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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
३३६ (५) भाव प्रतिक्रमण:-आश्रवद्वार, मिथ्यात्व, कषाय और योग में तीन करण तीन योग से प्रवृत्ति न करना भाव प्रतिक्रमण है।
(ठाणांग ५ उद्देशा ३ सूत्र ४६७) (हरिभद्रीयावश्यक प्रतिक्रमणाध्ययन पृष्ठ ५६४) नोट:-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग के
भेद से भी प्रतिक्रमण पांच प्रकार का कहा जाता है किन्तु वास्तव में ये और उपरोक्त पांचों भेद एक ही हैं। क्योंकि
अविरति और प्रमाद का समावेश आश्रवद्वार में हो जाता है ३३०--प्रासैषणा (मांडला) के पांच दोषः
(१) संयोजना (२) अप्रमाण (३) अंगार (४) धूम
(५) अकारण । इन दोषों का विचार साधुमंडली में बैठ कर भोजन करते समय किया जाता है । इस लिये ये 'मांडला'
के दोष भी कहे जाते हैं। (१) संयोजना:-उत्कर्षता पैदा करने के लिये एक द्रव्य
का दूसरे द्रव्य के साथ संयोग करना संयोजना दोष है। जेसे रस लोलुपता के कारण दूध, शक्कर, घी आदि
द्रव्यों को स्वाद के लिये मिलाना । (२) अमाणः-स्वाद के लोभ से भोजन के परिमाण का ___ अतिक्रमण कर अधिक आहार करना अप्रमाण दोष है। (३) अङ्गार:-स्वादिष्ट, सरस आहार करते हुए आहार की
या दाता की प्रशंसा करना अङ्गार दोष है । जैसे अग्नि से जला हुआ खदिर आदि इन्धन अङ्गारा (कोयला) हो