीव नित्य है । दूसरे ने कहा जीव अनित्य है । दोनों विरोधी बातें मुन कर तीसरे को मन्देह हो जाता है।
बहुत सी वस्तुएं नित्य हैं और बहुत सी अनित्य । जीव भी वस्तु होने से नित्य या अनित्य दोनों हो सकता है। इस प्रकार जब दोनों कोटियों में मन्देह होता है तभी मंशय होता है । द्रव्यत्व की अपेक्षा प्रत्येक वस्तु नित्य है। और पर्याय की अपेक्षा अनित्य । इस प्रकार भिन्न २ अपेक्षाओं से दोनों धर्मों के अस्तित्व का निश्चय होने पर मंशय नहीं
कहा जा सकता। विपर्यय:--विपरीत पक्ष के निश्चय करने वाले ज्ञान को विपर्यय
कहते हैं। जैसे मांप को रस्मी समझना, मीप को चांदी
समझना। अनध्यवसाय:--"यह क्या है" ऐसे अस्पष्ट ज्ञान को अनध्य
वसाय कहते हैं । जैसे मार्ग में चलते हुए पुरुष को तृण, कंकर आदि का स्पर्श होने पर “यह क्या है ?" ऐसा अस्पष्ट ज्ञान होता है। वस्तु का स्पष्ट और निश्चित रूप से ज्ञान न होने से ही यह ज्ञान प्रमाणाभास माना गया है।
(रत्नाकरावतारिका परिच्छेद २)
(न्याय प्रदीप)
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
१२२ -- पिता के तीन अंग-सन्तान में पिता के तीन अंग होते है अर्थात् तीन अंग प्रायः पिता के शुक्र ( वीर्य ) के परिणाम स्वरूप होते हैं ।
८०
(१) अस्थि (हड्डी)
(२) अस्थि के अन्दर का रम
(३) सिर, दाढ़ी, मंत्र, नख और कुक्षि आदि के बाल, ( ठाणांग ३ सूत्र २०६ ) १२३ - - माता के तीन अंगः -- सन्तान में माता के तीन अंग होते है । अर्थात् ये तीन अंग प्रायः माता के रज के परिणाम स्वरूप होते हैं ।
(१) मांस (२) रक्त (३) मस्तु लिङ्ग ( मस्तिष्क ) (ठाणांग ३ सूत्र २०६ )
१२४ - - तीन का प्रत्युपकार दु:शक्यः है
(१) माता पिता ( २ ) भर्ता (स्वामी) (३) धर्माचार्य 1 इन तीनों का प्रत्युपकार अर्थात् उपकार का बदला चुकाना दु:शक्य है।
माता पिता:- कोई कुलीन पुरुष सबेरे ही सबेरे शतपाक, सहस्रपाक जैसे तैल से माता पिता के शरीर की मालिश करे । मालिश करके सुगन्धित द्रव्य का उबटन करें । एवं इम के बाद सुगन्धी, उष्ण और शीतल तीन प्रकार के जल से स्नान करावे । तत्पश्चात् सभी अलंकारों से उन के शरीर को भूषित करे | वस्त्र, आभूषणों से अलंकृत कर मनोज्ञ, अठारह प्रकार के व्यञ्जनों सहित भोजन करावे और इम के बाद उन्हें अपने कन्धों पर उठा कर फिरे । यावजीव ऐमा
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला करने पर भी वह पुरुष माता पिता के महान् उपकार से उऋण नहीं हो सकता । परन्तु यदि वह केवली प्ररूपित धर्म कह कर, उस का बोध देकर माता पिता को उक्त धर्म में स्थापित कर दे तो वह माता पिता के परम उपकार का
बदला चुका सकता है। भर्ता ( स्वामी ); कोई समर्थ धनिक पुरुष, दुःखावस्था में पड़े
हुए किसी असमर्थ दीन पुरुष को धनदान आदि से उन्नत कर दे। वह दीन पुरुष अपने उपकारी की सहायता से बढ़ कर उस के सन्मुख या परोक्ष में विपुल भोग सामग्री का उपभोग करता हुआ विचरे। इसके बाद यदि किसी समय में लाभान्तराय कर्म के उदय से वह भर्ता ( उपकारी) पुरुष निर्धन हो जाय और वह सहायता की आशा से उस पुरुष के पास (जिस को कि उसने अपनी सम्पन्न अवस्था में धन आदि की सहायता से बढ़ाया था ) जाय। वह भी अपने भर्ता ( उपकारी) के महदुपकार को स्मरण कर अपना सर्वस्व उसे समर्पित कर दे। परन्तु इतना करके भी वह पुरुष अपने उपकारी के किये हुए उपकार से उऋण नहीं हो सकता । परन्तु यदि वह उसे केवली भाषित धर्म कह कर एवं पूरी तरह से उसको बोध देकर धर्म में स्थापित कर दे तो वह पुरुष उस के उपकार से उऋण हो
सकता है। धर्माचार्य:-कोई पुरुष धर्माचार्य के समीप पाप कर्म से
हटाने वाला एक भी धार्मिक सुवचन सुन कर हृदय में
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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धारण कर ले । एवं इस के बाद यथासमय काल करके देवलोक में उत्पन्न हो । वह देवता धर्माचार्य के उपकार का ख्याल करके आवश्यकता पड़ने पर उन धर्माचार्य को दुर्भिक्ष वाले देश से दूसरे देश में पहुँचा देवे । निर्जन, भीषण अटवी में से उन का उद्धार करे । एवं दीर्घ काल के कुष्ठादि रोग एवं शूलादि आतङ्क से उनकी रक्षा करे । इतने पर भी वह देवता अपने परमोपकारी धर्माचार्य के उपकार का बदला नहीं चुका सकता । किन्तु यदि मोह कर्म के उदय से वह धर्माचार्य्यं स्वयं केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाय और वह देवता उन्हें केवली प्ररूपित धर्म का स्वरूप बता कर, बोध देकर उन्हें पुन: धर्म में स्थिर कर दे तो वह देवता धर्माचार्य के ऋण से मुक्त हो सकता है। ( ठाणांग ३ सूत्र १३५ )
१२५ - आत्मा तीन
(१) वहिरात्मा (२) अन्तरात्मा (३) परमात्मा बहिरात्मा : -- जिस जीव को सम्यग ज्ञान के न होने से मोहवश शरीरादि बाह्य पदार्थों में आत्मबुद्धि हो कि "यह मैं ही हूँ, इन से भिन्न नहीं हूँ ।" इस प्रकार आत्मा को देह के साथ जोड़ने वाला अज्ञानी आत्मा बहिरात्मा है ।
अन्तरात्मा :- जो पुरुष बाह्य भावों को पृथक कर शरीर से भिन्न, शुद्ध ज्ञान - स्वरूप आत्मा में ही आत्मा का निश्चय करता है । वह आत्म-ज्ञानी पुरुष अन्तरात्मा है ।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला परमात्माः सकल कर्मों का नाश कर जिस आत्मा ने अपना
शुद्ध ज्ञान स्वरूप प्राप्त कर लिया है। जो वीतराग और कृतकृत्य है ऐसी शुद्धात्मा परमात्मा है ।
(परमात्म प्रकाश गाथा १३, १४, १५) १२६-तीन अर्थयोनिः-राजलक्ष्मी आदि की प्राप्ति के उपाय
अर्थ योनि हैं । वे उपाय तीन हैं।
(१) माम (२) दण्ड (३) भेद । मामः--एक दूसरे के उपकार को दिखाना, गुण कीर्तन करना,
सम्बन्ध का कहना, भविष्य की आशा देना, मीठे वचनों से “मैं तुम्हारा ही हूँ।" इत्यादि कहकर आत्मा का अर्पण
करना, इस प्रकार के प्रयोग साम कहलाते हैं । दण्ड:-चध, क्लेश, धन हरण आदि द्वारा शत्रु को वश करना
दण्ड कहलाता है। भेदः-जिस शत्रु को जीतना है, उस के पक्ष के लोगों का उस
से स्नेह हटाकर उन में कलह पैदा कर देना तथा भय दिखा कर फूट करा देना भेद है।
(ठाणांग ३ सूत्र १८५ की टीका) १२७-श्रद्धाः-जहां तर्क का प्रवेश न हो ऐसे धर्मास्तिकाय
आदि पर व्याख्याता के कथन से विश्वास कर लेना
श्रद्धा है। प्रतीतिः-व्याख्याता से युनियों द्वारा समझ कर विश्वास करना
प्रतीति है।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला रुचिः-व्याख्याता द्वारा उपदिष्ट विषय में श्रद्धा करके उसके अनुसार तप, चारित्र आदि सेवन की इच्छा करना रुचि है।
(भगवती शतक १ उद्देशा६) १२८ (क) गुणव्रत की व्याख्या और भेदः-अणुव्रत के
पालन में गुणकारी यानि उपकारक गुणों को पुष्ट करने वाले व्रत गुणव्रत कहलाते हैं। गुण व्रततीन हैं:(१) दिशिपरिमाण व्रत (२) उपभोग परिमाणवत (३)
अनर्थदण्ड विरमण व्रत। दिशिपरिमाण व्रतः-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर, नीचे
इन छह दिशाओं की मर्यादा करना एवं नियमित दिशा से
आगे आश्रब सेवन का त्याग करना दिशिपरिमाण व्रत
कहलाता है। उपभोग परिभोग परिमाण व्रतः-भोजन आदि जो एक बार
भोगने में आते हैं वे उपभोग हैं । और बारबार भोगे जाने वाले वस्त्र, शय्या आदि परिभोग हैं । उपभोग परिभोग योग्य वस्तुओं का परिमाण करना, छब्बीस बोलों की मर्यादा करना एवं मर्यादा के उपरान्त उपभोग परिभोग योग्य वस्तुओं के भोगोपभोग का त्याग करना उपभोग
परिभोग परिमाण व्रत है। अनर्थदण्ड विरमण व्रतः-अपध्यान अर्थात् आर्तध्यान, रौद्र
ध्यान करना, प्रमाद पूर्वक प्रवृति करना, हिंसाकारी शस्त्र देना एवं पाप कर्म का उपदेश देना ये सभी कार्य अनर्थदण्ड हैं। क्योंकि इनसे निष्प्रयोजन हिंसा होती है।
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला अनर्थ-दण्ड के इन कार्यों का त्याग करना अनर्थदण्ड विरमण व्रत है।
(हरिभद्रीयावश्यक अध्याय ६ पृष्ठ ८२६-८३६) १२८ (ख) गुप्ति की व्याख्या और भेदः-अशुभ योग से निवृत्त होकर शुभयोग में प्रवृत्ति करना गुप्ति है।
अथवाःमोक्षाभिलाषी आत्मा का आत्म रक्षा के लिए अशुभ योगों का रोकना गुप्ति है।
अथवा:आने वाले कर्म रूपी कचरे को रोकना गुप्ति है। गुप्ति के तीन भेदः
मनोगुप्ति (२) वचनगुप्ति (३) कायगुप्ति । मनोगुप्तिः आध्यान, रौद्रध्यान, संरम्भ, समारम्भ और
प्रारम्भ सम्बन्धी संकल्प विकल्प न करना, परलोक में हितकारी धर्म ध्यान सम्बन्धी चिन्तवना करना, मध्यस्थ भाव रखना, शुभ अशुभ योगों को रोक कर योग निरोध अवस्था में होने वाली अन्तरात्मा की अवस्था को प्राप्त
करना मनोगुप्ति है। वचनगुप्तिः-वचन के अशुभ व्यापार, अर्थात् संरम्भ समारम्भ
और आरम्भ सम्बन्धी वचन का त्याग करना, विकथा न करना, मौन रहना वचन गुप्ति है। कायगुप्तिः-खड़ा होना, बैठना, उठना, सोना, लांघना, सीधा
चलना, इन्द्रियों को अपने अपने विषयों में लगाना, संरम्भ, समारम्भ आरम्भ में प्रवृत्ति करना, इत्यादि कायिक
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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व्यापारों में प्रवृत्ति न करना अर्थात् इन व्यापारों से निवृत्त होना कायगुप्ति है । अयतना का परिहार कर यतनापूर्वक काया से व्यापार करना एवं अशुभ व्यापारों का त्याग करना काय गुप्ति है ।
( उत्तराध्ययन अध्ययन २४ ) ( ठाणांग ३ उद्देशा १ सूत्र १२६ )
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
चौथा बोल
(बोल नम्बर १२६ से २७३ तक) १२६ (क)-चार मंगल रूप हैं, लोक में उत्तम हैं तथा शरण
(१)-अग्हिन्त, (२) सिद्ध,
(३) माधु, (४) केवली प्ररूपित धर्म, अम्हिन्त--चार घाती कर्म रूप शत्रुओं का नाश करने
वाले, देवेन्द्र कृत अष्ट महा प्रातिहार्यादि रूप पूजा को प्राप्त, सिद्विगति के योग्य, केवल ज्ञान एवं केवन दर्शन से त्रिकाल एवं लोक त्रय को जानने और देखने वाले, हितो पदेशक, मर्वज्ञ भगवान अरिहन्त कहलाते हैं । अरिहन्त भगवान् के आठ महाप्रातिहार्य और चार मूलातिशय रूप
वारह गुण हैं। मिद्धः-शुक्ल ध्यान द्वारा आठ कर्मों का नाश करने वाले,
लोकाग्रस्थित सिद्धशिला पर विराजमान, कृत कृत्य, मुक्तात्मा मिद्ध कहे जाते हैं। आठ कर्म का नाश होने से इन में आठ गुण प्रगट होते हैं। नोटः-सिद्ध भगवान् के आठ गुणों का वर्णन आठवें
वोल में दिया जायगा। साधुः सम्यग ज्ञान, सम्यग दर्शन, और सम्यग-चारित्र
द्वारा मोक्षमाग की आराधना करने वाले, प्राणी मात्र पर समभाव रखने वाले, पटकाया के रक्षक, आठ प्रवचन
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श्री सिद्धान्त जैन बोल संग्रह माता के आराधक, पंच महाव्रतधारी मुनि साधु कहलाते हैं।
आचार्य, उपाध्याय का भी इन्हीं में समावेश किया गया है । केवली प्ररूपित धर्म:-पूर्ण ज्ञान सम्पन्न केवली भगवान से प्ररूपित श्रुत चारित्र रूम धर्म केवली प्ररूपित धर्म है।
ये चारों हित और सुखकी प्राप्ति में कारण रूप हैं। अत एव मंगल रूप हैं। मंगल रूप होने से ये लोक में
उत्तम हैं।
__ हरिभद्रीयावश्यक में चारों की लोकोतमता इस प्रकार बतलाई है:
औदयिक आदि छः भाव भावलोक रूप हैं । अरिहन्त भगवान् इन भावों की अपेक्षा लोकोत्तम हैं । अर्हन्तावस्था में प्रायः अघाती कर्मों की शुभ प्रकृतियों का उदय रहता है इम लिये औदयिक भाव उत्तम होता है । चारों घाती कर्मों के क्षय होने से क्षायिक भाव भी इन में सर्वोत्तम होता है ।
औपशशमिक एवं क्षायोपशमिक भाव अरिहन्त में होते ही नहीं हैं। क्षायिक एवं औदयिक के संयोग से होने वाला सानिपातिक भाव भी अरिहन्त में उत्तम होता है । क्योंकि क्षायिक और औदयिक भाव दोनों ही उत्तम ऊपर बताये जा चुके हैं । इस प्रकार अरिहन्त भगवान् भाव की अपेक्षा लोकोत्तम हैं । सिद्ध भगवान् क्षायिक भाव की अपेक्षा लोकोत्तम हैं। इसी प्रकार लोक में सर्वोच्च स्थान पर विराजने से क्षेत्र की अपेक्षा भी वे लोकोत्तम हैं।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
साधु महात्मा: - ज्ञान दर्शन चारित्र रूप भावों की उत्कृष्टता की अपेक्षा लोकोत्तम हैं— पशमिक, क्षायोपशमिक, और क्षायिक इन भावों की अपेक्षा केवली प्ररूपित धर्म भी लोकोत्तम है ।
सांसारिक दुःखों से त्राण पाने के लिए सभी आत्मा उक्त चारों का आश्रय लेते हैं । इसलिए वे शरण रूप हैं । बौद्ध साहित्य में बुद्ध धर्म और संघ शरण रूप माने गये हैं । यथा:
"अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवजामि । साहू सरणं पवज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पवजामि | इस पाठ जैसा ही बौद्ध साहित्य में भी पाठ मिलता है।
यथा:
---
बुद्धं सरणं गच्छामि, धम्मं सरणं गच्छामि, संघ सरणं गच्छामि ।
( हरिभद्रीयावश्यक प्रतिक्रमणाध्ययन पृष्ठ ५६६ )
१२६ (ख.) अरिहन्त भगवान् के चार मूलातिशय
(१) पायापगमातिशय ।
(२) ज्ञानातिशय ।
(३) पूजातिशय । (४) वागतिशय ।
अपायापगमातिशय- अपाय अर्थात् अठारह दोष एवं विघ्न बाधाओं का सर्वथा नाश हो जाना अपायापगमातिशय है ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल माह नोट:-१८ दोषों का वर्णन अठारहवें बोल में दिया जायगा। ज्ञानातिशय-ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से उत्पन्न त्रिकाल एवं
त्रिलोक के समस्त द्रव्य एवं पर्यायों को हस्तामलकवत् जानना, संपूर्ण, अव्यावाध, अप्रतिपानी ज्ञान का धारण
करना ज्ञानानिशय है। पूजातिशय--अरिहन्त तीन लोक की ममस्त आत्माओं के लिए
पूज्य हैं, तथा इन्द्रकृत अष्ट महा प्रानिहार्यादि रूप पूजा से पूजित हैं। त्रिलोक पूज्यता एवं इन्द्रादिकृत पूजा ही पूजातिशय है।
भगवान् के चौंतीम अतिशय, अपायापगमातिशय एवं पूजातिशय रूप ही हैं। वागतिशय--अरिहन्त भगवान् गगढप से परे होते हैं, एवं पूर्ण
ज्ञान के धारक होते हैं। इसलिए उनके वचन मत्य एवं परस्पर बाधा रहित होते हैं। वाणी की यह विशेषता हो वचनातिशय है। भगवान् की वाणी के पंतीम अतिशय बागतिशय रूप ही हैं।
(म्याद्वादमञ्जरी कारिका १) १३०-मंसारी के चार प्रकार:
(१) प्राण (२) भूत (३) जीव (४) मत्त्व प्राण:--विकलेन्द्रिय अर्थान् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुगिन्द्रिय
जीवों को प्राण कहते हैं।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
भूतः वनस्पति काय को भूत कहते हैं । जीवः - पञ्चेन्द्रिय प्राणियों को जीव कहते है । सत्त्वः -- पृथ्वी काय, अपकाय, तेउकाय और वायुकाय इन चार
स्थावर जीवों को सच कहते हैं ।
( ठाणांग ५ उद्देशा २ सूत्र ४३० ) श्री भगवती सूत्र शतक २ उद्देशा १ में जीव के प्राण, भूत, जीव, मत्र आदि छह नाम भिन्न भिन्न धर्मों की विवक्षा से दिये हैं । विज्ञ और वेद ये दो नाम वहां अधिक हैं | जैसे कि:
प्राण:- प्राणवायु को खींचने और बाहर निकालने अर्थात् श्वासोच्छ्वास लेने के कारण जीव को प्राण कहा जाता है । भूतः -- तीनों कालों में विद्यमान होने से जीव को भूत कहा है।
जीव: - जीता है अर्थात् प्राण धारण करता है और आयु कर्म तथा जीवत्व का अनुभव करता है इसलिए यह जीव है । मत्त: - (सक्त, शक्त, अथवा मच्च) जीव शुभाशुभ कर्मों के साथ सम्बद्ध है | अच्छे और बुरे काम करने में समर्थ है। या सत्ता वाला है । इसलिए इसे सत्त ( क्रमश:-सक्त, शक्त, सत्त्व) कहा जाता है।
विज्ञ: -- कड़वे, कषैले, खट्टे मीठे रसों को जानता है इसलिए विज्ञ कहलाता है ।
वेद: - जीव सुख दुःखों का भोग करता है इसलिए वह वेद कहलाता है ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल समह
१३१ - गति की व्याख्या:
गति नामक नामकर्म के उदय से प्राप्त होने वाली पर्याय
गति कहलाती है ।
गति के चार भेद:
--
( १ ) नरक गति ( २ ) तिर्यञ्च गति । ( ३ ) मनुष्य गति ( ४ ) देव गति ।
( पनवरणा पद २३ उद्देशा २ ) ( कर्मग्रन्थ भाग ४ गाथा १० )
१३२ - नरक आयु बन्ध के चार कारण:
--
( १ ) महारम्भ ( २ ) महापरिग्रह ( ३ ) पञ्चेन्द्रिय वध ( ४ ) कुणिमाहार ।
महारम्भः -- बहुत प्राणियों की हिंसा हो, इस प्रकार तीव्र परिणामों से कषाय पूर्वक प्रवृत्ति करना महारम्भ है ।
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महा परिग्रहः-- वस्तुओं पर अत्यन्त मूर्छा, महा परिग्रह है । पञ्चेन्द्रिय वधः -- पञ्चेन्द्रिय जीवों की हिंसा करना पञ्चेन्द्रिय वध है ।
कुणिमाहारः -- कुणिमा अर्थात् मांस का आहार करना । इन चार कारणों से जीव नरकायु का बन्ध करता है ।
( ठाणांग ४ उद्देशा ४ सूत्र ३७३ )
१३३ - तिर्यञ्च श्रायु बन्ध के चार कारण:
-
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श्री सठिया जैन ग्रन्थमाला (१) माया:-अर्थात् कुटिल परिणामों वाला-जिसके मन में कुछ
हो और बाहर कुछ हो । विपकुम्भ-पयोमुख की तरह ऊपर
से मीठा हो, दिल से अनिष्ट चाहने वाला हो । (२) निकृति वाला:-दोग करके दूसरों को ठगने की चेष्टा
करने वाला। (३) झूठ बोलने वाला। (४) स्टे ताल झंटे माप वाला । अर्थात् खरीदने के लिए
बड़े और बेचने के लिए छोटे तोल और माप रखने वाला जीव तिर्यञ्च गति योग्य कर्म वान्धता है।
(ठाणांग ४ उद्देशा ४ सूत्र ३७३) १३४-मनुष्य आयु बन्ध के चार कारण:--
(१) भद्र प्रकृति वाला। (२) स्वभाव से विनीत । (३) दया और अनुकम्पा के परिणामों वाला। (४) मन्मर अर्थात् ईर्षा-डाह न करने वाला जीव मनुष्य आयु योग्य कर्म बाँधता है।
(ठाणांग ४ उद्देशा ४ सूत्र ३७३) १३५-देव आयु बन्ध के चार कारण:--
(१) मगग मंयम वाला। (२) देश विगति श्रावक । (३) अकाम निर्जग अर्थात् अनिच्छा पूर्वक पराधीनता
आदि कारणों से कर्मों की निर्जरा करने वाला ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (४) बालभाव से विवेक के विना अज्ञान पूर्वक काया
क्लेश आदि तप करने वाला जीव देवायु के योग्य कर्म बाँधता है।
(ठाणाग ४ उद्देशा ४ सूत्र ३७३) १३६-देवताओं के चार भेदः(१) भवनपति (२) व्यन्तर (३) ज्योतिष (४) वैमानिक ।
(उत्तराध्ययन अध्ययन ३६ गाथा १०२) १३७-देवताओं की पहिचान के चार बोल:
(१) देवताओं की पुष्पमालाये नहीं कुम्हलातीं। (२) देवता के नेत्र निनिमेष होते हैं । अर्थात् उनके पलक
नहीं गिरते। (३) देवता का शरीर नीरज अर्थात् निर्मल होता है। (४) देवता भूमि से चार अंगुल ऊपर रहता है । वह भूमि का स्पर्श नहीं करता ।
(अभिधान राजेन्द्र कोप भाग ४ पृष्ठ ::०) १३८-तत्काल उत्पन्न देवता चार कारणों से इच्छा करने पर
भी मनुष्य लोक में नहीं आ सकता। (१) तत्काल उत्पन्न देवता दिव्य काम भोगों में अत्यधिक
मोहित और गृद्ध हो जाता है । इस लिए मनुष्य सम्बन्धी काम भोगों से उमका मोह छूट जाता है और ___ वह उनकी चाह नहीं करता । (२) वह देवता दिव्य काम भोगों में इतना मोहित और
गृद्ध होजाता है कि उसका मनुष्य सम्बन्धी प्रेम देवता सम्बन्धी प्रेम में परिणत हो जाता है।
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१०२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (३) वह तत्काल उत्पन्न देवता “मैं मनुष्य लोक में जाऊँ,
अभी जाऊँ" ऐसा सोचते हुए विलम्ब कर देता है। क्योकि वह देव कार्यों के पराधीन हो जाता है। और मनुष्य सम्बन्धी कार्यों से स्वतन्त्र हो जाता है । इसी बीच उसके पूर्व भव के अल्प आयु वाले म्वजन, परिवार आदि के मनुष्य अपनी आयु पूरी
कर देते हैं (४) देवता को मनुष्य लोक की गन्ध प्रतिकूल और
अत्यन्त अमनोज्ञ मालूम होती हैं । वह गन्ध इस भूमि से, पहले दूसरे बारे में चार सौ योजन और शेष आरों में पांच सौ योजन तक ऊपर जाती है ।
(ठाणांग ४ सूत्र ३२३) १३४-तत्काल उत्पन्न देवता मनुष्य लोक में आने की इच्छा करता हुआ चार बोलों से आने में समर्थ होता है।
नोट:-इसके पहले के तीन बोल तो बोल नम्बर ११० में दिये जा चुके हैं। (४) दो मित्रों या मम्बन्धियों ने मरने से पहले परस्पर
प्रतिज्ञा की कि हममें से जो देवलोक से पहले चवेगा। दूसरा उमकी महायता करेगा । इस प्रकार की प्रतिज्ञा में बद्ध होकर स्वर्ग से चवकर मनुष्य भव में उत्पन हुए अपने साथी की सहायता करने के लिए वह देवता मनुष्य लोक में आने में समर्थ होता है।
(ठाणांग ४ सूत्र ३२३)
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
१०३
१४० - तत्काल उत्पन्न हुआ नैरयिक मनुष्य लोक में आने की इच्छा करता है । किन्तु चार बोलों से आने में असमर्थ है । (१) नवीन उत्पन्न हुआ नैरयिक नरक में प्रबल वेदना का
अनुभव करता हुआ मनुष्य लोक में शीघ्र आने की इच्छा करता है । पर आने में असमर्थ है।
(२) नवीन उत्पन्न नैरयिक नरक में परमाधामी देवताओं से सताया हुआ मनुष्य लोक में शीघ्र ही आना चाहता है । परन्तु आने में असमर्थ है।
(२) तत्काल उत्पन्न नैरयिक नरक योग्य अशुभ नाम कर्म, मातावेदनीय आदि कर्मों की स्थिति क्षय हुए विना, विपाक भोगे विना और उक्त कर्म प्रदेशों के आत्मा से अलग हुए विना ही मनुष्य लोक में आने की इच्छा करता है । परन्तु निकाचित कर्म रूपी जंजीरों से बँधा होने के कारण आने में अममय है । (४) नवीन उत्पन्न नैरयिक नरक आयु कर्म की स्थिति पूरी हुए बिना, विपाक भोगे विना और आयु कर्म के प्रदेशों के आत्मा से पृथक् हुए विना ही मनुष्य लोक में आना चाहता है । पर नरक आयु कर्म के रहते हुए वह आने में असमर्थ है |
( ठाणांग ४ सूत्र २४५ )
१४१ - भावना चारः-
(१) कन्दर्प भावना ।
(२)
(३) किल्चिषिकी भावना । (४) आसुरी भावना ।
भियोगिकी भावना ।
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१०४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला कन्दर्प भावना:-कन्दर्प करना अर्थात् अटाट्टहास करना,जोर से
बात चीत करना, काम कथा करना, काम का उपदेश देना
और उसकी प्रशंसा करना, कौत्कुच्य करना (शरीर और वचन से दूसरे को हंसाने की चेष्टा करना ) विस्मयोत्पादक शील स्वभाव रखना, हास्य तथा विविध विकथाओं से
दूसरों को विस्मित करना कन्दर्प भावना है। याभियोगिकी भावनाः-मुख, मधुरादि रस और उपकरण आदि
की ऋद्धि के लिए वशीकरणादि मंत्र अथवा यंत्र मंत्र (गंडा, तावीज़) करना, रक्षा के लिए भस्म, मिट्टी अथवा सूत्र से वसति आदि का परिवेष्टन रूप भूति कर्म करना
आभियोगिकी भावना है। किल्विपिकी भावना:-ज्ञान, केवल ज्ञानी पुरुप, धर्माचार्य मंघ
और माधुओं का अवर्णवाद बोलना तथा माया करना किल्विपिकी भावना है। आसुरी भावनाः-निरंतर क्रोध में भरे रहना, पुष्ट कारण के विना
भूत, भविष्यत और वर्तमान कालीन निमित्त बताना आसुरी भावना है।
इन चार भावनाओं से जीव उस उस प्रकार के देवों में उत्पन्न कगने वाले कर्म बांधता है ।
(उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ३६ गाथा २६१) १४२-मंज्ञा की व्याख्या और भेदः-- चेतना:-ज्ञान का, असातावेदनीय और मोहनीय कर्म के उदय
से पैदा होने वाले विकार से युक्त होना संज्ञा है।
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१०५
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह मंज्ञा के चार भेद हैं
(१) आहार संज्ञा । (२) भय मंज्ञा । (३) मैथुन संज्ञा ।
(४) पग्ग्रिह मंज्ञा । आहार मंज्ञाः-तैजस शरीर नाम कर्म और क्षुधा वेदनीय के उदय से कवलादि आहार के लिए आहार योग्य पुद्गलों को ग्रहण करने की जीव की अभिलाषा को आहार मंज्ञा
कहने हैं। भय मंज्ञाः-भय मोहनीय के उदय से होने वाला जीव का त्रास
रूप परिणाम भय संज्ञा है । भय से उद्घांत जीव के नेत्र
और मुख में विकार, गेमाश्च , कम्पन आदि क्रियाएं होती हैं। मैथुन मंज्ञाः-वेद मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाली ___ मैथुन की इच्छा मैथुन मंज्ञा है । पग्ग्रिह मंज्ञाः-लोभ मोहनीय के उदय से उत्पन्न होने वाली
मचित्त आदि द्रव्यों को ग्रहण रूप आत्मा की अभिलाषा
अर्थात् तृष्णा को पग्ग्रिह संज्ञा कहते हैं। १४३-आहार संज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है:
(१) पेट के खाली होने से। (२) क्षुधा वेदनीय कर्म के उदय से । (३) आहार कथा सुनने और आहार के देखने से । (४) निरन्तर आहार का स्मरण कग्ने से । इन चार बोलों से जीव के आहार मंज्ञा उत्पन्न होती है।
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१०६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
-
१४४ - भय मंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है :(१) सव अर्थात् शक्ति हीन होने से । (२) भय मोहनीय कर्म के उदय से ।
(३) भय की बात मुनने, भयानक वस्तुओं के देखने
आदि से ।
1
(४) इह लोक आदि भय के कारणों को याद करने से । इन चार बोलों से जीव को भय संज्ञा उत्पन्न होती है । १४५ - मैथुन मंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है । (१) शरीर के खूब हृष्टपुष्ट होने से (२) वेद मोहनीय कर्म के उदय से । (३) काम कथा श्रवण आदि से । (४) सदा मैथुन की बात सोचते रहने से । इन चार बोलों से मैथुन संज्ञा उत्पन्न होती है । १४६ - परिग्रह संज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है :
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( १ ) परिग्रह की वृत्ति होने से ।
(२) लोभ मोहनीय कर्म के उदय होने से ।
(३) सचित, अति और मिश्र परिग्रह की बात सुनने और देखने से ।
(४) सदा परिग्रह का विचार करते रहने से । इन चार बोलों से परिग्रह संज्ञा उत्पन्न होती है ।
( बोल नम्बर १४२ से १४६ तक के लिए प्रमारण ) ( ठाणांग ४ उद्देशा ४ सूत्र ३५६ ) ( अभिधान राजेन्द्र कोष ७ वां भाग पृष्ठ ३०० ) प्रवचन सारोद्वार गाथा ६२३ )
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
१४७ - चार गति में चार संज्ञाओं का अल्पबहुत्व |
सब से थोड़े नैरयिक मैथुन संज्ञा वाले होते हैं। आहार संज्ञा वाले उनसे संख्यात गुणा हैं । परिग्रह संज्ञा वाले उनसे संख्यात गुणा हैं । और भय संज्ञा वाले उनसे संख्यात गुणा हैं । तिर्यञ्च गति में सब से थोड़े परिग्रह संज्ञा वाले हैं । मैथुन संज्ञा वाले उनसे संख्यात गुणा हैं । भय संज्ञा वाले उनसे संख्यात गुणा हैं । और आहार संज्ञा वाले उनसे भी संख्यात गुणा हैं I
मनुष्यों में सत्र से थोड़े भय संज्ञा वाले हैं। आहार संज्ञा वाले उनसे संख्यात गुणा हैं । परिग्रह संज्ञा वाले उन से संख्यात गुणा हैं। मैथुन संज्ञा वाले उनसे भी संख्यात गुणा हैं 1 देवताओं में सब से थोड़े आहार मंज्ञा वाले हैं । भय मंज्ञा वाले उनसे संख्यात गुणा हैं। मैथुन संज्ञा वाले उनसे संख्यात गुणा हैं और परिग्रह संज्ञा वाले उनसे भी संख्पात गुणा हैं । (पनवरणा संज्ञा पद ८)
१४८ - विकथा की व्याख्या और भेद:
•
यम में बाधक चारित्र विरुद्ध कथा को विकथा कहते हैं । विकथा के चार भेद हैं:
१०७
(१) स्त्रीकथा, (२) भक्तकथा (३) देशकथा (४) राजकथा । (ठाणांग ४ सूत्र २८२ )
१४६ - स्त्रीकथा के चार भेद:
(१) जाति कथा (२) कुल कथा (३) रूपकथा ( ४ ) वेश कथा स्त्री की जाति कथा -- ब्राह्मण आदि जाति की स्त्रियों की प्रशंसा या निन्दा करना |
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१०८
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला स्त्री की कुल कथा---उग्र कुल आदि की स्त्रियों की प्रशंसा या
निन्दा करना। स्त्री की रूप कथा--आन्ध्र आदि देश की स्त्रियों के रूप का वर्णन
करना, अथवा भिन्न भिन्न देशों की स्त्रियों के भिन्न भिन्न
अङ्गों की प्रशंसा या निन्दा करना। स्त्री की वेश कथा--स्त्रियों के वेणीवन्ध और पहनाव आदि की
प्रशंमा या निन्दा करना--जैसे अमुक देश की स्त्री के वेश में यह विशेषता है या न्यूनता है ? अमुक देश की स्त्रियें मुन्दर केश मंवारती हैं । इन्यादि ।
(ठाणांग ४ सूत्र २८२) स्त्री कथा करने और सुनने वालों को मोह की उत्पति होती है । लोक में निन्दा होती है। सूत्र और अर्थ ज्ञान की हानि होती । ब्रह्मचर्य में दोप लगता है । स्त्रीकथा करने वाला संयम से गिर जाता है । कुलिङ्गी हो जाता है या साधु वेश में रह कर अनाचार सेवन करता है।
(निशीथ चूणि उद्देशा १) १५०-भक्त (भात) कथा चार
(१) आवाप कथा (२) निर्वाप कथा ।
(३) आरम्भ कथा (४) निष्ठान कथा । (१) भोजन की आवाप कथा--भोजन बनाने की कथा ।
जैसे इस मिठाई को बनाने में इतना घी, इतनी चीनी, आदि
सामग्री लगेगी। (२) भोजन निर्वाप कथा इतने पक्क, अपक्क अन्न के भेद हैं।
इतने व्यंजन होते है। आदि कथा करना निर्वाप कथा है।
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१०६
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (३) भोजन की प्रारम्भ कथा-इतने जीवों की इसमें हिंसा
होगी । इत्यादि आरम्भ की कथा करना आरम्भ कथा है। (४) भोजन की निष्ठान कथा-इस भोजन में इतना द्रव्य लगेगा आदि कथा निष्ठान कथा है।
(ठाणांग ४ सूत्र २८२) भक्त कथा अर्थात् आहार कथा करने से गृद्धि होती है। और आहार विना किए ही गृद्धि आसक्ति से साधु को इङ्गाल आदि दोष लगते हैं । लोगों में यह चर्चा होने लगती है कि यह साधु अजितेन्द्रिय है । इन्होंने खाने के लिए संयम लिया है। यदि ऐसा न होता तो ये साधु
आहार कथा क्यों करते ? अपना स्वाध्याय, ध्यान आदि क्यों नहीं करते ? गृद्धि भाव से पट जीव निकाय के वध की अनुमोदना लगती है । तथा आहार में आसक्त साधु एषणाशुद्धि का विचार भी नहीं कर सकता । इस प्रकार भक्त कथा के अनेक दोष हैं।
(निशीथ चूणि उद्देशा १) १५१: देशकथा चार
(१) देश विधि कथा (२) देश विकल्प कथा
(३) देश छंद कथा (४) देश नेपथ्य कथा । देश विधि कथा-देश विशेष के भोजन, मणि, भूमि, आदि
की रचना तथा वहां भोजन के प्रारम्भ में क्या दिया जाता है, और फिर क्रमशः क्या क्या दिया जाता है ? आदि कथा करना देश विधि कथा है।
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श्रो सेठिया जैन प्रन्थमाला
११०
देश विकल्प कथा — देश विशेष में धान्य की उत्पत्ति तथा वहां के चत्र, कूप, देवकुल, भवन आदि का वर्णन करना देश विकल्प कथा है ।
देश छंद कथा -- देश विशेष की गम्य, अगम्य विषयक बात करना । जैसे लाट देश में मामा या मामी की लड़की का सम्बन्ध किया जा सकता है और दूसरे देशों में नहीं । इत्यादि कथा करना देश छन्द कथा
1
w
देश नेपथ्य कथा - देश विशेष के स्त्री पुरुषों के स्वाभाविक वेश तथा शृङ्गार आदि का वर्णन करना | देश नेपथ्य कथा है । ( ठाणांग ४ सूत्र २८२ ) देश कथा करने से विशिष्ट देश के प्रति गग या दूसरे देश से अरुचि होती है । गगद्वेष से कर्मबन्ध होता है | स्वपक्ष और परपक्ष वालों के साथ इस सम्बन्ध में वादविवाद खड़ा हो जाने पर झगड़ा हो सकता है। देश वर्णन सुनकर दूसरा माधु उस देश को विविध गुण सम्पन्न सुनकर यहां जा सकता है । इस प्रकार देश कथा से अनेक दोषों ५. संभावना है ।
(निशीथ चूर्णि उद्देशा १ )
१५२ - गजकथा चार:
(१) राजा की अतियान कथा (२) राजा की निर्याण कथा (३) राजा के बलवाहन की कथा (४) राजा के कोष और कोठार की कथा |
राजा की प्रतियान कथा - राजा के नगर प्रवेश तथा उस समय की विभूति का वर्णन करना, अतियान कथा है ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह राजा की निर्याण कथा-राजा के नगर से निकलने की बात
करना तथा उस समय के ऐश्वर्य का वर्णन करना निर्याण
कथा है। राजा के बल वाहन की कथा-राजा के अश्व, हाथी आदि सेना,
और रथ आदि वाहनों के गुण और परिमाण आदि का वर्णन करना बल वाहन कथा है। राजा के कोष और कोठार की कथा-राजा के खजाने और धान्य
आदि के कोठार का वर्णन करना, धन धान्य आदि के परिमाण का कथन करना, कोष और कोठार की कथा है। उपाश्रय में बैठे हुए साधुओं को राज कथा करते हुए सुन कर राजपुरुष के मन में ऐसे विचार आ सकते हैं कि ये वास्तव में साधु नहीं हैं। सच्चे साधुओं को राजकथा से क्या प्रयोजन ? मालूम होता है कि ये गुप्तचर या चोर हैं। राजा के अमुक अश्व का हरण हो गया था, राजा के स्वजन को किसी ने मार दिया था। उन अपराधियों का पता नहीं लगा। क्या ये वे ही तो अपराधी नहीं हैं ? अथवा ये उक्त काम करने के अभिलाषी तो नहीं हैं ? राजकथा सुनकर किसी राजकुल से दीक्षित साधु को भुक्त भोगों का स्मरण हो सकता है। अथवा दूसरा साधु राजऋद्धि सुन कर नियाणा कर सकता है । इस प्रकार राजकथा के ये तथा और भी अनेक दोष हैं।
(निशीथ चूर्णि उद्देशा १)
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला १५३-धर्मकथा की व्याख्या और भेदः
दया, दान, क्षमा आदि धर्म के अंगों का वर्णन करने वाली और धर्म की उपादेयता बताने वाली कथा धर्मकथा है। जैसे उत्तराध्ययन आदि ? धर्मकथा के चार भेदः-- (१) आक्षेपणी (२) विक्षेपणी । (३) संवेगनी (४) निर्वेदनी।
(ठाणांग ४ उद्देशा २ सूत्र २८२) १५४-आक्षेपणी कथा की व्याख्या और भेदः
श्रोता को मोह से हटा कर तत्त्व की ओर आकर्षित करने वाली कथा को आक्षेपणी कथा कहते हैं। इसके चार भेद हैं:
(१) याचार आक्षपणी, (२) व्यवहार आक्षेपणी । (३) प्रज्ञप्ति आक्षेपणी, (४) दृष्टिवाद आक्षेपणी।
(१) केश लोच, अस्नान आदि अाचार के अथवा आचारांग सूत्र के व्याख्यान द्वारा श्रोता को तत्त्व के प्रति प्राकृर्षित करने वाली कथा आचार आक्षेपणी कथा है।
(२) किसी तरह दोष लगाने पर उमकी शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त अथवा व्यवहार सूत्र के व्याख्यान द्वारा तत्त्व के प्रति आकर्षित करने वाली कथा को व्यवहार आक्षेपणी कथा कहते हैं।
(३) संशय युक्त श्रोता को मधुर वचनों से समझा कर या प्रज्ञप्ति सूत्र के व्याख्यान द्वारा तत्व के प्रति झुकाने वाली कथा को प्रज्ञप्ति आक्षेपणी कथा कहते हैं ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल सपह (४) श्रोता का ख्याल रखते हुए मात नयों के अनुसार सूक्ष्म
जीवादि तत्त्वों के कथन द्वारा अथवा दृष्टिवाद के व्याख्यान द्वारा नच के प्रति आकृष्ट करने वाली कथा दृष्टिवाद आक्षपणी कथा है।
(ठाणांग ४ सूत्र २८२) ___ भाव तमः अर्थात् अज्ञानान्धकार विनाशक ज्ञान, मर्व विरति रूप चारित्र, तप, पुरुपकार और समिति, गुप्ति का उपदेश ही इस कथा का सार है।
शिष्य को सर्व प्रथम आक्षेपणी कथा कहनी चाहिए आक्षेपणी कथा से उपदिष्ट जीव सम्यक्त्व लाभ करता है ।
(दशवकालिक नियुक्ति अध्ययन ३) १५५-विक्षेपणी कथा की व्याख्या और भेदः
श्रोता को कुमार्ग से सन्मार्ग में लाने वाली कथा विक्षेपणी कथा है । सन्मार्ग के गुणों को कह कर या उन्मार्ग के दोषों को बता कर सन्मागे की स्थापना करना विक्षेपणी कथा है। (१) अपने सिद्धान्त के गुणों का प्रकाश कर, पर-सिद्धान्त
के दोषों को दिखाने वाली प्रथम विक्षेपणी कथा है । (२) पर-सिद्धान्त का कथन करते हुए स्व-सिद्धान्त की
स्थापना करना द्वितीय विक्षेपणी कथा है। (३) पर-सिद्धान्त में घुणाक्षर न्याय से जितनी बातें जिना
गम सदृश हैं । उन्हें कह कर जिनागम विपरीत वाद के दोप दिखाना अथवा आस्तिक वादी का अभिप्राय
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११४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
बता कर नास्तिकवादी का अभिप्राय बतलाना तृतीय विक्षेपण कथा है ।
(४) पर - सिद्धान्त में कहे हुए जिनागम विपरीत मिथ्यावाद का कथन कर, जिनागम सदृश बातों का वर्णन करना अथवा नास्तिकवादी की दृष्टि का वर्णन कर आस्तिक वादी की दृष्टि को बताना चौथी विक्षेपणी कथा है ।
क्षेपणी कथा से सम्यक्त्व लाभ के पश्चात् ही शिष्य को विक्षेपणी कथा कहनी चाहिए । विक्षेपणी कथा से सम्यक्त्व लाभ की भजना है । अनुकूल रीति से ग्रहण करने पर शिष्य का सम्यक्त्व दृढ़ भी हो सकता है | परन्तु यदि शिष्य को मिथ्याभिनिवेश हो तो वह पर- समय ( पर - सिद्धान्त ) के दोषों को न समझ कर गुरु को परसिद्धान्त का निन्दक समझ सकता है । और इस प्रकार इस कथा से विपरीत असर होने की सम्भावना भी रहती है । ( ठाणांग ४ सूत्र २८२ )
( दशवैकालिक अध्ययन ३ की टीका )
१५६ - संवेगनी कथा की व्याख्या और भेदः - जिम कथा द्वारा विपाक की विरमता बता कर श्रोता में वैराग्य उत्पन्न किया जाता है । वह संवेगनी कथा है।
संवेगनी कथा के चार भेद:
•
(१) इहलोक संवेगनी ( २ ) परलोक संवेगनी
(३) स्वशरीर संवेगनी ( ४ ) पर शरीर संवेगनी । (१) इहलोक संवेगनी : - यह मनुष्यत्व कदली स्तम्भ के समान असार है, स्थिर है । इत्यादि रूप से मनुष्य जन्म का
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
११५ स्वरूप बता कर बैराग्य पैदा करने वाली कथा इहलोक
संवेगनी कथा है। (२) परलोक मंवेगनी:-देवता भी ईर्षा, विषाद, भय, वियोग
आदि विविध दुःखों से दुःखी हैं । इत्यादि रूप से परलोक का स्वरूप बता कर वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथा
परलोक संवेगनी कथा है। (३) स्वशरीर संवेगनी:-यह शरीर स्वयं अशुचि रूप है ।
अशुचि से उत्पन्न हुआ है। अशुचि विषयों से पोषित हुआ है। अशुचि से भरा है। और अशुचि परम्परा का कारण है । इत्यादि रूप से मानव शरीर के स्वरूप को बता कर वैराग्य भाव उत्पन्न करने वाली कथा स्वशरीर संवेगनी
कथा है। (४) पर शरीर मंवेगनी:--किसी मुर्दे शरीर के स्वरूप का कथन
कर वैराग्य भाव दिखाने वाली कथा पर शरीर संवेगनी
कथा है। नोट:-इमी कथा का नाम संवेजनी और संवेदनी भी है ।
संवेजनी का अर्थ संवेगनी के समान ही है। संवेदनी का अर्थ है ऊपर लिखी बातों से इहलोकादि वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराना ।
(ठाणांग ४ सूत्र २८२) १५७-निवेदनी कथा की व्याख्या और भेदः
___ इहलोक और परलोक में पाप, पुण्य के शुभाशुभ फल को बता कर संसार से उदासीनता उत्पन्न कराने वाली कथा निवेदनी कथा है।
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श्री संठिया जैन प्रन्थमाला (१) इस लोक में किये हुए दुष्ट कर्म, इमी भव में दुःख
रूप फल देने वाले होते हैं। जैसे चोरी, पर स्त्री गमन
आदि दुष्ट कर्म । इसी प्रकार इस लोक में किये हुए मुकृत इमी भव में मुख रूप फल देने वाले होते हैं । जैसे तीर्थकर भगवान को दान देने वाले पुरुष को मुवर्णवृष्टि आदि सुख
रूप फल यहीं मिलता है । यह पहलो निवेदनी कथा है । (२) इस लोक में किये हुए दुष्ट कम पग्लोक में दुःख
रूप फल देते हैं। जैसे महारम्भ, महा-परिग्रह आदि नग्क योग्य अशुभ कर्म करने वाले जीव को परभव अर्थान् नरक में अपने किये हुए दुष्ट कर्मों का फल भोगना पड़ता है। इसी प्रकार इस भव में किये हुए शुभ कार्यों का फल परलोक में सुख रूप फल देने वाला होता है। जैसे मुमाधु इस लोक में पाले हुए निरतिचार चारित्र का मुख रूप फल
परलोक में पाते हैं । यह दूसरी निर्वेदनो कथा है। (३) परलोक ( पूर्वभव ) में किये हुए अशुभ कर्म इस भव में
दुःख रूप फल देते हैं। जैसे परलोक में किये हुए अशुभ कर्म के फल स्वरूप जीव इम लोक में हीन कुल में उत्पन्न होकर बालपन से ही कुठ (कोढ़) आदि दुष्ट रोगों से पीड़ित और दारिद्य से अभिभूत देखे जाते हैं । इसी प्रकार पग्लोक में किये हुए शुभ कर्म इस भव में मुखरूप फल देने वाले होते हैं। जैसे पूर्व भव में शुभ कर्म करने वाले जीव इम भव में तीर्थंकर रूप से जन्म लेकर मुखरूप फल पाने हैं । यह तीसरी निर्वेदनी कथा है।
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श्री जैन सिद्धान बोल मंग्रह (४) परकोक (पूर्व भव ) में किये हुए अशुभ कर्म पग्लोक
( आगामी भव ) में दुःखरूप फल देते हैं । जैसे पूर्व भत्र में किये हुए अशुभ कर्मों से जीव कौवे, गीध आदि के भव में उत्पन्न होते है। उन के नरक योग्य कुछ अशुभ कर्म बंधे हुए होते हैं । और अशुभ कर्म करके वे यहां नरक योग्य अधूरे कर्मों को पूर्ण कर देते हैं। और इस के बाद नरक में जाकर दुःख भोगते हैं । इसी प्रकार परलोक में किये हुए शुभ कर्म परलोक ( आगामी भव ) में सुखरूप फल देने वाले होते है । जैसे देव भव में रहा हुआ तीर्थंकर का जीव पूर्व भव के तीर्थकर प्रकृति र पशुभ कर्मों का फल देव भव के बाद तीर्थंकर जन्म में भोगेगा । यह चौथी निवेदनी कथा है ।
(ठाणांग ४ सूत्र २८२) १५८-कपाय की व्याख्या और भेदः--
कषाय मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले क्रोध, मान, माया, लोभ रूप आत्मा के परिणाम विशेष जो सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति और यथाख्यात चारित्र का धात
करने हैं । कषाय कहलाते हैं । कषाय के चार भेदः
(१) क्रोध, (२) मान, (३) माया (४) लोभ । (१) क्रोधः-क्रोध मोहनीय के उदय से होने वाला, कृत्य
अकृत्य के विवेक को हटाने वाला, प्रज्वलन स्वरूप आत्मा के परिणाम को क्रोध कहते हैं । क्रोधवश जीव किसी की
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला बात महन नहीं करता और विना विचारे अपने और
पगए अनिष्ट के लिए हृदय में और बाहर जलता रहता है । (२) मानः-मान मोहनीय कर्म के उदय से जाति आदि गुणों
में अहंकार बुद्धिरूप प्रात्मा के परिणाम को मान कहते हैं । मान वश जीव में छोटे बड़े के प्रति उचित नम्र भाव नहीं रहता । मानी जीव अपने को बड़ा समझता है । और दूसरों को तुच्छ ममझता हुआ उनको अवहेलना करता है।
गर्व वश वह दूसरे के गुणों को सहन नहीं कर सकता। मायाः-माया मोहनीय कर्म के उदय से मन, वचन, काया की
कुटिलता द्वारा परवञ्चना अर्थात् दुसरे के माथ कपटाई, ठगाई, दगारूप आत्मा के परिणाम विशेष को माया
कहते हैं। लोभ-लोभ मोहनीय कर्म के उदय से द्रव्यादि विषयक इच्छा, मूर्छा, ममत्व भाव, एवं तृष्णा अर्थात् अमन्तोष रूप
आत्मा के परिणाम विशेष को लोभ कहते हैं। प्रत्येक कपाय के चार चार भेदः--
(१) अनन्तानुबन्धी (२) अप्रत्याख्यानावरण ।
(३) प्रत्याख्यानावरण (४) संज्वलन । अनन्तानुबन्धी:-जिस कषाय के प्रभाव से जीव अनन्त काल तक
संसार में परिभ्रमण करता है । उस कपाय को अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं । यह कपाय सम्यक्त्व का घात करता है। एवं जीवन पर्यन्त बना रहता है । इस कषाय से जीव नरक गति योग्य कर्मों का बन्ध करता है ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल मंग्रह
११६ अप्रत्याख्यानावरण-जिस कषाय के उदय से देश विरति रूप
अल्प (थोड़ा सा भी) प्रत्याख्यान नहीं होता उसे अप्रन्याख्यानावरण कषाय कहते हैं । इस कपाय से श्रावक धर्म की प्राप्ति नहीं होती । यह कपाय एक वर्ष तक बना रहता
है । और इससे तिर्यञ्च गति योग्य कर्मों का बन्ध होता है। प्रत्याख्यानावरणः-जिस कषाय के उदय से सर्व विरति रूप
प्रत्याख्यान रुक जाता है अर्थात् साधु धर्म की प्राप्ति नहीं होती। वह प्रत्याख्यानावरण कपाय है । यह कपाय चार माम तक बना रहता है । इस के उदय से मनुष्य गति योग्य
कर्मों का बन्ध होता है। संज्वलन:-जो कषाय परिपह तथा उपमर्ग के अाजान पर
यतियों को भी थोड़ा मा जलाता है। अर्थात् उन पर भी थोड़ा सा अमर दिखाता है । उसे मंज्वलन कषाय कहते हैं । यह कपाय सर्व विरति रूप माधु धर्म में बाधा नहीं पहुँचाता । किन्तु सब से ऊंचे यथाख्यात चारित्र में बाधा पहुँचाता है। यह कपाय एक पक्ष तक बना रहता है। और इससे देवगति योग्य कर्मों का बन्ध होता है। ___ऊपर जो कषायों की स्थिति एवं नरकादि गति दी गई है। वह बाहुल्यता की अपेक्षा से है । क्योंकि बाहुबलि मुनि को संज्वलन कषाय एक वर्ष तक रहा था । और प्रसन्नचन्द्र राजर्षि के अनन्तानुबन्धी कषाय अन्तर्मुहर्त तक ही रहा था। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी कषाय के रहते हुए
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१२०
श्री संठिया जैन ग्रन्थमाता मिथ्या दृष्टियों का नवप्रवेयक तक में उत्पन्न होना शास्त्र में वर्णित है।
(पन्नवणा पद १४) (ठाणांग४सूत्र २४६)
(कर्म ग्रन्थ प्रथम भाग) १५६-क्रोध के चार भेद और उनकी उपमाएं ।
(१) अनन्तानुबन्धी क्रोध, (२) अप्रत्याग्न्यानावरण क्रोध ।
(३) प्रत्यारन्यानावरण क्रोध (४) मंज्वलन क्रोध । अनन्तानुबन्धी क्रोध-पर्वत के फटने पर जो दगर होती है ।
उमका मिलना कठिन है । उसी प्रकार जो क्रोध किमी उपाय
से भी शान्त नहीं होता । वह अनन्तानुबन्धी क्रोध है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-सूखे तालाब आदि में मिट्टी के फट
जाने पर दगर हो जाती है । जब वर्षा होती है । तब वह फिर मिल जाती है । उसी प्रकार जो क्रोध विशेष परिश्रम
से शान्त होता है । वह अप्रत्याख्यानवरण क्रोध है । प्रत्याख्यानावरण क्रोध बालू में लकीर खींचने पर कुछ समय में
हवा से वह लकीर वापिस भर जाती है । उसी प्रकार जो क्रोध
कुछ उपाय से शान्त हो। वह प्रत्याख्यानावरण क्रोध है। संज्वलन क्रोध-पानी में खींची हुई लकीर जैसे खिंचने के साथ
ही मिट जाती है । उसी प्रकार किसी कारण से उदय में आया हुआ जो क्रोध शीघ्र ही शान्त हो जावे । उसे संज्वलन क्रोध कहते हैं।
(पन्नवणा पद १४) (गणांग ४ सूत्र २४६ से ३३१)
( कर्मग्रन्थ प्रथम भाग)
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
१२८ १६०-मान के चार भेद और उनकी उपमाएं ।
(१) अनन्तानुबन्धी मान (२) अप्रत्याख्यानावरण मान ।
(३) प्रत्याख्यानावरण मान (४) संज्वलन मान । अनन्तानुबन्धी मान--जैसे पत्थर का खम्भा अनेक उपाय करने
पर भी नहीं नमता । उमी प्रकार जो मान किसी भी उपाय
से दूर न किया जा सके वह अनन्तानुबन्धी मान है । अप्रत्याख्यानावरण मान-जैसे हड्डी अनेक उपायों से नमती है।
उमी प्रकार जो मान अनेक उपायों और अति परिश्रम से
दूर किया जा सके । वह प्रत्याग्व्यानायरण मान है। प्रत्याख्यानावरण मान-जैसे काष्ठ, तेल वगैरह की मालिश से
नम जाता है। उसी प्रकार जो मान थोड़े उपायों से
नमाया जा सके, वह प्रन्याग्व्यानावरण मान है । संज्वलन मान--जसे वेत विना मेहनत के महज ही नम जाती है। उमी प्रकार जो मान महज ही छूट जाता है वह मंज्वलन मान है।
(पन्नवणा पद १४) (ठाणांग ४ सूत्र २१३)
(कर्मग्रन्थ प्रथम भाग) १६१-माया के चार भेद और उन की उपमाएं:
(१) अनन्तानुवन्धी माया (२) अप्रन्याख्यानावरण माया ।
(३) प्रत्याख्यानावरण माया। (४) मंज्वलन माया। अनन्तानुबन्धी माया-जसे बांस की कठिन जड़ का टेढ़ापन
किसी भी उपाय से दूर नहीं किया जा सकता । उमी प्रकार जो माया किमी भी प्रकार दूर न हो, अर्थात् मग्लता रूप में परिणत न हो। वह अनन्तानुबन्धी माया है।
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१२२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला अप्रत्याख्यानावरण माया--जैसे मेंढे का टेढ़ा सींग अनेक उपाय
करने पर बड़ी मुश्किल से सीधा होता है । उसी प्रकार जो माया अत्यन्त परिश्रम से दूर की जा सके । वह अप्रत्या
ख्यानावरण माया है। प्रत्याख्यानावरण माया-जैसे चलने हुए बैल के मूत्र की टेढी
लकीर सूख जाने पर पवनादि से मिट जाती है । उसी प्रकार जो माया सरलता पूर्वक दूर हो सके, वह प्रन्याख्यानावरण
माया है। मंज्वलन माया-छोले जाते हुए बाँस के छिलके का टेढ़ापन
विना प्रयत्न के सहज ही मिट जाता है। उसी प्रकार जो माया विना परिश्रम के शीघ्र ही अपने आप दूर हो जाय । वह संज्वलन माया है।
( पन्नवणा पद १४) (ठाणांग ४ सूत्र २६३)
(कर्म ग्रन्थ प्रथम भाग) १६२:-लोभ के चार भेद और उन की उपमाएं:
(१) अनन्तानुबन्धी लोभ (२) अप्रत्याख्यानावरण लोभ,
(३) प्रत्याख्यानावरण लोभ (४) संज्वलन लोभ । अनन्तानुबन्धी लोभ-जैसे किरमची रङ्ग किसी भी उपाय से
नहीं छूटता, उसी प्रकार जो लोभ किसी भी उपाय से दूर
न हो। वह अनन्तानुबन्धी लोभ है। अप्रत्याख्यानावरण लोभः-जैसे गाड़ी के पहिए का कीटा
(खञ्जन ) परिश्रम करने पर अतिकष्ट पूर्वक छूटता है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १२३ उसी प्रकार जो लोभ अति परिश्रम से कष्ट पूर्वक दूर किया
जा सके । वह अप्रत्याख्यानावरण लोभ है। प्रत्याख्यानावरण लोभः-जैसे दीपक का काजल साधारण
परिश्रम से छूट जाता है। उसी प्रकार जो लोभ कुछ परिश्रम
से दूर हो । वह प्रत्याख्यानावरण लोभ है। मंज्वलन लोभः-जैसे हल्दी का रंग महज ही छूट जाता है।
उसी प्रकार जो लोभ आसानी से स्वयं दूर हो जाय वह संज्वलन लोभ है।
(ठाणांग ४ सूत्र २१३)
(पन्नवणा पद १४)
( कर्म ग्रन्थ प्रथम भाग) १६३--किस गति में किम कषाय की अधिकता होती है:
(१) नरक गति में क्रोध की अधिकता होती है। (१) तिर्यश्च गति में माया अधिक होती है। (३) मनुष्य गति में मान अधिक होता है। (४) देव गति में लोभ की अधिकता होती है।
(पन्नवणा पद १४) १६४-क्रोध के चार प्रकार:
(१) आभोग निवर्तित (२) अनाभोग निवर्तित ।
(३) उपशान्त (४) अनुपशान्त । आभोग निवर्तितः-पुष्ट कारण होने पर यह सोच कर कि ऐमा किये विना इसे शिक्षा नहीं मिलेगी । जो क्रोध किया जाता है। वह आभोग निवर्तित क्रोध है।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
अथवा:क्रोध के विपाक को जानते हुए जो क्रोध किया जाता है
वह आभोग निवर्तित क्रोध है। अनाभोग निवर्तिनः--जब कोई पुरुष यों ही गुण दोष का
विचार किये विना परवश होकर क्रोध कर बैठता है। अथवा क्रोध के विपाक को न जानते हुए क्रोध करता है तो उस
का क्रोध अनाभोग निवर्तित क्रोध है । उपशान्तः-जो क्रोध सत्ता में हो, लेकिन उदयावस्था में न हो
वह उपशान्त क्रोध है। अनुपशान्तः-उदयावस्था में रहा हुआ क्रोध अनुपशान्त
क्रोध है। इसी प्रकार माया, मान, और लोभ के भी चार चार भेद हैं ।
(ठाणांग ४ उद्देशा सूत्र २४६) १६५:--क्रोध की उत्पति के चार स्थानः--चार कारणों से
क्रोध की उत्पति होती है। (१) क्षेत्र अर्थात् नैरिये आदि का अपना अपना उत्पत्ति स्थान । (२) मचेतनादि वस्तु अथवा वास्तुघर । (३) शरीर । (४) उपकरण।
इन्हीं चार बोलों का प्राश्रय लेकर मान, माया, और लोभ की भी उत्पत्ति होती है।
(ठाणांग ४ सूत्र २४६)
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १६६-कषाय की ऐहिक हानियाँ
क्रोध आदि चार कषाय संसार के मूल का सिंचन करने वाले हैं। इन के सेवन से जीव को ऐहिक और पारलौकिक अनेक दुःख होते हैं। यहाँ ऐहिक हानियाँ बताई जाती हैं।
क्रोध प्रीति को नष्ट करता है। मान विनय का नाश करता है। माया मित्रता का नाश करने वाली है । लोभ उपरोक्त प्रीति, विनय और मित्रता सभी को नष्ट करने वाला है।
(दशवै कालिक अध्ययन ८ गाथा ३८) १६७-कपाय जीतने के चार उपाय
(१) क्रोध को शान्ति और क्षमा द्वारा निष्फल करके दया देना चाहिए। (२) मृदुता, कोमल वृत्ति द्वारा मान पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। (३) ऋजुता-सरल भाव से माया का मर्दन करना चाहिए। (४) सन्तोष रूपी शस्त्र से लोभ को जीतना चाहिए।
(दश कालिक अध्ययन ८ गाथा ३६) १६८-कुम्भ की चौभङ्गी
(१) मधु कुम्भ मधु पिधान (२) मधु कुम्भ विष पिधान (३) विष कुम्भ मधु पिधान (४) विष कुम्भ विष पिधान (१) मधु कुम्भ मधु पिधानः-एक कुंभ (घड़ा) मधु से भरा हुआ होता है । और मधु के ही ढकने वाला होता है। (२) मधु कुम्भ विष पिधानः-एक कुम्भ मधु से भरा
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
होता है और उस का ढकना विष का होता है । (३) विष कुम्भ मधु विधान -- एक कुम्भ विष से भरा होता है। और उस का ढकना मधु का होता है । (४) त्रिप कुम्भ विप पिधान -- एक कुंभ विष से भरा हुआ होता है । और उसका ढकना भी विष का ही होता हैं । ( ठाणांग ४ सूत्र ३६० )
१६६ - कुम्भ की उपमा से चार पुरुष
(१) किमी पुरुष का हृदय निष्पाप और अकलुप होता है। और वह मधुरभाषी भी होता है । वह पुरुष मधु कुम्भ मधु पिधान जैसा है ।
1
-
(२) किमी पुरुष का हृदय तो निष्पाप और अकलुप होता है । परन्तु वह कटुभाषी होता है । वह मधु कुम्भ विष पिधान जैसा है
1
(३) किमी पुरुष का हृदय कलुपता पूर्ण है । परन्तु वह मधुरभाषी होता है । वह पुरुष विष कुम्भ मधु पिधान जैना है ।
(४) किमी पुरुष का हृदय कलुपता पूर्ण है । और वह कटुभाभी है । वह पुरुष विष कुम्भ विष पिधान जैसा है । ( ठाणांग ४ सूत्र ३६० )
१७० - फूल के चार प्रकार
(१) एक फूल सुन्दर परन्तु सुगन्ध हीन होता है । जैसे आकुली, रोहिड़ आदि का फूल ।
(२) एक फूल सुगन्ध युक्त होता है । पर सुन्दर नहीं होता । जैसे वकुल और मोहनी का फूल ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
१२७ (३) एक फूल सुगन्ध और रूप दोनों से युक्त होता है। जैसे जाति पुष्प, गुलाब का फूल आदि । (४) एक फूल गन्ध और रूप दोनों से हीन होता है । जैसे बेर का फूल धतूरे का फूल।
(ठाणांग ४ सूत्र ३२०) १७१-फूल की उपमा से पुरुष के चार प्रकार:
(१) एक पुरुष रूप सम्पन्न है । परन्तु शील सम्पन्न नहीं। जैसे-ब्रह्म दत्त चक्रवती। (२) एक पुरुष शील सम्पन्न है । परन्तु रूप सम्पन्न नहीं । जैसे हरिकेशी मुनि। (३) एक पुरुष रूप और शील दोनों से ही सम्पन्न होता है। जैसे भरत चक्रवर्ती । (४) एक पुरुष रूप और शील दोनों से ही हीन होता है। जैसे-काल सौकरिक कसाई ।
(ठाणांग ४ सूत्र ३२०) १७२-मेघ चार
(१) कोई मेघ गर्जते हैं पर बरसते नहीं। (२) कोई मेघ गर्जते नहीं हैं पर बरसते हैं । (३) कोई मेघ गर्जते भी हैं और बरसते भी हैं। (४) कोई मेघ न गर्जते हैं और न बरसते हैं।
(ठाणांग ४ उद्देशा ४ सूत्र ३४६) १७३-मेघ की उपमा से पुरुष के चार प्रकार:(१) कोई पुरुष दान, ज्ञान, व्याख्यान और अनुष्ठान
आदि की कोरी बातें करते हैं पर करते कुछ नहीं।
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१२८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला (२) कोई पुरुष उक्त कार्यों के लिए अपनी बड़ाई तो नहीं
करने पर कार्य करने वाले होते हैं। (३) कोई पुरुष उक्त कार्यों के विषय में डींग भी हांकते
हैं और कार्य भी करते हैं। (४) कोई पुरुष उक्त कार्यों के लिए न डींग हांकने हैं। और न कुछ करते ही हैं।
(ठाणांग ४ उद्देशा ४ सूत्र ३४६) १७४-(क) मेघ के अन्य चार प्रकार:
(१) पुष्कर संवर्तक (२) प्रद्युम्न (३) जीमूत (४) जिह्म । (१) पुष्कर संवर्तकः--जो एक बार बरम कर दम हज़ार
वर्ष के लिए पृथ्वी को स्निग्ध कर देता है। (२) प्रद्युम्नः--जो एक बार बरम कर एक हजार वर्ष के
लिए पृथ्वी को उपजाऊ बना देता है। (३) जीमूतः -जो एक वार बरम कर दस वर्ष के लिए
पृथ्वी को उपजाऊ बना देता है। (४) जिमः-जो मेघ कई बार बरसने पर भी पृथ्वी को
एक वर्ष के लिए भी नियम पूर्वक उपजाउ. नहीं बनाता।
इसी तरह पुरुष भी चार प्रकार के हैं। एक पुरुप एक ही बार उपदेश देकर सुनने वाले के दुर्गणों को हमेशा के लिए छुड़ा देता है वह पहले मेघ के समान है। उससे उत्तरोनर कम प्रभाव वाले वक्ता दूसरे और तीसरे मेघ सरीखे हैं। बार बार उपदेश देने पर भी जिनका असर
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श्री जैन सिद्धान बोल संग्रह
१२६ नियमपूर्वक न हो अर्थात् कभी हो और कभी न हो । वह चौथे मेघ के समान है।
दान के लिए भी यही बात है । एक ही बार दान देकर हमेशा के लिए याचक के दारिद्रय को दूर करने वाला दाता प्रथम मेघ सदृश है। उससे कम शक्ति वाले दूसरे और तीसरे मेघ के समान हैं। किन्तु जिसके अनेक बार दान देने पर भी थोड़े काल के लिए भी अर्थी (याचक) की आवश्यकताएं नियमपूर्वक पूरी न हो ऐसा दानी जिह्म मेघ के समान है।
(ठाणांग ४ उहेशा ४ सूत्र ३४७ ) १७४(ख):-अन्य प्रकार से मेघ के चार भेदः
(१) कोई मेघ क्षेत्र में बरसता है, अक्षेत्र में नहीं बरसता । (२) कोई मेघ क्षेत्र में नहीं बरसता, अक्षेत्र में बरसता । (३) कोई मेघ क्षेत्र और अक्षेत्र दोनों में बरसता है। (४) कोई मेघ क्षेत्र और अक्षेत्र दोनों में ही नहीं बरमता ।
(ठाणांग ४ उद्देशा ४ सूत्र ३४६) १७५-मेघ की उपमा से चार दानी पुरुप(१) कोई पुरुष पात्र को दान देते हैं । पर कुपात्र को नहीं
देते। (२) कोई पुरुष पात्र को तो दान नहीं देते, पर कुपात्र को
देते हैं। (३) कोई पुरुष पात्र और कुपात्र दोनों को दान देते हैं ।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(४) कोई पुरुष पात्र और कुपात्र दोनों को हो दान नहीं
देते हैं ।
( ठाणांग ४ उद्देशा ४ सूत्र ३४६ )
१७६ - प्रव्रज्या प्राप्त पुरुषों के चार प्रकार:
(१) कोई पुरूष सिंह की तरह उन्नत भावों से दीक्षा लेकर सिंह की तरह ही उग्र विहार आदि द्वारा उसे पालते हैं।
(२) कोई पुरुष सिंह की तरह उन्नत भावों से दीक्षा लेकर
शृगाल की तरह दीन वृत्ति से उसका पालन करते हैं । (३) कोई पुरुष शृगाल की तरह दीन वृत्ति से दीक्षा लेकर सिंह की तरह उग्र विहार आदि द्वारा उसे पालते हैं । (४) कोई पुरुष शृगाल की तरह दीन वृत्ति ले दीक्षा लेकर शृगाल की तरह दीन वृत्ति से ही उसका पालन करते हैं ।
( ठाणांग ४ उद्देशा ४ सूत्र ३२७ )
१७७ - तीर्थ की व्याख्या और उसके भेद:
सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यम्चारित्र आदि गुण रत्नों को धारण करने वाले प्राणी समूह को तीर्थ कहते हैं । तीर्थ ज्ञान, दर्शन, चारित्र द्वारा संसार समुद्र से जीवों को तिराने वाला है । इस लिए इसे तीर्थ कहते है तीर्थ के चार प्रकार:
यह
(१) साधु ।
, (३) श्रावक ।
(२) साध्वी ।
(४) श्राविका ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
साधुः - पंच महाव्रतधारी, सर्व विरति को साधु कहते हैं । ये तपस्वी होने से श्रमण कहलाते हैं । शोभन, निदान रूप पाप से रहित चित्त वाले होने से भी श्रमण कहलाने हैं । ये ही स्वजन परजन, शत्रु मित्र, मान अपमान आदि में समभाव रखने के कारण समण कहलाते हैं।
1
इसी प्रकार साध्वी का स्वरूप है | श्रमणी और समणी इनके नामान्तर हैं ।
श्रावक : - देश विरति को श्रावक कहते हैं । सम्यग्दर्शन को
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प्राप्त किये हुए, प्रतिदिन प्रातः काल साधुओं के समीप प्रमाद रहित होकर श्रेष्ठ चारित्र का व्याख्यान सुनते हैं । श्रावक कहलाते हैं ।
g
अथवा:
"श्री" अर्थात् सम्यग् दर्शन को धारण करने वाले
"व" अर्थात् गुणवान्, धर्म क्षेत्रों में धनरूपी बीज को बोने वाले, दान देने वाले ।
"क" अर्थात् क्लेश युक्त, कर्म रज का निराकरण करने वाले जीव " श्रावक ' कहलाते हैं ।
" श्राविका " का भी यही स्वरूप है ।
( ठाणांग ४ सूत्र ३६३ टीका ) १७८ - श्रमण ( समण, समन ) की चार व्याख्याएं (१) जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय है । उसी प्रकार सभी जीवों को दुःख अप्रिय लगता है । यह समझ कर तीन करण, तीन योग से जो किसी जीव की हिंसा नहीं करता
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला एवं जो सभी जीवों को आत्मवन् समझता है । वह समण कहलाता है। (२) जिसे संसार के सभी प्राणियों में न किसी पर राग है
और न किसी पर द्वेष । इस प्रकार समान मन ( मध्यस्थ भाव ) वाला होने से साधु स-मन कहलाता है। (३) जो शुभ द्रव्य मन वाला है और भाव से भी जिमका मन कभी पापमय नहीं होता । जो स्वजन, परजन एवं मान अपमान में एक सी वृत्ति वाला है । वह श्रमण कहलाता है। (४) जो मर्प, पर्वत, अग्नि, सागर, आकाश, वृक्ष पंक्ति, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, सूर्य एवं पवन के समान होता है वह श्रमण कहलाता है।
दृष्टान्तों के साथ दार्टान्तिक इस तरह घटाया जाना है।
सर्प जैसे चूहे आदि के बनाये हुए बिल में रहता है उसी प्रकार साधु भी गृहस्थ के बनाये हुए घर में वास करता है । वह स्वयं घर आदि नहीं बनाता।
पर्वत जैसे आंधी और बवंडर से कभी विचलित नहीं होता । उसी प्रकार साधु भी परिषह और उपसर्ग द्वारा विचलित नहीं होता हुआ संयम में स्थिर रहता है। __अग्नि जैसे तेजोमय है । तथा कितना ही भक्ष्य पाने पर भी वह तृप्त नहीं होती। उसी प्रकार मुनि भी तप से तेजस्वी होता है। एवं शास्त्र ज्ञान से कभी सन्तुष्ट नहीं होता। हमेशा विशेष शास्त्र ज्ञान सीखने की इच्छा रखता है ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रस सागर जैसे गंभीर होता है। रत्नों के निधान से भरा होता है । एवं मर्यादा का त्याग करने वाला नहीं होता । उसी प्रकार मुनि भी स्वभाव से गंभीर होता है । ज्ञानादि रत्नों से पूर्ण होता है । एवं कैसे भी संकट में मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करता। आकाश जैसे निराधार होता है उसी प्रकार साधु भी आलम्बन रहित होता हैं।
वृक्ष पंक्ति जैसे सुख और दुःख में कभी विकृत नहीं होती । उसी प्रकार समता भाव वाला साधु भी सुख दुःख के कारण विकृत नही होता।
भ्रमर जैसे फूलों से रस ग्रहण करने में अनियत वृत्ति वाला होता है। तथा स्वभावतः पुष्पित फलों को कष्ट न पहुंचाता हुआ अपनी आत्मा को तृप्त कर लेता है। इसी प्रकार साधु भी गृहस्थों के यहां से आहार लेने में अनियत वृत्ति वाला होता है । गृहस्थों द्वारा अपने लिये बनाये हुए आहार में से, उन्हें असुविधा न हो इस प्रकार, थोड़ा थोड़ा आहार लेकर अपना निर्वाह करता है।
जैसे मृग वन में हिंसक प्राणियों से सदा शङ्कित एवं त्रस्त रहता है । उसी प्रकार साधु भी दोषों से शङ्कित रहता है।
पृथ्वी जैसे सब कुछ सहने वाली है। उसी प्रकार साधु भी सब दुःखों को सहने वाला होता है ।
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श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला कमल जैसे जल और पंक में रहता हुआ भी उन से सर्वथा पृथक् रहता है । उसी प्रकार साधु मंमार में रहता हुआ भी निर्लिप्त रहता है।
सूर्य जसे मब पदार्थों को मम भाव से प्रकाशित करता है। उमी प्रकार माधु भी धर्मास्तिकायादि रूप लोक का समान रूप से ज्ञान द्वारा प्रकाशन करता है।
जैसे पवन अप्रतिबन्ध गति वाला है । उसी प्रकार माधु भी मोह ममता से दूर रहता हुआ अप्रतिबन्ध विहारी होता है।
(अभिधान राजेन्द्र कोप भाग ६)
('समण' शब्द पृष्ठ ४०४ ) (दशवीकालिक अध्ययन २ टीका पृष्ठ ८)
(आगमोदय समिति) (निशीथ गाथा १५४-१५७)
(अनुयोगद्वार सामायिक अधिकार ) १७६-चार प्रकार का संयम
(१) मन संयम (२) वचन संयम (३) काया संयम । (४) उपकरण मंयम ।
मन, वचन, काया के अशुभ व्यापार का निरोध करना और उन्हें शुभ व्यापार में प्रवृत्त करना मन, वचन और काया का संयम है । बहुमूल्य वस्त्र आदि उपकरणों का परिहार करना उपकरण संयम है।
(ठाणांग ४ उद्देशा २ सूत्र ३१०)
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श्री जैन सिद्धान्न बोल मंत्र्य
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१८०-चार महाव्रत
भरत, ऐरावत नेत्रों में पहले एवं चौबीसवें तीर्थंकरों के सिवा शेष २२ तीर्थंकर भगवान् चार महाव्रत रूप धर्म की प्ररूपणा करते हैं । इसी प्रकार महाविदेह क्षेत्र में भी अरिहन्त भगवान् चार महाव्रत रूप धर्म फरमाते हैं। चार महाव्रत ये हैं:१-सर्व प्राणातिपात से निवृत्ति २-सर्व मृषावाद ले निवृति ३-सर्व अदत्तादान से निवृति ४-सर्व परिग्रह से निवृत्ति
सर्वथा मैथुन निवृत्त रूप महावत का परिग्रह निवृत्ति व्रत में ही समावेश किया जाता है। क्योंकि अपरिगृहीत स्त्रियों का उपभोग नहीं होता।
ठाणांग ४ सूत्र ३६६) १८१-ईर्या समिति के चार कारण:
(१) आलम्बन (२) काल । (३) मार्ग
(४) यतना। (१) आलम्बनः साधु को ज्ञान, दर्शन, चारित्र का पाल
म्बन लेकर गमन करना चाहिए । विना उक्त आल
म्बनों के बाहर जाना साधु के लिए निषिद्ध है। (२) कालः ईर्या समिति का काल तीर्थंकर भगवान् ने
दिन का बताया है। रात्रि में दिखाई न देने से पुष्ट
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
श्रालम्बन के विना जाने की भगवान् की आज्ञा नहीं है।
(३) मार्ग : - कुपथ में चलने से आत्मा और संयम की विराधना होती है । इस लिए कुपथ का त्याग कर सुपय-राजमार्ग आदि से माधु को चलना चाहिए । (४) यतनाः - द्रव्य क्षेत्र काल और भाव के भेद से यतना के चार भेद हैं ।
द्रव्य यतना:- द्रव्य से दृष्टि द्वारा जीवादि पदार्थों को देख कर संयम तथा आत्मा की विराधना न हो । इस प्रकार साधु को चलना गाहिए |
क्षेत्र यतनाः - क्षेत्र से युग प्रमाण अर्थात् चार हाथ प्रमाण (३६ अंगुल ) आगे की भूमि को देखते हुए साधु को चलना चाहिए ।
काल यतना:- काल से जब तक चलता फिरता रहे। तब तक यतना से चले फिरे । दिन को देख कर और रात्रि को पूंज 1 कर चलना चाहिए |
भाव यतना:- -भाव से सावधानी पूर्वक चित्त को एकाग्र रखते हुए जाना चाहिए । ईर्या में उपघात करने वाले पांच इन्द्रियों के विषय तथा पांच प्रकार के स्वाध्याय को वर्जना चाहिए ।
( उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २४ )
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १८२-स्थण्डिल के चार भांगे
____ मल मूत्र आदि त्याग करने अर्थात् परिठवने की जगह को स्थण्डिल कहते हैं । स्थण्डिल ऐसा होना चाहिए जहाँ स्व, पर और उभय पक्ष वालों का न तो आना जाना है और न संलोक । अर्थात् न दूर से उनकी दृष्टि ही पड़ती है । उसके चार भांगे हैं। (१) जहाँ स्व, पर और उभय पक्ष वालों का न आना
जाना है और न दूर से उनकी नज़र ही पड़ती है। (२) जहाँ पर उनका आना जाना तो नहीं है पर दूर से
उनकी दृष्टि पड़ती है। (३) जहाँ उनका आना जाना तो है किन्तु दूर से उनकी
नज़र नहीं पड़ती। (४) जहाँ उनका आना जाना है और दूर से नज़र भी
पड़ती है।
इन चार भांगों में पहला भांगा परिठवने के लिए शुद्ध है । शेष अशुद्ध हैं।
(उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २४) १.८३-चार कारणों से, साध्वी से आलाप संलाप करता हुआ
साधु 'अकेला साधु अकेली स्त्री के साथ खड़ा न रहे, न बात-चीत करे, विशेष कर साध्वी के साथ'-इस निर्ग्रन्थाचार का अतिक्रमण नहीं करता। (१) प्रश्न पूछने योग्य साधर्मिक गृहस्थ पुरुष के न होने पर
आर्या से मार्ग पूछता हुआ। (२) आर्या को मार्ग बतलाता हुआ।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला __(३) आर्या को आहारादि देता हुआ। (४) आर्या को अशनादि दिलाता हुआ।
(ठाणांग ४ सूत्र २६०) १८४-श्रावक के चार प्रकार:
(१) माता पिता ममान (२) भाई समान (३) मित्र समान (४) मौत ममान । (१) माना पिता के ममान:-विना अपवाद के माधुओं के
प्रति एकान्त रूप से वत्सल भाव रखने वाले श्रावक
माता-पिता के समान हैं। (२) भाई के समान:-तत्त्व विचारणा आदि में कठोर वचन
से कभी साधुओं से अप्रीति होने पर भी शेष प्रयोजनों में अतिशय वत्मलता रखने वाले श्रावक भाई के
समान है। (३) मित्र के समानः-उपचार सहित वचन आदि द्वारा
माधुओं से जिनकी प्रीति का नाश हो जाता है। और प्रीति का नाश हो जाने पर भी आपत्ति में उपेक्षा करने वाले श्रावक मित्र के समान हैं।
मित्र की तरह दोषों को ढकने वाले और गुणों का प्रकाश करने वाले श्रावक मित्र के समान हैं।
(टब्बा ) (४) सौत के ममान-माधुओं में सदा दोष देखने वाले
और उनका अपकार करने वाले श्रावक सौत के समान हैं।
(ठाणांग ४ सूत्र ३२१)
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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१८५-श्रावक के अन्य चार प्रकार:
(१) आदर्श समान (२) पताका समान । (३) स्थाणु समान (४) खर कण्टक समान । (१) आदर्श समान श्रावकः--जैसे दर्पण समीपस्थ पदार्थों
का प्रतिबिम्ब ग्रहण करता है। उसी प्रकार जो श्रावक साधओं से उपदिष्ट उत्मर्ग, अपवाद आदि आगम सम्बन्धी भावों को यथार्थ रूप से ग्रहण करता है। वह
आदर्श (दर्पण) समान श्रावक है। (२) पताका समान श्रावक-जैसे अस्थिर पताका जिम
दिशा की वायु होती है । उमी दिशा में फहराने लगती है । उमी प्रकार जिम श्रावक का अस्थिर ज्ञान विचित्र देशना रूप वायु के प्रभाव से देशना के अनुसार बदलता रहता है । अर्थात् जैसी देशना सुनता है । उसी की ओर झुक जाता है। वह पताका समान
श्रावक है। (३) स्थाणु (खम्भा) समान श्रावक-जो श्रावक गीतार्थ की
देशना सुन कर भी अपने दुराग्रह को नहीं छोड़ता । वह श्रावक अनमन शील (अपरिवर्तन शील) ज्ञान सहित
होने से स्थाणु के समान है। (३) खर कण्टक समान श्रावक-जो श्रावक समझाये जाने
पर भी अपने दुराग्रह को नहीं छोड़ता, बल्कि समझाने वाले को कठोर वचन रूपी कांटों से कष्ट पहुंचाता है । जैसे बबूल आदि का कांटा उसमें फंसे हुए वस्त्र
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला को फाड़ता है । और साथ ही छुड़ाने वाले पुरुष के हाथों में चुभकर उसे दुःखित करता है।
(ठाणांग ४ सूत्र ३२१) १८६-शिक्षा व्रत चारः
बार बार सेवन करने योग्य अभ्यास प्रधान व्रतों को शिक्षावत कहते हैं । ये चार हैं(१) सामायिक व्रत (२) देशावकाशिक व्रत । (३) पौषधोपवास व्रत (४) अतिथि संविभाग व्रत । (१) सामायिक वनः-सम्पूर्ण सावध व्यापार का त्याग
कर आतध्यान, रौद्र ध्यान दूर कर धर्म ध्यान में
आत्मा को लगाना और मनोवृत्ति को समभाव में रखना सामायिक व्रत है। एक मामायिक का काल दो घड़ी अर्थात् एक मुहूर्त है । सामयिक में ३२ दोषों
को वर्जना चाहिए। (२) देशावकाशिक व्रतः-छठे व्रत में जो दिशाओं का
परिमाण किया है। उसका तथा सब व्रतों का प्रतिदिन संकोच करना देशावकाशिक व्रत है । देशावकाशिक व्रत में दिशाओं का संकोच कर लेने पर मर्यादा के बाहर की दिशाओं में आश्रव का सेवन न करना चाहिये । तथा मर्यादित दिशाओं में जितने द्रव्यों की मर्यादा की है। उसके उपरान्त द्रव्यों का उपभोग न
करना चाहिए। (३) पौषधोपवास व्रतः-एक दिन रात अर्थात् आठ पहर
के लिए चार आहार, मणि, सुवर्ण तथा आभूषण,
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १४१ पुष्पमाला, सुगंधित चूर्ण आदि तथा सकल सावध व्यापारों को त्याग कर धर्मस्थान में रहना और धर्मध्यान में लीन रह कर शुभ भावों से उक्त काल को व्यतीत करना पौषधोपवास व्रत है । इस व्रत में पौषध
के १८ दोषों का त्याग करना चाहिए । (४) अतिथि संविभाग व्रत:-पश्च महाव्रतधारी साधुओं को
उनके कल्प के अनुसार निदोंप अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोञ्छन, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, औषध और भेषज यह चौदह प्रकार की वस्तु निष्काम बुद्धि पूर्वक आत्म कल्याण की भावना से देना तथा दान का संयोग न मिलने पर सदा ऐसी भावना रखना अतिथि संविभाग व्रत है।
(प्रथम पंचाशक गाथा २५ से ३२ तक)
(हरिभद्रीयावश्यक प्रत्याख्यानाध्ययन पृष्ठ ८३०) १८७-विश्राम चारः
भार को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने वाले पुरुष के लिए चार विश्राम होते हैं । (१) भार को एक कंधे से दूसरे कंधे पर लेना एक
विश्राम है। (२) भार रख कर टट्टी पेशाब करना दूसरा विश्राम है। (३) नागकुमार सुपर्णकुमार आदि के देहरे में या अन्य
स्थान पर रात्रि के लिए विश्राम करना तीसरा विश्राम है।
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१४२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (४) जहाँ पहुंचना है, वहां पहुंच कर सदा के लिए विश्राम करना चौथा विश्राम है।
(ठाणांग ४ सूत्र ३१४) १८८-श्रावक के चार विश्राम:(१) पाँच अणुव्रत, तीन गुणत्रत और चार शिक्षाबत
एवं अन्य त्याग प्रत्याख्यान का अंगीकार करना
पहला विश्राम है। (२) सामायिक, देशावकाशिक व्रतों का पालन करना तथा
अन्य ग्रहण किए हुए व्रतों में रक्खी हुई मर्यादा का प्रति दिन मंकोच करना, एवं उन्हें सम्यक् पालन करना दुमग विश्राम है। (३) अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन
प्रतिपूर्ण पापध व्रत का सम्यक् प्रकार पालन करना
तीमग विश्राम है। (४) अन्त समय में संलेखना अंगीकार, कर आहार पानी
का त्याग कर, निश्चेष्ट रहते हुए और मरण की इच्छा न करते हुए रहना चौथा विश्राम है।
(ठाणांग ४ सूत्र ३१४) १८६-सद्दहणा चारः
(१) परमार्थ का अर्थात् जीवादि तत्वों का परिचय
करना।
(२) परमार्थ अर्थात् जीवादि के स्वरूप को भली प्रकार
जानने वाले प्राचार्य आदि की सेवा करना ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
१४३ (३) जिन्होंने सम्यक्त्व का वमन कर दिया है ऐसे
निवादि की संगति का त्याग करना। (४) कुदृष्टि अर्थात् कुदर्शनियों की संगति का त्याग करना। (उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २८ गाथा २८)
(धर्म संग्रह अधिकार १) १६०-सामायिक की व्याख्या और उसके भेदः
सामायिक:-सर्व सावध व्यापारों का त्याग करना और निरवद्य व्यापारों में प्रवृत्ति करना सामायिक है।
(धर्म रत्न प्रकरण)
(धर्म संग्रह) अथवाःसम अर्थात् रागद्वेष रहित पुरुष की प्रतिक्षण कर्म निर्जरा से होने वाली अपूर्व शुद्धि सामायिक है । सम अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र की प्राप्ति सामायिक है।
अथवा:सम का अर्थ है जो व्यक्ति रागद्वेष से रहित होकर सर्व प्राणियों को आत्मवत् समझता है । ऐसी आत्मा को सम्यगज्ञान, सम्यग दर्शन और सम्यग चारित्र की प्राप्ति होना सामायिक है । ये ज्ञानादि रत्नत्रय भवाटवी भ्रमण के दुःख का नाश करने वाले हैं । कल्पवृक्ष, कामधेनु और चिन्तामणि से भी बढ़ कर हैं। और अनुपम सुख के देने वाले हैं।
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श्री सेठिया जन ग्रन्थमाला
सामायिक के चार भेद:
(१) सम्यक्त्व सामायिक (२) श्रुत सामायिक ।
(३) देशविरति सामायिक (४) सर्व विरति सामायिक । (१) सम्यक्त्व सामायिकः-देव नारकी की तरह निसर्ग अर्थात्
स्वभाव से होने वाला एवं अधिगम अर्थात् तीर्थंकरादि के समीप धर्म श्रवण से होने वाला तत्वश्रद्धान सम्यक्त्व
सामायिक है। (२) श्रुत सामायिक:-गुरु के समीप में सूत्र, अर्थ या इन
दोनों का विनयादि पूर्वक अध्ययन करना श्रुत सामायिक
(३) देशविरति सामायिक:--श्रावक का अणुव्रत आदि रुप
एक देश विषयक चारित्र, देशविरति सामायिक है। (४) सर्वविति सामायिकः-साधु का पंच महाव्रत रूप सर्वविरति चारित्र सर्वविरति सामायिक है।
(विशेषावश्यक भाष्य गाथा २६७३ से २६७७) १६१ वादी के चार भेदः
(१) क्रिया वादी, (२) अक्रिया वादी।
(२) विनय वादी, (४) अज्ञान वादी । क्रियावादी:-इसकी भिन्न २ व्याख्याएं हैं। यथा:(१) कर्ता के विना क्रिया संभव नहीं है। इसलिए क्रिया
के कर्ता रूप से आत्मा के अस्तित्व को मानने वाले क्रियावादी हैं।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
(२) क्रिया ही प्रधान है और ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार क्रिया को प्रधान मानने वाले क्रियावादी हैं।
१४५
(३) जीव अजीव आदि पदार्थों के अस्तित्व को एकान्त रूप से मानने वाले क्रियावादी हैं । क्रियावादी के १८० प्रकार हैं:
जीव, अजीव, आश्रव, बंध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष, इन नव पदार्थों के स्व और पर से १८ भेद हुए । इन अठारह के नित्य, अनित्य रूप से ३६ भेद हुए ।
इन में के प्रत्येक के काल, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा की अपेक्षा पाँच पाँच भेद करने से १८२ भेद हुए । जैसे जीव, स्व रूप से काल की अपेक्षा नित्य है । जीव स्वरूप से काल की अपेक्षा अनित्य है । जीव पर रूप से काल की अपेक्षा नित्य है । जीव पर रूप से काल की अपेक्षा नित्य है । इस प्रकार काल की अपेक्षा चार भेद हैं । इसी प्रकार नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा की अपेक्षा जीव के चार चार भेद होंगे। इस तरह जीव दि नव तत्वों के प्रत्येक के बीस बीस भेद हुए और कुल १९८० भेद हुए ।
अक्रियावादी :- अक्रियावादी की भी अनेक व्याख्याएं हैं ।
यथाः
→
(१) किसी भी अनवस्थित पदार्थ में क्रिया नहीं होती है । यदि पदार्थ में क्रिया होगी तो वह अनवस्थित न
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१४६
श्रा संठिया जन ग्रन्यपाला होगा। इस प्रकार पदार्थों को अनवस्थित मान कर उममें क्रिया का अभाव मानने वाले अक्रियावादी
कहलाते हैं। (२) क्रिया की क्या जरूरत है ? केवल चित की पवित्रता
होनी चाहिए । इस प्रकार ज्ञान हो से मोक्ष की मान्यता
वाले अक्रियावादी कहलाते हैं (३) जीवादि के अस्तित्व को न मानने वाले अक्रियावादी कहलाते हैं । अक्रियावादो के ८४ भेद हैं । यथा:--
जीव, अजीव, आश्रव, बंध, मंवर, निजग और मोत इन सात तत्त्वों के स्व और पर के भेद से १४ भेद हुए । काल, यदृच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा इन छहों की अपेक्षा १४ भेदों का विचार करने सं ८४ भेद होते हैं । जैसे जीव स्वतः काल से नहीं है। जोव परतः काल से नहीं है । इस प्रकार काल की अपेक्षा जीव के दो भेद हैं । काल को तरह यदृच्छा, नियति आदि को अपेक्षा भी जीव के दो दो भेद होंगे। इस प्रकार जीव के १२ भेद हुए। जोव की तरह शेष तत्वों के भी बारह बारह भेद
हैं। इस तरह कुल ८४ भेद हुए। अज्ञानवादी:-जोवादि अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने वाला कोई
नहीं है । न उन के जानने से कुछ सिद्धि ही होती है। इसके अतिरिक्त समान अपराध में ज्ञानो को अधिक दोष माना है और अज्ञानी को कम । इसलिए अज्ञान ही श्रेय रूप है। ऐसा मानने वाले अज्ञानवादी हैं।
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श्रीजैन सिद्वाल घान संह अज्ञानवादी के ६७ भेद हैं । यथाः--
जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा, और मोक्ष इन नव तत्त्वों के सद् , अमद्, सदमद्, अवक्तव्य, सदवक्तव्य, असदवक्तव्य, सदसदवक्तव्य, इन सात भाँगों से ६३ भेद हुए । और उत्पत्ति के सद् , असद्
और अवक्तव्य की अपेक्षा से चार भंग हुए। इस प्रकार ६७ भेद अज्ञान वादी के होते हैं। जैसे जीव सद् है यह
कौन जानता है ? और इसके जानने का क्या प्रयोजन है ? विनयवादी:-स्वर्ग, अपवर्ग, आदि के कल्याण की प्राप्ति
विनय से ही होती है। इसलिए विनय ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार विनय को प्रधान रूप से मानने वाले विनयवादी
कहलाते हैं। विनयवादी के ३२ भेद हैं:
देव, राजा, यति, ज्ञाति, स्थविर, अधम, माता और पिता इन आठों का मन, वचन, काया और दान, इन चार प्रकारों से विनय होता है । इस प्रकार आठ को चार से गुणा करने से ३२ भेद होते हैं।
(भगवती शतक ३० उद्देशा १ की टिप्पणी) (आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध अध्ययन १ उद्देशा १)
(सूयगडांग प्रथम श्रतस्कन्ध अध्ययन १२) ये चारों वादी मिथ्या दृष्टि हैं।
क्रियावादी जीवादि पदार्थों के अस्तित्व को ही मानते हैं । इस प्रकार एकान्त अस्तित्व को मानने से इनके मत
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१४८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला में पर रूप की अपेक्षा से नास्तित्व नहीं माना जाता । पर रूप की अपेक्षा से वस्तु में नास्तित्व न मानने से वस्तु में स्वरूप की तरह पर रूप का भी अस्तित्व रहेगा । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु में सभी वस्तुओं का अस्तित्व रहने से एक ही वस्तु सर्व रूप हो जायगी। जो कि प्रत्यक्ष बाधित है। इस प्रकार क्रियावादियों का मत मिथ्यात्व पूर्ण है । __ अक्रियावादी जीवादि पदार्थ नहीं हैं । इस प्रकार अमद्भूत अर्थ का प्रतिपादन करते हैं । इस लिए वे भी मिथ्या दृष्टि हैं । एकान्त रूप से जीव के अस्तित्व का प्रतिषेध करने से उनके मत में निषेध कर्ता का भी अभाव हो जाता हैं। निषेध कर्ता के अभाव से सभी का अस्तित्व स्वतः मिद्ध होजाता हैं।
अज्ञानवादी अज्ञान को श्रेय मानते हैं। इसलिए वे भी मिथ्या दृष्टि हैं । और उनका कथन स्ववचन बाधित है । क्योंकि “अज्ञान श्रेय है" यह बात भी वे विना ज्ञान के कैसे जान सकते हैं । और विना ज्ञान के वे अपने मत का समर्थन भी कैसे कर सकते हैं । इस प्रकार अज्ञान की श्रेयता बताने हुए उन्हें ज्ञान का आश्रय लेना
ही पड़ता है। विनयवादी: केवल विनय से ही स्वर्ग, मोक्ष पाने की इच्छा रखने
वाले विनयवादी मिथ्या दृष्टि हैं। क्योंकि ज्ञान और क्रिश दोनों से मोक्ष की प्राप्ति होती है। केवल ज्ञान या केवल क्रिया से नहीं । ज्ञान को छोड़ कर एकान्त रूप से केवल
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श्री जैन सिद्धान्न बोल संग्रह __ १४६ क्रिया के एक अङ्गका आश्रय लेने से वे सत्यमार्ग से परे हैं।
(सूयगडांग प्रथम श्रुतस्कन्ध अध्ययन १२ टीका) १९२-चादी चारः
(१) आत्मवादी (२) लोकवादी ।
(३) कर्मवादी (४) क्रियावादी । (१) आत्म वादी:-जो नरक, निर्यश्च, मनुष्य, देवगति आदि
भाव दिशाओं तथा पूर्व, पश्चिम आदि द्रव्य दिशाओं में आने जाने वाले अक्षणिक अमन आदि स्वरूप वाले आत्मा को मानता है, वह आत्मवादी है । और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करने वाला है।
जो उक्त स्वरूप वाले आत्मा को नहीं मानने वे अनात्मवादी हैं । सर्व व्यापी, एकान्त नित्य या क्षणिक आत्मा को मानने वाले भी अनात्मवादी ही हैं। क्योंकि सर्व व्यापी, नित्य या क्षणिक आत्मा मानने पर उसका
पुनर्जन्म सम्भव नहीं है। (२) लोकवादी:-आत्मवादी ही वास्तव में लोकवादी है । लोक
अर्थात् प्राणीगण को मानने वाला लोकवादी है । अथवा विशिष्ट आकाश खण्ड जहाँ जीवों का गमनागमन संभव है। ऐसे लोक को मानने वाला लोकवादी है । लोकवादी अनेक आत्माओं का अस्तित्व स्वीकार करता है क्योंकि आत्माद्वैत के एकात्म-वाद के साथ लोक का स्वरूप और
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श्री सैठिया जैन ग्रन्थमाला" लोक में जीवों का गमनागमन आदि बातों का मेल
नहीं खाता। (३) कर्मवादी:-जो आत्मवादी और लोकवादी है, वही कर्मवादी
है । ज्ञानावरणीय प्रादि कर्मों का अस्तित्व" मानने वालो कर्मवादी कहलाता है। उसके अनुसार आत्मा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग से गति, शरीर आदि के योग्य कर्म बाँधता है । और फिर म्याकत कर्मानुसार भिन्न २ योनियों में उत्पन्न होता है । यदृच्छा, नियति और ईश्वर जगत् की विचित्रता करने वाले हैं और. जगत् चलाने वाले हैं। ऐसा मानने वाले यदृच्छा, नियति और ईश्वरवादी
के मतों को कर्मवादी असत्य समझता है। . .. (४) क्रियावादी:-जो कर्मवादी है वही क्रियावादी है । अर्थात्
कर्म के कारण भूत आत्मा के व्यापार यानि क्रिया को मानने वाला है । कर्म कार्य है । और कार्य का कारण है योग। अर्थात् मन, वचन और काया का व्यापार । इस लिए जो कर्म रूप कार्य को मानता है । वह उसके कारण रूप, क्रिया को भी मानता है । सांख्य. लोग आत्मा को निष्क्रिय अर्थात् क्रिया रहित मानते हैं। वह मत, क्रियावादियों के मतानुसार अप्रमाणिक है। जा. ..
(आचारांग २ श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन १ उदेशा १ को टीका) १६३-शूर, पुरुष के चार प्रकार:-. - (१) क्षमा शूर (२), तप,शूर। . . . " (३) दानं शूर (४) युद्ध शूर।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल'मंग्रह १६३ (२) क्षमा शूर अरिहन्त भगवान होते हैं। जैसे भगवान् ' महावीर स्वामी। । (२) तप शूर अनगार होते हैं । जैसे धनाजी और दृढ़
'प्रहारी अनगार । दृढ़ प्रहारी ने चोर अवस्था में 'दृढ़े 'प्रहार .' आदि से उपार्जित कर्मों की अन्त दीक्षा देकर तप द्वारा छः
मास में कर दिया। द्रव्य शत्रुओं की तरह भाव' शत्रु अर्थात् , कर्मों के लिये भी उसने अपने आप को दृढ़प्रहारी सिद्ध " कर दिया। । .. . . . .
(३) दान शूर वैश्रमण देवता होते हैं । वे उत्तर दिशा के • लोकपाल हैं। ये तीर्थकर भगवान् के जन्म और पारणे आदि ... के ममय रनों की वृष्टि करने हैं।। । । । ।
(२) युद्ध शूर वासुदेव होते हैं। जैसे कृष्ण महाराज । .. कृष्ण जी ने ३६० युद्धों में विजय प्राप्त की थी। . . (४)
१६४-पुरुषाण
(ताणग,४, उद्देशा ४ सूत्र ३१७ )
११४-पुरुषार्थ के चार भेदः-
, .., . .. पुरुष का प्रयोजन ही पुरुषार्थ है.।, पुरुषार्थ. चार हैं
. (१) धर्म, (२) अर्थ । ... .. . । - (३) काम (४) मोक्ष । (१) धर्मः जिससे सब प्रकार के अभ्युदय एवं मोक्ष की सिद्धि
हो, वह धर्म है । धर्म पुरुषार्थ अन्य सब पुरुषार्थों की प्राप्ति का ..मूल कारण है। धर्म से पुण्य एवं निर्जरा होती है... पुण्य
से अर्थ,और काम की प्राप्ति तथा निर्जरा से मोक्ष की प्राप्ति . होती है। इस लिए पुरुषाभिमानी सभी पुरुषों को सदा धर्म
की आराधना करनी चाहिये।
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१५२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (२) अर्थ:-जिससे सब प्रकार के लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि हो
वह अर्थ है । अभ्युदय के चाहने वाले गृहस्थ को न्याय पूर्वक अर्थ का उपार्जन करना चाहिये । स्वामीद्रोह, मित्रद्रोह, विश्वास घात, जूत्रा, चोरी आदि निन्दनीय उपायों का
आश्रय न लेते हुए अपने जाति, कुल की मर्यादा के अनुसार नीतिपूर्वक उपाजित अर्थ (धन) इहलोक और परलोक दोनों में हितकारी होता है । न्यायोपार्जित धन का सत्कार्य में व्यय हो सकता है। अन्यायोपार्जित धन इहलोक और
परलोक दोनों में दुःख का कारण होता है। (३) कामः-मनोज्ञ विपयों की प्राप्ति द्वारा इन्द्रियों का तृप्त
होना काम है। अमर्यादित और स्वच्छन्द कामाचार का
सर्वत्र निषेध है। (४) मोक्षः-राग द्वेष द्वाग उपार्जित कर्म-बंधन से आत्मा को
स्वतन्त्र करने के लिये मंवर और निर्जग में उद्यम करना मोक्ष पुरुषार्थ है।
इन चारों पुरुषार्थों में मोक्ष ही परम पुरुषार्थ माना गया है । इसी के आराधक पुरुष उत्तम पुरुप माने जाते हैं।
जो मोक्ष की परम उपादेयता स्वीकार करते हुए भी मोह की प्रबलता से उसके लिये उचित प्रयत्न नहीं कर सकते तथा धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों में अविरुद्ध रीति से उद्यम करते हैं। वे मध्यम पुरुष हैं । जो मोक्ष और धर्म की उपेक्षा करके केवल अर्थ और काम
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१५३ पुरुषार्थ में ही अपनी शक्ति का व्यय करने हैं। वे अधम पुरुष है । वे लोग पोज को खा जाने वाले किसान परिवार के सदृश हैं। जो भविष्य में धोपार्जित पुण्य के नष्ट हो जाने पर दुःख भोगने है।
(पुरुषार्थ दिग्दर्शन के आधार से) १६५-मोक्षमार्ग के चार भेदः
(१) ज्ञान (२) दर्शन ।
(३) चारित्र (४) तप। (१) ज्ञान:-ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से
उत्पन्न होकर वस्तु के स्वरूप को जानने वाला मति आदि पांच भेद वाला आत्मपरिणाम ज्ञान कहलाता है । यह
सम्यग्ज्ञान रूप है। (२) दर्शनः-दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय, उपशम या क्षयोपशम
होने पर वीतराग प्ररूपित नव तत्व आदि भावों पर रुचि एवं श्रद्धा होने रूप आत्मा का शुभ भाव दर्शन कहलाता
है। यही दर्शन सम्यगदर्शन रूप है। (३) चारित्रः--चारित्र मोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयो
पशम होने पर सत्क्रिया में प्रवृत्ति और असक्रिया से निवृत्ति कराने वाला, सामायिक, छेदोपस्थापनिक, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म सम्पराय और यथाख्यात स्वरूप पांच भेद वाला आत्मा का शुभ परिणाम चारित्र है । यह चारित्र सम्यग चारित्र रूप है । एवं जीव को मोक्ष में पहुँचान
वाला है। नोट:-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की व्याख्या ७६ वे बोल मे
भी दी गई है।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (४) तपः--पूर्वोपार्जित कर्मों को क्षय करने वाला, बाह्य और
आभ्यन्तर भेद वाला आत्मा का विशेष व्यापार तप कहलाता है। __ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ये चारों मिल कर ही मोक्ष का मार्ग है । पृथक पृथक नहीं । ज्ञान द्वारा आत्मा जीवादि तत्त्वों को जानता है । दर्शन द्वारा उन पर श्रद्धा करता है । चारित्र की सहायता से आते हुए नवीन कर्मों को रोकता है एवं तप द्वारा पूर्व संचित कर्मों का क्षय करता है।
(उत्तराध्ययन अध्ययन २८) १६६-धर्म के चार प्रकार:
(१) दान (२) शील । (३) तप (४) भावना (भाव)। जैसा कि सत्तरीसय ठाणावृत्ति ४१वें द्वार में कहा है:दाणं सीलं च तवो भावो, एवं चउन्विहो धम्मो । सव्व जिणेहिं भणिो , तहा दुहा सुयचारितेहिं ॥२६६।।
(अभिधान राजेन्द्र कोष भाग ४ पृष्ठ २२८६) दान:-स्व और पर के उपकार के लिए अर्थी अर्थात् जरूरत वाले
पुरुष को जो दिया जाता है । वह दान कहलाता है । अभयदान, सुपात्रदान, अनुकम्पा दान, ज्ञानदान आदि दान के अनेक भेद हैं । इनका पालन करना दान धर्म कहलाता है।
(सूयागडांग श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन ६ गाथा २३) (अभिधान राजेन्द्र कोष भाग ४ पृष्ठ २४८९)
(पंचाशक : वां पंचाशक गाथा ६)
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१५५
दान के प्रभाव से धन्नाजी और शालिभद्रजी ने खूट लक्ष्मी पाई और भोग भोगे । शालिभद्रजी सर्वार्थसिद्धसे आकर सिद्धि ( मोक्ष ) पावेंगे और धन्नाजी तो सिद्ध हो चुके । यह जान कर प्रत्येक व्यक्ति को सुपात्र दान आदि दान धर्म का सेवन करना चाहिए ।
२ - शील (ब्रह्मचर्य) :- दिव्य एवं औदारिक कामों का तीन करण और तीन योग से त्याग करना शील है । अथवा मैथुन का त्याग करना शील है । शील का पालन करना शील धर्म है । शील सर्व विरति और देश विरति रूप से दो प्रकार का है । देव मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी मैथुन का सर्वथा तीन करण, तीन योग से त्याग करना सर्व विरति शील है । स्वदार संतोष और परस्त्री विवर्जन रूप ब्रह्मचर्य एक देश शील है ।
शील के प्रभाव से सुदर्शन सेठ के लिए शूली का सिंहासन हो गया । कलावती के कटे हुए हाथ नवीन उत्पन्न होगये । इस लिए शुद्ध शील का पालन करना चाहिये । ३- तपः- जो आठ प्रकार के कर्मों एवं शरीर की सात धातुओं को जलाता है । वह तप है । तप बाह्य और आभ्यन्तर रूप से दो प्रकार का है । अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता ये ६ बाह्य तप हैं । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग ये ६ आभ्यन्तर तप हैं ।
(भगवती शतक २५ उद्देशा ७) (उत्तराध्यन अध्ययन ३० )
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१५६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला तप के प्रभाव से धन्नाजी, दृढ़ प्रहारी, हरि केशी मुनि और दंढण जी प्रमुख मुनीश्वरों ने सकल कर्मों का क्षय कर सिद्ध पद को प्राप्त किया । इस लिए तप का
सेवन करना चाहिये। 2-भावना (भाव):-मोक्षाभिलापी आत्मा अशुभ भावों को दूर
कर मन को शुभ भावों में लगाने के लिए जो संसार की अनिन्यता आदि का विचार करता है, वही भावना है। अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाएं हैं । मैत्री, प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थ ये भी चार भावनाएं हैं । व्रतों को निर्मलता से पालन करने के लिए व्रतों की पृथक् २ भावनाएं बतलाई गई हैं। मन को एकाग्र कर इन शुभ भावनाओं में लगा देना ही भावना धर्म है।
भावना के प्रभाव से मरुदेवी माता, भरत चक्रवर्ती प्रसन्न चन्द्र राजर्पि, इलायची कुमार, कपिल मुनि, स्कन्धक प्रमुख मुनि केवल ज्ञान प्राप्त कर निर्वाण को प्राप्त हुए । इस लिए शुभ भावना भावनी चाहिए।
(अभिधान राजेन्द्र कोप भाग ५ पृष्ठ १५०५) १६७-दान के चार प्रकार:
(१) ज्ञानदान (२) अभयदान
(३) धर्मोपकरण दान (४) अनुकम्पा दान ज्ञानदानः-ज्ञान पढ़ाना, पढ़ने और पढ़ाने वालों की सहायता
करना आदि ज्ञानदान है।
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श्रीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह १५७ अभयदान:-दुःखों से भयभीत जीवों को भय रहित करना,
अभय दान है। धर्मोपकरण दानः-छः काय के आरंभ से निवृत्त, पञ्च महा
व्रतधारी साधुओं को आहार पानी, वस्त्र पात्र आदि धर्म
सहायक धर्मोपकरण देना धर्मोपकरण दान है। अनुकम्पा दान:-अनुकम्पा के पात्र दीन, अनाथ, रोगी, संकट
में पड़े हुए व्यक्तियों को अनुकम्पा भाव से दान देना अनुकम्पा दान है।
(धर्मरत्न प्रकरण ७०) १९८-भाव प्राण की व्याख्या और भेद :भाव प्राण:--आत्मा के निज गुणों को भाव प्राण कहते हैं।
भाव प्राण चार प्रकार के होते हैं । (१) ज्ञान (२) दर्शन । (३) सुख (४) वीर्य । सकल कर्म से रहित सिद्ध भगवान् इन्हीं चार भाव प्राणों से युक्त होते हैं।
(पन्नवणा पद १ टीका) १६६-दर्शन के चार भेदः
(१) चक्षु दर्शन (२) अचक्षु दर्शन ।
(३) अवधि दर्शन (४) केवल दर्शन । चक्षु दर्शन:--चक्षु दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने पर चक्षु
द्वारा जो पदार्थों के सामान्य धर्म का ग्रहण होता है । उसे
चक्षु दर्शन कहते हैं । अचक्षु दर्शन:-अचक्षु दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने पर
चनु के सिवा शेष, स्पर्श, रसना, घाण और श्रोत्र इन्द्रिय
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला तथा मन से जो पदार्थों के सामान्य धर्म का प्रतिभास होता
है । उसे अचच दर्शन कहते हैं। अवधि दर्शन:-अवधि दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने पर
इन्द्रिय और मन की सहायता के विना आत्मा को रूपी द्रव्य के सामान्य धर्म का जो बोध होता है । उसे अवधि
दर्शन कहते हैं। केवल दर्शन:- केवल दर्शनावरणीय कर्म के क्षय होने पर आत्मा
द्वारा संसार के सकल पदार्थों का जो सामान्य ज्ञान होता है। उसे केवल दर्शन कहते हैं।
(ठाणांग ४ उद्देशा ४ सूत्र ३६५)
(कर्म ग्रन्थ ४ गाथा १२) २००--मति ज्ञान के चार भेदः
(१) अवग्रह (२) ईहा ।
(३) अवाय (४) धारणा । अवग्रहः--इन्द्रिय और पदार्थों के योग्य स्थान में रहने पर
सामान्य प्रतिभास रूप दर्शन के बाद होने वाले अवान्तर सत्ता सहित वस्तु के सर्व प्रथम ज्ञान को अवग्रह कहते हैं।
जसे दूर से किसी चीज का ज्ञान होना । ईहा:--अवग्रह से जाने हुए पदार्थ के विषय में उत्पन्न हुए संशय
को दूर करते हुए विशेष की जिज्ञासा को ईहा कहते हैं। जैसे अवग्रह से किसी दूरस्थ चीज का ज्ञान होने पर संशय होता है कि यह दूरस्थ चीज मनुष्य है या स्थाणु ? ईहा ज्ञानवान् व्यक्ति विशेष धर्म विषयक विचारणा द्वारा इस सशय को दूर करता है । और यह जान लेता है कि यह मनुष्य होना चाहिए । यह ज्ञान दोनों पक्षों में रहने वाले
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
१५६ संशय को दूर कर एक ओर झुकता है। परन्तु इतना कमजोर होता है कि ज्ञाता को इससे पूर्ण निश्चय नहीं होता और उसको तद्विषयक निश्चयात्मक ज्ञान की
आकांक्षा बनी ही रहती है। अवायः ईहा से जाने हुए पदार्थों में 'यह वही है, अन्य नहीं
है' ऐसे निश्चयात्मक ज्ञान को अवाय कहते है । जैसे यह
मनुष्य ही है । धारणा:--अवाय से जाना हुआ पदार्थों का ज्ञान इतना दृढ़ हो
जाय कि कालान्तर में भी उसका विस्मरण न हो तो उसे धारणा कहते हैं।
(ठाणांग ४ सूत्र ३६४) २०१ -बुद्धि के चार भेद
(१) औत्पातिकी (२) वैनयिकी ।
(३) कार्मिकी (४) पारिणामिकी । श्रोत्पातिकी:-नटपुत्र रोह की बुद्धि की तरह जो बुद्धि विना देखे
सुने और सोचे हुये पदार्थों को सहसा ग्रहण करके कार्य को सिद्ध कर देती है । उसे औत्पातिकी बुद्धि कहते हैं ।
( नदी सूत्र की कथा) वैनयिकी:-नैमित्तिक सिद्ध पुत्र के शिष्यों की तरह गुरुओं की
सेवा शुश्रूषा से प्राप्त होने वाली बुद्धि वैनयिकी है। कार्मिकी:-कर्म अर्थात् सतत अभ्यास और विचार से विस्तार
को प्राप्त होने वाली बुद्धि कार्मिकी है। जैसे सुनार, किसान आदि कर्म करते करते अपने धन्धे में उत्तरोत्तर विशेष दक्ष हो जाते हैं।
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१६०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला पारिणामिकी:-अति दीर्घ काल तक पूर्वापर पदार्थों के देखने
आदि से उत्पन्न होने वाला आत्मा का धर्म परिणाम कहलाता है । उस परिणाम कारणक बुद्धि को पारिणामिकी कहते हैं। अर्थात् वयोवृद्ध व्यक्ति को बहुत काल तक संसार के अनुभव से प्राप्त होने वाली बुद्धि पारिणामिकी बुद्धि कहलाती है।
( ठाणांग ४ सूत्र ३६४) २०२-प्रमाण चारः--
(१) प्रत्यक्ष (२) अनुमान ।
(३) उपमान (४) आगम। प्रत्यक्षः-अक्ष शब्द का अर्थ आत्मा और इन्द्रिय है ।
इन्द्रियों की महायता विना जीव के साथ सीधा सम्बन्ध रखने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है । जैसे अवधिज्ञान, मनः पयर्य ज्ञान, और केवल ज्ञान । इन्द्रियों से सीधा सम्बन्ध रखने वाला अर्थात् इन्द्रियों की सहायता द्वारा जीव के साथ सम्बन्ध रखने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है । जैसे इन्द्रिय प्रत्यक्ष । निश्चय में अवधि ज्ञान, मनः पयर्य ज्ञान
और केवल ज्ञान ही प्रत्यक्ष है और व्यवहार में इन्द्रियों
की सहायता से होने वाला ज्ञान भी प्रत्यक्ष है। अनुमानः-लिङ्ग अर्थात् हेतु के ग्रहण और सम्बन्ध अर्थात्
व्याप्ति के स्मरण के पश्चात् जिससे पदार्थ का ज्ञान होता है । उसे अनुमान प्रमाण कहते हैं । अर्थात् साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
१६१ उपमान-जिसके द्वारा सदृशता से उपमेय पदार्थों का ज्ञान होता
है । उसे उपमान प्रमाण कहते हैं। जैसे गवय गाय के समान
होता है। आगम-शास्त्र द्वारा होने वाला ज्ञान आगम प्रमाण कहलाता
(भगवती शतक ५ उद्देशा ४) (अनुयोग द्वार सूत्र पृष्ठ २११ से २१६
आगमोदय समिति) २०३---उपमा संख्या की व्याख्या और भेदःउपमा संख्या:--उपमा से वस्तु के निर्णय को उपमा संख्या
कहते हैं। उपमा संख्या के चार भेद
(१)--सत् की सत् से उपमा (२)-सत् की असत् से उपमा (३)-असत् की सत् से उपमा
(४) असत की असत से उपमा । सत् की सत् से उपमा-सत् अर्थात् विद्यमान पदार्थ की विद्यमान
पदार्थ से उपमा दी जाती है । जैसे विद्यमान तीर्थंकर के वक्षस्थल की विशालता के लिये विद्यमान नगर के दरवाजे से उपमा दी जाती है। उनकी भुजाएं अर्गला के समान एवं
शब्द देव दुन्दुभि के समान कहा जाता है ।। सत् की असत् से उपमाः-विद्यमान वस्तु की अविद्यमान वस्तु
से उपमा दी जाती है । जैसे:-विद्यमान नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव की आयु पन्योपम और सागरोपम परिमाण
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
को विद्यमान योजन परिमाण कूप के बालाग्रादि से उपमा दी जाती है ।
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असत् की सत् से उपमा:- अविद्यमान वस्तु की विद्यमान से उपमा दी जाती है । जैसे: वसन्त के समय में जीर्णप्रायः, पका हुआ, शाखा से चलित, काल प्राप्त, गिरते हुए पत्र की किसलय (नवीन उत्पन्न पत्र ) के प्रति उक्ति:
" जैसे तुम हो वैसे हम भी थे और तुम भी हमारे जेसे हो जा" इत्यादि ।
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उपरोक्त वार्तालाप किसलय और जीर्णपत्र के बीच में न कभी हुआ और न होगा । भव्य जीवों को सांसारिक समृद्धि से निर्वेद हो । इस आशय से इस वार्तालाप की कल्पना की गई है ।
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" जैसे तुम हो वेसे हम भी थे" इस वाक्य में किसलय पत्र की वर्तमान अवस्था की उपमा दी गई है। किसलय उपमान है जो कि विद्यमान है । और पाण्डु पत्र की अतीत किसलय अवस्था उपमेय है । जो कि अभी विद्यमान है । इस प्रकार यहाँ असत् की सत् से उपमा दी गई है । " तुम भी हमारी तरह हो जाओगे" इस वाक्य में भी पाण्डु पत्र की वर्तमान अवस्था से किसलय पत्र की भविष्य कालीन स्था की उपमा दी गई है । पाण्डुपत्र उपमान है जो कि विद्यमान है । किसलय की भविष्यकालीन पाण्डु अवस्था उपमेय है । जो कि अभी मौजूद नहीं है । इस प्रकार यहाँ पर भी असत् की सत् से उपमा दी गई है ।
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१६३
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रस असत् की असत् से उपमा: अविद्यमान वस्तु की अविद्यमान से
उपमा दी जाती है। जैसे:-यह कहना कि गधे का सींग शश (खरगोश) के सींग जैसा है । यहाँ उपमान गधे का सींग और उपमेय शश का सींग दोनों ही असत् हैं।
(अनुयोगद्वार पृष्ठ २३१-२३२
आगमोदय समिति) २०४-चार मूल सूत्र
(१) उत्तराध्ययन सूत्र (२) दशवैकालिक सूत्र ।
(३) नन्दी सूत्र (४) अनुयोग द्वार सूत्र । (१) उत्तराध्ययन-इस सूत्र में विनयश्रुत आदि ३६ उत्तर
अर्थात् प्रधान अध्ययन हैं । इसलिए यह सूत्र उत्तराध्ययन कहलाता है । अथवा आचाराङ्ग सूत्र के बाद में यह सूत्र पढ़ाया जाता है । इसलिए यह उत्तराध्ययन कहलाता है । यह सूत्र अङ्गबाह्य कालिक श्रुत है । इस सूत्र के ३६ अध्ययन
निम्न लिखित हैं:(१) विनयश्रुतः-विनीत के लक्षण, अविनीत के लक्षण और
उसका परिणाम, साधक का कठिन कर्तव्य, गुरुधर्म, शिष्यशिक्षा, चलते, उठते, बैठते तथा भिक्षा लेने के लिए जाते
हुए साधु का आचरण । (२) परिषहः-भिन्न भिन्न परिस्थितियों में भिन्न भिन्न प्रकार
के आये हुए आकस्मिक संकटों के समय भिक्षु किस प्रकार सहिष्णु एवं शान्त बना रहे आदि बातों का स्पष्ट उल्लेख ।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(३) चतुरङ्गीयः - मनुष्यत्व, धर्मश्रवण, श्रद्धा, संयम में पुरुषार्थ करना इन चार आत्म विकास के अङ्गों का क्रमपूर्वक निर्देश, संसार चक्र में फिरने का कारण, धर्म कौन पाल सकता है ? शुभ कर्मों का सुन्दर परिणाम ।
(४) असंस्कृत: - जीवन की चंचलता, दुष्ट कर्म का दुःखद परिगाम, कर्मों के करने वाले को ही उनके फल भोगने पड़ते हैं । प्रलोभनों में जागृति, स्वच्छन्द वृत्ति को रोकने में ही मुक्ति है।
(५) काम मरणीय :
अज्ञानी का ध्येय शून्य मरण, क्रूरकर्मी का विलाप, भोगों की आसक्ति का दुष्परिणाम, दोनों प्रकार के रोगों की उत्पत्ति, मृत्यु के समय दुराचारी की स्थिति, गृहस्थ साधक की योग्यता । सच्चे संयम का प्रतिपादन, सदाचारी की गति देवगति के सुखों का वर्णन, संयमी का सफल मरण । (६) चुल्लक निर्ग्रन्थ :
धन, स्त्री, पुत्र, परिवार आदि सब कर्मों से पीड़ित मनुष्य को शरणभूत नहीं होते । बाह्य परिग्रह का त्याग, जगत् सर्व प्राणियों पर मैत्री भाव, आचारशून्य वागवदग्ध्य एवं विद्वत्ता व्यर्थ है । संयमी की परिमितता ।
(७) एलक:
→
भोगी की बकरे के साथ तुलना, अधम गति में जाने वाले जीव के विशिष्ट लक्षण, लेश मात्र भूल का
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
१६५ अति दुःखद परिणाम, मनुष्य जीवन का कर्तव्य,काम भोगों
की चंचलता। (E) कापिलिक:
कपिल मुनि के पूर्व जन्म का वृत्तान्त, शुभ भावना के अंकुर के कारण पतन में से विकास, भिक्षुकों के लिए इनका सदुपदेश, सूक्ष्म अहिंसा का सुन्दर प्रतिपादन, जिन विद्याओं से मुनि का पतन हो उनका त्याग, लोभ
का परिणाम, तृष्णा का हूबहू चित्र, स्त्री संग का त्याग । (8) नमि प्रव्रज्याः
निमित्त मिलने से नमि राजा का अभिनिष्क्रमण, नमि राजा के निष्क्रमण से मिथिला नगरी में हाहाकार,नमि राजा के साथ इन्द्र का तात्विक प्रश्नोत्तर और उनका सुन्दर
समाधान । (१०) द्रुमपत्रक:
वृक्ष के पके हुए पत्र से मनुष्य जीवन की तुलना, जीवन की उत्क्रान्ति का क्रम, मनुष्य जीवन की दुर्लभता, भिन्न २ स्थानों में भिन्न २ आयु स्थिति का परिमाण, गौतम स्वामी को उद्देश कर भगवान् महावीर स्वामी का अप्रमत्त रहने का उपदेश, गौतम स्वामी पर उसका
प्रभाव, और उनको निर्वाण की प्राप्ति होना । (११) बहुश्रुतपूज्य:
ज्ञानी एवं अज्ञानी के लक्षण, सच्चे ज्ञानी की मनोदशा, ज्ञान का सुन्दर परिणाम, ज्ञानी की सर्वोच्च उपमा ।
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१६६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (१२) हरिकेशीयः
जातिवाद का खण्डन, जाति मद का दुष्परिणाम, तपस्वी की त्याग दशा, शुद्ध तपश्चर्या का दिव्य प्रभाव, सच्चो
शुद्धि किस में है ? (१३) चित्त संभूतीयः
संस्कृति एवं जीवन का सम्बन्ध, प्रेम का आकर्षण, चित्त
और संभूति इन दोनों भाईयों का पूर्व इतिहास, छोटी सी वासना के लिए भोग, पुनर्जन्म क्यों ? प्रलोभन के प्रवल निमित्त मिलने पर भी त्यागी की दशा, चित्त और संभूति का परस्पर मिलना, चित्त मुनि का उपदेश, संभूति का न मानना, निदान (नियाणा) का दुष्परिणाम,
सम्भूति का घोर दुर्गति में जाकर पड़ना। (१४) इषुकारीयः
ऋणानुबन्ध किसे कहते हैं । छः साथी जीवों का पूर्ण वृत्तान्त और इषुकार नगर में उनका पुनः इकट्ठा होना, संस्कार की स्फूर्ति, परम्परागत मान्यताओं का जीवन पर प्रभाव, गृहस्थाश्रम किस लिए ? सच्चे वैराग्य की कसौटी,
आत्मा की नित्यता का मार्मिक वर्णन । अन्त में पुरोहित के दो पुत्र, पुरोहित एवं उसकी पत्नी, इषुकार राजा और रानी इन छः ही जीवों का एक दूसरे के निमित्त से संसार
त्याग और मुक्ति प्राप्ति । (१५) स भिक्खुः
आदर्श भिक्षु कैसा हो ? इसका स्पष्ट तथा हृदयस्पर्शी वर्णन
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (१६) ब्रह्मचर्य समाधि के स्थान:
मन, वचन, काया से शुद्ध ब्रह्मचर्य किस तरह पाला जा सकता है ? उसके लिए १० हितकारी वचन । ब्रह्मचर्य की क्या आवश्यकता है ? ब्रह्मचर्य पालन का फल आदि
का विस्तृत वर्णन। (१७) पाप श्रमणीयः
पापी श्रमण किसे कहते हैं ? श्रमण जीवन को दूषित करने वाले सूक्ष्मातिसूक्ष्म दोषों का भी चिकित्सापूर्ण
वर्णन । (१८) संयतीयः
कम्पिला नगरी के राजा संयति का शिकार के लिए उद्यान में जाना, मृन पर बाण चलाना, एक छोटे से मौज मजा में पश्चात्ताप का होना, गर्दभाली मुनि के उपदेश का प्रभाव, संयति राजा का गृह त्याग, संयति तथा क्षत्रिय मुनि का समागम, जैन शासन की उत्तमता किरा में है ? शुद्ध अन्तःकरण से पूर्व-जन्म का स्मरण होना, चक्रवर्ती की अनुपम विभूति के धारक अनेक महापुरुषों का आत्मसिद्धि के लिए त्याग मार्ग का अनुसरण कर आत्म
कल्याण करना । उन सब की नामावली । (१६) मृगापुत्रीयः
सुग्रीव नगर के बलभद्र राजा के तरुण युवराज मृगापुत्र को एक मुनि के देखने से भोग विलासों से वैराग्यभाव का पैदा होना, पुत्र का कर्तव्य, माता पिता का वात्सल्य भाव, दीक्षा
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला लेने के लिए आज्ञा प्राप्त करते समय उनकी तात्त्विक चर्चा, पूर्व जन्मों में नीच गतियों में भोगे हुए दुःखों की वेदना का वर्णन, आदर्श त्याग, संयम स्वीकार कर सिद्ध गति को प्राप्त
करना। (२०) महा निर्ग्रन्थीयः
श्रेणिक महाराज और अनाथी मुनि का आश्चर्यकारक संयोग,अशरण भावना, अनाथता और सनाथता का विस्तृत वर्णन,कर्म का कर्ता तथा भोक्ता आत्मा ही है । इसकी प्रतीति, आत्मा ही अपना शत्रु और आत्मा ही अपना मित्र
है। सन्त के समागम से मगधपति को पैदा हुआ आनन्द । (२१) समुद्र पालीयः--
चम्पा नगरी में रहने वाले, भगवान् महावीर के शिष्य पालित श्रावक का चरित्र, उसके पुत्र समुद्रपाल को एक चोर की दशा देखते ही उत्पन्न हुआ वैराग्यभाव, उनकी अडिग
तपश्चर्या, त्याग का वर्णन । (२२) रथनेमीय:--
भगवान् अरिष्टनेमि का पूर्व जीवन, तरुण वय में ही योग संस्कार की जागृति, विवाह के लिए जाते हुए मार्ग में एक छोटा सा निमित्त मिलना । यानि दीन एवं मृक पशु पक्षियों से भरे हुए बाड़े को देख कर तथा ये बरातियों के भोजनार्थ मारे जावेंगे ऐसा सारथि से जान कर उन पर करुणा कर, उन्हें बन्धन से मुक्त करवाना, पश्चात् वैराग्य भाव का उत्पन्न होना संयम स्वीकार करना, स्त्रीरत्न राजमती का अभिनिष्क्रमण,
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श्री जैन सिद्धान्न बोल संग्रह
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रथनेमि तथा राजमती का एकान्त में आकस्मिक मिलन, रथनेमि का कामातुर होना, राजमती की अडिगता, राजमती के उपदेश से संयम से विचलित रथनेमि का पुनः संयम में स्थिर होना, स्त्रीशक्ति का ज्वलन्त दृष्टान्त । (२३) केशी गौतमीयः --
श्रावस्ती नमरी में महा मुनि केशी श्रमण से ज्ञानी मुनि गौतम स्वामी का मिलना, गम्भीर प्रश्नोत्तर, समय धर्म की महत्ता, प्रश्नोत्तरों से सब का समाधान और केशी श्रमण का भगवान् महावीर द्वारा ग्ररूपित आचार का ग्रहण | (२४) समितियें:
आठ प्रवचन माताओं का वर्णन, सावधानी एवं संयम का सम्पूर्ण वर्णन, कैसे चलना, बोलना, भिक्षा प्राप्त करना, व्यवस्था रखना, मन, वचन और काय संयम की रक्षा आदि विस्तृत वर्णन
(२५) यज्ञीयः --
याजक कौन है ? यज्ञ कौन सा ठीक है ? अनि कैसी होनी चाहिए ? ब्राह्मण किसे कहते हैं ? वेद का असली रहस्य, सच्चा यज्ञ, जातिवाद का पूर्ण खण्डन, कर्मवाद का मण्डन श्रमण, मुनि, तपस्वी किसे कहते हैं ? संसार रूपी रोग की सच्ची चिकित्सा, सच्चे उपदेश का प्रभाव ।
(२६) समाचारी:
साधक भिक्षु की दिनचर्या, उसके दस भेदों का वर्णन, दिवस का समय विभाग, समय धर्म को पहिचान कर काम
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श्री सेठिया जैन मन्थमाला
करने की शिक्षा, सावधानता रखने पर विशेष जोर, घड़ी विना दिवस तथा रात्रि जानने की समयपद्धति ।
(२७) खलुङ्कीय:
are गर्गाचार्य का साधक जीवन. गलियार बैलों के साथ शिष्यों की तुलना, स्वछन्दता का दुष्परिणाम. शिष्यों की आवश्यकता कहाँ तक है ? गर्गाचार्य का अपने सब शिष्यों को निरासक्त भाव से छोड़ कर एकान्त आत्म-कल्याण
करना ।
(२८) मोक्षमार्ग गतिः -
मोक्षमार्ग के साधनों का स्पष्ट वर्णन, संसार के समस्त तत्त्वों के सात्त्विक लक्षण, आत्म विकाम का मार्ग सरलता से कैसे मिल सकता है ?
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(२६) सम्यक्त्व पराक्रमः -
जिज्ञामा की सामान्य भूमिका से लेकर अन्तिम साध्य (मोक्ष) प्राप्ति तक होने वाली समस्त भूमिकाओं का मार्मिक एवं सुन्दर वर्णन, उत्तम ७३ बोलो की पृच्छा, उनके गुण और लाभ | (३०) तपोमार्ग:
कर्मरूपी ईंधन को जलाने वाली अग्नि कौन सी है ? तपश्चर्या का वैदिक, वैज्ञानिक, तथा आध्यात्मिक इन तीन दृष्टियों से निरीक्षण, तपश्चर्या के भिन्न २ प्रकार के प्रयोगों का वर्णन । और उनका शारीरिक तथा मानसिक
प्रभाव ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (३१) चरण विधिः
यह संसार पाठ सीखने की शाला है । प्रत्येक वस्तु में कुछ ग्रहण करने योग्य, कुछ त्यागने योग्य, और कुछ उपेक्षणीय गुण हुआ करते हैं । उनमें से यहाँ एक से लेकर तेतीस संख्या तक की वस्तुओं का वर्णन किया गया है।
उपयोग यही धर्म है। (३२) प्रमाद स्थान:
प्रमाद स्थानों का चिकित्सा पूर्ण वर्णन, व्याप्त दुःख से छूटने का एक मार्ग, तृष्णा, मोह और क्रोध का जन्म कहाँ से ? राग तथा द्वेष का मूल क्या है ? मन तथा
इन्द्रियों के असंयम के दुष्परिणाम, मुमुक्षु की कार्य दिशा । (३३) कर्म प्रकृति:
जन्म मरण के दुःखों का मूल कारण क्या है ? आठ कर्मों के नाम, भेद, उपभेद, तथा उनकी भिन्न भिन्न स्थिति एवं
परिणाम का संक्षिप्त वर्णन। (३४) लेश्या:
सूक्ष्म शरीर के भाव अथवा शुभाशुभ कर्मों के परिणाम, छः लेश्याओं के नाम, रंग, रस, गन्ध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति, जघन्य उत्कृष्ट स्थिति आदि का विस्तृत वर्णन । किन किन दोषों एवं गुणों से असुन्दर एवं सुन्दर भाव पैदा होते हैं । स्थूल क्रिया से सूक्ष्म मन का सम्बन्ध, कलुषित अथवा अप्रसन्न मन का आत्मा पर
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला क्या असर पड़ता है ? मृत्यु से पहले जीवन कार्य के फल
का विचार । (३५) अणगागध्ययन:
गृह-मंमार का मोह, मंयमी की जवाबदारी, त्याग की मावधानता. प्रलोभन तथा दोष के निमित्त मिलने पर समभाव कोन रख सकता है ? निगमक्ति की वास्तविकता,
शरीर ममत्व का त्याग । (३६) जीवाजीव विभक्तिः
सम्पूर्ण लोक के पदार्थों का विस्तृत वर्णन, मुक्ति की योग्यता, मंमार का इतिहास, शुद्ध चैतन्य की स्थिति, संसारी जीवों की भिन्न भिन्न गतियों में क्या दशा होती है ? एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तथा पश्चेन्द्रिय जीवों के भेद प्रभेदों का विस्तृत वर्णन, जड़ पदार्थों का वर्णन, सब की पृथक् पृथक स्थिति, जीवात्मा पर अात्मा का क्या असर पड़ता है ? फल हीन तथा सफल मृत्यु की साधना की कलुपित तथा सुन्दर भावना का वर्णन ।
इन सब बातों का वर्णन कर भगवान महावीर स्वामी
का मोक्ष गमन । (२) दशवकालिक सूत्रः
शयंभव स्वामी ने अपने पुत्र मनक शिष्य की केवल ६ माम आयु शेष जान कर विकाल अर्थात् दोपहर से लगा कर थोड़ा दिन शेष रहने तक चौदह पूर्व तथा अङ्ग शास्त्रों से दस अध्ययन निकाले । इम लिए यह सूत्र दशवकालिक
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ओ जैन सिद्धान्त बोल संग्रह कहा जाता है । आत्म प्रवाद पूर्व में से “छजीवणीय · · अध्ययन, कर्म प्रवाद में से पिण्डैपणा, सत्य प्रवाद में से
वाक्यशुद्धि, और प्रथम, द्वितीय आदि अध्ययन नववें प्रत्याख्यान पूर्व की तीसरी वस्तु से उद्धृत किये गये हैं। इस सूत्र में दस अध्ययन और दो चूलिकायें हैं ।
अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं :--.. (१) द्रुमपुष्पिका:- .. . "
___धर्म की वास्तविक व्याख्या, सामाजिक, राष्ट्रीय । तथा आध्यात्मिक दृष्टियों से, उमकी, उपयोगिता और ..उसका फल, भिक्षु तथा भ्रमर जीवन की तुलना, भिक्षु , · की भिक्षा वृत्ति मामाजिक जीवन पर भार रूप न होने का । कारण , ,
.
"
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(२) श्रामण्य पूर्वक:-
___ वामना एवं विकल्पों के आधीन हो कर क्या स,माधुता की आराधना हो सकती है ?.आदर्श त्यागी कौन ? आत्मा. में,बीज रूप में छिपी हुई वासनाओं से जब चित्त, चंचल हो उठे तब उसे रोकने के सरल एवं सफल उपाय, स्थनेमि और राजीमती का मार्मिक प्रसङ्ग रथनेमि की उद्दीप्त काम वासना, किन्तु राजीमती की निश्चलता, प्रबल प्रलोभनों में से रथनेमि का उद्धार, स्त्री शक्ति का ज्वलन्त उदाहरण ।
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
(३) नुल्लकाचार:
भिक्षु के संयमी जीवन को सुरक्षित रखने के लिए महर्षियों द्वारा प्ररूपित चिकित्सा पूर्ण ५२ निषेधात्मक नियमों का निदर्शन, अपने कारण किमी जीव को थोड़ा सा भी कष्ट न पहुँचे उस वृत्ति से जीवन निर्वाह करना । पाहार शुद्धि, अपरिग्रह बुद्धि, शरीर सत्कार का त्याग, गृहस्थ के साथ अति परिचय बढ़ाने का निषेध, अनुप
योगी वस्तुओं तथा क्रियाओं का त्याग । (४) पड़ जीवनिका :गध विभागः-श्रमण जीवन की भूमिका में प्रवेश करने वाले
साधक की योग्यता कैमी और कितनी होनी चाहिए ? श्रमण जीवन की प्रतिज्ञा के कठिन व्रतों का सम्पूर्ण वर्णन, उन्हें प्रसन्नता पूर्वक पालने के लिए जागृत वीर
साधक की प्रबल अभिलाषा । पच विभागः काम करने पर भी पापकर्म का बन्ध न होने के
सरल मार्ग का निर्देश, अहिंसा एवं संयम में विवेक की आवश्यकता, ज्ञान से लेकर मुक्त होने तक की समस्त भूमिकाओं का क्रम पूर्वक विस्तृत वर्णन, कौन सा साधक दुर्गति अथवा सुगति को प्राप्त होता है । साधक के
आवश्यक गुण कौन कौन से हैं ? (५) पिण्डैषणा :प्रथम उद्देशक:-मिक्षा की व्याख्या, भिक्षा का अधिकारी कौन ?
मिक्षा की गवेषणा करने की विधि, किस मार्ग से किस
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
१७५ तरह गमनागमन किया जाय ? चलने, बोलन आदि क्रियाओं में कितना सावधान रहना चाहिए ? कहाँ से मिक्षा प्राप्त की जाय और किस प्रकार प्राप्त की जाय ? गृहस्थ के यहाँ जाकर किस तरह से खड़ा होना चाहिए ? निर्दोष मिक्षा किसे कहते हैं ? कैसे दाता से भिक्षा लेनी चाहिए ! भोजन किस तरह करना चाहिए ? प्राप्त भोजन में किस तरह सन्तुष्ट रहा जाय? इत्यादि बातों
का स्पष्ट वर्णन है। द्वितीय उद्देशक:
भिक्षा के समय ही भिक्षा के लिए जाना चाहिए । थोड़ी मी भी भिक्षा का असंग्रह । किमी भी भेदभाव के विना शुद्ध आचरण एवं नियम वाले घरों से भिक्षा लेना, ग्म वृनि का
त्याग। (६) धर्मार्थ कामाध्ययन:
मोक्षमार्ग का साधन क्या है ? श्रमण जीवन के लिए आवश्यक १८ नियमों का मार्मिक वर्णन, अहिंसा पालन किस लिए ? सत्य तथा असत्य व्रत की उपयोगिता कमी
और कितनी है ? मैथुन वृत्ति से कौन कौन से दोष पैदा होते हैं ? ब्रह्मचर्य की आवश्यकता । परिग्रह की मार्मिक व्याख्या, रात्रि भोजन किस लिए वर्ण्य है ? सूक्ष्म जीवों की दया किस जीवन में कितनी शक्य है ? भिक्षुओं के लिए कौन कौन से पदार्थ अकल्प्य हैं ? शरीर-सत्कार का त्याग क्यों करना चाहिए ?
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१७६
श्री सठिया जैन ग्रन्थमाला' (७) वाक्य शुद्धिः
वचन शुद्धि की आवश्यकता, वाणी क्या चीज है ? वाणी के अतिव्यय से हानि, भाषा के व्यवहारिक प्रकार, उनमें से कौन कौन सी भाषाएं वर्ण्य हैं और किस लिये ? कैसी सत्य वाणी बोलनी चाहिए ? किसी का दिल न दुःखे
और व्यवहार भी चलता रहे तथा संयमी जीवन में बाधक
न हो ऐमी विवेक पूर्ण वाणी का उपयोग। (८) आचरण प्रणिधिः
सद् गुणों की सच्ची लगन किसे लगती है ? सदाचार मार्ग की कठिनता, साधक भिन्न २ कठिनताओं को किस प्रकार पार करे ? क्रोधादि आत्मरिपुत्रों को किस प्रकार जीता जाय ? मानसिक, वाचिक, तथा कायिक ब्रह्मचर्य की रक्षा । अभिमान कैसे दूर किया जाय ? ज्ञान का मदुपयोग । माधु को आदरणीय एवं त्याज्य क्रियाएं, माधु जीवन
की समस्याएं और उनका निराकरण ।' P. (8) विनय समाधिः- ।
' प्रथम उद्देशक-विनय की व्यापक व्याख्या, गुरुकुल में गुरुदेव
के प्रति श्रमण साधक सदा भक्ति भाव रखे । अविनीत साधक अपना पतन स्वयमेव किस तरह करता है ? गुरु को वय अथवा ज्ञान में छोटा जान कर उनी अविनय करने का भंयकर परिणाम । ज्ञानी साधक के लिये भी गुरुभक्ति की आवश्यकता, गुरुभक्त शिष्य का विकास विनीत साधक के विशिष्ट लक्षण ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल मंग्रह
१७७ द्वितीय उद्देशकः वृक्ष के विकास के समान आध्यात्मिक मार्ग के
विकास की तुलना, धर्म से लेकर उसके अन्तिम परिणाम तक का दिग्दर्शन, विनय तथा अविनय के परिणाम ।
विनय के शत्रुओं का मार्मिक वर्णन। तृतीय उद्देशक:-पूज्यता की आवश्यकता है क्या ? आदर्श
पूज्यता कौन सी है ? पूज्यता के लिये आवश्यक गुण । विनीत साधक अपने मन, वचन और काया का कैसा उप
योग करे ? चतुर्थ उद्देशकः-समाधि की व्याख्या, और उसके चार माधन,
आदर्श ज्ञान, आदर्श विनय, आदर्श नप और आदर्श ग्राचार की आराधना किम प्रकार की जाय ? उनकी माधना में
आवश्यक जागृति । (१०) भिक्षु नामः
मचा त्याग भाव कब पैदा होता है ? कनक तथा कामिनी के त्यागी माधक की जवाबदारी, यति जीवन पालने की प्रतिज्ञाओं पर दृढ़ केसे रहा जाय ? त्याग का सम्बन्ध बाह्य वेश से नहीं किन्तु अात्म विकास के माथ है । आदर्श भिक्षु
की क्रियाएं। (११) रति वाक्य (प्रथम चूलिका ):
गृहस्थ जीवन की अपेक्षा साधु जीवन क्यों महत्वपूर्ण है ? भिक्षु परम पूज्य होने पर भी शासन के नियमों को पालने के लिये बाध्य है । वासना में संस्कारों का जीवन पर असर, संयम से चलित चित रूपी घोड़े को रोकने के
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला अठारह उपाय, संयमी जीवन से पतित साधु की भयंकर परिस्थिति । उनकी भिन्न २ जीवों के साथ तुलना, पतित साधु का पश्चात्ताप, संयमी के दुःख की क्षण भारता और
भ्रष्ट जीवन की भयंकरता, मन स्वच्छ रखने का उपदेश । (१२) विविक्त चर्या (द्वितीय चूलिका ):
एकान्त चर्या की व्याख्या, संमार के प्रवाह में बहने हुए जीवों की दशा, इस प्रवाह के विरुद्ध जाने का अधिकारी कौन है ? आदर्श एक चर्या, तथा स्वच्छन्दी एक चर्या की तुलना, आदर्श एक चर्या के आवश्यक गुण तथा नियम । एकान्त चर्या का रहस्य और उमकी योग्यता का
अधिकार, मोन फल की प्राप्ति । (१) नन्दी मूत्रः__ नन्दी शब्द का अर्थ मंगल या हर्ष है । हप, प्रमोद और मंगल का कारण होने से और पांच ज्ञान का स्वरूप बताने वाला होने से यह सूत्र नन्दी कहा जाता है । इम सूत्र के कर्ता देव-वाचक क्षमा श्रमण कहे जाते हैं । इम सूत्र का एक ही अध्ययन है। इसके प्रारम्भ में स्थविरावली कही गई है। इसके बाद श्रोताओं के दृष्टान्त दिए गए हैं। बाद में पांच ज्ञान का स्वरूप प्रतिपादन किया गया है । टीका में
औत्पातिकी आदि चारों बुद्धियों की रोचक कथाएं दी गई हैं। द्वादशाङ्ग की हुण्डी और कालिक, उत्कालिक शास्त्रों के नाम भी इसमें दिए गए हैं। यह सूत्र उत्कालिक है ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (२) अनुयोगद्वार :-अणु अर्थात् संक्षिप्त सूत्र को महान् अर्थ
के साथ जोड़ना अनुयोग है। अथवा अध्ययन के अर्थव्याख्यान की विधि को अनुयोग कहते हैं। जिस प्रकार द्वार, नगर-प्रवेश का साधन है । द्वार न होने से नगर में प्रवेश नहीं हो सकता । एक दो द्वार होने से नगर दुःख से प्रवेश योग्य होता है। परन्तु चार द्वार एवं उपद्वार वाले नगर में प्रवेश सुगम है । उसी प्रकार शास्त्र रूपी नगर में प्रवेश करने के भी चार द्वार (साधन) हैं । इन द्वारों एवं उपद्वारों से शास्त्र के जटिल अर्थ में सुगमता के साथ गति हो सकती है । इस सूत्र में शास्त्रार्थ के व्याख्यान की विधि के उपायों का दिग्दर्शन है। इसी लिये इसका नाम अनुयोगद्वार दिया गया है । यों तो मभी शास्त्रों का अनुयोग होता है। परन्तु यहाँ आवश्यक के आधार से अनुयोग द्वार का वर्णन है । इसमें अनुयोग के मुख्य चार द्वार बताये गये हैं:(१) उपक्रम (२) निक्षेप (३) अनुगम (४) नय ।
नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र,काल और भाव के भेद से तथा आनुपूर्वी नाम प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार और समवतार के भेद से उपक्रम के छः भेद हैं। आनुपूर्वी के दस भेद बताये गये हैं । इसी प्रकार नाम के भी एक दो यावत् दस नाम इस प्रकार दस भेद हैं । इन नामों में एक दो आदि भेदों का वर्णन करते हुए स्त्री,पुरुष,नपुंसक लिङ्ग,आगम,लोप,प्रकृति, विकार, छः भाव, सात स्वर, आठ विभक्ति, नव रस आदि
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१८८०
श्री सेठिया जैन मन्थमाला
का वर्णन है । प्रमाण वर्णन के प्रसंग में व्याकरण के
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तद्धित, समास आदि का वर्णन दिया गया । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव प्रमाण के भेदों का स्वरूप बताते हुए, धान्य का मान, हाथ दण्ड, धनुष आदि का नाप, गुंजा, काकणी, माशे यादि का तोल, अंगुल, नारकादि की अवगाहना, समय, आवलिका, पन्योपम, मागरोपम यादि नरकादि की स्थिति, द्रव्य एवं शरीर का वर्णन, बद्ध, मुक्त,
दारिक, वैक्रिक आदि का अधिकार, प्रत्यक्ष अनुमान, आगम, उपमान प्रमाण, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, गुण प्रमाण, नय प्रमाण, संख्या प्रमाण आदि अनेक विषयों का वर्णन है । इसमें संख्या असंख्य और अनन्त संख्याओं का अधिकार भी है। आगे वक्तव्यता, अर्थाविकार और समवतार का वर्णन दिया गया है । बाद में अनुयोग के शेष द्वार, निक्षेप, अनुगम, और नयों का वर्णन है । यह सूत्र उत्कालिक है ।
२०५ -- छेद सूत्र चार:
( २ ) वृहत्कल्प सूत्र |
(१) दशाश्रुत कंध (३) निशीथ सूत्र ( ४ ) व्यवहार सूत्र | (१) दशाश्रुत स्कंध :-- इस सूत्र का विषय यों तो अन्य सूत्रों में प्रतिपादित है । फिर भी शिष्यों की मुगमता के लिए प्रत्याख्यान पूर्व से उद्धृत कर दस अध्ययन रूप इस सूत्र की रचना की गई है। इसके रचयिता भद्र बाहु स्वामी हैं । ऐसा टीकाओं से ज्ञात होता है । इस सूत्र के दम
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१८१
श्री जैन मिद्यान्न योल संग्रह अध्ययन होने से इसका नाम दशाश्रग स्कन्ध है । पहली दशा में असमाधि के स्थानों का वर्णन है । दूसरी दशा में इक्कीस शबल दोष दिये गये हैं । तीमरी दशा में तेतीस अशातनाएं प्रतिपादित हैं । चीथी दशा में आचार्य की आठ सम्पदाओं का वर्णन है। और आचार, श्रुत, विक्षेपणा एवं दोप निर्घातन रूप चार विनय तथा चार विनय प्रतिपत्ति का कथन है। पांचवीं दशा में दम चित्त ममाधि आदि का वर्णन है । छठी दशा में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं और सातवीं दशा में माधु की बारह प्रतिमायें तथा प्रतिमाधागे माधु के कर्तव्याकर्तव्य वर्णित हैं । आठवीं दशा में पंच कल्याण का वर्णन दिया गया है। नवमी दशा में तीस महा मोहनीय कर्म के बोल और उनके त्याग का उपदेश है । दशवी दशा में नव निदान (नियाणा) का सविस्तर वणन एवं निदान न करने का
उपदेश है । यह कालिक मूत्र है। (२) बृहत्कल्प सूत्र-कल्प शब्द का अर्थ मर्यादा है । माधु धर्म
की मर्यादा का प्रतिपादक होने से यह बृहत्कल्प के नाम से कहा जाता है । पाप का विनाशक, उत्मर्ग अपवाद रूप मार्गों का दर्शक, माधु के विविध प्राचार का प्ररूपक, इत्यादि अनेक बातों को बतलाने वाला होने से इसे वृहत्कल्प कहा जाता है। इसमें आहार, उपकरण क्रियाक्लेश, गृहस्थों के यहाँ जाना, दीक्षा, प्रायश्चित्त, परिहार विशुद्धि चारित्र, दूसरे गच्छ में जाना, विहार, वाचना
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१८२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला स्थानक, सहाय देना और समझाना, इत्यादि विषयक
साध्वाचार का कथन है। यह कालिक सूत्र है। (३) निशीथ सूत्र-निशीथ शब्द का अर्थ है प्रच्छन्न अर्थात्
छिपा हुआ । इस शास्त्र में सब को न बताने योग्य बातों का वर्णन है । इसलिए इस सूत्र का नाम निशीथ है। अथवा जिस प्रकार निशीथ अर्थात् कतक वृक्ष के फल को पानी में डालने से मैल नीचे बैठ जाता है। उमी प्रकार इस शास्त्र के अध्ययन से भी आठ प्रकार के कर्म रूप पंक का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम हो जाता है । इस लिए इसे निशीथ कहते हैं। यह सूत्र नववें प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु के बीसवें प्राभृत से उद्धृत किया गया है। इस सूत्र में बीस उद्देशे हैं । पहले उद्देशे में गुरु मासिक प्रायश्चित्त, दूसरे से पांचवें उद्देशे तक लघुमासिक प्रायश्चित्त, छठे से ग्यारहवें उद्देशे तक गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त, बारहवें से उन्नीसवें उद्देशे तक लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का वर्णन है । बीसवें उद्देशे में प्रायश्चित्त की विधि बतलाई गई है। यह
कालिक सूत्र है। (४) व्यवहार सूत्रः-जिसे जो प्रायश्चित्त आता है। उसे वह प्राय
श्चित देना व्यवहार है। इस सूत्र में प्रायश्चित्त का वर्णन है। इस लिए इस सूत्र को व्यवहार सूत्र कहते हैं। इस सूत्र में दस उद्देशे हैं। पहले उद्देशे में निष्कपट और सकपट आलोचना का प्रायश्चित्त, प्रायश्चित्त के भांगे एकल विहारी साधु, शिथिल होकर वापिस गच्छ में आने वाले, गृहस्थ होकर पुनः
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श्रीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह
१८३
साधु बनने वाले, परमत का परिचय करने वाले, आलोचना सुनने के अधिकारी, इत्यादि विषयों का वर्णन है। दूसरे उद्देशे में दो या अधिक समान समाचारी वाले दोषी साधुओं की शुद्धि, सदोषी, रोगी, आदि की वैयावृत्य, अनवस्थितादि का पुनः संयमारोपण, अभ्याख्यान चढ़ाने वाले, गच्छ को त्याग कर फिर गच्छ में आने वाले, एक पाक्षिक साधु और माधुओं का परस्पर संभोग इत्यादि विषयक वर्णन है । तीसरे उद्देशे में गच्छाधिपति होने वाले साधु, पदवी धारक
आचार, थोड़े काल के दीक्षित की पदवी, युवा साधु को आचार्य, उपाध्याय आदि से अलग रहने का निषेध, गच्छ में रह कर तथा छोड़ कर अनाचार सेवन करने वाले को सामान्य साधु एवं पदवीधारी को पद देने बावत काल मर्यादा के साथ विधि निषेध, मृषावादी को पद देने का निषेध आदि का वर्णन है ।
चौथे उद्देशे में आचार्य आदि पदवी धारक का परिवार एवं ग्रामानुग्राम विचरते हुए उन का परिवार, आचार्य आदि की मृत्यु पर आचार्य आदि स्थापन कर रहना, न रहने पर दोष, युवाचार्यकी स्थापना, भोगावली कर्म उपशमाने, बड़ी दीक्षा देना, ज्ञानादि के निमित अन्य गच्छ में जाना, स्थविर की आज्ञा बिना विचरने का निषेध, गुरु को कैसे रहना, दो साधुओं के समान होकर रहने का निषेध, आदि बातों का वर्णन है । पांचवे उद्देशे में साध्वी का आचार, सूत्र भूलने पर भी स्थविर को पद की योग्यता, माधु साध्वी के १२ सम्भोग, प्रायश्चित्त
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१८४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाता देने के योग्य प्राचार्य प्रादि एवं साधु-पाधी के परस्पर वैयावृत्य आदि बातों का वर्णन है । छठे उद्देशे में सम्बन्धियों के यहाँ जाने की विधि, आचार्य उपाध्याय के अतिशय, पठिन अपठित साधु सम्बन्धी, खुले एवं ढके स्थानक में रहने की विधि, मथुन की इच्छा का प्रायश्चित्त, अन्य गच्छ से आये हुए माधु साी इत्यादि विषयक वर्णन है ।
सातवें उद्देशे में मंभोगी साधु माधी का पारम्परिक आचार, किस अवस्था में किस माधु को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष में विसंभोगी करना, माधु का माध्वी को दीक्षा देना, साधु साध्वी की आचार भिन्नता, रक्तादि के अस्वाध्याय, साधु साध्वी को पदवी देने का काल, एकाएक साधु साध्वी की मृत्यु होने पर साधर्मिक माधुयों का कर्तव्य, साधु के रहने के स्थान को बेचने या भाड़े देने पर शय्यातर सम्बन्धी विवेक, राजा का परिवर्तन होने पर नवीन राज्याधिकारियों से आज्ञा मांगना आदि बातों का वर्णन है ।
आठवें उद्देशे में चौमास के लिए शय्या, पाट, पाटलादि मांगने की विधि, स्थविर की उपाधि, प्रतिहारी पाट पाटले लेने की विधि, भूले उपकरण ग्रहण करने एवं अन्य के लिए उपकरण मांगने की विधि का वर्णन है । नव- उद्देशे में शय्यातर के पाहुँने आदि का आहारादि ग्रहण तथा साधु की प्रतिमाओं की विधि का वर्णन है । दसवें उद्देशे में यवमध्य एवं वनमध्य प्रतिमाओं की विधि, पांच व्यवहार, विविध चौमङ्गिय, बालक को दीक्षा देने की विधि, दीक्षा लेने के
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श्री जैन मिद्वान धोल संग्रह
१२५ बाद का सूत्र पढ़ाना, दम प्रकार की चयापच्च से महानिर्जग एवं प्रायश्चित्त का स्पष्टीकरण इत्यादि विषयों का वर्णन है ।
यह सूत्र कालिक है। २०६-चाचना के चार पात्रः
(१) विनीत । (२) क्षीरादि विगयों में आसक्ति न रखने वाला । (३) क्रोध को शान्त करने वाला। (४) अमायी माया-कपट न करने वाला।
ये चार व्यक्ति वाचना के पात्र हैं। २०७-चाचना के चार अपात्र :
(१) अविनीत । (२) विगयों में आसक्ति रखने वाला। (३) अशान्त (क्रोधी)। (४) मायावी (छल करने वाला)।
ये चार व्यक्ति वाचना के अयोग्य हैं । २०८-अनुयोग के चार द्वार :
(१) उपक्रम । (२) निक्षेप ।
(३) अनुगम। (४) नय । (१) उपक्रमः-दूर रही हुई वस्तु को विभिन्न प्रतिपादन प्रकारों से
समीप लाना और उसे निक्षेप योग्य करना उपक्रम कहलाता है। अथवा प्रतिपाद्य वस्तु को निक्षेप योग्य करने वाले गुरु के वचनों को उपक्रम हकते हैं।
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला (२) निक्षेपः--प्रतिपाद्य वस्तु का स्वरूप समझाने के लिए नाम,
स्थापना आदि भेदों से स्थापन करना निक्षेप है। । (३) अनुगम:--सूत्र के अनुकूल अर्थ का कथन अनुगम
कहलाता है । अथवा सूत्र का व्याख्यान करने वाला वचन
अनुगम कहलाता है। (४) नय-अनन्त धर्म वाली वस्तु के अनन्त धर्मों में मे इतर
धर्मों में उपेक्षा रखते हुए विवक्षित धर्म रूप एकांश को ग्रहण करने वाला ज्ञान नय कहलाता है।
निक्षेप की योग्यता को प्राप्त वस्तु का निक्षेप किया जाता है। इस लिए निक्षेप की योग्यता कराने वाला उपक्रम प्रथम दिया गया है। और उसके बाद निक्षेप । नामादि भेदों से व्यवस्थापित पदार्थों का ही व्याख्यान होता है। इस लिए निक्षेप के बाद अनुगम दिया गया है । व्याख्यात वन्तु ही नयों से विचारी जाती है, इसलिए अनुगम के पश्चात् नय दिया गया है। इस प्रकार अनुयोग व्याख्यान का क्रम होने से प्रस्तुत चारों द्वारों का उपरोक्त क्रम दिया गया है।
(अनुयोग द्वार सूत्र ५६) २०६:-निक्षेप चारः
यावन् मात्र पदार्थों के जितने निक्षेप हो सके उतने ही करने चाहिए। यदि विशेष निक्षेप करने की शक्ति न हो तो चार निक्षेप तो अवश्य ही करने चाहिये । ये
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श्री जैन सिद्धानं बोल मंग्रह
१८७ चार भेद नीचे दिये जाते हैं:(१) नाम निक्षेप (२) स्थापना निक्षेप ।
(३) द्रव्य निक्षेप (४) भाव निक्षेप । नाम निक्षेपः-लोक व्यवहार चलाने के लिए किसी दूसरे
गुणादि निमित्त की अपेक्षा न रख कर किसी पदार्थ की कोई मंज्ञा रखना नाम निक्षेप है । जैसे किसी बालक का नाम महावीर रखना । यहाँ बालक में वीरता आदि गुणों का ख्याल किए बिना ही 'महावीर' शब्द का संकेत किया गया है। कई नाम गुण के अनुसार भी होते हैं। परन्तु
नाम निक्षेप गुण की अपेक्षा नहीं करता। स्थापना निक्षेपः-प्रतिपाद्य वस्तु के सदृश अथवा विसदृश प्राकार
वाली वस्तु में प्रतिपाद्य वस्तु की स्थापना करना स्थापना निक्षेप कहलाता है। जैसे जम्बू द्वीप के चित्र को जम्बू द्वीप कहना या शतरंज के मोहरों को हाथी, घोड़ा, वजोर आदि कहना।
किसी पदार्थ की भूत और भविष्यत् कालीन पर्याय के नाम का वर्तमान काल में व्यवहार करना द्रव्य निक्षेप है। जैसे राजा के मृतक शरीर में “ यह राजा है" इस प्रकार भूत-कालीन राजा पर्याय का व्यवहार करना, अथवा भविष्य में राजा होने वाले युवराज को राजा कहना ।
___ कोई शास्त्रादि का ज्ञाता जब उस शास्त्र के उपयोग से शून्य होता है। तब उसका ज्ञान द्रव्य ज्ञान कहलायेगा।
" अनुपयोगो द्रव्यमिति वचनात् "
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला अर्थात् उपयोग न होना द्रव्य है । जैसे सामायिक का ज्ञाता जिस समय सामायिक के उपयोग से शून्य है। उम समय उसका सामायिक ज्ञान द्रव्य सामायिक ज्ञान
कहलायेगा। भाव निक्षपः-पर्याय के अनुसार वस्तु में शब्द का प्रयोग करना
भाव निक्षेप है । जैसे राज्य करने हुए मनुष्य को राजा कहना । सामायिक के उपयोग वाले को मामायिक का ज्ञाता कहना।
(अनुयोगद्वार सूत्र निक्षेपाधिकार)
(न्यायप्रदीप) २१०-वस्तु के स्व पर चतुष्टय के चार भेदः(१) द्रव्य (२) क्षेत्र (३) काल (४) भाव ।
जैन दर्शन अनेकान्त दर्शन है। इसके अनुसार वस्तु में अनेक धर्म रहते हैं । एवं अपेवा भेद से परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मों का भी एक ही वस्तु में सामञ्जस्य होता है। जैसे अस्तित्व और नास्तित्व । ये दोनों धर्म यों तो परस्पर विरुद्ध हैं । परन्तु अपेक्षा भेद से एक ही वस्तु में सिद्ध हैं। जैसे घट पदार्थ स्व चतुष्टय की अपेक्षा अस्ति धर्म वाला है। और पर चतुष्टय की अपेक्षा नास्ति धर्म वाला है। स्व चतुष्टय से वस्तु के निजी द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भाव लिए जाते हैं । और पर चतुष्टय से परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव लिये जाते हैं।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की सामान्य व्याख्या सोदाहरण
निम्न प्रकार है। द्रव्यः-गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं जैसे जड़ता आदि
घट के गुणों के समूह रूप से घट है । परन्तु चैतन्य आदि जीव के गुणों के समूह रूप से वह नहीं है । इस प्रकार घट स्व द्रव्य की अपेक्षा से अस्ति धर्म वाला है । एवं पर
द्रव्य (जीव द्रव्य) की अपेक्षा वह नास्ति धर्म वाला है। क्षेत्रः--निश्चय से द्रव्य के प्रदेशों को क्षेत्र कहते हैं । जैसे
घट के प्रदेश घट का क्षेत्र हैं और जीव के प्रदेश जीव का क्षेत्र हैं । घट अपने प्रदेशों में रहता है। इस लिए वह स्व क्षेत्र की अपेक्षा सत एवं जीव प्रदेशों में न रहने से जीव के क्षेत्र की अपेक्षा से असत् है। व्यवहार में वस्तु के आधार भूत आकाश प्रदेशों को जिन्हें वह अवगाहती है, क्षेत्र कहते हैं। जैसे व्यवहार दृष्टि से क्षेत्र की अपेक्षा घट अपने क्षेत्र में रहता है । पर क्षेत्र की अपेक्षा जीव के
क्षेत्र में वह नहीं रहता है। कालः-वस्तु के परिणमन को काल कहते हैं । जैसे घट स्वकाल
से वसन्त ऋतु का है और शिशिर ऋतु का नहीं है । भावः-चस्तु के गुण या स्वभाव को भाव कहते हैं। जैसे घट
स्वभाव की अपेक्षा से जलधारण स्वभाव वाला है। किन्तु वस्त्र की तरह आवरण स्वभाव वाला नहीं है । अथवा घटत्व की अपेक्षा सद् रूप और पटत्व की अपेक्षा असद् रूप है।
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
इस प्रकार प्रत्येक वस्तु स्व चतुष्टय की अपेक्षा मद्रूप एवं पर चतुष्टय की अपेक्षा अमद् रूप है ।
( न्यायप्रदीप अध्याय ७ ) परिच्छेद ४ सूत्र १५ की टीका )
(रत्नाकरावतारिका
(२) धर्म कथानुयोग | (४) द्रव्यानुयोग ।
२११ - अनुयोग के चार भेद:(१) चरण करणानुयोग (२) गणितानुयोग चग्ण करणानुयोगः—व्रत, श्रमण धर्म, संयम, वैयावृत्य, गुप्ति, क्रोधनिग्रह आदि चरण हैं । पिण्ड विशुद्धि, समिति, पडिमा आदि करण हैं । चरण करण का वर्णन करने वाले आचाराङ्गादि शास्त्रों को चरण करणानुयोग कहते हैं । धर्म कथानुयोगः - धर्म कथा का वर्णन करने वाले ज्ञाताधर्मकथाङ्ग, उत्तराध्ययन आदि शास्त्र धर्म कथानुयोग हैं । गणितानुयोग :- सूर्यप्रज्ञप्ति यदि गणित प्रधान शास्त्र गणिता
योग कहलाते हैं |
द्रव्यानुयोगः - द्रव्य, पर्याय आदि का व्याख्यान करने वाले दृष्टिवाद आदि द्रव्यानुयोग हैं।
( दशवेकालिक सूत्र सटीक पृष्ठ 3 नियुक्ति गाथा ३ ) २१२ -- काव्य के चार भेद:
(१) गद्य (२) पद्य (३) कथ्य (४) गेय । गद्यः -- जो काव्य छन्द बद्ध न हो वह गद्य काव्य है । पद्यः -- छन्द बद्ध काव्य पद्य है ।
कथ्यः
-कथा प्रधान काव्य कथ्य 1
गेयः -- गायन के योग्य काव्य को गेय कहते हैं ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह कथ्य और गेय काव्य का गद्य और पद्य में ममावेश हो जाने पर भी कथा और गान धर्म की प्रधानत्ता होने से ये अलग गिनाए गए हैं।
(ठाणांग ४ सूत्र ३७६) २१३-चार शुभ और चार अशुभ गणः--
तीन अक्षर के समूह को गण कहते हैं । आदि मध्य और अन्त अक्षरों के गुरु लघु के विचार से गणों के घाट
नीचे लिखे सूत्र से आठ गण मरलता से याद किए जा मकते हैं।
“य मा ता रा ज भा न म ल ग म्" य (यगण) मा (मगण) ता (तगण) रा (रगण) ज (जगण) भा (भगण) न (नगण)
म (सगण) ये आठ गण हैं। 'ल' लघु के लिए और 'ग' गुरु के लिए है।
जिस गण को जानना हो, ऊपर के सूत्र में गण के अक्षर के माथ आगे के दो और अक्षर मिलाने से वह गण बन जायगा । जैसे यगण पहचानने के लिए 'य' के आगे के दो अक्षर और मिलाने से यमाता हुआ । इसमें 'य' लघु है, 'मा' और 'ता' गुरु हैं। अर्थात् आदि अक्षर के लघु और शेष दो अक्षरों के गुरु होने से यगण (Iss) होता है।
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श्री सेठिया जैन पन्थमाला यदि नगण जानना हो, तो न के आगे के दो अक्षर “स ल" मिलाने से “नसल" हुआ अर्थात् जिसमें तीनों अक्षर लघु हों, वह नगण जानना चाहिए।
संक्षेप में यों कह सकते हैं कि भगण में आदि गुरु जगण में मध्य गुरु और सगण में अन्त गुरु और शेष अक्षर लघु होते हैं । ( 5 ) यह निशान गुरु का है और (1) यह निशान लघु का है । जैसे--
भगण ॥ यथा:-भारत जगणा यथा:-बगत सगण ॥ यथा:-भरती
यगण में आदि लघु, रगण में मध्य लघु और तगण में अन्त लघु और शेष अक्षर गुरु होते हैं:यगण
यथाः चराती ग्गण ऽ यथा:-भारती तगण । यथा:-मायालु
मगण में तीनों अक्षर गुरु और नगण में नीनों अक्षर लघु होते हैं। जैसे:--
मगण ऽऽऽ यथाः-जामाता नगण ॥ यथाः -भरत
मंक्षेप में इन आठ गणों का लक्षण इस प्रकार बतलाया गया है। यथा:आदिमध्यावसानेषु, भजसा यान्ति गौरवम् । यरता लाघवं यान्ति, मनौ तु गुरुलाघवम् ॥१॥
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अर्थात्ः -- भगण, जगण और सगण, आदि मध्य और अव सान (अन्त) में गुरु होते हैं । और यगण, रगण और तगण आदि मध्य अवसान में लघु होते हैं । मगरण सर्वगुरु और नगर सर्व लघु होता है ।
पिङ्गल शास्त्र के अनुसार इन आठ गणों में यगण मगण, भगण और नगण ये शुभ और जगण, रगण, सगण और तगण ये अशुभ माने गये हैं । ( सरल पिङ्गल )
२१४--चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं:
विषय को प्राप्त करके अर्थात् विषय से सम्बद्ध हो कर उसे जानने वाली इन्द्रियां प्राप्यकारी कहलाती हैं । प्राप्यकारी इन्द्रियां चार हैं:
(१) श्रोत्रेन्द्रिय
(३) रसनेन्द्रिय
(२) घ्राणेन्द्रिय ।
(४) स्पर्शनेन्द्रिय ।
( ठारणांग ४ सूत्र ३३६ )
नोट- वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक और सांख्य दर्शन सभी इन्द्रियों को प्राप्यकारी मानते हैं । बौद्ध दर्शन में श्रत्र और चक्षु अप्राप्यकारी, और शेष तीन इन्द्रियों प्राप्यकारी मानी गई हैं । जैन दर्शन के अनुसार चतु प्रा प्यकारी और शेष चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं । (रत्नाकरावतारिका परिच्छेद २)
२१५: - ध्यान की व्याख्या और भेद:ध्यान:——एक लक्ष्य पर चित्त को एकाग्र करना ध्यान है। अथवा छद्मस्थों का अन्तर्मुहूर्त परिमाण एक वस्तु में चित्त
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को स्थिर रखना ध्यान कहलाता है । एक वस्तु से दूसरी वस्तु में ध्यान के संक्रमण होने पर ध्यान का प्रवाह चिर काल तक भी हो सकता है। जिन भगवान् का तो योगों का निरोध करना ध्यान कहलाता है। ध्यान के चार भेद हैं:--
(१) अर्नध्यान (२) रौद्रध्यान
(३) धर्म ध्यान ( ४ ) शुक्लध्यान ।
(१) ध्यान - ऋत अर्थात् दुःख के निमित्त या दुःख में होने ध्यान कहलाता है । अथवा अर्थात् ध्यान कहलाता है ।
वाला ध्यान दु:खी प्राणी का ध्यान
(ठाणांग ४ सूत्र २५७)
अथवा:
मनो वस्तु के वियोग एवं अमनोज्ञ वस्तु के संयोग यदि कारण से चित्त की घबराहट ध्यान है ।
( समवायांग सूत्र समवाय ४ ) अथवा:
जीव मोहवश राज्य का उपभोग, शयन, आसन, वाहन स्त्री, गंध, माला, मणि, रत्न विभूषणों में जो अतिशय इच्छा करता है वह ध्यान है 1
( दशकालिक सूत्र अध्ययन १ को टीका ) (२) रौद्रध्यान: - हिंसा, झूठ, चोरी, धन रक्षा में मन को जोड़ना रोद्रध्यान है । ( समवायांग सूत्र ४ समवाय )
अथवा:
हिंसादि विषय का अतिक्रूर परिणाम रौद्रध्यान है ।
( ठाणांग ४ सूत्र २४७ )
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अथवा:--
हिंसोन्मुख आत्मा द्वारा प्राणियों को रुलाने वाले व्यापार का चिन्तन करना रौद्रध्यान है।।
(प्रवचन सारोद्धार)
अथवाःछेदना, भेदना, काटना, मारना, वध करना, प्रहार करना, दमन करना, इनमें जो राग करता है और जिसमें अनुकम्पा भाव नहीं है । उस पुरुष का ध्यान रौद्रध्यान कहलाता है।
(दशवकालिक अध्ययन १ टीका) (३) धर्मध्यान:-धर्म अर्थात् आज्ञादि पदार्थ स्वरूप के पर्यालोचन में मन को एकाग्र करना धर्मध्यान है ।
_(समवयांग सूत्र समवाय ४)
अथवाःश्रुत और चारित्र धर्म से सहित ध्यान धर्मध्यान कहलाता है।
(ठाणांग ४ सूत्र २४७ ।
अथवाःसूत्रार्थ की साधना करना, महाव्रतों को धारण करना, वन्ध और मोक्ष तथा गति-आगति के हेतुओं का विचार करना, पञ्च इन्द्रियों के विषय से निवृत्ति और प्राणियों में दया भाव, इन में मन की एकाग्रता का होना धर्मध्यान है ।
(दशवकालिक अध्ययन १ टीका)
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अथवा:जिन भगवान् और साधु के गुणों का कथन करने वाला, उनकी प्रशंसा करने वाला, विनीत, श्रुतिशील और संयम में अनुरक्त आत्मा धर्मध्यानी है। उसका ध्यान धर्मध्यान कहलाता है।
(आवश्यक अध्ययन ४) शुक्ल ध्यानः-पूर्व विषयक श्रुत के आधार से मन की अत्यन्त स्थिरता और योग का निरोध शुक्लध्यान कहलाता है ।
__ (समवायांग सूत्र समवाय ४)
अथवाःजो ध्यान आठ प्रकार के कर्म मल को दूर करता है । अथवा जो शोक को नष्ट करता है वह ध्यान शुक्ल ध्यान है।
(ठाणांग ४ सूत्र २४७) पर अवलम्बन विना शुक्ल-निर्मल आत्मस्वरूप की तन्मयता पूर्वक चिन्तन करना शुक्लध्यान कहलाता है।
(आगमसार) अथवा:जिस ध्यान में विषयों का सम्बन्ध होने पर भी वैराग्य बल से चित्त बाहरी विषयों की ओर नहीं जाता । तथा शरीर का छेदन भेदन होने पर भी स्थिर हुआ चित्त ध्यान से लेश मात्र भी नहीं डिगता । उसे शुक्ल ध्यान कहते हैं।
(कर्त्तव्य कौमुदी दूसरा भाग श्लोक २११) २१६-आर्तध्यान के चार प्रकार:(१) अनमोज्ञ वियोग चिन्ताः-अमनोज्ञ शब्द, रूप, गंध, रस,
स्पर्श, विषय एवं उनकी साधनभूत वस्तुओं का संयोग
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१६७ होने पर उनके वियोग की चिन्ता करना तथा भविष्य में भी उनका संयोग न हो, ऐसी इच्छा रखना आर्त ध्यान का
प्रथम प्रकार है । इस आर्त ध्यान का कारण द्वेष है। (२) रोग चिन्ताः-शूल, सिर दर्द आदि रोग आतङ्क के होने पर
उनकी चिकित्सा में व्यग्र प्राणी का उनके वियोग के लिए चिन्तन करना तथा रोगादि के अभाव में भविष्य के लिए रोगादि के संयोग न होने की चिन्ता करना आर्त ध्यान का
दूसरा प्रकार है। संयोग चिन्ता मनोज्ञः-पांचों इन्द्रियों के विषय एवं उनके साधन
रूप, स्व, माता, पिता, भाई, स्वजन, स्त्र, पुत्र और धन, तथा साता वेदना के वियोग में, उनका वियोग न होने का अध्यवसाय करना तथा भविष्य में भी उनके संयोग की इच्छा करना आर्त ध्यान का तीसरा प्रकार है । राग इमका
मूल कारण है। (४) निदान (नियाणा)-देवेन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव के
रूप गुण और ऋद्धि को देख या सुन कर उनमें आसक्ति लाना और यह सोचना कि मैंने जो तप संयम आदि धर्म कृत्य किये हैं। उनके फल स्वरूप मुझे भी उक्त गुण एवं ऋद्धि प्राप्त हो। इस प्रकार अधम निदान की चिन्ता करना
आर्त ध्यान का चौथा प्रकार है । इस आर्त ध्यान का मूल कारण अज्ञान है । क्योंकि अज्ञानियों के सिवा औरों को सांसारिक सुखों में आसक्ति नहीं होती । ज्ञानी पुरुषों के चित्त में तो सदा मोक्ष की लगन बनी रहती है।
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श्रा सठिया जैन ग्रन्थमाला राग द्वेष और मोह से युक्त प्राणी का यह चार प्रकार का आर्त ध्यान मंमार को बढ़ाने वाला और सामान्यतः तिर्यञ्च गति में ले जाने वाला है।
(ठाणांग ४ सूत्र २४७)
(आवश्यक अध्ययन ४) २१७--आर्तध्यान के चार लिङ्गः
(१) आक्रन्दन (२) शोचन । (३) परिवेदना (४) नेपनता । ये चार आर्तध्यान के चिह्न हैं। ऊचे स्वर से रोना और चिल्लाना आक्रन्दन है । आंखों में आंसू लाकर दीनभाव धारण करना शोचन है।
बार बार क्लिष्ट भाषण करना, विलाप करना परिवेदना है। आंसू गिराना नेपनता है।
इष्ट वियोग, अनिष्ट मंयोग और वेदना के निमित से ये चार चिह्न प्रार्तध्यानी के होते हैं।
(आवश्यक अध्ययन ४) (ठारणांग ४ उद्देशा १ मूत्र २४७)
(भगवती शतक २५ उद्देशा ७) २१८--रौद्रध्यान के चार प्रकार:
(१) हिंसानुबन्धी (२) मृषानुबन्धी
(३) चौानुबन्धी (४) संरक्षणानुबन्धी हिंसानुबन्धीः-प्राणियों को चाबुक, लता आदि से मारना,कील
आदि से नाक वगैरह बींधना, रस्सी जंजीर आदि से बांधना, अग्नि में जलाना, डाम लगाना, तलवार आदि से
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प्राण वध करना अथवा उपरोक्त व्यापार न करते हुए भी क्रोध के वश होकर निर्दयता पूर्वक निरन्तर इन हिंसाकारी व्यापारों को करने का चिन्तन करना हिंमानुबन्धी रौद्र
ध्यान है। मृषानुबन्धी:--मायावी-दूमरों को ठगने की प्रवृत्ति करने वाले
तथा छिप कर पापाचरण करने वाले पुरुषों के अनिष्ट सूचक वचन, असभ्य वचन, अमत् अर्थ का प्रकाशन, मत् अर्थ का अपलाप, एवं एक के स्थान पर दूसरे पदार्थ आदि का कथन रूप अमत्य वचन, एवं प्राणियों के उपधात करने वाले वचन कहना या कहने का निरन्तर चिन्तन
कनग मृषानुवन्धी रौद्रध्यान है । चार्यानुबन्धीः-तीत्र क्रोध एवं लोभ से व्यग्र चिन वाले पुरुप
की प्राणियों के उपघातक, अनार्य काम जैसे-पर द्रव्य हरण आदि में निरन्तर चिन वृत्ति का होना चौर्यानुबन्धी रौद्र
ध्यान है। मंरक्षणानुबन्धी:-शब्दादि पांच विषय के साधन रूप धन की
रक्षा करने की चिन्तना करना, एवं न मालूम दुसरा क्या करेगा, इस आशंका से दृमरों का उपघात करने की कपायमयी चित वृत्ति रखना संरक्षणानुबन्धी गेंद्रध्यान है।
हिंसा, मृषा, चौर्य, एवं संरक्षण स्वयं करना दूसरों से कराना, एवं करते हुए की अनुमोदना (प्रशंसा) करना इन तीनों कारण विषयक चिन्तना करना रौद्रध्यान है। राग
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला द्वेष एवं मोह से आकुल जीव के यह चारों प्रकार का रौद्रध्यान होता है। यह ध्यान संसार बढ़ाने वाला एवं नरक गति में ले जाने वाला है ।
(ठाणांग ४ सूत्र २४७) २१६-रौद्रध्यान के चार लक्षण:
(१) अोमन्न दोष (२) बहुदोष, ( बहुलदोष ),
(३) अज्ञान दोष ( नानादोष ) (४) आमरणान्त दोष । (१) ओसन्न दोषः-रौद्रध्यानी हिंसादि से निवृत्त न होने से
बहुलता पूर्वक हिमादि में से किमी एक में प्रवृत्ति करता
है । यह अोमन्न दोष है। (२) बहुल दोषः-रौद्रध्यानी मभी हिंसादि दोषों में प्रवृत्ति करता
है । यह बहुल दोष है। (३) अज्ञान दोषः-अज्ञान से कुशास्त्र के संस्कार से नरकादि के
कारण अधर्म स्वरूप हिंसादि में धर्म बुद्धि से उन्नति के लिए प्रवृत्ति करना अज्ञान दोष है ।
अथवाःनानादोष-विविध हिंसादि के उपायों में अनेक बार प्रवृत्ति
करना नानादोष है। (४) आमरणान्त दोषः-मरण पर्यन्त क्रूर हिंसादि कार्यों में अनु
ताप (पछतावा) न होना, एवं हिंसादि में प्रवृत्ति करते रहना आमरणान्त दोष है । जैसे काल सौकरिक कसाई ।
(ठाणांग ४ सूत्र २४७) (भगवती शतक २५ उद्देशा७)
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२०१ कठोर एवं संक्लिष्ट परिणाम वाला रौद्रध्यानी दूसरे के दुःख से प्रसन्न होता है । ऐहिक एवं पारलौकिक भय से रहित होता है। उसके मन में अनुकम्पा भाव लेशमात्र भी नहीं होता । अकार्य करके भी इसे पश्चाताप नहीं होता । पाप करके भी वह प्रसन्न होता है।
(आवश्यक अध्ययन ४) २२० धर्मध्यान के चार प्रकार
(१) आज्ञा विचय । (२) अपाय विचय।
(३) विपाक विचय। (४) संस्थान विचय । (१) आज्ञा विचय-सूक्ष्म तत्वों के उपदर्शक होने से
अति निपुण, अनादि अनन्त, प्राणियों के वास्ते हितकारी, अनेकान्त का ज्ञान कराने वाली, अमूल्य, अपरिमित, जैनेतर प्रवचनों से अपराभूत, महान् अर्थवाली, महाप्रभाव शाली एवं महान् विषय वाली, निर्दोष, नयभंग एवं प्रमाण से गहन, अतएव अकुशल जनों के लिए दुर्जेय ऐसी जिनाज्ञा (जिन प्रवचन) को सत्य मान कर उस पर श्रद्धा करे एवं उसमें प्रतिपादित तत्त्वों का चिन्तन और मनन करे । वीतराग के प्रतिपादित तत्व के रहस्य को समझाने वाले, आचार्य महाराजा के न होने से, ज्ञेय की गहनता से अर्थात् ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से और मति दौर्बल्य से जिन प्रवचन प्रतिपादित तच्च सम्यग रूप से समझ में न आवे अथवा किसी विषय में हेतु उदाहरण के संभव न होने से वह बात समझ में न आवे तो यह विचार करे
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला कि ये वचन वीतराग, सर्वज्ञ भगवान् श्री जिनेश्वर द्वारा कथित हैं। इसलिए सर्व प्रकारेण सत्य ही है। इसमें सन्देह नहीं। अनुपकारी जन के उपकार में तत्पर रहने वाले,जगत में प्रधान, त्रिलोक एवं त्रिकाल के ज्ञाता, राग द्वेष और मोह के विजेता श्री जिनेश्वर देव के वचन सत्य ही होते हैं क्योंकि उनके असत्य कथन का कोई कारण ही नहीं है। इस तरह भगवद् भाषित प्रवचन का चिंतन तथा मनन करना एवं गूढ़ तत्त्वों के विषयों में सन्देह न रखते हुए उन्हें दृढ़ता पूर्वक सत्य समझना और वीतराग के वचनों में मन को एकाग्र करना
आज्ञाविचय नामक धर्मध्यान है।। (२) अपाय विचय-राग द्वेष, कषाय, मिथ्यात्व, अविरति
आदि आश्रय एवं क्रियाओं से होने वाले ऐहिक पारलौकिक कुफल और हानियों का विचार करना । जैसे कि महाव्याधि से पीड़ित पुरुष को अपथ्य अन्न की इच्छा जिस प्रकार हानिप्रद है। उसी प्रकार प्राप्त हुआ राग भी जीव के लिए दुःखदायी होता है।
प्राप्त हुआ द्वेष भी प्राणी को उसी प्रकार तपा देता है। जैसे कोटर में रही हुई अग्नि वृक्ष को शीघ्र ही जला डालती है।
सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग देव ने दृष्टि राग आदि भेदों वाले राग का फल परलोक में दीर्घ संसार बतलाया है ।
द्वेषरूपी अग्नि से संतप्त जीव इस लोक में भी दुःखित रहता है । और परलोक में भी वह पापी नरकाग्नि में जलता है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रस वश में न किये हुए क्रोध और मान एवं बढ़ते हुए माया और लोम-ये यारों कषाय संसार रूपी वृक्ष के मूल का सिंचन करने वाले हैं । अर्थात् संसार को बढ़ाने वाले हैं।
प्रशम आदि गुणों से शून्य एवं मिथ्यात्व से मूढ़ मतिवाला पापी जीव इस लोक में ही नरक सदृश दुःखों को पाता है।
क्रोध आदि सभी दोषों की अपेक्षा अज्ञान अधिक दुःखदायी है, क्योंकि अज्ञान से आच्छादित जीव अपने हिताहित को भी नहीं पहिचानता।
प्राणिवध से निवृत्त न होने से जोव यहीं पर अनेक दूषणों का शिकार होता है । उसके परिणाम इतने क र हो जाते हैं कि वह लोक निन्दित स्वपुत्र वध जैसे जघन्य कृत्य भी कर बैठता है।
इसी प्रकार आश्रव से अर्जित पापकर्मों से जीव चिरकाल तक नरकादि नीच गतियों में भ्रमण करता हुआ अनेक अपायों (दुःखों) का भाजन होता है । __ कायिकी आदि क्रियाओं में वर्तमान जीव इस लोक एवं परलोक में दुःखी होते हैं। ये क्रियाएं संसार बढ़ाने वाली कही गई हैं। ___ इस प्रकार राग द्वेष कषाय आदि के अपायों के चिंतन करने में मन को एकाग्र करना अपाय विचय धर्मध्यान है।
इन दोषों से होने वाले कुफल का चिन्तन करने वाला
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला जीव इन दोषों से अपनी आत्मा की रक्षा करने में सात्रधान रहता है एवं इससे दूर रहता हुआ आत्म कल्याण का साधन करता है। (३) विपाक विचय-शुद्ध आत्मा का स्वरूप ज्ञान दर्शन
सुख आदि रूप है । फिर भी कर्मवश उसके निज गुण दबे हुए हैं । एवं वह सांसारिक सुख दुःख के द्वन्द में रही हुई चार गतियों में भ्रमण कर रही है । संपति, विपति, संयोग, वियोग आदि से होने वाले मुख दुःख जीव के पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्म के ही फल हैं । आत्मा ही अपने कृत कर्मों से सुख दुःख पाता है । स्वोपार्जित कर्मों के सिवा और कोई भी आत्मा को सुख दुःख देने वाला नहीं है । आत्मा की भिन्न २ अवस्थाओं में कर्मों के भिन्न २ फल हैं । इस प्रकार कपाय एवं योग जनित शुभाशुभ कर्म प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध, प्रदेश बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता इत्यादि कर्म विषयक चिन्तन में मन को एकाग्र करना विपाक विचय धर्मध्यान है। (४) संस्थान विचय-धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य एवं उनकी पर्याय, जीव अजीव के आकार, उत्पाद, व्यय, धौव्य, लोक का स्वरूप, पृथ्वी, द्वीप, सागर, नरक विमान, भवन आदि के आकार,लोक स्थिति, जीव की गति
आगति, जीवन मरण आदि सभी सिद्धान्त के अर्थ का चिन्तन करे । तथा जीव एवं उसके कर्म से पैदा किए हुए
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श्री जैन सिद्धान्त बाल संग्रह
जन्म जरा एवं मरण रूपी जल से परिपूर्ण क्रोधादि कषाय रूप पाताल वाले, विविध दुःख रूपी नक्र मकर से भरे हुए, अज्ञान रूपी वायु से उठने वाली, संयोग वियोग रूप लहरों सहित इस अनादि अनन्त संसार सागर का चिन्तन करे । इस संसार सागर को तिराने में समर्थ, सम्यग्दर्शन रूपी मजबूत बन्धनों वाली, ज्ञान रूपी नाविक से चलाई जाने वाली चारित्र रूपी नौका है । संवर से निश्छिद्र, तप रूपी पवन से वेग को प्राप्त, वैराग्य मार्ग पर रही हुई, एवं
ध्यान रूपी तरंगों से न डिगने वाली बहुमूल्य शील रत्न से परिपूर्ण नौका पर चढ़ कर मुनि रूपी व्यापारी शीघ्र ही विना चिह्नों के निर्वाण रूपी नगर को पहुँच जाते हैं। वहाँ पर वे अक्षय, अव्याबाध, स्वाभाविक, निरुपम सुख पाते हैं। इत्यादि रूप से सम्पूर्ण जीवादि पदार्थों के विस्तार वाले, सब नय समूह रूप सिद्धान्तोक्त अर्थ के चिन्तन में मन को एकाग्र करना संस्थान विचय धर्मध्यान है ।
( ठाणांग ४ सूत्र २४७ ) ( आवश्यक अध्ययन ४ ) ( अभिधान राजेन्द्र कोष भाग ४ (पृष्ठ १६६६ से ६८ )
(२) निसर्ग रुचि
२२१ – धर्मध्यान के चार लिङ्ग:(१) आज्ञा रुचि । (३) सूत्ररुचि । (४) अवगादरुचि ( उपदेश रुचि) (१) आज्ञा रुचि: सूत्र में प्रतिपादित अर्थों पर रुचि धारण करना आज्ञा रुचि है ।
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२०६ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (२) निसर्ग रुचिः-स्वभाव से ही विना किसी उपदेश के जिन
भाषित तत्त्वों पर श्रद्धा करना निसर्ग रुचि है।। (३) सूत्र रुचिः--सूत्र अर्थात् आगम द्वारा वीतराग प्ररूपित
द्रव्यादि पदार्थों पर श्रद्धा करना सूत्र रुचि है। (४) अवगाढ़ रुचि ( उपदेश रुचि ):-द्वादशाङ्ग का विस्तार
पूर्वक ज्ञान करके जो जिन प्रणीत भावों पर श्रद्धा होती है वह अवगाड़ रुचि है । अथवा साधु के समीप रहने वाले को साधु के सूत्रानुसारी उपदेश से जो श्रद्धा होती है। वह अवगाढ़ रूचि (उपदेश रुचि) है।
___ तात्पर्य यह है कि तत्वार्थ श्रद्धान सम्यक्त्व ही धर्म ध्यान का लिङ्ग है।
जिनेश्वर देव एवं साधु मुनिराज के गुणों का कथन करना,भक्तिपूर्वक उनकी प्रशंसा और स्तुति करना,गुरु आदि का विनय करना,दान देना,श्रुत शील एवं संयम में अनुराग रखना ये धर्मध्यान के चिह्न हैं। इनसे धर्मध्यानी पहचाना
जाता है।
(ठाणांग ४ सूत्र २४७) (अभिधान राजेन्द्र कोष भाग ४ पृष्ठ १६६३) २२२--धर्मध्यान रूपी प्रासाद (महल) पर चढ़ने के चार
आलम्बनः-- (१) वाचना। (२) पृच्छना।
(३) परिवर्तना। (४) अनुप्रेक्षा । (१) वाचना-निर्जरा के लिए शिष्य को सूत्र आदि पढ़ाना
वाचना है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (२) पृच्छना--सूत्र आदि में शङ्का होने पर उसका निवारण
करने के लिए गुरु महाराज से पूछना पृच्छना है। (३) परिवर्तना-पहले पढ़े हुए सूत्रादि भूल न जाएं इस लिए
तथा निर्जरा के लिए उनकी आवृत्ति करना, अभ्यास करना
परिवर्तना है। अनुप्रेक्षा--सूत्र अर्थ का चिन्तन एवं मनन करना अनुप्रेक्षा है।
(ठाणांग ४ सूत्र २४७) २२३-धर्मध्यान की चार भावनाएं:
(:) एकत्व भावना । (२) अनित्यत्व भावना ।
(३) अशरण भावना। (४) संसार भावना । (१) एकत्व भावना-" इस संसार में मैं अकेला हूँ, मेरा कोई
नहीं है और न मैं ही किसी का हूँ"। ऐसा भी कोई व्यक्ति नहीं दिखाई देता जो भविष्य में मेरा होने वाला हो अथवा मैं जिस का बन सकूँ" । इत्यादि रूप से आत्मा के एकत्व अर्थात् असहायपन की भावना करना एकत्व
भावना है। (२) अनित्य भावना-"शरीर अनेक विघ्न बाधाओं एवं रोगों
का स्थान है । सम्पत्ति विपत्ति का स्थान है । संयोग के साथ वियोग है। उत्पन्न होने वाला प्रत्येक पदार्थ नश्वर है । इस प्रकार शरीर, जीवन तथा संसार के सभी पदार्थों
के अनित्य स्वरूप पर विचार करना अनित्यत्व भावना है। (३) अशरण भावना-जन्म, जरा, मृत्यु के भय से पीड़ित,
व्याधि एवं वेदना से व्यथित इस संसार में आत्मा का
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला त्राण रूप कोई नहीं है। यदि कोई आत्मा का त्राण करने चाला है तो जिनेन्द्र भगवान् का प्रवचन ही एक त्राण शरण रूप है । इस प्रकार आत्मा के त्राण शरण के अभाव
की चिन्ता करना अशरण भावना है। (४) संसार भावना-इस संसार में माता बन कर वही जीव,
पुत्री, बहिन एवं स्त्री बन जाता है और पुत्र का जीव पिता, भाई यहाँ तक कि शत्रु बन जाता है । इस प्रकार चार गति में, सभी अवस्थाओं में संसार के विचित्रता पूर्ण स्वरूप का विचार करना संसार भावना है।
(ठाणांग ४ सूत्र २४७) २२४--धर्मध्यान के चार भेद--
(१) पिण्डस्थ (२) पदस्थ ।
(३) रूपस्थ, (४) रूपातीत । (१) पिण्डस्थ--पार्थिवी, आग्नेयी, आदि पांच धारणाओं का
एकाग्रता से चिन्तन करना पिण्डस्थ ध्यान है । (२) पदस्थ-नाभि में सोलह पांखड़ी के, हृदय में चौबीस
पांखड़ी के तथा मुख पर आठ पांखड़ी के कमल की कल्पना करना और प्रत्येक पांखड़ी पर वर्णमाला के अ आ इ ई
आदि अक्षरों की अथवा पञ्च परमेष्ठि मंत्र के अक्षरों की स्थापना करके एकाग्रता पूर्वक उनका चिन्तन करना अर्थात् किसी पद के आश्रित होकर मन को एकाग्र करना पदस्थ
ध्यान है।
(३) रूपस्थ--शास्त्रोक्त अरिहन्त भगवान् की शान्त दशा को
हृदय में स्थापित करके स्थिर चित्त से उसका ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (४) रूपातीत--रूप रहित निरंजन निर्मल सिद्ध भगवान् का
आलंबन लेकर उसके साथ आत्मा की एकता का चिन्तन करना रूपातीत ध्यान है।
(ज्ञानार्णव)
(योगशास्त्र) (कतन्य कौमुदी भाग २
श्लोक २०८, २०६ पृष्ठ १२७-२८) (१)-शुक्ल ध्यान के चार भेद
(१) पृथकत्व वितर्क मविचारी। (२) एकत्व वितर्क अविचारी। (३) सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती।
(४) ममुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती। (२) पृथकन्य वितर्क मविचारी-एक द्रव्य विषयक अनेक पर्यायों
का पृथक पृथक रूप से विस्तार पूर्वक पूर्वगत श्रुत के अनुसार द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक आदि नयों से चिन्तन करना पृथकत्व वितर्क सविचारी है । यह ध्यान विचार सहित होता है । विचार का स्वरूप है अर्थ, व्यञ्जन (शब्द) एवं योगों में संक्रमण । अर्थात् इस ध्यान में अर्थ से शब्द में, और शब्द से अर्थ में, और शब्द से शब्द में, अर्थ से अर्थ में एवं एक योग से दूसरे योग में संक्रमण होता है ।
पूर्वगत श्रुत के अनुसार विविध नयों से पदार्थों की पर्यायों का भिन्न भिन्न रूप से चिन्तन रूप यह शुक्ल ध्यान पूर्वधारी को होता है। और मरुदेवी माता की तरह जो पूर्वधर नहीं है, उन्हें अर्थ,व्यञ्जन एवं योगों में परम्पर संक्रमण रूप यह शुक्लध्यान होता है।
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२१०
(२) एकत्व वितर्क विचारी - पूर्वगत श्रुत का आधार लेकर उत्पाद आदि पर्यायों के एकत्व अर्थात् अभेद से किसी एक पदार्थ अथवा पर्याय का स्थिर चित्त से चिन्तन करना एकत्व वितर्क है । इस ध्यान में अर्थ, व्यञ्जन एवं योगों का संक्रमण नहीं होता । निर्वात गृह में रहे हुए दीपक की तरह इस ध्यान में चित्त विक्षेप रहित अर्थात् स्थिर रहता है । (३) सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती - निर्वाण गमन के पूर्व केवली भगवान् मन, वचन, योगों का विरोध कर लेते हैं और अर्द्ध काययोग का भी निरोध कर लेते हैं । उस समय केवली के कायिकी उच्छवास आदि सूक्ष्म क्रिया ही रहती है । परिणामों के के विशेष बड़े चढ़े रहने से यहाँ से केवली पीछे नहीं हटते। यह तीसरा सूक्ष्म क्रिया अनिर्वती शुक्लध्यान है ।
(४) समुच्छिन्न क्रिया प्रतिपाती - शैलेशी यवस्था को प्राप्त केवली सभी योगों का निरोध कर लेना है । योगों के निरोध से सभी क्रियाएं नष्ट हो जाती हैं । यह ध्यान सदा बना रहता है । इस लिए इसे ममुन्नि क्रिया अप्रतिपाती शुक्लध्यान कहते हैं ।
पृथकत्व वितर्क विचारी शुक्लध्यान सभी योगों में होता है । एक वितर्क विचार शुक्लध्यान किसी एक ही योग में होता है । सूक्ष्म क्रिया अनिर्वती शुक्लध्यान केवल काय योग में होता है । चौथा समुच्छिन्न क्रिया प्रतिपाती शुक्लध्यान अयोगी को ही होता है । छद्मस्थ
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२११ के मन को निश्चल करना ध्यान कहलाता है और केवली की काया को निश्चल करना ध्यान कहलाता है।
(आवश्यक अध्ययन ४) (कर्त्तव्य कौमुदी भाग २ शोक २११-२१६)
(ठाणांग ४ मृत्र २४१)
(नानागाव) २२६ शुक्लध्यान के चार लिङ्ग--
(१) अव्यथ । (२) अमम्मोह।
(३) विवेक । (३) व्युत्मगं । (१) शुक्लध्यानी परिपह उपमर्गों से डर कर ध्यान से चलित
नहीं होता । इसलिए वह लिङ्ग वाला है। (३) शुक्लध्यानी को सूक्ष्म अत्यन्त गहन विषयों में अथवा
देवादि कृत माया में मम्मोह नहीं होता । इस लिए वह
असम्मोह लिङ्ग वाला है। (३) शुक्लध्यानी आत्मा को देह से भिन्न एवं मव मंयोगों को
आत्मा से भिन्न समझता है । इस लिए वह विवेक लिङ्ग
वाला है। (३) शुक्लध्यानी निःमंग रूप से देह एवं उपधि का त्याग करता है। इस लिए वह व्युत्सर्ग लिङ्ग वाला है।
(आवश्यक अध्ययन ४)
(ठाणांग ४ सूत्र २४७) २२७-शुक्ल ध्यान के चार आलम्बनः
जिन मत में प्रधान क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति इन चारों आलम्बनों से जीव शुक्ल ध्यान पर चढ़ता है ।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
क्रोध न करना, उदय में श्राये हुए क्रोध को दबाना इस प्रकार क्रोध का त्याग क्षमा है ।
मान न करना, उदय में आये हुए मान को विफल करना, इस प्रकार मान का त्याग मार्दव है ।
माया न करना:- उदय में आई हुई माया को विफल करना, रोकना । इस प्रकार माया का त्याग - ग्रार्जव (सरलता) है
लोभ न करना:- उदय में आये हुए लोभ को विफल करना ( रोकना) । इस प्रकार लोभ का त्याग - मुक्ति (शौच निर्लोभता) है।
( ठाणांग ४ सूत्र २४७ ) (आवश्यक अध्ययन ४ ) ( उवचाई सूत्र ३० )
२२८ - शुक्ल ध्यानी की चार भावनाएं:(१) अनन्त वर्तितानुप्रेक्षा (३) शुभानुप्रेक्षा
(२) विपरिणामानुप्रेक्षा । (४) पायानुप्रेक्षा ।
(१) अनन्त वर्तितानुप्रेक्षा::-भव परम्परा की अनन्तता की भावना करना -- जैसे यह जीव अनादि काल से संसार में चक्कर लगा रहा है। समुद्र की तरह इस संसार के पार पहुंचना, उसे दुष्कर हो रहा है । और वह नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव भवों में लगातार एक के बाद दूसरे में विना विश्राम के परिभ्रमण कर रहा है । इस प्रकार की भावना अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा है ।
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श्री जैन सिद्धान बोल संग्रह २१३ (२) विपरिणामानुप्रेक्षा-वस्तुओं के विपरिणमन पर विचार
करना । जैसे—सर्वस्थान अशाश्वत हैं । क्या यहाँ के और क्या देवलोक के । देव एवं मनुष्य आदि की ऋद्धियां और सुख अस्थायी हैं। इस प्रकार की भावना विपरिणामा
नुप्रेता है। (३) अशुभानुप्रेक्षा:-मंमार के अशुभ स्वरूप पर विचार करना ।
जैसे कि इस संमार को धिक्कार है जिसमें एक सुन्दर रूप वाला अभिमानी पुरुष मर कर अपने ही मृत शरीर में कृमि (कीड़े) रूप से उत्पन्न हो जाता है । इत्यादि रूप
से भावना करना अशुभानुप्रेक्षा है। (४) अपायानुप्रेक्षा:-अाश्रवों से होने वाले, जीवों को दुःख
देने वाले, विविध अपायों से चिन्तन करना, जैसे वश में नहीं किये हुऐ क्रोध और मान, बढ़ती हुई माया और लोभ ये चारों कपाय संसार के मूल को सींचने वाले हैं। अर्थात् संसार को बढ़ाने वाले हैं । इत्यादि रूप से आश्रय से होने वाले अपायों की चिन्तना अपायानुप्रेक्षा है ।
(ठाणांग ४ सूत्र २४७) (आवश्यक अध्ययन ४) (भगवती शतक २५ उद्देशा ७)
(उववाई सूत्र तप अधिकार) २२६-चार विनय प्रतिपतिः
आचार्य शिष्य को चार प्रकार की प्रतिपत्ति मिखा कर उऋण होता है। विनय प्रतिपत्ति के चार प्रकार:
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२१४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (१) प्राचार विनय । (२) भुन विनय । (३) विक्षेपणा विनय । (४) दोष निर्धातन विनय ।
(दशाश्रुत स्कन्ध दशा ४) २३०--आचार विनय के चार प्रकार:
(१) संयम समाचारी (२) तप समाचारी ।
(३) गण समाचारी (४) एकाकी विहार समाचारी (१) संयम समाचारी:-संयम के भेदों का ज्ञान करना, सत्तरह
प्रकार के संयम को स्वयं पालन करना, संयम में उत्साह देना, संयम में शिथिल होने वाले को स्थिर करना संयम
समाचारी है। (२) तप समाचारी-तप के बाह्य और आभ्यन्तर भेदों का ज्ञान
करना, स्वयं तप करना, तप करने वालों को उत्साह देना, तप में शिथिल होते हों उन्हें स्थिर करना तप
समाचारी है। (३) गण समाचारी-गण (समूह) के ज्ञान, दर्शन, चारित्र की वृद्धि
करते रहना, सारणा, वारणा आदि द्वारा भली भांति रक्षा करना, गण में स्थित रोगी, बाल, वृद्ध एवं दुर्बल साधुओं
की यथोचित व्यवस्था करना गण समाचारी है। (१) एकाकी विहार समाचारी-एकाकी विहार प्रतिमा का भेदो
पभेद सहित सांगोपाङ्ग ज्ञान करना, उसकी विधि को ग्रहण करना, स्वयं एकाकी विहार प्रतिमा का अंगीकार करना
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श्री जैन बोत सिद्धान्त संमह
२१५
एवं दूसरे को ग्रहण करने के लिये उत्साहित करना आदि
एकाकी विहार समाचारी है।
( दशाश्रुत स्कन्ध दशा ४ )
२३१ - श्रुतविनय के चार प्रकार(१) मूलसूत्र पढ़ाना । (२) अर्थ पढ़ाना |
(३) हित वाचना देना अर्थात् शिष्य की योग्यता के अनुसार सूत्र अर्थ उभय पढ़ाना ।
(४) निःशेष वाचना देना अर्थात् नय प्रमाण आदि द्वारा व्याख्या करते हुए शास्त्र की समाप्ति पर्यन्त वाचना देना । ( दशाश्रुत स्कन्ध दशा ४ ) २३२ - विक्षेपणा विनय के चार प्रकार(१) जिसने पहले धर्म नहीं जाना है । एवं सम्यग दर्शन का लाभ नहीं किया है, उसे प्रेमपूर्वक सम्यगदर्शन रूप धर्म दिखा कर सम्यक्त्व धारी बनाना ।
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(२) जो सम्यक्त्व धारी है, उसे सर्व विरति रूप चारित्र धर्म की शिक्षा देकर सहधर्मी बनाना ।
(३) जो धर्म से भ्रष्ट हुए हों, उन्हें धर्म में स्थिर करना | ४ - चारित्र धर्म की जैसे वृद्धि हो, वैसी प्रवृत्ति करना । जैसे एषणीय आहार ग्रहण करना, अनेषणीय आहार का त्याग करना, एवं चारित्र धर्म की वृद्धि के लिये हितकारी, सुखकारी, इहलोक परलोक में समर्थ, कल्याणकारी एवं मोक्ष में ले जाने वाले अनुष्ठान के लिए तत्पर रहना ।
( दशाभुत स्कन्ध दशा ४ )
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२१६
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला २३३-दोषनिर्घातन विनय के चार प्रकार:(१) मीठे वचनों से क्रोध त्यागने का उपदेश देकर क्रोधी के
क्रोध को शान्त करना । (२) दोषी पुरुष के दोषों को दूर करना । (३) उचित कांक्षा वाले की कांक्षा को अभिलषित वस्तु की
प्राप्ति द्वारा या अन्य वस्तु दिखा कर निवृत्त करना। (४) क्रोध, दोष, कांक्षा आदि में प्रवृत्ति न करते हुए आत्मा को सुमार्ग पर लगाना।
(दशाश्रत स्कन्ध दशा ४) २३४-विनय प्रतिपत्ति के चार प्रकार (१) उत्करणोत्पादनता। (२) सहायता। (३) वर्ण संज्वलनता (गुणानुवादकता),। (४) भार प्रत्यवरोहणता ।। गुणवान् शिष्य की उपरोक्त चार प्रकार की विनय प्रतिपत्ति है।
(दशाश्रुत स्कन्ध दशा ४) २३५-अनुत्पन्न उपकरणोत्पादन विनय के चार प्रकार:--
अनुत्पन्न अर्थात् अप्राप्त आवश्यक उपकरणों को सम्यक
प्रकार। (१) एषणा शुद्धि से प्राप्त करना । (२) पुराने उपकरणों की यथोचित रक्षा करना, जीर्ण वस्त्रों को
सीना, सुरक्षित स्थान में रखना आदि । (३) देशान्तर से आया हुआ अथवा समीपस्थ स्वधर्मी अल्प
उपधि वाला हो तो उसे उपधि देकर उसकी सहायता करना । (४) यथाविधि आहार पानी एवं वस्त्रादि का विभाग करना,
ग्लान, रोगी आदि कारणिक साधुओं के लिए उनके योग्य
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२१७
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २१७ वस्त्रादि उपकरण जुटाना।
(दशाश्रत स्कन्ध दशा ४) २३६-सहायता विनय के चार प्रकार:(१) अनुकूल एवं हितकारी वचन बोलना-गुरु की आज्ञा को
आदर पूर्वक सुनना एवं विनय के साथ अङ्गीकार करना । (२) काया से गुरु की अनुकूता पूर्वक सेवा करना अर्थात् गुरु
जिस अङ्ग की सेवा करने के लिए फरमावे उस अङ्ग की
काया से विनय भक्ति पूर्वक सेवा करना। (३) जिस प्रकार सामने वाले को सुख पहुंचे, उसी प्रकार उनके
अङ्गोपाङ्गादि की वैयावच करना । (४) सभी बातों में कुटिलता त्याग कर सरलता पूर्वक अनुकूल प्रवृत्ति करना।
(दशाश्रुत स्कन्ध दशा ४) २३७---वर्ण संचलनता विनय के चार प्रकार:(१) भव्य जीवों के समीप आचार्य महाराज के गुण, जाति
आदि की प्रशंसा करना। (२) आचार्य आदि के अपयश कहने वाले के कथन का
युक्ति आदि से खण्डन कर उसे निरुत्तर करना । (३) आचार्य महाराज की प्रशंसा करने वाले को धन्यवाद
देकर उसे उत्साहित करना, प्रसन्न करना। (४) इजित (आकार) द्वारा आचार्य महाराज के भाव जान कर उनकी इच्छानुसार स्वयं भक्तिपूर्वक सेवा करना।
(दशाश्रुत स्कन्ध दशा ४)
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२१८
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला २३८-भार प्रत्यवरोहणता विनय के चार प्रकार:(१) क्रोधादि वश गच्छ से बाहर जाने वाले शिष्य को मीठे
वचनों से समझा बुझा कर पुनः गच्छ में रखना। (२) अव्युत्पन्न एवं नव दीक्षित शिष्य को ज्ञानादि आचार तथा
भिदाचारी वगैरह का ज्ञान सिखाना। (३) साधर्मिक अर्थात् समान श्रद्धा एवं ममान ममाचारी वाले
ग्लान हों अथवा ऐसे ही गाढ़ागाढ़ी कारणों से आहारादि के विना दुःख पा रहे हों, उनके आहार आदि लाने, वैद्य से बताई हुई औपधि करने, उबटन करने, संथाग विछाने,
पडिलेहना करने आदि में यथाशक्ति तत्पर रहना । (४) साधर्मियों में परस्पर विरोध उत्पन्न होने पर राग द्वेप का
त्याग कर, किसी भी पक्ष का ग्रहण न करते हुए मध्यस्थ भाव से सम्यग न्याय संगत व्यवहार का पालन करते हुए उस विरोध के क्षमापन एवं उपशम के लिए सदैव उद्यत रहना और यह भावना करते रहना कि किसी प्रकार ये मेरे साधर्मिक बन्धु राग द्वेष, कलह एवं कपाय से रहित हों । इनमें परस्पर "तू तू, मैं मैं" न हों। ये संवर एवं समाधि की बहुलता वाले हों। अप्रमादी हों एवं संयम तथा तप से अपनी आत्मा को भावते हुए विचरें।
(दशा श्रुतस्कन्ध दशा ४) २३६-उपसर्ग चार:
(१) देव सम्बन्धी (२) मनुष्य सम्बन्धी
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(३) तिर्यश्च सम्बन्धी (४) आत्मसंवेदनीय
( ठाणांग ४ सूत्र ३६१ )
( सूयगडांग श्रतस्कन्ध १ अध्ययन ३ )
२४० -- देव सम्बन्धी चार उपसर्गदेव चार प्रकार से उपसर्ग देते हैं ।
(१) हास्य ।
(२) प्रद्वेष ।
(३) परीक्षा ।
(४) विमात्रा ।
विमात्रा का अर्थ है विविध मात्रा अर्थात् कुछ हास्य, कुछ द्वेष कुछ परीक्षा के लिए उपसर्ग देना अथवा हास्य से प्रारम्भ कर द्वेष से उपसर्ग देना आदि ।
( ठाणांग ४ सूत्र ३६१ )
( सूयगडांग श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन ३ )
२४१-- मनुष्य सम्बन्धी उपसर्ग के भी चार प्रकार
(१) हास्य । (२) प्रद्वेष | (३) परीक्षा ।
(४) कुशील प्रति सेवना ।
( ठाणांग ४ सूत्र ३६१ )
( सूयगडांग श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन ३ )
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२४२ – तिर्यश्च सम्बन्धी उपसर्ग के चार प्रकार:तिर्यश्च चार बातों से उपसर्ग देते हैं।
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२१६
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२२०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (१) भय से। (२) प्रद्वेष से। (३) आहार के लिये। (४) संतान एवं अपने लिए रहने के स्थान की रक्षा के लिए।
(ठाणांग ४ सूत्र ३६१)
(सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन ३) २४३-आत्मसंवेदनीय उपसर्ग के चार प्रकार:
अपने ही कारण से होने वाला उपसर्ग आत्मसंवेदनीय है । इसके चार भेद हैं। (१) घट्टन (२) प्रपतन
(३) स्तम्भन (४) श्लेषण (१) घट्टनः-अपने ही अङ्ग यानि अंगुली आदि की रगड़ से
होने वाला घट्टन उपसर्ग है । जैसे-आँखों में धूल पड़ गई । आँख को हाथ से रगड़ा । इससे आँख दुःखने लग
गई। (२) प्रपतन:-विना यतना के चलते हुऐ गिर जाने से चोट
आदि का लग जाना। (३) हाथ पैर आदि अवयवों का सुन्न हो जाना। (४) श्लेषण:-अंगुली आदि अवयवों का आपस में चिपक
जाना । वात, पित्त, कफ एवं सनिपात (वात, पित्त, कफ
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२२१ का संयोग) से होने वाला उपसर्ग श्लेषण है। ये सभी आत्मसंवेदनीय उपसर्ग हैं।
(ठाणांग ४ सूत्र ३६१)
(सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन ३) २४४-दोष चार
(१) अतिक्रम (२) व्यतिक्रम ।
(३) अतिचार (४) अनाचार । अतिक्रमः-लिये हुऐ व्रत पच्चक्खाण या प्रतिज्ञा को भंग करने
का संकल्प करना या भङ्ग करने के संकल्प अथवा कार्य का
अनुमोदन करना अतिक्रम है। व्यतिक्रमः-त्रत भङ्ग करने के लिए उद्यत होना व्यतिक्रम है । अतिचारः-व्रत अथवा प्रतिज्ञा भङ्ग करने के लिए सामग्री
एकत्रित करना तथा एक देश से व्रत या प्रतिज्ञा खंडित
करना अतिचार है। अनाचार:-सर्वथा व्रत को भङ्ग करना अनाचार है।
आधा कर्मी आहार की अपेक्षा अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, और अनाचार का स्वरूप इस प्रकार है:
साधु का अनुरागी कोई श्रावक आधाकर्मी आहार तैयार कर साधु को निमन्त्रण देता है । उस निमन्त्रण की स्वीकृति कर आहार लाने के लिए उठना, पात्र लेकर गुरु के पास आज्ञादि लेने पर्यन्त अतिक्रम दोष है । आधाकर्मी ग्रहण करने के लिए उपाश्रय से बाहर पैर रखने से लेकर घर में प्रवेश करने, आधाकर्मी आहार लेने के लिए झोली
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२२२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला खोल कर पात्र फैलाने तक व्यतिक्रम दोष है । आधाकर्मी आहार ग्रहण करने से लेकर वापिस उपाश्रय में आने, गुरु के समक्ष आलोचना करना एवं खाने की तैयारी करने तक अतिचार दोप है । खा लेने पर अनाचार दोष लगता है।
(पिण्ड नियुक्ति) अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार में उत्तरोत्तर दोष की अधिकता है । क्योंकि एक से दूसरे का प्रायश्चित्त अधिक है।
मूल गुणों में अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार से चारित्र में मलीनता आती है और उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण आदि से शुद्धि हो जाती है । अनाचार से मूल गुण सर्वथा भङ्ग हो जाते हैं । इस लिए नये सिरे से उन्हें ग्रहण करना चाहिए । उत्तर गुणों में अतिक्रमादि चारों से चारित्र की मलीनता होती है परन्तु व्रत भङ्ग नहीं होते ।
(धर्म संग्रह अधिकार ३) २४५ (क):-प्रायश्चित्त चारः-- सश्चित पाप को छेदन करना-प्रायश्चित्त है।
अथवा:अपराध मलीन चित्त को प्रायः शुद्ध करने वाला जो कृत्य है वह प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त चार प्रकार के हैं:
(१) ज्ञान प्रायश्चित्त । (२) दर्शन प्रायश्चित्त । (३) चारित्र प्रायश्चित्त। (४) व्यक्तकृत्य प्रायश्चित्त ।
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२२३
ज्ञान प्रायश्चित्त:: -- पाप को छेदने एवं चित्त को शुद्ध करने वाला होने से ज्ञान ही प्रायश्चित्त रूप है । अतः इसे ज्ञान प्रायश्चित्त कहते हैं । अथवा ज्ञान के अतिचारों की शुद्धि के लिए जो आलोचना आदि प्रायश्चित्त कहे गये हैं, वह ज्ञान प्रायश्चित है । इसी प्रकार दर्शन और चारित्र प्रायश्चित्त का स्वरूप भी समझना चाहिये । व्यक्तकृत्यप्रायश्चितः -- गीतार्थ मुनि छोटे बड़े का विचार कर जो कुछ करता है, वह सभी पाप विशोधक है । इस लिये व्यक्त अर्थात् गीतार्थ का जो कृत्य है, वह व्यक्त कृत्य प्रायश्चित्त है ।
( ठाणांग ४ सूत्र २६३ ) २४५ (ख) प्रायश्चित के अन्य प्रकार से चार भेद:
• N
(१) प्रतिसेवना प्रायश्चित्त । (२) संयोजना प्रायश्चित्त । (३) रोपण प्रायश्चित | (४) परिकुञ्चना प्रायश्चित्त । (१) प्रतिसेवना प्रायश्चित्तः - प्रतिषिद्ध का सेवन करना अर्थात्
कृत्य का सेवन करना प्रतिसेवना है। इसमें जो बालोचन आदि प्रायश्चित्त है, वह प्रतिसेवना प्रायश्चित्त है ।
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(२) संयोजना प्रायश्चित: - एक जातीय अतिचारों का मिल जाना संयोजना है । जैसे कोई साधु शय्यातर पिएड लाया, वह भी गीले हाथों से, वह भी सामने लाया हुआ । और वह भी आधाकर्मी । इसमें जो प्रायश्चित्त होता है । वह संयोजना प्रायश्चित है ।
(३) आरोपणा प्रायश्चित्त - एक करने पर बार बार उसी
अपराध का प्रायश्चित्त अपराध को सेवन करने
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२२४
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला से विजातीय प्रायश्चित्त का आरोप करना आरोपणा प्रायश्चित्त है । जैसे एक अपराध के लिये पाँच दिन का प्रायश्चित्त आया। फिर उसी के सेवन करने पर दश दिन का फिर सेवन करने पर १५ दिन का। इस प्रकार ६ मास तक लगातार प्रायश्चित्त देना। छः मास से अधिक तप
का प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता । (४) परिकुञ्चना प्रायश्चित्त-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा
अपराध को छिपाना या उसे दूसरा रूप देना परिकुञ्चना है। इसका प्रायश्चित्त परिकुचना प्रायश्चित्त कहलाता है।
(ठाणाँग ४ सूत्र २६३) २४६-चार भावाना
(१) मैत्री भावना (२) प्रमोद भावना
(३) करुणा भावना (४) माध्यस्थ भावना । (१) मैत्री भावना:-विश्व के समस्त प्राणियों के साथ मित्र
जैसा व्यवहार करना, वैर भाव का सर्वथा त्याग करना मैत्री भावना है । वैर भाव दुःख, चिन्ता और भय का स्थान है। यह राग द्वेष को बढ़ाता है एवं चित को विक्षिप्त रखता है। उसके विपरीत मैत्री-भाव चिन्ता एवं भय को मिटा कर अपूर्व शान्ति और सुख का देने वाला है। मैत्री भाव से सदा मन स्वस्थ एवं प्रसन्न रहता है।
जगत् के सभी प्राणियों के साथ हमारा माता-पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, आदि का सम्बन्ध रह चुका है। उसे स्मरण करके मैत्री भाव को पुष्ट करना चाहिए । अपकारियों
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २२५ के माथ भी यह सोच कर मैत्री भाव बनाये रखना चाहिये कि यदि घर के लोग बुरे भी होते हैं तो भी वे हमारे ही रहते हैं और हम निरन्तर सद्भावना के माथ उनके हितसाधन में तत्पर रहते हैं । विश्व के प्राणी भी हमारे घर वाले रह चुके हैं। और भविष्य में रह सकते हैं। फिर उनके साथ भी हमारा वैमा ही व्यवहार होना चाहिए। न जाने हम इस मंमार में भ्रमण करते हुऐ कितनी बार विश्व के प्राणियों से उपकृत हो चुके हैं । फिर उन उपकारियों के माथ मित्र भाव रखना ही हमारा फर्ज है । यदि वर्तमान में वे हानि पहुँचाने हों तो भी हमें तो उपकारों का म्मरण कर अपना कर्तव्य पालन करना ही चाहिये । अपने विषले डंक से काटते हुऐ चंडकौशिक का उद्धार करने वाले भगवान् श्री महावीर स्वामी की जगत् के उद्धार की भावना का मदा ध्यान रखना चाहिये । यदि हमारी ओर से किमी का अहित हो जाय या प्रतिकूल व्यवहार हो, तो हमें उससे तत्काल शुद्ध भाव से क्षमा याचना करनी चाहिये । इससे पारस्परिक भेद भाव नष्ट हो जाता है। इससे सामने वाला हमारे अहित का प्रयत्न नहीं करता है और हमारा चित्त भी शुद्ध हो जाता है। एवं उमकी ओर से हानि पहुँचने की आशङ्का मिट जाती है।
- यह मैत्री भाव मनुष्य का स्वभाविक गुण है । वर करना पशुता है। मैत्री भाव का पूर्ण विकास होने पर समीपस्थ प्राणी भी पारस्परिक वैरभाव भूल जाते हैं। तो
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श्री सठिया जैन ग्रन्थमाला शत्रुओं का मित्र होना तो माधारण सी बात है। मंत्री भाव के विकास के लिए चित्त को निर्मल तथा विशद बनाना
आवश्यक है । घर के लोगों से मैत्री भाव का प्रारम्भ होता है। और बढ़ते२ सारे संसार में इस भाव का प्रसार होजाता है। तब विश्व भर में आत्मा का कोई शत्रु नहीं रहता। इस कोटि पर पहुँच कर आत्मा पूर्ण शान्ति का अनुभव करता है। अत एव मदा इस भावना में दत्तचित्त रह कर वैर भाव को भुलाना चाहिए । और मंत्री भाव की वृद्धि करना चाहिये। आत्मा की तरह जगत् के सामारिक दुःखद्वन्द्वों से मुक्ति हो, एवं जो हम अपने लिए चाहें । वही विश्व के समस्त प्राणियों के लिये चाहें । एवं मंमार के सभी प्राणी मित्र रूप में दिखाई देने लगे। इस प्रकार की भावना ही
मैत्री भावना है। (२) प्रमोद भावनाः-अधिक गुण सम्पन्न महापुरुषों को और
उनके मान पूजा मत्कार आदि को देखकर हर्षित होना प्रमोद भावना है । चिरकाल के अशुभ संस्कारों से यह मन ईर्ष्यालु हो गया है । इस प्रकार दूसरे की बढ़ती को वह महन नहीं कर सकता । परन्तु ईर्षा महादुर्गुण है । इस से जीव दूसरों को गिरते देख कर प्रसन्न होना चाहता है। किन्तु उसके चाहने से किसी का पतन संभव नहीं। बिल्ली के चाहने से सींका (छींका) नहीं टूटता । परन्तु यह मलीन भावना अपने स्वामी को मलीन कर गिरा देती है । एवं सद्गुणोंको हर लेती है। ईर्ष्यालु आत्मा सभी को मय बातों में अपने से नीचे
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श्री जैन सिद्धान्त बोल मंग्रह
२२७ देखना चाहता है। परन्तु यह संभव नहीं है। इसके फलस्वरूप वह सदा जलता रहता है एवं अपने स्वास्थ्य और गुणों का नाश करता है। यदि हम यह चाहते हैं कि हमारी सम्पत्ति में सभी हर्षित हों, हमारी उन्नति से सभी प्रसन्न हों, हमारे गुणों से सभी को प्रेम हो। यह इच्छा तभी पूर्ण हो सकती है, जब हम भी दूसरों के प्रति ईर्षा छोड़ कर उनके गुणों से प्रेम करेंगे। उनकी उन्नति से प्रसन्न होंगे । इमसे यह लाभ होगा कि हमारे प्रति भी कोई ईर्षा न करेगा । एवं जिन अच्छे गुणों से हम प्रसन्न होंगे, वे गुण हमें भी प्राप्त होंगे। इस लिए सदा गुणवान पुरुष-जैसे अरिहन्त भगवान्, साधु महाराज आदि के गुणानुवाद करना,श्रावक वर्ग में दानी, परोपकारी आदि का गुणानुवाद करना, उनके गुणों पर प्रसन्नता प्रगट करना, उनकी उन्नति से हर्षित होना, उनकी प्रशंसा सुन कर फूलना आदि प्रमोद
भावना है। (३) करुणा भावनाः-शारीरिक मानसिक दुःखों से दःखित
प्राणियों के दुःख को दूर करने की इच्छा रखना करुणा भावना है । दीन, अपङ्ग, रोगी, निर्बल लोगों की सेवा करना, वृद्ध, विधवा और अनाथ बालकों को महायता देना, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि दुर्भिक्ष के समय अन्न जल विना दुःख पाने वालों के लिए खाने पीने की व्यवस्था करना, बेघरबार लोगों को शरण देना, महामारी आदि के समय लोगों को औषधि पहुँचाना, स्वजनों से
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला वियुक्त लोगों को उनके स्वजनों से मिला देना, भयभीन प्राणियों के भय को दूर करना,वृद्ध और रोगी पशुओं की सेवा करना । यथाशक्ति प्राणियों के दुःख दूर करना, समर्थ मानवों का कर्तव्य है । धन तथा शारीरिक और मानसिक बल का होना तभी सार्थक है। जब कि वह उपरोक्त दुःखी जीवों के उद्धार के लिए लगा दिए जावें । संसार में जो सुख ऐश्वर्य दिग्वाई देता है। वह मभी इस करणाजनित पुण्य के फलस्वरूप है। भविष्य में इनकी प्राप्ति पुण्य बल पर ही होगी। जो लोग पूर्व पुण्य के बल से तप बल, धन बल एवं मनोबल पाकर उसका उपयोग दूसरों के दुःख दूर करने में नहीं करते, वे भविष्य में आने वाले सुखों को अपने ही हाथों रोकते हैं।
करुणा-दया भाव, जैन दर्शन में सम्यग दर्शन का लक्षण माना गया है । अन्य धर्मों में भी इसे धर्म रूप वृक्ष का मूल बताया गया है । दया के विना धर्माराधन असम्भव है । इस लिए धर्मार्थी एवं सुखार्थी समर्थ आत्माओं को यथा शक्ति दुःखी प्राणियों के दुःखों को दूर करना चाहिए । असमर्थ जनों को भी दुःख दूर करने की भावना अवश्य रखनी चाहिए। अवसर आने पर उसे क्रियात्मक रूप भी देना चाहिए। इस प्रकार धनहीन, दुःखी, भयभीत्त आत्माओं के दुःख को
दूर करने की बुद्धि करुणा भावना है। (४) माध्यस्थ भावनाः-मनोज्ञ अमनोज्ञ पदार्थ एवं इष्ट अनिष्ट
मानवों के मंयोग वियोग में राग-द्वेष न करना
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श्री जैन मिद्धान्त बोल संग्रह
२२६ माध्यस्थ भावना है। यह भावना आत्मा को पूर्ण शान्ति देने वाली है । मध्यस्थ भाव से भावित आत्मा पर भले बुरे का कोई भी असर ठीक उसी प्रकार नहीं होता। जिस प्रकार दर्पण पर प्रतिविम्बित पदार्थों का असर नहीं होता। अर्थात् जैसे दर्पण पहाड़ का प्रतिबिम्ब ग्रहण करके भी पहाड़ के भार से नहीं दबता या ममुद्र का प्रतिबिम्ब ग्रहण कर भीग नहीं जाता। वैसे ही राग द्वेष त्याग कर माध्यस्थ भावना का आलम्बन लेने वाला आत्मा अच्छे बुरे पदार्थ एवं मंयोगों को कर्म का खेल ममझ कर ममभाव से उनका सामना करता है। किन्तु उनसे आत्म भाव को चञ्चल नहीं होने देता । मंमार के मभी पदार्थ विनश्वर हैं । मंयोग अस्थायी है । मनुष्य भी भले के बुरे और बुरे के भले होते रहते हैं। फिर राग द्वेष के पात्र हैं ही क्या?
दूसरी बात यह है कि इष्ट,अनिष्ट पदार्थों की प्राप्ति, मंयोग वियोग आदि शुभाशुभ कर्म जनित हैं, वे तो नियत काल तक हो कर ही रहेंगे। राग करने से कोई पदार्थ हमेशा के लिए हमारे माथ न रह सकेगा। न द्वेष करने से ही किसी पदार्थ का हमारे से वियोग हो जायेगा । यदि प्राणी अशुभ को नहीं चाहते तो उन्हें अशुभ कर्म नहीं करने थे । अशुभ कर्म करने के बाद अशुभ फल को रोकना प्राणियों की शक्ति के बाहर है। जबान पर मिर्च रख कर उसके तिक्तपन से मुक्ति चाहने की तरह यह अज्ञानता है । शुभाशुभ कर्म जनित इष्ट अनिष्ट पदार्थ एवं संयोगों में राग द्वेष का त्याग करना (उपेक्षा भाव रखना) ही माध्यस्थ्य भावना है।
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला जगन् के जो प्राणी विपरीत वृत्ति वाले हैं । उन्हें मुधारने के लिए प्रयत्न करना मानव कर्तव्य है । ऐमा करने से हम उनका ही सुधार नहीं करते बल्कि उनके कुमार्गगामी होने से उत्पन्न हुई अव्यवस्था एवं अपने साथियों की असुविधाओं को मिटाते हैं। इसके लिये प्रत्येक मनुष्य को सहनशील बनना चाहिए। कुमार्मगामी पुरुष हमारी सुधार भावना को विपरीत रूप देकर हमें भला बुग कह सकता है। हानि पहुँचाने का प्रयत्न भी कर सकता है । उस समय सहनशीलता धारण करना सुधारक का कर्तव्य है । यह सहनशीलता कमजोरी नहीं किन्तु आत्म-बल का प्रकाशन है। उस समय यह सोच कर सुधारक में सुधार भाव और भी ज्यादह दृढ़ होना चाहिए कि जब वह अपने बुरे स्वभाव को नहीं छोड़ता है । तब मैं अपने अच्छे स्वभाव को क्यों छोड़ दें ? यदि सुधारक सहनशील न हुआ तो वह अपने उद्देश्य से नीचे गिर जायगा । पाप से घृणा होनी चाहिए, पापी से नहीं। इस लिए घृणा योग्य पाप को दूर करने का प्रयत्न करना, परन्तु पापी को किसी प्रकार कष्ट न पहुँचाना चाहिए। मलीन वस्त्र की शुद्धि उसको फाड़ देने से नहीं होती, परन्तु पानी द्वारा कोमल करके की जाती है। इसी तरह पापी का सुधार कोमल उपायों से करना चाहिए । कठिन उपायों से नहीं । यदि कठोर उपाय का आश्रय लेना ही पड़े तो वह कठोरता बाह्य होनी चाहिए । अन्तर में तो कोमलता ही रहनी चाहिए । इस
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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तरह विपरीत वृत्ति वाले पतित आत्माओं के सुधार की चेष्टा करनी चाहिए । यदि सुधार में सफलता मिलती न दिखाई दे तो सामने वाले के अशुभ कर्मों की प्रबलता समझ कर उदासीनता धारण करनी चाहिए । यही माध्यस्थ भावना है ।
( भावना शतक )
( कर्तव्य कौमुदी भाग २ श्लोक ३५ से ५५ )
( चतुर्भावना पाठमाला के आधार पर )
२४७ - बन्ध की व्याख्या और उसके भेद:( १ ) जैसे कोई व्यक्ति अपने शरीर पर तेल लगा कर धूलि में लेट, तो धूलि उसके शरीर पर चिपक जाती है । उसी प्रकार मिध्यात्व कषाय योग आदि से जीव के प्रदेशों में जब हलचल होती है तब जिम आकाश में आत्मा के प्रदेश हैं। वहीं के अनन्त - अनन्त कर्म योग्य पुद्गल परमाणु जीव के एक एक प्रदेश के साथ बंध जाते हैं। कर्म और आत्मप्रदेश इस प्रकार मिल जाते हैं । जैसे दूध और पानी तथा आग और लोह पिण्ड परस्पर एक हो कर मिल जाते हैं । श्रात्मा के साथ कर्मों का जो यह
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सम्बन्ध होता है, वही बन्ध कहलाता है । बंध के चार भेद
हैं।
( १ ) प्रकृति बन्ध ( २ ) स्थिति बन्ध
(३) अनुभाग बन्ध ( ४ ) प्रदेश बन्ध
( १ ) प्रकृति बन्ध - जीव के द्वारा ग्रहण किए हुए कर्म पुद्गलों में जुदे जुदे स्वभावों का अर्थात् शक्तियों का पैदा होना प्रकृति बन्ध कहलाता है ।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ( २ ) स्थिति बन्ध-जीव के द्वारा ग्रहण किए हुये कर्म
पुद्गलों में अमुक काल तक अपने स्वभावों को त्याग न करते हुए जीव के साथ रहने की काल मर्यादा को स्थिति
बन्ध कहते हैं । (३) अनुभाग बन्ध-अनुभाग बन्ध को अनुभाव बन्ध और
अनुभव बन्ध भी कहते हैं। जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों में से इसके तरतम भाव का अर्थात् फल देने
की न्यूनाधिक शक्ति का होना अनुभाग बन्ध कहलाता है। (४) प्रदेश बन्ध-जीव के साथ न्यूनाधिक परमाणु वाले कर्म म्कन्धों का सम्बन्ध होना प्रदेश बन्ध कहलाता है।
(ठाणांग ४ सूत्र २६६)
(कर्म ग्रन्थ भाग १) २४८ चारों बन्धों का स्वरूप समझाने के लिए मोदक (लड्डू) का दृष्टान्तः--
जैसे मोंठ, पीपल, मिर्च, आदि से बनाया हुआ मोदक वायु नाशक होता है । इसी प्रकार पित्त नाशक पदार्थों से बना हुआ मोदक पित का एवं कफ नाशक पदार्थों से बना हुआ मोदक कफ का नाश करने वाला होता है । इसी प्रकार आत्मा से ग्रहण किए हुए कर्म पुद्गलों में से किन्हीं में ज्ञान गुण को आच्छादन करने की शक्ति पैदा होती है । किन्हीं में दर्शन गुण घात करने की । कोई कर्म-पुद्गल, आत्मा के आनन्द गुण का घात करते हैं । तो कोई आत्मा की अनन्त शक्ति का । इस
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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तरह भिन्न भिन्न कर्म पुद्गलों में भिन्न २ प्रकार की प्रकृतियों के बन्ध होने को प्रकृति बन्ध कहते हैं । जैसे कोई मोदक एक सप्ताह, कोई एक पक्ष, कोई एक मास तक निजी स्वभाव को रखते हैं। इसके बाद में छोड़ देते हैं अर्थात् विकृत हो जाते हैं। मोदकों की काल मर्यादा की तरह कर्मों की भी काल मर्यादा होती है । वही स्थिति बन्ध है । स्थिति पूर्ण होने पर कर्म आत्मा से जुदे हो जाते हैं ।
कोई मोदक रस में अधिक मधुर होते हैं तो कोई कम । कोई रस में अधिक कटु होते हैं, कोई कम । इस प्रकार मोदकों में जैसे रसों की न्यूनाधिकता होती है। उसी प्रकार कुछ कर्म दलों में शुभ रस अधिक और कुछ में कम । कुछ कर्म दलों में शुभ रस अधिक और कुछ में अशुभ रस कम होता है । इसी प्रकार कर्मों में तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम मन्द, मन्दतर, मन्दतम शुभाशुभ रसों का बन्ध होना रस बन्ध है । यही बन्ध अनुभाग बन्ध भी कहलाता है ।
कोई मोदक परिमाण में दो तोले का, कोई पांच तोले और कोई पाव भर का होता है । इसी प्रकार भिन्न २ कर्म दलों में परमाणुओं की संख्या का न्यूनाधिक होना प्रदेश बन्ध कहलाता है ।
यहाँ यह भी जान लेना चाहिए कि जीव संख्यात असंख्यात और अनन्त परमाणुओं से बने हुए कार्माण स्कन्ध को ग्रहण नही करता परन्तु अनन्तानन्त परमाणु
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला वाले स्कन्ध को ग्रहण करता है।
(ठाणांग ४ सूत्र २६६)
(कर्मग्रन्थ भाग पहला) प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध योग के निमित्त से होते हैं। स्थिति बन्ध तथा अनुभाग बन्ध कषाय के
निमित्त से बंधते हैं। २४६-उपक्रम की व्याख्या और भेदः
उपक्रम का अर्थ आरम्भ है । वस्तु परिकर्म एवं वस्तु विनाश को भी उपक्रम कहा जाता है। उपक्रम के चार भेद हैं। (१) बन्धनोपक्रम (२) उदीरणोपक्रम ।
(३) उपशमनोपक्रम (४) विपरिणामनोपक्रम । (१) बन्धनोपक्रम-कर्म पुद्गल और जीव प्रदेशों के परस्पर
सम्बन्ध होने को बन्धन कहते हैं । उसके आरम्भ को बन्धनोपक्रम कहते हैं। अथवा बिखरी हुई अवस्था में रहे हुए कर्मों को आत्मा से सम्बन्धित अवस्था वाले कर देना
बन्धनोपक्रम है। (२) उदीरणोपक्रम-विपाक अर्थात् फल देने का समय न होने
पर भी कर्मों का फल भोगने के लिए प्रयत्न विशेष से उन्हें उदय अवस्था में प्रवेश कराना उदीरणा है। उदीरणा
के प्रारम्भ को उदीरणोपक्रम कहते हैं। (३) उपशमनोपक्रम-कर्म उदय, उदीरणा, निधत्त करण
और निकाचना करण के अयोग्य हो जायें, इस प्रकार उन्हें स्थापन करना उपशमना है । इसका प्रारम्भ
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२३५ उपशमनोपक्रम हैं । इसमें आवर्तन, उद्वर्तन और संक्रमण
ये तीन करण होते हैं। (४) विपरिणामनोपक्रम-सत्ता, उदय, क्षय, क्षयोपशम,
उद्वर्तना, अपवर्तना आदि द्वारा कर्मों के परिणाम को बदल देना विपरिणामना है । अथवा गिरिनदीपाषाण की तरह स्वाभाविक रूप से या द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि से अथवा करण विशेष से कर्मों का एक अवस्था से दूसरी अवस्था में बदल जाना विपरिणामना है । इसका उपक्रम (आरम्भ) विपरिणामनोपक्रम है।
(ठाणांग ४ सूत्र २६६) २५०-संक्रम ( संक्रमण ) की व्याख्या और उसके भेदः
जीव जिस प्रकृति को बांध रहा है। उसी विपाक में वीर्य विशेष से दूसरी प्रकृति के दलिकों ( कर्म पुद्रलों) को परिणत करना संक्रम कहलाता है।
(ठाणांग ४ सूत्र २६६) जिस वीर्य विशेष से कर्म एक स्वरूप को छोड़ कर दूसरे सजातीय स्वरूप को प्राप्त करता है। उस वीर्य विशेष का नाम संक्रमण है। इसी तरह एक कर्म प्रकृति का दूसरी सजातीय कर्म प्रकृति रूप बन जाना भी संक्रमण है। जैसे मति ज्ञानावरणीय का श्रुत ज्ञानावरणीय अथवा श्रुत ज्ञानावरणीय का मति ज्ञानावरणीय कर्म रूप में बदल जाना ये दोनों कर्म प्रकृतियों ज्ञानावरणीय कर्म के भेद होने से आपस में सजातीय हैं । .
(कर्म ग्रन्थ भाग २)
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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इसके चार भेद हैं:
( १ ) प्रकृति संक्रम |
(३) अनुभाग संक्रम |
(२) स्थिति संक्रम | (४) प्रदेश संक्रम |
( ठाणांग ४ सूत्र २६६
२५१ - निधत्त की व्याख्या और भेद:उद्वर्त्तना और अपवर्तन करण के सिवाय विशेष करणों योग्य कर्मों को रखना निधत कहा जाता है । निधत्त अवस्था में उदीरणा, संक्रमण वगैरह नहीं होते हैं । तपा कर निकाली हुई लोह शलाका के सम्बन्ध के समान पूर्ववद्ध कर्मों को परस्पर मिलाकर धारण करना निधत्त कहलाता है । इसके भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप से चार भेद होते हैं ।
( ठाणांग ४ सूत्र २६६ )
२५२ - निकाचित की व्याख्या और भेद:
जिन कर्मों का फल बन्ध के अनुसार निश्चय ही भोगा जाता है। जिन्हें विना भोगे छुटकारा नहीं होता। वे निकाचित कर्म कहलाते हैं । निकाकित कर्म में कोई भी करण नहीं होता । तपा कर निकाली हुई लोह शलाकायें (सुइयें) घन से कूटने पर जिस तरह एक हो जाती हैं । उसी प्रकार इन कर्मों का भी आत्मा के साथ गाढ़ा सम्बन्ध हो जाता है । निकाचित कर्म के भी प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार भेद हैं।
( ठारणांग ४ सूत्र २६६ )
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २५३-कर्म की चार अवस्थाएं
(१) बन्ध । (२) उदय ।
(३) उदीरणा । (४) सत्ता । (१) बन्ध-मिथ्यात्व आदि के निमित्त से ज्ञानावरणीय आदि
रूप में परिणत होकर कर्म पुद्गलों का आत्मा के साथ
दूध पानी की तरह मिल जाना बन्ध कहलाता है । (२) उदय-उदय काल अर्थात् फलदान का समय आने पर
कर्मों के शुभाशुभ फल का देना उदय कहलाता है । (३) उदीरणा-अावाध काल व्यतीत हो चुकने पर भी जो
कर्म-दलिक पीछे से उदय में आने वाले हैं। उनको प्रयत्न विशेष से खींच कर उदय प्राप्त दलिकों के साथ भोग लेना उदीरणा है। ____ बंधे हुए कर्मों से जितने समय तक आत्मा को आबाधा नहीं होती अर्थात् शुभाशुभ फल का वेदन नहीं
होता उतने समय को आबाधा काल समझना चाहिए। (४) सत्ता-बंधे हुए कर्मों का अपने स्वरूप को न छोड़ कर आत्मा के साथ लगे रहना सत्ता कहलाता है।
(कर्मग्रन्थ भाग २ गाथा १) २५४-अन्तक्रियाएं चार
कर्म अथवा कर्म कारणक भव का अन्त करना अन्तक्रिया है। यों तो अन्तक्रिया एक ही स्वरूप वाली होती है। किन्तु सामग्री के भेद से चार प्रकार की बताई
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (१) प्रथम अन्तक्रिया-कोई जीव अल्प कर्म वाला हो कर
मनुष्य भव में उत्पन्न हुआ। उसने मुंडित हो कर गृहस्थ से साधुपने की प्रवज्या ली। वह प्रचुर संयम, संवर
और समाधि सहित होता है। वह शरीर और मन से रूक्ष द्रव्य और भाव से स्नेह रहित संसार समुद्र के पार पहुँचने की इच्छा वाला, उपधान तप वाला, दुःख एवं उसके कारण भूत कर्मों का क्षय करने वाला, आभ्यन्तर तप अर्थात् शुभ ध्यान वाला होता है । वह श्री वर्धमान स्वामी की तरह वैसा घोर तप नहीं करता, न परिषह उपसर्ग जनित घोर वेदना सहता है । इस प्रकार का वह पुरुष दीर्घ दीक्षा पर्याय पाल कर सिद्ध होता है। बुद्ध होता है । मुक्त होता है । निर्वाण को प्राप्त करता है एवं सभी दुःखों का अन्त करता है। जैसे भरत महाराज । भरत महाराज लघु कर्म वाले होकर सर्वार्थसिद्ध विमान से चवे, वहाँ से चव कर मनुष्य भव में चक्रवर्ती रूप से उत्पन्न हुए। चक्रवर्ती अवस्था में ही केवल ज्ञान उत्पन्न कर उन्होंने एक लाख पूर्व की दीक्षा पाली एवं विना घोर तप किए और
विना विशेष कष्ट सहन किये ही मोक्ष पधार गये। (२) दूसरी अन्तक्रिया-कोई पुरुष महा कर्म वाला हो कर मनुष्य
भव में उत्पन्न हुआ। वह दीक्षित हो कर यावत् शुभध्यान वाला होता है । महा कर्म वाला होने से उन कर्मों का क्षय करने के लिए वह घोर तप करता है । इसी प्रकार घोर वेदना भी सहता है । उस प्रकार का वह पुरुष थोड़ी
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २३६ ही दीक्षा पर्याय पाल कर सिद्ध हो जाता है । यावत् सभी दुःखों का अन्त कर देता है । जैसे गज सुकुमार ने भगवान श्री अरिष्टनेमि के पास दीक्षा लेकर श्मशान भूमि में कायो. त्सर्ग रूप महातप प्रारम्भ किया । और सिर पर रखे हुए जाज्वल्यमान अङ्गारों से उत्पन्न अत्यन्त ताप वेदना को
सहन कर अल्प दीक्षा पर्याय से ही सिद्ध हो गए । (३) तीसरी अन्त क्रिया-कोई पुरुष महा कर्म वाला होकर
उत्पन्न होता है । वह दीक्षा लेकर यावत् शुभ ध्यान करने वाला होता है। महा कर्म वाला होने से वह घोर तप करता है, एवं घोर वेदना सहता है। इस प्रकार का वह पुरुष दीर्घ दीक्षा पर्याय पाल कर सिद्ध, बुद्ध, यावत् मुक्त होता है । जैसे सनत्कुमार चक्रवर्ती । सनत्कुमार चक्रवर्ती ने दीक्षा लेकर कर्म क्षय करने के लिए घोर तप किया एवं शरीर में पैदा हुए रोगादि की घोर वेदना सही । और दीर्घ काल तक दीक्षा पर्याय पाली । कर्म अधिक होने से
बहुत काल तक तपस्या करके मोक्ष प्राप्त किया। (४) चौथी अन्त क्रियाः-कोई पुरुष अल्प कर्म वाला होकर
उत्पन्न होता है । वह दीक्षा लेकर यावत् शुभ ध्यान वाला होता है । वह पुरुष न घोर तप करता है न घोर वेदना सहता है । इस प्रकार वह पुरुष अल्प दीक्षा पर्याय पाल कर ही सिद्ध, बुद्ध यावत् मुक्त हो जाता है। जैसे मरु देवी माता । मरु देवी माता के कर्म क्षीण प्रायः थे। अतएव विना तप किए, विना वेदना सहे, हाथी पर विराजमान ही सिद्ध
होगई।
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
नोट: -- उपरोक्त दृष्टान्त देश दृष्टान्त हैं । इस लिए सभी बातों में साधर्म्य नहीं है । जैसे मरुदेवी माता मुंडित न हुई, इत्यादि । किन्तु भाव में समानता है । ( ठाणांग ४ सूत्र २३५ ) २५५: - भाव दुःख शय्या के चार प्रकार:
पलङ्ग विछौना वगैरह जैसे होने चाहिएं, वैसे न हों, दुःखकारी हों, तो ये द्रव्य से दुःख शय्या रूप हैं । चित्त (मन) श्रमण स्वभाव वाला न होकर दुःश्रमणता वाला हो, तो वह भाव से दुःख शय्या है। भाव दुःख शय्या चार हैं । (१) पहली दुःख शय्या: - किसी गुरु (भारी) कर्म वाले मनुष्य ने मुंडित होकर दीक्षा ली । दीक्षा लेने पर वह निर्ग्रन्थ प्रवचन में शङ्का, कांक्षा ( पर मत अच्छा है । इस प्रकार की बुद्धि ) विचित्सा ( धर्म फल के प्रति सन्देह ) करता है जिन शासन में कहे हुए भाव वैसे ही हैं अथवा दूसरी तरह के हैं ? इस प्रकार चित्त को डांवा डोल करता है । कलुष भाव अर्थात् विपरीत भाव को प्राप्त करता है । वह जिन प्रवचन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं रखता । जिन प्रवचन में श्रद्धा प्रतीति न करता हुआ और रुचि न रखता हुआ मन को ऊँचा नीचा करता है। इस कारण वह धर्म से भ्रष्ट होजाता है । इस प्रकार वह श्रमणता रूपी शय्या में दुःख से रहता है ।
(२) दूसरी दुःख शय्या : - कोई कर्मों से भारी मनुष्य प्रव्रज्या लेकर अपने लाभ से सन्तुष्ट नहीं होता । वह असन्तोषी बन कर दूसरे के लाभ में से, वह मुझे देगा, ऐसी इच्छा रखता
२४०
gadg
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २४१ है । यदि वह देवे तो मैं भोगूं, ऐसी इच्छा करता है। उसके लिए याचना करता है और अति अभिलाषा करता है। उसके मिल जाने पर और अधिक चाहता है । इस प्रकार दूसरे के लाभ में से प्राशा, इच्छा, याचना यावत् अभिलाषा करता हुआ वह मन को ऊँचा नीचा करता है । इस कारण
वह धर्म से भ्रष्ट होजाता है । यह दूसरी दुःख शय्या है। (३) तीसरी दुःख शय्या:-कोई कर्म बहुल प्राणी दीक्षित होकर
देव तथा मनुष्य सम्बन्धी काम भोग पाने की आशा करता है । याचना यावत् अभिलाषा करता है । इस प्रकार करने हुए वह अपने मन को ऊँचा नीचा करता है और धर्म से
भ्रष्ट हो जाता है । यह तीसरी दुःख शय्या है। (४) चौथी दुःख शय्या-कोई गुरु कर्मी जीव साधुपन लेकर सोचना
है कि मैं जब गृहस्थ वास में था। उस समय तो मेरे शरीर पर मालिश होती थी। पीठी होती थी। तैलादि लगाए जाते थे
और शरीर के अङ्ग उपाङ्ग धोये जाते थे अर्थात् मुझे स्नान कराया जाता था। लेकिन जब से साधु बना हूँ। तब से मुझे ये मर्दन आदि प्राप्त नहीं हैं । इस प्रकार वह उनकी
आशा यावत् अभिलाषा करता है और मन को ऊँचा नीचा करता हुआ धर्म भ्रष्ट होता है । यह चौथी दुःख शय्या है। श्रमण को ये चारों दुःख शय्या छोड़ कर संयम में मनको
स्थिर करना चाहिए। (ठाणांग ४ सूत्र ३२५) २५६ सुख शय्या चार:
ऊपर बताई हुई दुःख शय्या से विपरीत सुख शग्या जाननी चाहिए । वे संक्षेप में इस प्रकार हैं:
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२४२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (१) जिन प्रवचन पर शंका, कांक्षा, विचिकित्सा न करता हुआ
तथा चित्त को डांवा डोल और कलुषित न करता हुआ साधु निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि रखता है और मन को संयम में स्थिर रखता है । वह धर्म से भ्रष्ट नहीं होता अपितु धर्म पर और भी अधिक दृढ़ होता है । यह
पहली सुख शय्या है। (२) जो साधु अपने लाभ से मन्तुष्ट रहता है और दूसरों के
लाभ में से प्राशा, इच्छा, याचना और अभिलाषा नहीं करता । उस सन्तोषी माधु का मन संयम में स्थिर रहता है
और वह धर्म भ्रष्ट नहीं होता । यह दुमरी सुख शय्या है । (३) जो साधु देवता और मनुष्य सम्बन्धी काम भोगों की आशा
यावत् अभिलाषा नहीं करता । उसका मन संयम में स्थिर रहता है और वह धर्म से भ्रष्ट नहीं होता। यह तीसरी
सुख शय्या है। (४) कोई साधु होकर यह सोचता है कि जब हृष्ट,नीरोग,बलवान्
शरीर वाले अरिहन्त भगवान् श्राशंसा दोष रहित अत एव उदार, कल्याणकारी, दीर्घ कालीन, महा प्रभावशाली, कमों को क्षय करने वाले तप को संयम पूर्वक आदर भाव से अंगीकार करते हैं । तो क्या मुझे केश लोच, ब्रह्मचर्य आदि में होने वाली आभ्युपगमिकी और ज्वर, अतिसार आदि रोगों से होने वाली औपक्रमिकी वेदना को शान्ति पूर्वक, दैन्यभाव न दर्शाते हुए, विना किसी पर कोप किए सम्यक् प्रकार से सम भाव पूर्वक न सहना
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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चाहिए ? इस वेदना को सम्यक् प्रकार न सहन कर मैं एकान्त पाप कर्म के सिवा और क्या उपार्जन करता हूँ ? यदि मैं इसे सम्यक प्रकार सहन कर लूँ, तो क्या मुझे एकान्त निर्जरा न होगी ? इस प्रकार विचार कर ब्रह्मचर्य व्रत के दूषण रूप मर्दन आदि की आशा, इच्छा का त्याग करना चाहिए | एवं उनके अभाव से प्राप्त वेदना तथा अन्य प्रकार की वेदना को सम्यक् प्रकार सहना चाहिए। यह चौथी सुख शय्या है ।
(ठायांग ४ सूत्र ३२५ ) २५७ - चार स्थान से हास्य की उत्पत्ति :
हास्य मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न हास्य रूप विकार अर्थात् हँसी की उत्पत्ति चार प्रकार से होती है । (१) दर्शन से (२) भाषण से ।
(३) श्रवण से
(१) दर्शन:- विदूषक, बहुरूपिये देखकर हंसी आ जाती है ।
(४) स्मरण से ।
आदि की हँसी जनक चेष्टा
(२) भाषण -- हास्य उत्पादक वचन कहने से हंसी आती है । (३) श्रवण - - हास्य जनक किसी का वचन सुनने से हंसी की उत्पत्ति होती है ।
(४) स्मरण - हंसी के योग्य कोई बात या चेष्टा को याद करने से हंसी उत्पन्न होती है ।
( ठाणांग ४ सूत्र २६६ )
२५८ - गुणलोप के चार स्थान:--
चार प्रकार से दूसरे के विद्यमान गुणों का लोप किया जाता है ।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (१) क्रोध से। (२) दूसरे की पूजा प्रतिष्ठा न सहन कर सकने के कारण,
ईर्ष्या से। (३) अकृतज्ञता से। (४) विपरीत ज्ञान से।
जीव दूसरे के विद्यमान् गुणों का अपलाप करता है।
(ठाणांग ४ सूत्र ३७०) २४६--गुण प्रकाश के चार स्थान:---
चार प्रकार से दूसरे के विद्यमान गुण प्रकाशित किए जाते हैं। (१) अभ्यास अर्थात् आग्रह वश, अथवा वर्णन किए जाने
वाले पुरुष के समीप में रहने से । (२) दूसरे के अभिप्राय के अनुकूल व्यवहार करके के लिए। (३) इष्ट कार्य के प्रति दूसरे को अनुकूल करने के लिए। (४) किये हुए गुण प्रकाश रूप उपकार व अन्य उपकार का ___ बदला चुकाने के लिए।
(ठाणांग ४ सूत्र ३७०) २६०-चार प्रकार का नरक का आहारः-- (१) अङ्गारों के सदृश आहार-थोड़े काल तक दाह होने से । (२) भोभर के सदृश आहार-अधिक काल तक दाह होने से। (३) शीतल आहार-शीत वेदना उत्पन्न करने से। (४) हिम शीतल आहार-अत्यन्त शीत वेदना जनक होने से ।
(ठाणांग ४ सूत्र ३४०)
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२४५
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २६१-चार प्रचार का तिर्यश्च का आहारः
कंकोपम-जैसे कंक पक्षी को मुश्किल से हज़म होने वाला आहार भी सुभक्ष होता है । और सुख से हजम हो जाता है। इसी प्रकार तिर्यश्च का सुभक्ष और सुखकारी
परिणाम वाला आहार कंकोपम आहार है। (२) बिलोपमः-जो आहार बिल की तरह गले में विना रस का
स्वाद दिए शीघ्र ही उतर जाता है । वह बिलोपम
आहार है। (३) मातङ्ग मांसोपमः अर्थात् जैसे चाण्डाल का मांस अस्पृश्य
होने से घृणा के कारण बड़ी मुश्किल से खाया जाता है। वैसे ही जो आहार मुश्किल से खाया जा सके वह मातङ्ग
मांसोपम आहार है। (४) पुत्र मांसोपम-जैसे स्नेह होने से पुत्र का मांस बहुत ही
कठिनाई के साथ खाया जाता है। इसी प्रकार जो आहार बहुत ही मुश्किल से खाया जाय वह पुत्र मांसोपम आहार है।
(ठाणांग ४ सूत्र ३४०) २६२-चार प्रकार का मनुष्य का आहारः
(१) अशन (२) पान ।। (३) खादिम (४) स्वादिम । (१) दाल, रोटी, भात वगैरह आहार अशन कहलाता है। (२) पानी वगैरह आहार यानि पेय पदार्थ पान है।
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२४६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(३) फल, मेवा वगैरह आहार खादिम कहलाता है । (४) पान, सुपारी, इलायची वगैरह आहार स्वादिम है । (ठाणांग ४ सूत्र ३४०)
२६३ - देवता का चार प्रकार का आहार : ----
(१) शुभ वर्ण (२) शुभ गन्ध स्पर्श वाला देवता का आहार होता है ।
(३) शुभ रस (४) शुभ
(ठाणांग ४ सूत्र ३४०)
२६४ चार भाण्ड (पण्य वस्तु):(१) गणिम -- जिस चीज का गिनती से व्यापार होता है वह गणिम है । जैसे नारियल वगैरह ।
(२) धरिम - जिस चीज का तराजु में तोल कर व्यवहार अर्थात् लेन देन होता है । जैसे गेहूं, चावल, शकर वगैरह |
1
(३) मेय-- जिस चीज का व्यवहार या लेन देन पायली आदि से या हाथ, गज आदि से नाप कर होता है, वह मेय है । जैसे कपड़ा वगैरह । जहाँ पर धान वगैरह पायली आदि से माप कर लिए और दिए जाते हैं। वहां पर वे भी मेय हैं। (४) परिच्छेद्य-गुण की परीक्षा कर जिस चीज का मूल्य स्थिर किया जाता है और बाद में लेन देन होता है । उसे परिच्छेद्य कहते हैं । जैसे जवाहरात । |
बढ़िया वस्त्र वगैरह जिनके गुण की परीक्षा प्रधान है, वे भी परिच्छेद्य गिने जाते हैं
1
( ज्ञाता सूत्र प्रथम श्रुत स्कन्ध अध्याय ८ )
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २६५ चार व्याधि
(१) वात की व्याधि । (२) पित्त की व्याधि । (३) कफ की व्याधि। (४) सन्निपातज व्याधि ।
(ठाणांग ४ सूत्र ३४३) २६६-चार पुद्गल परिणामः
पुद्गल का परिणाम अर्थात् एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाना चार प्रकार से होता है । (१) वर्ण परिणाम । (२) गन्ध परिणाम। (३) रस परिणाम। (४) स्पर्श परिणाम।
(ठाणांग ४ सूत्र २६५) १६७-चार प्रकार से लोक की व्यवस्था है:(१) आकाश पर घनवात, तनुवात, रूपवात (वायु ) रहा
हुआ है। (२) वायु पर घनोदधि रहा हुआ है। (३) घनोदधि पर पृथ्वी रही हुई है। (४) पृथ्वी पर त्रस और स्थावर प्राणी रहे हुए हैं।
(ठाणांग ४ सूत्र २८६) २६८-चार कारणों से जीव और पुद्गल लोक के बाहर जाने
में असमर्थ हैं:(१) गति के अभाव से (२) निरुपग्रह होने से ।
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२४८
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (३) रुक्षता से (४) लोक मर्यादा से । (१) गति के अभाव से:-जीव और पुद्गल का लोक से बाहर
जाने का स्वभाव नहीं है । जैसे दीप शिखा स्वभाव से ही
नीचे को नहीं जाती। (२) निरुपग्रह होने से:-लोक के बाहर धर्मास्तिकाय का
अभाव है । जीव और पुद्गल के गमन में सहायक धर्मास्तिकाय का अभाव होने से ये लोक से बाहर नहीं जा
सकते । जैसे विना गाड़ी के पा पुरुष नहीं जा सकता। (३) रुक्षता से:-लोक के अन्त तक जाकर पुद्गल इस प्रकार
से रुखे हो जाते हैं कि आगे जाने के लिए उनमें सामर्थ्य ही नहीं रहता । कर्म पुद्गलों के रूखे हो जाने पर जीव भी वैसे ही हो जाते हैं। अत: वे भी लोक के बाहर नहीं जा सकते । सिद्ध जीव तो धर्मास्तिकाय का आधार न
होने से ही आगे नहीं जाते। (४) लोक मर्यादा से:-लोक मर्यादा इसी प्रकार की है।
जिससे जीव और पुद्गल लोक से बाहर नहीं जाते। जैसे सूर्य मण्डल अपने मार्ग से दूसरी ओर नहीं जाता।
(ठाणांग ४ सूत्र ३३७) २६६-भाषा के चार भेदः
(१) सत्य भाषा (२) असत्य भाषा। (३) सत्यामृषा भाषा (मिश्र भाषा)। (४) असत्यामृषा भाषा (व्यवहार भाषा)।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
२४६ (१) सत्य भाषा:-विद्यमान जीवादि पदार्थों का यथार्थ स्वरूप
कहना सत्य भाषा है । अथवा सन्त अर्थात् मुनियों के लिए
हितकारी निरवद्य भाषा सत्य भाषा कही जाती है। (२) असत्य भाषा:-जो पदार्थ जिस स्वरूप में नहीं हैं.। उन्हें
उस स्वरूप से कहना असत्य भाषा है । अथवा सन्तों के लिए अहितकारी सावध भाषा असत्य भाषा कही जाती
(३) सत्यामृषा भाषा (मिश्र भाषा):-जो भाषा सत्य है और
मृषा भी है । वह सत्यामृषा भाषा है। (४) असत्यामृषा भाषा (व्यवहार भाषा):-जो भाषा न सत्य
है और न असत्य है । ऐसी आमन्त्रणा, आज्ञापना आदि की व्यवहार भाषा असत्यामृषा भाषा कही जाती है । असत्यामृषा भाषा का दूसरा नाम व्यवहार भाषा है ।
(पन्नवणा भाषा पद ११) २७०- असत्य वचन के चार प्रकार:
जो वचन सन्त अर्थात् प्राणी, पदार्थ एवं मुनि के लिए हितकारी न हो वह असत्य वचन है।
अथवा:प्राणियों के लिए पीडाकारी एवं घातक, पदार्थों का अयथार्थ स्वरूप बताने वाला और मुमुक्षु मुनियों के मोक्ष
का घातक वचन असत्य वचन है। असत्य वचन के चार मेदः
(१) सद्भाव प्रतिषेध (२) असद्भावोद्भावन । (३) अर्थान्तर (४) गरे ।
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२५०
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला (१) सद्भाव प्रतिषेध-विद्यमान वस्तु का निषेध करना सद्भाव
प्रतिषेध है । जैसे यह कहना कि आत्मा, पुण्य, पाप आदि
नहीं हैं। (२) असद्भावोद्भावन-अविद्यमान वस्तु का अस्तित्व बताना
असद्भावोद्भावन है । जैसे यह कहना कि आत्मा सर्व व्यापी
है। ईश्वर जगत् का कर्ता है । आदि । (३) अर्थान्तर-एक पदार्थ को दूसरा पदार्थ बताना अर्थान्तर
है। जैसे गाय को घोड़ा बताना। (४) गर्हा-दोष प्रकट कर किसी को पीडाकारी वचन कहना गर्दा (असत्य) है । जैसे काणे को काणा कहना ।
(दशवैकालिक सूत्र अध्ययन ६) २७ : चतुष्पद तिर्यश्च पञ्चेन्द्रिय के चार भेदः--
(१) एक खुर (२) द्विखुर
(३) गण्डी पद (४) सनख पद (१) एक खुर-जिसके पैर मैं एक खुर हो । वह एक खुर
चतुष्पद है । जैसे घोड़ा, गदहा वगैरह । (२) द्विखुर-जिसके पैर में दो खुर हो । वह द्विखुर चतुष्पद है
जैसे गाय, भैंस वगैरह। (३) गण्डीपद-सुनार की एरण के समान चपटे पैर वाले
चतुष्पद गण्डीपद कहलाते हैं। जैसे हाथी, ऊँट वगैरह । (४) सनख पद-जिनके पैरों में नख हों, वे सनख चतुष्पद कहलाते हैं। जैसे सिंह, चीता, कुत्ता वगैरह ।
(ठाणांग ४ सूत्र ३५०)
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २७२-पक्षी चारः
(१) चर्म पक्षी। (२) रोम पक्षी।
(३) समुद्गक पदी। (४) वितत पक्षी । (१) चर्म पक्षी:-चर्ममय पङ्ख वाले पक्षी चर्मपक्षी कहलाते हैं ।
जैसे चिमगादड़ वगैरह । (२) रोमपदी:-रोम मय पङ्ख वाले पक्षी रोम पक्षी कहलाते हैं ।
जैसे हंस वगैरह । (३) समुद्गकपक्षी:--डब्बे की तरह बन्द पङ्ख वाले पक्षी
समुद्गकपक्षी कहलाते हैं। (४) विततपक्षी:-फैले हुए पल वाले पक्षी विततपक्षी कहलाते
हैं। समुद्गकपक्षी और विततपक्षी ये दोनों जाति के पक्षी अढाई द्वीप के बाहर ही होते हैं ।
(ठाणांग ४ सूत्र ३५०) २७३-जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत पर चार वन हैं:--
(१) भद्रशाल वन । (२) नन्दन वन । (३) सौमनस वन । (४) पाण्डक वन । ये चारों वन बड़े ही मनोहर एवं रमणीय हैं।
(ठाणांग ४ सूत्र ३०२)
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(३) आकाशास्ति काय, (४) जीवास्तिकाय । (५) पुद्गुलास्तिकाय ।
(१) धर्मास्तिकायः -- गति परिणाम वाले जीव और पुद्गलों की गति में जो सहायक हो उसे धर्मास्तिकाय कहते हैं । जैसे पानी, मछली की गति में सहायक होता है । (२) अधर्मास्तिकाय: -- स्थिति परिणाम वाले जीव और पुद्गलों की स्थिति में जो सहायक (सहकारी) हो उसे अधर्मास्तिकाय कहते हैं । जैसे विश्राम चाहने वाले थके हुए पथिक के ठहरने में छायादार वृक्ष सहायक होता है । (३) आकाशास्तिकाय: - जो जीवादि द्रव्यों को रहने के लिए अवकाश दे वह आकाशास्तिकाय है ।
२५४
(४) जीवास्तिकाय: - जिसमें उपयोग और वीर्य्य दोनों पाये जाते हैं उसे जीवास्तिकाय कहते हैं ।
( उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २८ गाथा ११ (५) पुद्गलास्तिकाय: - जिस में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हों और जो इन्द्रियों से ग्राह्य हो तथा विनाश धर्म वाला हो वह पुद्गलास्तिकाय है । २७७ -- अस्तिकाय के पाँच पाँच भेद:
(ठाणांग ५ सूत्र ४४१ )
प्रत्येक अस्तिकाय के द्रव्य, क्षेत्र, काल, गुण की अपेक्षा से पांच पांच भेद हैं। धर्मास्तिकाय के पाँच प्रकार
(१) द्रव्य की अपेक्षा धर्मास्तिकाय लोक परिमाण अर्थात् सर्वलोकव्यापी है यानि लोकाकाश की तरह असंख्यात
भाव और
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह प्रदेशी है। (३) काल की अपेक्षा धर्मास्तिकाय त्रिकाल स्थायी है । यह भूत
काल में रहा है । वर्तमान काल में विद्यमान है और भविष्यत् काल में भी रहेगा । यह ध्रुव है, नित्य है,शाश्वत
है, अक्षय एवं अव्यय है तथा अवस्थित है। (४) भाव की अपेक्षा धर्मास्तिकाय वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श
रहित है । अरूपी है तथा चेतना रहित अर्थात् जड़ है। (५) गुण की अपेक्षा गति गुण वाला है अर्थात् गति परिणाम
वाले जीव और पुद्गलों की गति में सहकारी होना इसका गुण है।
(ठाणांग ५ सूत्र ४४१) अधर्मास्तिकाय के पाँच प्रकार--
अधर्मास्तिकाय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा धर्मास्तिकाय जैसा ही है।
गुण की अपेक्षा अधर्मास्तिकाय स्थिति गुण वाला है। आकाशास्तिकाय के पाँच प्रकारः
आकाशास्तिकाय द्रव्य, काल और भाव की अपेक्षा धर्मास्तिकाय जैसा ही है।
क्षेत्र की अपेक्षा आकाशास्तिकाय लोकालोक व्यापी है और अनन्त प्रदेशी है । लोकाकाश धर्मास्तिकाय की तरह असंख्यात प्रदेशी है।
गुण की अपेक्षा आकाशास्तिकाय अवगाहना गुण वाला है अर्थात् जीव और पुद्गलों को अवकाश देना ही इसका गुण है।
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२५६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला जीवास्तिकाय के पांच प्रकार१-द्रव्य की अपेक्षा जीवास्तिकाय अनन्त द्रव्य रूप है क्योंकि
पृथक् पृथक् द्रव्य रूप जीव अनन्त हैं । २-क्षेत्र की अपेक्षा जीवास्तिकाय लोक परिमाण है । एक जीव
की अपेक्षा जीव असंख्यात प्रदेशी है और सब जीवों की
अपेक्षा अनन्त प्रदेशी है। ३-काल की अपेक्षा जीवास्तिकाय आदि अन्त रहित है अर्थात्
ध्रुव, शाश्वत और नित्य है । ४-भाव की अपेक्षा जीवास्तिकाय वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श
रहित है । अरूपी तथा चेतना गुण वाला है। ५--गुण की अपेक्षा जीवास्तिकाय उपयोग गुण वाला है। पुद्गलास्तिकाय के पाँच प्रकार:(१) द्रव्य की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय अनन्त द्रव्य रूप है। (२) क्षेत्र की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय लोक परिमाण है और
अनन्त प्रदेशी है। (३) काल की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय आदि अन्त रहित अर्थात्
ध्रुव, शाश्वत और नित्य है। (४) भाव की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श
सहित है यह रूपी और जड़ है। (५) गुण की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय का ग्रहण गुण है अर्थाद
औदारिक शरीर आदि रूप से ग्रहण किया जाना या इन्द्रियों से ग्रहण होना अर्थात् इन्द्रियों का विषय होना
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
২৩ या परस्पर एक दूसरे से मिल जाना पुद्गलास्तिकाय का
(ठाणांग ५ सूत्र ४४१) २७८-गति पाँच:
(१) नरक गति। (२) तिर्यञ्च गति । (३) मनुष्य गति । (४) देव गति ।
(५) सिद्ध गति । नोट:-गति नाम कर्म के उदय से पहले की चार गतियाँ होती
हैं। सिद्ध गति, गति नाम कर्म के उदय से नहीं होती क्योंकि सिद्धों के कर्मों का सर्वथा अभाव है। यहाँ गति शब्द का अर्थ जहाँ जीव जाते हैं ऐसे क्षेत्र विशेष से है। चार गतियों की व्याख्या १३१ वें बोल में दे दी गई है।
__ (ठाणांग ५ सूत्र ४४२) २७४-मोक्ष प्राप्ति के पाँच कारण(१) काल
(२) स्वभाव (३) नियति, (४) पूर्वकृत कर्मक्षय।
(५) पुरुषकार (उद्योग)। इन पांच कारणों के समुदाय से मोक्ष की प्राप्ति होती है । इनमें से एक के भी न होने पर मोक्ष की प्राप्ति होना सम्भव नहीं है।
विना काल लब्धि के मोक्ष रूप कार्य की सिद्धि नहीं होती है। भव्य जीव काल (समय) पाकर ही मोक्ष प्राप्त करते हैं । इस लिए मोक्ष प्राप्ति में काल की आवश्यकता है।
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२५८
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
यदि काल को ही कारण मान लिया जाय तो अभव्य भी मुक्त हो जाय । पर अभव्यों में मोक्ष प्राप्ति का स्वभाव नहीं है । इस लिए वे मोक्ष नहीं पा सकते । भव्यों के मोक्ष प्राप्ति का स्वभाव होने से ही वे मोक्ष पाते हैं ।
यदि काल और स्वभाव दोनों ही कारण माने जाँय तो सब भव्य एक साथ मुक्त हो जाँय | परन्तु नियति अर्थात् भवितव्यता (होनहार ) का योग न होने से ही सभी भव्य एक साथ मुक्त नहीं होते । जिन्हें काल और स्वभाव के साथ नियति का योग प्राप्त होता है । वे ही मुक्त होते हैं ।
काल, स्वभाव और नियति इन तीनों को ही मोक्ष प्राप्ति के कारण मान लें तो श्रेणिक राजा मोक्ष प्राप्त कर लेते । परन्तु उन्होंने मोक्ष के अनुकूल उद्योग कर पूर्वकृत कर्मों का क्षय नहीं किया । इस लिए वे उक्त तीन कारणों का योग प्राप्त होने पर भी मुक्त न हो सके। इस लिए पुरुषार्थ और पूर्वकृत कर्मों का चय-- ये दोनों भी मोक्ष प्राप्ति के कारण माने गये हैं ।
काल, स्वभाव, नियति और पुरुषार्थ से ही मोक्ष प्राप्त हो जाता तो शालिभद्र मुक्त हो जाते । परन्तु पूर्वकृत शुभ कर्म अवशिष्ट रह जाने से वे मुक्त न हो सके। इस लिए पूर्वकृत कर्म-क्षय भी मोक्ष प्राप्ति में पाँचवाँ कारण है ।
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૨e
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह मरुदेवी माता विना पुरुषार्थ किये मुक्त हुई हों यह बात नहीं है । वे भी क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो कर शुक्ल ध्यान रूप अन्तरङ्ग पुरुषार्थ करके ही मुक्त हुई थीं।।
इस प्रकार उक्त पाँच कारणों के ममवाय से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
(आगम सार)
(भावना शतक) २८०-पाँच निर्याण मार्ग:
मरण समय में जीव के निकलने का मार्ग निर्याण मार्ग कहलाता है। निर्याण-मार्ग पाँच हैं:
(१) दोनों पैर (२) दोनों जानु (३) छाती
(४) मस्तक (५) सर्व अङ्ग। जो जीव दोनों पैरों से निकलता है वह नरकगामी होता है। दोनों जानुओं से निकलने वाला जीव तिर्यञ्च गति में जाता है।
छाती से निकलने वाला जीव मनुष्य गति में जाता है। मस्तक से निकलने वाला जीव देवों में जाकर पैदा होता है। जो जीव सभी अंगों से निकलता है । वह जीव सिद्ध गति में जाता है।
(ठाणांग ५ सूत्र ४६१) २८१-जाति की व्याख्या और मेदः
अनेक व्यक्तियों में एकता की प्रतीति कराने वाले
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२६२
श्री सेठिया जैन मन्थमाला जघन्य एक समय उत्कृष्ट छः श्रावलिका और सात समय की होती है । सास्वादान समकित में अनन्तानुबन्धी कषायों का उदय रहने से जीव के परिणाम निर्मल नहीं रहते । इस में तत्त्वों में अरुचि अव्यक्त (अप्रगट)रहती है और मिथ्यात्व में व्यक्त (प्रकट)। यही दोनों में अन्तर है । सास्वादान समकित का अन्तर पड़े तो जघन्य अन्त मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन अद्ध पुद्गल परावर्तन काल का । यह समकित भी एक भव में जघन्य एक बार उत्कृष्ट दो बार तथा अनेक भवों में
जघन्य एक बार उत्कृष्ट पाँच बार प्राप्त हो सकती है। (३) क्षायोपशमिक समाकित-अनन्तानुबन्धी कषाय तथा उदय प्राप्त
मिथ्यात्व को क्षय करके अनुदय प्राप्त मिथ्यात्व का उपशम करते हुए या उसे सम्यक्त्व रूप में परिणत करते हुए तथा सम्यक्त्व मोहनीय को वेदते हुए जीव के परिणाम विशेष को क्षायोपशमिक समकित कहते हैं । क्षायोपशमिक समकित की स्थिति जघन्य अन्त मुहूर्त और उत्कृष्ट ६६ सागरोपम से कुछ अधिक है । इसका अन्तर पड़े तो जघन्य अन्तमुहूर्त का उत्कृष्ट देशोन अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल का । यह समकित एक भव में जघन्य एक बार उत्कृष्ट प्रत्येक हज़ार बार और अनेक भवों में जघन्य दो बार
उत्कृष्ट असंख्यात बार होती है। (४) वेदक समकित-क्षायोपशमिक समकित वाला जीव सम्यक्त्व
मोहनीय के पुञ्ज का अधिकांश क्षय करके जब सम्यक्त्व मोहनीय के आखिरी पुद्गलों को वेदता है । उस समय होने
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह वाले आत्म परिणाम को वेदक समकित कहते हैं । दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि क्षायिक समकित होने से ठीक अव्यवहित पहले क्षण में होने वाले बायोपशमिक समकितधारी जीव के परिणाम को वेदक समकित कहते हैं। वेदक समकित की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट एक समय की है। एक समय के बाद वेदक समकित क्षायिक समकित में परिणत हो जाता है। इसका अन्तर नहीं पड़ता क्योंकि वेदक समकित के बाद निश्चय पूर्वक दायिक समकित होता
ही है । वेदक समकित जीव को एक बार ही आता है। (५) क्षायिक समकित-अनन्तानुबन्धी चार कषाय और दर्शन
मोहनीय की तीन-इन सात प्रकृतियों के क्षय से होने वाला
आत्मा का तत्त्वरुचि रूप परिणाम क्षायिक समकित कहलाता है । क्षायिक समकित सादि अनन्त है । इसका अन्तर नहीं पड़ता । यह समकित जीव को एक ही बार आता है और आने के बाद सदा बना रहता।
(कर्म ग्रन्थ भाग १ गाथा १५) २८३--समकित के पांच लक्षण:(१) सम।
(२) संवेग। (३) निर्वेद।
(४) अनुकम्पा। (५) आस्तिक्य। (१) सम-अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय न होना सम
कहलाता है । कषाय के अभाव से होने वाला शान्ति-भाव भी सम कहा जाता है।
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२६४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (२) संवेग-मनुष्य एवं देवता के सुखों का परिहार करके मोक्ष के सुखों की इच्छा करना संवेग है।
अथवा:विरति परिणाम के कारण रूप मोक्ष की अभिलाषा का
अध्यवसाय संवेग है। (३) निर्वेद-संसार से उदासीनता रूप वैराग्य भाव का होना
निर्वेद कहलाता है। (४) अनुकम्पा--निष्पक्षपात होकर दुःखी जीवों के दुःखों को
मिटाने की इच्छा अनुकम्पा है । यह अनुकम्पा द्रव्य और भाव से दो प्रकार की है।
शक्ति होने पर दुःखी जीवों के दुःख दूर करना द्रव्य अनुकम्पा है । दुःखी जीवों के दुःख देख कर दया से हृदय
का कोमल हो जाना भाव अनुकम्पा है। (५) आस्तिक्य-जिनेन्द्र भगवान् के फरमाये हुए अतीन्द्रिय धर्मास्तिकाय, आत्मा, परलोक आदि पर श्रद्धा रखना आस्तिक्य है।
(धर्म संग्रह प्रथम अधिकार) २८४-समकित के पाँच भूषणः
(१) जिन-शासन में निपुण होना । (२) जिन-शासन की प्रभावना करना यानि जिन-शासन के गुणों को दिपाना । जिन-शासन की महत्ता प्रगट हो ऐसे कार्य करना। (३) चार तीर्थ की सेवा करना।
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२६५
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (४) शिथिल पुरुषों को उपदेशादि द्वारा धर्म में स्थिर करना। (५) अरिहन्त, साधु तथा गुणवान पुरुषों का आदर, सत्कार करना और उनकी विनय भक्ति करना ।
(धर्म संग्रह प्रथम अधिकार) २८५--समकित के पांच अतिचार:
(१) शङ्का (२) काँक्षा । (३) विचिकित्सा (४) पर पाषंडी प्रशंसा ।
(५) पर पापंडी संस्तव । (१) शङ्काः-चुद्धि के मन्द होने से अरिहन्त भगवान् से निरु.
पित धर्मास्तिकाय आदि गहन पदार्थों की सम्यक धारणा
न होने पर उनमें संदेह करना शङ्का है। (२) काँक्षा:-चौद्ध आदि दर्शनों की चाह करना काँक्षा है। (३) विचिकित्सा:-युक्ति तथा आगम संगत क्रिया विषय में
फल के प्रति संदेह करना विचिकित्सा है । जैसे नीरम तप आदि क्रिया का भविष्य में फल होगा या नहीं ?
शङ्का तत्त्व के विषय में होती है और विचिकित्सा क्रिया के फल के विषय में होती है। यही दोनों में
अन्तर है। (४) पर पाषंडी प्रशंसा:-सर्वज्ञ प्रणीत मत के सिवा अन्य मत
वालों की प्रशंसा करना, पर पाषंडी प्रशंसा है। (५) पर पापंडी संस्तवः-सर्वज्ञ प्रणीत मत के सिवा अन्य मत
वालों के साथ संवास, भोजन, आलाप, संलाप आदि रूप
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२६६
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह परिचय करना पर पापंडी संस्तव कहलाता है।
(उपासक दशांग सूत्र अध्ययन १)
(हरिभद्रीय आवश्यक पृष्ठ ८१० से १७) २८६-दुर्लभ बोधि के पाँच कारण:
पांच स्थानों से जीव दुर्लभ बोधि योग्य मोहनीय ___ कर्म बांधना है। (१) अरिहन्त भगवान् का अवर्ण वाद बोलने से। (२) अरिहन्त भगवान द्वारा प्ररूपित श्रुत चारित्र रूप धर्म का ___अवर्णवाद बोलने से। (३) प्राचार्य उपाध्याय का अवर्णवाद बोलने से । (४) चतुर्विध श्री संघ का अवर्णवाद बोलने से । (५) भवान्तर में उत्कृष्ट नप और ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान किये हुए देवों का अवर्णवाद बोलने से।
(ठाणांग ५ सूत्र ४२६) २८७-मुलभ बोधि के पांच बोल:(१) अग्हिन्त भगवान् के गुणग्राम करने से । (२) अरिहन्त भगवान से प्ररूपित श्रुत चारित्र धर्म का गुणानु
वाद करने से। (३) आचार्य उपाध्याय के गुणानुवाद करने से ।। (४) चतुर्विध श्री संघ की श्लाघा एवं वर्णवाद करने से । (५) भवान्तर में उत्कृष्ट तप और ब्रह्मचर्य का सेवन किये हुए
देवों का वर्णवाद, श्लाघा करने से जीव सुलभ बोधि के अनुरूप कर्म बांधते हैं।
(ठाणांग ५ सूत्र ४२६)
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२६७
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला २८८-मिथ्यात्व पाँच:
मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से विपरीत श्रद्धान रूप जीव के परिणाम को मिथ्यात्व कहते हैं। मिथ्यात्व के पांच भेदः
(१) आभिग्रहिक (२) अनाभिग्रहिक । (३) आभिनिवेशिक (४) सांशयिक ।
(५) अनाभोगिक । (१) आभिग्रहिक मिथ्यात्वः तत्त्व की परीक्षा किये विना ही
पक्षपात पूर्वक एक सिद्धान्त का आग्रह करना और अन्य
पक्ष का खण्डन करना आभिग्रहिक मिथ्यात्व है। (२) अनाभिग्रहिक मिथ्यात्वःगुण दोष की परीक्षा किये
विना ही सब पक्षों को बराबर समझना अनाभिग्रहिक
मिथ्यात्व है। (३) आभिनिवेशिक मिथ्यात्वः-अपने पक्ष को असत्य जानते
हुए भी उसकी स्थापना के लिए दुरभिनिवेश (दुराग्रह-हठ)
करना आभिनिवेशिक मिथ्यात्व है। (४) सांशयिक मिथ्यात्वः-इस स्वरूप वाला देव होगा या
अन्य स्वरूप का ? इसी तरह गुरु और धर्म के विषय में
संदेह शील बने रहना सांशयिक मिथ्यात्व है। (५) अनाभोगिक मिथ्यात्वः-विचार शून्य एकेन्द्रियादि तथा
विशेष ज्ञान विकल जीवों को जो मिथ्यात्व होता है । वह अनाभोगिक मिथ्यात्व कहा जाता है।
(धर्म संग्रह अधिकार २) (कर्म प्रन्थ भाग ४)
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२६८
श्रो सेठिया जैन ग्रन्थमाला
२८६-पांच आश्रवः
जिनसे आत्मा में आठ प्रकार के कर्मों का प्रवेश होता है वह आश्रव है।
अथवा:जीव रूपी तालाब में कर्म रूप पानी का आना आश्रव है।
अथवा:जसे जल में रही हुई नौका (नाव) में छिद्रों द्वारा जल प्रवेश होता है । इसी प्रकार जीवों की पाँच इन्द्रिय, विषय, कषायादि रूप छिद्रों द्वारा कर्म रूप पानी का प्रवेश होता है । नाव में छिद्रों द्वारा पानी का प्रवेश होना द्रव्य आश्रव है और जीव में विषय कपायादि से कर्मों का प्रवेश होना
भावाश्रव कहा जाता है। आश्रव के पांच भेदः
(१) मिथ्यात्व (२) अविति। (३) प्रमाद
(४) कषाय ।
(५) योग। (१) मिथ्यात्वः-मोहवश तत्त्वार्थ में श्रद्धा न होना या विपरीत
श्रद्धा होना मिथ्यात्व कहा जाता है। (२) अविरतिः-प्राणातिपात आदि पाप से निवृत्त न होना
अविरति है। (३) प्रमादः-शुभ उपयोग के अभाव को या शुभ कार्य में यन,
उद्यम न करने को प्रमाद कहते हैं।
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२६६
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
अथवा:जिससे जीव सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र रूप मोक्ष मार्ग के प्रति उद्यम करने में शिथिलता करता है
वह प्रमाद है। (४) कषायः-जो शुद्ध स्वरूप वाली आत्मा को कलुषित करते हैं। अर्थात् कर्म मल से मलीन करते हैं वे कषाय हैं ।
अथवाःकष अर्थात् कर्म या संसार की प्राप्ति या वृद्धि जिस से हो वह कषाय है।
अथवा:कषाय मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला जीव का क्रोध, मान, माया लोभ रूप परिणाम कषाय
कहलाता है। (५) योग:-मन,वचन,काया की शुभाशुभ प्रवृति को योग कहते हैं।
___ श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घाणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय इन पाँच इन्द्रियों को वश में न रख कर शब्द रूप, गन्ध, रस और स्पर्श विषयों में इन्हें स्वतन्त्र रखने से भी पांच आश्रव होते हैं।
प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह ये पाँच भी आश्रव हैं।
(ठाणांग ५ सूत्र ४१८ )
(समवायांग) २४०-दण्ड की व्याख्या और भेदः
जिससे आत्मा व अन्य प्राणी दंडित हो अर्थात् उनकी
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२७०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला हिंसा हो इस प्रकार की मन, वचन, काया की कलुषित प्रवृत्ति को दण्ड कहते हैंदण्ड के पांच भेद(१) अर्थ दण्ड । (२) अनर्थ दण्ड । (३) हिंसा दण्ड । (४) अकम्माद्दएड ।
(५) दृष्टि विपर्यास दण्ड । (१) अर्थ दण्ड-स्व, पर या उभय के प्रयोजन के लिये त्रम
स्थावर जीवों की हिंसा करना अर्थ दण्ड है। (२) अनर्थ दण्ड-अनर्थ अर्थात् विना प्रयोजन के.त्रम स्थावर
जीवों की हिंसा करना अनर्थ दण्ड है। (३) हिंसा दण्ड--इन प्राणियों ने भूतकाल में हिंसा की है।
वर्तमान काल में हिंसा करते हैं और भविष्य काल में भी करेंगे यह सोच कर सर्प, विच्छू, शेर आदि जहरीले तथा हिंसक प्राणियों का और वैरी का वध करना हिंसा
(४) अकस्माद्दण्ड-एक प्राणी के वध के लिए प्रहार करने पर
दूसरे प्राणी का अकस्मात्-विना इरादे के वध हो जाना
अकस्मादण्ड है। (५) दृष्टि विपर्यास दण्ड-मित्र को वैरी समझ कर उसका वध कर देना दृष्टिविपर्यास दण्ड है।
(ठाणंग ५ सूत्र ४१८) २६१ प्रमाद पाँच:
(१) मद्य। (२) विषय ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
२७१ (३) कषाय। (४) निद्रा ।
(५) विकथा । मज्जं विसय कसाया, निद्दा विगहा य पञ्चमी भणिया । ए ए पञ्च पमाया, जीवं पाडन्ति संसारे ॥१॥ भावार्थ:--मद्य, विषय, कपाय, निद्रा और विकथा ये
पांच प्रमाद जीव को संसार में गिराते हैं। (१) मद्यः-शराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन करना मद्य
प्रमाद है । इससे शुभ परिणाम नष्ट होते हैं और अशुभ परिणाम पैदा होते हैं । शराब में जीवों की उत्पत्ति होने से जीव हिंसा का भी महापाप लगता है । लज्जा, लक्ष्मी, बुद्धि, विवेक आदि का नाश तथा जीव हिंसा आदि मद्यपान के दोष प्रत्यक्ष ही दिखाई देते हैं तथा परलोक में यह प्रमाद दुर्गति में ले जाने वाला है । एक ग्रन्थकार ने ने मद्यपान के दोष निम्न श्लोक में बताये हैंवैरूप्यं व्याधिपिण्डः स्वजनपरिभवः कार्यकालातिपातो । विद्वषो ज्ञाननाशः स्मृतिमतिहरणं विप्रयोगश्च सद्भिः॥ पारुष्यं नीचसेवा कुलबलविलयो धर्मकामार्थहानिः । कष्टं वै षोडशेने निरुपचयकरा मद्यपानस्य दोषाः ॥ भावार्थ:-मद्यपान से शरीर कुरूप और बेडौल हो जाता है। व्याधियों शरीर में घर कर लेती हैं। घर के लोग तिरस्कार करते हैं। कार्य का उचित समय हाथ से निकल जाता है। द्वेष उत्पन्न होता है । ज्ञान का नाश होता है। स्मृति और बुद्धि का नाश हो जाता है। सज्जनों से जुदाई
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२७२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला होती है। वाणी में कठोरता आ जाती है । नीचों की सेवा करनी पड़ती है। कुल की हीनता होती है। और शक्ति का हास हो जाता है। धर्म, काम एवं अर्थ की हानि होती है । इस प्रकार आत्मा को गिराने वाले मद्य पान के सोलह कष्ट दायक दोष हैं।
(हरिभद्रीयाष्टक टीका) (२) विषय प्रमादः-पाँच इन्द्रियों के विषय-शब्द, रूप, गन्ध, रम और स्पर्श-जनित प्रमाद विषय प्रमाद है ।।
शब्द, रूप आदि में आमत प्राणी विषाद को प्राप्त होने हैं । इम लिए शब्दादि विषय कहे जाने हैं ।
अथवा:शब्द, रूप आदि भोग के समय मधुर होने से तथा परिणाम में अति कटुक होने से विष से उपमा दिये जाते हैं। इस लिये ये विषय कहलाते हैं।
इस विषय प्रमाद से व्याकुल चित्त वाला जीव हिताहित के विवेक से शून्य हो जाता है। इस लिये अकृत्य का सेवन करता हुआ वह चिर काल तक दुःख रूपी अटवी में भ्रमण करता रहता है।
शब्द में आसक्त हिरण व्याध का शिकार बनता है। रूप मोहित पतंगिया दीप में जल मरता है । गन्ध में गृद्ध भँवरा सूर्यास्त के समय कमल में ही बन्द होकर नष्ट हो जाता है । रस में अनुरक हुई मछली कांटे में फँस फर मृत्यु का शिकार बनती है । स्पर्श सुख में आसक्त हाथी
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
२७३
स्वतन्त्रता सुख से वञ्चित होकर बन्धन को प्राप्त होता है । इस प्रकार जितेन्द्रिय, विषय प्रमाद में प्रमत, जीवों के अनेक अपाय होते हैं । एक एक विषय के वशीभूत होकर जीव उपरोक्त रीति से विनाश को पाते हैं। तो फिर पांचों इन्द्रियों के विषय में प्रमादी जीवों के दुःखों का तो कहना ही क्या ?
विपयामक्त जीव विषय का उपभोग करके भी कभी तृप्त नहीं होता । विषय भोग से विषयेच्छा शान्त न होकर उसी प्रकार बढ़ती है जैसे अग्नि घी से । विपयासवत जीव के ऐहिक दुःख यहाँ प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं और परलोक में नरक तिर्यञ्च योनि में महा दुःख भोगने पड़ते हैं । इस लिए विषय प्रमाद से निवृत्त होने में ही श्रेय है ।
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(३) कषाय प्रमादः -- क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषाय का सेवन करना कषाय प्रमाद है । क्रोधादि का स्वरूप इस प्रकार है क्रोध-क्रोध शुभ परिणामों का नाश करता है । वह सर्व प्रथम अपने स्वामी को जलाता है और बाद में दूसरों को । क्रोध से विवेक दूर भागता है और उसका साथी अविवेक आकर जीव को कार्य में प्रवृत्त करता है । क्रोध सदाचार को दूर करता है और मनुष्य को दुराचार में के लिये प्रेरित करता है । क्रोध वह अग्नि है जो चिर काल से अभ्यस्त यम, नियम, तप आदि को क्षण भर में भस्म कर देती है । क्रोध के वश होकर द्वीयायन ऋषि ने स्वर्ग सरीखी सुन्दर द्वारिका नगरी को जला कर भस्म कर
प्रवृत्त होने
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२७४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला दिया। दोनों लोक बिगाड़ने वाला, पायमय, स्व-पर का अपकार करने वाला यह क्रोध प्राणियों का वास्तव में महान् शत्रु है । इस क्रोध को शान्त कग्ने का एक उपाय,
क्षमा है । मानः-कुल, जाति, बल, रूप, तप, विद्या, लाभ और ऐश्वर्य
का मान करना नीच गोत्र के बन्ध का कारण है । मान विवेक को भगा देता है और आत्मा को शील, मदाचार से गिरा देता है । वह विनय का नाश कर देता है और विनय के साथ ज्ञान का भी। फिर आश्चर्य तो यह है कि मान से जीव ऊँचा बनना चाहता है पर कार्य नीचे होने का करता है। इस लिए उन्नति के इच्छुक आत्मा को विनय का आश्रय लेना चाहिये और मान का परिहार करना चाहिये।
माया:--माया अविद्या की जननी है और अकीर्ति का घर है ।
माया पूर्वक सेवित तप संयमादि अनुष्ठान नकली सिक्के की तरह असार है और स्वप्न तथा इन्द्रजाल की माया के समान निष्फल है । माया शल्य है वह आत्मा को व्रतधारी नहीं बनने देती क्योंकि व्रती निःशल्य होता है माया इस लोक में तो अपयश देती है और परलोक में दुर्गति । ऋजुता अर्थात् सरलता धारण करने से माया कषाय नष्ट हो जाती है । इस लिये माया का त्याग कर सरलता को अपनाना चाहिये ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
२७५ लोभ कषायः-लोभ कषाय सब पापों का आश्रय है । इसके
पोषण के लिए जीव माया का भी आश्रय लेता है। सभी जीवों में जीने की इच्छा प्रबल होती है और मृत्यु से डरने हैं। किन्तु लोभ इसके विपरीत जीवों को ऐसे कार्यों में प्रवृत्त करता है । जिन में मदा मृत्यु का खतरा बना रहता है। यदि जीव वहीं मर गया तो लोभ के परिणाम स्वरुप उसे दुर्गति में दुःख भोगने पड़ते हैं। ऐसी अवस्था में उसका यहां का साग परिश्रम व्यर्थ हो जाता है । यदि उससे लाभ भी हो गया तो उसके भागी और ही होते हैं। अधिक क्या कहा जाय, लोभी आत्मा को स्वामी, गुरु, भाई, वृद्ध, स्त्री, बालक, क्षीण, दुर्बल अनाथ आदि की हत्या करने में भी हिचकिचाहट नहीं होती । संक्षेप में यों कह सकने हैं, कि शास्त्रकारों ने नरक गति के कारण रूप जो दोष बताये हैं। वे सभी दोष लोभ से प्रगट होते हैं। लोभ की औषधि सन्तोष है। इस लिए इच्छा का मंयमन कर संतो को
धारण करना चाहिये। (४) निद्रा प्रमादः--जिम में चेतना अस्पष्ट भाव को प्राप्त हो ऐमी
सोने की क्रिया निद्रा है। अधिक निद्रालु जीव न ज्ञान का उपार्जन कर सकता है और न धन का ही । ज्ञान और धन दोनों के न होने से वह दोनों लोक में दुःख का भागी होता है। निद्रा में संयम न रखने से यह प्रमाद सदा बढ़ता रहता है जिससे अन्य कर्तव्य कार्यों में बाधा पड़ती है। कहा भी है:
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श्री सेठिया जैन प्रन्धमाना वर्द्धन्ते पञ्च कौन्तेय ! सेव्यमानानि नित्यशः । आलस्यं मैथुनं निद्रा राधा क्रोधश्च पञ्चमः ॥१॥
हे अर्जुन ! आलस्य, मैथुन, निद्रा क्षुधा और क्रोध ये पांचों प्रमाद सेवन किये जाने से सदा बढ़ते रहते हैं।
इस लिए निद्रा प्रमाद का त्याग करना चाहिए । समय पर स्वास्थ्य के लिए आवश्यक निद्रा के मिया अधिक
निद्रा न लेनी चाहिये और अममय में नहीं सोना चाहिये । (५) विकथा प्रमादः-प्रमादी माधु गग द्वेष वश होकर जो
वचन कहता है वह विकथा है । स्त्री आदि के विषय की कथा करना भी विकथा है। नोट-विकथा का विशेष वर्णन १४८ वें बोल में दिया गया है।
(ठाणांग ६ सूत्र ५०० ) (धर्म संग्रह अधिकार २ पृष्ठ ८१)
(पञ्चाशक प्रथम गाथा २३) २६२-क्रिया की व्याख्या और उसके भेदःकर्म-बन्ध की कारण चेष्टा को क्रिया कहते हैं ।
अथवाःदुष्ट व्यापार विशेष को क्रिया कहते हैं।
अथवाःकर्म बन्ध के कारण रूप कायिकी आदि पांच पांच करके पच्चीस क्रियाएं हैं। वे जैनागम में क्रिया शब्द से कही गई हैं।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह क्रिया के पांच भेद
(१) कायिकी। (२) आधिकरणिकी । (३) प्राद्वेषिकी। (४) पारितापनिकी ।
(५) प्राणातिपातिकी क्रिया । (१) कायिकी--काया से होने वाली क्रिया कायिकी क्रिया
कहलाती है। (२) प्राधिकरणिकी-जिम अनुष्ठान विशेष अथवा बाह्य खड्गादि
शस्त्र से आत्मा नरक गति का अधिकारी होता है। वह अधिकरण कहलाता है। उस अधिकरण से होने वाली क्रिया प्राधिकरणिकी कहलाती है। (३) प्रादेषिकी-कर्म बन्ध के कारण रूप जीव के मत्सर भाव
अर्थात् ईर्षा रूप अकुशल परिणाम को प्रद्वेष कहते हैं। प्रो
से होने वाली क्रिया प्राद्वेषिको कहलाती है। (४) पारितापनिकी:-ताड़नादि से दुःख देना अर्थात् पीड़ा
पहुँचाना परिताप है । इससे होने वाली क्रिया पारिताप
निकी कहलाती है। (५) प्राणातिपातिकी क्रिया: इन्द्रिय आदि प्राण हैं । उनके
अतिपात अर्थात् विनाश से लगने वाली क्रिया प्राणातिपातिकी क्रिया है।
(ठाणांग २ सूत्र ६०) (ठाणांग ५ सूत्र ४१६)
(पन्नबणा पद २२) २६३-क्रिया पाँच:
(१) प्रारम्भिकी। (२) पारिग्रहिकी।
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२७८
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(३) माया प्रत्यया। (४) अप्रत्याख्यानिकी।
(५) मिथ्यादर्शन प्रत्यया । (१) प्रारम्भिकी-छः काया रूप जीव तथा अजीव (जीव
रहिन शरीर, आटे वगैरह के बनाये हुए जीव की आकृति के पदार्थ या वस्त्रादि) के प्रारम्भ अर्थात् हिंसा से लगने
वाली क्रिया प्रारम्भिकी क्रिया कहलाती है। (२) पाग्ग्रिहिकी:-मूर्छा अर्थात् ममता को परिग्रह कहते हैं ।
जीव और अजीव में मृy ममत्व भाव से लगने वाली
क्रिया पाग्ग्रिहिकी है। (३) माया प्रत्यया-छल कपट को माया कहते हैं। माया द्वारा
दमरों को ठगने के व्यापार से लगने वाली क्रिया मायाप्रत्यया है। जैसे अपने अशुभ भाव छिपा कर शुभ भाव
प्रगट करना, झूठ लेख लिखना आदि । (४) अप्रत्याग्व्यानिकी क्रिया-अप्रत्याख्यान अर्थान् थोड़ा सा
भी विरति परिणाम न होने रूप क्रिया अप्रत्याख्यानिकी किया है।
अथवाःअव्रत से जो कर्म बन्ध होता है वह अप्रन्याग्न्यान क्रिया है। (५) मिथ्यादर्शन प्रन्यया-मिथ्यादर्शन अर्थान् तच्च में अश्रद्धान
या विपरीत श्रद्धान से लगने वाली क्रिया मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया है।
( ठाणांग २ सूत्र ६०) (ठाणांग ५ सूत्र ४१६) ( पन्नवणा पद २२)
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२७E
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २६४-क्रिया के पांच प्रकार:--
(१) दृष्टिजा (दिडिया )। (२) पृष्टिजा या स्पर्शजा (पुट्टिया )। (३) प्रातीन्यिकी ( पाडुच्चिया )। (४) मामन्तोपनिपातिकी ( सामन्तोवणिया )।
(५) स्वाहस्तिकी ( साहन्थिया )। (१) दृष्टिजा ( दिट्ठिया )-अश्वादि जीव और चित्रकर्म आदि
अजीव पदार्थों को देखने के लिये गमन रूप क्रिया दृष्टिजा (दिडिया) क्रिया है।
दर्शन, या देखी हुई वस्तु के निमित्त से लगने वाली क्रिया भी दृष्टिजा क्रिया है।
अथवा:-- दर्शन से जो कर्म उदय में आता है वह दृष्टिजा क्रिया है। (२) पृष्टिजा या स्पर्शजा ( पुडिया )-राग द्वेप के वश हो
कर जीव या अजीव विषयक प्रश्न से या उनके स्पर्श से
लगने वाली क्रिया पृष्टिजा या स्पर्शजा क्रिया है। (३) प्रातीत्यिकी ( पाडुचिया)-जीव और अजीव रूप बाह्य
वस्तु के आश्रय से जो राग द्वेष की उत्पत्ति होती है । तजनित कर्म बन्ध को प्रातीत्यिकी (पाडुचिया ) क्रिया
कहते हैं। (४) सामन्तोपनिपातिकी-(सामन्तोवणिया) चारों तरफ से आकर
इकट्ठे हुए लोग ज्यों ज्यों किसी प्राणी, घोड़े, गोधे (सांड) आदि प्राणियों की ओर अजीव-रथ आदि की प्रशंसा सुन
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२८०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला कर हर्षित होते हैं । हर्षित होते हुए उन पुरुषों को देख कर अश्वादि के स्वामी को जो क्रिया लगती है वह सामन्तोपनिपातिकी क्रिया है।
(आवश्यक नियुक्ति) (५) स्वाहस्तिकी-अपने हाथ में ग्रहण किये हुए जीव या अजीव
(जीव की प्रतिकृति ) को मारने से अथवा ताडन करने से लगने वाली क्रिया स्वाहस्तिकी ( साहत्थिया) क्रिया है ।
(ठाणांग २ सूत्र ६०)
(ठाणांग ५ सूत्र ४१६) २६५-क्रिया के पांच भेदः
(१) नैसृष्टिकी ( नेसत्थिया ) । (२) आज्ञापनिका या आनायनी (आणवणिया )। (३) वैदारिणी ( वेयारणिया ),। (४) अनाभोग प्रत्यया (अणाभोग वतिया)।
(५) अनवकांक्षा प्रत्यया (अणवकंख वत्तिया)। (१) नैसृष्टिकी (नेसत्थिया)-राजा आदि की आज्ञा से यंत्र
(फव्वारे अदि ) द्वारा जल छोड़ने से अथवा धनुष से बाण फेंकने से होने वाली क्रिया नैसृष्टिकी क्रिया है।
अथवाःगुरु आदि को शिष्य या पुत्र देने से अथवा निर्दोष आहार पानी आदि देने से लगने वाली क्रिया नैसृष्टिकी
क्रिया है। (२) आज्ञापनिका या आनायनी (आणवणिया)-जीव अथवा
अजीव को आज्ञा देने से अथवा दूसरे के द्वारा मंगाने से लगने वाली क्रिया आज्ञापनिका या आनायनी क्रिया है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
२८१ (३) वेदारिणी (वयारणिया)-जीव अथवा अजीव को विदारण करने से लगने वाली क्रिया वैदारिणी क्रिया है।
अथवा ___ जीव अजीव के व्यवहार में व्यापारियों की भाषा में या भाव में अममानता होने पर दुभाषिया या दलाल जो मौदा कर देता है। उससे लगने वाली क्रिया भी वियारणिया क्रिया है।
अथवा:-- लोगो को ठगने के लिये कोई पुरुष किमी जीव अर्थान् पुरुष आदि की या अजीव रथ आदि की प्रशंसा करता है। इम वञ्चना ( ठगाई ) से लगने वाली क्रिया भी वियार
णिया क्रिया है। अनाभोग प्रत्यया--अनुपयोग से वस्त्रादि को ग्रहण करने तथा
वरतन आदि को पूंजने से लगने वाली क्रिया अनाभोग
प्रत्यया क्रिया है। अनवकांक्षा प्रत्यया-स्व-पर के शरीर की अपेक्षा न करते हुए
स्व-पर को हानि पहुँचाने से लगने वाली क्रिया अनवकांक्षा प्रत्यया क्रिया है।
अथवा:इस लोक और परलोक की परवाह न करते हुए दोनों लोक विरोधी हिंसा, चोरी, आर्तध्यान, रौद्रध्यान आदि से लगने वाली क्रिया अनवकांक्षा प्रत्यया क्रिया है।
(ठाणांग २ सूत्र ६०) (ठाणांग ४ सूत्र ४१६) (आवश्यक नियुक्ति)
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२८२ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला २६६-क्रिया के पांच भेदः
(१) प्रेम प्रत्यया (पेज वतिया)। (२) द्वेष प्रत्यया। (३) प्रायोगीकी क्रिया । (४) सामुदानिकी क्रिया।
(५) ईर्यापथिकी क्रिया। (१) प्रेम प्रत्यया (पेज वत्तिया)--प्रेम (राग) यानि माया और
और लोभ के कारण से लगने वाली क्रिया प्रेम प्रत्यया क्रिया है।
अथवा:दूसरे में प्रेम (राग) उत्पन्न करने वाले वचन कहने से लगने वाली क्रिया प्रेम प्रत्यया क्रिया कहलाती है। (२) द्वेष प्रत्ययाः-जो स्वयं द्वेष अर्थात् क्रोध और मान करता है
और दूसरे में द्वेष आदि उत्पन्न करता है उससे लगने वाली
अप्रीतिकारी क्रिया द्वेष प्रत्यया क्रिया है। (३) प्रायोगिकी क्रिया:-आर्त ध्यान, रौद्र ध्यान करना,तीर्थंकरों से
निन्दित सावध अर्थात् पाप जनक वचन बोलना,तथा प्रमाद पूर्वक जाना आना, हाथ पैर फैलाना, संकोचना आदि मन, वचन, काया के व्यापारों से लगने वाली क्रिया प्रायोगिकी
क्रिया है। (४) सामुदानिकी क्रिया:-जिससे समग्र अर्थात् आठ कर्म ग्रहण
किये जाते हैं वह सामुदानिकी क्रिया है। सामुदानिकी क्रिया देशोपघात और सर्वोपघात रूप से दो भेद वाली है।
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२८३
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
अथवा:अनेक जीवों को एक साथ जो एक सी क्रिया लगती हे । वह सामुदानिकी क्रिया है। जैसे नाटक, सिनेमा
आदि के दर्शकों को एक साथ एक ही क्रिया लगती है। इस क्रिया से उपार्जित कर्मों का उदय भी उन जीवों के एक साथ प्रायः एक सा ही होता है। जैसे-भूकम्प वगैरह।
अथवा:जिससे प्रयोग (मन वचन काया के व्यापार) द्वारा ग्रहण किये हुए एवं समुदाय अवस्था में रहे हुए कर्म प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप में व्यवस्थित किये जाते हैं वह सामुदानिकी क्रिया है । यह क्रिया मिथ्या दृष्टि से लगा कर सूक्ष्म सम्पराय गुण स्थान तक लगती है।
(सूयगडांगसूत्र श्रुतस्कन्ध २ अध्ययन २) (५) ईर्यापथिकी क्रियाः-उपशान्त मोह, क्षीण मोह और सयोगी
केवली इन तीन गुण स्थानों में रहे हुए अप्रमत्त साधु के केवल योग कारण से जो सातावेदनीय कर्म बँधता है। वह ईर्यापथिकी क्रिया है।
(ठाणांग २ सूत्र ६०) (ठाणांग ५ सूत्र ४१६)
(आवश्यक नियुक्ति) २६७-असंयम पाँच:
पाप से निवृत्त न होना असंयम कहलाता है अथवा सावध अनुष्ठान सेवन करना असंयम है।
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२८४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला एकेन्द्रिय जीवों का समारम्भ करने वाले के पांच प्रकार का अमंयम होता है:(१) पृथ्वीकाय असंयम । (२) अप्काय असंयम । (३) तेजस्काय असंयम । (४) वायु काय असंयम । (५) वनस्पति काय असंयम ।
__ पञ्चेन्द्रिय जीवों का समारम्भ करने वाला पांच इन्द्रियों का व्याघात करता है । इस लिये उसे पाँच प्रकार का अमंयम होता है। (१) श्रोत्रेन्द्रिय असंयम (२) चक्षुरिन्द्रिय असंयम । (३) घ्राणेन्द्रिय असंयम (४) रसनेन्द्रिय असंयम ।
(५) स्पर्शनेन्द्रिय असंयम । सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्व का समारम्भ करने वाले के पांच प्रकार का असंयम होता है:(१) एकेन्द्रिय असंयम (२) द्वीन्द्रिय असंयम । (३) त्रीन्द्रिय असंयम (४) चतुरिन्द्रिय असंयम । (५) पञ्चेन्द्रिय असंयम ।
(ठाणांग ५ सूत्र ४२६) २६८-संयम पाँच:
सम्यक् प्रकार सावध योग से निवृत्त होना या आश्रव से विरत होना या छः काया की रक्षा करना संयम है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संपह
२८५ एकेन्द्रिय जीवों का समारम्भ न करने वाले के पांच प्रकार का संयम होता है। (१) पृथ्वीकाय संयम (२) अप्काय संयम। (३) तेजस्काय संयम (४) वायु काय संयम ।
(५) वनस्पतिकाय संयम । पञ्चेन्द्रिय जीवों का समारम्भ न करने वाला पाँच इन्द्रियों का व्याघात नहीं करता । इस लिए उसका पाँच प्रकार का मंयम होता है। (१) श्रोत्रेन्द्रिय संयम (२) चक्षुरिन्द्रिय संयम । (३) घाणेन्द्रिय संयम (४) रसनेन्द्रिय संयम ।
(५) स्पर्शनेन्द्रिय संयम है। ___ सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्व का समारम्भ न करने वाले के पांच प्रकार का संयम होता है। (१) एकेन्द्रिय संयम (२) द्वीन्द्रिय संयम । (३) त्रीन्द्रिय संयम (४) चतुरिन्द्रिय संयम ।
(५) पञ्वेन्द्रिय संयम।
(ठाणांग ५ सूत्र ४२६ से ४३१) २६६ पाँच संवरः
कर्म बन्ध के कारण प्राणातिपात आदि जिससे रोके जाय वह संवर है।
अथवा:जीव रूपी तालाब में आते हुए कर्म रूप पानी का रुक जाना संवर कहलाता है।
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२८६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
अथवा:-- जैसे:-जल में रही हुई नाव में निरन्तर जल प्रवेश कराने वाले छिद्रों को किसी द्रव्य से रोक देने पर, पानी आना रुक जाता है। उसी प्रकार जीव रूपी नाव में कर्म रूपी जल प्रवेश कराने वाले इन्द्रियादि रूप छिद्रों को सम्यक् प्रकार से संयम, तप आदि के द्वारा रोकने से प्रात्मा में कर्म का प्रवेश नहीं होता। नाव में पानी का रुक जाना द्रव्य संबर है और आत्मा में कर्मों के आगमन को रोक देना
भाव संवर है। संवर के पाँच मेदः
(१) सम्यक्त्व । (२) विरति । (३) अप्रमाद।
(४) अकषाय। (५) अयोग (शुभयोग)।
(प्रश्न व्याकरण)
(ठाणांग ५ सूत्र ४१८) (१) श्रोत्रेन्द्रिय संवर। (२) चक्षुरिन्द्रिय संवर । (३) घ्राणेन्द्रिय संवर। (४) रसनेन्द्रिय संवर । (५) स्पर्शनेन्द्रिय संवर।
(ठाणांग ५ सूत्र ४२७) (१) अहिंसा। (२) अमृषा। (३) अचौर्य । (४) अमैथुन ।
(५) अपरिग्रह। (१) सम्यक्त्व-सुदेव, सुगुरु और सुधर्म में विश्वास होना
सम्यक्त्व है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २८७ (२) विरति-प्राणातिपात आदि पाप-व्यापार से निवृत्त होना
विरति है। (३) अप्रमाद-मद्य, विषय, कषाय निद्रा, विकथा-इन पांच प्रमादों
का त्याग करना, अप्रमत्त भाव में रहना अप्रमाद है । (४) अकषाय-कोध, मान, माया, लोभ-इन चार कषायों को
त्याग कर क्षमा, मार्दव, आर्जव और शौच (निर्लोभता)
का सेवन करना अकषाय है। (५) अयोग-मन, वचन, काया के व्यापारों का निरोध करना
प्रयोग है। निश्चय दृष्टि से योग निरोध ही संवर है। किन्तु व्यवहार से शुभ योग भी मंवर माना जाता है।
(प्रश्न व्याकरण धर्मनार ५वां) पांचों इन्द्रियों को उनके विषय शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श की ओर जाने से रोकना, उन्हें अशुभ व्यापार से निवृत्त करके शुभ व्यापार में लगाना श्रोत्र, चक्षु, घाण, रसना और स्पर्शन इन्द्रियों का संवर है । (१) अहिंसा--किसी जीव की हिंमा न करना या दया करना अहिंसा है। (२) अमृषा-झूठ न बोलना, या निरवद्य सत्य वचन बोलना अमृषा है। (३) अचौर्य-चोरी न करना या स्वामी की आज्ञा मांग कर कोई भी चीज़ लेना अचौर्य है। (४) अमैथुन-मैथुन का त्याग करना अर्थात् ब्रह्मचर्य पालन करना अमेथुन है।
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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
(५) अपरिग्रह - परिग्रह का त्याग करना, ममता मूर्च्छा से रहित होना या शौच मन्तोष का सेवन करना अपरिग्रह है । ( प्रश्न व्याकरण धर्म द्वार )
३०० -- अणुव्रत पाँच:
महाव्रत की अपेक्षा छोटा व्रत अर्थात् एक देश त्याग का नियम अणुव्रत है । इसे शीलव्रत भी कहते हैं
1
अणुव्रत:
सर्व विरत साधु की अपेक्षा अणु अर्थात् थोड़े गुण वाले ( श्रावक) के व्रत अणुव्रत कहलाते हैं ।
--
श्रावक के स्थूल प्राणातिपात आदि न्याग रूप व्रत व्रत हैं।
व्रत पाँच हैं:
(१) स्थूल प्राणातिपात का त्याग ।
(२) स्थूल मृपावाद का त्याग ।
(३) स्थूल अदत्तादान का त्याग । (४) स्वदार सन्तोष |
(५) इच्छा - परिमाण ।
(१) स्थूल प्राणातिपात का त्याग - स्वशरीर में पीड़ाकारी, पराधी तथा सापेक्ष निरपराधी के सिवा शेष द्वीन्द्रिय यदि त्रस जीवों की संकल्प पूर्वक हिंसा का दो करण तीन योग से त्याग करना स्थूल प्राणातिपात त्याग रूप प्रथम त है ।
(२) स्थूल मृषावाद का त्याग -- दुष्ट अध्यवसाय पूर्वक तथा म्यूल वस्तु विषयक बोला जाने वाला असत्य-झूठ, स्थूल
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२८८
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह मृषावाद है । अविश्वास आदि के कारण स्वरूप इस स्थूल मृषावाद का दो करण तीन योग से त्याग करना स्थल
मृषावाद-त्याग रूप द्वितीय अणुव्रत है। स्यूल मृषावाद पाँच प्रकार का है
(१) कन्या-वर सम्बन्धी झूठ । (२) गाय, भैंस आदि पशु सम्बन्धी झूठ । (३) भूमि सम्बन्धी झूठ। (४) किसी की धरोहर दबाना या उसके सम्बन्ध में झूठ
बोलना। (५) झूठी गवाही देना । (३) स्थूल अदत्तादान का त्याग-क्षेत्रादि में सावधानी से रखी हुई या अमावधानी से पड़ी हुई या भूली हुई किमी सचित्त, अचित्त म्यूल वस्तु को, जिसे लेने से . चोरी का अपराध लग सकता हो अथवा दुष्ट अध्यवसाय पूर्वक साधारण वस्तु को स्वामी की आज्ञा विना लेना स्थूल अदत्तादान है। खात खनना, गांठ खोल कर चीज निकालना, जेब काटना, दूसरे के ताले को विना आज्ञा चाबी लगा कर खोलना, मार्ग में चलते हुए को लूटना, स्वामी का पता होते हुए भी किसी पड़ी वस्तु को ले लेना आदि स्थूल अदत्तादान में शामिल हैं । ऐसे स्थूल अदत्तादान का दो करण तीन योग से त्याग
करना स्थूल अदत्तादान त्याग रूप तृतीय अणुव्रत है । (४) स्वदार सन्तोष:-स्व-स्त्री अर्थात् अपने साथ ब्याही
हुई स्त्री में सन्तोष करना । विवाहित पत्नी के सिवा शेष
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२६०
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाल औदारिक शरीर धारी अर्थात् मनुष्य तियञ्च के शरीर को धारण करने वाली स्त्रियों के साथ एक करण एक योग से ( अर्थात् काय से सेवन नहीं करूँगा इस प्रकार ) तथा वैक्रिय शरीरधारी अर्थात् देव शरीरधारी स्त्रियों के साथ दो करण तीन योग से मैथुन सेवन का त्याग करना
स्वदार-मन्तोष नामक चौथा अणुव्रत है। (५) इच्छा-परिमाण:-(परिग्रह परिमाण ) क्षेत्र, वास्तु,
धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्ण, द्विपद, चतुष्पद एवं कुप्य ( मोने चांदी के सिवा कामा, ताँबा, पीतल आदि के पात्र तथा अन्य घर का सामान ) इन नव प्रकार के परिग्रह की मर्यादा करना एवं मर्यादा उपरान्त परिग्रह का एक करण तीन योग से त्याग करना इच्छा-परिमाण व्रत है । तृष्णा, मूळ कम कर सन्तोष रत रहना ही इस त का मुख्य उद्देश्य है। हरिभद्रीय आवश्यक पृष्ठ ८१७ से ८२६)
(ठाणांग ५ सूत्र ३८६)
(उपासक दशांग)
(धर्म संग्रह अधिकार २) ३०१-अहिंमा अणुव्रत (स्थूल प्राणातिपात-विरमण व्रत ) के पांच अतिचार:
वर्जित कार्य को करने का विचार करना अतिक्रम है। कार्य-पूर्ति यानि व्रत भङ्ग के लिए साधन एकत्रित करना व्यतिक्रम है। व्रतभङ्ग की पूरी तैयारी है परन्तु जब तक व्रत भङ्ग नहीं हुआ है तब तक अतिचार हैं। अथवा
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह व्रत की अपेक्षा रखते हुए कुछ अंश में व्रत का भङ्ग करना अतिचार है। व्रत की अपेक्षा न रखने हुए संकल्प पूर्वक व्रत भङ्ग करना अनाचार है । इस प्रकार अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार-ये चारों व्रत की मर्यादा भङ्ग करने के प्रकार हैं । शास्त्रों में व्रतों के अतिचारों का वर्णन है। परन्तु यह मध्यम भङ्ग का प्रकार है और इससे आगे के अतिक्रम, व्यतिक्रम और पीछे का अनाचार भी ग्रहण किये जाते हैं । वे भी त्याज्य हैं। यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि यदि संकल्प पूर्वक व्रतों की विना अपेक्षा किये अतिचारों का सेवन किया जाय तो वह अनाचार-सेवन ही है और वह व्रत-भङ्ग का कारण है। प्रथम अणुव्रत के पाँच अतिचार:(१) बन्ध। (२) वध । (३) छविच्छेद। (४) अतिभार ।
(५) भक्त-पान व्यवच्छेद। (१) बन्धः-द्विपद, चतुष्पदों को रस्सी आदि से अन्याय पूर्वक
बाँधना बन्ध है। यह बन्ध दो प्रकार का है:(१) द्विपद का बन्ध । (२) चतुष्पद का बन्ध। प्रत्येक के फिर दो दो भेद हैंएक अर्थ बन्ध और दमरा अनर्थ बन्ध । अर्थ-बन्ध भी दो प्रकार का है(१) सापेक्ष अर्थ बन्ध ।
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२६२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (२) निरक्ष अर्थ बन्ध।
द्विपद,चतुष्पद को इस प्रकार से बांधना कि आग आदि लगने पर आमानी से खोले जा सकें, मापेक्ष बन्ध कहलाता है। जैसे चतुष्पद गाय, भैंस आदि और द्विपद दासी, चोर या दुर्विनीन पुत्र को उनकी रक्षा या भलाई का ख्याल कर या शिक्षा के लिये करुणा पूर्वक शरीर की हानि और कष्ट को बचाने हुए बाँधना मापेक्ष बन्ध है । लापरवाही के साथ निर्दयता पूर्वक क्रोधवश गाढ़ा बन्धन बांध देना निरपेक्ष
अर्थवन्ध है। श्रावक के लिये सापेक्ष अर्थवन्ध अतिचार रूप नहीं है । अनर्थवन्ध एवं निरपेक्ष अर्थबन्ध अतिचार
रूप हैं और श्रावक के लिए त्याज्य हैं। (२) वधः-कोड़े आदि से मारना वध है। इसके भी बन्ध की
तरह अर्थ, अनर्थ एवं मापेक्ष, निरपेक्ष प्रकार से दो दो भेद हैं ।अनर्थ एवं निरपेक्ष वध अनिचार में शामिल हैं। शिक्षा के हेतु दाम, दामी, पुत्र आदि की या नुकसान करते हुए चतुष्पद को आवश्यकता होने पर दयापूर्वक उनके मर्म स्थानों पर चोट न लगाते हुए मारना सापेक्ष अर्थबन्ध
है । यह श्रावक के लिए अतिचार रूप नही है। (३) अविच्छेद--शस्त्र से अङ्गोपाङ्ग का छेदन करना छविच्छेद
है। विच्छेद भी बन्य और वध, की तरह सप्रयोजन तथा निष्प्रयोजन और सापेक्ष तथा निरपेक्ष होता है । निष्प्रयोजन तथा प्रयोजन होने पर भी निर्दयता पूर्वक हाथ, पैर, कान, नाक आदि का छेदन करना अतिचार रूप है और वह श्रावक के लिए त्याज्य है । किन्तु प्रयोजन होने पर दया पूर्वक
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२६३
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह सामने वाले की भलाई के लिये गांठ, मस्सा वगैरह काटना, जैसे डाक्टर या वैद्य चीरफाड़ करते हैं । डाम देकर जलाना आदि सापेक्ष छविच्छेद है । सापेक्ष छविच्छेद से श्रावक
अतिचार के दोष का भागी नहीं होता। (४) अतिभार-द्विपद, चतुष्पद पर उसकी शक्ति से अधिक
भार लादना अतिभार है । श्रावक को मनुष्य अथवा पशु पर क्रोध अथवा लोभवश निर्दयता के साथ अधिक भार नहीं धरना चाहिये । और न मनुष्य तथा पशुओं पर बोझ लादने की वृत्ति करनी चाहिये। यदि अन्य जीविका न हो और यह वृति करनी ही पड़े तो करुणा भाव रख कर, सामने वाले के स्वास्थ्य का ध्यान रखता हुआ करे । मनुष्य से उतना ही भार उठवाना चाहिये जितना वह स्वयं उठा सके और स्वयं उतार सके । ऊँट, बैल, आदि पर भी स्वाभाविक भार से कम लादना चाहिये । हल, गाड़ी वगैरह से बैलों को नियत समय पर छोड़ देना चाहिये। इसी तरह गाड़ी, तांगे, इक्के, घोड़े आदि पर सवारी चढ़ाने में भी विवेक रखना
चाहिये। (५) भक्तपान विच्छेद-निष्कारण निर्दयता के साथ किसी के
आहार पानी का विच्छेद करना भक्तपान विच्छेद अतिचार है । तीत्र क्षुधा और प्यास से व्याकुल होकर कई प्राणी मर जाते हैं । और भी इससे अनेक दोषों की सम्भावना है। इम लिये इम अतिचार का परिहार करना चाहिये । रोगादि निमिन से वैद्यादि के कहने पर, या शिक्षा के हेतु आहार पानी न देना या भय दिखाने के लिये आहार न देने की
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२६४
शा सेठिया जैन ग्रन्थमाला चात कहना सापेक्ष भक्तपान विच्छेद है और यह अतिचार
रूप नहीं है। नोट:-विना कारण किसी की जीविका का नाश करना तथा
नियत समय पर वेतन न देना आदि भी इसी अतिचार में गर्भित है।
हरिभद्रीय आवश्यक पृष्ठ ८१६
__ (उपासक दशांग सूत्र) ३०२--सत्याणुव्रत (स्थूल मृषावाद विरमण व्रत) के पाँच
अतिचारः-- (१) महमाऽभ्याख्यान । (२) रहोऽभ्याख्यान । (३) स्वदार मन्त्र भेद । (४) मृषोपदेश ।
(५) कूट लेखकरण । (१) सहसाऽभ्याख्यान-विना विचारे किसी पर मिथ्या आरोप
लगाना सहसाऽभ्याख्यान है । अनुपयोग अर्थात् असावधानी से विना विचारे आरोप लगाना अतिचार है । जानने हुए इरादा पूर्वक तीव्र संक्लेश से मिथ्या आरोप लगाना
अनाचार है और उससे व्रत भंग हो जाता है। (२) रहोऽभ्याख्यान-एकान्त में सलाह करते हुए व्यक्तियों पर
आरोप लगाना रहोऽभ्याख्यान है। जैसे ये राजा के अपकार की मन्त्रणा करते हैं। अनुपयोग से ऐसा करना अतिचार माना गया है और जान बूझ कर ऐसा करना अनाचार में शामिल है। एकान्त विशेषण होने से यह अतिचार पहले अतिचार से भिन्न है। इस अतिचार में सम्भावित अर्थ कहा जाता है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (३) स्वदार मन्त्र भेद-स्वस्त्री के साथ एकान्त में हुई विश्वस्त मन्त्रणा-(वार्तालाप) का दूसरे से कहना स्वदारमन्त्र भेद है।
अथवाःविश्वास करने वाली स्त्री, मित्र आदि की गुप्त मन्त्रणा का प्रकाश करना स्वदार मन्त्र भेद है ।
यद्यपि वक्ता पुरुष स्त्री या मित्र के साथ हुई सत्य मन्त्रणा को ही कहता है परन्तु अप्रकाश्य मन्त्रणा के प्रकाशित हो जाने से लज्जा एवं संकोच वश स्त्री, मित्र आदि आत्मघात कर सकते हैं या जिसके आगे उक्त मन्त्रणा प्रकाशित की गई है उसी का घात कर सकते हैं। इस प्रकार अनर्थ परम्परा का कारण होने से
वास्तव में यह त्याज्य ही है। (४) मृषोपदेश-विना विचारे, अनुपयोग से या किसी
बहाने से दूसरों को असत्य उपदेश देना मिथ्योपदेश है। जैसे हम लोगों ने ऐसा ऐसा झूठ कह कर अमुक व्यक्ति को हरा दिया था इत्यादि कह कर दूसरों को असत्य वचन कहने में प्रेरित करना।
अथवाःअमन्य उपदेश देना मृपोपदेश है। सत्यव्रतधारी पुरुष के लिये पर पीडाकारी वचन कहना भी असत्य है। इस लिए प्रमाद से पर पीडाकारी उपदेश देना भी मृषोपदेश अतिचार है। जैसे ऊँट, गधे वगैरह को चलाना चाहिये, चोरों को मारना चाहिये । आदि ।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
अथवाःकोई मन्दिग्ध ( सन्देह वाला) व्यक्ति सन्देह निवारण के लिये आवे, उसे उत्तर में अयथार्थ स्वरूप कहना मृषोपदेश है। अथवा विवाह में स्वयं या दूसरे से किमी को अभिमंधान ( मम्बन्ध जोड़ने के उपाय ) का उपदेश देना या दिलाना मृपोपदेश है । अथवा व्रत रक्षण की बुद्धि से दूसरे के वृत्तान्त को कह कर मृपा उपदेश
देना मृपोपदेश है। (५) कूट लेखकरण-कूट अर्थात् झूटा लेख लिखना कूट लेख
करण अतिचार है । जाली अर्थात् नकली लेख, दस्तावेज, मोहर और दूसरे के हस्ताक्षर आदि बनाना कूट लेख करण में शामिल है। प्रमाद और अविवेक (अज्ञान) से ऐसा करना अतिचार है । व्रत का पूरा आशय न समझ कर यह सोचना कि मैंने झूठ बोलने का त्याग किया था यह तो झूठा लेख है । मृपावाद तो नहीं है । व्रत की अपेक्षा होने से और अविवेक की वजह से यह अतिचार है । जान बूझ कर कूट लेख लिखना अनाचार है ।
(उपासक दशांग सूत्र) (धर्मसंग्रह अधिकार २ पृष्ठ १०१-१०२)
(हरिभद्रीय आवश्यक पृष्ठ ८२१-८२२) ३०३-अचौर्याणुव्रत (स्यूल अदप्तादान विरमण व्रत ) के
पाँच अतिचार:. स्थूल अदत्तादान विरमण रूप तीसरे अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं:(१) स्तेनाहत (२) स्तेन प्रयोग।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (३) विरुद्धराज्यातिक्रम (४) कूट तुला कूट मान
(५) तत्प्रतिरूपक व्यवहार । (१) स्तेनाहृतः-चोर की चुराई हुई वस्तु को बहुमूल्य समझ
कर लोभ वश उसे खरीदना या यों ही छिपा कर ले लेना
स्तेनाहृत अतिचार है। (२) स्तेन प्रयोगः-चोरों को चोरी के लिए प्रेरणा करना,
उन्हें चोरी के उपकरण देना या वेचना अथवा चोर की महायता करना, “तुम्हारे पास खाना नहीं है तो मैं देता हूँ तुम्हारी चुराई हुई वस्तु को कोई बेचने वाला नहीं है तो मैं बेच दूँगा" इत्यादि वचनों से चोर को चोरी में उत्सा
हित करना स्तेन प्रयोग है। (३) विरुद्ध राज्यातिक्रमः-शत्रु राजाओं के राज्य में आना
जाना विरुद्ध राज्यातिक्रम अतिचार है । क्योंकि विरोध के समय शत्रु राजाओं द्वारा राज्य में प्रवेश करने की मनाई
होती है। (४) कूट तुला कूट मानः-झूठा अर्थात् हीनाधिक तोल और
माप रखना, परिमाण से बड़े तोल और माप से वस्तु लेना और छोटे तोल और माप से वस्तु वेचना कूट तुला कूट
मान अतिचार है। (५) तत्प्रतिरूपक व्यवहारः बहुमूल्य बढ़िया वस्तु में अल्प
मूल्य वाली घटिया वस्तु, जो उसी के सदृश है अर्थात् उसी रूप, रंग की है और उसमें खपने वाली है, मिलाकर वेचना या असली सरीखी नकली (बनावटी) वस्तु को ही असली के नाम से बेचना तत्प्रतिरूपक व्यवहार है।
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२४९
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला पांचों अतिचारों में वर्णित क्रियाएं चोरी के नाम से न कही जाने पर भी चोरी के बराबर है । इनका करने वाला गज्य के द्वारा भी अपराधी माना जाकर दण्ड का भागी होता है । इस लिए इन्हें जान बूझ कर करना तो व्रत भङ्ग ही है। विना विचारे अनुपयोग पूर्वक करने से, या व्रत की अपेक्षा रख कर करने से या अतिक्रमादि की अपेक्षा ये अतिचार हैं।
(उपासक दशांग सूत्र) (हरिभद्रीय आवश्यक पृष्ठ ८२२)
(धर्म संग्रह अधिकार २ पृष्ठ १०२-१०३) ३०४-स्वदार मन्तोष बन के पाँच अतिचार:
(१) इत्वरिका परिगृहीता गमन (३) अपरिगृहीता गमन । (३) अनङ्ग क्रीड़ा (४) पर विवाह करण ।
(५) काम भोग तीव्राभिलाप । (१) इत्वरिका परिगृहीतागमन:-भाड़ा देकर कुछ काल के
लिए अपने आधीन की हुई स्त्री से गमन करना । इत्वरिका
परिगृहीतागमन अतिचार है। (२) अपरिगृहीतागमन:--विवाहित पत्नी के सिवा शेष वेश्या,
अनाथ, कन्या, विधवा, कुलवधू आदि से गमन करना, अपरिगृहीता गमन अतिचार है। ___इत्वरिका परिगृहीता और अपरिगृहीता से गमन करने का संकल्प, एवं तत्सम्बन्धी उपाय,आलाप मेलापादि अतिक्रम व्यतिक्रम की अपेक्षा ये दोनों अतिचार हैं।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ૨૯૭ और ऐसा करने पर व्रत एक देश से खण्डित होता है। सूई डोरा के न्याय से इन्हें सेवन करने में सर्वथा व्रत भङ्ग
हो जाता है। (३) अनङ्ग क्रीडा:-काम सेवन के जो प्राकृतिक अङ्ग हैं।
उनके सिवा अन्य अङ्गों से, जो कि काम सेवन के लिए अनङ्ग हैं, क्रीड़ा करना अनङ्ग क्रीड़ा है । स्व स्त्री के सिवा अन्य स्त्रियों के साथ मैथुन क्रिया वर्ज कर अनुराग से उनका आलिङ्गन आदि करने वाले के भी व्रत मलीन
होता है । इस लिए वह भी अतिचार माना गया है। (४) परविवाह करणः-अपना और अपनी सन्तान के सिवा
अन्य का विवाह करना परविवाह करण अतिचार है।
स्वदारासन्तोषी श्रावक को दूसरों का विवाहादि कर उन्हें मैथुन में लगाना निष्प्रयोजन है । इस लिये ऐसा करना अनुचित है । यह ख्याल न कर दूसरे का विवाह करने के
लिये उद्यत होने में यह अतिचार है। (५) कामभोगतीवाभिलाष:-पांच इन्द्रियों के विषय रूप, रस,
गन्ध और स्पर्श में आसक्ति होना कामभोगतीव्राभिलाष नामक अतिचार है । इस का आशय यह है कि श्रावक विशिष्ट विरति वाला होता है । उसे पुरुषवेद जनित बाधा की शान्ति के उपरान्त मैथुन सेवन न करना चाहिये । जो वाजीकरण आदि औषधियों से तथा कामशास्त्र में बताये हए प्रयोगों द्वारा कामबाघा को अधिक उत्पन्न कर निरन्तर रति-क्रीड़ा के सुख को चाहता है वह वास्तव में
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३००
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला अपने व्रत को मलीन करता है । स्वयं खाज (खुजली) उत्पन्न कर उसे खुजलाने में सुख अनुभव करना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है । कहा भी है:"मीठी खाज खुजावतां पीछे दुःख की खान" ।
(उपासक दशांग प्रथम अध्ययन
अभयदेव सूरी को टीका के आधार पर) ३०५-परिग्रह परिमाण व्रत के पांच अतिचार--
(१) क्षेत्र वास्तु प्रमाणातिक्रम । (२) हिरण्य मुवर्ण प्रमाणातिक्रम । (३) धन धान्य प्रमाणातिक्रम । (४) द्विपद चतुष्पद प्रमाणानिक्रम ।
(५) कुष्य प्रमाणातिक्रम। (१) क्षेत्रवास्तु प्रमाणातिक्रम-धान्योत्पति की जमीन को क्षेत्र
(खेन) कहते हैं। वह दो प्रकार का है(१) सेतु । (२) केतु ।
अरघट्टादि जल से जो खेत सींचा जाता है वह सेतु क्षेत्र है। वर्षा का पानी गिरने पर जिसमें धान्य पैदा होता है वह केतु क्षेत्र कहलाता है। घर आदि को वास्तु कहते हैं । भूमिगृह (भोयरा),भूमि गृह पर बना हुआ घर या प्रासाद,एवं भूमि के ऊपर बना हुआ घर या प्रसाद वास्तु है। इस प्रकार वास्तु के तीन भेद हैं । उक्त क्षेत्र, वास्तु की जो मर्यादा की है उसका उल्लंघन करना क्षेत्र वास्तु प्रमाणातिक्रम अतिचार है। अनुपयोग या अतिक्रम आदि की अपेक्षा से यह अतिचार है । जानबूझ कर मर्यादा का उल्लंघन करना अनाचार है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
३०१
अथवा मर्यादित क्षेत्र या घर आदि से अधिक क्षेत्र या घर यदि मिलने पर बाड़ या दीवाल वगैरह हटा कर मर्यादित क्षेत्र या घर में मिला लेना भी क्षेत्र वास्तु प्रमाणातिक्रम अतिचार है । व्रत की मर्यादा का ध्यान रख कर व्रती ऐसा करता है । इस लिये वह अतिचार है । इससे देशतः व्रत खंडित हो जाता है ।
(२) हिरण्य सुवर्ण प्रमाणातिक्रमः -घटित (घड़े हुए) और अघटित (विना घड़े हुए सोना चाँदी के परिमाण का एवं हीरा, पन्ना, जवाहरात, आदि के प्रमाण का अतिक्रमण करना हिरण्य सुवर्ण प्रमाणातिक्रम अतिचार है । अनुपयोग या अतिक्रम आदि की अपेक्षा से यह अतिचार है । जान बूझ कर मर्यादा का उल्लंघन करना अनाचार है । अथवा नियत काल की मर्यादा वाले श्रावक पर राजा प्रसन्न होने से श्रावक को मर्यादा से अधिक सोने चाँदी आदि की प्रप्ति हो । उस समय व्रत भङ्ग के डर से श्रावक का परिमाण से अधिक सोने-चांदी को नियत अवधि के लिये, अवधि पूर्ण होने पर वापिस ले लूंगा इस भावना से, दूसरे के पास रखना हिरण्य सुवर्ण प्रमाणातिक्रम प्रतिचार है ।
(३) धन धान्य प्रमाणातिक्रम - गणिम, धरिम, मेय, परिच्छेद्य रूप चार प्रकार का धन एवं सतहर या चौवीस प्रकार के धान्य की मर्यादा का उल्लंघन करना धन-धान्य- प्रमाणातिक्रम अतिचार है । वह भी अनुपयोग एवं अतिक्रम आदि की अपेक्षा से अतिचार है । अथवा मर्यादा से अधिक धन
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला धान्य की प्राप्ति होने पर उसे स्वीकार कर लेना परन्तु व्रत-भङ्ग के डर से उन्हें, धान्यादि के बिक जाने पर ले लूँगा यह सोच कर, दुसरे के घर पर रहने देना धन-धान्य प्रमाणातिक्रम अतिचार है। अथवा परिमित काल की मर्यादा वाले श्रावक के मर्यादित धन-धान्य से अधिक की प्राप्ति होने पर उसे स्वीकार कर लेना और मर्यादा की समाप्ति पर्यन्त दूसरे के यहां रख देना धन-धान्य
प्रमाणातिक्रम अतिचार है। (४) द्विपद चतुष्पद प्रमाणातिक्रमः--द्विपद सन्तान, स्त्री, दास
दासी, तोता, मैंना वगैरह तथा चतुष्पद-गाय, घोड़ा, ऊँट, हाथी आदि के परिमाण का उल्लंघन करना द्विपद चतुष्पद-प्रमाणातिक्रम अतिचार है। अनुपयोग एवं अतिक्रम आदि की अपेक्षा से यह अतिचार है । अथवा एक साल आदि नियमित काल के लिये द्विपद-चतुष्पद की मर्यादा वाले श्रावक का यह सोच कर कि मर्यादा के बीच में गाय, घोड़ी आदि के बच्चा होने से मेरा व्रत भङ्ग हो जायगा। इस लिये नियत समय बीत जाने पर गर्भ धारण करवाना, जिससे कि मर्यादा का काल बीत जाने पर ही
उनके बच्चे हों, द्विपद चतुष्पद प्रमाणातिक्रम अतिचार है। (५) कुप्य प्रमाणातिक्रम-कुप्य सोने चांदी के सिवा अन्य
वस्तु, आसन, शयन, वस्त्र, कम्बल, वर्तन वगैरह घर के सामान की मर्यादा का अतिक्रमण करना कुप्य प्रमाणातिक्रम
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
३०३ अतिचार है। यह भी अनुपयोग एवं अतिक्रम आदि की अपेक्षा से अतिचार है।
अथवा:नियमित कुष्य से अधिक संख्या में कुप्य की प्राप्ति होने पर दो दो को मिला कर वस्तुओं को बड़ी करा देना और नियमित संख्या कायम रखना कुप्य प्रमाणातिक्रम अतिचार है।
अथवाःनियत काल के लिये कुप्य परिमाण वाले श्रावक का मर्यादित कुप्य से अधिक कुप्य की प्राप्ति होने पर उसी समय ग्रहण न करते हुए सामने वाले से यह कहना कि अमुक समय बीत जाने पर मैं तुमसे यह कुप्य ले
लूँगा। तुम और किसी को न देना । यह कुप्य प्रमाणातिक्रम अतिचार है।
(उपासक दशांग सूत्र) (हरिभद्रीय आवश्यक पृष्ठ ८२६)
(धर्म संग्रह अधिकार २ पृष्ठ १०५ से १०७) ३०६-दिशा परिणाम व्रत के पांच अतिचार:
(१) उर्ध्व दिशा परिमाणातिक्रम । (२) अधो दिशा परिमाणातिक्रम। (३) तिर्यक दिशा परिमाणातिक्रम । (४) क्षेत्र वृद्धि ।
(५) स्मृत्यन्तर्धान (स्मृतिभ्रंश)। (१) ऊर्ध्वदिशा परिमाणातिक्रमः-ऊर्ध्व अर्थात् ऊंची दिशा
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
के परिमाण को उल्लंघन करना ऊर्ध्व दिशा परिमाणातिक्रम तिचार है ।
(२) अधोदिशा परिमाणातिक्रमः - - अधः अर्थात् नीची दिशा का परिमाण उल्लंघन करना अधो दिशा परिमाणातिक्रम तिचार है।
(३) तिर्यदिशा परिमाणातिक्रमः -- तिळीं दिशा का परिमाण उल्लंघन करना तिर्यदिशा परिमाणातिक्रम अतिचार है
अनुपयोग यानी अमावधानी से ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक दिशा की मर्यादा का उल्लंघन करना अतिचार है जान बूझ कर परिमाण से आगे जाना अनाचार सेवन है । (४) क्षेत्र वृद्धि: - - एक दिशा का परिमाण घटा कर दूसरी दिशा का परिमाण बढ़ा देना क्षेत्र वृद्धि अतिचार है । इस प्रकार क्षेत्र वृद्धि से दोनों दिशाओं के परिमाण का योग वही रहता है । इस लिए व्रत का पालन ही होता है । इस प्रकार व्रत की अपेक्षा होने से यह अतिचार है । (५) स्मृत्यन्तर्धान (स्मृतिभ्रंश) : - ग्रहण किए हुए परिमाण का स्मरण न रहना स्मृतिभ्रंश अतिचार है । जैसे किसी ने पूर्व दिशा में १०० योजन की मर्यादा कर रखी है । परन्तु पूर्व दिशा में चलते समय उसे मर्यादा याद न रही । वह सोचने लगा कि मैंने पूर्व दिशा में ५० योजन की मर्यादा की है या १०० योजन की ? इस प्रकार स्मृति न रहने से सन्देह पड़ने पर पचाम योजन से भी आगे जाना अतिचार है ।
( उपासक दशांग )
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३०५
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ३०७--उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत के पाँच अतिचार:
(१) सचित्ताहार (२) सचित्त प्रतिबद्धाहार । (३) अपक्क औषधि भक्षण (४) दुष्पक्व औषधि भक्षण ।
(५) तुच्छ औषधि भक्षण । (१) सचिताहार-सचित त्यागी श्रावक का सचित वस्तु जैसे
नमक, पृथ्वी, पानी, वनस्पति इत्यादि का आहार करना एवं सचित्त वस्तु का परिमाण करने वाले श्रावक का परिमाणोपरान्त सचित्त वस्तु का आहार करना मचित्ताहार है। विना जाने उपरोक्त रीति से सचित्ताहार करना अतिचार है और जान बूझ कर इसका सेवन करना
अनाचार है। (२) सचित प्रतिवद्धाहारः-सचित वृक्षादि से सम्बद्ध
अचित्त गोंद या पक्के फल वगैरह खाना अथवा सचित्त वीज से सम्बद्ध अचेतन खजूर वगैरह का खाना या बीज सहित फल को, यह सोच कर कि इसमें अचित्त अंश खा लूँगा और सचित्त वीजादि अंश को फेंक दंगा, खाना सचित्त प्रतिबद्धाहार अतिचार है।
सर्वथा सचित्त त्यागी श्रावक के लिए सचित्त वस्तु से छूती हुई किसी भी अचित्त वस्तु को खाना अतिचार है एवं जिसने सचित्त की मर्यादा कर रखी है उसके लिए मर्यादा उपरान्त सचित्त वस्तु से संघट्टा वाली (सम्बन्ध रखने वाली) अचित्त वस्तु को खाना अतिचार है। व्रत की अपेक्षा होने से यह अतिचार है।
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३०६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (३) अपक्क औषधि भक्षणः-अग्नि में विना पकी हुई शालि
आदि औषधि का भक्षण करना अपक्क औषधि भक्षण
अतिचार है । अनुपयोग से खाने में यह अतिचार है। (४) दुष्पक औषधि भक्षणः-दुष्पक्व (बुरी तरह से पकाई हुई)
अग्नि में अधपकी औषधि का पकी हुई जान कर भक्षण करना दुष्पक्व औपधि भक्षण अतिचार है। ____ अपक्क औषधि भक्षण एवं दुष्पक्व औषधि भक्षण अतिचार भी सर्वथा सचित्त त्यागी के लिए है। सचित्त औषधि की मर्यादा वाले के लिए तो मर्यादोपरान्त अपक्क एवं दुष्पक्व औषधि का भक्षण करना अति
चार है। (५) तुच्छौषधि भक्षण-तुच्छ अर्थात् असार औषधियें
जैसे कच्ची मूंगफली वगैरह को खाना तुच्छौषधि भक्षण अतिचार है । इन्हें खाने में बड़ी विराधना होती है और अल्प तृप्ति होती है । इस लिए विवेकशील अचित्तभोजी श्रावक को उन्हें अचित्त करके भी न खाना चाहिए । वैसा करने पर भी वह अतिचार का भागी है।।
(उपासक दशांग सूत्र ।
(प्रवचनसारोद्धार गाथा २८१) __ भोजन की अपेक्षा से ये पाँच अतिचार हैं । भोगोपभोग सामग्री की प्राप्ति के साधनधृत द्रव्य के उपार्जन के लिये भी श्रावक कर्म अर्थात् वृत्ति व्यापार की मयार्दा करता है । वृत्ति-व्यापार की अपेक्षा श्रावक को खर कर्म अर्थात् कठोर कर्म का त्याग करना चाहिये ।
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३०७
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह उत्कट ज्ञानावरणीयादि अशुभ कर्म के कारण भूत कर्म एवं व्यापार को कर्मादान कहते हैं। इंगालकर्म, वन कर्म आदि पन्द्रह कर्मादान हैं । ये कर्म की अपेक्षा सातवें व्रत के अतिचार है । प्रायः ये लोक व्यवहार में भी निन्ध गिने जाते हैं। और महा पाप के कारण होने से दुर्गति में ले
जाने वाले हैं । अतः श्रावक के लिये त्याज्य हैं । नोट:-पन्द्रह कर्मादन का विवेचन आगे पन्द्रहवें घोल में दिया
जायगा। ३०८-अनर्थदण्ड विरमण व्रत के पाँच अतिचार
(१) कन्दर्प। (२) कौत्कुच्य। (२) मौखर्य । (४) संयुक्ताधिकरण ।
(५) उपभोग परिभोगातिरिक्त । (१) कन्दर्पः काम उत्पन्न करने वाले वचन का प्रयोग करना,
राग के आवेश में हास्य मिश्रित मोहोद्दीपक मज़ाक करना
कन्दर्प अतिचार है। (२) कौत्कुच्यः-मांडों की तरह भौंएं, नेत्र, नासिका, ओष्ठ, मुख,
हाथ, पैर आदि अंगों को विकृत बना कर दूसरों को हँसाने
वाली चेष्टा करना कौत्कुच्य अतिचार है। (३) मौखर्यः-दिठाई के साथ असत्य, ऊट पटांग वचन बोलना
मौखर्य्य अतिचार है। (४) संयुक्ताधिकरण कार्य करने में समर्थ ऐसे उखल और
मूसल, शिला और लोदा, हाल और फाल, गाड़ी और जूभा, धनुष और बाण, वसूला और कुल्हाड़ी, चक्की
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३०८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
आदि दुर्गति में ले जाने वाले अधिकरणों को, जो साथ ही काम आते हैं, एक साथ रखना संयुक्ताधिकरण अतिचार हैं । जैसे ऊखल के विना मूमल काम नहीं देता और न मूसल के विना ऊखल ही । इसी प्रकार शिला के विना लोढ़ा और लोढ़े के विना शिला भी काम नहीं देती । इस प्रकार के उपकरणों को एक साथ न रख कर विवेकी श्रावक को जुदे जुड़े रखना चाहिये ।
(५) उपभोग परिभोगातिरिक्त (अतिरेक ) : - उबटन, आँवला, तैल, पुष्प, वस्त्र, आभूषण, तथा अशन, पान, खादिम स्वादिम यदि उपभोग परिभोग की वस्तुओं को अपने एवं आत्मीय जनों के उपयोग से अधिक रखना उपभोग परिभोगातिरिक्त तिचार है ।
( उपासक दशांग सूत्र )
(हरिभद्रीय आवश्यक पृष्ठ ८२६-३०)
( प्रवचन सारोद्धार गाथा २८२ )
अपध्यानाचरित, प्रमादाचरित, हिंस्र प्रदान और
पाप कर्मोपदेश ये चार अनर्थदण्ड हैं । अनर्थदण्ड से विरत होने वाला श्रावक इन चारों अनर्थदण्ड के कार्यों से निवृत्त होता है । इनसे विरत होने वाले के ही ये पाँच अतिचार हैं । उक्त पाँचों अतिचारों में कही हुई क्रिया का सावधानी से चिन्तन करना अपध्यानाच रित विरति का अतिचार है । कन्दर्प, कौत्कुच्य एवं उपभोग परिभोगातिरेक ये तीनों प्रमादाचरित - विरति के अतिचार हैं।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ३०६ संयुक्ताधिकरण, हिंस्रप्रदान विरति का अतिचार है। मौखर्य, पाप कर्मोपदेश विरति का अतिचार है।
(प्रवचन सारोद्धार गाथा २८२ की टीका) ३०६-सामायिक व्रत के पांच अतिचार--
(१) मनोदुष्प्रणिधान । (२) वाग्दुप्रणिधान । (३) काया दुष्प्रणिधान । (४) सामायिक का स्मृत्यकरण ।
(५) अनवस्थित सामायिक करण । (१) मनोदुष्प्रणिधानः-मन का दुष्ट प्रयोग करना अर्थात् मन
को बुरे व्यापार में लगाना, जैसे सामायिक करके घर सम्बन्धी अच्छे बुरे कार्यों का विचार करना, मनो
दुष्प्रणिधान अतिचार है। (२) वाग्दुष्प्रणिधानः वचन का दुष्ट प्रयोग करना, जैसे
असभ्य, कठोर एवं सावध वचन कहना वाग्दुष्प्रणिधान
अतिचार है। (३) काय दुष्प्रणिधानः-विना देखी, विना पूंजी जमीन पर
हाथ, पैर आदि अवयव रखना, काय दुष्प्रणिधान
अतिचार है। (४) सामायिक का स्मृत्यकरणः-सामायिक की स्मृति न रखना
अर्थात् उपयोग न रखना सामायिक का स्मृत्यकरण अतिचार है । जैसे मुझे इस समय सामायिक करना चाहिये । सामायिक मैंने की या न की आदि प्रबल प्रमाद वश भूल जाना।
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३१०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थ माला (५) अनवस्थित सामायिक करणः---अव्यवस्थित रीति से सामायिक करना अनवस्थित सामायिक करण अतिचार है।
जैसे अनियत सामायिक करना, अल्पकाल की सामायिक करना, करने के बाद ही सामायिक छोड़ देना, जैसे तैसे ही अस्थिरता से सामायिक पूरी करना या अनादर से सामायिक करना।
अनुपयोग से प्रथम तीन अतिचार हैं और प्रमाद बहुलता से चौथा, पाँचवां अनिचार है।
(उपामक दशांग सूत्र ) (हरिभद्रीय आवश्यक पृष्ठ ८३३ से ८३४) ३१०--देशावकाशिक व्रत के पाँच अतिचार:
(१) आनयन प्रयोग। (२) प्रेष्यप्रयोग । (३) शब्दानुपात । (४) रूपानुपात ।
(५) बहिः पुद्गल प्रक्षेप । (१) आनयन प्रयोगः-पर्यादा किये हुए क्षेत्र से बाहर स्वयं
न जा सकने से दूसरे को, तुम यह चीज़ लेते आना इस प्रकार संदेशादि देकर सचित्तादि द्रव्य मँगाने में लगाना
आनयन प्रयोग अतिचार है। (२) प्रेष्य प्रयोग-पर्यादित क्षेत्र से बाहर स्वयं जाने से मर्यादा
का अतिक्रम हो जायगा। इस भय से नौकर, चाकर आदि आज्ञाकारी पुरुष को मेज कर कार्य कराना प्रेष्य प्रयोग
अतिचार है। (३) शब्दानुपात-अपने घर की बाड़ या चहारदीवारी के
अन्दर के नियमित क्षेत्र से बाहर कार्य होने पर
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ३११ व्रती का व्रत भङ्ग के भय से स्वयं बाहर न जाकर निकटवर्ती लोगों को छींक, खांसी आदि शब्द द्वारा ज्ञान कराना
शब्दानुपात अतिचार है। (४) रूपानुपात-नियमित क्षेत्र से बाहर प्रयोजन होने पर
दूमरों को अपने पास बुलाने के लिए अपना या पदार्थ
विशेष का रूप दिखाना रूपानुपात अतिचार है। (५) बहिः पुद्गल प्रक्षेपः--नियमित क्षेत्र से बाहर प्रयोजन होने
पर दूसरों को जताने के लिये देला, कङ्कर आदि फेकना बहिःपुद्गल प्रक्षेप अतिचार है।
पूरा विवेक न होने से तथा सहसाकार अनुपयोगादि से पहले के दो अतिचार हैं । मायापरता तथा व्रत मापं. क्षता से पिछले तीन अतिचार हैं ।
(उपासक दशांग) (धर्म संग्रह अधिकार २ पृष्ठ ११४-११५)
(हरिभद्रीय आवश्यक पृष्ठ ८३४) ३११-प्रनिपूर्ण ( परिपूर्ण ) पौषध व्रत के पाँच अतिचार:
(१) अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षित शय्या संस्तारक । (२) अप्रमार्जिन दुष्प्रमार्जित शय्या संस्तारक । (३) अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षित उच्चार प्रस्रवण भूमि । (४) अप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित उच्चार प्रस्रवण भृमि ।
(५) पौषध का सम्यक् अपालन । (१) अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षित शय्या संस्तारकः-शव्य .
संस्तारक का चक्षु से निरीक्षण न करना या अन्यमनस्क
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३१२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला होकर असावधानी से निरीक्षण करना अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्यु
पेक्षित शय्या संस्तारक अतिचार है। (२) अप्रमार्जित दुष्प्रर्मार्जित शय्या संस्तारकः-शय्या संस्तारक
(संथारे) को न पूंजना वा अनुपयोग पूर्वक असावधानी से पूंजना अप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित शय्या संस्तारक अति
चार है। (३) अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षित उच्चार प्रस्रवण भूमिः-मल, मूत्र
आदि परिठवने के स्थण्डिल को न देखना या अनुपयोग पूर्वक असावधानी से देखना अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षित
उच्चार प्रस्रवण भूमि अतिचार है। (४) अप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित उच्चार प्रस्रवण भूमिः-मल, मूत्र
आदि परिठवने के स्थण्डिल को न पूंजना या विना उपयोग असावधानी से पूंजना अप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित उच्चार
प्रस्रवण भूमि अतिचार है। (५) पौषधोपवास का सम्यक् अपालन:-आगमोक्त विधि से
स्थिर चित्त होकर पौषधोपवास का पालन न करना, पौषध में आहार, शरीर शुश्रूषा, अब्रह्म तथा सावध व्यापार की अभिलाषा करना पौषधोपवास का सम्यक अपालन अतिचार है।
व्रती के प्रमादी होने से पहले के चार अतिचार हैं। अतिचारोक्त शय्या संस्तारक तथा उच्चार प्रस्रवण भूमि का उपभोग करना अतिचार का कारण होने से ये अतिचार
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह कहे गये हैं। भाव से विरति का बाधक होने से पांचवां अतिचार है।
(उपासक दशांग) ३१२-अतिथि संविभाग व्रत के पांच अतिचार:
(१) सचित्त निक्षेप (२) सचित्तपिधान । (३) कालातिक्रम (४) परव्यपदेश ।
(५) मत्सरिता। ( ) मचित्त निक्षेपः साधु को नहीं देने की बुद्धि से कपट पूर्वक
सचित्त धान्य आदि पर अचित्त अन्नादि का रखना सचित्त
निक्षेप अतिचार है। (२) सचित्त पिधानः-साधु को नहीं देने की बुद्धि से कपट
पूर्वक अचित्त अन्नादि को सचित्त फल आदि से ढंकना
मचित्तपिधान अतिचार है। (३) कालातिक्रमः-उचित भिक्षा काल का अतिक्रमण करना
कालातिक्रम अतिचार है । काल के अतिक्रम हो जाने पर यह सोच कर दान के लिए उद्यत होना कि अब साधु जी
आहार तो लेंगे नहीं पर वह जानेंगे कि यह श्रावक
दातार है। (४) पर व्यपदेशः--आहारादि अपना होने पर भी न देने की
बुद्धि से उसे दूसरे का बताना परव्यपदेश अतिचार है। (५) मत्सरिता:-अमुक पुरुष ने दान दिया है । क्या मैं उससे
कृपण या हीन हूँ ? इस प्रकार ईर्षाभाव से दान देने में प्रवृत्ति करना मत्सरिता अतिचार है ।
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३१४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
अथवा:
मांगने पर कुपित होना और होते हुए भी न देना,
मत्सरिता अतिचार है ।
अथवा:
कपाय कलुषित चित से साधु को दान देना मत्सरिता अतिचार है ।
उपासक दशांग ) ( हरिभद्रीय आवश्यक पृष्ठ ८३७-३८)
my
३१३ - अपश्चिम मारणान्तिकी संलेखना के पाँच अतिचार:अन्तिम मरण समय में शरीर और कपायादि को कृश करने वाला तप विशेष अपश्चिम मारणान्तिकी संलेखना है। इसके पाँच अतिचार हैं:
(१) इहलोकाशंसा प्रयोग
(३) जीविताशंसा प्रयोग
(२) परलोकाशंसा प्रयोग । (४) मरणाशंसा प्रयोग
(५) कामभोगाशंसा प्रयोग ।
(१) इहलोकाशंमा प्रयोगः - इहलोक अर्थात् मनुष्य लोक विषयक इच्छा करना । जैसे जन्मान्तर में मैं राजा, मन्त्री या सेठ होऊँ ऐसी चाहना करना इहलोकाशंसा प्रयोग अतिहै 1
चार
(२) परलोकाशंसा प्रयोगः -- परलोक विषयक अभिलाषा करना, जैसे मैं जन्मान्तर में इन्द्र या देव होऊँ, ऐसी चाहना करना, परलोकाशंसा प्रयोग अतिचार है ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह . (३) जीविताशंसा प्रयोगः-बहु परिवार एवं लोक प्रशंसा
आदि कारणों से अधिक जीवित रहने की इच्छा करना
जीविताशंसा प्रयोग है। (४) मरणाशंसा प्रयोगः-अनशन करने पर प्रशंसा आदि
न देख कर या चुधा आदि कष्ट से पीड़ित होकर शीघ्र
मरने की इच्छा करना मरणाशंसा प्रयोग है। (५) कामभोगाशंसा प्रयोग-मनुष्य एवं देवता सम्बन्धी काम
अर्थात् शब्द, रूप एवं भोग अर्थात् गन्ध, रस, स्पर्श की इच्छा करना कामभोगाशंसा प्रयोग है।
. (उपासक दशांग)
(धर्म संग्रह अधिकार २ पृष्ठ २३१) ३१४--श्रावक के पाँच अभिगम-उपाश्रय की सीमा में प्रवेश
करते ही श्रावक को पाँच अभिगमों का पालन करना चाहिये । साधु जी के सन्मुख जाते समय पाले जाने वाले
नियम अभिगम कहलाते हैं। वे ये हैं (१) सचित्तद्रव्य, जैसे पुष्प ताम्बूल आदि का त्याग करना । ( २ ) अचित्त द्रव्य, जैसे:-वस्त्र वगैरह मर्यादित करना । (३) एक पट वाले दुपट्टे का उत्तरासंग करना। ( ४ ) मुनिराज के दृष्टि गोचर होते ही हाथ जोड़ना । (५) मन को एकाग्र करना ।
(भगवती शतक : उद्देशा ५) । ३१५ चारित्र की व्याख्या और भेदः-चारित्र मोहनीय कर्म
के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से होने वाले विरति परिणाम को चारित्र कहते है।
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३१६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला अन्य जन्म में ग्रहण किये हुए कर्म संचय को दूर करने के लिये मोक्षाभिलाषी आत्मा का सर्व सावद्य योग
से निवृत्त होना चारित्र कहलाता है। चारित्र के पांच भेदः--
(१) सामायिक चारित्र, (२) छेदोपस्थापनिक चारित्र । (३) परिहार विशुद्धि चारित्र, (४) सूक्ष्मम्पराय चारित्र ।
(५) यथाख्यातचारित्र । ( १ ) मामायिक चारित्र-सम अर्थात् राग द्वेश रहित आत्मा
के प्रतिक्षण अपूर्व अपूर्व निर्जरा से होने वाली आत्म विशुद्धि का प्राप्त होना सामायिक है।
भवाटवी के भ्रमण से पैदा होने वाले क्लेश को प्रतिक्षण नाश करने वाली, चिन्तामणि, कामधेनु एवं कल्प वृक्ष के सुखों का भी तिरस्कार करने वाली, निरुपम सुख देने वाली एसी ज्ञान, दर्शन, चारित्र पर्यायों को प्राप्त कराने वाले, राग द्वेश रहित आत्मा के क्रियानुष्ठान को सामायिक चारित्र कहते हैं ।
सर्व सावध व्यापार का त्याग करना एवं निरवद्य व्यापार का सेवन करना सामायिक चारित्र है।
यों तो चारित्र के सभी भेद सावद्य योग विरतिरूप हैं। इस लिये सामान्यतः सामायिक ही हैं । किन्तु चारित्र के दमरे भेदों के साथ छेद आदि विशेषण होने से नाम और अर्थ से भिन्न भिन्न बताये गये हैं। छेद आदि विशेषणों के न होने से पहले चारित्र का नाम सामान्य रूप से सामायिक ही दिया गया है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ३१७ सामायिक के दो भेद-इत्वर कालिक सामायिक और
यावत्कथिक सामायिक । इत्तरकालिक सामायिक--इत्वर काल का अर्थ है अल्प काल
अर्थात् भविष्य में दूसरी बार फिर सामायिक व्रत का व्यपदेश होने से जो अल्प काल की सामायिक हो, उसे इत्वरकालिक सामायिक कहते हैं। पहले एवं अन्तिम ती कर भगवान् के तीर्थ में जब तक शिष्य में महाव्रत का आरोपण नहीं किया जाता तब तक उस शिष्य के इत्वर कालिक सामामिक समझनी चाहिये।। यावत्कथिक सामायिक :-यावजीवन की सामायिक यावत्कथिक सामायिक कहलाती है । प्रथम एवं अन्तिम तीर्थकर भगवान् के सिवा शेष बाईस तीर्थंकर भगवान् एवं महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों के साधुओं के यावत्कथिक सामायिक होती है । क्योंकि इन तीर्थंकरों के शिष्यों को
दूसरी बार सामायिक व्रत नहीं दिया जाता। (२) छेदोपस्थापनिक चारित्र--जिस चारित्र में पूर्व पर्याय का
छेद एवं महाव्रतों में उपस्थापन-आरोपण होता है उसे छेदोपस्थापनिक चारित्र कहते हैं ।
अथवाः-- पूर्व पर्याय का छेद करके जो महाव्रत दिये जाते हैं उसे छेदोपस्थापनिक चारित्र कहते हैं ।
यह चारित्र भरत, ऐरावत क्षेत्र के प्रथम एवं चरमतीर्थंकरों के तीर्थ में ही होता है शेष तीर्थंकरों के तीर्थ में नहीं होता ।
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३१८
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला छेदोपस्थापनिक चारित्र के दो भेद हैं(१) निरतिचार छेदोपस्थापनिक । (२) सातिचार छेदोपस्थापनिक । (१) निरतिचार छेदोपस्थापनिकः इत्वर सामायिक वाले
शिष्य के एवं एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने वाले साधुओं के जो व्रतों का आरोपण होता है। वह
निरतिचार छेदोपस्थापनिक चारित्र है। (२) मातिचार छेदोपस्थापनिक:-मूल गुणों का घात करने
वाले साधु के जो : व्रतों का आरोपण होता है वह
सातिचार छेदोपस्थापनिक चारित्र है। (३) परिहार विशुद्धि चारित्रः-जिस चारित्र में परिहार तप
विशेष से कर्म निर्जरा रूप शुद्धि होती है। उसे परिहार विशुद्धि चारित्र कहते हैं।
अथवाःजिस चारित्र में अनेषणीयादि का परित्याग विशेष रूप से शुद्ध होता है । वह परिहार विशुद्धि चारित्र है।
स्वयं तीर्थंकर भगवान् के समीप, या तीर्थंकर भगवान् के समीप रह कर पहले जिसने परिहार विशुद्धि चारित्र अङ्गीकार किया है उसके पास यह चारित्र अङ्गीकार किया जाता है । नव साधुओं का गण परिहार तप अङ्गीकार करता है । इन में से चार तप करते हैं जो पारिहारिक कहलाते हैं । चार वैयावृत्य करते हैं जो अनुपारिहारिक कहलाते हैं और एक कल्पस्थित अर्थात्
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३१६
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह गुरु रूप में रहता है जिसके पास पारिहारिक एवं अनुपारिहारिक साधु आलोचना, वन्दना, प्रत्याख्यान आदि करते हैं । पारिहारिक साधु ग्रीष्म ऋतु में जघन्य एक उपवास,मध्यम बेला (दो उपवास) और उत्कृष्ट तेला (तीन उपवास) तप करते हैं । शिशिर काल में जघन्य बेला मध्यम तेला और उत्कृष्ट (चार उपवास ) चौला तप करते हैं । वर्षा काल में जघन्य तेला, मध्यम चौला और उत्कृष्ट पचौला तप करते हैं। शेष चार आनुपारिहारिक एवं कल्पस्थित (गुरु रूप ) पाँच साधु प्रायः नित्य भोजन करते है । ये उपवास आदि नहीं करते। आयंबिल के सिवा ये
और भोजन नहीं करते अर्थात् सदा आयंबिल ही करते हैं । इस प्रकार पारिहारिक साधु छः मास तक तप करते हैं । छः मास तक तप कर लेने के बाद वे अनुपारिहारिक अर्थात् वैयावृत्त्य करने वाले हो जाते है और वैयावृत्त्य करने वाले (आनुपारिहारिक) साधु पारिहारिक बन जाते हैं अर्थात् तप करने लग जाते हैं। यह क्रम भी छः मास तक पूर्ववत् चलता है। इस प्रकार आठ साधुओं के तप कर लेने पर उनमें से एक गुरु पद पर स्थापित किया जाता है और शेष सात वैयावृत्त्य करते हैं और गुरु पद पर रहा हुआ साधु तप करना शुरू करता है । यह भी छः मास तक तप करता है। इस प्रकार अठारह मास में यह परिहार तप का कल्प पूर्ण होता है । परिहार तप पूर्ण होने पर वे साधु या तो इसी कम्प की पुनः प्रारम्भ करते हैं या जिन कल्प धारण कर
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला लेते हैं या वापिस गच्छ में आ जाते हैं । यह चारित्र छेदोपस्थापनिक चारित्र वालों के ही होता है दूसरों के नहीं।
निविश्यमानक और निविष्टकायिक के भेद से परिहार विशुद्धि चारित्र दो प्रकार का है।
तप करने वाले पारिहारिक साधु निर्विश्यमानक कहलाते हैं । उनका चारित्र निर्विश्यमानक परिहार विशुद्धि चारित्र कहलाता है।
तप करके वैयावृत्य करने वाले अनुपारिहारिक साधु तथा तप करने के बाद गुरु पद रहा हुआ साधु निर्विष्टकायिक कहलाता है । इनका चारित्र निर्विष्टकायिक परिहार
विशुद्धि चारित्र कहलाता है। (४) सूक्ष्म सम्पराय चारित्रः-सम्पराय का अर्थ कषाय होता
है। जिम चारित्र में सूक्ष्म सम्पराय अर्थात् संज्वलन लोभ का मूक्ष्म अंश रहता है। उसे सूक्ष्म सम्पराय चारित्र
विशुद्धधमान और संक्लिश्यमान के भेद से सूक्ष्म सम्पराय चारित्र के दो भेद हैं।
क्षपक श्रेणी एवं उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाले साधु के परिणाम उत्तरोत्तर शुद्ध रहने से उनका सूक्ष्म सम्पराय चारित्र विशुद्धयमान कहलाता है ।
उपशम श्रेणी से गिरते हुए साधु के परिणाम संक्लेश युक्त होते हैं इसलिये उनका सूक्ष्मसम्पराय । चारित्र संक्लिश्यमान कहलाता है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (५) यथाख्यात चारित्र--सर्वथा कपाय का उदय न होने से
अतिचार हित पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध चारित्र यथाख्यान चारित्र कहलाता है। अथवा अकषायी माधु का निरतिचार यथार्थ चारित्र यथाख्यात चारित्र कहलाता है ।
छबस्थ और केवली के भेद से यथाख्यात चारित्र के दो भेद हैं । अथवा उपशान्त मोह और क्षीण मोह या प्रतिपाती और अप्रतिपाती के भेद से इसके दो भेद हैं।
मयोगी केवली और अयोगी केवली के भेद से केवली यथाख्यात चारित्र के दो भेद हैं।
(ठाणांग ५ उद्देशा २ सूत्र ४२८) (अनुयोगद्वार पृष्ठ २२० आगमोदय ममिति ) __ (अभिधान गजेन्द्र कोप भाग ३ तथा ७)
सामाइश्र और चारित्त शब्द) (विशेषावश्यक भाष्य गाथा १२६०-१२७६ ) ३१६-महाव्रत की व्याख्या और उसके भेदः
देशविरति श्रावक की अपेक्षा महान् गुणवान् साधु मुनिराज के सर्वविरति रूप व्रतों को महावत कहते हैं।
अथवा:श्रावक के अणुव्रत की अपेक्षा साधु के व्रत बड़े हैं। इम लिये ये महाव्रत कहलाते हैं । महाव्रत पाँच हैं:
(१) प्राणातिपात विरमण महावत । (२) मृषावाद विरमण महाव्रत । (३) अदत्तादान विरमण महाव्रत ।
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श्री सठिया जैन ग्रन्थमाला (४) मथुन विरमण महाव्रत ।
(५) परिग्रह विरमण महावन । (१) प्राणातिपात विग्मण महावतः-प्रमाद पूर्वक सूक्ष्म और
बादर, त्रम और स्थावर रूप समस्त जीवों के पांच इन्द्रिय, मन, वचन, काया, श्वासोच्छवाम और आयु रूप दश प्राणों में से किसी का अतिपात (नाश) करना प्राणातिपात है । मम्मग्ज्ञान एवं श्रद्धापूर्वक जीवन पर्यन्त प्राणातिपात से तीन करण तीन योग से निवृत होना प्राणानिपात
विग्मण रूप प्रथम महावन है। (२) मृपावाद विग्मण महाव्रत:--प्रियकारी, पथ्यकारी एवं सत्य
वचन को छोड कर कपाय, भय, हास्य आदि के वश असन्य, अप्रिय, अहितकारी वचन कहना मृपावाद है । सूम, वादर के भेद से अमत्य वचन दो प्रकार का है। सद्भाव प्रतिपेध, असद्भावोद्भावन, अर्थान्तर और गर्दा के
मेद से असन्य वचन नार प्रकार का भी है । नोट:--अमत्य वचन के चार भेद और उनकी व्याख्या बोल
नम्बर २७० दे दी गई है। ___चोर को चोर कहना, कोड़ी को कोही कहना, काणे को काणा कहना आदि अप्रिय वचन हैं। क्या जंगल में तुमने मृग देखे ? शिकारियों के यह पूछने पर मृग देखने वाले पुरुष का उन्हें विधि रूप में उत्तर देना अहित वचन है। उक्त अप्रिय एवं अहित वचन व्यवहार में सत्य होने पर भी पर पीडाकारी होने से एवं प्राणियों की हिंसा
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३२३
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह जनित पाप के हेतु होने से सावध हैं । इस लिये हिंसा युक्त होने से वास्तव में असत्य ही हैं। ऐसे मृषावाद से सर्वथा जीवन पर्यन्त तीन करण तीन योग से निवृत्त होना
मृषावाद विरमण रूप द्वितीय महावत है। (३) अदत्तादान विरमण महाव्रत- कहीं पर भी ग्राम, नगर
अरण्य आदि में मचित्त, अचित्त, अल्प, बहु, अणु स्थूल श्रादि वस्तु को, उसके स्वामी की विना आज्ञा लेना अदत्तादान है । यह अदत्तादान स्वामी, जीव, तीर्थ एवं गुरु के भेद से चार प्रकार का होता है(१) स्वामी से विना दी हुई तृण, काष्ठ आदि वस्तु लेना म्वामी अदनादान है। (२) कोई सचित्त वस्तु स्वामी ने दे दी हो, परन्तु उस वस्तु के अधिष्ठाता जीव की आज्ञा विना उसे लेना जीव अदतादान है । जैसे माता पिता या मंरक्षक द्वारा पुत्रादि शिष्य भिक्षा रुप में दिये जाने पर भी उन्हें उनकी इच्छा विना दीक्षा लेने के परिणाम न होने पर भी उनकी अनुमति के विना उन्हें दीक्षा देना जीव अदत्तादान है। इसी प्रकार मचित्त पृथ्वी आदि स्वामी द्वारा दिये जाने पर भी पृथ्वी-शरीर के स्वामी जीव की आज्ञा न होने से उसे भोगना जीव अदनादान है । इस प्रकार सचित्त वस्तु के भोगने में प्रथम महाव्रत के साथ साथ तृतीय महाव्रत का भी भङ्ग होता है। (३) तीर्थंकर से प्रतिपंध किये हुए आधाकर्मादि आहार ग्रहण करना तीर्थंकर अदत्तादान है ।
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३२४
श्री सठिया जैन ग्रन्थमाला (४) स्वामी द्वारा निर्दोप आहार दिये जाने पर भी गुरु की आज्ञा प्राप्त किये बिना उसे भोगना गुरु अदत्तादान है।
किसी भी क्षेत्र एवं वस्तु विषयक उक्त चारों प्रकार के अदनादान से सदा के लिये तीन करण तीन योग से
निवृत होना अदनादान विरमण रूप तीसरा महाव्रत है। (४) मैथुन विरमण महाव्रत-देव, मनुष्य और तिर्यश्च सम्बन्धी
दिव्य एवं औदारिक काम-सेवन का तीन करण तीन योग
से त्याग करना मैथुन विरमण रूप चतुर्थ महावत है । (५) परिग्रह विरमण महाव्रतः-अल्प, बहु, अणु, स्थूल सचिन
अचिन आदि समस्त द्रव्य विषयक परिग्रह का तीन करण तीन योग से त्याग करना परिग्रह विरमण रूप पाँचवाँ महावत है । मूर्छा, ममत्व होना भाव परिग्रह है और वह त्याज्य है । मू भाव का कारण होने से बाह्य सकल वस्तुएं द्रव्य परिग्रह हैं और वे भी त्याज्य हैं । मावपरिग्रह मुख्य है और द्रव्य परिग्रह गौण । इस लिए यह कहा गया है कि यदि धर्मोपकरण एवं शरीर पर यति के मर्छा, ममता भाव जनित राग भाव न हो तो वह उन्हें धारण करता हुआ भी अपरिग्रही ही है।
(दशवैकालिक अध्ययन ४)
(ठाणांग ५ सूत्र ३८६) (धर्मसंग्रह अधिकार ३ पृष्ठ १२० से १२४)
(प्रवचन सारोद्धार गाथा ५५३) ३१७--प्राणातिपात विग्मण रूप प्रथम महावत की पाँच
भावनाएं:
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
३२५ (१) साधु ईर्या समिति में उपयोग रखने वाला हो, क्योंकि ईर्या
समिति रहित साधु प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की हिंसा
करने वाला होता है। (२) साधु सदा उपयोग पूर्वक देख कर चौड़े मुख वाले पात्र में
आहार, पानी ग्रहण करे एवं प्रकाश वाले स्थान में देख कर भोजन करे । अनुपयोग पूर्वक विना देखे आहारादि ग्रहण करने वाले एवं भोगने वाले साधु के प्राण, भूत,
जीव और सत्त्व की हिंसा का सम्भव है। (३) अयतना से पात्रादि भंडोपगरण लेने और रखने का आगम
में निषेध है । इस लिए साधु आगम में कहे अनुसार देख कर और पूंजकर यतना पूर्वक भंडोपगरण लेवे और रखे,
अन्यथा प्राणियों की हिंसा का सम्भव है । (४) संयम में सावधान साधु मन को शुभ प्रवृत्तियों में लगाये।
मन को दुष्ट रूप से प्रवर्ताने वाला साधु प्राणियों का हिंसा करता है । काया का गोपन होते हुए भी मन की दुष्ट प्रवृत्ति राजर्षि प्रसन्न चन्द्र की तरह कर्मबन्ध का कारण
होती है। (५) संयम में सावधान साधु अदुष्ट अर्थात् शुभ वचन में प्रवृति
करे । दुष्ट वचन में प्रवृत्ति करने वाले के प्राणियों की हिंसा
का संभव है। ३१८-मृषावाद विरमण रूप द्वितीय महावत की पाँच
भावनाएं:
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३२६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (१) सत्यवादी साधु को हास्य का त्याग करना चाहिये क्योंकि
हास्य वश मृषा भी बोला जा सकता है। (२) साधु को सम्यग्ज्ञान पूर्वक विचार करके बोलना चाहिये ।
क्योंकि विना विचारे बोलने वाला कभी झूठ भी कह सकता है। (३) क्रोध के कुफल को जान कर साधु को उसे त्यागना
चाहिये । क्रोधान्य व्यक्ति का चित्त अशान्त हो जाता है। वह स्व, पर का भान भूल जाता है और जो मन में आता है वही कह देता है । इस प्रकार उसके झूठ बोलने की
बहुत संभावना है। (४) साधु को लोभ का त्याग करना चाहिये क्योंकि लोभी
व्यक्ति धनादि की इच्छा से झूठी साक्षी आदि से झूठ
बोल सकता है। (५) साधु को भय का भी परिहार करना चाहिये । भयभीत
व्यक्ति प्राणादि को बचाने की इच्छा से सत्य व्रत को
दृपित कर असत्य में प्रवृत्ति कर कर सकता है। ३१६-अदत्तादान विरमण रूप तीसरे महाव्रत की पाँच
भावनाएं(१) साधु को स्वयं (दूसरे के द्वारा नहीं ) स्वामी अथवा
स्वामी से अधिकार प्राप्त पुरुष को अच्छी तरह जानकर शुद्ध अवग्रह (रहने के स्थान) की याचना करनी चाहिये ।
अन्यथा साधु को अदत्त ग्रहण का दोष लगता है। (२) अवग्रह की आज्ञा लेकर भी वहाँ रहे हुए तृणादि ग्रहण के
लिये साधु को आज्ञा प्राप्त करना चाहिये। शय्यातर का
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
३२७
अनुमति वचन सुन कर ही साधु को उन्हें लेना चाहिये अन्यथा वह विना दी हुई वस्तु के ग्रहण करने एवं भोगने का दोषी है।
(३) साधु को उपाश्रय की सीमा को खोल कर एवं आज्ञा प्राप्त कर उसका सेवन करना चाहिये । तात्पर्य यह है कि एक बार स्वामी के उपाश्रय की आज्ञा दे देने पर भी बार बार उपाश्रय का परिमाण खोल कर आज्ञा प्राप्त करनी चाहिये | ग्लानादि अवस्था में लघुनीत बड़ीनीत परिठवने, हाथ, पैर, धोने आदि के स्थानों की, अवग्रह ( उपाश्रय ) की आज्ञा होने पर भी, याचना करना चाहिये ताकि दाता का दिल दुःखित न हो।
(४) गुरु अथवा रत्नाधिक की आज्ञा प्राप्त कर आहार करना चाहिए । आशय यह है कि सूत्रोक्त विधि से प्रासुक एषणीय प्राप्त हुए आहार को उपाश्रय में लाकर गुरु के आगे आलोचना कर और आहार दिखला कर फिर साधुमंडली में या अकेले उसे खाना चाहिये । धर्म के साधन रूप अन्य उपकरणों का ग्रहण एवं उपयोग भी गुरु की आज्ञा से ही करना चाहिये ।
।
(५) उपाश्रय में रहे हुए समान आचार वाले संभोगी साधुओं से नियत क्षेत्र और काल के लिये उपाश्रय की आज्ञा प्राप्त करके ही वहाँ रहना एवं भोजनादि करना चाहिये अन्यथा चोरी का दोष लगता है ।
३२० - मैथुन विरमण रूप चतुर्थ महाव्रत की पाँच भावनाएं(१) ब्रह्मचारी को आहार के विषय में संयत होना चाहिए। अति
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला स्निग्ध, सरस आहार न करना चाहिए और न परिमाण से अधिक ढूंस ढूंस कर ही आहार करना चाहिए। अन्यथा ब्रह्मचर्य की विराधना हो सकती है। मात्रा से अधिक
आहार तो ब्रह्मचर्य के अतिरिक्त शरीर के लिए भी
पीडाकारी है। (२) ब्रह्मचारी को शरीर की विभूषा अर्थात् शोभा, शुश्रूषा न
करनी चाहिये । स्नान, विलेपन, केश सम्मार्जन आदि शरीर की सजावट में दत्तचित्त साधु सदा चंचल चित्त रहता है और उसे विकारोत्पत्ति होती है। जिससे चौथे व्रत
की विराधना भी हो सकती है। (३) स्त्री एवं उसके मनोहर मुख, नेत्र आदि अंगों को काम
वासना की दृष्टि से न निरखना चाहिए । वासना भरी दृष्टि
द्वारा देखने से ब्रह्मचर्य खंडित होना संभव है। (४) स्त्रियों के साथ परिचय न रखे। स्त्री, पशु, नपुंसक से
सम्बन्धित उपाश्रय, शयन, आसन आदि का सेवन न
करे । अन्यथा ब्रह्मचर्य व्रतभङ्ग हो सकता है। (५) तत्त्वज्ञ मुनि, स्त्री विषयक कथा न करे । स्त्री कथा में
आसक्त साधु का चित्त विकृत हो जाता है । स्त्री कथा को ब्रह्मचर्य के लिए घातक समझ कर इससे सदा ब्रह्मचारी को दूर रहना चाहिए । ____ आचारांग सूत्र तथा समवायांग सूत्र में ब्रह्मचर्य व्रत की भावनाओं में शरीर की शोभा विभूषा का त्याग करने के स्थान में पूर्व क्रीड़ित अर्थात् गृहस्थावस्था में भोगे हुए
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३२६
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह काम भोग आदि का स्मरण न करना लिखा है । क्योंकि पूर्व रति एवं क्रीड़ा का स्मरण करने से कामाग्नि दीप्त
होती है, जो कि ब्रह्मचर्य के लिए घातक है। ३२१-परिग्रह विरमण रूप पांचवें महाव्रत की पाँच भावनाएं:
पाँचों इन्द्रियों के विषय शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श के इन्द्रिय गोचर होने पर मनोज्ञ पर मूर्छा-गृद्धि भाव न लावे एवं अमनोज्ञ पर द्वेष न करे । यों तो विषयों के गोचर होने पर इन्द्रियां उन्हें भोगती ही हैं । परन्तु माधु को मनोज्ञ एवं अमनोज्ञ विषयों पर राग द्वप न करना चाहिए । पांचवं व्रत में मूच्छो रूप भाव परिग्रह का त्याग किया जाता है । इस लिए मूळ, ममत्व करने से व्रत खण्डित हो जाता है।
( बोल नम्बर ३१५ से ३२१ तक के लिए प्रमाण)
(हरिभद्रीय आवश्यक प्रतिक्रमणाध्ययन पृष्ठ ६५८) (प्रवचन सारोद्धार गाथा ६३६ से ६४० पृष्ठ ११७)
(समवायांग २५वां समवाय) (अाचारांग सूत्र श्रुतस्कन्ध २ चूला ३)
(धर्म संग्रह अधिकार ३ पृष्ठ १२५) ३२२-वेदिका प्रतिलेखना के पांच भेदः
छः प्रमाद प्रतिलेखना में छठी वेदिका प्रतिलेखना है । वह पांच प्रकार की है:(१) ऊर्ध्व वेदिका (२) अधोवेदिका । (३) तिर्यग्वेदिका (४) द्विधा वेदिका ।
(५) एकतो वेदिका।
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३३०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(१) ऊर्ध्व वेदिका:- दोनों घुटनों के ऊपर हाथ रख कर प्रतिलेखना करना ऊर्ध्व वेदिका है ।
(२) अधोवेदिका:-- दोनों घुटनों के नीचे हाथ रख कर प्रतिलेखना करना अधोवेदिका है ।
(३) तिर्यग्वेदिका:-- दोनों घुटनों के पार्श्व (पसवाड़े) में हाथ रख कर प्रतिलेखना करना तिर्यग्वेदिका है ।
(४) द्विधावेदिकाः — दोनों घुटनों को दोनों भुजाओं के बीच में करके प्रतिलेखना करना द्विधा वेदिका है ।
(५) एकतोवेदिका: -- एक घुटने को दोनों भुजाओं के बीच में करके प्रतिलेखना करना एकतोवेदिका है ।
(ठणांग ६ उद्देशा ३ सूत्र ५०३ )
३२३-पांच समिति की व्याख्या और उसके भेद:
प्रशस्त एकाग्र परिणाम पूर्वक की जाने वाली आगमोक्त सम्यक् प्रवृत्ति समिति कहलाती है । अथवा:
प्रणातिपात से निवृत्त होने के लिए यतना पूर्वक सम्यक प्रवृत्ति करना समिति है ।
समिति पांच हैं:
(१) ईर्यासमिति ।
(२) भाषा समिति ।
(३) एषणा समिति ।
(४) आदान भएड मात्र निक्षेपणा समिति ।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ३३१ (५) उच्चार प्रस्रवण खेल सिंघाण जल्ल परिस्थापनिका
समिति । (१) ईर्या समितिः--ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के निमित्त श्राग
मोक्त काल में युग परिमाण भूमि को एकाग्र चित्त से देखते हुए राजमार्ग आदि में यतना पूर्वक गमनागमन करना
ईर्या समिति है। (२) भाषा समितिः-यतना पूर्वक भाषण में प्रवृत्ति करना
अर्थात् आवश्यकता होने पर भाषा के दोषों का परिहार करते हुए सत्य, हित, मित और असन्दिध वचन कहना
भाषा समिति है। ३) एषणा समितिः- गवेषण, ग्रहण और ग्रास सम्बन्धी एषणा
के दोषों से अदृषित अत एव विशुद्ध आहार पानी, रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि औधिक उपधि और शय्या, पाट पाटलादि औपग्रहिक उपधि का ग्रहण करना एपणा
समिति है। नोट:-गवेपणैषणा, ग्रहणैषणा और ग्रासैषणा का स्वरूप
६३ वें बोल में दे दिया गया है । (४) आदान भंड मात्र निक्षेपणा समितिः--आसन, संस्ता
रक, पाट, पाटला, वस्त्र, पात्र, दण्डादि उपकरणों को उपयोग पूर्वक देख कर एवं रजोहरणादि से पूंज कर लेना एवं उपयोग पूर्वक देखी और पूजी हुई भूमि पर
रखना आदान भंड मात्र निक्षेपणा समिति है । (५) उच्चार प्रस्रवण खेल सिंघाण जल्ल परिस्थापनिका
समितिः-स्थण्डिल के दोषों को वर्जते हुए परिठवने योग्य
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३३२
श्री सठिया जैन ग्रन्थमाला लघुनीत, बड़ीनीत, थूक, कफ, नासिका मल और मैलादि को निजीव स्थण्डिल में उपयोग पूर्वक परिठवना उच्चार प्रस्रवण खेल सिंघाण जल्ल परिस्थापलिका समिति है।
(समवायांग ५) (ठाणांग ५ उहेशा ३ सूत्र ४५७) (धर्म संग्रह अधिकार ३ पृष्ठ १३०)
(उत्तगध्ययन सूत्र अध्ययन २४) ३२४-आचार पाँच:--मोक्ष के लिए किया जाना वाला ज्ञानादि आसेवन रूप अनुष्ठान विशेष प्राचार कहलाता है।
अथवा:गुण वृद्धि के लिए किया जाने वाला आचरण आचार कहलाता है।
अथवाः-- पूर्व पुरुषों से आचरित ज्ञानादि आसेवन विधि को आचार कहते हैं। आचार के पाँच भेदः
(१) ज्ञानाचार। (२) दर्शनाचार। (३) चरित्राचार । (४) तप आचार |
(५) वीर्याचार । (१) ज्ञानाचारः-सम्यक् तत्व का ज्ञान कराने के कारण भूत
श्रुतज्ञान की आराधना करना ज्ञानाचार है।। (२) दर्शनाचार-दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व का निःशंकितादि रूप
से शुद्ध आराधना करना दर्शनाचार है। (३) चारित्राचार ज्ञान एवं श्रद्धापूर्वक सर्व सावद्य योगों का
त्याग करना चारित्र है । चारित्र का सेवन करना चारित्राचार है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
३३३
( ४ ) तप आचार --इच्छा निरोध रूप अनशनादि तप का सेवन करना तप आचार है ।
(५) वीर्याचार - अपनी शक्ति का गोपन न करते हुए धर्मकार्यों में यथाशक्ति मन, वचन, काया द्वारा प्रवृत्ति करना चार है ।
( ठाणांग ५ उद्देशा २ सूत्र ४३२ ) ( धर्मसंग्रह अधिकार ३ पृष्ठ १४० )
३२५ -- चार प्रकल्प के पाँच प्रकार-
आचारांग नामक प्रथम अङ्ग के निशीथ नामक अध्ययन को चार प्रकल्प कहते हैं । आचारांग सूत्र की पंचम चूलिका है। हैं। इसमें पाँच प्रकार के प्रायश्चित्तों का वर्णन है। इसी लिये हैं । वे ये हैं
इसके पाँच प्रकार कहे जाते
I
(१) मासिक उद्घातिक । (३) चौमासी उद्घातिक ।
(२) मासिक अनुद्घातिक । (४) चौमासी अनुद्घातिक । (५) आरोपणा ।
निशीथ अध्ययन इसके बीस उद्देशे
(१) मासिक उद्घातिकः उद्घात अर्थात् विभाग करके जो प्रायश्चित्त दिया जाता है वह उद्घातिक प्रायश्चित है । एक मास का उद्घातिक प्रायश्चित्त मासिक उद्घातिक है । इसी को लघु मास प्रायश्चित्त भी कहते हैं ।
मास के आधे पन्द्रह दिन, और मासिक प्रायश्चित्त के पूर्व वर्ती पच्चीस दिन के आधे १२|| दिन इन दोनों को जोड़ने से २७|| दिन होते हैं। इस प्रकार भाग करके
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ओ सेठिया जैन प्रन्थमाला जो एक मास का प्रायश्चित दिया जाता है वह मासिक
उद्घातिक या लघु मास प्रायश्चित्त है । (२) मासिक अनुद्घातिक-जिम प्रायश्चित का भाग न हो यानि
लघुकरण न हो वह अनुद्घातिक है । अनुद्घातिक प्रायश्चित्त को गुरु प्रायश्चित्त भी कहते हैं । एक मास का
गुरु प्रायश्चित्त मासिक अनुद्घातिक प्रायश्चित्त कहलाता है । (३) चौमासी उद्घातिक-चार मास का लघु प्रायश्चित्त चौमासी
उद्घातिक कहा जाता है। (४) चौमासी अनुद्घातिकः-चार माम का गुरु प्रायश्चित्त चौमामी अनुद्घातिक कहा जाता है।
दोषों के उपयोग, अनुपयोग तथा आमक्ति पूर्वक सेवन की अपेक्षा तथा दोपों की न्यूनाधिकता से प्रायश्चित्त भी जघन्य,मध्यम और उत्कृष्ट रूप से दिया जाता है। प्रायश्चित्त रूप में तप भी किया जाता है। दीक्षा का छेद भी होता
है। यह सब विस्तार छेद सूत्रों से जानना चाहिये। (५) आरोपणा-एक प्रायश्चित्त के ऊपर दूसरा प्रायश्चित्त चढ़ाना
आरोपणा प्रायश्चित्त है । तप प्रायश्चित्त छः मास तक ऊपग उपरी दिया जा सकता है । इसके आगे नहीं।
(ठाणांग ५ उद्देशा २ सूत्र ४३३ ) ३२६-आगेपणा के पांच भेदः
(१) प्रस्थापिता। (२) स्थापिता । (३) कृत्ला ।
(४) अकृत्ला । (५) हाड़ाहड़ा।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
३३५ (१) प्रस्थापिता:-आरोपिता प्रायश्चित्त का जो पालन किया
जाता है वह प्रस्थापिता आरोपणा है। (२) स्थापिता:-जो प्रायश्चित्त आरोपणा से दिया गया है । उस
का वैयावृत्त्यादि कारणों से उसी समय पालन न कर आगे
के लिये स्थापित करना स्थापिता आरोपणा है। (३) कृत्ला:--दोषों का जो प्रायश्चित्त छः महीने उपरान्त न
होने से पूर्ण सेवन कर लिया जाता है और जिस प्रायश्चित्त
में कमी नहीं की जाती । वह कृत्या आरोपणा है। (४) अकृत्ला-अपराध बाहुल्य से छः मास से अधिक
आरोपण प्रायश्चित्त आने पर ऊपर का जितना भी प्रायश्चित्त है । वह जिसमें कम कर दिया जाता है । वह अकृत्समा
प्रारोपणा है। (५) हाड़ाहड़ा--लघु अथवा गुरु एक, दो, तीन आदि मास का
जो भी प्रायश्चित्त आया हो, वह तत्काल ही जिसमें सेवन किया जाता है वह हाड़ाहड़ा आरोपणा है ।
(ठाणांग ५ उद्देशा २ सूत्र ४३३)
(समवायांग २८) ३२७-पांच शौच (शुद्धि ):
शौच अर्थात् मलीनता दूर करने रूप शुद्धि के पाँच प्रकार हैं। (१) पृथ्वी शौच । (३) तेजः शौच । (४) मन्त्र शौच ।
(५) ब्रह्म शौच।
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३३६
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला (१) पृथ्वी शौच-मिट्टी से घृणित मल और गन्ध का दूर करना
पृथ्वी शौच है। (२) जलः शौच-पानी से धोकर मलीनता दूर करना जल
शौच है। (३) तेजः शौच-अनि एवं अग्नि के विकार स्वरूप भस्म से
शुद्धि करना तेजः शौच है। (४) मन्त्र शौच--मन्त्र से होने वाली शुद्धि मन्त्र शौच है । (५) ब्रम शौच--ब्रह्मवर्यादि कुरा न अनुरान, जो आत्मा के
काम कषायादि आभ्यन्तर मल की शुद्धि करते हैं, ब्रह्मशौच कहलाते हैं । मत्य, नप, इन्द्रिय निग्रह एवं सर्व प्राणियों पर दया भाव रूप शौच का भी इसी में समावेश होता है।
इनमें पहले के चार शौच द्रव्य शौच हैं और ब्रह्म शौच भाव शौच है।
(ठाणग ५ उद्देशा३ सूत्र ४४६) ३२८--पाँच प्रकार का प्रत्याख्यान:प्रत्याख्यान (पच्चक्खाण) पांच प्रकार से शुद्ध होता है। शुद्धि
के भेद से प्रत्याख्यान भी पाँच प्रकार का है(१) श्रद्धान शुद्ध । (२) विनय शुद्ध । (३) अनुभाषण शुद्ध। (४) अनुपालना शुद्ध ।
(५) भावशुद्ध । (१) श्रद्धानशुद्धः-जिनकल्प, स्थविर कल्प एवं श्रावक धर्म
विषयक, तथा सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, पहली, चौथी पहर एवं चरम काल में सर्वज्ञ भगवान् ने जो प्रत्याख्यान कहे हैं उन पर श्रद्धा रखना श्रद्धान शुद्ध प्रत्याख्यान है।
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३३७
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (२) विनय शुद्धः-प्रत्याख्यान के समय में मन, वचन, काया
का गोपन कर अन्यूनाधिक अर्थात् पूर्ण वन्दना की विशुद्धि
रखना विनय शुद्ध प्रत्याख्यान है। (३) अनुभाषण शुद्धः-गुरु को वन्दना करके उनके सामने
खड़े हो, हाथ जोड़ कर प्रत्याख्यान करते हुए व्यक्ति का, गुरु के वचनों को धीमे शब्दों में अक्षर, पद, व्यञ्जन की अपेक्षा शुद्ध उच्चारण करते हुए दोहराना अनुभाषण
(परिभाषण) शुद्ध है। (४) अनुपालना शुद्धः--अटवी, दुष्काल, तथा ज्वरादि महा
रोग होने पर भी प्रत्याख्यान को भङ्ग न करते हुए उसका
पालन करना अनुपालना शुद्ध है। (५) भाव शुद्धः-राग, द्वेष, ऐहिक प्रशंसा तथा क्रोधादि परिणाम से प्रत्याख्यान को दूषित न करना भावशुद्ध है।
उक्त प्रत्याख्यान शुद्धि के सिवा ज्ञान शुद्ध भी छठा प्रकार गिना गया है। ज्ञान शुद्ध का स्वरूप यह है:
जिनकल्प आदि में मूल गुण उत्तर गुण विषयक जो प्रत्याख्यान जिस काल में करना चाहिये उसे जानना ज्ञान शुद्ध है। पर ज्ञान शुद्ध का समावेश श्रद्धानशुद्ध में हो जाता है क्योंकि श्रद्धान भी ज्ञान विशेष ही है।
(ठाणांग ५ उद्देशा ३ सूत्र ४६६) (हरिभद्रीयावश्यक प्रत्याख्यानाध्ययन पृष्ठ ८४७) २२१-पाँच प्रतिक्रमण
प्रति अर्थात् प्रतिकूल और क्रमण अर्थात् गमन ।
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला शुभ योगों से अशुभ योग में गये हुए पुरुष का वापिस शुभ योग में आना प्रतिक्रमण है । कहा भी हैस्वस्थानात् यत् परस्थानं, प्रमादस्य वशाद् गतम् । तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥१॥ _अर्थात् प्रमादवश आत्मा के निज गुणों को त्याग कर पर गुणों में गये हुए पुरुष का वापिस आत्म गुणों में लौट आना प्रतिक्रमण कहलाता है। विषय भेद से प्रतिक्रमण पांच प्रकार का है(१) आश्रवद्वार प्रतिक्रमण (२) मिथ्यात्व प्रतिक्रमण (३) कषाय प्रतिक्रमण (४) योग प्रतिक्रमण
(५) भावप्रतिक्रमण (१) आश्रवद्वार (असंयम ) प्रतिक्रमणः-आश्रव के द्वार
प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, और परिग्रह, से निवृत्त होना, पुनः इनका सेवन न करना आश्रवद्वार
प्रतिक्रमण है। (२) मिथ्यात्व प्रतिक्रमणः--उपयोग, अनुपयोग या सहसा
कारवश आत्मा के मिथ्यात्व परिणाम में प्राप्त होने पर
उससे निवृत्त होना मिथ्यात्व प्रतिक्रमण है।। (३) कषाय प्रतिक्रमणः-क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषाय
परिणाम से आत्मा को निवृत्त करना कषाय प्रतिक्रमण है। (४) योग प्रतिक्रमणः--मन, वचन, काया के अशुभ व्यापार प्राप्त
होने पर उनसे आत्मा को पृथक करना योग प्रतिक्रमण है।
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
३३६ (५) भाव प्रतिक्रमण:-आश्रवद्वार, मिथ्यात्व, कषाय और योग में तीन करण तीन योग से प्रवृत्ति न करना भाव प्रतिक्रमण है।
(ठाणांग ५ उद्देशा ३ सूत्र ४६७) (हरिभद्रीयावश्यक प्रतिक्रमणाध्ययन पृष्ठ ५६४) नोट:-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग के
भेद से भी प्रतिक्रमण पांच प्रकार का कहा जाता है किन्तु वास्तव में ये और उपरोक्त पांचों भेद एक ही हैं। क्योंकि
अविरति और प्रमाद का समावेश आश्रवद्वार में हो जाता है ३३०--प्रासैषणा (मांडला) के पांच दोषः
(१) संयोजना (२) अप्रमाण (३) अंगार (४) धूम
(५) अकारण । इन दोषों का विचार साधुमंडली में बैठ कर भोजन करते समय किया जाता है । इस लिये ये 'मांडला'
के दोष भी कहे जाते हैं। (१) संयोजना:-उत्कर्षता पैदा करने के लिये एक द्रव्य
का दूसरे द्रव्य के साथ संयोग करना संयोजना दोष है। जेसे रस लोलुपता के कारण दूध, शक्कर, घी आदि
द्रव्यों को स्वाद के लिये मिलाना । (२) अमाणः-स्वाद के लोभ से भोजन के परिमाण का ___ अतिक्रमण कर अधिक आहार करना अप्रमाण दोष है। (३) अङ्गार:-स्वादिष्ट, सरस आहार करते हुए आहार की
या दाता की प्रशंसा करना अङ्गार दोष है । जैसे अग्नि से जला हुआ खदिर आदि इन्धन अङ्गारा (कोयला) हो
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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जाता है । उसी प्रकार उक्त राग रुपी अग्नि से चारित्र रुपी इन्धन जल कर कोयले की तरह हो जाता है । अर्थात् राग से चारित्र का नाश हो जाता है । (४) धूमः -- विरस आहार करते हुए आहार या ? दाता की द्वेषवश निन्दा करना धूम दोष है । यह द्वेषभाव साधु चारित्र को जला कर सधूम काष्ठ की तरह कलुषित करने वाला है ।
(५) अकारण : - साधु को छः कारणों से आहार करने की आज्ञा है । इन छः कारणों के मित्रा बल, वीर्य्यादि की वृद्धि के लिए आहार करना कारण दोष है ।
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हार के छः कारण ये हैं:
१ - क्षुधा वेदनीय को शान्त करने के लिए ।
२ - साधुओं की वैयावृत्य करने के लिए ।
४ - संयम निभाने के लिये ।
५- दश प्राणों की रक्षा के लिये ।
३ - ईर्ष्या समिति शोधने के लिए |
६ - स्वाध्याय, ध्यान आदि करने के लिये ।
(उत्तराध्ययन अध्ययन २६ गाथा ३२ )
( धर्म संग्रह अधिकार ३ गाथा २३ की टीका ) ( पिण्ड नियुक्ति गाथा ) ३३१—छनस्थ के परिषह उपसर्ग सहने के पाँच स्थान:- पाँच बोलों की भावना करता हुआ छनस्थ साधु उदय में आये हुए परिषह उपमर्गों को सम्यक प्रकार से निर्भय हो कर अदीनता पूर्व सहे, खमे और परिपह उपसर्गों से विचलित न हो ।
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(१) मिध्यात्व मोहनीय आदि कर्मों के उदय से वह पुरुष शराब पिये हुए पुरुष की तरह उन्मत्त सा बना हुआ है । इसी से यह पुरुष मुझे गाली देता है, मज़ाक करता है, भर्त्सना करता है, बांधता है, रोकता है, शरीर के अवयव हाथ, पैर आदि का छेदन करता है, मूर्च्छित करता है, मरणान्त दुःख देता है, मारता है, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद पोन्छन आदि को छीनता है । मेरे से वस्त्रादि को जुदा करता है, वस्त्र फाड़ता है, एवं पात्र फोड़ता है तथा उपकरणों की चोरी करता है । (२) यह पुरुष देवता से अधिष्ठित है, इस कारण से गाली देता है । यावत् उपकरणों की चोरी करता है ।
(३) यह पुरुष मिथ्यात्व आदि कर्म के वशीभूत है। और मेरे भी इसी भव में भोगे जाने वाले वेदनीय कर्म उदय में हैं । इसी से यह पुरुष गाली देता है, यावत् उपकरणों की चोरी करता है ।
(४) यह पुरुष मूर्ख है । पाप का इसे भय नहीं है । इस लिये यह गाली आदि परिषह दे रहा है । परन्तु यदि मैं इससे दिये गए परिषह उपसर्गों को सम्यक् प्रकार अदीन भाव से वीर की तरह सहन न करूँ तो मुझे भी पाप के सिवा और क्या प्राप्त होगा ।
(५) यह पुरुष आक्रोश आदि परिषह उपसर्ग देता हुआ पाप कर्म बांध रहा है । परन्तु यदि मैं समभाव से इससे दिये गए परिषह उपसर्ग सह लूँगा तो मुझे एकान्त निर्जरा होगी ।
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________________ 342 श्री सेठिया जैन ग्रन्थ माला यहाँ परिषह उपसर्ग से प्रायः आक्रोश और वध रूप दो परिषह तथा मनुष्य सम्बन्धी प्रद्वेषादि जन्य उपसर्ग से तात्पर्य है। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 406) ३३२-केवली के परिषह सहन करने के पांच स्थान: पाँच स्थान से केवली उदय में आये हुए आक्रोश, उपहास आदि उपरोक्त परिषह, उपसर्ग सम्यक् प्रकार से सहन करते हैं। (1) पुत्र शोक आदि दुःख से इस पुरुष का चित खिन्न एवं विक्षिप्त है। इस लिये यह पुरुष गाली देता है / यावत् उपकरणों की चोरी करता है। (2) पुत्र-जन्म आदि हर्ष से यह पुरुष उन्मत्त हो रहा है। इसी से यह पुरुष गाली देता है, यावत् उपकरणों की चोरी करता है। (3) यह पुरुष देवाधिष्ठित है। इसकी आत्मा पराधीन है / इसी से यह पुरुष मुझे गाली देता है, यावद उपकरणों की चोरी करता है। (5) परिपह उपसर्ग को सम्यक् प्रकार वीरता पूर्वक, अदीनभाव से सहन करते हुए एवं विचलित न होते हुए मुझे देख कर दूसरे बहुत से छमस्थ श्रमण निम्रन्थ उदय में आये हुए परिषह उपसर्ग को सम्यक प्रकार सहेंगे, खमेंगे एवं परिषह उपसर्ग से धर्म से चलित न होंगे। क्योंकि प्रायः सामान्य लोग महापुरुषों का अनुसरण किया करते हैं। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 406)
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________________ 343 श्री जैन सिद्धान्त बोल संपह ३३३--धार्मिक पुरुष के पांच आलम्बन स्थान:-- श्रुत चारित्र रूप धर्म का सेवन करने वाले पुरुष के पांच स्थान आलम्बन रूप हैं अर्थात् उपकारक हैं:-- (1) छः काया। (2) गण / (3) राजा। (4) गृहपति / (5) शरीर / (1) छः कायाः-पृथ्वी आधार रूप है / वह सोने, बैठने, उपकरण रखने, परिठवने आदि क्रियाओं में उपकारक है / जल पीने, वस्त्र पात्र धोने आदि उपयोग में आता है / आहार, ओसावन, गर्म पानी आदि में अग्नि काय का उपयोग है। जीवन के लिये वायु की अनिवार्य आवश्यकता है / संथारा, पात्र, दण्ड, वस्त्र, पीढ़ा, पाटिया वगैरह उपकरण तथा आहार औषधि आदि द्वारा वनस्पति धर्म पालन में उपकारक होती है। इसी प्रकार त्रस जीव भी धर्म-पालन में अनेक प्रकार से सहायक होते हैं / (2) गणः-गुरु के परिवार को गण या गच्छ कहते हैं / गच्छ वासी साधु को विनय से विपुल निर्जरा होती है तथा सारणा, वारणा आदि से उसे दोषों की प्राप्ति नहीं होती / गच्छवासी साधु एक दूसरे को धर्म पालन में सहायता करते हैं। (3) राजा:-राजा दुष्टों से साधु पुरुषों की रक्षा करता है। इस लिए राजा धर्म पालन में सहायक होता है।
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________________ 344 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (4) गृहपति (शय्यादाता):-रहने के लिये स्थान देने से संयमोपकारी होता है। (5) शरीरः-धार्मिक क्रिया अनुष्ठानों का पालन शरीर द्वारा ही होता है / इसलिए शरीर धर्म का सहायक होता है। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 447) / ३३४-पाँच अवग्रह (1) देवेन्द्रावग्रह / (2) राजावग्रह / (3) गृहपति अवग्रह / (4) मागारी (शय्यादाता) अवग्रह / (5) साधर्मिकावग्रह / (1) देवेन्द्रावग्रहः-लोक के मध्य में रहे हुए मेरु पर्वत के बीचो वीच रुचक प्रदेशों की एक प्रदेशवाली श्रेणी है / इस से लोक के दो भाग हो गये हैं। दक्षिणार्द्ध और उत्तरार्द्ध / दक्षिणार्द्ध का स्वामी शकेन्द्र है और उत्तरार्द्ध का स्वामी ईशानेन्द्र है / इस लिये दक्षिणावर्ती साधुओं को शक्रन्द्र की और उत्तरार्द्धवर्ती साधुत्रों को ईशानेन्द्र की आज्ञा मांगनी चाहिये / __ भरत क्षेत्र दक्षिणार्द्ध में है / इस लिये यहाँ के साधुओं को शक्रेन्द्र की आज्ञा लेनी चाहिये / पूर्वकालवर्ती साधनों ने शक्रेन्द्र को आज्ञा ली थी / यही आज्ञा वर्तमान कालीन साधुओं के भी चल रही है। (2) राजावग्रहः-चक्रवर्ती आदि राजा जितने क्षेत्र का स्वामी है। उस क्षेत्र में रहते हुए साधुओं को राजा की आज्ञा लेना राजावग्रह है।
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 345 (3) गृहपति अवग्रहः-मण्डल का नायक या ग्राम का मुखिया गृहपति कहलाता है / गृहपति से अधिष्ठित क्षेत्र में रहते हुए साधुओं का गृहपति की अनुमति मांगना एवं उसकी अनुमति से कोई वस्तु लेना गृहपति अवग्रह है। (4) सागारी (शय्यादाता) अवग्रहः-घर, पाट, पाटला आदि के लिये गृह स्वामी की आज्ञा प्राप्त करना सागारी अवग्रह है। (5) साधर्मिक अवग्रहः-समान धर्मवाले साधुओं से उपाश्रय आदि की आज्ञा प्राप्त करना साधर्मिकावग्रह है। साधर्मिक का अवग्रह पाँच कोस परिमाण जानना चाहिये। वसति (उपाश्रय) आदि को ग्रहण करते हुए साधुओं को उक्त पाँच स्वामियों की यथायोग्य आज्ञा प्राप्त करनी चाहिये। उक्त पांच स्वामियों में से पहले पहले के देवेन्द्र अवग्रहादि गौण हैं और पीछे के राजावग्रहादि मुख्य हैं। इसलिये पहले देवेन्द्रादि की आज्ञा प्राप्त होने पर भी पिछले राजा आदि की आज्ञा प्राप्त न हो तो देवेन्द्रादि की आज्ञा बाधित हो जाती है। जैसे देवेन्द्र से अवग्रह प्राप्त होने पर यदि राजा अनुमति नहीं दे तो साधु देवेन्द्र से अनुज्ञापित वसति आदि उपभोग नहीं कर सकता / इसी प्रकार किसी वसति आदि के लिये राजा की आज्ञा प्राप्त हो जाय पर गृहपति की आज्ञा न हो तो भी साधु उसका उपभोग नहीं कर सकता। इसी प्रकार गृहपति की आज्ञा
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________________ 346 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला सागारी से और सागारी की आज्ञा साधर्मिक से बाधित समझी जाती है। (अभिधान राजेन्द्र कोष द्वितीय भाग पृष्ठ 668) (आचारांग श्रुत स्कन्ध 2 अवग्रह प्रतिमा अध्ययन) (प्रवचन सारोद्धार गाथा 681-684) (भगवती शतक 12 उद्देशा 2) 335 पाँच महानदियों को एक मास में दो अथवा तीन बार पार करने के पाँच कारण: उत्सर्ग मार्ग से साधु साध्वियों को पाँच महानदियों (गंगा, यमुना, सरयू , ऐरावती और मही) को एक मास में दो बार अथवा तीन बार उतरना या नौकादि से पार करना नहीं कल्पता है। यहाँ पाँच महानदियां गिनाई गई हैं पर शेष भी बड़ी नदियों को पार करना निषिद्ध है। परन्तु पाँच कारण होने पर महानदियें एक मास में दो या तीन बार अपवाद रूप में पार की जा सकती हैं। (1) राज विरोधी आदि से उपकरणों के चोरे जाने का भय हो। (2) दुर्भिक्ष होने से भिक्षा नहीं मिलती हो। (3) कोई विरोधी गंगा आदि महानदियों में फेंक देवे। (4) गंगा आदि महानदियें बाढ़ आने पर उन्मार्ग गामी होजायँ, जिस से साधु साध्वी बह जाय। (5) जीवन और चारित्र के हरण करने वाले म्लेच्छ आदि से पराभव हो / (ठाणांग 5 उद्देशा 2 सूत्र 412)
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 347 पाँच कारण: पाँच कारणों से साधु साध्वियों को प्रथम प्रावट अर्थात् चौमासे के पहले पचास दिनों में अपवाद रूप से विहार करना कल्पता है। (1) राज-विरोधी आदि से उपकरणों के चोरे जाने का भय हो / (2) दुर्भिक्ष होने से भिक्षा नहीं मिलती हो। (3) कोई ग्राम से निकाल देवे। (4) पानी की बाढ़ आ जाय। (5) जीवन और चारित्र का नाश करने वाले अनार्य दुष्ट पुरुषों से पराभव हो। (ठाणांग 5 उद्देशा 2 सूत्र 413) 337 वर्षावास अर्थात् चौमासे के पिछले 70 दिनों में विहार करने के पाँच कारण: वर्षावास अर्थात् चौमासे के पिछले सत्तर दिनों में नियम पूर्वक रहते हुए साधु, साध्वियों को ग्रामानुग्राम विहार करना नहीं कल्पता है / पर अपवाद रूप में पाँच कारणों से चौमासे के पिछले 70 दिनों में साधु, साध्वी विहार कर सकते हैं। (1) ज्ञानार्थी होने से साधु, साध्वी विहार कर सकते हैं। जैसे कोई अपूर्व शास्त्रज्ञान किसी प्राचार्यादि के पास हो और वह संथारा करना चाहता हो। यदि वह शास्त्र ज्ञान उक्त
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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला आचार्यादि से ग्रहण न किया गया तो उसका विच्छेद हो जायगा / यह सोच कर उसे ग्रहण करने के लिये साधु साध्वी उक्त काल में भी ग्रागानुग्राम विहार कर सकते हैं / (2) दर्शनार्थी होने से साधु साध्वी विहार कर सकते हैं / जैसे कोई दर्शन की प्रभावना करने वाले शास्त्र ज्ञान की इच्छा से विहार करे। (3) चारित्रार्थी होने से साधु साध्वी विहार कर सकते हैं। जैसे कोई क्षेत्र अनेषणा, स्त्री आदि दोषों से दूषित हो तो चारित्र की रक्षा के लिये साधु साध्वी विहार कर सकते हैं। (4) आचार्य उपाध्याय काल कर जाँय तो गच्छ में अन्य आचार्यादि के न होने पर दूसरे गच्छ में जाने के लिये साधु साध्वी विहार कर सकते हैं। (5) वर्षा क्षेत्र में बाहर रहे हुए आचार्य, उपाध्यायादि की वैयावृत्त्य के लिये आचार्य महाराज भेजें तो साधु विहार कर सकते हैं। (ठाणांग 5 उद्देशा 2 सूत्र 413) / ३३८-राजा के अन्तःपुर में प्रवेश करने के पाँच कारण: पाँच स्थानों से राजा के अन्तःपुर में प्रवेश करता हुआ श्रमण निम्रन्थ साधु के आचार या भगवान् की आज्ञा का उल्लकन नहीं करता। (1) नगर प्राकार से घिरा हुआ हो और दरवाजे बन्द हों। इस कारण बहुत से श्रमण, माहण,याहार पानी के लिये न नगर से बाहर निकल सकते हों और न प्रवेश ही कर सकते हों। उन श्रमण, माहण आदि के प्रयोजन से अन्तःपुर
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________________ 346 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह में रहे हुए राजा को या अधिकार प्राप्त रानी को मालूम कराने के लिये मुनि राजा के अन्तःपुर में प्रवेश कर सकते हैं। (2) पडिहारी (कार्य समाप्त होने पर वापिस करने योग्य) पाट, पाटले, शय्या, संथारे को वापिस देने के लिये मुनि राजा के अन्तःपुर में प्रवेश करे। क्योंकि जो वस्तु जहाँ से लाई गई है उसे वापिस वहीं सौंपने का साधु का नियम है। पाट, पाटलादि लेने के लिये अन्तःपुर में प्रवेश करने का भी इसी में समावेश होता है। क्योंकि ग्रहण करने पर ही वापिस करना सम्भव है। (3) मतवाले दुष्ट हाथी, घोड़े सामने आरहे हों उनसे अपनी रक्षा के लिये साधु राजा के अन्तःपुर में प्रवेश कर सकता है। (4) कोई व्यक्ति अकस्मात् या जबर्दस्ती से भुजा पकड़ कर साधु को राजा के अन्तःपुर में प्रवेश करा देवे / (5) नगर से बाहर आराम या उद्यान में रहे हुए साधु को राजा का अन्तःपुर (अन्तेउर ) वर्ग चारों तरफ से घेर कर बैठ जाय। (ठाणांग 5 उद्देशा 2 सूत्र 415) ३३६-साधु साध्वी के एकत्र स्थान, शय्या, निषद्या के पाँच बोल:-. उत्सर्ग रूप में साधु, साध्वी का एक जगह काय्योत्सर्ग करना, स्वाध्याय करना, रहना, सोना आदि निषिद्ध है। परन्तु पाँच बोलों से साधु, साध्वी एक जगह कायोत्सर्ग, स्वाध्याय करें तथा एक जगह रहें और शयन करें तो वे
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________________ 350 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। (1) दुर्मिक्षादि कारणों से कोई साधु, साध्वी एक ऐसी लम्बी अटवी में चले जाय, जहाँ बीच में न ग्राम हो और न लोगों का आना जाना हो / वहाँ उस अटवी में साधु साध्वी एक जगह रह सकते हैं और कायोत्सर्ग आदि कर सकते हैं। (2) कोई साधु साध्वी, किसी ग्राम, नगर या राजधानी में आये हों। वहाँ उनमें से एक को रहने के लिये जगह मिल जाय और दूसरों को न मिले / ऐसी अवस्था में साधु, साध्वी एक जगह रह सकते हैं और कायोत्सर्ग आदि कर सकते हैं। (3) कोई साधु या साध्वी नाग कुमार, सुवर्ण कुमार आदि के देहरे में उतरे हों / देहरा सूना हो अथवा वहाँ बहुत से लोग हों और कोई उनके नायक न हो तो साध्वी की रक्षा के लिये दोनों एक स्थान पर रह सकते हैं और कायोत्सर्ग आदि कर सकते हैं। (4) कहीं चोर दिखाई दें और वे वस्त्र छीनने के लिये साध्वी, को पकड़ना चाहते हों तो साध्वी की रक्षा के लिये साधु साध्वी एक स्थान पर रह सकते हैं और कायोत्सर्ग, स्वा ध्याय आदि कर सकते हैं। (5) कोई दुराचारी पुरुष साध्वी को शील भ्रष्ट करने की इच्छा से पकड़ना चाहे तो ऐसे अवसर पर साध्वी की रक्षा के
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 351 लिये साधु साध्वी एक स्थान पर रह सकते हैं और स्वाध्यायादि कर सकते हैं। (ठाणांग 5 उद्देशा 2 सूत्र 417) ३४०-साध के द्वारा साध्वी को ग्रहण करने या सहारा देने के पाँच बोल: पाँच बोलों से साधु साध्वी को ग्रहण करने अथवा सहारा देने के लिये उसका स्पर्श करे तो भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता। (1) कोई मस्त सांड आदि पशु या गीध आदि पक्षी साध्वी को मारते हों तो साधु, साध्वी को बचाने के लिए उसका स्पर्श कर सकता है। (2) दुर्ग अथवा विषम स्थानों पर फिसलती हुई या गिरती हुई साध्वी को बचाने के लिये साधु उसका स्पर्श कर सकता (3) कीचड़ या दलदल में फँसी हुई अथवा पानी में बहती हुई साध्वी को साधु निकाल सकता है / (4) नाव पर चढ़ती हुई या उतरती हुई साध्वी को साधु सहारा दे सकता है। (5) यदि कोई साध्वी राग, भय या अपमान से शून्य चित्त वाली हो, सन्मान से हर्षोन्मत्त हो, यक्षाधिष्ठित हो, उन्माद वाली हो, उसके ऊपर उपसर्ग आये हों, यदि वह कलह करके खमाने के लिये आती हो, परन्तु पछतावे और
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________________ 352 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला भय के मारे शिथिल हो, प्रायश्चित्त वाली हो, संथारा की हुई हो, दुष्ट पुरुष अथवा चोर आदि द्वारा संयम से डिगाई जाती हो, ऐसी साध्वी की रक्षा के लिये साधु उसका स्पर्श कर सकता है। (ठाणांग 5 उद्देशा 2 सूत्र 437) ३४१--आचार्य के पाँच प्रकार: (1) प्रव्राजकाचार्य (2) दिगाचार्य। (3) उद्देशाचार्य (4) समुद्देशानुज्ञाचार्य / (5) आम्नायार्थवाचकाचार्य / (1) प्रव्राजकाचार्य:--सामायिक व्रत आदि का आरोपण करने वाले प्रव्राजकाचार्य कहलाते हैं। (2) दिगाचार्य:-सचिन, अचित्त, मिश्र वस्तु की अनुमति देने ___ वाले दिगाचार्य कहलाते हैं। (3) उद्देशाचार्यः सर्व प्रथम श्रुत का कथन करने वाले या मूल पाठ सिखाने वाले उद्देशाचार्य कहलाते हैं / (4) समुद्देशानुज्ञाचार्य:--श्रुत की वाचना देने वाले गुरु के न होने पर श्रुत को स्थिर परिचित करने की अनुमति देने वाले समुद्देशानुज्ञाचार्य कहलाते हैं / (5) आम्नायार्थवाचकाचार्य:-उत्सर्ग अपवाद रूप आम्नाय अर्थ के कहने वाले आम्नायार्थवाचकाचार्य कहलाते हैं। (धर्मसंग्रह अधिकार 3 पृष्ठ 128)
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 353 ३४२-प्राचार्य, उपाध्याय के शेष साधुओं की अपेक्षा पाँच अतिशयः___ गच्छ में वर्तमान आचार्य, उपाध्याय के अन्य साधुओं की अपेक्षा पाँच अतिशय अधिक होते हैं / (1) उत्सर्ग रूप से सभी साधु जब बाहर से आते हैं तो स्थानक में प्रवेश करने के पहिले बाहर ही पैरों को पूँजते हैं और झाटकते हैं। उत्सर्ग से आचार्य, उपाध्याय भी उपाश्रय से बाहर ही खड़े रहते हैं और दूसरे साधु उनके पैरों का प्रमाजन और प्रस्फोटन करते हैं अर्थात् धूलि दूर करते हैं और पूंजने हैं। परन्तु इसके लिये बाहर ठहरना पड़े तो दूसरे साधुओं की तरह प्राचार्य, उपाध्याय बाहर न ठहरने हुए उपाश्रय के अन्दर ही आजाते हैं और अन्दर ही दूसरे साधुओं से धूलि न उड़े, इस प्रकार प्रमार्जन और प्रस्फोटन कराते हैं; यानि पुंजवाते हैं और धूलि दूर करवाते हैं। ऐसा करते हुए भी वे साधु के प्राचार का अतिक्रमण नहीं करते। (2) आचार्य, उपाध्याय उपाश्रय में लघुनीत बड़ीनीत परठाते हुए या पैर आदि में लगी हुई अशुचि को हटाते हुए साधु के प्राचार का अतिक्रमण नहीं करते। (3) आचार्य, उपाध्याय इच्छा हो तो दूसरे साधुओं की वैया वृत्य करते हैं, इच्छा न हो तो नहीं भी करते हैं। (4) आचार्य, उपाध्याय उपाश्रय में एक या दो रात तक अकेले
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________________ 354 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ___ रहते हुए भी साधु के आचार का अतिक्रमण नहीं करते। (5) आचार्य, उपाध्याय उपाश्रय से बाहर एक या दो रात तक अकेले रहते हुए भी साधु के प्राचार का अतिक्रमण नहीं करते। ३४३-आचार्य, उपाध्याय के गण से निकलने के पाँच कारण:___ पाँच कारणों से आचार्य, उपाध्याय गच्छ से निकल (1) गच्छ में साधुओं के दुर्विनीत होने पर प्राचार्य, उपाध्याय "इस प्रकार प्रवृत्ति करो, इस प्रकार न करो" इत्यादि प्रवृत्ति निवृत्ति रूप, आज्ञा धारणा यथायोग्य न प्रवर्ता सकें। (2) आचार्य, उपाध्याय पद के अभिमान से रत्नाधिक (दीक्षा में बड़े) साधुओं की यथायोग्य विनय न करें तथा साधुओं में छोटों से बड़े साधुओं की विनय न करा सकें। (3) आचार्य, उपाध्याय जो सूत्रों के अध्ययन, उद्देश आदि धारण किये हुए हैं उनकी यथावसर गण को वाचना न दें। वाचना न देने में दोनों ओर की अयोग्यता संभव है। गच्छ के साधु अविनीत हो सकते हैं तथा आचार्य, उपा ध्याय भी सुखासक्त तथा मन्दबुद्धि हो सकते हैं। (4) गच्छ में रहे हुए आचार्य,उपाध्याय अपने या दूसरे गच्छ की साध्वी में मोहवश आसक्त हो जाय / (5) आचार्य, उपाध्याय के मित्र या ज्ञाति के लोग किसी कारण
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह कर उनकी वस्त्रादि से सहायता करने के लिये प्राचार्य, उपाध्याय गच्छ से निकल जाते हैं। (ठाणांग 5 उद्देशा 2 सूत्र 436) ३४४-गच्छ में आचार्य, उपाध्याय के पाँच कलह स्थान:(१) आचार्य, उपाध्याय गच्छ में "इस कार्य में प्रकृतिकरो, इस कार्य को न करो"इस प्रकार प्रवृत्ति निवृत्ति रूप आज्ञा और धारणा की सम्यक् प्रकार प्रवृत्ति न करा सकें। (2) प्राचार्य, उपाध्याय गच्छ में साधुओं से रत्नाधिक (दीक्षा में बड़े) साधुओं की यथायोग्य विनय न करा सकें तथा स्वयं भी रत्नाधिक साधुओं की उचित विनय न करें। (3) प्राचार्य, उपाध्याय जो सूत्र एवं अर्थ जानते हैं उन्हें यथावसर सम्यग विधि पूर्वक गच्छ के साधुओं को न पढ़ावें। (4) आचार्य, उपाध्याय गच्छ में जो ग्लान और नवदीक्षित साधु हैं उनके वैयाकृत्य की व्यवस्था में सावधान न हों / (5) आचार्य, उपाध्याय गण को विना पूछे ही दूसरे क्षेत्रों में विचरने लग जायें / इन पाँच स्थानों से गच्छ में अनुशासन नहीं रहता है। इससे गच्छ में साधुओं के बीच कलह उत्पन्न होता है अथवा साधु लोग आचार्य, उपाध्याय से कलह करते हैं। इन बोलों से विपरीत पाँचबोलों से गच्छ में सम्यक व्यवस्था रहती है और कलह नहीं होता / इस लिये वे पाँच बोल अकलह स्थान के हैं। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 366)
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________________ 356 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ३४५-संभोगी साधुओं को अलग करने के पाँच बोल पाँच बोल वाले स्वधर्मी संभोगी साधु को विसंभोगी अर्थात् संभोग से पृथक मंडली बाहर करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता / (1) जो अकृत्य कार्य का सेवन करता है। (2) जो अकृत्य सेवन कर उसकी आलोचना नहीं करता। (3) जो आलोचना करने पर गुरु से दिये हुए प्रायश्चित्त का सेवन नहीं करता। (4) गुरु से दिये हुए प्रायश्चित्त का सेवन प्रारम्भ करके भी पूरी तरह से उसका पालन नहीं करता। (5) स्थविर कल्पी साधुओं के आचार में जो विशुद्ध आहार शय्यादि कल्पनीय हैं और मासकल्प आदि की जो मर्यादा है उसका अतिक्रमण करता है / यदि साथ वाले कहें कि तुम्हें ऐसा न करना चाहिये, ऐसा करने से गुरु महाराज तुम्हें गच्छ से बाहर कर देंगे तो उत्तर में वह उन्हें कहता है कि मैं तो ऐमा ही करूँगा। गुरु महाराज मेरा क्या कर लेंगे? नाराज होकर भी वे मेरा क्या कर सकते हैं ? आदि। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 368) ३४६-पारंचित प्रायश्चित्त के पाँच बोल श्रमण निम्रन्थ पाँच बोल वाले साधर्मिक साधुओं को दशवां पारंचित प्रायश्चित्त देता हुआ आचार और आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता।
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________________ 357 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह पारंचित दशवा प्रायाचित्त है। इससे बड़ा कोई प्रायश्चित्त नहीं है / इसमें साधु को नियत काल के लिये दोष की शुद्धि पर्यन्त साधुलिङ्ग छोड़ कर गृहस्थ वेष में रहना पड़ता है। (1) साधु जिस गच्छ में रहता है / उसमें फूट डालने के लिये आपस में कलह उत्पन्न करता हो। (2) साधु जिस गच्छ में रहता है। उसमें भेद पड़ जाय इस आशय से, परस्पर कलह उत्पन्न करने में तत्पर रहता हो। (3) साधु आदि की हिंसा करना चाहता हो। (4) हिंसा के लिये प्रमत्तता आदि छिद्रों को देखता रहता हो / (5) बार बार असंयम के स्थान रुप सावद्य अनुष्ठान की पूछताछ करता रहता हो अथवा अंगुष्ठ, कुड्यम प्रश्न वगैरह का प्रयोग करता हो। नोट-अंगुष्ठ प्रश्न विद्या विशेष है / जिसके द्वारा अंगूठे में देवता बुलाया जाता है / इसी प्रकार कूड्यम प्रश्न भी विद्या विशेष है। जिसके द्वारा दीवाल में देवता बुलाया जाता है / देवता के कहे अनुसार प्रश्नकर्ता को उत्तर दिया जाता है। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सू. 368) १४७-पाँच अवन्दनीय साधुः-जिनमत में ये पांच सापु अवन्दनीय हैं। (1) पासत्थ (2) ओसन्न / (3) कुशील (4) संसक्त / (5) यथाच्छन्द। (1) पासत्थ (पार्वस्थ या पाशत्थ):---जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और प्रवचन में सम्यग उपयोग वाला नहीं है।
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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ज्ञानादि के समीप रह कर भी जो उन्हें अपनाता नहीं है वह पासत्थ (पार्श्वस्थ) है। ___ज्ञान, दर्शन, चारित्र में जो सुस्त रहता है अर्थाद उद्यम नही करता है वह पासत्थ कहा जाता है। पाश का अर्थ है बन्धन / मिथ्यात्वादि बन्ध के हेतु भी भाव से पाश रूप है। उनमें रहने वाला अर्थात् उनका आचरण करने वाला पासत्थ ( पाशस्थ ) या पार्श्वस्थ कहलाता है। पामत्थ के दो भेदः--सर्व पासत्थ और देश पासत्थ / सर्व पासत्थः-जो केवल साधु वेषधारी है। किन्तु ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना नहीं करता वह सर्व पासत्थ कहा जाता है। देश पासत्थ-विना कारण शय्यातर पिण्ड, राज पिण्ड, नित्य पिण्ड, अग्र पिण्ड, और सामने लाये हुए आहार का भोजन करने वाला देश पासत्थ कहलाता है / (2) अबसन्नः-समाचारी के विषय में प्रमाद करने वाला साधु अवसन कहा जाता है। अवसन्न के दो भेद(१) सर्व अयसन्न। (2) देश अवसन्न / सर्व अवसन्नः-जो एक पक्ष के अन्दर पीठ फलक आदि के बन्धन खोल कर उनकी पडिलेहना नहीं करता अथवा वार बार सोने के लिये संथारा बिछाये रखता
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________________ श्री जैन सिद्धन्त बोल संग्रह 356 है। तथा जो स्थापना और प्राभृतिका दोष से दूषित आहार लेता है / वह सर्व अवसन्न है / नोट:-स्थापना दोषः-साधु के निमित्त रख छोड़े हुए आहार को लेना स्थापना दोष है। प्राभृतिका दोषः-साधु के लिये विवाहादि के भोज को आगे पीछे करके जो आहार बनाया जाता है / उसे लेना प्राभृतिका दोष है। देश अवमन्त्रः-जो प्रतिक्रमण नहीं करता अथवा अविधि से हीनाधिक दोष युक्त करता है या असमय में करता है / स्वाध्याय नही करता है अथवा निषिद्ध काल में करता है / पडिलेहना नहीं करता है अथवा असावधानी से करता है / सुखार्थी होकर भिक्षा के लिये नहीं जाता है अथवा अनुपयोग पूर्वक भिक्षाचरी करता है। अनेषणीय आहार ग्रहण करता है। "मैंने क्या किया? मुझे क्या करना चाहिये। और मैं क्या क्या कर सकता हूँ" इत्यादि रूप शुभध्यान नहीं करता। साधुमंडली में बैठ कर भोजन नहीं करता, यदि करता है तो संयोजनादि मांडला के दोषों का सेवन करता है। बाहर से आकर नैषेधिकी आदि समाचारी नहीं करता तथा उपाश्रय से जाते समय आवश्यकादि समाचारी नहीं करता। गमनागमन में इरियावहिया का कायोत्सर्ग नहीं करता। बैठते और सोते समय भी जमीन पूंजने आदि की समाचारी का पालन नहीं करता / और “दोषों की सम्यक् आलोचना आदि करके प्रायश्चित्त ले लो" आदि गुरु के
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________________ 160 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला कहने पर उनके सामने अनिष्ट वचन कहता है और गुरु के कहे अनुसार नहीं करता। इत्यादि प्रकार से साधु की समाचारी में दोप लगाने वाला देश अवसन्न कहा जाता है। (3) कुशीलः-कुत्सित अर्थात् निन्द्य शील-आचार वाले साधु को कुशील कहते हैं। कुशील के तीन भेदः ज्ञान कुशील, दर्शन कुशील, चारित्र कुशील / ज्ञान कुशीलः--काल, विनय इत्यादि ज्ञान के प्राचार की विराधना करने वाला ज्ञान कुशील कहा जाता है / दर्शन कुशीलः निःशंकित, निष्कांक्षित आदि समकित के आठ आचार की विराधना करने वाला दर्शन कुशील कहा जाता है। चारित्र कुशीलः-कौतुक,भूतिकर्म,प्रश्नाप्रश्न, निमित्त,आजीव, कल्ककुरुका, लक्षण, विद्या, मन्त्रादि द्वारा आजीविका करने वाला साधु चारित्र कुशील कहा जाता है। कौतुकादि का लक्षण इस प्रकार है / कौतुकः-सौभाग्यादि के लिए स्त्री आदि का विविध औषधि मिश्रित जल से स्नान आदि कौतुक कहा जाता है / अथवा कौतुक आश्चर्य को कहते हैं। जैसे मुख में गोले डाल कर नाक या कान आदि से निकालना तथा मुख से अग्नि निकालना आदि / भूतिकर्मः-ज्वर आदि रोग वालों को मंत्र की हुई भस्मी (राख) देना भूतिकर्म है।
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________________ श्री जेन सिद्धान्त बोल संग्रह 361 प्रश्नाप्रश्न:-प्रश्न कर्ता अथवा दूसरे को, जाप की हुई विद्या अधिष्ठात्री देवी से, स्वम में कही हुई बात कहना अथवा कर्ण पिशाचिका और मन्त्र से अभिषिक्त घटिकादि से कही हुई बात कहना प्रश्नाप्रश्न है। निमित्तः-भूत, भविष्य और वर्तमान के लाभ, भलाम आदि ___भाव कहना निमित्त है। आजीवः-जाति, कुल, गण, शिल्प (आचार्य से सीखा हुआ), कर्म (स्वयं सीखा हुआ) बता कर समान जाति कुल आदि वालों से आजीविका करना तथा अपने को तप और श्रुत का अभ्यासी बता कर आजीविका करना आजीव है। कल्क कुरुका:-कल्क कुरुका का अर्थ माया है अर्थात्-धूर्तता द्वारा दूसरों को ठगना कल्ककुरुका है। अथवा:कल्क:-प्रसूति आदि रोगों में क्षारपातन को कल्क कहते हैं अथवा शरीर के एक देश को या सारे शरीर को लोद आदि से उबटन करना कल्क है। ब-कुरुकाः-शरीर के एक देश को या सारे शरीर को धोना ब-कुरुका है। लक्षणः-स्त्री पुरुष आदि के शुभाशुभ सामुद्रिक लक्षण बतलाना लक्षण कहा जाता है। विद्याः-देवी जिसकी अधिष्ठायिका होती है / अथवा जो साधी जाती है वह विद्या है। मन्त्रः-देवता जिस का अधिष्ठाता होता है वह मन्त्र है अथवा जिसे साधना नहीं पड़ता वह मन्त्र है।
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________________ 362 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला इसी प्रकार मूल कर्म, (गर्भ गिराना, गर्भ रखाने आदि की औषधि देना), चूर्ण योग आदि तथा शरीर विभूषादि से चारित्र को मलीन करने वाले साधु को भी चारित्र कुशील ही समझना चाहिये। (4) संसक्तः-मल गुण और उत्तर गण तथा इनके जितने दोप हैं वे सभी जिसमें मिले रहते हैं वह संसक्त कहलाता है। जैसे गाय के बांटे में अच्छी बुरी, उच्छिष्ट अनुच्छिष्ट, आदि सभी चीजें मिली रहती हैं / इसी प्रकार संसक्त में भी गुण और दोष मिले रहते हैं। संसक्त के दो भेद-संक्लिष्ट और अमंक्लिष्ट / संक्लिष्ट संसक्त:-प्राणातिपात आदि पाँच आश्रवों में प्रवृत्ति करने वाला ऋद्धि आदि तीन गारव में आसक्त, स्त्री प्रतिषेवी (स्त्री संक्लिष्ट) तथा गृहस्थ सम्बन्धी द्विपद, चतुष्पद, धन-धान्य आदि प्रयोजनों में प्रवृत्ति करने वाला संक्लिष्ट संसक्त कहा जाता है / / __ असंक्लिष्ट संसक्तः-जो पासस्थ, अबसन्न, कुशील आदि में मिल कर पासत्थ, अवसन्न, कुशील आदि हो जाता है तथा संविग्न अर्थात् उद्यत विहारी साधुत्रों में मिल कर उद्यत विहारी हो जाता है। कभी धर्म प्रिय लोगों में आकर धर्म से प्रेम करने लगता है और कभी धर्म द्वेषी लोगों के बीच रह कर धर्म से द्वेष करने लगता है / ऐसे साधु को असंक्लिष्ट संसक्त कहते हैं / इसका आचार वैसे ही बदलता रहता है / जैसे कथा के अनुसार नट के हाव भाव, वेष और भाषा आदि बदलते रहते हैं /
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (5) यथाच्छन्द-उत्सूत्र (सूत्र विपरीत) की प्ररूपणा करने वाला और सूत्र विरुद्ध आचरण करने वाला, गृहस्थ के कार्यों में प्रवृत्ति करने वाला, चिड़चिड़े स्वभाव वाला, आगम निरपेक्ष, स्वमति कल्पित अपुष्टालम्बन का आश्रय लेकर सुख चाहने वाला, विगय आदि में आसक्त, तीन गारव से गर्वोन्मत्त ऐसा साधु यथाच्छन्द कहा जाता है। इन पांचों को वन्दना करने वाले के न निर्जरा होती है और न कीर्ति ही / वन्दना करने वाले को कायक्लेश होता है और इसके सिवा कर्म-बन्ध भी होता है / पासत्थे आदि का मंसर्ग करने वाले भी अवन्दनीय बताये गये हैं। (हरिभद्रीयावश्यक वन्दनाध्ययन पृष्ठ 518) (प्रवचन सारोद्धार पूर्वभाग गाथा 103 से 123) ३४८--पास जाकर वन्दना के पाँच असमय(१) गुरु महाराज अनेक भव्य जीवों से भरी हुई सभा में धर्म कथादि में व्यग्र हों। उस समय पास जाकर वन्दना न करना चाहिये / उस समय वन्दना करने से धर्म में अन्त राय लगती है। (2) गुरु महाराज किसी कारण से पराङ्मुख हों अर्थात् मुंह फेरे हुए हों उस समय भी वन्दना नहीं करनी चाहिये क्योंकि उस समय वे वन्दना को स्वीकार न कर सकेंगे। (3) क्रोध व निद्रादि प्रमाद से प्रमत्त गुरु महाराज को भी वन्दना (4) आहार करते हुए गुरु महाराज को भी वन्दना न करनी
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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला चाहिये क्योंकि उस समय वन्दना करने से आहार में अन्तराय पड़ती है। (5) मल मूत्र त्यागते समय भी गुरु महाराज को वन्दना न करनी चाहिये क्योंकि उस समय वन्दना करने से वे लज्जित हो सकते हैं। या और कोई दोष उत्पन्न हो सकता है। (प्रवचन सारोद्धार वन्दना द्वार पृष्ठ 271) (हरिभद्रीयावश्यक वन्दनाध्ययन पृष्ठ 540) ३४६-पास जाकर वन्दना योग्य समय के पाँच बोल(१) गुरु महाराज प्रसन्न चित हों, प्रशान्त हों अर्थान् व्याख्या नादि में व्यग्र न हों। (2) गुरु महाराज आसन पर बैठे हों। (3) गुरु महाराज क्रोधादि प्रमादवश न हों। (4) शिष्य के 'वन्दना करना चाहता हूँ' ऐमा पूछने पर गुरु महाराज 'इच्छा हो' मा कहते हुए बन्दना स्वीकार करने में सावधान हों। (5) ऐसे गुरु महाराज से आज्ञा प्राप्त की हो। (हरिभद्रीयावश्यक वन्दनाध्ययन पृष्ठ 541) (प्रवचन सारोद्धार पृष्ठ 271 वन्दना द्वार) ३५०-भगवान् महावीर से उपदिष्ट एवं अनुमत पाँच बोलः पांच बोलों का भगवान् महावीर ने नाम निर्देश पूर्वक स्वरूप और फल बताया है / उन्होंने उनकी प्रशंसा की है और आचरण करने की अनुमति दी है। वे बोल निम्न प्रकर हैं:
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________________ 365 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (1) शान्ति (2) मुक्ति / (3) आर्जव (4) मार्दव / (5) लाघव / (1) क्षान्तिः-शक्त अथवा अशक्त पुरुष के कठोर भाषणादि को सहन कर लेना तथा क्रोध का सर्वथा त्याग करना शान्ति है। (2) मुक्तिः--सभी वस्तुओं में तृष्णा का त्याग करना, धर्मो पकरण एवं शरीर में भी ममत्व भाव न रखना, सब प्रकार के लोभ को छोड़ना मुक्ति है। (3) आर्जव:-मन, वचन, काया की सरलता रखना और माया का निग्रह करना आर्जव है। (4) मार्दवः--विनम्र वृत्ति रखना, अभिमान न करना मार्दव (5) लाघवः-द्रव्य से अल्प उपकरण रखना एवं भाव से तीन गारव का त्याग करना लाघव है।। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 366) (धर्मसंग्रह अधिकार 3 पृष्ठ 127) (प्रवचन सारोद्धार पूर्वभाग पृष्ठ 134) ३५१-भगवान् से उपदिष्ट एवं अनुमत पाँच स्थान:(१) सत्य (2) संयम / (3) तप (4) त्याग / (5) ब्रह्मचर्य / (1) सत्यः -सावध अर्थात् असत्य, अप्रिय, अहित वचन का त्याग करना, यथार्थ भाषण करना, मन वचन काया की
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________________ 366 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला सरलता रखना सत्य है। (2) संयम:-सर्व सावध व्यापार से निवृत्त होना संयम है / पाँच आश्रव से निवृत्ति, पाँच इन्द्रिय का निग्रह, चार कपाय पर विजय और तीन दण्ड से विरति / इस प्रकार सतरह भेद वाले संयम का पालन करना संयम है / (3) तपः-जिस अनुष्ठान से शरीर के रस, रक्त आदि सात धातु और आठ कर्म तप कर नष्ट हो जाय वह तप है। यह तप बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का है। दोनों के छः छः भेद हैं। (4) त्यागः-कर्मों के ग्रहण कराने वाले बाह्य कारण माता, पिता, धन, धान्यादि तथा आभ्यन्तर कारण राग, द्वेष, कषाय आदि मर्व सम्बन्धों का त्याग करना, त्याग है। अथवाःसाधुओं को वस्त्रादि का दान करना त्याग है। अथवा: शक्ति होते हुए उद्यत विहारी होना, लाभ होने पर संभोगी साधुओं को आहारादि देना अथवा अशक्त होने पर यथाशक्ति उन्हें गृहस्थों के घर बताना और इसी प्रकार उद्यत विहारी, असंभोगी साधुओं को श्रावकों के घर दिखाना त्याग है। नोटः-हेम कोष में दान का अपर नाम त्याग है। (5) ब्रह्मचर्यवासः-मैथुन का त्याग कर शास्त्र में बताई हुई ब्रह्मचर्य की नव गुप्ति (बाड़) पूर्वक शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन
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________________ 367 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह करना ब्रह्मचर्य वास है। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 366) (धर्म संग्रह अधिकार 3 पृष्ठ 127) (प्रवचन सारोद्धार पूर्वभाग पृष्ठ 134) ३५२-भगवान् से उपदिष्ट एवं अनुमत पाँच स्थान: (1) उत्तिप्त चरक (2) निक्षिप्त चरक / (3) अन्त चरक (4) प्रान्त चरक / (5) लून चरक / (1) उत्क्षिप्त चरकः--गृहस्थ के अपने प्रयोजन से पकाने के बर्तन से बाहर निकाले हुए आहार की गवेषणा करने वाला साधु उत्क्षिप्त चरक है। (2) निक्षिप्त चरकः-पकाने के पात्र से बाहर न निकाले हुए अर्थात उसी में रहे हुए आहार की गवेषणा करने वाला साधु अन्त चरक कहलाता है। (4) प्रान्त चरकः-भोजन से अवशिष्ट, बासी या तुच्छ आहार की गवेषणा करने वाला साधु प्रान्त चरक कहलाता है। (5) लूक्ष चरकः-रूखे, स्नेह रहित आहार की गवेषणा करने वाला साधु लूक्ष चरक कहलाता है। ये पाँचों अभिग्रह-विशेषधारी साधु के प्रकार हैं। प्रथम दो भाव-अभिग्रह और शेष तीन द्रव्य अभिग्रह हैं। (ठाणांग 5 सूत्र 366) ३५३-भगवान से उपदिष्ट एवं अनुमत पाँच स्थान: (1) अज्ञात चरक / (2) अन्न इलाय चरक (अन्न ग्लानक चरक, अन्न ग्लायक चरक, अन्य ग्लायक चरक)।
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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (3) मौन चरक / (4) संसृष्ट कल्पिक। (5) तज्जात संसृष्ट कल्पिक / (1) अज्ञात चरकः-आगे पीछे के परिचय रहित अज्ञात घरों में आहार की गवेपणा करने वाला अथवा अज्ञात रह कर गृहस्य को स्वजाति आदि न बतला कर आहार पानी की गवेषणा करने वाला साधु अज्ञात चरक कहलाता है / (2) अन्न इलाय चरक (अन्न ग्लानक चरक, अन्न ग्लायक चरक, अन्य ग्लायक चरक ):-- ___ अभिग्रह विशेष से सुबह ही आहार करने वाला साधु अन्न ग्लानक चरक कहलाता है। अन्न के विना भूख आदि से जो ग्लान हो उसी अवस्था में आहार की गवेषणा करने वाला साधु अन्न ग्लायक चरक कहलाता है। दूसरे ग्लान साधु के लिये आहार की गवेषणा करने वाला मुनि अन्य ग्लायक चरक कहलाता है। (3) मौन चरकः-मौनव्रत पूर्वक आहार की गवेपणा करने ___ वाला साधु मौन चरक कहलाता है। (4) संसृष्ट कल्पिक:-संसृष्ट अर्थात् खरड़े हुए हाथ या भाजन आदि से दिया जाने वाला आहार ही जिसे कल्पता है वह संसृष्ट कल्पिक है। (5) तजात संसृष्ट कल्पिक:-दिये जाने वाले द्रव्य से ही खरड़े हुए हाथ या भाजन आदि से दिया जाने वाला आहार
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 366 जिसे कल्पता है वह तआत संसृष्ट कल्पिक है। ये पांचों प्रकार भी अभिग्रह विशेष धारी साधु के ही जानने चाहिये। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 366) ३५४-भगवान महावीर से उपदिष्ट एवं अनुमत पांच स्थान: (1) औपनिधिक (2) शुद्धैषणिक (3) संख्या दत्तिक (4) दृष्ट लामिक (5) पृष्ट लामिक (1) प्रोपनिधिकः-गृहस्थ के पास जो कुछ भी आहारादि रखा है उसी की गवेषणा करने वाला साधु औपनिधिक कहलाता है। शुद्धषणिक-शुद्ध अर्थात शंकितादि दोष बर्जित निर्दोष एषणा अथवा संसृष्टादि सात प्रकार की या और किसी एषणा द्वारा आहार की गवेषणा करने वाला साधु शुद्धषणिक कहा जाता है। (3) संख्यादत्तिकः-दत्ति (दात ) की संख्या का परिमाण करके आहार लेने वाला साधु संख्या दत्तिक कहा जाता है साधु के पात्र में धार टूटे विना एक बार में जितनी भिक्षा आ जाय वह दत्ति यानि दात कहलाती है। (4) दृष्टलाभिक:-देखे हुए आहार की ही गवेषणा करने वाला साधु दृष्ट लामिक कहलाता है। (5) पृष्ट लाभिक:-'हे मुनिराज ! क्या आपको मैं आहार हूँ !! इस प्रकार पूछने वाले दाता से ही आहार की गवेषणा करने वाला साधु पृष्ट लाभिक कहलाता है।
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________________ 370 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ये भी अभिग्रह धारी साधु के पाँच प्रकार हैं। 355 -भगवान् महावीर से उपदिष्ट एवं अनुमत पाँच स्थान (1) आचाम्लिक (2) निर्विकृतिक (3) पूवार्धिक (4) परिमित पिण्डपातिक (5) भिन्न पिण्डपातिक (1) आचाम्लिक (आयंबिलिए):--आचाम्ल (आयंबिल) तप करने वाला साधु आचाम्लिक कहलाता है / (2) निर्विकृतिक (णिवियते):-धी आदि विगय का त्याग करने वाला साधु निर्विकृतिक कहलाता है / (3) पूर्वाद्धिक (पुरिमड्ढी):-पुरिमड्ढ अर्थात् प्रथम दो पहर तक का प्रत्याख्यान करने वाला साधु पूर्वाद्धिक कहा जाता है। (4) परिमित पिण्डपातिकः द्रव्यादि का परिमाण करके परि मित आहार लेने वाला साधु परिमित पिण्डपातिक कहलाता है। (3) भिन्न पिण्डपातिकः-पूरी वस्तु न लेकर टुकड़े की हुई वस्तु को ही लेने वाला साधु भिन्न पिण्डपातिक कहलाता है। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 366) ३५६-भगवान महावीर से उपदिष्ट एवं अनुमत पाँच स्थानः (1) अरसाहार (2) विरसाहार। (3) अन्ताहार (4) प्रान्ताहार। (5) लूक्षाहार।
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________________ 371 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (1) अरसाहारः-हींग आदि के बघार से रहित नीरस आहार करने वाला साधु अरसाहार कहलाता है। (2) विरसाहारः-विगत रस अर्थात् रस रहित पुराने धान्य आदि का आहार करने वाला साधु विरसाहार कहलाता है। (3) अन्ताहारः-भोजन के बाद अवशिष्ट रही हुई वस्तु का आहार करने वाला साधु अन्ताहार कहलाता है। (4) प्रान्ताहारः-तुच्छ, हल्का या बासी आहार करने वाला साधु प्रान्ताहार कहलाता है। (5) लूक्षाहारः-नीरस, घी, तेलादि वर्जित भोजन करने वाला साधु लूक्षाहार कहलाता है। ये भी पाँच अभिग्रह विशेष-धारी साधुओं के प्रकार हैं। इसी प्रकार जीवन पर्यन्त अरस, विरस, अन्त, प्रान्त, एवं रूक्ष भोजन से जीवन निर्वाह के अभिप्रह वाले साधु अरसजीवी, विरसजीवी, अन्तजीवी, प्रान्तजीवी एवं रूक्ष जीवी कहलाते हैं। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 366) ३५७-भगवान् महावीर से उपदिष्ट एवं अनुमत पाँच स्थान: (1) स्थानातिग (2) उत्कटुकासनिक (3) प्रतिमास्थायी (4) वीरासनिक (5) नैषधिक। (1) स्थानातिगः-अतिशय रूप से स्थान अर्थात् कायोत्सर्ग करने वाला साधु स्थानातिग कहलाता है। (2) उत्कटुकासनिक-पीढे वगैरह पर कूल्हे (पुत) न लगाते हुए पैरों पर बैठना उत्कटुकासन है / उत्कटुकासन से बैठने
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________________ 372 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला के अभिग्रह वाला साधु उत्कटुकासनिक कहा जाता है। (3) प्रतिमास्थायी:-एक रात्रि आदि की प्रतिमा अङ्गीकार कर कायोत्सर्ग विशेष में रहने वाला साधु प्रतिमास्थायी है। (4) वीरासनिकः-पैर जमीन पर रख कर सिंहासन पर बैठे हुए पुरुष के नीचे से सिंहासन निकाल लेने पर जो अवस्था रहती है उस अवस्था से बैठना वीरासन है। यह आसन बहुत दुष्कर है / इस लिये इसका नाम वीरासन रखा गया है। वीरासन से बैठने वाला साधु वीरासनिक कहलाता है / (5) नैषधिक:-निषद्या अर्थात् बैठने के विशेष प्रकारों से बैठने वाला साधु नैप धिक कहा जाता है। . (ठाणांग 5 सूत्र 366) ३५८-निषद्या के पांच भेदः (1) समपादयुता। (2) गोनिषधिका / (3) हस्तिशुण्डिका। , (4) पर्यङ्का / (5) अद्ध पर्यङ्का / (1) समपादयुताः-जिस में समान रूप से पैर और कूल्हों से पृथ्वी या आसन का स्पर्श करते हुए बैठा जाता है वह समयादपुता निषद्या है। (2) गोनिषधिका:-जिस आसन में गाय की तरह बैठा जाता है वह गोनिषधिका है। (3) हस्तिशुण्डिका:-जिस आसन में कूल्हों पर बैठ कर एक पैर ऊपर रक्खा जाता है वह हस्तिशुण्डिका निषद्या है। (4) पर्यङ्काः-पासन से बैठना पर्यङ्का निषद्या है। (5) अर्द्ध पर्यङ्का:-जंघा पर एक पैर रख कर बैठना अर्द्ध पर्यत्रा निषद्या है।
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________________ mयाकरलाता है श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (1) अरसाहारः-हींग आदि के बघार से रहित नीरस आहार करने वाला साधु अरसाहार कहलाता है। (2) विरसाहारः-विगत रस अर्थात् रस रहित पुराने धान्य आदि का आहार करने वाला साधु विरसाहार कहलाता है। (3) अन्ताहारः-भोजन के बाद अवशिष्ट रही हुई वस्तु का आहार करने वाला साधु अन्ताहार कहलाता है। (4) प्रान्ताहारः--तुच्छ, हल्का या बासी आहार करने वाला साधु प्रान्ताहार कहलाता है। (5) लूक्षाहारः-नीरस, घी, तेलादि वर्जित भोजन करने वाला साधु लक्षाहार कहलाता है। ये भी पांच अभिग्रह विशेष-धारी साधुओं के प्रकार हैं। इसी प्रकार जीवन पर्यन्त अरस, विरस, अन्त, प्रान्त, एवं रूक्ष भोजन से जीवन निर्वाह के अभिग्रह वाले साधु अरसजीवी, विरसजीवी, अन्तजीवी, प्रान्तजीवी एवं रूक्ष जीवी कहलाते हैं। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 386) ३५७-भगवान् महावीर से उपदिष्ट एवं अनुमत पाँच स्थान: (1) स्थानातिग (2) उत्कटुकासनिक (3) प्रतिमास्थायी (4) वीरासनिक (5) नैषधिक। (1) स्थानातिगः-अतिशय रूप से स्थान अर्थात् कायोत्सर्ग करने वाला साधु स्थानातिग कहलाता है। (2) उत्कटुकासनिक-पीढे वगैरह पर कून्हे (पुत ) न लगाते हुए पैरों पर बैठना उत्कटुकासन है / उत्कटुकासन से बैठने
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________________ 302 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला के अभिग्रह वाला साधु उत्कटुकासनिक कहा जाता है। (3) प्रतिमास्थायी:-एक रात्रि आदि की प्रतिमा अङ्गीकार कर कायोत्सर्ग विशेष में रहने वाला साधु प्रतिमास्थायी है। (4) वीरासनिकः-पैर जमीन पर रख कर सिंहासन पर बैठे हुए पुरुष के नीचे से सिंहासन निकाल लेने पर जो अवस्था रहती है उस अवस्था से बैठना वीरासन है। यह आसन बहुत दुष्कर है / इस लिये इसका नाम वीरासन रखा गया है / वीरासन से बैठने वाला साधु वीरासनिक कहलाता है। (5) नैषधिक:-निषद्या अर्थात् बैठने के विशेष प्रकारों से बैठने वाला साधु नैषधिक कहा जाता है। (ठाणांग 5 सूत्र 366) ३५८-निषद्या के पांच भेदः-- (1) समपादयुता। (2) गोनिषधिका / (3) हस्तिशुण्डिका। , (4) पर्यङ्का / (5) अर्द्ध पयङ्का / / (1) समपादयुताः जिस में समान रूप से पैर और कूल्हों से पृथ्वी या आसन का स्पर्श करते हुए बैठा जाता है वह समयादपुता निषद्या है। (2) गोनिषधिका:-जिस आसन में गाय की तरह बैठा जाता है वह गोनिषधिका है। (3) हस्तिशुण्डिका:-जिस आसन में कूल्हों पर बैठ कर एक पैर ऊपर रखा जाता है वह हस्तिशुण्डिका निषद्या है। (4) पर्यकाः-पद्मासन से बैठना पर्यका निषद्या है।। (5) अर्द्ध पर्यका:-जंघा पर एक पैर रख कर बैठना अर्द्ध पर्यङ्का निषद्या है।
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह पाँच निषद्या में हस्तिशुण्डिका के स्थान पर उत्कटुका भी कहते हैं। उत्कटुका:-आसन पर कून्हा (पुत ) न लगाते हुए पैरों पर बैठना उत्कटुका निषद्या है। (ठाणांग 5 सूत्र 366 टीका) (ठाणांग 5 सूत्र 400) ३५६-भगवान् महावीर से उपदिष्ट एवं अनुमत पाँच स्थान: (1) दण्डायतिक (2) लगण्डशायी। (3) आतापक (4) अप्रावृतक। (5) अकण्डूयक। (1) दण्डायतिकः-दण्ड की तरह लम्बे होकर अर्थात् पैर फैला कर बैठने वाला दण्डायतिक कहलाता है। (2) लगण्डशायी:-दुःसंस्थित या बांकी लकड़ी को लगण्ड कहते हैं / लगण्ड की तरह कुबड़ा होकर मस्तक और कोहनी को जमीन पर लगाते हुए एवं पीठ से जमीन को स्पर्श न करते हुए सोने वाला साधु लगण्ड शायी कहलाता है। (3) आतापक:-शीत, आतप आदि सहन रूप आतापना लेने वाला साधु आतापक कहा जाता है। (4) अप्रावृतका-वस्त्र न पहन कर शीत काल में ठण्ड और ग्रीष्म में घास का सेवन करने वाला अपावृतक कहा जाता है। (5) अकण्डूयक:-शरीर में खुजली चलने पर भी न खुजलाने वाला साधु अकण्डूयक कहलाता है। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 366)
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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ३६०-महानिर्जरा और महापर्यवसान के पांच बोल (1) आचार्य / (2) उपाध्याय (सूत्रदाता)। (3) स्थविर / (4) तपस्वी। (5) ग्लान साधु की ग्लानि रहित बहुमान पूर्वक वैयाकृत्य करता हुआ श्रमण निर्गुथ महा निर्जरा वाला होता है और पुनः उत्पन्न न होने से महापर्यवसान अर्थात् आत्यन्तिक अन्त वाला होता है। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 367) ३६१-महानिर्जरा और महापर्यवसान के पाँच बोलः (1) नवदीक्षित साधु / (2) कुल / (3) गण / (4) संघ / (5) साधर्मिक की ग्लानि रहित बहुमान पूर्वक वैयावृत्त्य करने वाला साधु महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। (1) थोड़े समय की दीक्षा पर्याय वाले साधु को नव दीक्षित कहते हैं। (2) एक प्राचार्य की सन्तति को कुल कहते हैं अथवा चान्द्र आदि साधु समुदाय विशेष को कुल कहते हैं / (3) गणः-कुल के समुदाय को गण कहते हैं अथवा सापेक्ष तीन कुलों के समुदाय को गण कहते हैं /
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________________ 375 भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (4) संघः-गणों के समुदाय को संघ कहते हैं / (5) साधर्मिक:-लिङ्ग और प्रवचन की अपेक्षा समान धर्म वाला साधु साधर्मिक कहा जाता है। (ठाणांग 5 सूत्र 365) (भगवती सुत्र शतक 8 उद्देशा 8) ३६२-पाँच परिज्ञा-चस्तु स्वरूप का ज्ञान करना और ज्ञान पूर्वक उसे छोड़ना परिज्ञा है। परिज्ञा के पांच भेद हैं। (1) उपधि परिज्ञा (2) उपाश्रय परिज्ञा (3) कषाय परिज्ञा (4) योग परिज्ञा (5) भक्तपान परिज्ञा / (ठाणांग 5 उद्देशा 2 सूत्र 420) ३६३-पांच व्यवहार-मोक्षाभिलाषी आत्माओं की प्रवृत्ति निवृत्ति को एवं तत्कारणक ज्ञान विशेष को व्यवहार कहते हैं / व्यवहार के पाँच भेदः-- (1) आगम व्यवहार (2) श्रुतव्यवहार (3) आज्ञा व्यवहार (4) धारणाव्यवहार (1) आगम व्यवहारः केवल ज्ञान, मनः पर्यय ज्ञान, अवधिज्ञान, चौदह पूर्व, दशपूर्व और नव पूर्व का ज्ञान आगम कहलाता है / आगम ज्ञान से प्रवर्तित प्रवृत्ति निवृत्ति रूप व्यवहार भागम व्यवहार कहलाता है। (2) श्रुत व्यवहार:- आचार प्रकल्प आदि ज्ञान श्रुत है। इससे प्रवाया जाने वाला व्यवहार श्रुतव्यवहार कहलाता है। नव, दश, और चौदह पूर्व का ज्ञान भी श्रुत रूप है परन्तु
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________________ 376 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला अतीन्द्रिय अर्थ विषयक विशिष्ट ज्ञान का कारण होने से उक्त ज्ञान अतिशय वाला है और इसी लिये वह आगम रूप माना गया है / (3) आज्ञा व्यवहारः-दो गीतार्थ साधु एक दूसरे से अलग दूर देश में रहे हुए हों और शरीर क्षीण हो जाने से वे विहार करने में असमर्थ हो / उन में से किसी एक के प्रायश्चित्त आने पर वह मुनि योग्य गीतार्थ शिष्य के अभाव में मति और धारणा में अकुशल अगीतार्थ शिष्य को आगम की सांकेतिक गूढ़ भाषा में अपने अतिचार दोष कह कर या लिख कर उसे अन्य गीतार्थ मुनि के पास भेजता है और उसके द्वारा आलोचना करता है / गूढ़ भाषा में कही हुई आलोचना सुन कर वे गीतार्थ मुनि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव संहनन, धैर्य, बल आदि का विचार कर स्वयं वहां आते हैं अथवा योग्य गीतार्थ शिष्य को समझा कर भेजते हैं। यदि वैसे शिष्य का भी उनके पास योग न हो तो आलोचना का संदेश लाने वाले के द्वारा ही गूढ अर्थ में अतिचार की शुद्धि अर्थात् प्रायश्चित्त देते हैं। यह आज्ञा व्यवहार है। (4) धारणा व्यवहार-किसी गीतार्थ संविग्न मुनि ने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा जिस अपराध में जो प्रायश्चित्त दिया है। उसकी धारणा से वैसे अपराध में उसी प्रायश्चित का प्रयोग करना धारणा व्यवहार है। वैयावृत्त्य करने आदि से जो साधु गच्छ का उपकारी हो / वह यदि सम्पूर्ण छेद सूत्र सिखाने योग्य न
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________________ 377 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह हो तो उसे गुरु महाराज कृपा पूर्वक उचित प्रायश्चित्त पदों का कथन करते हैं / उक्त साधु का गुरु महाराज से कहेहुए उन प्रायाश्चित्त पदों का धारण करना धारणा व्यवहार है। (5) जीत व्यवहार-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष, प्रतिसेवना का और संहनन धृति आदि की हानि का विचार कर जो प्रायश्चित्त दिया जाता है वह जीत व्यवहार है। __ अथवा:किसी गच्छ में कारण विशेष से सूत्र से अधिक प्रायश्चित्त की प्रवृत्ति हुई हो और दूसरों ने उसका अनुसरण कर लिया हो तो वह प्रायश्चित जीत व्यवहार कहा जाता है / अथवा:अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा की हुई मर्यादा का प्रतिपादन करने वाला ग्रन्थ जीत कहलाता है। उससे प्रवर्तित व्यवहार जीत व्यवहार है। इन पांच व्यवहारों में यदि व्यवहर्ता के पास आगम हो तो उसे आगम से व्यवहार चलाना चाहिए / आगम में भी केवल ज्ञान, मनःपर्याय ज्ञान आदि छः भेद हैं। इनमें पहले केवल ज्ञान आदि के होते हुए उन्हीं से व्यवहार चलाया जाना चाहिए / पिछले मनःपर्याय ज्ञान आदि से नहीं। आगम के अभाव में श्रुत से, श्रुत के अभाव में आज्ञा से, आज्ञा के अभाव में धारणा से और धारणा के अभाव में जीत व्यवहार से, प्रवृति निवृत्ति रूप व्यवहार का प्रयोग होना चाहिए / देश काल के अनुसार ऊपर कहे अनुसार
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________________ 378 श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला सम्यक् रूपेण पक्षपात रहित व्यवहारों का प्रयोग करता हुआ साधु भगवान् की आज्ञा का आराधक होता है। (ठाणांग 5 उद्देशा 2 सूत्र 421) (व्यवहार सूत्र) (भगवती शतक 8 उद्देशा 8) ३६४--पाँच प्रकार के मुण्ड: मुण्डन शब्द का अर्थ अपनयन अर्थात् हटाना, दूर करना है / यह मुण्डन द्रव्य और भाव से दो प्रकार का है / शिर से बालों को अलग करना द्रव्य मुण्डन है और मन से इन्द्रियों के विषय शब्द, रूप, रस और गन्ध, स्पर्श, सम्बन्धी राग द्वेष और कषायों को दूर करना भाव मुण्डन है। इस प्रकार द्रव्य मुण्डन और भाव मुण्डन धर्म से युक्त पुरुष मुण्ड कहा जाता है। पाँच मुण्ड(१) श्रोन्द्रिय मुण्ड। (2) चक्षुरिन्द्रिय मुण्ड / (3) घ्राणेन्द्रिय मुण्ड। (4) रसनेन्द्रिय मुण्ड / (5) स्पर्शनेन्द्रिय मुण्ड। (1) श्रोत्रेन्द्रिय मुण्ड:-श्रोत्रेन्द्रिय के विषय रूप मनोज्ञ एवं अमनोज्ञ शब्दों में राग द्वेष को हटाने वाला पुरुष श्रोत्रेन्द्रिय मुण्ड कहा जाता है। इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय मुण्ड आदि का स्वरूप भी समझना चाहिये / ये पांचों भाव मुण्ड हैं। (ठाणांग 5 सूत्र 443)
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________________ 376 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ३६५--पाँच प्रकार के मुण्ड: (1) क्रोध मुण्ड / (2) मान मुण्ड। (3) माया मुण्ड / (4) लोभ मुण्ड / (5) सिर मुण्ड / मन से क्रोध, मान, माया और लोभ को हटाने वाले पुरुष क्रमशः क्रोध मुण्ड, मान मुण्ड, माया मुण्ड और लोभ मुण्ड हैं। सिर से केश अलग करने वाला पुरुष सिर मुण्ड है। इन पाँचों में सिर मुण्ड द्रव्य मुण्ड है और शेष चार भाव मुण्ड हैं। (ठाणांग 5 सूत्र 443) ३६६-पाँच निर्ग्रन्थ: ग्रन्थ दो प्रकार का है। आभ्यन्तर और बाह्य / मिथ्यात्व आदि आभ्यन्तर ग्रन्थ है और धर्मोंपकरण के सिवा शेष धन धान्यादि बाह्य ग्रन्थ है। इस प्रकार बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थ से जो मुक्त है वह निम्रन्थ कहा जाता निम्रन्थ के पाँच भेदः(१) पुलाक। (2) बकुश / (3) कुशील / (4) निर्ग्रन्थ / (5) स्नातक। (1) पुलाकः-दाने से रहित धान्य की भूसी को पुलाक कहते हैं। वह निःसार होती है। तप और श्रुत के प्रभाव से
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________________ 380 श्रो सेठिया जैन ग्रन्थमाला प्राप्त, संघादि के प्रयोजन से बल (सेना) वाहन सहित चक्रवर्ती आदि के मान को मर्दन करने वाली लब्धि के प्रयोग और ज्ञानादि के अतिचारों के सेवन द्वारा संयम को पुलाक की तरह निस्सार करने वाला साधु पुलाक कहा जाता है। पुलाक के दो भेद होते हैं(१) लब्धि पुलाक / (2) प्रति सेवा पुलाक / लब्धि का प्रयोग करने वाला साधु लब्धि पुलाक है और ज्ञानादि के अतिचारों का सेवन करने वाला साधु प्रति सेवा पुलाक है। (भगवती शतक 25 उद्देशा है) (2) बकुशः-बकुश शब्द का अर्थ है शबल अर्थात् चित्र वर्ण / शरीर और उपकरण की शोभा करने से जिसका चारित्र शुद्धि और दोषों से मिला हुआ अत एव अनेक प्रकार का है वह बकुश कहा जाता है। बकुश के दो भेद हैं(१) शरीर बकुश। (2) उपकरण वकुश / शरीर बकुशः-विभूषा के लिये हाथ, पैर, मुँह आदि धोने वाला, आँख, कान, नाक आदि अवयवों से मैल आदि दूर करने वाला, दाँत साफ करने वाला, केश सँवारने वाला, इस प्रकार कायगुप्ति रहित साधु शरीर-बकुश है। ___ उपकरण बकुशः-विभूषा के लिये अकाल में चोलपट्टा आदि धोने वाला, धूपादि देने वाला, पात्र दण्ड आदि को तैलादि लगा कर चमकाने वाला साधु उपकरण
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 381 ये दोनों प्रकार के साधु प्रभूत वस्त्र पात्रादि रूप ऋद्धि और यश के कामी होते हैं। ये सातागारव वाले होते हैं और इस लिये रात दिन के कर्तव्य अनुष्ठानों में पूरे सावधान नहीं रहते / इनका परिवार भी संयम से पृथक तैलादि से शरीर की मालिश करने वाला, कैंची से केश काटने वाला होता है / इस प्रकार इनका चारित्र सर्व या देश रूप से दीक्षा पर्याय के छेद योग्य अतिचारों से मलीन रहता है। (3) कुशीलः-उत्तर गुणों में दोष लगाने से तथा संज्वलन कषाय के उदय से दूषित चारित्र वाला साधु कुशील कहा जाता है। कुशील के दो भेद हैं-- (1) प्रतिसेवना कुशील / (2) कपाय कुशील। प्रतिसेवना कुशीला चारित्र के प्रति अभिमुख होते हुए भी अजितेन्द्रिय एवं किसी तरह पिण्ड विशुद्धि, समिति भावना, तप, प्रतिमा आदि उत्तर गुणों की विराधना करने से सर्वज्ञ की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला प्रतिसेवना कुशील है। _____ कषाय कुशीलः-संज्वलन कषाय के उदय से सकषाय चारित्र वाला साधु कषाय कुशील कहा जाता है। (4) निर्मन्थ-ग्रन्थ का अर्थ मोह है। मोह से रहित साधु निम्रन्थ कहलाता है / उपशान्त मोह और क्षीण मोह के भेद से निग्रन्थ के दो भेद हैं।
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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (5) स्नातक:-शुक्लध्यान द्वारा सम्पूर्ण घाती कर्मों के समूह को क्षय करके जो शुद्ध हुए हैं वे स्नातक कहलाते हैं / सयोगी और अयोगी के भेद से स्नातक भी दो प्रकार के होते हैं। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 445) (भगवती शतक 25 उद्देशा 6) ३६७-पुलाक ( प्रति सेवा पुलाक ) के पाँच भेदः (1) ज्ञान पुलाक / (2) दर्शन पुलाक / (3) चारित्र पुलाक। (4) लिङ्ग पुलाक / (5) यथा सूक्ष्म पुलाक। (1) ज्ञान पुलाक:--स्खलित, मिलित आदि ज्ञान के अतिचारों का सेवन कर संयम को असार करने वाला साधु ज्ञान पुलाक कहलाता है। (2) दर्शन पुलाक:-कुतीर्थ परिचय आदि समकित के अतिचारों का सेवन कर संयम को असार करने वाला साधु दर्शन पुलाक है। (3) चारित्र पुलाक:-मूल गुण और उत्तर गुणों में दोष लगा कर चारित्र की विराधना करने वाला साधु चारित्र पुलाक है। (4) लिङ्ग पुलाकः-शास्त्रों में उपदिष्ट साधु-लिङ्ग से अधिक धारण करने वाला अथवा निष्कारण अन्य लिङ्ग को धारण करने वाला साधु लिङ्ग पुलाक है। (5) यथा सूक्ष्म पुलाक:-कुछ प्रमाद होने से मन से अकल्पनीय ग्रहण करने के विचार वाला साधु यथा सूक्ष्म पुलाक है।
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________________ अथ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 383 अथवा उपरोक्त चारों भेदों में ही जो थोड़ी थोड़ी विराधना करता है वह यथासूक्ष्म पुलाक कहलाता है। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सुत्र 445) (भगवती शतक 25 उद्देशा६) ३६८-चकुश के पांच भेदः (1) आभोग बकुश। (2) अनाभोग बकुश / (3) संवृत बकुश। (4) असंवृत बकुश / (5) यथा सूक्ष्म बकुश। (1) आभोग बकुशः-शरीर और उपकरण की विभूषा करना साधु के लिए निषिद्ध है / यह जानते हुए भी शरीर और उपकरण की विभूषा कर चारित्र में दोष लगाने वाला साधु आभोग बकुश है। (2) अनाभोग बकुशः-अनजान में अथवा सहसा शरीर और उपकरण की विभूषा कर चारित्र को दूषित करने वाला साधु अनाभोग वकुश है। (3) संवृत बकुश:-छिप कर शरीर और उपकरण की विभूषा कर दोष सेवन करने वाला साधु संवृत बकुश है / (4) असंवृत बकुशः--प्रकट रीति से शरीर और उपकरण की विभूषा रूप दोष सेवन करने वाला साधु असंवृत बकुश है। (5) यथा सूक्ष्म बकुश:-मूल गुण और उत्तर गुण के सम्बन्ध में प्रकट या अप्रकट रूप से कुछ प्रमाद सेवन करने वाला, आँख का मैल आदि दूर करने वाला साधु यथा सूक्ष्म बकुश कहा जाता है। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 445)
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________________ 384 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ३६६--कुशील के पाँच भेदः-प्रतिसेवना कुशील और कषाय कुशील के पाँच पाँच भेद हैं(१) ज्ञान कुशील (2) दर्शन कुशील (3) चारित्रकुशील (4) लिङ्गकुशील (5) यथासूक्ष्म कुशील ज्ञान, दर्शन, चारित्र और लिङ्ग से आजीविका कर इनमें दोष लगाने वाले क्रमशः प्रतिसेवना की अपेक्षा ज्ञान कुशील, दर्शन कुशील, चारित्र कुशील और लिङ्ग कुशील हैं। यथा सूक्ष्म कुशील:-यह तपस्वी है / इस प्रकार प्रशंसा से हर्षित होने वाला प्रतिसेवना की अपेक्षा यथा सूक्ष्म कुशील है / कपाय कुशील के भी ये ही पांच भेद हैं / इसका स्वरूप इस प्रकार है:(१) ज्ञान कुशीलः-संज्वलन क्रोधादि पूर्वक विद्यादि ज्ञान का प्रयोग करने वाला साधु ज्ञान कुशील है। (2) दर्शनकुशीलः-संज्वलन क्रोधादि पूर्वक दर्शन (दर्शन ग्रन्थ ) का प्रयोग करने वाला साधु दर्शन कुशील है। (3) चारित्र कुशील:--संज्वलन कषाय के आवेश में किसी को शाप देने वाला साधु चारित्र कुशील है / (4) लिङ्ग कुशीलः-संज्वलन कषाय वश अन्य लिङ्ग धारण करने वाला साधु लिङ्ग कुशील है। (5) यथा सूक्ष्म कुशीलः-मन से संज्वलन कषाय करने वाला साधु यथा सूक्ष्म कुशील है।
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह अथवाःसंज्वलन कषाय सहित होकर ज्ञान, दर्शन, चारित्र और लिङ्ग की विराधना करने वाले क्रमशः ज्ञान कुशील, दर्शन कुशील, चारित्र कुशील और लिङ्ग कुशील हैं / एवं मन से संज्वलन कषाय करने वाला यथासूक्ष्म कपाय कुशील है। लिङ्ग कुशील के स्थान में कहीं 2 तप कुशील है / ___ (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 445) ३७०-निर्ग्रन्थ के पाँच मेदः (1) प्रथम समय निग्रन्थ / (2) अप्रथम समय निम्रन्थ / (3) चरम समय निग्रन्थ / (4) अचरम समय निम्रन्थ / (5) यथासूक्ष्म निम्रन्थ / (1) प्रथम समय निर्ग्रन्थः -अन्तर्मुहूर्त प्रमाण निर्ग्रन्थ काल की ममय राशि में से प्रथम समय में वर्तमान निम्रन्थ प्रथम ममय निर्ग्रन्थ है। (2) अप्रथम समय निम्रन्थः-प्रथम समय के सिवा शेष समयों में वर्तमान निम्रन्थ अप्रथम समय निम्रन्थ है।। ये दोनों भेद पूर्वानुपूर्वी की अपेक्षा है / (3) चरम समय निम्रन्थः -अन्तिम समय में वर्तमान निम्रन्थ चरम समय निग्रन्थ है। (4) अचरम समय निर्ग्रन्थः-अन्तिम समय के सिवा शेष समयों में वर्तमान निर्ग्रन्थ अचरम समय निग्रन्थ है। ये दोनों भेद पश्चानुपूर्वी की अपेक्षा है।
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________________ 386 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (5) यथासूक्ष्म निग्रन्थः-प्रथम समय आदि की अपेक्षा विना सामान्य रूप से सभी समयों में वर्तमान निर्गन्य यथासूक्ष्म निर्ग्रन्थ कहलाता है। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 445) ३७१--स्नातक के पाँच भेदः (1) अच्छवि। (2) अशबल। (3) अकर्मांश। (4) संशुद्ध ज्ञान दर्शनधारी अरिहन्त जिन केवली / (5) अपरिश्रावी। (1) अच्छवि:--स्नातक काय योग का निरोध करने से छवि अर्थात शरीर रहित अथवा व्यथा (पीडा) नहीं देने वाला होता है। (2) अशबलः स्नातक निरतिचार शुद्ध चारित्र को पालता है। इस लिये वह अशबल होता है। (3) अकर्मांशः -पातिक कर्मों का क्षय कर डालने से स्नातक अकर्माश होता है। (4) संशुद्ध ज्ञान दर्शनधारी अरहिन्त जिन केवली:-दूसरे ज्ञान दर्शन धारक होने से स्नातक संशुद्ध ज्ञान दर्शनधारी होता है। वह पूजा योग्य होने से अरिहन्त, कषायों का विजेता होने से जिन, एवं परिपूर्ण ज्ञान दर्शन चारित्र का स्वामी होने से केवली है।
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 387 (5) अपरिश्रावी-सम्पूर्ण काय योग का निरोध कर लेने पर स्नातक निष्क्रिय हो जाता है और कर्म प्रवाह रुक जाता है। इस लिये वह अपरिश्रावी होता है। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 445) (भगवती शतक 25 उद्देशा 6) ३७२-पांच प्रकार के श्रमणः पाँच प्रकार के साधु श्रमण नाम से कहे जाते है(१) निग्रन्थ / (2) शाक्य / (3) तापस। (4) गैरुक। (5) आजीविक। (1) निम्रन्थः-जिन-प्रवचन में उपदिष्ट पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति आदि साधु क्रिया का पालन करने वाले जैन मुनि निम्रन्थ कहलाते हैं। (2) शाक्यः चुद्ध के अनुयायी साधु शाक्य कहलाते हैं। (3) तापसः-जटाधारी, जंगलों में रहने वाले संन्यासी तापस कहलाते हैं। (4) गैरुक-रुए रंग के वस्त्र पहनने वाले त्रिदण्डी साधु गैरुक कहलाते हैं। (5) आजीविक-गोशालक मत के अनुयायी साधु आजीविक कहलाते हैं। (प्रवचन सारोद्धार प्रथम भाग पृष्ठ 212) ३७३-चनीपक की व्याख्या और भेदः दूसरों के आगे अपनी दुर्दशा दिखाकर अनुकूल
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________________ 388 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला भाषण करने से जो द्रव्य मिलता है उसे वनी कहते हैं / वनी को भोगने वाला साधु वनीपक कहलाता है। अथवाः -- प्रायः दाता के माने हुए श्रमणादि का अपने को भक्त बता कर जो आहार मांगता है वह वनीपक कहलाता है। वनीपक के पाँच भेद(१) अतिथि वनीपक। (2) कृपण वनीपक / (3) ब्राह्मण वनीपक। (4) श्वा वनीपक / (5) श्रमण वनीपक। (1) अतिथि वनीपक:-भोजन के समय पर उपस्थित होने वाला मेहमान अतिथि कहलाता है / अतिथि-भक्त दाता के आगे अतिथिदान की प्रशंसा करके आहारादि चाहने वाला अतिथि वनीपक है। (2) कृपण वनीपक:-जो दाता कृपण, दीन, दुःखी पुरुषों का भक्त है अर्थात् ऐसे पुरुषों को दानादि देने में विश्वास करता है। उसके आगे कृपण दान की प्रशंसा करके आहारादि लेने वाला एवं भोगने वाला कृपण वनीपक है। (3) ब्रामण वनीपक:-जो दाता ब्राह्मणों का भक्त है / उसके आगे ब्राह्मण दान की प्रशंसा करके आहारादि लेने वाला एवं भोगने वाला ब्राह्मण वनीपक कहलाता है / (4) श्वा वनीपक-कुत्ते, काक, आदि को आहारादि देने में पुण्य समझने वाले दाता के आगे इस कार्य की प्रशंसा
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________________ 386 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह करके आहारादि लेने वाला एवं भोगने वाला श्वा-वनीपक कहलाता है। (5) श्रमण वनीपक:-श्रमण के पाँच भेद कहे जा चुके हैं। जो दाता श्रमणों का भक्त है उसके आगे श्रमण-दान की प्रशंसा करके आहारादि प्राप्त करने वाला श्रमणवनीपक है। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 454 ) ३७४-चस्त्र के पाँच भेदः-- निम्रन्थ और निग्रन्थी को पाँच प्रकार के वस्त्र प्रहण करना और सेवन करना कल्पता है / वस्त्र के पांच प्रकार ये हैं :(1) जाङ्गमिक। (2) भाङ्गिक / (3) सानक / (4) पोतक। (5) तिरीडपट्ट। (1) जाङ्गमिकः-त्रस जीवों के रोमादि से बने हुए वस्त्र जाङ्गमिक कहलाते हैं / जैसे:-कम्बल वगैरह। (2) भाङ्गिक:-अलसी का बना हुआ वस्त्र भाङ्गिक कहलाता है। (3) सानक:--सन का बना हुआ वस्त्र सानक कहलाता है। (4) पोतक:-कपास का बना हुआ वस्त्र पोतक कहलाता है। (5) तिरीडपट्टः-तिरीड़ वृक्ष की छाल का बना हुआ कपड़ा तिरीड़ पट्ट कहलाता है।
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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला इन पाँच प्रकार के वस्त्रों में से उत्सर्ग रूप से तो कपास और ऊन के बने हुए दो प्रकार के अल्प मूल्य के वस्त्र ही साधु के ग्रहण करने योग्य हैं। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 446) ३७५-ज्ञान के पाँच मेदः (1) मति ज्ञान। (2) श्रुतज्ञान। (3) अवधि ज्ञान। (4) मनः पर्यय ज्ञान / (5) केवल ज्ञान / (1) मति ज्ञान (आभिनिबोधिक ज्ञान):--इन्द्रिय और मन की सहायता से योग्य देश में रही हुई वस्तु को जानने वाला ज्ञान मतिज्ञान (आभिनिबोधिक ज्ञान ) कहलाता है। (2) श्रुतज्ञान:-वाच्य-वाचक भाव सम्बन्ध द्वारा शब्द से सम्बद्ध अर्थ को ग्रहण कराने वाला इन्द्रिय मन कारणक ज्ञान श्रुतज्ञान है / जैसे इस प्रकार कम्बुग्रीवादि आकार वाली वस्तु जलधारणादि क्रिया में समर्थ है और घट शब्द से कही जाती है / इत्यादि रूप से शब्दार्थ की पर्यालोचना के बाद होने वाले त्रैकालिक सामान्य परिणाम को प्रधानता देने वाला ज्ञान श्रुत ज्ञान है। अथवा:___ मति ज्ञान के अनन्तर होने वाला, और शब्द तथा अर्थ की पर्यालोचना जिसमें हो ऐसा ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। जैसे कि घट शब्द के सुनने पर अथवा आँख से घड़े के देखने पर उसके बनाने वाले का, उसके रंग का
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 361 और इसी प्रकार तत्सम्बन्धी भिन्न भिन्न विषयों का विचार करना श्रुतज्ञान है। (3) अवधि ज्ञान:-इन्द्रिय तथा मन की सहायता विना, मर्यादा को लिये हुए रूपी द्रव्य का ज्ञान करना अवधि ज्ञान कहलाता है। (4) मनः पर्यय ज्ञान:-इन्द्रिय और मन की सहायता के विना ____ मर्यादा को लिये हुए संज्ञी जीवों के मनोगत भावों का जानना मनः पर्यय ज्ञान है। (5) केवल ज्ञानः-मति आदि ज्ञान की अपेक्षा विना, त्रिकाल एवं त्रिलोक वर्ती समस्त पदार्थों को युगपत् हस्तामलकवत् जानना केवल ज्ञान है। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 463 ) (कर्म ग्रन्थ प्रथम भाग) (नंदी सूत्र टीका) 376- केवली के पाँच अनुत्तरः केवल ज्ञानी सर्वज्ञ भगवान् में पांच गुण अनुत्तर अर्थात् सर्वश्रेष्ठ होते हैं। (1) अनुत्तर ज्ञान / (2) अनुत्तर दर्शन / (3) अनुत्नर चारित्र। (4) अनुत्तर तप / (5) अनुत्तर वीर्य / केवली भगवान् के ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्म के क्षय हो जाने से केवलज्ञान एवं केवल दर्शन रूप अनुत्तर ज्ञान, दर्शन होते हैं। मोहनीय कर्म के क्षय होने से अनुत्तर
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________________ 362 श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला चारित्र होता है। तप चारित्र का भेद है / इस लिये अनुत्तर चारित्र होने से उनके अनुत्तर तप भी होता है। शैलेशी अवस्था में होने वाला शुक्लध्यान ही केवली के अनुत्तर तप है / वीर्यान्तराय कर्म के क्षय होने से केवली के अनुत्तर वीर्य होता है। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 410) पाँच बोल: पाँच बोलों से अवधिज्ञान द्वारा पदार्थों को देखते ही प्रथम समय में वह चलित हो जाता है / अथवा अवधिज्ञानद्वारा पदार्थों का ज्ञान होने पर प्रारम्भ में ही अवधिज्ञानी 'यह क्या ? ' इस तरह मोहनीय कर्म का क्षय न होने से विस्मयादि से दङ्ग रह जाता है। (1) अवधिज्ञानी थोड़ी पृथ्वी देख कर 'यह क्या ?' इस प्रकार __ आश्चर्य से क्षुब्ध हो जाता है क्योंकि इस ज्ञान के पहले वह विशाल पृथ्वी की सम्भावना करता था। (2) अत्यन्त प्रचुर कुंथुनों की राशि रूप पृथ्वी देख कर विस्मय और दयावश अवधिज्ञानी चकित रह जाता है। (3) बाहर के द्वीपों मे होने वाले एक हजार योजन परिमाण के महासर्प को देखकर विस्मय और भयवश अवधिज्ञानी घबरा उठता है। (4) देवता को महाऋद्धि, द्युति, प्रभाव, बल और सौख्य सहित देखकर अवधिज्ञानी आश्चर्यान्वित हो जाता है।
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संवह 363 (5) अवविज्ञानी पुरों (नगरों) में पुराने विस्तीर्ण,बहुमूल्य रत्नादि से भरे हुए खजाने देखता है। उनके स्वामी नष्ट हो गये हैं। स्वामी की सन्तान का भी पता नहीं है न उनके कुल, गृह आदि ही हैं / खजानों के मार्ग भी नहीं है और 'यहाँ खजाना है। इस प्रकार खज़ाना का निर्देश करने वाले चिह्न भी नहीं रहे हैं। इसी प्रकार ग्राम, आकर, नगर, खेड़, कर्बट, द्रोणमुख, पाटन, आश्रम, संवाह, सन्निवेश, त्रिकोण मार्ग, तीन चार और अनेक पथ जहाँ मिलते हैं ऐसे मार्ग, राजमार्ग, गलिये, नगर के गटर (गन्दी नालियां), श्मशान, सूने घर, पर्वत की गुफा, शान्ति गृह, उपस्थान गृह, भवन और घर इत्यादि स्थानों में पड़े हुए बहुमूल्य रत्नादि के निधान अवधिज्ञानी देखता है / अदृष्ट पूर्व इन निधानों को देखकर अनधिज्ञानी विस्मय एवं लोभवश चंचल हो उठता है। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 364) ३७८--ज्ञानावरणीय की व्याख्या और उसके पाँच भेदः-- __ज्ञान के आवरण करने वाले कर्म को ज्ञानावरणीय कहते हैं / जिस प्रकार आँख पर कपड़े की पट्टी लपेटने से वस्तुओं के देखने में रुकावट हो जाती है। उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के प्रभाव से आत्मा को पदार्थों का ज्ञान करने में रुकावट पड़ जाती है / परन्तु यह कर्म आत्मा को सर्वथा ज्ञानशून्य अर्थात् जड़ नहीं कर देता / जैसे घने बादलों से सूर्य के ढंक जाने पर भी सूर्य का, दिन रात बताने वाला, प्रकाश तो रहता ही है। उसी प्रकार ज्ञाना
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________________ 364 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला वरणीय कर्म से ज्ञान के ढक जाने पर भी जीव में इतना ज्ञानांश तो रहता ही है कि वह जड़ पदार्थ से पृथक समझा जा सके। ज्ञानावरणीय कर्म के पांच भेद(१) मति ज्ञानावरणीय / (2) श्रुत ज्ञानावरणीय / (3) अवधि ज्ञानावरणीय / (4) मनः पर्यय ज्ञानावरणीय / (5) केवल ज्ञानावरणीय / (1) मति ज्ञानावरणीयः-पति ज्ञान के एक अपेक्षा से तीन सौ चालीस भेद होते हैं / इन सब ज्ञान के भेदों का आवरण करने वाले कर्मों को मति ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं / (2) श्रुत ज्ञानावरणीयः-चौदह अथवा बीस भेद वाले श्रुतज्ञान का आवारण करने वाले कर्मों को श्रुत ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। (3) अवधि ज्ञानावरणीयः-भव प्रत्यय और गुण प्रत्यय तथा अनुगामी, अननुगामी आदि भेद वाले अवधिज्ञान के आवारक कर्मों को अवधि ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। (4) मनः पर्यय ज्ञानावरणीयः-ऋजुमति और विपुलमति भेद वाले मनःपर्यय ज्ञान का आच्छादन करने वाले कर्मों को मनःपर्यय ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। (5) केवल ज्ञानावरणीयः केवल ज्ञान का आवरण करने वाले कर्मों को केवल ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं।
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________________ 365 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह इन पाँच ज्ञानावरणीय कर्मों में केवल ज्ञानावरणीय सर्व घाती है और शेष चार कर्म देशघाती हैं। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 464) (कर्मग्रन्थ प्रथम भाग) ३७६-परोक्ष प्रमाण के पांच भेदः (1) स्मृति / (2) प्रत्यभिज्ञान / (3) तर्क / (4) अनुमान / (5) आगम। (1) स्मृतिः-पहले जाने हुए पदार्थ को याद करना स्मृति है। (2) प्रत्यभिज्ञानः-स्मृति और प्रत्यक्ष के विषयभूत पदार्थ में जोड़ रूप ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं / जैसे:-यह वही मनुष्य है जिसे कल देखा था। (3) तर्क:-अविनाभाव सम्बन्ध रूप व्याप्ति के ज्ञान को तर्क कहते हैं / साधन (हतु) के होने पर साध्य का होना, और साध्य के न होने पर साधन का भी न होना अविनाभाव मम्बन्ध है / जैसे:-जहाँ जहाँ धूम होता है वहाँ वहाँ अनि होती है और जहाँ अग्नि नहीं होती वहाँ धूम भी नहीं होता। (4) अनुमानः-साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते है / जैसे:-धूम को देख कर अमि का ज्ञान / / __ जिसे हम सिद्ध करना चाहते हैं वह साध्य है और जिस के द्वारा साध्य सिद्ध किया जाता है वह साधन है / साधन, साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध से रहता है / उसके होने पर साध्य अवश्य होता है और साध्य के अभाव में
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________________ 366 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला वह नहीं रहता / जैसे:-ऊपर के दृष्टान्त में धूम के सद्भाव में अग्नि का सद्भाव और अग्नि के अभाव में धूम का अभाव होता है। यहां धूम, अग्नि का साधन है। अनुमान के दो भेदः (1) स्वार्थानुमान / (2) परार्थानुमान / ___ स्वयं साधन द्वारा साध्य का ज्ञान करना स्वार्थानुमान है / दूसरे को साधन से साध्य का ज्ञान कराने के लिए कहे जाने वाला प्रतिज्ञा, हेतु आदि वचन परार्था नुमान है। (5) आगमः-प्राप्त (हितोपदेष्टा सर्वज्ञ भगवान् ) के वचन से उत्पन्न हुए पदार्थ-ज्ञान को आगम कहते हैं / उपचार से प्राप्त का वचन भी आगम कहा जाता है। जो अभिधेय वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानता है, और जैसा जानता है उसी प्रकार कहता है / वह प्राप्त है / अथवा रागादि दोषों के क्षय होने को प्राप्ति कहते हैं / प्राप्ति से युक्त पुरुष आप्त कहलाता है / (रत्नाकरावतारिको परिच्छेद 3 व 4] ३८०:-परार्थानुमान के पांच अङ्गः (1) प्रतिज्ञा (2) हेतु / (3) उदाहरण. (4) उपनय / (5) निगमन / (1) प्रतिज्ञाः-पक्ष और साध्य के कहने को प्रतिज्ञा कहते हैं / जहाँ हम साध्य को सिद्ध करना चाहते हैं वह पक्ष है यानि
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________________ 367 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह साध्य के रहने के स्थान को पक्ष कहते हैं / जैसे: इस पर्वत में अग्नि है / यह प्रतिज्ञा वचन है / यहाँ अमि साध्य है क्योंकि इसे सिद्ध करना है और पर्वत पक्ष है क्योंकि साध्य अग्नि को हम पर्वत में सिद्ध करना चाहते हैं। (2) हेतुः-साधन के कहने को हेतु कहते हैं / जैसे-'क्योंकि यह धूम वाला है' / यहाँ धूम, साध्य अमि को सिद्ध करने वाला होने से साधन है और साधन को कहने वाला यह वचन हेतु है। 3) उदाहरण:--व्याप्ति पूर्वक दृष्टान्त का कहना उदाहरण है। जैसे--जहाँ जहाँ धृम होता है वहाँ वहाँ अनि होती है, जैसे रसोई घर / जहाँ अग्नि नहीं होती वहाँ धूम भी नहीं होता। जैसे:-तालाब / जहाँ साध्य और साधन की उपस्थिति और अनुपस्थिति दिखाई जाती है वह दृष्टान्त है / जैसे:-रसोई घर और तालाब। ___दृष्टान्त के अन्वय और व्यतिरेक की अपेक्षा दो भेद हैं / जहाँ साधन की उपस्थिति में साध्य की उपस्थिति दिखाई जाय वह अन्वय दृष्टान्त है। जैसे:-रसोई घर / जहाँ साध्य की अनुपस्थिति में साधन की अनुपस्थिति दिखाई जाय वह व्यतिरेक दृष्टान्त है / जैसे: तालाब / (4) उपनयः-पक्ष में हेतु का उपसंहार करना उपनय है। जैसे: यह पर्वत भी धूम वाला है। (5) निगमनः नतीजा निकाल कर पक्ष में साध्य को दुहराना
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________________ 368 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला है। इस प्रकार के वाक्य का प्रयोग निगमन कहलाता है / (रत्नाकरावतारिका परिच्छेद 3) ३८१-स्वाध्याय की व्याख्या और भेदः शोभन रीति से मर्यादा पूर्वक अस्वाध्याय काल का परिहार करते हुए शास्त्र का अध्ययन करना स्वाध्याय है। स्वाध्याय के पाँच भेदः (1) वाचना (2) पृच्छना / (3) परिवर्तना (4) अनुप्रेक्षा / (5) धर्म कथा। (1) वाचना:-शिष्य को सूत्र अर्थ का पढ़ाना वाचना है। (2) पृच्छनाः-चाचना ग्रहण करके संशय होने पर पुनः पूंछना पृच्छना है / या पहले सीखे हुए सूत्रादि ज्ञान में शंका होने पर प्रश्न करना पृच्छना है। (3) परिवर्तनाः-पढ़े हुए भूल न जाँय इस लिये उन्हें फेरना परिवर्तना है। (4) अनुप्रेक्षा:-सीखे हुए सूत्र के अर्थ का विस्मरण न हो जाय इस लिये उसका बार बार मनन करना अनुप्रेक्षा है / (5) धर्मकथा:--उपरोक्त चारों प्रकार से शास्त्र का अभ्यास करने पर भव्य जीवों को शास्त्रों का व्याख्यान सुनाना धर्म कथा है। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 465) ३८२-सूत्र की वाचना देने के पाँच वोल यानि गुरु महाराज पाँच बोलों से शिष्य को सूत्र सिखावे
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 366 (1) शिष्यों को शास्त्र ज्ञान का ग्रहण हो और इनके श्रुत का संग्रह हो, इस प्रयोजन से शिष्यों को वाचना देवे / (2) उपग्रह के लिये शिष्यों को वाचना देवे / इस प्रकार शास्त्र सिखाये हुए शिष्य आहार, पानी, वस्त्रादि शुद्ध गवेषणा द्वारा प्राप्त कर सकेंगे और संयम में सहायक होंगे / (3) सूत्रों की वाचना देने से मेरे कर्मों की निर्जरा होगी यह विचार कर वाचना देवे / (4) यह सोच कर वाचना देवे कि वाचना देने से मेरा शास्त्र ज्ञान स्पष्ट हो जायगा। (5) शास्त्र का व्यवच्छेद न हो और शास्त्र की परम्परा चलती रहे इस प्रयोजन से वाचना देवे / (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 468) ३८३--सूत्र सीखने के पांच स्थान: १-तत्त्वों के ज्ञान के लिये सूत्र सीखे / / २-तत्त्वों पर श्रद्धा करने के लिये सूत्र सीखे ३-चारित्र के लिये सूत्र सीखे / ४-पिध्याभिनिवेश छोड़ने के लिये अथवा दूसरे से छुड़वाने के लिये सूत्र सीखे / ५-सूत्र सीखने से यथावस्थित द्रव्य एवं पर्यायों का ज्ञान होगा इस विचार से सूत्र सीखे / (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 468) ३८४-निरयावलिका के पांच वर्ग:-- (1) निरयावलिका / (2) कप्प वडंसिया।
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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (3) पुफिया / (4) पुफ चूलिया। (5) वरिहदशा। (1) निरयावलिकाः-प्रथम निरयावलिका वर्ग के दस अध्याय हैं / (1) काल / (2) सुकाल / (3) महाकाल / (4) कृष्ण / (5) सुकृष्ण / (6) महा कृष्ण / (7) वीर कृष्ण। (E) राम कृष्ण। (6) सेन कृष्ण / (10) महा सेन कृष्ण / उपरोक्त दस ही श्रेणिक राजा के पुत्र हैं। इनकी माताएं काली, सुकाली आदि कुमारों के सदृश नाम वाली ही हैं / जिनका वर्णन अन्तकृदशा सूत्र में है / श्रेणिक राजा ने कूणिक कुमार के सगे भाई वेहल्ल कुमार को एक सेचानक गन्ध-हस्ती और एक अठारह लड़ी हार दिया था। श्रेणिक राजा की मृत्यु होने पर कूणिक राजा हुआ। उसने रानी पद्मावती के आग्रह वश वेहल्ल कुमार से वह सेचानक गन्धहस्ती और अठारह लड़ी हार मांगा / इस पर वेहल्ल कुमार ने अपने नाना चेड़ा राजा की शरण ली / तत्पश्चात् कूणिक राजा ने इनके लिये काल सुकाल आदि दस भाइयों के साथ महाराजा चेड़ा पर चढ़ाई की / नव मल्लि नव लिच्छवी राजाओं ने चेड़ा राजा का साथ दिया। दोनों के बीच रथमूसल संग्राम हुआ। ये दस ही भाई इस युद्ध में काम आये और मर कर चौथी नरक में उत्पन्न हुए। वहां से आयु पूरी होने पर ये महा विदेह क्षेत्र में जन्म लेंगे और सिद्ध होंगे।
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 401 (2) कप्प वडंसिया:-कप्पवडंसिया नामक द्वितीय वर्ग के दस अध्ययन हैं। (1) पद्म / (2) महापद्म / (3) भद्र। (4) सुभद्र। (5) पद्मभद्र / (6) पद्मसेन / (7) पद्मगुल्म। (8) नलिनी गुल्म। (8) आनन्द / (10) नन्दन। ये दमों निरयावलिका वर्ग के दस कुमारों के पुत्र महावीर के पास दीक्षा ली। प्रथम दो कुमारों ने पाँच वर्ष दीक्षा पर्याय पाली। तीसरे, चौथे और पाँचवें कुमार ने चार वप और छठे, सातवें, आठवें कुमार ने तीन वर्ष तक दीक्षापर्याय पाली / अन्तिम दो कुमारों की दो दो वर्ष की दीक्षापर्याय है / पहले आठ कुमार क्रमशः पहले से आठवें देवलोक में उत्पन्न हुए / नववां कुमार दसवें देवलोक में और दसवां कुमार बारहवें देवलोक में उत्पन्न हुआ। ये सभी देवलोक वहां से सिद्धगति (मोक्ष) को प्राप्त करेंगे। (3) पुफियाः-तृतीय वर्ग पुफिया के दस अध्ययन हैं। (1) चन्द्र। (2) सूर्य। (3) शुक्र। (4) बहुपुत्रिका। (5) पूर्णभद्र। (6) मणिभद्र। (7) दत्त / (8) शिव / (6) बल। (10) अनाहत /
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________________ 402 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला चन्द्र, सूर्य और शुक्र ज्योतिषी देव हैं / बहुपुत्रिका सौधर्म देवलोक की देवी है / पूर्णभद्र, मणिभद्र, दत्त, शिव, बल और अनाहत ये छहों सौधर्म देवलोक के भगवान् महावीर राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में विराजने थे / वहाँ ये सभी भगवान् महावीर के दर्शन करने के लिये आये और नाटक आदि दिखला कर भगवान् को वन्दना नमस्कार कर वापिस यथास्थान चले गये / गौतम स्वामी के पूछने पर भगवान महावीर स्वमी ने इनके पूर्व भव बताये और कहा कि ऐसी करणी (तप,आदि क्रिया) करके इन्होंने यह ऋद्धि पाई है / भगवान् ने यह भी बताया कि इस भव से चव कर ये चन्द्र, सूर्य और शुक्र महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होंगे। बहुपुत्रिका देवी देवलोक से चत्र कर सोमा ब्राह्मणी का भव करेगी। वहाँ उसके बहुत बाल बच्चे होंगे / बाल बच्चों से घबरा कर सोमा ब्राह्मणी सुव्रता आर्या के पास दीक्षा लेगी और सौधर्म देवलोक में सामानिक सोमदेव रूप में उत्पन्न होगी। वहां से चव कर वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगी और सिद्ध होगी / पूर्णभद्र, मणिभद्र आदि छहों देवता भी देवलोक से चव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेंगे और वहाँ से मुक्ति को प्राप्त होंगे। ____ इस वर्ग में शुक्र और बहुपुत्रिका देवी के अध्ययन बड़े हैं / शुक्र पूर्व भव में सोमिल ब्रामण था / सोमिल के
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________________ 403 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह भव की कथा से तत्कालीन ब्राह्मण संन्यासियों के अनेक प्रकार और उनकी चर्या आदि का पता लगता है / इस कथा में ब्राह्मणों के क्रिया-काण्ड और अनुष्ठानों से जैन व्रत नियमों की प्रधानता बताई गई है / बहुपुत्रिका के पूर्व भव सुभद्रा की कथा से यह ज्ञात होता है कि विना बाल बच्चों वाली स्त्रियों बच्चों के लिये कितनी तरसती हैं और अपने को हतभाग्या समझती हैं। बहुपुत्रिका के आगामी सोमा ब्राह्मणी के भव की कथा से यह मालूम होता है कि अधिक बाल बच्चों वाली स्त्रिय बाल बच्चों से कितनी घबरा उठती हैं / आदि आदि / (4) पुष्फ चूलिया:-चतुर्थ वर्ग पुष्फ चूलिया के दस अध्य यन हैं। (1) श्री। (2) ही। (3) धृति। (4) कीर्ति। (5) बुद्धि / (6) लक्ष्मी। (7) इला देवी। (8) सुरा देवी। (8) रस देवी। (10) गन्ध देवी / ये दस ही प्रथम सौधर्म देवलोक की देवियों हैं / इनके विमानों के वे ही नाम हैं जो कि देवियों के हैं / इस वर्ग में श्री देवी की कथा विस्तार से दी गई है। __ श्री देवी राजग्रह नगर के गुणशील चैत्य में विराजमान भगवान् महावीर स्वामी के दर्शनार्थ आई। उसने बत्तीस प्रकार के नाटक बताये और भगवान को
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________________ 404 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला वन्दना नमस्कार कर वापिस अपने स्थान पर चली गई। गौतम स्वामी के पूछने पर भगवान् ने श्री देवी का पूर्व भव बताया / पूर्व भव में यह राजगृह नगर के सुदर्शन गाथापति की पुत्री थी। इसका नाम भूता था। उसने भगवान् पार्श्वनाथ का उपदेश सुना और संसार से विरक्त होगई। उसने दीक्षा ली और पुष्प चूला आर्या की शिष्या हुई। किसी समय उसे सर्वत्र अशुचि ही अशुचि दिखाई देने लगी। फिर वह शौच धर्म वाली होगई और शरीर की शुश्रूषा करने लगी / वह हाथ, पैर आदि शरीर के अवयवों को, सोने बैठने आदि के स्थानों को बारबार धोने लगी और खूब साफ रखने लगी / पुष्प चूला आर्यो के मना करने पर भी वह उनसे अलग रहने लगी। इस तरह बहुत वर्ष तक दीक्षा पर्याय पाल कर अन्त समय में उमने आलोचना, प्रतिक्रमण किये बिना ही संथारा किया,और काल धर्म को प्राप्त हुई। भगवान् ने फरमाया यह करणी करके श्री देवी ने यह ऋद्धि पाई है और यहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्धगति को प्राप्त होगी। शेष नव अध्ययन भी इसी तरह के हैं / इनके पूर्वभव के नगर, चैत्य, माता पिता और खुद के नाम संग्रहणी सूत्र के अनुसार ही हैं। सभी ने भगवान् पार्श्वनाथ के पास दीक्षा ली और पुष्प चूला आर्या की शिष्या हुई। सभी श्री देवी की तरह शौच और शुश्रषा धर्म वाली हो गई। यहाँ से चव कर ये सभी श्री देवी की तरह ही महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेंगी और सिद्ध पद को प्राप्त करेंगी।
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संयह 405 (5) वण्हिदसा:-पञ्चम वर्ग वण्हिदसा के बारह अध्ययन हैं(१) निसढ़। (2) माणि। (3) वह / (4) वहे। (5) पगया। (6) जुत्ती। (7) दसरह / (8) दढरह। (8) महाधरण। (10) सत्तधरण। (11) दम धरण। (12) सय धरण। इनमें पहले अध्ययन की कथा विस्तार पूर्वक दी गई है / शेप ग्यारह अध्ययन के लिये संग्रहणी की सूचना दी है। निमढ़ कुमार द्वारिका नगरी के बलदेव राजा की रेवती रानी के पुत्र थे। भगवान् अरिष्टनेमि के द्वारिका नगरी के नन्दन वन में पधारने पर निसढ़ कुमार ने भगवान् के दर्शन किये और उपदेश श्रवण किया। उपदेश सुन कर कुमार ने श्रावक के बारह व्रत अङ्गीकार किये। प्रधान शिष्य वरदत्त अणगार के पूछने पर भगवान् पार्श्वनाथ ने निसढ़ कुमार के पूर्वभव की कथा कही। पूर्वभव में निसढ़ कुमार भरतक्षेत्र के रोहीडक नामक नगर में महाबल राजा के यहाँ पद्मावती रानी की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। इनका नाम वीरगद था। इन्होंने सिद्धार्थ आचार्य के पास दीक्षा ली। 45 वर्ष की दीक्षा-पर्याय पाल कर वीरङ्गद कुमार ने संथारा किया और ब्रह्म देवलोक में देवता हुए / वहाँ से चव कर ये निसढ़ कुमार हुए हैं।
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________________ 406 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला / बाद में निसढ़ कुमार ने भगवान् अरिष्टनेमि के पास दीक्षा ली। नौ वर्ष तक दीक्षा पर्याय पाल कर वे संथारा करके काल धर्म को प्राप्त हुए और सर्वार्थसिद्ध विमान में देवता हुए। वरदत्त अणगार के पूछने पर भगवान् अरिष्टनेमि ने बताया कि ये सर्वार्थसिद्ध विमान से चव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेंगे। वहाँ दीक्षा लेकर बहुत वर्ष तक चारित्र पाल कर अन्त में एक मास की संलेखना करेंगे और मुक्ति को प्राप्त करेंगे। (निरयावलिका) ३८५-दग्धाक्षर पाँच: काव्य में अक्षरों के शुभाशुभपने पर ध्यान दिया जाता है / अशुभ अक्षरों में भी पाँच अक्षर बहुत दूषित समझे जाते हैं / जो दग्धाक्षर कहलाते हैं। पद्य के आदि में ये अक्षर न आने चाहिये / दग्धाक्षर ये हैं: झ, ह, र, भ, प। यदि छन्द का पहला शब्द देवता या मङ्गलवाची हो तो अशुभ अक्षरों का दोष नहीं रहता। अक्षर के दीर्घ कर देने से भी दग्धाक्षर का दोष जाता रहता है। (सरल पिङ्गल) ३८६-पांच बोल छबस्थ साक्षात् नहीं जानता: (1) धर्मास्तिकाय / (2) अधर्मास्तिकाय / (3) आकाशास्तिकाय। (4) शरीर रहित जीव / (5) परमाणु पुद्गल /
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 407 धर्मास्तिकाय आदि अमूर्त हैं इस लिये अवधिज्ञानी उन्हें नहीं जानता / परन्तु परमाणु पुद्गल मूर्त (रूपी) है और उसे अवधिज्ञानी जानता है। इसलिये यहाँ छमस्थ से अवधि ज्ञान आदि के अतिशय रहित छमस्थ ही का आशय है। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 450) ३८७-जीव के पाँच भावः विशिष्ट हेतुओं से अथवा स्वभाव से जीवों का भिन्न भिन्न रूप से होना भाव है। अथवा:उपशमादि पर्यायों से जो होते हैं वे भाव कहलाते हैं। भाव के पाँच भेदः (1) औपशमिक / (2) क्षायिक / (3) क्षायोपशमिक / (4) औदयिक / (5) पारिणामिक / (1) औपशामिकः-जो उपशम से होता है वह औपशमिक भाव कहलाता है। प्रदेश और विपाक दोनों प्रकार से कर्मों का उदय रुक जाना उपशम है / इस प्रकार का उपशम सर्वोपशम कहलाता है और वह सर्वोपशम मोहनीय कर्म का ही होता है, शेष कर्मों का नहीं। औपशमिक भाव के दो भेद हैं(१) सम्यक्त्व / (2) चारित्र / ये भाव दर्शन और चारित्र मोहनीय के उपशम से होने वाले हैं।
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________________ 408 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (2) चायिक भाव-जो कर्म के सर्वथा क्षय होने पर प्रकट होता है वह क्षायिक भाव कहलाता है। सायिक भाव के नौ भेदः-- (1) केवल ज्ञान / (2) केवल दर्शन / (3) दान लब्धि। (4) लाभ लब्धि / (5) भोग लब्धि। (8) उपभोग लब्धि / (7) वीर्य लब्धि। (8) सम्यक्त्व / (8) चारित्र / चार सर्वघाती कर्मों के क्षय होने यर ये नव भाव प्रकट होते हैं / ये सादि अनन्त हैं। (3) क्षायोपशमिकः-उदय में आये हुए कर्म का क्षय और अनुदीर्ण अंश का विपाक की अपेक्षा उपशम होना क्षयोपशम कहलाता है / क्षयोपशम में प्रदेश की अपेक्षा कर्म का उदय रहता है / इसके अठारह भेद हैं चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य की पाँच लब्धियों, सम्यक्त्व और चारित्र / चार सर्वधाती कर्मों के क्षयोपशम से ये भाव प्रगट होते हैं। शेष कर्मों का क्षयोपशम नहीं होता। (4) औदयिक भावः-यथा योग्य समय पर उदय प्राप्त आठ कर्मों का अपने अपने स्वरूप से फल भोगना उदय है। उदय से होने वाला भाव औदयिक कहलाता है / औदयिक भाव के इक्कीस भेद हैं: चार गति, चार कषाय, तीन लिङ्ग, छः लेश्या, अज्ञान, मिथ्यात्व, असिद्धत्व, असंयम /
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________________ 406 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (5) पारिणामिक भावः कर्मों के उदय, उपशम आदि से निरपेक्ष जो भाव जीव को केवल स्वभाव से ही होता है वह पारिणामिक भाव है। अथवाःस्वभाव से हो स्वर में परिणत होते रहना पारिणामिक भाव है। अथवाःअवस्थित वस्तु का पूर्व अवस्था का त्याग किये विना उत्तरावस्था में चले जाना परिणाम कहलाता है। उससे होने वाला भाव पारिणामिक भाव है। पारिणामिक भाव के तीन भेद हैं:(१) जीवत्व (2) भव्यत्व / (3) अभव्यत्व। ये भाव अनादि अनन्त होते हैं / जीव द्रव्य के उपरोक्त पाँच भाव हैं / अजीव द्रव्यों में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल, इन चारों के पारिणामिक भाव ही होता है / पुद्गल द्रव्य में परमाणु पुद्गल और दूधणुकादि सादि स्कन्ध पारिणामिक भाव वाले ही हैं। किन्तु औदारिक आदि शरीर रूप स्कन्धों में पारिणामिक और औदयिक दो भाव होते हैं / कर्म पुद्गल के तो औपशमिक आदि पाँचों भाव होते हैं। (कर्म ग्रन्थ 4) (अनुयोगद्वार सूत्र पृष्ट 113) (प्रवचन सारोद्धार गाथा 1290 से 1268)
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________________ 410 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ३८८ः-अन्तराय कर्म के पाँच भेदः जो कर्म आत्मा के वीर्य, दान, लाभ, भोग और उपभोग रूप शक्तियों का घात करता है वह अन्तराय कहा जाता है / यह कर्म भण्डारी के समान है / जैसे:-राजा को दान देने की आज्ञा होने पर भी भण्डारी के प्रतिकूल होने से याचक को खाली हाथ लौटना पड़ता है / राजा की इच्छा को भण्डारी सफल नहीं होने देता / इसी प्रकार जीव राजा है, दान देने आदि की उसकी इच्छा है परन्तु भण्डारी के सरीखा यह अन्तराय कर्म जीव की इच्छा को सफल नहीं होने देता। अन्तराय कर्म के पांच भेदः-- (1) दानान्तराय (2) लाभान्तराय / (3) भोगान्तराय (4) उपभोगान्तराय / (5) वीर्यान्तराय / / (1) दानान्तरायः-दान की सामग्री तैयार है, गुणवान पात्र आया हुआ है, दाता दान का फल भी जानता है / इस पर भी जिस कर्म के उदय से जीव को दान करने का उत्साह नहीं होता वह दानान्तराय कर्म है। (2) लाभान्तराय:-योग्य सामग्री के रहते हुए भी जिस कर्म के उदय से अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति नहीं होती वह लाभान्तराय कर्म है / जैसे:-दाता के उदार होते हुए, दान की सामग्री विद्यमान रहते हुए तथा माँगने की कला में कुशल होते हुए भी कोई याचक दान नहीं पाता यह लाभान्तराय कर्म का फल ही समझना चाहिए /
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 411 (3) भोगान्तरायः त्याग, प्रत्याख्यान के न होते हुए तथा भोगने की इच्छा रहते हुए भी जिस कर्म के उदय से जीव विद्यमान स्वाधीन भोग सामग्री का कृपणता वश भोग न कर सके वह भोगान्तराय कर्म है। (4) उपभोगान्तरायः-जिस कर्म के उदय से जीव त्याग, प्रत्या ख्यान न होते हुए तथा उपभोग की इच्छा होते हुए भी विद्यमान स्वाधीन उपभोग सामग्री का कृपणता वश उपभोग न कर सके वह उपभोगान्तगय कर्म है / (5) वीर्यान्तराय:-शरीर नीरोग हो, तरुणावस्था हो, बलवान हो फिर भी जिस कर्म के उदय से जीव प्राणशक्ति रहित होता है तथा सत्व हीन की तरह प्रवृत्ति करता है / वह वीर्यान्तराय कर्म है। वीर्यान्तराय कर्म के तीन भेदः(१) बाल वीर्यान्तराय (2) पण्डित वीर्यान्तराय / (3) वाल-पण्डित वीर्यान्तराय / बाल-वीर्यान्तरायः-समर्थ होते हुए एवं चाहते हुए भी जिसके उदय से जीव मांसारिक कार्य न कर सके वह बाल वीर्या पण्डित वीर्यान्तरायः-सम्यग्दृष्टि साधु मोक्ष की चाह रखता हुआ भी जिस कर्म के उदय से जीव मोक्ष प्राप्ति योग्य क्रियाएं न कर सके वह पण्डित वीर्यान्तराय है।
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________________ 412 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला बाल-पण्डित-वीर्यान्तरायः-देश विरति रूप चारित्र को चाहता हुआ भी जिस कर्म के उदय से जीव श्रावक की क्रियाओं का पालन न कर सके वह बाल-पण्डित वीर्यान्तराय है / (कर्म गन्थ भाग 1) [पन्नवणा पद 23] ३८६ः-शरीर की व्याख्या और उसके भेदः जो उत्पत्ति समय से लेकर प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होता रहता है / तथा शरीर नाम कर्म के उदय से उत्पन्न होता है वह शरीर कहलाता है। शरीर के पाँच भेदः (1) औदारिक शरीर / (2) वैक्रिय शरीर / (3) आहारक शरीर। (4) तेजस शरीर / (5) कार्माण शरीर / (1) औदारिक शरीर:-उदार अर्थात् प्रधान अथवा स्थूल पुद्गलों से बना हुआ शरीर औदारिक कहलाता है / तीर्थकर, गणधरों का शरीर प्रधान पुद्गलों से बनता है और सर्व साधारण का शरीर स्थूल असार पुद्गलों से बना हुआ होता है। अथवाःअन्य शरीरों की अपेक्षा अवस्थित रूप से विशाल अर्थात् बड़े परिमाण वाला होने से यह औदारिक शरीर कहा जाता है / वनस्पति काय की अपेक्षा औदारिक शरीर की एक सहस्र योजन की अवस्थित अवगाहना है। अन्य सभी शरीरों की अवस्थित अवगाहना इससे कम है। वैक्रिय
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________________ 413 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह शरीर की उतर वैक्रिय की अपेक्षा अनवस्थित अवगाहना लाख योजन की है / परन्तु भव धारणीय बैंक्रिय शरीर की अवगाहना तो पांच सौ वधुष से ज्यादा नहीं है। अथवाःअन्य शरीरों की अपेक्षा अल्प प्रदेश वाला तथा परिमाण में बड़ा होने से यह औदारिक शरीर कहलाता है। अथवा:___मांस रुधिर अस्थि आदि से बना हुआ शरीर औदारिक कहलाता है। औदारिक शरीर मनुष्य और तिर्यञ्च के होता है / (2) वैक्रिय शरीर:-जिस शरीर से विविध अथवा विशिष्ट प्रकार की क्रियाएं होती हैं वह वैक्रिय शरीर कहलाता है। जैसे एक रूप होकर अनेक रूप धारण करना, अनेक रूप होकर एक रूप धारण करना, छोटे शरीर से बड़ा शरीर बनाना और बड़े से छोटा बनाना, पृथ्वी और आकाश पर चलने योग्य शरीर धारण करना,दृश्य अदृश्य रूप बनाना आदि / वैक्रिय शरीर दो प्रकार का है: (1) औपपातिक वैक्रिय शरीर / (2) लब्धि प्रत्यय वैक्रिय शरीर / ___जन्म से ही जो वैक्रिय शरीर मिलता है वह औपपातिक वैक्रिय शरीर है। देवता और नारकी के नैरिये जन्म से ही वैक्रिय शरीरधारी होते हैं /
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________________ 414 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला लब्धि प्रत्यय वैक्रिय शरीरः- तप आदि द्वारा प्राप्त लब्धि विशेष से प्राप्त होने वाला वैक्रिय शरीर लब्धि प्रत्यय वैक्रिय शरीर है। मनुष्य और तिर्यश्च में लब्धि प्रत्यय चक्रिय शरीर होता है। (3) आहारक शरीरः-प्राणी दया, तीर्थंकर भगवान् की ऋद्धि का दर्शन तथा संशय निवारण आदि प्रयोजनों से चौदह पूर्वधारी मुनिराज,अन्य क्षेत्र (महाविदेह क्षेत्र) में विराजमान तीर्थंकर भगवान् के समीप भेजने के लिये, लब्धि विशेष से अतिविशुद्ध स्फटिक के सदृश एक हाथ का जो पुतला निकालते हैं वह आहारक शरीर कहलाता है / उक्त प्रयोजनों के सिद्ध हो जाने पर वे मुनिराज उस शरीर को छोड़ देते हैं। (4) तैजस शरीर:-तेजः पुद्गलों से बना हुआ शरीर तैजस शरीर कहलाता है प्राणियों के शरीर में विद्यमान उष्णता से इस शरीर का अस्तित्व सिद्ध होता है / यह शरीर आहार का पाचन करता है। तपोविशेष से प्राप्त तैजस लब्धि का कारण भी यही शरीर है। (5) कार्माण शरीरः-कर्मों से बना हुआ शरीर कार्माण कहलाता है / अथवा जीव के प्रदेशों के साथ लगे हुए आठ प्रकार के कर्म पुद्गलों को कार्माण शरीर कहते हैं / यह शरीर ही सब शरीरों का बीज है। पाँचों शरीरों के इस क्रम का कारण यह है कि आगे आगे के शरीर पिछले की अपेक्षा प्रदेश बहुल
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 415 (अधिक प्रदेश वाले) हैं एवं परिमाण में सूक्ष्मतर हैं। तैजस और कार्माण शरीर सभी संसारी जीवों के होते हैं / इन दोनों शरीरों के साथ ही जीव मरण देश को छोड़ कर उत्पत्ति स्थान को जाता है। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 365) (पन्नवणा पद 21) __ (कर्मग्रन्थ पहला) ३६०-बन्धन नाम कर्म के पाँच भेदः जिस प्रकार लाख, गोंद आदि चिकने पदार्थों से दो चीज़े आपस में जोड़ दी जाती हैं उसी प्रकार जिस नाम कर्म से प्रथम ग्रहण किये हुए शरीर पुद्गलों के साथ वर्तमान में ग्रहण किये जाने वाले शरीर पुद्गल परस्पर बन्ध को प्राप्त होते हैं वह बन्धन नाम कर्म कहा जाता है। बन्धन नाम कर्म के पाँच भेदः (1) औदारिक शरीर बन्धन नाम कर्म / (2) वैक्रिय शरीर बन्धन नाम कर्म / (3) आहारक शरीर बन्धन नाम कर्म / (4) तैजस शरीर बन्धन नाम कर्म / (5) कार्माण शरीर बन्धन नाम कर्म। (1) औदारिक शरीर बन्धन नाम कर्म:-जिस कर्म के उदय से पूर्व गृहीत एवं गृह्यमाण (वर्तमान में ग्रहण किये जाने वाले) औदारिक पुद्गलों का परस्पर व तैजस कार्माण शरीर पुद्गलों के साथ सम्बन्ध होता है वह औदारिक शरीर बन्धन नामकर्म है।
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________________ 416 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (2) वैक्रिय शरीर बन्धन नामकर्म:-जिस कर्म के उदय से पूर्व गृहीत एवं गृह्यमाण वैक्रिय पुद्गलों का परस्पर व तेजस कार्माण शरीर के पुद्गलों के साथ सम्बन्ध होता है / वह चैक्रिय शरीर बन्धन नामकर्म है। (3) आहारक शरीर बन्धन नामकर्म:-जिस कर्म के उदय से पूर्व गृहीत एवं गृह्यमाण आहारक पुद्गलों का परस्पर एवं तैजस कार्माण शरीर के पुद्गलों के साथ सम्बन्ध होता है। वह आहारक शरीर बन्धन नामकर्म है। (4) तैजस शरीर बन्धन नामकर्म:-जिस कर्म के उदय से पूर्व गृहीत एवं गृह्यमाण तेजस पुद्गलों का परस्पर एवं कार्माण शरीर-पुद्गलों के साथ सम्बन्ध होता है / वह तैजस शरीर बन्धन नामकर्म है। (5) कार्माण शरीर बन्धन नामकर्म:-जिस कर्म के उदय से पूर्व गृहीत एवं गृह्यमाण कर्म पुद्गलों का परस्पर सम्बन्ध होता है वह कार्माण शरीर बन्धन नामकर्म है। औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीन शरीरों का उत्पत्ति के समय सर्व बन्ध और बाद में देश बन्ध होता है। तेजस और कार्याण शरीर की नवीन उत्पत्ति न होने से उनमें सदा देश बन्ध ही होता है। ___(कर्म ग्रन्थ भाग पहला और छठा) (प्रवचन सारोद्धार गाथा 1251 से 75) ३६१-संघात नाम कर्म के पाँच भेदः ____ पूर्वगृहीत औदारिक शरीर आदि पुद्गलों का गृह्यमाण औदारिक आदि पुद्गलों के साथ सम्बन्ध होना बन्ध
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________________ 417 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह कहलाता है / परन्तु यह सम्बन्ध तभी हो सकता है जब कि वे पुद्गल एकत्रित होकर समिहित हों / संघात नाम कर्म का यही कार्य है कि वह गृहीत और गृह्यमाण शरीर पुद्गलों को परस्पर सनिहित कर व्यवस्था से स्थापित कर देता है। इसके बाद बन्धन नाम कर्म से वे सम्बद्ध हो जाते हैं। जैसे दांतली से इधर उधर बिखरी हुई घास इकट्ठी की जाकर व्यवस्थित की जाती है / तभी बाद में वह गडे के रूप में बाँधी जाती है / जिस कर्म के उदय से गृह्यमाण नवीन शरीर-पुद्गल पूर्व गृहीत शरीर-पुद्गलों के समीप व्यवस्था पूर्वक स्थापित किये जाते हैं वह संघात नाम कर्म संघात नाम कर्म के पांच भेदः(१) औदारिक शरीर संघात नाम कर्म / (2) वैकिय शरीर संघात नाम कर्म / (3) आहारक शरीर संघात नाम कर्म। (4) तैजस शरीर संघात नाम कर्म / (5) कार्माण शरीर संघात नाम कर्म / __ औदारिक शरीर संघात नाम कर्म:-जिस कर्म के उदय से औदारिक शरीर रूप से परिणत गृहीत एवं गृह्यमाण पुद्गलों का परस्पर सानिध्य हो अर्थात् एकत्रित होकर वे एक दूसरे के पास व्यवस्था पूर्वक जम जॉय, वह औदारिक शरीर संघात नाम कर्म है। इसी प्रकार शेष चार संघात का स्वरूप भी समझना चाहिये। . (कर्मग्रन्थ प्रथम भाग) (प्रवचन सारोद्धार गाथा 1251 से 75 तक)
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________________ 418 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ३६२--पांच इन्द्रियों: आत्मा, सर्व वस्तुओं का ज्ञान करने तथा भोग करने रूप ऐश्वर्य से सम्पन्न होने से इन्द्र कहलाता है। प्रात्मा के चिह्न को इन्द्रिय कहते हैं। अथवा:इन्द्र अर्थात् आत्मा द्वारा दृष्ट, रचित, सेवित और दी हुई होने से श्रोत्र, चनु आदि इन्द्रियों कहलाती हैं / अथवा:त्वचा नेत्र आदि जिन साधनों से सर्दी गर्मी, काला पीला आदि विषयों का ज्ञान होता है तथा जो अङ्गोपाङ्ग और निर्माण नाम कर्म के उदय से प्राप्त होती है वह इन्द्रिय कहलाती है। इन्द्रिय के पाँच भेदः-- (1) श्रोत्रेन्द्रिय / (2) चक्षुरिन्द्रिय / (3) घाणेन्द्रिय। (4) रसनेन्द्रिय / ___(5) स्पर्शनेन्द्रिय / (1) श्रोत्रेन्द्रियः-जिसके द्वारा जीव, अजीव और मिश्र शब्द का ज्ञान होता है उसे श्रोत्रेन्द्रिय कहते हैं / (2) चक्षुरिन्द्रियः-जिसके द्वारा आत्मा पाँच वर्णों का ज्ञान करती है वह चक्षुरिन्द्रय कहलाती है। (3) घाणेन्द्रियः--जिसके द्वारा आत्मा सुगन्ध और दुर्गन्ध को जानती है वह घाणेन्द्रिय कहलाती है। (4) रसनेन्द्रियः-जिसके द्वारा पाँच प्रकार के रसों का ज्ञान होता है वह रसनेन्द्रिय कहलाती है।
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संपह 416 (5) स्पर्शनेन्द्रियः-जिसके द्वारा आठ प्रकार के स्पर्शों का ज्ञान होता है / वह स्पर्शनेन्द्रिय कहलाती है। (पन्नवण पद 15) (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 443) (जैन सिद्धान्त प्रवेशिका) ३६३-पांच इन्द्रियों के संस्थान:-- इन्द्रियों की विशेष प्रकार की बनावट को संस्थान कहते हैं / इन्द्रियों का संस्थान दो प्रकार का है / बाह्य और आभ्यन्तर / इन्द्रियों का बाम संस्थान भिन्न भिन्न जीवों के भिन्न भिन्न होता है। सभी के एक सा नहीं होता / किन्तु आभ्यन्तर संस्थान सभी जीवों का एक सा होता है। इस लिये यहाँ इन्द्रियों का आभ्यन्तर संस्थान दिया जाता है। श्रोत्रेन्द्रिय का संस्थान कदम्ब के फूल जैसा है / चक्षुरिन्द्रिय का संस्थान मघर की दाल जैसा है। घाणेन्द्रिय का आकार अतिमुक्त पुष्प की चन्द्रिका जैसा है। रसनानेन्द्रिय का आकार खुरपे जैसा है। स्पर्शनेन्द्रिय का आकार अनेक प्रकार का है। (पन्नवणा पद 15) (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 443 टोका) ३६४--पाँच इन्द्रियों का विषय परिमाण: श्रोत्रेन्द्रिय जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग से उत्कृष्ट बारह योजन से आये हुए, शब्दान्तर और वायु आदि से अप्रतिहत शक्ति वाले, शब्द पुद्गलों को विषय करती है।
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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला श्रोत्रेन्द्रिय कान में प्रविष्ट शब्दों को स्पर्श करती हुई ही जानती है। चक्षुरिन्द्रिय जघन्य अङ्गुल के संख्यातवें भाग उत्कृष्ट एक लाख योजन से कुछ अधिक दूरी पर रहे हुए अव्यवहित रूप को देखती है / यह अप्राप्यकारी है / इस लिये रूप का स्पर्श करके उसका ज्ञान नहीं करती। प्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय-ये तीनों इन्द्रियों जघन्य अङ्गुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट नव योजन से प्राप्त अव्यवहित विषयों को स्पर्श करती हुई जानती है। इन्द्रियों का जो विषय परिमाण है वह आत्माङ्गल से जानना चाहिए / (पन्नवणा पद 15) ३६५-पांच काम गुण:-- (1) शब्द। (2) रूप। (3) गन्ध / (4) रस / (5) स्पर्श। ये पाँचों क्रमशः पाँच इन्द्रियों के विषय हैं / ये पाँच काम अर्थात् अभिलाषा उत्पन्न करने वाले गुण हैं / इस लिए काम गुण कहे जाते हैं। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 360 ) ३६६-पाँच अनुत्तर विमानः-- (1) विजय। (2) वैजयन्त। (3) जयन्त / (4) अपराजित / (5) सर्वार्थसिद्ध /
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 421 ये विमान अनुत्तर अर्थात् सर्वोत्तम होते हैं तथा इन विमानों में रहने वाले देवों के शब्द यावत् स्पर्श सर्व श्रेष्ठ होते हैं / इस लिये ये अनुत्तर विमान कहलाते हैं / एक बेला (दो उपवास) तप से श्रेष्ठ साधु जितने कर्म क्षीण करता है उतने कर्म जिन मुनियों के बाकी रह जाते हैं वे अनुत्तर विमान में उत्पन्न होते हैं / सर्वार्थ सिद्ध विमानवासी देवों के जीव तो सात लव की स्थिति के कम रहने से वहां जाकर उत्पन्न होते हैं। (पन्नवया पद 1) (भगवती शतक 14 उद्देशा) ३६७-इन्द्र स्थान की पांच सभाएं: ___ चमर आदि इन्द्रों के रहने के स्थान, भवन, नगर या विमान इन्द्र स्थान कहलाने हैं। इन्द्र स्थान में पाँच सभाएं होती हैं(१) सुधर्मा समा। (2) उपपात सभा / (3) अभिषेक सभा / (4) अलङ्कारिका सभा। (5) व्यवसाय सभा। (1) सुधर्मा सभा:-जहाँ देवताओं की शय्या होती है / वह सुधर्मा सभा है। (2) उपपात सभाः जहाँ जाकर जीव देवता रूप से उत्पन्न होता है / वह उपपात सभा है। (3) अभिषेक सभा:-जहाँ इन्द्र का राज्याभिषेक होता है। वह अभिषेक सभा है।
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________________ 422 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (4) अलङ्कारिका सभा:-जिस में देवता अलङ्कार पहनते हैं वह अलङ्कारिका सभा है। (5) व्यवसाय सभा-जिसमें पुस्तकें पढ़ कर तत्वों का निश्चय किया जाता है वह व्यवसाय सभा है। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 472) ३१८-देवों की पाँच परिचारणा: वेद जनित बाधा होने पर उसे शान्त करना परिचारणा कहलाती है। परिचारणा के पाँच भेद हैं: (1) काय परिचारणा। (2) स्पर्श परिचारणा / (3) रूप परिचारणा / (4) शब्द परिचारणा / (5) मन परिचारणा / भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म, ईशान देवलोक के देवता काय परिचारणा वाले हैं अर्थात् शरीर द्वारा स्त्री पुरुषों की तरह मैथुन सेवन करते हैं और इससे वेद जनित बाधा को शान्त करते हैं। ___ तीसरे सनत्कुमार और चौथे माहेन्द्र देवलोक के देवता स्पर्श परिचारणा वाले हैं अर्थात् देवियों के अङ्गोपाङ्ग का स्पर्श करने से ही उनकी वेद जनित बाधा शान्त हो जाती हैं। पांचवें ब्रह्मलोक और छठे लान्तक देवलोक में देवता रूप परिचारणा वाले हैं। वे देवियों के सिर्फ रूप को देख कर ही तृप्त हो जाते हैं।
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह કરરૂ सातवें महाशुक्र और आठवें सहस्रार देवलोक में देवता शब्द परिचारणा वाले हैं। वे देवियों के आभूषण आदि की धनि को सुन कर ही वेद जनित बाधा से निवृन हो जाते हैं। शेष चार आणत, प्राणत, आरण और अच्युत देवलोक के देवता मन परिचारणा वाले होते हैं अर्थात् संकल्प मात्र से ही वे तृप्त हो जाते हैं। अवेयक और अनुत्तर विमानवामी देवता परिचारणा रहित होते हैं / उन्हें मोह का उदय कम रहता है / इस लिये वे प्रशम सुख में ही तल्लीन रहते हैं। ___काय परिचारणा वाले देवों से स्पर्श परिचारणा वाले देव अनन्त गुण सुख का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार उत्तरोत्तर रूप, शब्द, मन की परिचारणा वाले देव पूर्व पूर्व से अनन्त गुण सुख का अनुभव करते हैं। परिचारणा रहित देवता और भी अनन्त गुण सुख का अनुभव करते हैं। (पन्नवणा पद 34) (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 402) ३६६-ज्योतिषी देव के पाँच भेदः (1) चन्द्र / (2) सूर्य। (3) ग्रह। (4) नक्षत्र / (5) तारा / मनुष्य क्षेत्रवर्ती अर्थात् मानुष्योत्तर पर्वत पर्यन्त अढ़ाई द्वीप में रहे हुए ज्योतिषी देव सदा मेरु पर्वत क
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________________ 424 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला प्रदक्षिणा करते हुए चलने रहते हैं। मानुष्योत्तर पर्वत के आगे रहने वाले सभी ज्योतिषी देव स्थिर रहते हैं। जम्बूद्वीप में दो चन्द्र, दो सूर्य, छप्पन नक्षत्र, एक सौ छिहत्तर ग्रह और एक लाख तेतीस हजार नौ सौ पचाम कोड़ा कोड़ी तारे हैं। लवणोदधि समुद्र में चार, धातकी खण्ड में बारह, कालोदधि में बयालीस और अर्द्धपुष्कर द्वीप में बहत्तर चन्द्र हैं। इस क्षेत्रों में सूर्य की संख्या भी चन्द्र के समान ही है / इस प्रकार अढ़ाई द्वीप में 132 चन्द्र और 132 सूर्य हैं। एक चन्द्र का परिवार 28 नक्षत्र, 88 ग्रह और 66675 कोड़ा कोड़ी तारे हैं। इस प्रकार अढाई द्वीप में इनसे 132 गुणे ग्रह नक्षत्र और तारे हैं। ___चन्द्र से सूर्य, सूर्य से ग्रह, ग्रह से नक्षत्र और नक्षत्र से तारे शीघ्र गति वाले हैं। मध्यलोक में मेरु पर्वत के सम भूमिभाग से 760 योजन से 100 योजन तक यानि 110 योजन में ज्योतिषी देवों के विमान हैं। ( ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 401 ) (जीवाभिगम प्रतिपत्ति३) ४००-पाँच संवत्सरः एक वर्ष को संवत्सर कहते हैं / संवत्सर पांच हैं:(१) नक्षत्र संवत्सर (2) युग संवत्सर / (3) प्रमाण संवत्सर (4) लक्षण संवत्सर / (5) शनैश्चर संवत्सर /
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह 425 (1) नक्षत्र संवत्सरः-चन्द्रमा का अट्ठाईस नक्षत्रों में रहने का काल नक्षत्र मास कहलाता है / बारह नक्षत्र मास का संवत्सर, नक्षत्र संवत्सर कहलाता है। (2) युग संवत्सरः-चन्द्र आदि पाँच संवत्सर का एक युग होता है / युग के एक देश रूप संवत्सर को युग संवत्सर कहते हैं। युग संवत्सर पाँच प्रकार का होता है:(१) चन्द्र / (2) चन्द्र / (3) अभिवर्धित / (4) चन्द्र / (5) अभिवर्धित / (3) प्रमाण संवत्सरः-नक्षत्र आदि संवत्सर ही जब दिनों के परिमाण की प्रधानता से वर्णन किये जाते हैं तो वे ही प्रमाण संवत्सर कहलाते हैं। प्रमाण संवत्सर के पाँच भेदः(१) नक्षत्र (2) चन्द्र (3) ऋतु (4) आदित्य (5) अभिवर्धित / (4) नक्षत्र प्रमाण संवत्सरः--नक्षत्र मास 2714 दिन का होता है / ऐसे बारह मास अर्थात् 32753 दिनों का एक नक्षत्र प्रमाण संवत्सर होता है। चन्द्र प्रमाण संवत्सरः-कृष्ण प्रतिपदा से प्रारम्भ करके पूर्णमासी को समाप्त होने वाला 26 दिन का मास
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________________ કરદ્દ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला चन्द्र माम कहलाता है / बारह चन्द्र माम अर्थात् 3541: दिनों का एक चन्द्र प्रमाण मंवत्सर होता है। ऋतु प्रमाण मंवत्मरः-६० दिन की एक ऋतु प्रसिद्ध है। ऋतु के आधे हिस्से को ऋतु मास कहते हैं / सावन माम और कर्म माम ऋतु माम के ही पर्यायवाची हैं / ऋतु माम तीम दिन का होता है / बारह ऋतु माम अर्थान् 360 दिनों का एक ऋतु प्रमाण मंवत्सर होता है / आदित्य प्रमाण संवन्मर:-श्रादित्य (सूर्य) 183 दिन दक्षिणायन और 183 दिन उत्तरायण में रहता है / दक्षिणायन और उत्तरायण के 366 दिनों का वर्ष आदित्य संवत्सर कहलाता है। अथवा:सूर्य के 28 नक्षत्र एवं बारह राशि के भोग का काल आदित्य मंवत्सर कहलाता है / सूर्य 366 दिनों में उक्त नक्षत्र एवं गशियों का भोग करता है। आदित्य माम की औमत 301 दिन की है। अभिवर्धिन संवन्मरः-तेरह चन्द्र माम का मंवन्मर, अभिवर्धित मंवत्सर कहलाता है / चन्द्र मंवत्सर में एक माम अधिक पड़ने से यह संवन्मर अभिवर्धित मंवत्सर कहलाता है। अथवाः३११९१ दिनों का एक अभिवधित माम होता है / चारह अभिवर्धित माम का एक अभिवर्धित संवत्सर होता है।
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 427 (4) लक्षण संवत्सरः-ये ही उपरोक्त नक्षत्र, चन्द्र, ऋतु, आदित्य और अभिवर्धित संवत्सर लक्षण प्रधान होने पर लक्षण संवत्सर कहलाते हैं / उनके लक्षण निम्न प्रकार हैं। नक्षत्र संवत्मरः-कुछ नक्षत्र स्वभाव से ही निश्चित तिथियों में हुआ करते हैं / जैसे:-कार्तिक पूर्णमासी में कृनिका और मार्गशीर्ष में मृगशिरा एवं पौषी पूर्णिमा में पुष्य आदि / जब ये नक्षत्र ठीक अपनी तिथियों में हों और ऋतु भी यथा समय प्रारम्भ हो / शीत और उष्ण की अधिकता न हो, एवं पानी अधिक हो / इन लक्षणों वाला संवत्सर नक्षत्र संवत्सर कहलाता है। चन्द्र मंवत्मरः--जिस मंवत्सर में पूर्णिमा की पूरी रात चन्द्र से प्रकाशमान रहे / नक्षत्र विषमचारी हों तथा जिसमें शीत उष्ण और पानी की अधिकता हो / इन लक्षणों वाले संवत्सर को चन्द्र संवत्सर कहते हैं। ऋतु संवत्सरः-जिस संवत्सर में असमय में वृक्ष अंकुरित हों, विना ऋतु के वृक्षों में पुष्प और फल पावें तथा वर्षा ठीक समय पर न हो / इन लक्षणों वाले संवत्सर को ऋतु संवत्सर कहते हैं। आदित्य संवत्सरः-जिस संवत्सर में सूर्य, पुष्प और फलों को पृथ्वी पानी के माधुर्य स्निग्धतादि रसों को देता है और इस लिये थोड़ी वर्षा होने पर भी खूब धान्य पैदा हो जाता है / इन लक्षणों वाला संवत्सर आदित्य संवत्सर कहलाता है।
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________________ 428 अभिवर्धित संवत्सरः-जिस संवत्सर में क्षण, लव (46 उच्छवास प्रमाण) दिवस और ऋतुएं सूर्य के नेज से तप्त होकर व्यतीत होती हैं। यहां पर सूर्य के ताप से पृथ्वी आदि के तपने पर भी क्षण, लव. दिवस आदि में ताप का उपचार किया गया है / तथा जिसमें वायु से उड़ी हुई धूलि से स्थल भर जाने हैं। इन लक्षणों से युक्त संवत्सर को अभिवधित संवत्सर कहते हैं। (5) शनैश्चर संवन्मर:-जितने काल में शनैश्चर एक नक्षत्र को भोगता है वह शनैश्चर मंवत्सर है / नक्षत्र 28 हैं। इस लिये शनैश्चर मंवत्सर भी नक्षत्रों के नाम से 28 प्रकार अथवाःअट्ठाईस नक्षत्रों के तीस वर्ष परिमाण भोग काल को नक्षत्र संवत्मर कहते हैं। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 460) (प्रवचन सारोद्धार द्वार 142 गाथा 101) ४०१-पाँच अशुभ भावनाः (3) आभियोगी भावना। (4) आसुरी भावना। (5) मम्मोही भावना। (प्रवचन सारोद्धार द्वार 73) (उत्तराध्ययन अध्ययन 36) ४०२--कन्दर्प भावना के पाँच प्रकारः-- (1) कन्दर्प। (2) कौत्कुच्य /
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल मंग्रह 526 (3) दुःशीलता। (4) हास्योत्पादन / (5) परविम्मयोत्पादन / (1) कन्दर्पः--अट्टहाम करना, हमी मजाक करना, स्वच्छन्द होकर गुरु आदि से ढिठाई पूर्वक कठोर या वक्र वचन कहना, काम कथा करना, काम का उपदेश देना, काम की प्रशंसा करना आदि कन्दप है। (2) कौत्कुच्य:--भांड की तरह चेष्टा करना कौत्कुच्य है / काया और वचन के भेद से कोत्कच्य दो प्रकार का है:-- काय कौत्कुच्य--स्वयं न हमने हुए भी, नत्र, मुख, दांत, हाथ, पैर आदि से ऐमी चेष्टा करना जिमसे दूसरे हँसने लगे, यह काय कौत्कुच्य है। वाक कौत्कुच्यः--दूसरे प्राणियों की बोली की नकल करना, मुख से बाजा बजाना, तथा हास्यजनक वचन कहना वाक कौत्कुच्य है। (3) दुःशीलता:--दुष्ट स्वभाव का होना दुःशीलता है। संभ्रम और आवेश वश विना विचारे जल्दी जल्दी बोलना, मदमाते बैल की तरह जल्दी जल्दी चलना, सभी कार्य विना विचारे हड़बड़ी से करना इत्यादि हरकतों का दुःशीलता में समावेश होता है। (4) हास्योत्पादनः दूसरों के विरूप वेष और भाषा विषयक छिद्रों की गवेषणा करना और भाण्ड की तरह उसी प्रकार के विचित्र वेष बनाकर और वचन कह कर दर्शक और श्रोताओं को हँसाना तथा स्वयं हँसना हास्योत्पादन है।
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________________ 430 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (5) पर विस्मयोत्पादनः--इन्द्रजाल वगैरह कुतूहल, पहेली तथा कुहेटिक, आभाणक (नाटक का एक प्रकार) आदि से दूसरों को विस्मित करना पर विम्मयोत्पादन है। झूठ मूठ ही आश्चर्य में डालने वाले मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र आदि का ज्ञान कुहेटिका विद्या कहलाती है। ४०३--किल्विषी भावना के पाँच प्रकार: (1) श्रुतबान / (2) केवली। (3) धर्माचार्य / (4) मंघ (5) माधु / उपरोक्त पाँचों का अवर्णवाद बोलना, उनमें अविद्यमान दोप बतलाना आदि ये किल्चपी भावना के पाँच प्रकार हैं। इसी के साथ मायावी होना भी किल्बिपी भावना में गिनाया गया है। कहीं कहीं 'संघ और माधु' के बदले मर्व साधु का अवर्णवाद करना कह कर पाँचवाँ प्रकार मायावी होना बतलाया गया है। मायावी:--लोगों को रिझाने के लिये कपट करने वाला, महापुरुषों के प्रति स्वभाव से कठोर, बात बात में नाराज और खुश होने वाला, गृहस्थों की चापलूसी करने वाला, अपनी शक्ति का गोपन करने वाला दूसरों के विद्यमान गुणों को ढांकने वाला पुरुष मायावी कहलाता है। वह चोर की तरह सदा सर्व कार्यों में शंकाशील रहता है और कपटाचारी होता है।
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ४०४-आभियोगी भावना के पाँच प्रकारः (1) कौतुक / (2) भूतिकर्म / (3) प्रश्न / (4) प्रश्नाप्रश्न / (5) निमित्त / (1) कौतुक:- बालक आदि की रक्षा के निमित्त म्नान कराना, हाथ घुमाना, मन्त्र करना, थुत्कारना, धूप देना आदि जो किया जाता है वह कौतुक है। (2) भूति कर्म:-वसति, शरीर और भाण्ड (पात्र) की रक्षा के लिये राख, मिट्टी या सूत से उन्हें परिवेष्टित करना भूति कर्म है। (3) प्रश्नः-दूसरे से लाभ, अलाभ आदि पूंछना प्रश्न है / अथवा अंगूठी, खड्ग, दर्पण, पानी आदि में स्वयं देखना (4) प्रश्नाप्रश्नः-स्चम में आराधी हुई विद्या में अथवा घटि कादि में आई हुई देवी से कही हुई वात दूसरों से कहना प्रश्नाप्रश्न है। (5) निमित्तः-अतीत, अनागत एवं वर्तमान का ज्ञान विशेष निमित्त है। इन कौतुकादि को अपने गौरव आदि के लिये करने वाला साधु आभियोगी भावना वाला है। परन्तु गौरव रहित अतिशय ज्ञानी साधु निस्पृह भाव से तीर्थोन्नति आदि के निमित्त अपवाद रूप में इनका प्रयोग करे तो वह श्राराधक ४०५-आसुरी भावना के पाँच भेदः (1) सदा विग्रह शीलता (2) संसक्त तप
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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (3) निमित कथन (4) निष्कृपता __ (5) निग्नुकम्पना (1) सदा विग्रह शीलताः-हमेशा, लड़ाई झगड़ा करते रहना, करने के बाद पश्चात्ताप न करना, दूसरे के खमाने पर भी प्रसन्न न होना और सदा विरोध भाव रखना, मदा विग्रह शीलता है। (2) संसक्त तपः--आहार, उपकरण, शय्या आदि में आसक्त साधु का आहार आदि के लिये अनशनादि तप करना संसक्त तप है। (3) निमित्त कथन:--अभिमानादि वश लाभ, अलाभ, सुख दुःख, जीवन, मरण विषयक तीन काल सम्बन्धी निमित्त कहना निमित्त कथन है। (4) निष्कृपता:-स्थावरादि सत्वों को अजीव मानने से तद्विषक दयाभाव की उपेक्षा करके या दूसरे कार्य में उपयोग रख कर आसन, शयन, गमन आदि क्रिया करना तथा किसी के कहने पर अनुताप भी न करना निष्कृपता है / (5) निरनुकम्पता:-कृपापात्र दुःखी प्राणी को देख कर भी क्रूर परिणाम जन्य कठोरता धारण करना और सामने वाले के दुःख का अनुभव न करना निरनुकम्पता है / ४०६-सम्मोही भावना के पाँच प्रकार: (1) उन्मार्ग देशना / (2) मार्ग दूषण / (3) मार्ग विप्रतिपत्ति। (4) मोह / (5) मोह जनन /
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 433 (1) उन्मार्ग देशना:--ज्ञानादि धर्म मार्ग पर दोष न लगाते हुए स्व-पर के अहित के लिये सूत्र विपरीत मार्ग कहना उन्मार्ग देशना है। (2) मार्ग दूषण:--पारमार्थिक ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप सत्य धर्म मार्ग और उसके पालने वाले साधुओं में स्वकल्पित दुषण बतलाना मार्ग दूपण है। (3) मार्ग विप्रतिपतिः-ज्ञानादि रूप धर्म मार्ग पर दूषण लगा कर देश से सूत्र विरुद्ध मार्ग को अङ्गीकार करना मार्ग विप्रतिपत्ति है। (4) मोह:--मन्द बुद्धि पुरुष का अति गहन ज्ञानादि विचारों में मोह प्राप्त करना तथा अन्य तीर्थियों की विविध ऋद्धि देख कर ललचा जाना मोह है। (5) मोह जननः-सद्भाव अथवा कपट से अन्य दर्शनों में दूसरों को मोह प्राप्त कराना मोह जनन है / ऐसा करने वाले प्राणी को बोध बीज रूपी समकित की प्राप्ति नहीं होती। ये पच्चीस भावनाएं चारित्र में विघ्न रूप हैं। इनके निरोध से सम्यक चारित्र की प्राप्ति होती है। ( बोल नम्बर 401 से 406 तक के लिये प्रमाण) (प्रवचन सारोद्धार द्वार 73) (उत्तराध्ययन अध्ययन 36 गाथा 261 से 264) ४०७--सांसारिक निधि के पाँच भेदः विशिष्ट रत्न सुवर्णदि द्रव्य जिसमें रखे जाय ऐसे पात्रादि को निधि कहते हैं / निधि की तरह जो आनन्द
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________________ 434 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला और सुख के साधन रूप हों उन्हें भी निधि ही समझना चाहिए। निधि पाँच हैं:(१) पुत्र निधि। (2) मित्र निधि / (3) शिल्प निधि। (4) धन निधि / (4) धान्य निधि। (1) पुत्र निधिः-पुत्र स्वभाव से ही माता पिता के आनन्द और सुख का कारण है / तथा द्रव्य का उपार्जन करने से निर्वाह का भी हेतु है। अतः वह निधि रूप है। (2) मित्र निधिः-मित्र, अर्थ और काम का साधक होने से आनन्द का हेतु है / इस लिये वह भी निधि रूप कहा गया है। (3) शिल्प निधिः-शिल्प का अर्थ है चित्रादि ज्ञान / यहाँ शिल्प का आशय सब विद्याओं से है / वे पुरुषार्थ चतुष्टय की साधक होने से आनन्द और सुख रूप हैं। इस लिये शिल्प-विद्या निधि कही गई है। (4) धन निधि और (5) धान्य निधि वास्तविक निधि रूप निधि के ये पांचों प्रकार द्रव्य निधि रूप हैं / और कुशल अनुष्ठान का सेवन भाव निधि है। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 448) ४०८-पाँच धाय ( धात्री): बच्चों का पालन पोषण करने के लिये रखी जाने वाली स्त्री धाय या धात्री कहलाती है।
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________________ 435 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह धाय के पांच भेदः(१) क्षीर धाय / (2) मजन धाय / (3) मण्डन धाय / (4) क्रीड़न धाय / (5) अङ्क धाय / (1) क्षीर धायः-चच्चों को स्तन-पान कराने वाली धाय क्षीर धाय कहलाती है। (2) मजन धायः बच्चों को स्नान कराने वाली धाय मज्जन धाय कहलाती है। (3) मण्डन धाय-बच्चों को अलङ्कारादि पहनाने वाली धाय मण्डन धाय कहलाती है। (4) क्रीड़न धायः बच्चों को खिलाने वाली धाय क्रीड़न धाय कहलाती है। (5) अङ्क धायः- बच्चों को गोद में बिठाने या मुलाने वाली धाय अङ्क धाय कहलाती है। (आचारांग श्रुतस्कंध 2 भावना अध्ययन 15) (भगवती शतक 11 उद्देशा 11) ४०४--तिश्चर्य पञ्चेन्द्रिय के पाँच भेदः (1) जलचर / (2) स्थलचर। (3) खेचर / (4) उरपरिसर्प / भुजपरिसर्प / (1) जलचरः-पानी में चलने वाले जीव जलचर कहलाते हैं / जैसे:-मच्छ वगैरह / मच्छ, कच्छप, मगर, ग्राह और सुंसुमार ये जलचर के पाँच भेद हैं।
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________________ 436 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (2) स्थलचरः--पृथ्वी पर चलने वाले जीव स्थलचर कहलाते हैं / जैसे:-गाय, घोड़ा आदि / (3) खेचरः-आकाश में उड़ने वाले जीव खेचर कहलाते हैं / जैसे:-चील, कबूतर वगैरह। (4) उरपरिसर्पः--उर अर्थात् छाती से चलने वाले जीव उरपरिसर्प कहलाते हैं / जैसे:-साँप वगैरह / (5) भुज परिसर्पः--भुजाओं से चलने वाले जीव भुज परिसर्प कहलाते हैं / जैसे:-नोलिया, चूहा वगैरह / / पन्नवणा सूत्र एवं उत्तराध्ययन सूत्र में तिर्यश्च पश्चेन्द्रिय के जलचर, स्थलचर और खेचर ये तीन भेद बतलाये गये हैं और स्थलचर के भेदों में उरपरिसर्प और भुज परिसर्प गिनाये हुए हैं। (पन्नवणा पद 1) (उत्तराध्ययन अध्ययन 36) ४१०-मच्छ के पाँच प्रकारः (1) अनुस्रोत चारी (2) प्रति स्रोत चारी (3) अन्त चारी (4) मध्य चारी (5) सर्वचारी। १-पानी के प्रवाह के अनुकूल चलने वाला मच्छ अनुस्रोत चारी है। २-पानी के प्रवाह के प्रतिकूल चलने वाला मच्छ प्रतिस्रोत चारी है। ३-पानी के पार्श्व अथवा पसवाड़े चलने वाला मच्छ अन्त चारी है।
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ४-पानी के बीच में चलने वाला मच्छ मध्यचारी है। ५-पानी में सब प्रकार से चलने वाला मच्छ सर्वचारी है। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 454) ४११-मच्छ की उपमा से भिक्षा लेने वाले भिक्षुक के पाँच प्रकार हैं(१) अनुस्रोत चारी (2) प्रतिस्रोत चारी (3) अन्त चारी (4) मध्य चारी (5) सर्वस्रोत चारी। १--अभिग्रह विशेष से उपाश्रय के समीप से प्रारम्भ करके क्रम से भिक्षा लेने वाला साधु अनुस्रोत चारी भिक्षु है / २-अभिग्रह विशेष से उपाश्रय से बहुत दूर जाकर लौटते हुए भिक्षा लेने वाला साधु प्रतिस्रोत चारी है। ३-क्षेत्र के पार्श्व में अर्थात् अन्त में भिक्षा लेने वाला साधु अन्तचारी है। ४-क्षेत्र के बीच बीच के घरों से भिक्षा लेने वाला साधु मध्य चारी है। ५--सर्व प्रकार से भिक्षा लेने वाला साधु सर्वस्रोत चारी है। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 454) ४१२-पाँच स्थावर कायः-- पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति के जीव स्थावर नाम कर्म का उदय होने से स्थावर कहलाते हैं। उनकी काय अर्थात् राशि को स्थावर काय कहते हैं।
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________________ 438 श्री सेठिया जैन मन्थमाला स्थावर काय पांच हैं:(१) इन्द्र स्थावर काय (2) ब्रह्म स्थावर काय (3) शिल्प स्थावर काय (4) सम्मति स्थावर काय (5) प्राजापत्य स्थावर काय (1) इन्द्र स्थावर कायः-पृथ्वी काय का स्वामी इन्द्र है। इस लिए इसे इन्द्र स्थावर काय कहते हैं। (2) ब्रह्म स्थावर कायः-अपकाय का स्वामी ब्रह्म है। इस लिए इसे ब्रह्म स्थावर काय कहते हैं। (3) शिल्प स्थावर काय:-तेजस्काय का स्वामी शिल्प है। इस लिये यह शिल्प स्थावर काय कहलाती है। (4) सम्मति स्थावर कायः--वायु का स्वामी सम्मति है। इस लिये यह सम्मति स्थावर काय कहलाती है। (5) प्राजापत्य स्थावर काय:-वनस्पति काय का स्वामी प्रजापति है / इस लिये इसे प्राजापत्य स्थावर काय कहते हैं / (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 363) ४१३-पाँच प्रकार की अचित्त वायु: (1) आक्रान्त। (2) ध्मात / (3) पीड़ित। (4) शरीरानुगत / (5) सम्मूर्छिम / (1) आक्रान्तः-पैर आदि से जमीन वगैरह के दबने पर जो वायु उठती है वह आक्रान्त वायु है। (2) ध्माता-धमणी आदि के धमने से पैदा हुई वायु ध्मात वायु है।
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________________ भी जैन सिद्धान्त बोल सग्रह 436 (3) पीड़ितः-गीले वस्त्र के निचोड़ने से निकलने वाली वायु पीड़ित वायु है। (4) शरीरानुगतः डकार आदि लेते हुए निकलने वाली वायु शरीरानुगत वायु है। (5) सम्मूर्छिमः -पंखे आदि से पैदा होने वाली वायु सम्मृर्षिम वायु है। ये पांचों प्रकार की अचित्त वायु पहले अचेतन होती हैं और बाद में सचेतन भी हो जाती है। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 444) ४१४-पांच वर्ण:-- (1) काला। (2) नीला। (3) लाल / (4) पीला। (5) सफेद। ये ही पाँच मूल वर्ण हैं। इनके सिवाय लोक प्रसिद्ध अन्य वर्ण इन्हीं के संयोग से पैदा होते हैं। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 360) ४१५-पाँच रस: (1) तीखा। (2) कडुवा। (3) कषैला। (4) खट्टा / (5) मीठा। इनके अतिरिक्त दूसरे रस इन्हीं के संयोग से पैदा होते हैं। इस लिये यहाँ पाँच मूल रस ही गिनाये गये हैं। (ठाणंग 5 उद्देशा 1 सूत्र 360)
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________________ 440 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ४१६-पाँच प्रतिघात: प्रतिबन्ध या रुकावट को प्रतिघात कहते हैं। (1) गति प्रतिघात / (2) स्थिति प्रतिघात / (3) बन्धन प्रतिघात। (4) भोग प्रतिघात / (5) बल, वीर्य पुरुषाकार पराक्रम प्रतिघात / (1) गति प्रतिघात:--शुभ देवगति आदि पाने की योग्यता होने हुए भी विरूप (विपरीत ) कर्म करने से उसकी प्राप्ति न होना गति प्रतिघात है / जैसे दीक्षा पालने से कुण्डरीक को शुभ गति पाना था। लेकिन नरक गति की प्राप्ति हुई और इस प्रकार उसके देवगति का प्रतिघात हो गया / (2) स्थिति प्रतिघातः--शुभ स्थिति वान्ध कर अध्यवसाय विशेष से उसका प्रतिघात कर देना अर्थात् लम्बी स्थिति को छोटी स्थिति में परिणत कर देना स्थिति प्रतिघात है। (3) बन्धन प्रतिघात:-बन्धन नामकर्म का मेद है / इसके औदारिक बन्धन आदि पांच भेद हैं। प्रशस्त बन्धन की प्राप्ति की योग्यता होने पर भी प्रतिकूल कर्म करके उसकी घात कर देना और अप्रशस्त बन्धन पाना बन्धन प्रतिधात है। बन्धन प्रतिघात से इसके सहचारी प्रशस्त शरीर, अङ्गोपाङ्ग, संहनन, संस्थान आदि का प्रतिघात भी समझ लेना चाहिये। (4) भोग प्रतिघात:-प्रशस्त गति, स्थिति, बन्धन आदि का प्रतिघात होने पर उनसे सम्बद्ध भोगों की प्राप्ति में होने पर कार्य कैसे हो सकता है ?
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 441 (5) बल वीर्य पुरुषाकार पराक्रम प्रतिघात:--गति, स्थिति आदि के प्रतिघात होने पर भोग की तरह प्रशस्त बल वीर्य पुरुषाकार पराक्रम की प्राप्ति में रुकावट पड़ जाती है। यही बल वीर्य पुरुषाकार पराक्रम प्रतिघात है। शारीरिक शक्ति को बल कहते हैं / जीव की शक्ति को वीर्य कहते हैं / पुरुष कर्तव्य या पुरुषाभिमान को पुरुषकार (पुरुषाकार) कहते हैं। बल और वीर्य का प्रयोग करना पराक्रम है। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 406) ४१७--पांच अनन्तक: (1) नाम अनन्तक। (2) स्थापना अनन्तक / (3) द्रव्य अनन्तका (4) गणना अनन्तक / (5) प्रदेश अनन्तक / (1) नाम अनन्तकः-सचित्त, अचित्त, आदि वस्तु का 'अनन्तक' इस प्रकार जो नाम दिया जाता है वह नाम अनन्तक है / (2) स्थापना अनन्तक:-किसी वस्तु में अनन्तक की स्थापना करना स्थापना अनन्तक है। (3) द्रव्य अनन्तक:-गिनती योग्य जीव या पुद्गल द्रव्यों का अनन्तक द्रव्य अनन्तक है। (4) गणना अनन्तक:-गणना की अपेक्षा जो अनन्तक संख्या है वह गणना अनन्तक है। (5) प्रदेश अनन्तकः--आकाश प्रदेशों की जो अनन्तता है / वह प्रदेश अनन्तक है। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 462)
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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ४१:-पांच अनन्तक: (1) एकतः अनन्तक (2) द्विधा अनन्तक / (3) देश विस्तार अनन्तक (4) सर्व विस्तार अनन्तक / (5) शाखत अनन्तक / (1) एकतः अनन्तक:-एक अंश से अर्थात् लम्बाई की अपेक्षा जो अनन्तक है वह एकतः अनन्तक है / जैसे: एक श्रेणी वाला क्षेत्र / (2) द्विधा अनन्तकः-दो प्रकार से अर्थात् लम्बाई और चौड़ाई की अपेक्षा जो अनन्तक है / वह द्विधा अनन्तक कहलाता है। जैसे:-प्रतर क्षेत्र। (3) देश विस्तार अनन्तक:-रुचक प्रदेशों की अपेक्षा पूर्व पश्चिम आदि दिशा रूप जो क्षेत्र का एक देश है और उसका जो विस्तार है उसके प्रदेशों की अपेक्षा जो अन न्तता है / वह देश विस्तार अनन्तक है। (4) सर्व विस्तार अनन्तक: सारे आकाश क्षेत्र का जो विस्तार है उसके प्रदेशों की अनन्तता सर्व विस्तार अनन्तक है। (5) शाश्वत अनन्तक:--अनादि अनन्त स्थिति वाले जीवादि द्रव्य शाश्वत अनन्तक कहलाते हैं। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 462) ४१६--पाँच निद्रा: दर्शनावरणीय कर्म के नव भेद हैं:चार दर्शन और पांच निद्रा।
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________________ 443 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह दर्शन के चार भेदः (1) चक्षु दर्शन (2) अचक्षु दर्शन / (3) अवधि दर्शन (4) केवल दर्शन। नोट:-चक्षु दर्शन आदि का स्वरूप, बोल नम्बर 166 चे में दिया जा चुका है। निद्रा के पाँच भेद ये हैं:(१) निद्रा (2) निद्रा निद्रा / (5) स्त्यानगृद्धि / (1) निद्राः--जिस निद्रा में सोने वाला सुखपूर्वक धीमी धीमी आवाज से जग जाता है वह निद्रा है / मुश्किल से ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने वा हाथ से हिलाने पर जगता है / वह निद्रा निद्रा है। (3) प्रचलाः-खड़े हुए या बैठे हुए व्यक्ति को जो नींद आती है वह प्रचला है। (4) प्रचला प्रचला:-चलते चलते जो नींद आती है वह प्रचला प्रचला है। (5) स्त्यानगृद्धिः-जिस निद्रा में जीव दिन अथवा रात में सोचा हुआ काम निद्रितावस्था में कर डालता है वह स्त्यानगृद्धि है। वज्र ऋषभ नाराच संहनन वाले जीव को जब स्त्यानगृद्धि निद्रा आती है तब उसमें वासुदेव का आधा बल
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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला आजाता है। ऐसी निद्रा में मरने वाला जीव, यदि आयु न बाँध चुका हो तो, नरक गति में जाता है। (कर्म ग्रन्थ प्रथम भाग) (पन्नवणा पद 23) ४२०--निद्रा से जागने के पाँच कारण: (1) शब्द . (2) स्पर्श / (3) क्षुधा (4) निद्रा क्षय / (5) स्वम दर्शन। इन पाँच कारणों से सोये हुए जीव की निद्रा भङ्ग हो जाती है और वह शीघ्र जग जाता है / (ठाणांग 5 उद्देशा 2 सूत्र 436) ४२१--स्चम दर्शन के पांच भेदः (1) याथातथ्य स्वम दर्शन (2) प्रतान स्वम दर्शन / (3) चिन्ता स्वप्न दर्शन (4) विपरीत स्चम दर्शन / (5) अव्यक्त स्वम दर्शन। (1) याथातथ्य स्वम दर्शनः-स्वम में जिस वस्तु स्वरूप का दर्शन हुआ है / जगने पर उसी को देखना या उसके अनुरूप शुभाशुभ फल की प्राप्ति होना याथातथ्य स्वम दर्शन है। (2) प्रतान स्वम दर्शन:-प्रतान का अर्थ है विस्तार / विस्तार वाला स्वम देखना प्रतान स्वम दर्शन है / वह यथार्थ और अयथार्थ भी हो सकता है। (3) चिन्ता स्वम दर्शनः-जागृत अवस्था में जिस वस्तु की चिन्ता रही हो उसी का स्वम में देखना चिन्ता स्वम दर्शन है।
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 445 (4) विपरीत स्वम दर्शन:-स्वम में जो वस्तु देखी है / जगने पर उससे विपरीत वस्तु की प्राप्ति होना विपरीत स्वम दर्शन है। (5) अव्यक्त स्वम दर्शनः-स्वम विषयक वस्तु का अस्पष्ट ज्ञान होना भव्यक्त स्वम दर्शन है। ४२२-पाँच देवः जो क्रीड़ादि धर्म वाले हैं अथवा जिनकी आराध्य रूप से स्तुति की जाती है वे देव कहलाते हैं। देव पाँच हैं:(१) भव्य द्रव्य देव / (2) नर देव / (3) धर्म देव। (4) देवाधिदेव / (5) भाव देव / (1) भव्य द्रव्य देवः-आगामी भव में देव होकर उत्पन्न होने वाले तिर्यश्च पञ्चेन्द्रिय एवं मनुष्य भव्य द्रव्य देव कहलाते है। (2) नर देवः-समस्त रत्नों में प्रधान चक्र रत्न तथा नवनिधि के स्वामी, समृद्ध कोश वाले, बत्तीस हज़ार नरेशों से अनुगत, पूर्व पश्चिम एवं दक्षिण में समुद्र तथा उत्तर में हिमवान पर्वत पर्यन्त छः खंड पृथ्वी के स्वामी मनुष्येन्द्र चक्रवर्ती नर देव कहलाते हैं। (3) धर्म देवः -श्रुत चारित्र रूप प्रधान धर्म के आराधक, ईर्या आदि समिति समन्वित यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार धर्म देव कहलाते हैं।
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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (4) देवाधि देवः-देवों से भी बढ़कर अतिशय वाले, अत एव उन से भी आराध्य, केवल ज्ञान एवं केवल दर्शन के धारक अरिहन्त भगवान् देवाधिदेव कहलाते हैं। (5) भाव देव:--देवगति, नाम, गोत्र, आयु आदि कर्म के उदय से देव भव को धारण किए हुए भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष और वैमानिक देव भाव देव कहलाते हैं। (ठाणांग 5 उहेशा 1 सूत्र 405) (भगवती शतक 12 उद्देशा 6) ४२३:-शिक्षाप्राप्ति में वाधक पाँच कारण:-- (1) अभिमान / (2) क्रोध। (3) प्रमाद / (4) रोग। (5) आलस्य / ये पांच बातें जिस प्राणी में हों वह शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता / शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक प्राणी को उपगेक्त पांच बातों का त्याग कर शिक्षा प्राप्ति में उद्यम करना चाहिए / शिक्षा ही इह लौकिक और पाग्लौकिक सर्व सुखों का कारण है। (उत्तराध्ययन मूत्र अध्ययन 11 गाथा 3) समातम
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________________ अन्तिम मंगलाचरण:शिवमस्तु सर्वजगतः, परहितनिरताः भवन्तु भूतगणाः / दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवतु लोकः // भावार्थ:-अखिल विश्व का कल्याण हो, जगत के प्राणी परोपकार में लीन रहें, दोष नष्ट हों और सब जगह लोग सदा सुखी रहें।
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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह प्रथम भाग के लिए प्राप्त सम्मतियाँ भाग्नभूपण, शतावधानी पण्डित रत्न मुनि श्री 1008 श्री रत्नचन्द्र जी महागज की सम्मति / श्रावक वर्ग में माहित्य प्रचार करने के क्षेत्र में जितनी लगन साठयाज- श्री अगरचन्दजी भैरोंदानजी सा में दिखाई देती है. उतनी लगन अन्य किमी में क्वचित ही दिग्वार्ड देनी होगी। अभी उन्होंने एक एक बोल का क्रम लेकर शास्त्रीय वस्तुओं का वरूप बताने वाली एक पुस्तक तैयार करने के पीछे अपनी देखरेग्य के अन्दर अपने पण्डितों द्वारा "श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह" के प्रथम भाग को तय्यार करवाने में जो अथाह परिश्रम उठाया है. वह अति प्रशंसनीय है / एक बोल से पाँच बोल तक का विभाग बिल्कुल तैयार होगया है। उस विभाग का अवलोकन तथा सुधार करने के लिए पं० पूर्णचन्द्रजी दक अजमेर तथा पालनपुर आकर उसे आद्योपान्त सुना गए हैं। ___ संक्षेप से पुस्तक जनदृष्टि से बहुत ही उपयोगी है / जैन शैली तथा जैन तत्त्वों को समझने के लिए जैन तथा जैनेतर दोनों को लाभप्रद होगी। ता० 3-7-40 ) पं वसन्ती लाल जैन घाटकोपर c/* उत्तमलाल कीरचन्द (बम्बई) लाल बंगला, घाटकोपर।
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________________ जैन धर्म दिवाकर, जैनागम रत्नाकर, साहित्य रत्न जैन मुनि श्री 1008 उपाध्याय श्री आत्मारामजी महाराज (पञ्जाबी) का सम्मति पत्र श्रीमान पं० श्यामलालजी बी. ए. प्रस्तुत ग्रन्थ को दिखाने यहाँ आये थे। मैंने तथा मेरे प्रिय शिष्य पं० हेमचन्द्रजी ने ग्रन्थ का भली भाँति पर्यवेक्षण किया। यह ग्रन्थ अतीव सुन्दर पद्धति से तैयार किया है / आगमों से तथा अन्य ग्रन्थों से बहुत ही सरस एवं प्रभावशाली बोलों का मंग्रह हृदय में आनन्द पैदा करता है / साधारण जिज्ञासु जनता को इस ग्रन्थ से बहुत अच्छा ज्ञान का लाभ होगा। प्रत्येक जैन विद्यालय में यह प्रन्थ पाठ्य-पुस्तक के रूप में रखने योग्य है / इससे जैन दर्शन सम्बन्धी अधिकांश ज्ञातव्य बातों का सहज ही में ज्ञान होजाता है। श्रीमान् सेठियाजी का तत्त्वज्ञान सम्बन्धी प्रेम प्रशंसनीय है। लक्ष्मी के द्वारा सरस्वती की उपासना करने में सेठियाजी सदा ही अप्रसर रहे हैं / प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रकाशन करके सेठजी ने इस दिशा में सराहनीय उद्योग किया है। ता० 27-6-1940. लुधियाना जैन मुनि उपाध्याय आत्माराम(पञ्जाबी) (पञ्जाब) लुधियाना।
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________________ शुद्धि पत्र ** अशुद्ध पर्याप्तियों पर्याप्तियाँ चौदहवे चौदहवें निश्चय निश्रय माता की समकित है इन में 10 आभिनिबोधिक प्रवृत्ति मरुदेवी माता इस में आभिनिबोधिका प्रवृति भवस्थति पदर्थों सम्यगदृष्टि माने गए हैं गुणस्थातन भवस्थिति पदार्थों सम्यग्दृष्टि मानी गई है गुणस्थान शुरू प्रकृतियाँ प्रकृवियों
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________________ [ ख ] कल्पोपपन्न ग्रैवेयक अशुद्ध कल्पातीत प्रवेयक पुदल पुदल ध्रोव्य योनियों पुद्गल ध्रौव्य योनियाँ योनियों योनियों संवृत सवृत्त संवृत योनि प्रतिपति व्युत् प्राहित्त समकित्त शुद्धियों शुद्धियों करना तथा रूप (श्राकक) पल्पोपम परिमाण एक श्रागमोदम कोड़ा कोड़ी सागरोपप संवृत विवृत योनि प्रतिपत्ति व्युद् ग्राहित समकित शुद्धियाँ शुद्धियाँ करता तथारूप (साधु) पल्योपम परिमाण से एक आगमोदय कोड़ा कोड़ी सागरोपम होती है होता है होने परिणाम परिमाण
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________________ [ ग ] अनानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी 121 103 अषष्ट औपश शमिक अपकाय स्थित्ति असमथ भविष्यत रुप कथा दारिध अस्पष्ट औपशमिक अपकाय स्थिति असमर्थ भविष्यत् रूपकथा दारिद्रय 103 104 107 116 निवृत्ति रूप निवृत्त रुप श्रतस्कन्ध कायवलेश नदी 147 श्रुतस्कन्ध कायक्लेश नन्दी 156 वाग्वैदग्ध्य का का 160 समितियों हकते 187 समितियाँ मय कहते द्रव्यनिक्षेपःरौद्रध्यान समवायांग रोद्रध्यान समवयांग शुवल 195 166
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________________ [ घ ] शुद्ध अमनोज्ञ पृष्ठ अनमोज्ञ 166 167 वियोग परिवेदना संयोग 167 परिदेवना 168 " लता कनरा पृथकत्व लात करना पृथक्त्व 164 206 शुवल शुक्ल 206 के के 210 अनिर्वती अनिवर्ती लिङ्ग अव्यथ लिङ्ग 211 216 उत्करणोत्पादनता अमुत्पन्न लिए अनुकूता लिए उपकरणोत्पादनता अनुत्पन्न लिए अनुकूलता लिए लिए हुए (3) स्तम्भन-हाथ (3) हाथ लिए लिए लिए लिए
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________________ [ ] पृष्ठ अशुद्ध सांसारिक लिए जीवों की सांसारिक 226 227 सम्यग 226 228 सम्यग भयभीत कुमार्ग गामी प्रकृतियाँ निकाचित भयभीत कुमाम गामी प्रकृतियों निकाकित विचित्सिा प्रचार 167 234 236 विचिकित्सा प्रकार 245 267 27 250 271 पुरुष प्रकृतियाँ निरूपित 261 265 271 271 पुरुप प्रकृतियों निरुपित ने ने व्याधियों पायमय संतो किया अदि ठाणांग४ प्रायोगीकी 274 275 व्याधियाँ पापमय संतोष क्रिया आदि ठाणांग५ प्रायोगिकी 280 281 साधनभूत 306
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________________ पृष्ठ सतरह अशुद्ध सतहर कर्मादन शय्य सूक्ष्मम्पराय द्वश कर्मादान शय्या 301 307 311 सूक्ष्म सम्पराय 316 316 द्वेश सामामिक सामायिक 316 317 320 x सम्यग्ज्ञान 322 सम्मरज्ञान रुप कर कर पूजी का 226 रूप कर 323 326 का 332 326 प्रमाण रुपी अप्रमाण रूपी " सम्यक सम्यक 340 342 रूप 357 147 347 357 कुख्यम कूज्यम पराङ्गमुख निर्गुथ 363 पराङ्मुख निर्मन्थ 374 लिङ्ग लिङ्ग
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________________ [ छ ] 364 खजाना अनधिज्ञानी आवारण पूंछाना अठारह लड़ी स्वमी स्त्रियों देवियों राजग्रह सर्वधाती कर्मगन्थ धधुप रसनानेन्द्रिय खज़ाने अवधिज्ञानी आवरण पूछाना अठारह लड़ा स्वामी स्त्रियाँ देवियाँ राजगृह सर्वघाती कर्मग्रन्थ 400 402 403 403 403 408 412 413 416 423 426 430 रसनेन्द्रिय की ऋतु किल्विषी सुवर्णादि ऋतु किल्वषी सुवर्णदि तिश्चर्य नोट- छूटे हुए पाठः 433 तिर्यञ्च 435 पश्चानुपूर्वी:-जिस क्रम में अन्त से प्रारम्भ कर उलटे क्रम से गणना की जाती है, उसे पश्चानुपूर्वी कहते हैं / जैसे:-काल, पुद्रलास्तिकाय जीवास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और धर्मास्तिकाय / पृष्ठ 104 में 19 वीं पंक्ति से आगे:-अर्थात इन भावनाओं वाला जीव यदि कदाचित् देवगति प्राप्त करे तो हीन कोटि का देव होता है। पश्चात् बचे हुए श्राहार की गवेषणा करने वाला साधु अन्तचरक कहलाता है।
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