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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला शुभ योगों से अशुभ योग में गये हुए पुरुष का वापिस शुभ योग में आना प्रतिक्रमण है । कहा भी हैस्वस्थानात् यत् परस्थानं, प्रमादस्य वशाद् गतम् । तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥१॥ _अर्थात् प्रमादवश आत्मा के निज गुणों को त्याग कर पर गुणों में गये हुए पुरुष का वापिस आत्म गुणों में लौट आना प्रतिक्रमण कहलाता है। विषय भेद से प्रतिक्रमण पांच प्रकार का है(१) आश्रवद्वार प्रतिक्रमण (२) मिथ्यात्व प्रतिक्रमण (३) कषाय प्रतिक्रमण (४) योग प्रतिक्रमण
(५) भावप्रतिक्रमण (१) आश्रवद्वार (असंयम ) प्रतिक्रमणः-आश्रव के द्वार
प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, और परिग्रह, से निवृत्त होना, पुनः इनका सेवन न करना आश्रवद्वार
प्रतिक्रमण है। (२) मिथ्यात्व प्रतिक्रमणः--उपयोग, अनुपयोग या सहसा
कारवश आत्मा के मिथ्यात्व परिणाम में प्राप्त होने पर
उससे निवृत्त होना मिथ्यात्व प्रतिक्रमण है।। (३) कषाय प्रतिक्रमणः-क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषाय
परिणाम से आत्मा को निवृत्त करना कषाय प्रतिक्रमण है। (४) योग प्रतिक्रमणः--मन, वचन, काया के अशुभ व्यापार प्राप्त
होने पर उनसे आत्मा को पृथक करना योग प्रतिक्रमण है।